हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 3 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 3 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

महाबीर बिक्रम बजरंगी।

कुमति निवार सुमति के संगी।।

कंचन बरन बिराज सुबेसा।

कानन कुंडल कुंचित केसा।।

अर्थ-

श्री हनुमान आप एक महान वीर और सबसे अधिक बलवान हैं, आपके अंग  वज्र के समान मजबूत हैं। आपकी आराधना करके नकारात्मक बुद्धि और सोच का नाश होता है।  सद्बुद्धि आती है। आपका रंग कंचन अर्थात सोने जैसा चमकदार है। आपके कानों में पड़े कुंडल और घुंघराले केश आपकी शोभा को बढ़ाते हैं।

भावार्थ:-

अगर आपको किसी को प्रसन्न करना है तो सबसे पहले उसके गुणों का वर्णन करना पड़ेगा। श्री हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए तुलसीदास जी उनके गुणों का बखान कर रहे हैं। महावीर हनुमान जी दया त्याग विद्या की खान हैं। हनुमान जी का वीरता में कोई मुकाबला नहीं है इसीलिए उनको महावीर कहा जाता है। अत्यंत पराक्रमी और अजेय होने के कारण हनुमान जी विक्रम और बजरंगी भी हैं। प्राणी मात्र के परम हितेषी होने के कारण उन्हें बचाने के लिए प्राणियों के मस्तिष्क से खराब विचार हटाकर अच्छे विचारों को डालते हैं।

इस चौपाई में हनुमान जी के सुंदर स्वरूप का वर्णन हुआ है। उनके एक हाथ में वज्र के समान गदा है और दूसरे हाथ में सनातन धर्म का विजय ध्वज है। उनके कंधे पर मूंज का जनेऊ विराजमान है। यह उनके ब्रह्मचारी एवं ज्ञानी होने का प्रतीक है। सभी प्रकार के अच्छे गुणों से श्री हनुमान जी सुसज्जित हैं।

संदेश-

अगर आप श्री हनुमान जी के स्वरूप का स्मरण करते हैं तो आपकी बुद्धि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और वह शुद्ध हो जाती है।

इस चौपाई के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ:

1-महाबीर बिक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी।

हनुमान चालीसा की इस चौपाई से बुरी संगत से छुटकारा और अच्छे लोगो का साथ मिलता है।

2-कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥

हनुमान चालीसा की इस चौपाई से आर्थिक समृद्धि अच्छा खान-पान, संस्कार और पहनावा प्राप्त होता है

विवेचना:-

इस चौपाई में मुख्य रूप से हनुमान जी के भौतिक शरीर का वर्णन है। हनुमान जी को महावीर विक्रम बजरंगी, कंचन वर्ण वाले अच्छे कपड़े पहनने वाले कानों में कुंडल वाले और  घुंघराले केश वाले बताया गया है परंतु सबसे पहले उनको महावीर कहा गया है। सच्चे वीर पुरुष में धैर्य, गम्भीरता, स्वाभिमान, साहस आदि गुण होते हैं। उनमें उच्च मनोबल, पवित्रता और सबके प्रति प्रेम की भावना होती है। महावीर के अंदर इन गुणों की मात्रा अनंत होती है।  अनंत का अर्थ होता है जिसकी कोई सीमा न हो, जिसको नापा ना जा सके, जिसकी कोई तुलना ना हो सके आदि। हनुमान जी का एक नाम महावीर भी प्रचलित है। महावीर वह होता है जो सभी तरह से सभी दुखों और कष्टों से रक्षा कर सकें और रक्षा करता हो। क्योंकि हनुमान जी यह सब करने में सक्षम है तथा सब की रक्षा करते हैं अतः उनको महावीर कहा गया है। कवि उनके विक्रम बलशाली महावीर रूप की आराधना सबसे पहले करना चाहते है जिससे सभी की रक्षा हो सके।

हनुमान जी को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए और इस चौपाई में दिए गए वर्णन को सिद्ध करने के लिए रामचरितमानस के सुंदरकांड का तीसरा श्लोक पर्याप्त है :-

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं  दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।

श्री हनुमान जी अतुलित बल के स्वामी हैं। वे स्वर्ण पर्वत, सुमेरु के समान प्रकाशित हैं। श्री हनुमान दानवों के जंगल को समाप्त करने के लिए अग्नि रूप में हैं। वे ज्ञानियों में अग्रणी रहते हैं। श्री हनुमान समस्त गुणों के स्वामी हैं और वानरों के प्रमुख हैं। श्री हनुमान रघुपति श्री राम के प्रिय और वायु पुत्र हैं।

हनुमान जी महावीर है इस बात को श्री रामचंद्र जी, अगस्त मुनि, सीता जी ने और अंत में रावण ने भी कहा है। हनुमान जी के ताकत का अनुमान देवताओं के राजा इंद्र और सूर्य देव को भी है, जिन्होंने हनुमान जी के ताकत का स्वाद चखा था। हनुमान जी के बल का अनुमान भगवान कृष्ण को भी है जिन्होंने भीम के घमंड को तोड़ने के लिए हनुमान जी को चुना था।

अब चौपाई के अगले चरण पर आते हैं जिसमें कहा गया है “कुमति निवार सुमति के संगी”

हमको यह समझना पड़ेगा सुमति और कुमति  में क्या अंतर है। अगर हम साधारण अर्थ में समझना चाहें तो कुमति  का अर्थ है नकारात्मक विचार और सुमति का अर्थ है सकारात्मक विचार। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने कहा है लिखा है:-

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥

जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥

हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥

व्यक्ति को सुख-समृद्धि पाने के लिए, प्रगति एवं विकास के लिए हमेशा सुबुद्धि से काम लेकर सुविचारित ढंग से अपना प्रत्येक कार्य निष्पादित करना चाहिए। सुमति का मार्ग ही मानव के कल्याण का मार्ग है। हनुमान जी आपके बुद्धि से कुमति को हटा करके सुमति को लाते हैं। इसके कारण आप  कल्याण के मार्ग पर चलने लगते हैं और बुद्धि  अच्छे कार्य करने के योग्य बन जाती है।

कुमति के मार्ग से हटाकर सुमति के मार्ग पर लाने का सबसे अच्छा उदाहरण सुग्रीव के मानसिक स्थिति के परिवर्तन का है। सुग्रीम जी जब बाली के वध के बाद किष्किंधा के राजा हो गए थे। इसके उपरांत वे अपनी पत्नी रमा और बाली की पत्नी तारा के साथ मिलकर  आमोद प्रमोद में मग्न हो गये थे। कुमति  पूरी तरह से उनके दिमाग पर छा गई थी। अपने मित्र श्री रामचंद्र जी के कार्य को पूरी तरह से भूल गए थे।  हनुमान जी ने सुग्रीव की स्थिति को समझा तथा संभाषण के उपरोक्त गुणों से संपन्न हनुमान जी ने उचित अवसर जानकर  उपयुक्त परामर्श देते हुए वानर राज सुग्रीव से कहा हे राजा यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के बाद उन्हें मित्र (अर्थात श्री रामचंद्र जी) का बाकी कार्य पूर्ण करना चाहिए।

इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा॥

निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥1॥

 सुनि सुग्रीवँ परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना॥

अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा॥2॥

यहाँ (किष्किन्धा नगरी में) पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्री रामजी के कार्य को भुला दिया। उन्होंने सुग्रीव के पास जाकर चरणों में सिर नवाया। (साम, दान, दंड, भेद) चारों प्रकार की नीति कहकर उन्हें समझाया।

हनुमान्‌जी के वचन सुनकर सुग्रीव ने बहुत ही भय माना। (और कहा-) विषयों ने मेरे ज्ञान को हर लिया। अब हे पवन सुत! जहाँ-तहाँ वानरों के समूह रहते हैं, वहाँ दूतों के समूहों को भेजो।

इस प्रकार हनुमान जी सुग्रीव को कुमति से सुमति के रास्ते पर लाए और रामचंद्र जी के कोप से उनको बचाया।

कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥

इस लाइन में तुलसीदास जी ने हनुमान जी के काया का शरीर का वर्णन किया है।  तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी के शरीर का रंग कंचन वरन अर्थात सोने के समान है या सोने के रंग जैसा हनुमान जी का रंग है। इन दोनों बातों में बहुत बड़ा अंतर है। सोने के समान रंग होना या सोने के रंग जैसा होना दोनों बातें बिल्कुल अलग है। हमारे समाज में हम हर अच्छी चीज को सोने जैसा बोल देते हैं। जैसे कि आपकी लेखनी सोने जैसी सुंदर है। यहां पर आपकी लेखनी सोने की नहीं है वरन जिस प्रकार सोना महत्वपूर्ण है उसी प्रकार आपकी लेखनी भी महत्वपूर्ण है। सोना चमकता और एक बलशाली पुरुष का शरीर भी  चमकता है। शरीर की मांसपेशियां उसकी ताकत को बताती है। सोने का रंग पीला होता है और भारतवर्ष में गोरे लोग दो तरह के होते हैं। कुछ गोरे लोगों में लाल रंग की छाया होती है। और कुछ गोरे लोगों में पीले रंग की। अगर हम सोने के शाब्दिक अर्थ को लें तो हनुमान जी का रंग गोरा कहा जाएगा जिस पर पीले रंग की छाया होनी चाहिए। यह संभव भी है क्योंकि हनुमान जी पवन देव के पुत्र थे और देवताओं का रंग गोरा माना जाता है। यह गोरा रंग तो और ज्यादा दिखाई देता है जब आदमी व्यायाम करके उठा हो या उत्तेजित अवस्था में हो।

श्री देवदत्त पटनायक जी ने अपनी किताब “मेरी हनुमान चालीसा” जिसका अनुवाद श्री भरत तिवारी जी ने किया है उसके पृष्ठ क्रमांक 35 पर बताते हैं कि “सुनहरे रंग का होना हमें याद दिलाता है कि हनुमान सुनहरे बालों वाले वानर हैं। लेकिन कान का बुंदा और घुंघराले बाल उनकी मानव जाति को दर्शाते हैं। क्योंकि गहना मानव ही पहनता है और मानव के सर पर बाल होते हैं।” हनुमान जी के वानर या मानव होने के विवाद में पटनायक जी नहीं उलझे हैं। उन्होंने शायद इसको विचार योग्य विषय नहीं पाया है। महाकाव्य रामायण के अनुसार, हनुमान जी को वानर के मुख वाले अत्यंत बलिष्ठ पुरुष के रूप में दिखाया जाता है। उनके कंधे पर जनेऊ लटका रहता है। हनुमान जी को मात्र एक लंगोट पहने अनावृत शरीर के साथ दिखाया जाता है। वह मस्तक पर स्वर्ण मुकुट एवं शरीर पर स्वर्ण आभूषण पहने दिखाए जाते है। उनकी वानर के समान लंबी पूँछ है। उनका मुख्य अस्त्र गदा माना जाता है।

 परंतु आइए हम इस पर विचार करते हैं। सामान्य जन मानते हैं कि हनुमान जी बंदर समूह के थे। परंतु कोई भी बंदर स्वर्ण के रंग का नहीं हो सकता है। कानों में कुंडल, सज-धज के बैठना घुंघराले बाल और कानों में बुंदा किसी भी बंदर के लक्षण नहीं हो सकते हैं। हनुमान चालीसा की  यह चौपाई बता रही है कि हनुमान जी बंदर नहीं बल्कि  मानव थे। फिर यह वानर किस प्रकार का है जिसके पूछ भी थी और क्या अब तक की मान्यता गलत थी। आइए इस पर विचार करते हैं।

 अगर हम हनुमान जी को बंदर नहीं बल्कि वानर कुल  का मानते हैं तो इसका प्रमाण क्या है?

बहुत प्राचीनकाल में आर्य लोग हिमालय के आसपास ही रहते थे। वेद और महाभारत पढ़ने पर हमें पता चलता है कि आदिकाल में प्रमुख रूप से ये जातियां थीं- देव, मानव, दानव, राक्षस, वानर, यक्ष, गंधर्व, भल्ल, वसु, अप्सराएं, पिशाच, सिद्ध, मरुदगण, किन्नर, चारण, भाट, किरात, रीछ, नाग, विद्‍याधर,,  आदि। देवताओं को सुर तो दैत्यों को असुर कहा जाता था।

देवता गण  कश्यप ऋषि और अदिति की संतान हैं और ये सभी हिमालय के नंदन कानन वन में रहते थे।  गंधर्व, यक्ष और अप्सरा आदि देव या देव समर्थक जातियां देवताओं के साथ ही हिमालय के भूभाग पर रहा करती थी।

असुरों को दैत्य कहा जाता है। दैत्यों की कश्‍यप और इनकी दूसरी  पत्नी दिति से उत्पत्ति हुई थी। इसी प्रकार  ऋषि कश्यप के अन्य पत्नियों से दानव एवं राक्षस तथा अन्य जातियों की उत्पत्ति हुई।

इसी प्रकार वानरों की कई प्रजातियां प्राचीनकाल में भारत में रहती थी। हनुमानजी का जन्म कपि नामक वानर जाति में हुआ था। शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो आज से 15 से 12 हजार वर्ष पूर्व लुप्त होने लगी थी और अंतत: लुप्त हो गई। इस जाति का नाम ‘कपि’ था। भारत के दंडकारण्य क्षेत्र में वानरों और असुरों का राज था। हालांकि दक्षिण में मलय पर्वत और ऋष्यमूक पर्वत के आसपास भी वानरों का राज था। इसके अलावा जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, मलेशिया, माली, थाईलैंड जैसे द्वीपों के कुछ हिस्सों पर भी वानर जाति का राज था।

ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। उल्लेखनीय है कि उरांव आदिवासी से संबद्ध लोगों द्वारा बोली जाने वाली कुरुख भाषा में ‘टिग्गा’ एक गोत्र है जिसका अर्थ वानर होता है। कंवार आदिवासियों में एक गोत्र है जिसे हनुमान कहा जाता है। इसी प्रकार, गिद्ध कई अनुसूचित जनजातियों में एक गोत्र है। ओराँव या उराँव वर्तमान में  छोटा नागपुर क्षेत्र का एक आदिवासी समूह है। ओराँव अथवा उराँव नाम इस समूह को दूसरे लोगों ने दिया है। अपनी लोकभाषा में यह समूह अपने आपको ‘कुरुख’ नाम से वर्णित करता है।

उराँव भाषा द्रविड़ परिवार की है जो समीपवर्ती आदिवासी समूहों की मुंडा भाषाओं से सर्वथा भिन्न है। उराँव भाषा और कन्नड में अनेक समताएँ हैं। संभवत: इन्हें ही ध्यान में रखते हुए, श्री गेट ने १९०१ की अपनी जनगणना की रिपोर्ट में यह संभावना व्यक्त की थी कि उराँव मूलत: कर्नाटक क्षेत्र के निवासी थे। शरतचंद्र राय जी ने अपनी पुस्तक ‘दि ओराँव’  और धीरेंद्रनाथ मजूमदार ने अपनी पुस्तक ‘रेसेज़ ऐंड कल्चर्स ऑव इडिया’ में इसका विस्तृत रूप से उल्लेख किया है।

अगर हम ध्यान दें तो कपि कुल के पुरुषों के पास लांगूलम् (पूंछ) होता था परंतु स्त्रियों के पास नहीं। 

वर्तमान बंदरों में पूछ नर और मादा दोनों प्रकार के बंदरों में होती है। अतः  यह कहना क्योंकि हनुमान जी के पास  पूछं थी अतः वे बंदर थे सही प्रतीत नहीं होता है।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी समस्त  उपनिषदों और व्याकरण इत्यादि के ज्ञाता थे। अलौकिक ब्रह्मचारी महावीर चतुर और बुद्धिमान रामचंद्र जी के परम सेवक हनुमान जी बंदर नहीं हो सकते हैं। हमारे कई विद्वानों ने हनुमान जी को बंदर मानकर उनके साथ एक बहुत बड़ा अन्याय किया है हम नादान स्वयं ही अपनी छवि खराब करते हैं।

जब राम व लक्ष्मण भगवती सीता की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे। सुग्रीव के डर को देखकर हनुमान जी तत्काल श्री राम और लक्ष्मण जी से मिलने के लिए चल पड़े। उन्होंने अपना  रूप बदलकर ब्राह्मण का रूप धारण कर लिया। श्री राम व लक्ष्मण के पास जाकर अपना परिचय दिया तथा उनका परिचय लिया। तत्पश्चात् श्री राम ने अनुज लक्ष्मण से कहा-

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्।।

 (वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक २८ ) 

 जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अनुश्रवण नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।

 नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।

 बहु व्याहरतानेन न किंचिदपश    िदतम्।। 

 (-वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग श्लोक २९ )

 अर्थः- निश्चय ही इन्होंने  व्याकरण  का अनेक बार अध्ययन किया है। यही कारण है कि इनके इतने समय बोलने में इन्होंने कोई भी त्रुटि नहीं की है।

न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा। अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।।

 (वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक ३०) 

अर्थ:-  बोलने के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ।

इससे स्पष्ट है कि हनुमान वेदों के विद्वान् तो थे ही, व्याकरण के उत्कृष्ट ज्ञाता भी थे । उनके शरीर के सभी अंग अपने-अपने करणीय कार्य उचित रूप में ही करते थे। शरीर के अंग जड़ पदार्थ हैं व मनुष्य का आत्मा ही अपने उच्च संस्कारों से उच्च कार्यों के लिए शरीर के अंगों का प्रयोग करता है।        

क्या किसी बन्दर में यह योग्यता हो सकती है कि वह वेदों का विद्वान् बने? व्याकरण का विशेष ज्ञाता हो? अपने शरीर की उचित देखभाल भी करे? रामायण का दूसरा प्रमाण इस विषय में प्रस्तुत करते हैं। यह प्रमाण तब का है, जब अंगद, व हनुमान आदि समुद्रतट पर बैठकर समुद्र पार जाकर सीता जी की खोज करने के लिए विचार कर रहे थे। तब  जामवंत जी ने हनुमान जी को उनकी  कथा सुनाकर समुद्र लङ्घन के लिए उत्साहित किया। केवल एक ही श्लोक वहाँ से उद्धृत है-

सत्वं केसरिणः पुत्रःक्षेत्रजो भीमविक्रमः।

मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।।

(वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सप्तषष्टितम सर्ग, श्लोक २९)

अर्थ- हे वीरवर! तुम केसरी के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो।

इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे परन्तु उनकी माता अंजनी ने पवन नामक पुरुष से नियोग द्वारा प्राप्त किया था।

हनुमान को मनुष्य न मानकर उन्हें बन्दर मानने वालों से हमारा निवेदन है कि इन दो प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि हनुमान जी बन्दर न थे, अपितु वे एक नियोगज पुत्र थे। नियोग प्रथा मनुष्य समाज में अतीत में प्रचलित थी। यह प्रथा बन्दरों में प्रचलित होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रामायण के इस प्रबल प्रमाण के होते हुए हनुमान जी को मनुष्य मानना ही पड़ेगा।

रामायण में ही तीसरा प्रमाण भी है। जब हनुमान जी  लंका के अंदर प्रवेश करने के उपरांत सीता माता का पता नहीं लगा पाए,तब वह सोचने लगे :-

सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्कि न्धां नगरीमितः।

वानप्रस्थो भविष्यामि ह्यदृष्ट्वा जनकात्मजाम्।।

(वा. रा., सुन्दरकाण्ड, सप्तम सर्ग )

मैं यहाँ से लौटकर किष्किन्धा नहीं जाऊँगा। यदि मुझे सीता जी के दर्शन नहीं हुए तो मैं वानप्रस्थ धारण कर लूँगा।

वानप्रस्थ जाने के बारे में कोई मनुष्य की सोच सकता है बंदर नहीं। मेरा अपने पौराणिक भाई बहनों से निवेदन है कि वह अपना हक त्याग कर हनुमान जी को भगवान शिव के अवतार के रूप में मानव शरीर धारण किए हुए देवता माने।

हनुमान चालीसा में भी कहा गया है :-

हाथ वज्र औ ध्वजा विराजे

कांधे मूंज जनेऊ साजे

किंचित हम चौपाई से यह अर्थ से निकाल लेते कि जनेऊ धारण करने वाला बंदर नहीं हो सकता मनुष्य ही होगा।

वाल्मीकि जी ने बाली की पत्नी तारा को आर्य पुत्री कहा है।  इससे यह स्पष्ट है की बाली और बाकी वानर भी आर्य पुत्र ही थे अर्थात मनुष्य थे। तारा को आर्य पुत्री घोषित करते हुए बाल्मीकि रामायण का यह श्लोक दृष्टव्य है।

तस्येन्द्रकल्पस्य दुरासदस्य महानुभावस्य समीपमार्या।

 आर्तातितूर्णां व्यसनं प्रपन्ना जगाम तारा परिविह्वलन्ती।।

 वा. रा. किष्किंधा काण्ड, चतुर्विंश सर्ग श्लोक २९ )

– ‘‘उस समय घोर संकट में पड़ी हुई शोक पीड़ित आर्या तारा अत्यन्त विह्वल हो गिरती-पड़ती तीव्र गति से महेन्द्र तुल्य दुर्जय वीर श्री राम के पास गई।

आज भी हमारे भारतवर्ष में नाग, सिंह, गिरी, हाथी, मोर उपनाम के लोग मिलते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं उस समय हनुमान जी और उनके कुल के लोगों का उपनाम वानर रहा होगा।

आगे तुलसीदास जी कहते हैं “विराज सुवेशा।” इसका अर्थ है कि हनुमानजी सज धज कर बैठे हुए हैं। हनुमान जी के सर पर मुकुट है कंधे पर जनेऊ है और गदा है। लंगोट बांधे हुए हैं। एक वीर और बहुत ही ताकतवर पुरुष की आकृति दिखाई देती है। उनकी सुंदरता का वर्णन करते हुए कवि कहता है उनके कानों में कुंडल है और उनके जो बाल हैं वे घुंघराले हैं। किसी भी वानर का बाल घुंघराले नहीं होता है। यह भी इस बात को सिद्ध करता है कि हनुमान जी एक मानव थे।

वर्तमान में जितने भी प्रमाण उपलब्ध हैं उन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि हनुमानजी बंदर नहीं थे। वे मानव थे और उनका कुल वानर था। पूंछ संभवतः अलग से जुड़ा जाने वाला कोई कोड़े टाइप का अस्त्र था जिससे वानर कुल के लोग अपने पास रखते थे और वह उनके कुल का परिचायक था।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #168 ☆ हॉउ से हू तक ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख हॉउ से हू तक। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 168 ☆

☆ हॉउ से हू तक

‘दौलत भी क्या चीज़ है, जब आती है तो इंसान खुद को भूल जाता है, जब जाती है तो ज़माना उसे भूल जाता है।’ धन-दौलत, पैसा व पद-प्रतिष्ठा का नशा अक्सर सिर चढ़कर बोलता है, क्योंकि इन्हें प्राप्त करने के पश्चात् इंसान अपनी सुधबुध खो बैठता है … स्वयं को भूल जाता है। तात्पर्य यह है कि धन-सम्पदा पाने के पश्चात् इंसान अहं के नशे में चूर रहता है और उसे अपने अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। उस स्थिति में उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता…सब पराए अथवा दुश्मन नज़र आते हैं। वह दौलत के नशे के साथ-साथ शराब व ड्रग्स का आदी हो जाता है। सो! उसे समय, स्थान व परिस्थिति का लेशमात्र भी ध्यान तक नहीं रहता और संबंध व सरोकारों का उसके जीवन में अस्तित्व अथवा महत्व नहीं रहता। इस स्थिति में वह अहंनिष्ठ मानव अपनों अर्थात् परिवार व बच्चों से दूर…बहुत…दूर चला जाता है और वह अपने सम्मुख  किसी के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता। वह मर्यादा की सभी सीमाओं को लाँघ जाता है और रास्ते में आने वाली बाधाओं के सिर पर पाँव रख कर आगे बढ़ता चला जाता है और उसकी यह दौड़ उसे कहीं भी रुकने नहीं देती।

धन-दौलत का आकर्षण न तो कभी धूमिल पड़ता है; न ही कभी समाप्त होता है। वह तो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ता चला जाता है। यह प्रसिद्ध कहावत है…’पैसा ही पैसे को खींचता है।’ दूसरे शब्दों में इंसान की पैसे  की हवस कभी समाप्त नहीं होती…सो! उसे उचित-अनुचित में भेद नज़र आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। धन कमाने का नशा उस पर इस क़दर हावी होता है कि वह राह में आने वाले  आगंतुकों-विरोधियों को कीड़े-मकोड़ों की भांति रौंदता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है। इस मन:स्थिति में वह पाप-पुण्य के भेद को नकार; अपनी सोच व निर्णय को सदैव उचित ठहराता है।

इस दुनिया के लोग भी धनवान अथवा दौलतमंद  इंसान को सलाम करते हैं अर्थात् करने को बाध्य होते हैं…  और यह उनकी नियति होती है। परंतु दौलत के खो जाने के पश्चात् ज़माना उसे भूल जाता है, क्योंकि  यह तो ज़माने का चलन है। परंतु इंसान माया के भ्रम में सांसारिक आकर्षणों व दुनिया-वी चकाचौंध में इस क़दर खो जाता है कि उसे अपने आत्मज भी अपने नज़र नहीं आते; दुश्मन प्रतीत होते हैं। एक लंबे अंतराल के पश्चात् जब वह उन अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, तो वे भी उसे नकार देते हैं। अब उनके पास उस अहंनिष्ठ इंसान के लिए समय का अभाव होता है। यह सृष्टि का नियम है कि जैसा आप इस संसार में करते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। यह तो हुई आत्मजों अर्थात् अपने बच्चों की बात, जिन्हें अच्छी परवरिश व सुख- सुविधाएं प्रदान करने के लिए वह दिन-रात परिश्रम करता रहा; ठीक-ग़लत काम करता रहा…परंतु उन्हें समय व स्नेह नहीं दे पाया, जिसकी उन्हें दरक़ार थी; जो उनकी प्राथमिक आवश्यकता थी।

‘फिर ग़ैरों से क्या शिक़वा कीजिए… दौलत के समाप्त होते ही अपने ही नहीं, ज़माने अर्थात् दुनिया भर के लोग भी उसे भुला देते हैं, क्योंकि वे संबंध स्वार्थ के थे;  स्नेह सौहार्द के नहीं।’ मैं तो संबंधों को रिवाल्विंग चेयर की भांति मानती हूं। आपने मुंह दूसरी ओर घुमाया; अवसरवादी बाशिंदों के तेवर भी बदल गए, क्योंकि आजकल संबंध सत्ता व धन-संपदा से जुड़े होते हैं… सब कुर्सी को सलाम करते हैं। जब तक आप उस पर आसीन हैं, सब ठीक चलता है; आपको झूठा मान-सम्मान मिलता है, क्योंकि लोग आपसे हर उचित-अनुचित कार्य की अपेक्षा रखते हैं। वैसे भी समय पर तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है… सो! इंसान की तो बात ही अलग है।

लक्ष्मी का तो स्वभाव ही चंचल है, वह एक स्थान पर ठहरती ही कहाँ है। जब तक वह मानव के पास रहती है, सब उससे पूछते हैं ‘हॉउ आर यू’ और लक्ष्मी के स्थान परिवर्तन करने के पश्चात् लोग कहते हैं ‘हू आर यू।’ इस प्रकार लोगों के तेवर पल-भर में बदल जाते हैं। ‘हॉउ’ में स्वीकार्यता है—अस्तित्व-बोध की और आपकी सलामती का भाव है, जो यह दर्शाता है कि वे लोग आपकी चिंता करते हैं…विवशता-पूर्वक या मन की गहराइयों से… यह और बात है। परंतु ‘हॉउ’ को ‘हू’ में बदलने में पल-भर का समय भी नहीं लगता। ‘हू’ अस्वीकार्यता बोध…आपके अस्तित्व से बे-खबर अर्थात् ‘कौन हैं आप?’ ‘कैसे से कौन’ प्रतीक है स्वार्थपरता का; आपके प्रति निरपेक्षता के भाव का; अस्तित्वहीनता का तथा यह प्रतीक है मानव के संकीर्ण भाव का, क्योंकि उगते सूर्य को सब सलाम करते हैं और डूबते सूर्य को निहारना भी लोग अपशकुन मानते हैं। आजकल तो वे बिना काम अर्थात् स्वार्थ के ‘नमस्ते’अथवा ‘दुआ सलाम’ भी नहीं करते।

इस स्थिति में चिन्ता तथा तनाव का होना अवश्यंभावी है। वह मानव को अवसाद की स्थिति में धकेल देता है; जिससे मानव लाख चाहने पर भी उबर नहीं पाता। वह अतीत की स्मृतियों में अवगाहन कर संतोष का अनुभव करता है। उसके सम्मुख प्रायश्चित करने के अतिरिक्त दूसरा विकल्प होता ही नहीं। सुख व्यक्ति के अहं की परीक्षा लेता है, तो दु:ख उसके धैर्य की…दोनों स्थितियों अथवा परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाले व्यक्ति का जीवन सफल कहलाता है। यह भी अकाट्य सत्य है कि सुख में व्यक्ति फूला नहीं समाता; उस के कदम धरा पर नहीं पड़ते…वह अहंवादी हो जाता है और दु:ख के समय वह हैरान-परेशान होकर अपना धैर्य खो बैठता है। वह अपनी नाकामी अथवा असफलता का ठीकरा दूसरों के सिर पर फोड़ता है। इस उधेड़बुन में वह सोच नहीं पाता कि यह संसार दु:खालय है और सुख बिजली की कौंध की मानिंद जीवन में दस्तक देता है…परंतु बावरा मन उसे स्थायी समझ कर अपनी बपौती स्वीकार बैठता है और उसके जाने के पश्चात् वह शोकाकुल हो जाता है।

सुख-दु:ख का चोली दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा आता है। जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारों का रहना असंभव है; उसी प्रकार दोनों का एक छत्र-छाया में रहना भी असंभव है। परंतु सुख-दु:ख को साक्षी भाव से देखना अथवा सम रहना आवश्यक है। दोनों अतिथि हैं–जो आया है, उसका लौटना भी निश्चित है। इसलिए न किसी के आने की खुशी, न किसी के जाने का ग़म-शोक मनाना चाहिए। हर स्थिति में सम रहने का भाव सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। इसलिए सुख में अहं को शत्रु समझना आवश्यक है और दु:ख में अथवा दूसरे कार्य में धैर्य का दामन छोड़ना स्वयं को मुसीबत में डालने के समान है। जीवन में कभी भी किसी को छोटा समझ कर किसी की उपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि आवश्यकता के समय पर हर व्यक्ति व वस्तु का अपना महत्व होता है। सूई का काम तलवार नहीं कर सकती। मिट्टी, जिसे आप पाँव तले रौंदते हैं; उसका एक कण भी आँख में पड़ने पर इंसान की जान पर बन आती है। सो! जीवन में किसी तुच्छ वस्तु व व्यक्ति की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए… उसे स्वयं से अर्थात् उसकी प्रतिभा को ग़लती से भी कम नहीं आँकना चाहिए।

पैसे से सुख-सुविधाएं तो खरीदी जा सकती हैं, परंतु मानसिक शांति नहीं। इसलिए दौलत का अभिमान कभी मत कीजिए। पैसा तो हाथ का मैल है; एक स्थान पर कभी नहीं ठहरता। परमात्मा की कृपा से पलक-झपकते ही रंक राजा बन सकता है; पंगु पर्वत लाँघ सकता है और अंधा देखने लग जाता है। इस जन्म में इंसान को जो कुछ भी मिलता है; उसके पूर्वजन्म के कर्मों का फल होता है…फिर अहं कैसा? गरीब व्यक्ति अपने कृतकर्मों का फल भोगता है…फिर उसकी उपेक्षा व अपमान क्यों? इसलिए मानव को हर स्थिति में सामंजस्य बनाए रखना चाहिए…यही सफलता का मूल है। समन्वय, सामंजस्यता का जनक है, उपादान है; जो जीवन में समरसता लाता है। यह कैवल्य अर्थात् अलौकिक आनंद की स्थिति है, जिसमें ‘हॉउ आर यू’ और ‘हू आर यू’ का वैषम्य भाव समाप्त हो जाता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 134 ☆ चिंतनशीलता ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “चिंतनशीलता। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 133 ☆

☆ चिंतनशीलता 

समय के साथ- साथ चलते हुए लोग अक्सर आगे निकल जाते हैं। जब निरंतरता हो तो कोई भी कार्य आसानी से होता है, ऐसा लगता है मानो चमत्कार हो रहा है। एक साथ इतने सारे रिकॉर्ड बनते जाना, सबको एक टीम में जोड़कर रखना, सबकी उन्नति के रास्ते खोलना, हर चेहरे पर मुस्कुराहट हो, इस सबका ध्यान जिसने रखा वो न सिर्फ स्वयं सफल होता है बल्कि औरों को भी अपनी बराबरी पर ला खड़ा करता है। ऐसा आजकल यूट्यूबरों द्वारा देखने में आ रहा है। सही भी है जो दोगे वही वापस मिलेगा अब तो इस बात को लोगों ने समझना शुरू कर दिया है।

नेटवर्क मार्केटिंग तो इसी सिद्धांत पर चलती है। एक चेन बनाओ फिर चक्र के रूप में सभी लाभान्वित होते रहिए। बस बात यहीं आकर रुकती है, कि परिश्रम की यात्रा का लक्ष्य किस हद तक पूरा हुआ है। जब आप अनुभवों के साथ जीना शुरू कर देते हैं तो राहें आसान हो जातीं हैं। इन सबमें संवाद का होना बहुत जरूरी होता है। नए बिंदुओं की खोज जब रोज होने लगे तो इतिहास रचना तय हो जाता है। ऐसा देखने में आता है कि मंजिल के पास ही भटकन का रास्ता भी होता है जिसनें लापरवाही की वो मुहँ के बल गिर जाता है,और करीबी उसे धक्का देने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं।

कुछ भी हो बस अच्छा कार्य करते रहिए। कब कौन से विचार मन को प्रभावित कर जाएँ कहा नहीं जा सकता है। गुटबाजी हर क्षेत्र में अपना प्रभाव रखती है। पक्ष और विपक्ष का वार केवल नेताओं तक सीमित नहीं रह गया है अब तो विचारधारा ने भी अपने आपको एक गुट में खड़ा कर दिया, जब ये लगता है कि मेरा पक्ष मजबूत है तभी हल्की सी चोट लगती है और सब धराशायी हो जाता है। दूसरा गुट  विचारों को इतने टुकड़ों में बाँटता चला जाता है कि कहाँ से जोड़ा जाए समझ ही नहीं आता। इन सबमें मीडिया को एक ज्वलंत मुद्दा मिल जाता है और वो सम्बंधित लोगों को एकत्र कर चर्चा शुरू करवा देते हैं। नतीजा वही ढाक के तीन पात।

खैर इन सबमें इतना जरूर होता है कि हम चिंतनशील प्राणी बनते जाते हैं। कभी  रंग, कभी धर्मग्रंथ, कभी विवादित बयान चलते ही रहेंगे, बस मानवता बची रहे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 194 ☆ आलेख – आप बजट में देते हैं या लेते हैं? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – आप बजट में देते हैं या  लेते हैं?) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 194 ☆  

? आलेख आप बजट में देते हैं या  लेते हैं ?

देश का बजट चर्चा में है। पक्ष विपक्ष अपनी अपनी लाइन पर मीडिया में प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं । इससे परे मेरा सवाल यह है कि न केवल आर्थिक रूप से बल्कि जीवन के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखकर सोचना होगा कि हम आप राष्ट्रीय औसत में अपना योगदान दे रहे हैं या समाज पर बोझ बनकर सरकारों से ले रहे हैं ?

भारत की औसत आय से हमारी आय कम है या ज्यादा ? हम कितना डायरेक्ट टैक्स आयकर तथा अन्य सरकारी विभागो को देते हैं ? कितना इनडायरेक्ट टैक्स देकर हम राष्ट्रीय विकास में सहयोग करते हैं, समाज को हमारा योगदान क्या है ? क्या हम महज सब्सिडी, सरकारी सहायता लेने वाले पैरासाइट की तरह जी रहे हैं ?

न केवल आर्थिक रूप से बल्कि अन्य पहलुओं जैसे राष्ट्रीय औसत आयु, स्वास्थ्य, शिक्षा , जल, पर्यावरण एवं ऊर्जा संरक्षण, पौधारोपण, कार्बन उत्सर्जन, स्त्री शिक्षा, लड़कियों के सम्मान, औसत विवाह की उम्र, जैसे सूचकांको में व्यक्ति के रूप में हमारा योगदान सकारात्मक है या नकारात्मक, यह मनन करने तथा अपना योगदान बढ़ाने की जरूरत प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। देश नागरिकों का समूह ही तो होता है। राष्ट्रीय सुरक्षा, तथा विकास का पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर और  रचनात्मक  वातावरण देना शासन का काम होता है, बाकी सब नागरिकों को स्वयं करना चाहिए। जहां अकर्मण्य नागरिक केवल स्पून फीडिंग के लिए सरकारों के भरोसे बैठे रहते हैं, ऐसे देश और समाज कभी सच्ची प्रगति नहीं कर पाते । तो इस बजट के अवसर पर चिंता कीजिए कि आप कैसे नागरिक हैं ? समाज से  लेने वाले या समाज को देने वाले ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 193 ☆ आलेख – पाठको की तलाश ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – पाठको की तलाश।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 193 ☆  

? आलेख पाठको की तलाश ?

पिछले जमाने की फिल्मो के मेलों में भले ही लोग बिछड़ते रहे हों पर आज के साहित्यिक परिवेश में मुझे पुस्तक मेलो में मेरे गुमशुदा पाठक की तलाश है, उस पाठक की जो धारावाहिक उपन्यास छापने वाली पत्रिकाओ के नये अंको की प्रतीक्षा करता हो, उस पाठक की जो खरीद कर किताब पढ़ता हो, जिसे मेरी तरह बिना पढ़े नींद न आती हो, उस पाठक की जो भले ही लेखक न हो पर पाठक तो हो, ऐसा पाठक जो साहित्य के लिये केवल अखबार के साहित्यिक परिशिष्ट तक ही सीमित न हो,उस पाठक की जो अपने ड्रांइग रूम की अल्मारी में किताबें सजा कर भर न रखे वह उनका पाठक भी बने, ऐसा पाठक आपको मिले तो जरूर बताइयेगा.

आज साहित्य जगत के पास लेखक हैं, किताबें हैं, प्रकाशक हैं चाहिये कुछ तो बस पाठक ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 19 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 19 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

परदेश – महंगाई

जब से होश संभाला है, दिन में सैकड़ों बार “महंगाई” शब्द सुनते आ रहे हैं। ऐसा लगता है, इस शब्द के बहुत अधिक उपयोग से ही तो कहीं वस्तुओं और सेवाओं के दाम नहीं बढ़ जाते हैं।

बचपन में जब माता/ पिता कहते थे, बिजली बेकार मत चलाओ, महंगी हो कर चार आने यूनिट भाव हो गया है। हमने भी बच्चों को चार रुपए यूनिट की दुहाई देकर समझाया था। ये पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहेगा।

अर्थशास्त्र के ज्ञानी मुद्रास्फीति को अपस्फीति से कहीं बेहतर मानते हैं।

यहां विदेश में भी बढ़ी हुई महंगाई के लक्षण प्रतीत हुए। सात वर्ष पूर्व गैस स्टेशन (पेट्रोल) के बाहर तीन अमरीकी रूपे और कुछ पैसे का भाव दिखाई देता था, अब पांच रूपे और पैसे दर्शाता है। पेट्रोल और अन्य तरल पदार्थ यहां पर गैलन प्रणाली में मापे जाते हैं।

यहां के गरीबों की एक दुकान “डॉलर स्टोर” के नाम से प्रसिद्ध है, उनके भाव भी अब सवा डॉलर कर दिया गया हैं। हमारे देश में भी हर माल एक रूपे में के नाम से चलती थी, अब दस रूपे से कम कुछ नहीं मिलता है। स्थानीय लोगों से जानकारी मिली कि यहां भी कोई ना कोई “महंगाई डायन” कार्यरत रहती है। वर्तमान में यूक्रेन की डायन चल रही है। जब हमने बताया की यहां तो यूक्रेन की सहयता के पोस्टर देखे हैं, और पास में एक चर्च भी यूक्रेन के नाम से ही है। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, ये सिद्धांत यहां यूक्रेन पर भी लागू होता होगा।

हम जब एक माह पूर्व देश से आए तो पिछतर का पहाड़ा याद करके आए थे, लेकिन बेकार हो गया, और डॉलर अस्सी का जो हो गया है। किसी भी वस्तु का मूल्य भारतीय मुद्रा में परिवर्तित करके अपना अंकगणित जो सुधार रहे हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 2 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 2 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

चौपाई :

 जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।

जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।

 

रामदूत अतुलित बल धामा।

अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।

अर्थ-

हे हनुमान जी आप ज्ञान और गुण के सागर हैं। आप की जय जय कार होवे। हे वानर राज आपकी कीर्ति आकाश पाताल एवं भूलोक तीनों लोक में फैली हुई  है।

आप रामचंद्र जी के दूत है, अतुलित बल के स्वामी हैं, अंजनी के पुत्र हैं और आप का एक नाम पवनसुत भी है।

भावार्थ-

यहां पर हनुमान जी की तुलना समुद्र से की गई है । समुद्र  का यहां पर आशय है कि वह जगह जहां पर अथाह जल हो। जहां पर सभी जगह का जल आकर मिल जाता हो। इसी प्रकार हनुमान जी भी ज्ञान और गुण के सागर हैं। जिस प्रकार सागर से अधिक पानी कहीं नहीं है उसी प्रकार हनुमान जी से अधिक ज्ञान और कहीं नहीं है । इसके अलावा सब जगह का ज्ञान और गुण आकर के हनुमान जी में मिल जाता है।

 हनुमान जी रूद्र अवतार हैं इसलिए कपीश भी हैं। वे जहां पर रहते हैं वहां पर सदैव प्रकाश रहता है अंधेरा वहां से बहुत दूर भाग जाता है।

हनुमान जी की प्रशंसा करते हुए तुलसीदास जी पुनः कहते हैं कि आप रामचंद्र जी के दूत हैं। आप अतुलनीय बल के स्वामी हैं। अंजनी और पवन देव  के पुत्र हैं।

संदेश-

श्री हनुमान जी से बलशाली कोई नहीं है। हनुमान जी प्रभु श्री राम के सेवक हैं । फिर  उनके पास बहुत सी शक्तियां है, जो उन्होंने अपने परिश्रम और अच्छे कर्मों से अर्जित की हैं। इसलिए उनके पराक्रम की चर्चा हर ओर होती है। इससे संदेश मिलता है कि बल अपने पराक्रम से अर्जित किया जा सकता है। फिर चाहे राजा हो या सेवक।

चौपाई  को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ-

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीस तिहुं लोक उजागर।

राम दूत अतुलित बल धामा, अंजनि पुत्र पवनसुत नामा।।

हनुमान चालीसा की इन दोनों चौपाइयों का बार बार पाठ करने से हनुमत कृपा तथा आत्मिक और शारीरिक बल की प्राप्ति होती है।

विवेचना-

हम सभी जानते हैं की बाहु बल, धन बल और बुद्धि बल तीन प्रकार के बल होते हैं। यह क्रमशः एक दूसरे से ज्यादा सशक्त होते हैं। ज्ञान बल को बाहुबल का ही एक अंग माना गया है। बुद्धि बल से आज का इन्सान नई-नई खोज करके मानव सभ्यता को श्रेष्ठतम ऊंचाइयों पर पहुंचाने की कोशिश में लगा है। उसका बुद्धि बल ही उसे साधारण मानव से महान बना रहा है। इसी बुद्धिबल से हम सब निकलकर समाज में व्याप्त बुराइयों को सरलता से दूर कर सकते हैं।

हनुमान जी बुद्धि बल में अत्यंत सशक्त है यह बात माता सीता ने भी अशोक वाटिका में उनको फल फूल खाने की अनुमति देने के पहले देखा था :-

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।

रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥17॥

हनुमान जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकी जी ने कहा- जाओ। हे तात! श्री रघुनाथ जी के चरणों को हृदय में धारण करके मधुर फल खाओ॥

हनुमान जी ने ज्ञान प्राप्त करने के लिए  सूर्य भगवान को अपना गुरु बनाया था। भगवान सूर्य की शर्त थी कि वह कभी रुकते नहीं है। हनुमान जी को भी उनके साथ साथ ही चलना होगा। हनुमान जी ने भगवान सूर्य के रथ के साथ चलकर सूर्य भगवान से सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया।

पृथ्वी पर निवासरत सभी प्राणियों को सबसे ज्यादा ऊर्जा सूर्य देव से प्राप्त होती है। भगवान सूर्य से ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत हनुमान जी की ऊर्जा भी सूर्य के समान हो गयी। इस प्रकार हनुमान जी इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा  ऊर्जावान और ज्ञानवान हुए। जिस प्रकार सूर्य अपने  ऊर्जा से सभी को ऊर्जावान करता है उसी प्रकार हनुमान जी के तेज से सभी प्रकाशमान होते हैं।

इस चौपाई में हनुमान जी के बारे में कई बातें बताई गई हैं। जिसमें पहला संदेश है कि  हनुमान जी रामचंद्र जी के दूत हैं। केवल हनुमान जी को ही रामचंद्र जी का दूत माना गया है। अन्य किसी को यह अधिकार प्राप्त नहीं है। रामचंद्र जी जैसे अवतारी पुरुष  के दूत के पास बहुत सारे गुण होने चाहिए। ये सभी गुण पृथ्वी पर  हनुमान जी को छोड़कर और किसी के पास न थे और ना है। श्रीलंका में दूत बनकर जाते समय सबसे पहले उन्होंने महासागर को पार किया। यह सभी जानते हैं कि शत योजन समुद्र को पार करने के लिए हनुमान जी के पास ताकत थी। राम जी के प्रति उनकी अनुपम भक्ति ने उनके अतुलित बल को अक्षय ऊर्जा दी थी। हनुमान जी ने समुद्र को पार करने के पहले ही अपने आत्मविश्वास के कारण कार्य सिद्ध होने की भविष्यवाणी कर दी थी। रामचरितमानस में उन्होंने कहा है :-

 “होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥”

समुद्र को पार करते समय उनके अनुपम बल का परिणाम था कि जिस पर्वत पर उन्होंने पांव रखा वह पाताल चला गया। रामचरितमानस में बताया गया है :-

 “जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।

चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥”

 हनुमान जी के जाने के बारे में रामायण में लिखा है :-

 ” जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना।।”

इसके उपरांत उन्होंने श्रीलंका पहुंचकर अपने रूप को छोटा या छुपने  योग्य बनाया। वहां पर उन्होंने लंकिनी को हराकर अपनी तरफ मिलाया। उन्होंने लंकिनी से अपने शर्तों पर संधि की।  यह उनके शत्रु क्षेत्र में जाकर शत्रुओं के बीच में से एक प्रमुख योद्धा को अपनी तरफ मिलाने की कला को भी दर्शाता है।

श्रीलंका में घुसने के उपरांत उन्होंने विभीषण जी से संपर्क किया जिसके कारण वे सीता जी तक पहुंचने में सफल हुए। यह उनके विदेश में जाकर  शासन से नाराज लोगों को अपनी तरफ मिलाने की कला को प्रदर्शित करता है।

श्री लंका में सीता जी के पास पहुंच कर वहां पर उन्होंने सीता जी के हृदय में  रामचंद्र जी के सेना के प्रति  विश्वास पैदा किया। यह उनकी तार्किक शक्ति को बताता है। अंत में अपने  वाक् चातुर्य के कारण, रावण के दरबार को भ्रमित कर, उनसे संसाधन प्राप्त कर लंका को जलाया। यह उनके अतुल बुद्धि और अकल्पनीय शक्ति को दिखाता है।

लंका दहन के उपरांत हनुमान जी पहले मां जानकी से मिलने जाते हैं तथा उनको प्रणाम करने के उपरांत वे माता जानकी से श्री रामचंद्र जी के लिए संदेश मांगते हैं तथा कोई ऐसी वस्तु मानते हैं जिसको वह प्रमाण सहित रामचंद जी को सौंप सकें :-

माते संदेश मुझे दें जिसको रघुवर ले जाऊंगा।

कोई ऐसी  वस्तु दें मुझको, जिससे प्रमाण कर पाऊंगा।।

रामचरितमानस में इसी प्रसंग के लिए लिखा गया है :-

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा।।

चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥

हनुमान जी ने कहा- हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथ जी ने मुझे दिया था। तब सीता जी ने चूड़ामणि उतारकर दी। हनुमान जी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया॥

इसके उपरांत सीता जी को प्रणाम कर वे श्री रामचंद्र जी के पास चलने को उद्धत हुए और और पर्वत पर चढ़ गए :-

 जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।

चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥

हनुमान जी ने जानकी जी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरण कमलों में सिर नवाकर श्री राम जी के पास चल दिए।।

हनुमान जी के बल की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है । बार-बार श्री रामचंद्र जी ने स्वयं हनुमान जी को सर्व शक्तिशाली बताया है । इसके अलावा अगस्त ऋषि सीता जी और अन्य ने भी उन्हें अति बलशाली माना है।

 बाल्मीकि रामायण में  उदाहरण आता है जिसमें भगवान राम ने अपने श्री मुख से हनुमान जी के गुणों का वर्णन अगस्त मुनि से किया है। जिसमें वे बताते हैं कि हनुमान जी के अंदर शूरता, दक्षता, बल, धैर्य, बुद्धि, नीति, पराक्रम और प्रभाव यह सभी गुण हैं। रामचंद्र जी ने यह भी कहा कि “मैंने तो हनुमान की पराक्रम से ही विभीषण के लिए लंका पर विजय प्राप्त किया और सीता, लक्ष्मण और अपने बंधुओं को भी हनुमान जी के पराक्रम की वजह से प्राप्त कर पाया।”

एतस्य बाहुवीर्यण लंका सीता च लक्ष्मण।

प्राप्त मया जयश्रेच्व राज्यम मित्राणि बांधेवाः।।

(वा रा/उ का /35/9)

बाल्मीकि रामायण के उत्तराखंड के 35 अध्याय के 15 श्लोक में अगस्त मुनि ने हनुमान जी के लिए कहा है:-

सत्यमेतद् रघुश्रेष्ठ यद् ब्रवीषि हनूमति।

न बले विद्यते तुल्यो न गतौ न मतौ परः ॥

(उत्तरकाण्डः ३५/१५)

हम सभी जानते हैं कि वे माता अंजनी के  पुत्र हैं। हनुमान जी के जीवन में माता अंजनी के पुत्र के होने के क्या मायने हैं। माता अंजनी कौन है ? सभी जानते हैं कि  माता अंजनी का विवाह वानर राज केसरी से हुआ था। फिर हनुमानजी पवनसुत कैसे कहलाते हैं ? आखिर क्या रहस्य है ?

यह पूरा रहस्य पौराणिक आख्यानों में छुपा हुआ है। माता अंजनी पहले पुंजिकास्थली नामक  इंद्रदेव की दरबार की एक अप्सरा थीं। उनको अपने रूप का बड़ा घमंड था। पहली कहानी के अनुसार उन्होंने खेल खेल में तप कर रहे ऋषि का तप भंग कर दिया था। जिसके कारण ऋषिवर ने उनको वानरी अर्थात रूप विहीन होने का श्राप दे दिया था। दूसरी कहानी के अनुसार दुर्वासा ऋषि इंद्रदेव के सभा में आए थे। वहां पर पुंजिकास्थली नामक अप्सरा ने दुर्वासा ऋषि जी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए कुछ प्रयोग किए। जिस पर ऋषिवर क्रोधित हो गए और उनको वानरी अर्थात रूप विहीन होने का श्राप दिया। इसके  उपरांत माता अंजना का विराज नामक वानर के घर जन्म हुआ। माता अंजनी को केसरी जी से प्रेम हुआ और दोनों  का विवाह हुआ। हनुमान जी को आञ्जनेय, अंजनी पुत्र और केसरी नंदन भी कहा जाने लगा।

परंतु यहां तुलसीदास जी ने “अंजनी पुत्र पवनसुत नामा”  कहा है। उन्होंने केसरी नंदन नहीं कहा। बाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड में हनुमान जी ने रावण को अपना परिचय देते हुए कहा- “मेरा नाम हनुमान है और मैं पवन देव का औरस पुत्र हूँ। “

अहम् तु हनुमान्नाम मारुतस्यौरसः सुतः।

( वा रा /सु का / 51/15-16)

अगर हम रामचरितमानस पर ध्यान दें तो उसमें एक प्रसंग आता है जो यों है।

रावण के मृत्यु के बाद रामचंद जी वापस अयोध्या लौटना प्रारंभ कर देते हैं तब उनको ख्याल आता है यह संदेश भरत जी के पास तत्काल पहुंच जाना चाहिए। उन्होंने यह कार्य हनुमान जी को सौंपा। पवन पुत्र  ने पवन वेग से इस कार्य को तत्काल संपन्न किया।

इन दोनों चौपाइयों के समदृश्य राम रक्षा स्त्रोत का यह मंत्र है। :-

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥

इस श्लोक में कहा गया है की मैं श्री हनुमान की शरण लेता हूँ जो मन से भी तेज है और जिनका वेग पवन देव के समान है। जिन्होंने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है अर्थात उनकी सभी इंद्रियां उनके बस में हैं वे इंद्रियों के स्वामी है। वे परम बुद्धिमान, और वानरों में मुख्य हैं। जो पवन देवता के पुत्र  हैं (जो उनके अवतार के दौरान श्री राम की सेवा करने के लिए  अवतरित भगवान शिव के अंश थे) मैं उनको दंडवत करके उनकी शरण लेता हूँ।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 172 ☆ “लोढ़ा वाली पदमश्री जुधैया बाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित आलेख  – “लोढ़ा वाली पदमश्री जुधैया बाई”)

☆ आलेख # 172 ☆ “लोढ़ा वाली पदमश्री जुधैया बाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

लुप्तप्राय बैगा जाति के उन्नयन और लोक संस्कृति से जुड़ी उमरिया जिले के पिछड़े गांव लोढ़ा निवासी श्रीमती जुधैया बाई बैगा को पदमश्री की बधाई ।

जुधैया बाई बैगा के गुरु प्रख्यात चित्रकार आशीष स्वामी समय समय पर चित्रों, कोलाज, पेन्टिंग, लोकनृत्य एवं रंगकर्म के माध्यम से बैगा संस्कृति को उकेरते रहे हैं।

प्रकृति – प्रेम भरा जीवन एवं वन्य – जीवों से प्रेम करने वाली बैगा जाति से उपजी कला को समझने के लिए बैगा जाति के मानस को समझकर रंग – कूची के संसार एवं रंगकर्म से जोड़ने की कला आशीष स्वामी ने उमरिया जिले के जनगण तस्वीरखाना से पाई थी। उनके मार्गदर्शन में लम्बे समय से बैगा संस्कृति पर काम कर रही 82 वर्षीय जुधैया बाई बैगा (लोढ़ा, उमरिया) को देश विदेश में आज ख्याति मिली है और आज उन्हें पद्मश्री मिल गई।

(पहली फोटो में नारी शक्ति सम्मान लेते हुए जुधैया बाई। दूसरी फोटो में उनके गुरु आशीष स्वामी। तीसरी फोटो में रंग और कूची के साथ जुधैया बाई।)

उल्लेखनीय है, उमरिया आरसेटी में डायरेक्टर के पद पर रहते हुए 2013 में श्रीमती जुधैया बाई बैगा और ख्यातिलब्ध चित्रकार आशीष स्वामी का  सम्मान करने का गौरव हम लोगों को मिला था। आशीष स्वामी को कोरोना लील गया पर चित्रकार आशीष स्वामी ने अपने जीते जी 2019  से लगातार जुधैया भाई को पद्मश्री मिले इसके लिए प्रयास किए थे। एवं कलेक्टर उमरिया के माध्यम से सरकार को रिकंमनडेशन भिजवाया था।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 173 ☆ शेष.. विशेष…अशेष! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 माँ सरस्वती साधना संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से हम आपको शीघ्र ही अवगत कराएँगे। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 173 शेष.. विशेष…अशेष! ?

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,

तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।

संत कबीर का यह दोहा अपने अर्थ में सरल और भावार्थ में असीम विस्तार लिए हुए है। जैसे वृक्ष से झड़ा पत्ता दोबारा डाल पर नहीं लगता, वैसे ही मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती। मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती अर्थात दुर्लभ है। जिसे पाना कठिन हो, स्वाभाविक है कि उसका जतन किया जाए। देह नश्वर है, अत: जतन का तात्पर्य सदुपयोग से है।

ऐसा भी नहीं कि मनुष्य इस सच को जानता नहीं पर जानते-बूझते भी अधिकांश का जीवन पल-पल रीत रहा है, निरर्थक-सा क्षण-क्षण  बीत रहा है।

कोई हमारे निर्रथक समय का बोध करा दे या आत्मबोध उत्पन्न हो जाए तो प्राय: हम अतीत का पश्चाताप करने लगते हैं। जीवन में जो समय व्यतीत हो चुका, उसके लिए दुख मनाने लगते हैं। पत्थर की लकीर तो यह है कि जब हम अतीत का पश्चाताप कर रहे होते हैं, उसी समय   तात्कालिक वर्तमान अतीत हो रहा होता है।

अतीतजीवी भूतकाल से बाहर नहीं आ पाता, वर्तमान तक आ नहीं पाता, भविष्य में पहुँचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अपनी एक कविता स्मरण हो आ रही है,

हमेशा वर्तमान में जिया,

इसलिए अतीत से लड़ पाया,

तुम जीते रहे अतीत में,

खोया वर्तमान,

हारा अतीत

और भविष्य तो

तुमसे नितांत अपरिचित है,

क्योंकि भविष्य के खाते में

केवल वर्तमान तक पहुँचे

लोगों की नाम दर्ज़ होते हैं..!

अपने आप से दुखी एक अतीतजीवी के मन में बार-बार आत्महत्या का विचार आने लगा था। अपनी समस्या लेकर वह महर्षि रमण के पास पहुँचा। आश्रम में आनेवाले अतिथियों के लिए पत्तल बनाने में महर्षि और उनके शिष्य व्यस्त थे। पत्तल बनाते-बनाते  महर्षि रमण ने उस व्यक्ति की समस्या सुनी और चुपचाप पत्तल बनाते रहे। उत्तर की प्रतीक्षा करते-करते व्यक्ति खीझ गया। मनुष्य की विशेषता है  जिन प्रश्नों का उत्तर स्वयं वर्षों नहीं खोज पाता, किसी अन्य से उनका उत्तर क्षण भर में पाने की अपेक्षा करता है।

वह  चिढ़कर महर्षि से बोला, ‘आप पत्तल बनाने में मग्न हैं।  एक बार इन पर भोजन परोस दिया गया, उसके बाद तो इन्हें फेंक ही दिया जाएगा न। फिर क्यों इन्हें इतनी बारीकी से बना रहे हैं, क्यों इसके लिए इतना समय दे रहे हैं?’

महर्षि मुस्कराकर शांत भाव से बोले, ‘यह सत्य है कि पत्तल उपयोग के बाद नष्ट हो जाएगी। मर्त्यलोक में नश्वरता अवश्यंभावी है तथापि मृत्यु से पहले जन्म का सदुपयोग करना ही जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए। सदुपयोग क्षण-क्षण का। अतीत बीत चुका, भविष्य आया नहीं। वर्तमान को जीने से ही जीवन को जिया जा सकता है, जन्म को सार्थक किया जा सकता है, दुर्लभ मनुज जन्म को भवसागर पार करने का माध्यम बनाया जा सकता है। इसका एक ही तरीका है, हर पल जियो, हर पल वर्तमान जियो।’

स्मरण रहे, व्यतीत हो गया, सो अतीत हो गया। अब जो शेष है, वही विशेष है। विशेष पर ध्यान दिया जाए, जीवन को सार्थक जिया जाए तो देह के जाने के बाद भी मनुष्य रहता अशेष है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #153 ☆ आलेख – उधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 153 ☆

☆ ‌आलेख – उधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

अगर सच कहा जाय तो सूर दास जी द्वारा रचित कृष्ण-चरित पर आधारित सूर सागर में जितना सुंदर कथानक प्रेम में संयोग श्रृंगार का है, उससे भी कहीं अनंत गुना अधिक आत्मस्पर्शी वर्णन उन्होंने वियोग श्रृंगार का किया है। कृष्ण जी की ब्रजमंडल में की गई बाल लीलाएं जहां मन को मुदित करती है, एक एक रचना का सौंदर्य, बाल लीला की घटनाएं जहां आनंदातिरेक में प्रवाहित कर देती है, वहीं प्रेम के वियोग श्रृंगार श्रृंखला की रचनाएं बहाती नहीं बल्कि पाठक वर्ग को करूणा रस में डुबा देती है। कृष्ण की स्मृतियों ने जहां ब्रज मंडल की गोपिकाओं तथा राधा को विक्षिप्तता की स्थिति में ला खड़ा किया है, वो कृष्ण की स्मृतियों में खोई कृष्णमयी हो गई है, जिसे पढ़ते हुए समस्त पाठक वर्ग को आत्मविभोरता की स्थिति में ला के खड़ा कर देती है।

इसका जीवंत उदाहरण कृष्ण उधव तथा उधव गोपियों के संवाद में दिखाई देता है तो वहीं दूसरी ओर कृष्ण जी मात्र गोपियों को ही नहीं याद करते बल्कि उनके स्मृतियों में तो पूरा का पूरा ब्रजमंडल ही समाया हुआ है, जो ईश्वरीय चिंतन के असीमित विस्तार को दिखाता है। जब कृष्ण जी कहते हैं कि – “उधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं”।

तब- कालिंदी कुंज की यादें, यशोदा के साथ की गई बाल लीला प्रसंग ,गायों तथा गोपसमूहो के साथ बिताए गए दिन, तथा गोपियों और राधिका के साथ बिताए पलों को तथा ब्रज मंडल के महारास लीला को भूल नहीं पाते–

बिहारी जी के शब्दों में वे अनोखी घटनाएं –

बतरस लालच लाल की,

मुरली धरी लुकाय।

सौंह करै, भौंहन हँसे,

देन कहै नटि जाय॥

तथा छछिया भर छांछ पर नाचना आज भी नहीं भूला है कृष्ण को साथ ही याद है मइया यशोदा के हाथ का माखन याद है ब्रज की गलियां। तभी तो अपने हृदय की बात कहते हुए अपने सखा उधव से अपने मन की बात कह ही देते हैं- “उधव मोहि ब्रज बिसरत नाही”।

ऐसा भी नहीं है कि कृष्ण को ही मात्र ब्रज की यादें व्यथित किए हुए हो, बल्कि सारा ब्रजमंडल ही कृष्ण  वियोग की यादों में पगलाया हुआ है। जिसकी झांकी जब ऊधव ब्रज की गोपियों को निराकार ब्रह्म का उपदेश देने जाते हैं तब रास्ते के कांटे भी ऊधव जी को प्रेम का अर्थ समझाते हुए प्रतीत होते हैं जिसका यथार्थ चित्रण बिंदु जी की रचनाओं में दृष्टि गोचर होता है।

चले मथुरा से दूर कुछ जब दूर वृन्दावन नज़र आया,

वहीं से प्रेम ने अपना अनोखा रंग दिखलाया,

उलझकर वस्त्र में काँटें लगे उधौ को समझाने,

तुम्हारे ज्ञान का पर्दा फाड़ देंगे यहाँ दीवाने।

है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥

यह प्रेम की गहन अनुभूति ही नहीं कराता अपितु ऊधव को मजबूर कर प्रेम के सागर में डुबो देता है।   फिर तो एक हाथ यशोदा का माखन तथा दूसरे में राधा द्वारा दी गई मुरली लिए  राधे राधे गा उठते है। और लौट आते हैं अपने बाल सखा के पास। भला प्रेम के वियोग श्रृंगार का ऐसा उत्कृष्ट और अनूठा  चित्रण सूरसागर के अलावा कहां मिलेगा।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

(5–10–2022, दिन में 9–00बजे)

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares