हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ अहिंसा परमो धर्म: ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ अहिंसा परमो धर्म: ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

अहिंसा परमो धर्म: अर्थात् अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं है। भारत में उद्भूत सभी धर्मों ने चाहे वह सनातन धर्म हो, जैन धर्म हो या बौद्ध धर्म हो या उन के अनुयायी कोई भी मत सभी ने अहिंसा के पालन का प्रतिपालन किया है। सत्य, अहिंसा तप और त्याग भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र है। सामाजिक शांति सुख और समृद्धि के विकास के लिये आवश्यक है जिस समाज में निश्चिंतता का वातावरण होता है वही समाज सही चिंतन, मनन, शोध और सत्नियोजन की दिशाओं में अग्रसर हो उन्नति कर सकता है। इतिहास साक्षी है कि जब समाज अनावश्यक चिंताओं से मुक्त रहा है तभी उसने आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और कलात्मक उन्नति की है और विपरीत परिस्थितियों में समस्याओं का सामना करने पर उसकी उन्नति में रुकावटें आई हैं।

परिवार किसी भी समाज की महत्वपूर्ण इकाई है और व्यक्ति उसका प्रमुख घटक। व्यक्ति के समुच्चय से ही समाज का निर्माण होता है और व्यक्ति तथा समाज के पारस्परिक समन्वय और सहयोग से विकास और समृद्धि संभव है। सुख तथा आनन्द प्रत्येक जीवन की कामना होती है जो सब प्रकार की निश्चिंतता, सम्पन्नता और शांतिप्रद वातावरण में ही प्राप्त कर सकना संभव है। परन्तु आज जब वैज्ञानिक खोजों ने अनेकों सुख साधन जुटा लिये हैं और समाज को अनेकों सुखद अवसर प्रदान किये हैं तब भी आपसी सद्भाव प्रेम और सत्य-अहिंसा, तप-त्याग के अनुकरणीय उपदेशों के विपरीत हिंसा और अनाचार का वातावरण पनप रहा है।

हर दिन प्रात: समाचार पत्रों, टीवी, रेडियो से मिलने वाले समाचारों में हिंसा अनैतिक आचरणों के ही समाचार अधिक पढऩे, देखने और सुनने में आते हैं। प्राय: प्रमुख समाचार यही होता है- अमुक घटना में इतने, मरे इतने घायल। कहीं कत्ल हुये, कहीं मारपीट। कहीं अनाचार, दुराचार अपहरण। कहीं धमकी भरे संदेशों के द्वारा फिरौती की मांग तो कहीं लूट और आगजनी।

इतने बढ़ते अनैतिक कृत्यों ने समाज में भारी भय, अनिश्चितता बढ़ा के अस्थिरता का माहौल बना रखा है और शासन के सामने इन से बलपूर्वक निपटने के लिये त्वरित कार्यवाही कर सुचारू व्यवस्था करने का चुनौतीपूर्ण सिरदर्द पैदा कर दिया है। ऐसा क्यों हो रहा है- इस पर गहन सोच विचार कर सही उपचार किये जाने की जरूरत है। विगत लगभग तीन दशकों से हमारे देश में आतंकवाद ने सिर उठाया है और अनेकों जघन्य हत्यायें कर निर्दोषों का खून बहाया है। इस आतंकवाद का विस्तार अब तो सम्पूर्ण विश्व में होता दिख रहा है। अभी हाल की विभिन्न देशों में हुई घटनायें में इसका प्रमाण है। आतंकवादी अनेकों तत्व स्वत: मरकर भी औरों को मार रहे हैं। इसका सही और वास्तविक कारण बताना तो कठिन है, क्योंकि मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्ति को अपना जीवन सब से प्यारा होता है। पर इस सिद्धांत के विपरीत खेल चल रहा है। उसके कारण का अनुमान लगाना वास्तव में कठिन है। फिर भी मेरी दृष्टि से कुछ संभावित कारण ये हो सकते हैं- दूसरों के प्रति अंधश्रद्धा, बचपन से मानवीय संस्कारों के सही विकास में कमी, सही नैतिक धार्मिक व आध्यात्मिक दृष्टिकोण के विकास का अभाव, अशिक्षा। किन्हीं दिवा स्वप्नों के प्रभाव में बहाव अथवा किसी लालच में फंसने से अदूरदर्शिता।

कुछ अन्य कारण जो इनके अंतर्गत ही परिगणित हो सकते हैं- बेरोजगारी, मन पर नियंत्रण की कमी, असंतोष, बढ़ा हुआ विद्वेष या बैरभाव, तत्कालिक उद्देश्य की पूर्ति के लक्ष्य के प्रति समर्पण इत्यादि हैं। मनुष्य के विचारों का उद्गम मन से होता है। विचारों से ही कर्म की प्रवृत्ति होती है और कर्मों से भले या बुरे परिणाम प्राप्त होते हैं। जो न केवल व्यक्ति को वरन् परिवार और समाज ही क्या व्यापक अर्थ में पूरे विश्व समाज को भी प्रभावित करते हैं। इसलिये हमारे धर्मग्रंथों ने मन को सुशिक्षित और संयमित करने के उपदेश दिये हैं। बचपन से ही व्यक्ति को अपने मन पर नियंत्रण रखने की सलाह और प्रशिक्षण दिया जाना जरूरी है, तभी व्यक्ति वयस्कता प्राप्ति पर अपना और समाज का हित साधन करने में सहायक हो सकता है।

सही व्यक्ति तभी बनेगा जब उसे इसी दिशा में सही शिक्षा बचपन से माता-पिता, घर-परिवार, समाज-धार्मिक संस्थाओं से या स्कूल-कॉलेजों से प्राप्त हो। इसी दिशा में सबका और शासन का सामूहिक प्रयास होना आवश्यक है। जिस की आज विभिन्न कारणों से कमी होती जा रही है। मूलत: इसी सही शिक्षा के अभाव के कारण हिंसा और अपराध की प्रवृत्ति का विकास हुआ समझ में आता है। सभी संबंधितों का इसे कुलचने का हर संभव सहयोग आवश्यक है। हर छोटे का सहयोग भी सराहनीय होता है- ‘जिनको कहते छोटे लोग-बहुत बड़ा उनका सहयोग।’

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 41 – कॉमेडी – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “कॉमेडी…“ की अंतिम कड़ी ।)   

☆ आलेख # 41 – कॉमेडी – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

पुराने ज़माने के हीरो फिल्मों में कॉमेडी खुद न कर, एक हास्य कलाकार को रोजगार का अवसर प्रदान करते थे पर धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार, सुनील शेट्टी, परेश रावल जैसे कलाकारों ने खुद ही कॉमेडी करना भी शुरु कर दिया तो कॉमेडी की प्रतिष्ठा बढ़ गई. फिल्म शोले के हास्य दृश्यों में अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, हेमामालिनी, लीला मिश्रा (मौसी), कालिया और जगदीप, असरानी ने कमाल का मनोरंजन किया था और जो बच गये याने गब्बर, ठाकुर, सांभा और धन्नो नाम की घोड़ी, उन पात्रों का मिमिक्री के रूप में स्टेज शो में जबरदस्त उपयोग किया गया. कालिया अपने निभाये गये किरदार से ही याद आते हैं.

“पड़ोसन” फिल्म ने भी हास्य रचने में कामयाबी और पसंद किये जाने के झंडे गाड़े थे. महमूद, सुनील दत्त और किशोर कुमार ने अपने लाजवाब अभिनय से दर्शकों को उत्तम कोटि के हास्यरस का रसास्वादन कराया था.

“एक चतुर नार करके श्रंगार” गीत जितना मधुर और विशिष्ट था, उतना ही उसका फिल्मांकन भी. स्वर्गीय मन्ना डे और किशोर कुमार की ये सरगमी संगत फिल्म संगीत के खजाने का अनमोल रतन है जो आज तक भी स्टेज़ शो और टी वी शोज़ में दोहराया जाता है.

कॉमेडी, फिल्मों के अलावा स्टेज शो में भी सामने आई और इसे संभाला मिमिक्री आर्टिस्टों ने. अभिनेताओं की आवाज़ की नकल से भी हास्य रस आया और दर्शकों का मनोरंजन हुआ. पर इसके अलावा भी के.के. नायकर, रज़नीकांत त्रिवेदी, कुलकर्णी बंधुओं ने स्टेज़ पर एक से बढ़कर एक शो दिये और सफलता की मंजिलों को छुआ. नायकर तो तरह तरह की आवाज़ और बॉडी लेंग्वेज से स्टेज पर छा जाते थे और तीन घंटे भी अकेले दम पर स्टेज़ संभालते थे. जॉनी लीवर भी पहले स्टेज शो और फिर फिल्मों के कामयाब सितारे बन गये थे. नायकर और कुलकर्णी बंधुओं की कॉमेडी की शैली और सामयिक प्रसंगों की भरमार उनकी विशेषता थी और दर्शक मंत्रमुग्ध होकर खिलखिलाते हुये घर वापस आते थे.

हास्यरस, जीवन में करोड़ों की संपदा भी ला सकता है, पूरी तरह अविश्वसनीय और सिरे से खारिज करने की बात थी पर इसे सही साबित किया कपिल शर्मा ने जब वो अपनी टीम के साथ अपना कॉमेडी शो लेकर आये. ये युग टी.वी. का फिल्मों पर छा जाने का युग था. लोग घर में बैठकर मनोरंजन चाहते थे. दर्शकों की इसी नब्ज को पकड़ा कपिल शर्मा ने. कपिल शर्मा का सेंस ऑफ ह्यूमर और हाज़िर जवाबी सप्ताहांत में आने वाले उनके शो को सफल बनाते हुये उन्हें मालामाल कर गई. दर्शक भी अपना सप्ताहांत, डेढ़ घंटे की मुफ्त और मुक्त हंसी के बीच गुजारना पसंद करने लगे. शिक्षा का उपयोग हमारे देश में मात्र रोजगार पाने के लिये होता है. आई. क्यू लेवल और हास्य में बौद्धिकता से अधिकांश भारतीय जनमानस अछूता है तो मुफ्त और सुगम हास्य में फूहड़ता को नज़र अंदाज करने की आदत शो को सफल और कपिल शर्मा को करोड़पति बना गई, जहां पुरुष भी नारी रूप धरकर कॉमेडी के नाम पर लखपति बन गये.

पर अच्छी गुणवत्ता और बौद्धिक क्षमता से भरपूर अमित टंडन और वरुण ग्रोवर सरीखे कलाकारों ने स्टेंड अप कॉमेडी के जरिये प्रवेश कर राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर कटाक्ष करना प्रारंभ किया. कुमार विश्वास भी कवि सम्मेलनों में वर्तमान परिस्थितियों पर कटाक्ष करते थे. ये व्यंग्य अक्सर हरिशंकर परसाई जी और शरद जोशी जी की याद दिलाते थे. व्यंग्य जो अभी तक प्रिंट मीडिया की बपौती था, स्टेंड अप कॉमेडी शो के माध्यम से टीवी और यू ट्यूब पर दिखने लगा. अपना पाला बदल चुके मीडिया और ट्रोलर्स से भरे सोशल मीडिया से त्रस्त लोगों को राहत मिली जिनमें वर्तमान की विद्रूपता, विसंगति और समस्या का सामना करने वाले अधिकतर युवा दर्शक थे तो उनका इन कलाकारों के कार्यक्रमों में खिलखिलाना स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी. युवा दर्शकों का यह वर्ग सामाजिक विद्रूपता और राजनैतिक अनैतिकता की दबंगई और गुटबाजी से घुटन महसूस कर रहा था. उसे वर्तमानकाल की विसंगतियों और असफलताओं को न केवल भोगना था बल्कि उसकी आवाज़ भी, विवेकहीन निष्ठा के नाम पर मानसिक क्षुद्रता और ट्रोलिंग के जरिये खामोश कर दी गई थी. जब उसे लगा कि मंच पर ये उसके साहसी हम उम्र, धड़ल्ले से व्यंग्यात्मक तीर चला रहे हैं तो एक दर्शक के रूप में हंसने के साथ साथ उम्मीद की आशा भी बलवती हुई.

तो ये हास्यरस का वो सफर था जो सरकस के जोकर से मंच पर सामने आया और स्टेंड अप कॉमेडी के वर्तमान काल के पड़ाव तक पहुंचा है. ये सफर तो जारी रहेगा और आने वाली पीढ़ियों को हास्यबोध से मनोरंजन के मौके देता रहेगा. हो सकता है कुछ छूट गया हो तो क्षमा कीजिएगा.

समाप्त 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ सुख शांति की खोज ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सुख शांति की खोज ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आज प्रत्येक व्यक्ति, हर परिवार समाज और इस विश्व का हर देश विकास चाहता है, लगातार उन्नत्ति के लिए प्रयत्न शील है,  क्योंकि सुख और शांति तथा आनन्द के भवन का रास्ता, विकास व प्रगति के आंगन से होकर जाता है। प्रगति के लिए श्रम करना जरूरी है और जो कुछ किया जाना है उसे योजना बद्ध तरीके से करना आवश्यक है। योजना-परिश्रम-विकास (प्रगति)-सुख यह क्रम है जिसका क्रमिक अनुसरण सफलता की ओर ले जाता है। जहाँ अमन-चैन होता है वहीं समाज को निर्भय होकर सोचने समझने कला-साधनायें करने और नई-नई खोजें करने के अवसर प्राप्त होते हैं। इतिहास साक्षी है कि सदा सुख-शांति पूर्ण स्वर्ण काल में ही हर देश ने बहुमुखी उन्नत्ति की है सुख-शांति के वातावरण का निर्माण हर देश में मानव मन की चिन्तन कामना रही है।

वर्तमान अन्तरिक्ष यात्राओं के युग में विज्ञान ने नये नये आविष्कारों से मानव जीवन को अप्रत्याशित सुविधाएँ प्रदान की हैं। संचार क्रांति ने व्यक्ति और स्थानों की दूरियों को कम कर विश्व के विस्तारन को संकुचित कर दिया है। कुछ घंटों की उड़ान से विश्व के किसी भी भाग में पहुँचा जा सकता है। पचास वर्षांे पूर्व की तुलना में आज के उपलब्ध आवागमन और संचार के साधनों ने संसार को गाँव का सा रूप दे दिया है जिसे हम ”ग्लोबल विलेज’’ कहने लगे हैं। यह निकटता और विकास हमें विश्व के अन्य देशों से सम्पर्क और सहयोग के लिए, विचार-विनिमय के लिए नये अवसर प्रदान करता है। यह प्रगति का सकारात्मक पक्ष है किन्तु इस का नकारात्मक पक्ष भी हैं जिससे आपसी द्वेष, उलझने, पारस्परिक हितों के टकराव भी उत्पन्न हुये हैं। तार्किक दृष्टि से सुख शांति के लिए नई योजनायें-विकास और धन-अर्जन, जीवन-स्तर का ऊँचा उठाया जाना भली बात है किन्तु वर्तमान समय में जो देखने में आ रहा है वह कुछ उल्टा सा प्रतीत होने लगा है। सुख-शांति की खोज में प्रगति और आर्थिक उत्थान के लिए हर परिवार मानसिक रूप से बेचैन कोल्हू के बैल की भाँति एक चक्र में निरतंर घूम रहा है। अपनी तरक्की के चक्कर में हर जीवन अन्यों से स्पर्धा करते हुए बिना वास्तविकताओं को समझे भागा जा रहा है और सारे पारस्परिक रिश्तों के स्नेहिल व्यवहारों की कीमत पर केवल अधिक कमाने में लगा है। लोग धन को ही सुख और आनंद प्राप्ति का प्रमुख साधन समझने लगे है जबकि सचाई यह है कि सुख और शांति तथा आनंद प्रेम के संबंधो में मिलता है धन से नहीं।

विज्ञान ने हमें ढेर सारी सुविधाएँ तो उपलब्ध करी दी हैं और नित नई नई खोजों से नई सुविधाओं का विस्तार होता जा रहा है किन्तु हमारा सुख-चैन कम हो गया है। तनाव और परेशानियाँ बढ़ गई हैं। औद्योगिक विकास ने हमें प्रकृति की स्नेहिल गोद से उठाकर प्रदूषित वातावरण में धकेल दिया है। वे प्रमुख पंचतत्व जिनसे जीवन का निर्माण हुआ है- अनल, अनिल, जल, गगन और रसा- ये सभी प्रदूषित हो चुके हैं। वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, ध्वनि (आकाश) प्रदूषण, भूमि की उर्वरा शक्ति का प्रदूषण और अनल अर्थात्ï ताप (जो सूर्य से प्राप्त है) का आकाश में ओजोन परत का प्रदूषण हमारी जानकारी में है। प्रदूषण से मानव जीवन संकट में पड़ गया है।

क्या आज के इस वैज्ञानिक विकास ने हमारे ही अज्ञान और अनुचित व्यवहार के कारण हमें भागमभाग और आपाधापी में डालकर हमारे मानसिक तनाव, झुंझलाहट और उलझनें नहीें बढ़ा दी हैं ? यदि यह सच है तो हमें सुख-शांति के लिये अपनी जीवन पद्धति को बदलना चाहिए। धन के अनावश्य बढ़ाये गये महत्व पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। टूटते स्नेह के तागों को सुदृढ़ करने की जरूरत है। भौतिकता के अमर्यादित विकास के स्थान पर आध्यत्मिक चिंतन-मनन अधिक आवश्यक हो गया है। समाज में स्नेह संयम और संतोष पूर्ण व्यवहार की जरूरत है। भौतिक विकास के साथ ही आध्यात्मिक चेतना भी विकसित हो तभी मन को संयम और अनुशासित रखा जा सकेगा। आज की कृत्रिमता को आध्यात्मिकता के रंग में रंगकर ही बढ़ते मनोविकारों से छुटकारा पाया जा सकता है। पारस्परिक आत्मीय  संबंधों की प्रगाढ़ता  से ही बढ़ते विनाशकारी दृष्टि कोण को बदला जा सकता है। सुख और शांति स्नेह की छाया में ही पनपती है। हमारे सोच और व्यवहारों में सही परिवर्तन ही हमें सुख-शांति आनन्द के संसार में पहुँचा कर वांछित अनुभूति देने में समर्थ होंगे।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग -1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार।)

☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बैंक की सेवा के समय में सात वर्ष पूर्व सात समंदर पार जाकर अमेरिका जाने का अवसर मिला था। बैंक द्वारा प्रदत्त यात्रा सुविधा का लाभ उठाते हुए विश्व के सबसे बड़े हथियार उत्पादक देश को देखने की इच्छा पूरी हुई थी।

ऐसा कहते हैं “किसी भी यात्रा/ भ्रमण से प्राप्त होने वाले आनंद का आधे से अधिक तो आप उसकी तैयारी में ही उठाते हैं”बात एकदम सत्य और हम सबका अनुभब भी ये ही कहता हैं। अब जब बहुत दूर जाना हो सामान ले जाने वाला संदूक (सूटकेस) भी बड़ा और सुविधाजनक होना चाहिए। दुकानदार ने सौ से अधिक नमूने विभिन्न रंग, आकर, आयतन में दिखा दिए। पहले बिना चक्के के संदूक जैसे सूटकेस आए। उसके बाद दो चक्के के सूटकेस ने तो रेलवे स्टेशन पर कुली का कार्य करने वालों की कमर ही तोड़ दी थी। तत्पश्चात चार और अब तो आठ चक्के के सूटकेस भी खूब चल रहे हैं। दुकानदार हमको समझा रहा था, साहब मक्खन की माफिक इक दम चिकनी चाल से सूटकेस भागेगा। वो यहां भी नहीं रुका, और कहने लगा कि जैसे कार में भी अब पॉवर व्हील आ गए है, और बड़े ट्रक में भी बीस चक्के लगने लगे है, उसी प्रकार से सूटकेस भी अब हाई स्पीड मॉडल के हो गए हैं।

जब साठ के दशक में चमड़े के सूटकेस आरंभ हुए तो वो सिर्फ रईस और धनाढ्य व्यक्तियों द्वारा ही उपयोग होता था। सत्तर दशक की समाप्ति के समय वीआईपी कम्पनी ने इसको घर घर तक पहुंचा दिया। सन अस्सी में हमारे बैंक के साथियों के विवाह में सबसे अधिक इसको भेंट स्वरूप दिया जाता था।

वजन में हल्के और रंगो की चकाचौंध से इनकी पराकाष्ठा संदूक तक को निगल गई हैं। अब सूटकेस खरीद ही लिया है, तो यात्रा की जानकारी अगले भाग में जारी रहेगी।

क्रमशः… 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पारकी अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पुराने समय में गर्मी की छुट्टियों में यात्रा करना बड़ा कठिन कार्य होता था। ट्रेन की नब्बे दिन अग्रिम टिकट सुविधा का लाभ लेकर टिकट किसी गर्म कोट की जेब में संभाल कर रखने के चक्कर में पच्चीस प्रतिशत राशि से डुप्लीकेट टिकट खरीदने पड़े थे। क्योंकि कोट ड्राई क्लीन करने के लिए, बिना जेब टटोलने पर देने के कारण हमारे हाथ मोटे वाले सोट्टे से पिताश्री द्वारा तोड़ ही डाले गए थे।

आज तो किसी भी पल टैक्सी, हवाई यात्रा की व्यवस्था ऑन लाइन उपलब्ध हों गई हैं।बस पैसा फेंको और तमाशा देखो। जयपुर से सबसे पहले टैक्सी (एक तरफ शुल्क) से दिल्ली की रवानगी की गई। नब्बे के दशक डिलक्स बस में यात्रा करना अमीर परिवार के लोग करते थे या बैंक / सरकारी कर्मचारी प्रशासनिक कारण से यात्रा कर रहे होते थे। विगत दिनों टैक्सी यात्रा के समय बसों का कम दिखना और टैक्सियों का अधिक चलन को हमारी प्रगति का पैमाना भी माना जा सकता हैं।

करीब तीन सौ किलोमीटर के रास्ते में दोनों तरफ सौ से अधिक अच्छे बड़े होटल खुल चुके हैं। इन होटलों में खाने के अलावा अनेक दुकानें भी हैं। जहां पर कपड़े, ग्रह सज्जा और अन्य आवश्यकताओं का सामान उपलब्ध हैं। बच्चों के मुफ्त झूले इत्यादि भी राहगीर को आकर्षित करते हैं। कई होटलों में दरबान आपकी कार का दरवाज़ा खोल/ बंद करने के बाद बक्शीश की उम्मीद से रहता हैं। मुफ्त कार की सफाई भी राहगीर को वहां रुकने की इच्छा प्रबल कर देती हैं। टैक्सी ड्राइवर को मुफ्त भोजन देकर होटल वाले इस खर्चे को यात्री द्वारा खरीदे गए भोजन के बिल में ही तो जोड़ कर अपनी लागत निकाल लेते हैं। सभी  व्यापार करने वाले इस प्रकार की रणनीति अपना कर ही सफल होते हैं।

हमारे टैक्सी चालक ने भी तीव्र गति से हमें दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय विमानतल पर समय पूर्व पहुंचा दिया। अब लेखनी बंद कर रहा हूँ, सुरक्षा जांच के बाद अगले भाग में मिलेंगे।

क्रमशः… 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ गुरुनानक॥ -॥ विचार का महत्व॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ गुरुनानक ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

भारतवर्ष अपनी दिव्यता के कारण देवभूमि के नाम से विख्यात है। प्रकृति ने जैसे यहाँ अपना अनुपम सौदर्य बिखेरा है वैसे ही यहाँ पर महान विभूतियों को समय-समय पर अवतीर्ण कर इसको धन्य किया है। इसी पावन भूमि को अनेकों धर्मांे का उद्ïगम स्थल होने का गौरव प्राप्त है। अपने उच्च आध्यात्मिक चिन्तन, आदर्श आचरण और स्नेहिल सरल जीवन पद्धति के कारण इसे विश्व में आज भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। महान मनीषियों, चिन्तकों, दार्शनिकों और भक्तों ने मानव जाति के कल्याण हेतु जो उपदेशामृत यहाँ उपलब्ध कराया है वह विश्व ज्ञान भण्डार की अमूल्य निधि है। सनातन धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिक्ख धर्म और उनकी विभिन्न शाखाओं का यहीं प्रादुर्भाव हुआ। सिक्ख धर्म के संस्थापक आदिपुरुष गुरुनानक भी यहीं ईसा की पन्द्रहवीं (15 अप्रैल 1469 को जन्म) शताब्दी में पैदा हुये थे। उनके धार्मिक उपदेश गुरुग्रंथसाहेब में संग्रहीत हैं।

गुरुनानन देेव ने प्रकृति के सौन्दर्य, विचित्रता और विधान में ही उस परमात्मा के दर्शन किये जो निराकार, अदृश्य और सर्वशक्तिमान है किन्तु समस्त  विश्व का मालिक है। उसको उनने ‘मालिक’ कहा है और अपने को उसका शिष्य। इसीलिए उनकी मान्यतानुसार उनका धर्म सिक्ख (शिष्य) है। परमात्मा को ‘अकालपुरुष’ या ‘ओंकार’ नाम से बखाना है और ‘ऊँ’ संकेत से माना है। नानकदेव जी, सत्य, सदाचार सद्ïभाव और शक्ति के उपासक थे और तत्कालीन समाज में प्रचलित अंधविश्वासों, रूढिय़ों और बुराइयों का विरोध कर उन्होंने  उन्हें त्यागने के उपदेश दिए है। उन्होंने सनातन धर्म के सार तत्वों को अपना कर ”वाहे गुरु’’ की प्रतिष्ठा की। वाहे गुरु सर्वव्यापक और कण-कण में विद्यमान तत्व है। समाज की सुख-शांति के लिए उन्होंने मनुष्य को सरलता, समानता और निश्छल व्यवहार करने और पाखण्ड से दूर रहने का रास्ता अपनाने को कहा। बुराई का विरोध और अच्छाई की वकालत की नीति अपनाने का संदेश दिया।

गुरुनानक ने विदेशों की भी यात्रायें की थीं। एक बार वे मक्का में ‘काबा’ की ओर पैर करके सो रहे थे। लोगों को इस पर आपत्ति होने पर उन्होंने कहा-”जहाँ अल्लाह न हो वहाँ मेरे पैर कर दीजिये।’’ कहते हैं जिस तरफ भी उनके पैर घुमाये गये ‘काबा’ को भी लोगों ने उसी ओर घूमते देखा। यह उनकी भावना और ईश्वर की उन पर कृपा का उदाहरण है। ईश्वर तो भावना को महत्व देते हैं आडम्बर को नहीं यह नानक जी का मान्य सिद्धान्त है।

अन्य घटना बगदाद की है। बगदाद का शासक अत्यन्त अत्याचारी और दुष्ट था। अनाचार से उसने लोगों की धन सम्पत्ति छीनकर इक ट्ïठी कर ली थी। देश की जनता दु:खी थी। शासक के व्यवहार से लोग त्रस्त थे। नानक जी को यह मालूम होने पर उन्होंने जनता को राजा के दुव्र्यवहार से बचाने और सम्राट को सीख देने के लिए एक मौन आयोजन किया। राजमहल के दरवाजे के पास बहुत से कंकड़ों का ढेर इकट्ïठा कर वहीं बैठे रहे। जब सम्राट को इसकी खबर मिली तो वह क्रोधित हो वहाँ आया और बोला-”ये कंकड़ इकट्ïठे कर यहाँ क्यों बैठे हो ?’’ नानक जी ने कहा ”मैंने ये सब कयामत के दिन जरूरत के माफिक पेश करने के लिए रखे हैं।’’ सुनकर सम्राट ने उपहास करते हुए कहा-”उस दिन तो कोई सुई धागा भी साथ नहीं ले जा सकता।’’ सम्राट के मन की बात सुनकर नानक देव ने कहा-”आपने लोगों से लूटकर जो सम्पत्ति इकट्ïठी की है वह तो ले जाई जा सकेगी इसीलिए इस महल के पास मैंने ये इकट्ïठा किया है।’’ नानक जी की व्यंगवाणी से आहत सम्राट ने उनके आशय को समझ लिया और अत्याचार से संपत्ति को संग्रह करना छोड़ दिया।

गुरु नानक देव ने संत कबीर  की ही भाँति सामाजिक कुरीतियों और आडम्बरों का त्याग कर सरल चित्त से ईश्वर की उपासना को महत्व दिया है।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ विचार का महत्व॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ विचार का महत्व ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

ऐसा शायद ही कोई हो जिसके मन में कोई विचार न उठते हों। हमेशा ही हर एक के मन में विचार आते रहते हैं। अगर कुछ अन्य नहीं तो यह ही कि आराम और सुख पाने को क्या किया जाय। जीवन में विचारों का बड़ा महत्व है। विचार ही सृजन के आधार है। जब तक कोई विचार उत्पन्न नहीं होता, तब तक व्यक्ति कोई क्रिया नहीं करता। और यदि क्रिया न हो तो कोई निर्माण नहीं हो सकता। किसी भी उदाहरण से इसे सरलता से समझा जा सकता है। विचार ही कार्य हेतु प्रेरक होता है। यदि बादशाह शाहजहाँ को अपनी पत्नी मुमताजमहल के लिए अप्रत्तिम सुन्दर मकबरा बनवाने का विचार न आया होता तो विश्वप्रसिद्ध ताजमहल  जिसे देखने की लालसा संसार के हर भाग में चाहे वह कहीं भी रहता हेा व्यक्ति को बनी रहती है, न बना होता।

हर कृति, हर निर्माण, हर उपलब्धि के लिए पहले विचार आवश्यक है। परन्तु जीवन में सामान्यत: विचारों को उचित महत्व नहीं दिया जाता। कई विचार उठते हैं और समाप्त हो जाते हैं और हमेशा के लिए खो जाते हैं। प्रक्रिया आगे बढऩे नहीं पाती। मनुष्य के मस्तिष्क में विचारों की लहरियाँ उसी तरह खेलती हैं जैसे समुद्र में जलोर्मियाँ। बहुत सी लहरें तट तक आती और उसे छूकर गीला कर समाप्त हो जाती है। किन्तु कुछ लहरें इतनी प्रबल होती है कि वे तट पर स्थित चट्ïटानों और बस्तियों को बहुत अधिक प्रभावित करती हैं। यही बात निरन्तर उठने वाले विचारों पर भी लागू होती हैं। कुछ तो कमजोर होते हैं पर कुछ इतने प्रबल होते हैं कि उनका प्रभाव मानव चेतना पर पड़ता है। ऐसे अनेकों महापुरुष, समय-समय पर इस धराधाम में आये जिनके विचारों ने जनजीवन में भारी परिवर्तन लाया है।  ऐसे महान व्यक्ति धार्मिक, सामाजिक सांस्कृतिक, राजनैतिक व आर्थिक सभी क्षेत्रों में हुए हैं।  महात्मा बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, मौहम्मद पैगम्बर, कबीर, तुलसीदास, कार्ल माक्र्स,  महात्मा गांधी,  इत्यादि उन्हीं महानों में से कुछ हैं जिनके विचारों ने मानव समाज को संपूर्ण विश्व में एक नई दिशा और नई दृष्टिï दे, नई जीवनी शक्ति दी है।  इनके विचारों ने अनुपम साहित्य का सृजन किया है।  इसी से विचारब्रह्म या शब्दब्रह्म की परिकल्पना की गई है।  जो सतï्-चितï् आनन्द का पर्याय है।  सदï्विचार ही जीवन के नव निर्माता पोषक प्रकाशदाता तथा अमरता देनेवाले होते हैं। इसी से हमारी वैदिक संस्कृति का उदï्घोष है-  ‘असतो मा सदï्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मामृतगमय।’

जो जैसा सोचता-विचारता है,  वैसा ही बन जाता है।  इसीलिये सभी के लिये सही सोच सही विचार या सही चिन्तन परम आवश्यक है।  एक के विचार अनेकों पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं।  माता-पिता के विचार संतान पर,  शिक्षक के छात्रों पर, अधिकारी के अपने अधीनस्थों पर तथा नेताओं के समाज पर व अनुयायियों पर निश्चित असर डालते हैं। कहावत है-”यथा राजा तथा प्रजा’’। इसीलिये सुविचारवान, विवेक शील शिक्षक को राष्टï्र निर्माता कहा गया है क्योंकि अपने शिक्षकीय जीवनकाल में वह अपने विचारों और व्यवहारों या चरित्र से बहुत बड़ी संख्या में अपने छात्रों को जो देश के भावी नागरिक होते हैं, प्रभावित करता है।

अपने उच्च आदर्श, गंभीर चिन्तन और आध्यात्मिक सोच के कारण ही भारत को विश्व में अनुकरणीय धर्मगुरु का सम्मान प्राप्त है।

सही विचारों पर ध्यान केन्द्रित करना सबके कल्याण की कामना कर चिन्तन करना एक आह्लादकारी प्रक्रिया है। यह मन और जीवन को पावनता प्रदान करने का उत्तम साधन है। सद्ïविचार और सदाचार धन से अधिक मूल्यवान है। यह एक सुखद जनहितकारी मंगल अनुष्ठान है। आत्मोत्कर्ष और मानव कल्याण हित सद्ïविचारों की उत्पत्ति वैसी ही आवश्यक और महात्वपूर्ण है जैसे जीवन रक्षा के लिये कृषि द्वारा अन्नोत्पादन।-

एकेनैव सुविचारेण विश्व: याति उन्नतिम्,

कुविचारेण किन्तु प्राय: दु:खं गत्वाविनश्यति॥

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 147 ☆ प्रकृति कितना देती है- ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 147 ☆ प्रकृति कितना देती है-  ?

लगभग पंद्रह दिन पहले हमारे शहर में पानी कटौती की घोषणा की गई थी। चार बांधों की कुल क्षमता उनत्तीस टीएमसी है। जुलाई के आरंभ तक केवल अढ़ाई टीएमसी पानी ही शेष बचा था। शहर आतुरता से मानसून की बाट जोह रहा था। कटौती आरम्भ हुई। बमुश्किल दो या तीन बार ही कटौती अमल में लाई जा सकी। इस बीच वर्षा ने शहर में मानो अपना डेरा ही डाल लिया। सूखा शहर आकंठ डूब गया पानी की अमृत बूँदों में। पिछले बारह दिनों में बारह टीएमसी पानी बांधों में जमा हो चुका। मूसलाधार वर्षा ने बांधों का चालीस प्रतिशत कोटा बारह दिनों में ही पूरा कर दिया। यह तब है जब मनुष्य पिछले कुछ दशकों से  हरियाली पर निरंतर धावा बोल रहा है। खेती की ज़मीन बिल्डरों के हवाले कर रहा है, पेड़ काट रहा है,  काँक्रीट के जंगल बना रहा है। डामर और सीमेंट की चौड़ी सड़कों, प्लास्टिक वेस्ट, ई-कचरा, कार्बन उत्सर्जन से प्रकृति की श्वासनली बंद करने का प्रयास कर रहा है।

पानी की निकासी और धरती में समाने के प्राकृतिक मार्ग अनेक स्थानों पर हमने बंद कर दिये हैं। हम प्रकृति को प्यासा मार रहे हैं और प्रकृति हमारे लिए जगह-जगह बारहमासी प्याऊ लगाने में जुटी है।

प्रकृति चराचर की माँ है। माँ सदैव दाता ही रहती है। सुमित्रानंदन पंत जी की सुप्रसिद्ध कविता ‘यह धरती कितना देती है’ स्मरण हो आती है। इस लम्बी कविता की कुछ चुनिंदा पंक्तियाँ देखिए-

मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे

सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे….

पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,

बंध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला…!

मैंने कौतूहलवश आँगन के कोने की

गीली तह को यों ही उंगली से सहलाकर

बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे….!

देखा आँगन के कोने में कई नवागत

छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं…!

अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ

हरे भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे

बेलें फैल गई बल खा, आँगन में लहरा..!

यह धरती कितना देती है…! धरती माता

कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को…!

सोचता हूँ प्रकृति कितना देती है। अपनी स्वार्थलोलुपता में प्रकृति के मूल पर चोट कर मनुष्य, मौसमी असंतुलन का शिकार हो रहा है। सनद रहे, इस असंतुलन से संतुलन की ओर लौटने के सिवा अन्य कोई विकल्प नहीं है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ दान का सुसंस्कार॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ दान का सुसंस्कार ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

एक सद्गृहस्थ थे। बड़ी सादगी से संयमित जीवन बिता रहे थे। अपने परिवार को सुसंस्कारी बनाने में निरत थे। सबकों सदाचार की प्रेरणा देते थे। नीति पूर्वक अपनी आजीविका कमाते थे और संतोष पूर्वक रहते थे। जितना परोपकार बन सकता था करते रहते। अपने धन और समय का यथा संभव परमार्थ में नियोजन करते और आत्म शांति का अनुभव करते थे। शांति की साधना के लिए पारंपरिक रूप से वे वन तो नहीं गये वरन तपोवन की सी शांति उन्हें उनके घर में ही उपलब्ध हो गई। उनकी ऐसी योग साधना से देवता बड़े प्रसन्न हुये। एक दिन देवराज इंन्द्र ने प्रकट होकर उस विरक्त गृहस्थ से अपनी प्रसन्नता दिखाते हुए वरदान माँगने को कहा।

सरल और संतुष्ट गृहस्थ के सामने बड़ी समस्या आ खड़ी हुई। आखिर जिसे कुछ नहीं चाहिए वह क्या माँगे ? जिसका मन निश्छल है और जिसे संतोष प्राप्त है उसके सामने तो विश्व की सारी संपदा भी धूल के समान तुच्छ होती है।

कहा है-

गोधन, गजधन, वाजि धन और रतन धन खान,

जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान॥

वरदान माँगने की इच्छा न होते हुए भी उसने इसलिए कि कही देवराज को बुरा न लगे और वरदान न माँगने को कहीं वे अपना अपमान न समझ ले उसने बड़े सोच विचार से विनम्रता पूर्वक वरदान माँगा। वरदान में गृहस्थ ने देव राज से यह वरदान देने के प्रार्थना की कि जहाँ भी उसकी छाया पड़े वहाँ पर कल्याण की वर्षा हो। ऐसे अनोखे वरदान माँगने वाले गृहस्थ को ‘तथास्तु’ कह कर उसका मुँह माँगा  वरदान तो दिया किन्तु आश्चर्य और उत्सुकता से उसके द्वारा ऐसे वरदान माँगने का अभिप्राय जानना चाहा। उन्होंने उससे कहा कि किसी को हाथ उठाकर या उसके सिर पर हाथ रखकर कृपा करने से तो आनंद मिलता है, दूसरे पर उपकार भी किया जा सकता है प्रशंसा भी पाई जा सकती है और आभार भी किन्तु छाया के पडऩे पर कल्याण देने पर तो लेने वाला देने वाले से और देने वाला लेने वाले से पूर्णत: अपरिचत बने रहेंगे। आप किसका कल्याण कर रहे आपको मालूम भी न रहेगा।

सद्गृहस्थ ने विनम्रता से कहा-‘भगवन्ï सच्चा दान तो वही है जो औरों का कल्याण करे परन्तु दाता को यह भी ज्ञान न हो कि कल्याण किस व्यक्ति विशेष का हुआ। केवल परहित की भावना से दान उपकार करे तो वह दाता के लिये भी हितकारी है और जिसका कल्याण होता है उसको भी। दाता को देने का अभिमान भी नहीं होता और उसके निश्चित क्रिया-कलापों में दैनिक जीवन में कोई व्यवधान भी नहीं होता। ‘

दान का यही रूप पवित्र और महान है तथा दाता को महामानव की श्रेणी में पहुँचाता है।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हिंदी फिल्मी गीतों में उदात्त प्रेम ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  हिंदी फिल्मी गीतों में उदात्त प्रेम ??

प्रेम केवल मनुष्य नहीं अपितु सजीव सृष्टि का शाश्वत और उदात्त मूल्य है। इस उदात्तता के दर्शन यत्र-तत्र-सर्वत्र होते हैं। उदात्त प्रेम के इस रूप को प्राचीन भारत में मान्यता थी। विवाह के आठ प्रकारों की स्वीकार्यता इस मान्यता की एक कड़ी रही।

कालांतर में लगभग एक हज़ार साल के विदेशी शासन ने सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों में भारी उलटफेर किया। इस उलटफेर ने वर्ग और वर्ण के बीच संघर्ष उत्पन्न किया। इसके चलते प्रेम की अनुभूति तो शाश्वत रही पर सामाजिक चौखट के चलते अभिव्यक्ति दबी- छिपी और मूक होने लगी।

1931 में आया पहला बोलता सिनेमा ‘आलमआरा’ और मानो इस मूक अभिव्यक्ति को स्वर मिल गया। यह स्वर था गीतों का।

अधिकांश फिल्मों की कहानी का केंद्र नायक, नायिका और उनका प्रेम बना। यह प्रेम फिल्मी गीतों के बोलों में बहने लगा। ख़ासतौर पर 50 से 70 के दशक के गीतों की समष्टि में व्यक्ति को अपनी भावना की अभिव्यक्ति मिलने लगी। कुछ ऐसी अभिव्यक्ति जैसी ‘उबूंटू’ के भाव में है। समष्टि के लिए रचे गीत वह गा सकता था, गुनगुना सकता था/ थी, जिनमें निगाहें कहीं थीं और निशाना कहीं था। इन प्रेमगीतों ने भारतीय समाज को मन के विरेचन के लिए बड़ा प्लेटफॉर्म दिया।

गीतकारों ने गीत भी ऐसे रचे जिसमें प्रेम अपने मौलिक रूप में याने उदात्त भाव में विराजमान था। प्रेम को विदेह करती यह बानगी देखिए, ‘दर्पण जब तुम्हें डराने लगे, जवानी भी तुमसे दामन छुड़ाने लगे, तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा सर झुका है, झुका ही रहेगा तुम्हारे लिए..।’

स्थूल को सूक्ष्म का प्रतीक मानने की यह अनन्य दृष्टि देखिए, ‘तुझे देखकर जग वाले पर यकीन क्योंकर नहीं होगा, जिसकी रचना इतनी सुंदर, वो कितना सुंदर होगा…/ अंग-अंग तेरा रस की गंगा, रूप का वो सागर होगा..।’

प्रेम के मखमली भावों की शालीन प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति का यह ग़जब देखिए, ‘मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा, बात ज़रा सी।’ श्रृंगार भी शालीनता से ही अलंकृत रहा,’ मन की प्यास मेरे मन से न निकली, ऐसे तड़पूँ हूँ जैसे जल बिन मछली।’

प्रीत की उलट रीत कुछ यों अभिव्यक्त हुई है, ‘दिल अपना और प्रीत पराई, किसने है यह रीत बनाई..।’ इस रीत के रहस्य को छिपाये रखने का भी अपना अलग ही अंदाज़ है, ‘होठों पे ऐसी बात मैं दबाके चली आई, खुल जाए वही बात तो दुहाई है दुहाई..।’ प्रेयसी के अधरों तक पहुँचे शब्दों में ‘अ-क्षरा’ भाव तो सुनते ही बनता है, ‘होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो..।’ होठों की बात कहने के लिए मीत को बुलाना और मीत को सामने पाकर आँख चुराना दिलकश है, साथ ही अपनी बीमारी के प्रति अनजान बनना तो क़ातिल ही है, ‘मिलो न तुम तो हम घबराएँ, मिलो तो आँख चुराएँ../ तुम्हीं को दिल का राज़ बताएँ, तुम्हीं से राज़ छुपाएँ,…हमें क्या हो गया है..!’

चाहत अबाध है, ‘चाहूँगा तुझे सांझ सवेरे’.., चाहत में साथ की साध है, ‘तेरा मेरा साथ रहे..’ चाहत में होने से नहीं, मानने से जुदाई है,’जुदा तो वो हैं खोट जिनकी चाह में है..।’ अपने साथी में अपनी दुनिया निहारता है आदमी, ‘तुम्हीं तो मेरी दुनिया हो’ पर गीत दुनियावी आदमी को दुनिया की हकीकत से भी रू-ब-रू कराता है, ‘छोड़ दे सारी दुनिया किसीके लिए, ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए।’

उदात्त प्रेम केवल प्रेमी-प्रेमिका तक सीमित नहीं रहता। इसके घेरे में सारे रिश्ते और सारी संवेदनाएँ आती हैं। देश के प्रति निष्ठा हो, भाई- बहन का सहोदर भाव हो या पिता से परोक्ष बंधी पुत्री की गर्भनाल हो.., गीतों में सब अभिव्यक्त होता है। कलेजे के टुकड़े को विदा करती पिता की यह पीर साहिर लुधियानवी की कलम से निकल कर रफी साहब के कंठ में उतरती है और सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक होकर अमर हो जाती है, ‘बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले/ मैके की ना कभी याद आए, ससुराल में इतना प्यार मिले..।’ उदात्त में पराकाष्ठा समाहित है तब भी इसी गीत में उदात्त की पराकाष्ठा भी हो सकती है, इसका प्रमाण छलकता है, ‘..उस द्वार से भी दुख दूर रहे, जिस द्वार से तेरा द्वार मिले..।’

गीत बहते हैं। गीतों में प्यार की लय होती है। प्यार भी बहता है। प्यार में नूर की बूँद होती है,..’ ना ये बुझती है, न रुकती है, न ठहरी है कहीं/ नूर की बूँद है, सदियों से बहा करती है।’

उदात्त प्रेम ऐसा ही होता है, फिर वह चाहे फिल्मी गीतों के माध्यम से मुखर होकर गाए या भीतर ही भीतर अपना मौन गुनगुनाए।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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