हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 143 ☆ चिंतन – मेरी-आपकी कहानी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय एवं विचारणीय आलेख  “चिंतन – मेरी-आपकी कहानी”।)  

☆ आलेख # 143☆ चिंतन – मेरी-आपकी कहानी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

वियतनाम युद्ध से वापस अमेरिका लौटे एक सैनिक के बारे में यह कहानी प्रचलित है। लौटते ही उसने सैन-फ्रांसिस्को से अपने घर फोन किया। “हाँ पापा, मैं वापस अमेरिका आ गया हूँ, थोड़े ही दिनों में घर आ जाऊंगा पर मेरी कुछ समस्या है. मेरा एक दोस्त मेरे साथ है, मैं उसे घर लाना चाहता हूँ। “

“बिलकुल ला सकते हो. अच्छा लगेगा तुम्हारे दोस्त से मिलकर “

“पर इससे पहले की आप हां कहें, आपको उसके बारे में कुछ जान लेना चाहिए, ‘वियतनाम में वह बुरी तरह ज़ख्मी हो गया था, उसका पैर एक बारूदी सुरंग पर पड़ गया और वह एक हाथ और एक पैर गवां बैठा’. अब उसका कोई ठिकाना नहीं है, समझ नही आता की वो अब कहाँ जाए। सोचता हूँ जब उसका कोई आसरा नहीं है तो क्यों ना वह हमारे साथ रहे।””बहुत बुरा लगा सुनकर, चलो कुछ दिनों में उसके रहने का बंदोबस्त भी हो जाएगा, हम लोग इंतजाम कर लेंगे।”

“नहीं, कुछ दिन नहीं, वो हमारे साथ ही रहेगा, हमेशा के लिए।”

“बेटा” पिता ने गंभीर होकर कहा, “तुम नहीं जानते की तुम क्या कह रहे हो। हमारे परिवार पर बहुत बड़ा बोझ पड़ जाएगा अगर इतना ज़्यादा विकलांग इन्सान हमारे साथ रहेगा तो। देखो, हमारा अपना जीवन भी तो है, अपनी जिंदगियाँ भी तो जीनी हैं ना हमें…नहीं, तुम्हारी इस मदद करने की सनक हमारी पूरी ज़िंदगी में बाधा खड़ी कर देगी। तुम बस घर लौटो और भूल जाओ उस लड़के के बारे में। वो अपने दम पे जीने का कोई ना कोई रास्ता खोज ही लेगा।”

लड़के ने फोन रख दिया, इसके बाद उसके माता-पिता से उसकी कोई बात नहीं हुई। बहरहाल, कुछ दिनों बाद ही, सैन-फ्रांसिस्को पुलिस से उनके पास कॉल आया। उन्हें बताया गया की उनके बेटे की एक बहुमंजिला इमारत से गिरकर मृत्यु हो गई है। पुलिस का मानना था की यह आत्महत्या का मामला है। रोते-बिलखते माता पिता ने तुरंत सैन-फ्रांसिस्को की फ्लाईट पकड़ी जहाँ उन्हें मृत शरीर की पहचान करने शवगृह ले जाया गया।

शव उन्ही के बेटे का था, पर उनकी हैरानी की सीमा नहीं रही, जब उन्होंने कुछ ऐसा देखा जिसके बारे में उनके बेटे ने उन्हें नहीं बताया था, उसके शरीर पर एक हाथ और एक पैर नहीं था।

इस बूढे दम्पत्ति की कहानी मेरी-आपकी ही कहानी है। खूबसूरत, खुशनुमा और हँसते-खिलखिलाते लोगों के बीच जीना काफी सरल होता है। पर हम उन्हें पसंद नहीं करते जो हमारे लिए असुविधा पैदा कर सकते हैं या हमें कठिनाई भरी स्थिति में डाल सकते हैं। हम उनसे दूर ही रहते हैं जो इतने सुंदर, स्वस्थ और बुद्धिमान नहीं होते, जितने की हम हैं।पर सौभाग्य से कोई है, जो हमें इस तरह नहीं छोडेगा।

साहस प्रेम प्यार कमजोरी जीवन कोई है, जिसका प्रेम किसी भी शर्त के परे है, उसके परिवार में हर परिस्थिति में हमारे लिए अत है, चाहे हमारी हालत कितनी ही बुरी क्यों ना हो।क्या हम उसी की तरह लोगों को वैसा ही स्वीकार नहीं कर सकते जैसे की वो हैं? उनकी हर कमी, हर कमजोरी के बावजूद?

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में भ्रातृ-प्रेम – भाग – 2 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में भ्रातृ-प्रेम – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

इधर भरत चित्रकूट जाते हुये मन में भाई राम के प्रेम पर अटूट विश्वास था कि मिलने पर वे उन्हें क्षमा कर वापस आकर स्वत: राजा बनेंगे। अपने मन में भरत के लिये किसी प्रकार का बुराभाव नहीं रखेंगे क्योंकि बचपन से ही वे भरत को प्रेम करते हैं। न जाने माता कैकेयी ने किस दुर्बुद्धिवश सारी अयोध्या पर आपत्ति ला खड़ी की है। वे विश्वास रखते हैं-

मैं जानऊं निज नाथ स्वभाऊ, अपराधिहुं पर कोह न काऊ।

मो पर कृपा सनेहु विशेषी, खेलत खुनिस न कबहूं देखी॥

सिसुपन ते परिहरेहु न संगू कबहुं न कीनि मोर मन भंगू।

मैं प्रभु कृपा रीति जियं जोही, हारेहु खेलजिता एहु मोही॥

आन उपाय मोहि नहिं सूझा, को जिय की रघुबर बिन बूझा॥

भरत के दल बल सहित, राम के पास जाने के कारण कईयों को आशंकायें होती हैं। पर राम का पूरा विश्वास है भरत पर-

भरतहिं होई न राजमदु विधि हरिहर पद पाई।

कबहुँ कि काँजी सीकरनि, क्षीर सिंधु विनशाई॥

भरत चित्रकूट तो बड़े भाई राम को वापस लाने का संकल्प लेकर गये थे। उन्हें विश्वास था कि राम के राजा बनने के लिये उनके आग्रह वे मान लेंगे, क्योंकि वे उन्हें बहुत प्यार करते हैं और इससे उनका प्रायश्चित हो जायेगा। उन्हें मन में शांति भी मिलेगी और समस्त अयोध्या का मन प्रसन्न होगा। परन्तु चित्रकूट में राम के मन में उनके लिये अगाध प्रेम ने उनकी मनोभावना ही बदल दी जब राम ने उनपर उनकी शुभ इच्छानुसार ही सही निर्णय कर वापस अयोध्या ले जाकर राज्याभिषेक करने की जिम्मेदारी छोड़ दी। अपने आग्रह पर चलने के लिये दूसरे को बाध्य करने की अपेक्षा यह अधिक उद्दात्त विचार कि कर्तव्य और मर्यादा का उल्लंघन कर किसी को असमंजस में डाल काम कराना कितना सही प्रेम प्रदर्शन होगा, भरत को निर्णय लेना था। राम और भरत का पारस्परिक प्रेम को निभाते हुये दोनों को दोनों पर जिम्मेदारी डालना और निर्णय लेना मानस का अद्भुत मार्मिक प्रेम प्रसंग है। राम को लौटाने का आग्रह त्याग भरत को कहना पड़ा-

अब कृपाल मोहि से मत भावा, सकुच स्वामि मन जाई न पावा।

प्रभुपद सपथ कहऊँ सतभाउ, जग मंगल हित एक उपाऊ॥

प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देव।

सो सिर धरि धरि करिहि सब मिटहि अनट अवरेह॥

तब- दीनबंधु सुन बंधु के वचन दीन छलहीन।

देशकाल अवसर सरिस बोले राम प्रवीण॥

तात तुम्हारि मोरि परिजन की चिंता गुरहि नृपहिं घर वन की।

माथे पर गुरु मुनि मिथलेसू, हमहिं तुम्हहिं सपनेहु न कलेसू॥

पितु आयसु पालहि दुहुँ भाई, लोक वेद भल भूप भलाई।

गुरु पितु मातु स्वामि सिख पाले, चलेहु कुमग पग परहि न खाले।

अस विचार सब सोच विहाई, पालहु अवध अवधि भर जाई॥

इस प्रकार आपसी प्रेम, पिता का वचन और रघुकुल की रीति का मान रख कर राम ने भरत को अयोध्या वापस जाकर राज्य का संचालन और सुरक्षा का भार दे दिया।

भरत और शत्रुघ्न अयोध्या आकर एक सेवक की भांति राम की चरणपादुकाओं को राज सिंहासन पर आसीन कर स्वत: भी राम की ही भांति तापस जीवन बिताते हुए 14 वर्षों तक राम के राज्य का उचित संचालन किया और राम के वापस आने पर उनका राजतिलक कर उन्हें उनका राज्य सौंप दिया।

क्रमशः…

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 144 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 1 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 144 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 1 ?

श्रीक्षेत्र आलंदी / श्रीक्षेत्र देहू से पंढरपुर तक 260 किलोमीटर की पदयात्रा है महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी। मित्रो, विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि-  वारी की जानकारी पूरे देश तक पहुँचे, इस उद्देश्य से 11 वर्ष पूर्व वारी पर बनाई गई इस फिल्म और लेख ने विशेषकर गैर मराठीभाषी नागरिकों के बीच वारी को पहुँचाने में टिटहरी भूमिका निभाई है। यह लेख पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। अधिकांश मित्रों ने पढ़ा होगा। अनुरोध है कि महाराष्ट्र की इस सांस्कृतिक परंपरा को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने में सहयोग करें। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। 🙏

डॉक्यूमेंट्री फिल्म का यूट्यूब लिंक (कृपया यहाँ क्लिक करें) 👉  वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा

निर्माण – श्री  प्रभाकर बांदेकर 

लेखन एवं स्वर – श्री संजय भारद्वाज  

भारत की अधिकांश परंपराएँ ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है-पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि  तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।

स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।

पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले  महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के  विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।

पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।

वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।

अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएँ पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।

अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।

हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बाँटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और  कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार। 

क्रमश:…

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #130 ☆ गरूड़ पुराण – एक आत्मकथ्य ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 130 ☆

☆ ‌आलेख – गरूड़ पुराण – एक आत्मकथ्य ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

वैसे तो  भारतीय संस्कृति मे हमारी जीवन शैली संस्कारों से आच्छादित है, जिससे हमारा समाज एक आदर्श समाज के रूप में स्थापित हो जाता है क्योंकि जो समाज संस्कार विहीन होता है, वह पतनोन्मुखी हो जाता है।  

संस्कार ही समाज की आत्मा है, संस्कारित समाज सामाजिक रिश्तों के ताने-बाने को मजबूती प्रदान करता है, अन्यथा यह समाज पशुवत जीवनशैली अपनाता है और सामाजिक आचार संहिता के सारे कायदे कानून तोड़ देता हैं।

ऐसा कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जो हिंदू जीवन पद्धति का मूल है, जिसके कारण हमारे सामाजिक तथा पारिवारिक जीवन में दया करूणा प्रेम सहानुभूति जैसे मानवीय मूल्य विकसित होते हैं। इसी क्रम में हमारे जीवन में कर्म कांडों का महत्व बढ़ जाता है। क्योंकि इन सारे कर्म काण्डों के मूल में हमारे शास्त्रों पुराणों उपनिषदों तथा वेदों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कुल चार वेद, छः शास्त्र, अठ्ठारह पुराण तथा उपनिषद है, और हर पुराण के मूल में कथाएं हैं, जो हमारे आचरण आचार विचार आहार विहार तथा व्यवहार पक्ष को निर्धारित करती है। संरचना के हिसाब से सारे पुराण अध्यायों तथा खंडों में विभाजित है तथा उनके आयोजन का एकमेव उद्देश्य है, मानव का कल्याण।

इस क्रम में श्रीमद्भा गवत कथा को मोक्ष की प्राप्ति कामना से श्रवण किया जाता है, जहां जिसका श्रवण मृत्यु को अवश्यंभावी जानकर प्राणी के मोक्ष हेतु आयोजन का विधान है, तो गरूण पुराण कथा का श्रवण का परिजनों की मृत्यु के बाद लोगों को अपने प्रिय जनों की बिछोह की बेला में दुख और पीड़ा से आकुल व्याकुल परिजनों को कथा श्रवण के माध्यम से दुःख सहने की क्षमता विकसित करता है। और दुखी इंसान को धीरे-धीरे गम और पीड़ा के असह्य दुख से उबार कर सामान्य सामाजिक जीवन धारा में वापस लौटने में मदद करता है। इसके पीछे मन का मनोविज्ञान छुपा है क्योकि जहां जन्म है वहीं मृत्यु भी है। प्राय:इस कथा का आयोजन हिंदू रीति रिवाजों के अनुसार मृत्यु के पश्चात मृतक शरीर की कपाल क्रिया अन्त्येष्टि संस्कार के बाद मृतक के परिजनों द्वारा आयोजित किया जाता है।

तब जब सारे मांगलिक आयोजन वर्जित माने जाते हैं। गरूण पुराण की कथा की बिषय वस्तु पंच तत्व रचित शरीर को मृत्यु के बाद जला देने तथा इसके बाद में इस शरीर में समाहित सूक्ष्म शरीर की परलोक यात्रा के विधान का वर्णन है। हमारे स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर होता है, जो मन के स्वभाव से आच्छादित होता है क्योकि मृत्यु शैय्या पर पडे़ व्यक्ति में कामनाएं शेष रहती है उस सूक्ष्म शरीर जिसे यमदूत लेकर धर्मराज की नगरी की यात्रा पर निकलते हैं, उसी यात्रा के वृतांत का वर्णन है। गरूण पुराण में जिसमें जिज्ञासु गरूण जी श्री नारायण हरि से प्रश्न करते हैं। और उनकी हर शंका समाधान भगवान विष्णु के द्वारा किया जाता है। उस जीव के भीतर व्याप्त मन जो  दुख और सुख की अनुभूति करता है के कर्मो का पूरा लेखा जोखा प्रस्तुत करते हैं तथा उस यात्रा के दौरान पड़ने वाले पड़ावों का मानव की सूक्ष्म शरीरी यात्रा व शुभ अशुभ कर्मों के परिणाम तथा दंड के विधान की झांकी प्रस्तुत की गई है जिसे देखकर कर सूक्ष्मशरीरी जीव कभी सुखी कभी भयभीत होता है।

इन कथा के श्रवण के पीछे भी लोक कल्याण का भाव समाहित है ताकि हमारा समाज अशुभ कर्मों के अशुभ परिणाम से बच कर, अच्छा कर्म करता हुआ सद्गति को प्राप्त हो अधोगति से बचें। इस कथा में कर्मफल तथा उसके भोग का विधान वर्णित है। इसके साथ ही  साथ ही साथ सामाजिक जीवन आदर्श आचार संहिता के पालन का दिशा निर्देश भी है। शांति पूर्ण ढंग से जीवन जीने की गाइडलाइन भी कह सकते हैं।

# ॐ सर्वे भवन्तु सुखिन: #

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में भ्रातृ-प्रेम – भाग – 1 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में भ्रातृ-प्रेम – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

महाराजा दशरथ के चार पुत्र- राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न में बचपन से ही अत्याधिक पारस्परिक प्रेम था। राम सबसे बड़े थे अत: सभी छोटे भाई उन्हें प्रेम से आदर देते थे। उनकी आज्ञा मानते थे और उनसे कुछ सीखने को तैयार रहते थे। राम भी सब छोटे भाईयों के प्रति प्रीति रखते थे और उनके हितकारी थे।

राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती, नाना भाँति सिखावहिं नीती।

छोटे भाई उनकी आज्ञा मानने को सदा तत्पर रहते थे-

सेवहिं सानुकूल सब भाई, रामचरन रति अति अधिकाई।

प्रभु मुख कमल विलोकत रहहीं, कबहुँ कुपाल हमहिं कछु कहहीं॥

जनकपुर में धनुष यज्ञ के अवसर में गुरु की आज्ञा से राम ने शिव धनुष को चढ़ाया। धनुष टूट गया। राजा जनक के प्रण के अनुसार राम-सीता का विवाह हुआ। उसी मण्डप में चारों भाइयों का विवाह भी सपन्न हुआ। जनक जी के परिवार से सीता जी की अन्य बहिनों के साथ विवाह संपन्न हुये- लक्ष्मण-उर्मिला, भरत-माण्डवी, शत्रुघ्न-श्रुतकीर्ति।

शिवधनुष के टूटने पर परशुराम जी क्रोध में उपस्थित हो धनुष तोडऩे वाले को लांछित करने लगे। यह लक्ष्मण को अच्छा न लगा। लक्ष्मण जी ने परशुराम जी को शान्त रहने के लिए कड़े शब्दों में कहा-

मिले न कबहु सुभट इन गाढ़े, द्विज देवता धरहिं के बाढ़े।

लक्ष्मण को ऐसा कहने से रोकते हुये राम स्नेहवश बोले-

नाथ करिय बालक पर छोहू, सूध दूध मुख करिय न कोहू।

दोनों भाई पारस्परिक प्रेमवश एकदूसरे को परशुरामजी के क्रोध से बचाने का प्रयास करते हैं।

राजा दशरथ अपनी वृद्धाावस्था को नजदीक देख अपने गुरु, मंत्री और समस्त प्रजा की सहमति से राम का राज्याभिषेक करने का निश्चिय करते हैं। राम को जब यह ज्ञात हुआ तो वे विचार करते हैं-

जनमे एक संग सब भाई, भोजन, सयन, केलि लरिकाई।

विमल वंश यह अनुचित एकू, बंधु बिहाय बड़ेहि अभिषेकू।

इस विचार से राम का भ्रातृप्रेम उनके मन की उदारता के भाव प्रकट होते हैं। राज्याभिषेक के स्थान पर परिस्थितियों के उलटफेर से राम को बनवास दिया गया और भरत जो तब ननिहाल में थे को गुरु वशिष्ठ ने शीघ्र बुलवाया क्योंकि भरत की माता कैकेयी के द्वारा दो वरदान पाने से राम को वन जाना पड़ा और भरत को राजगद्दी प्राप्त हुई थी। अत: उनका राज्यतिलक किया जाना था। राम के वियोग में राजा दशरथ का प्राणान्त हो गया था। उनका अंतिम संस्कार भी किया जाना था। भरत ने अयोध्या में आकर जो कुछ होते देखा उससे अत्यंत क्षुब्ध हो माता को बुरा भला कहा। पिता का अंतिम संस्कार किया। खुद को सारे अनर्थ का कारण जानकर प्रायश्चित की दृष्टि से वन में राम से मिल कर अपना मन हल्का करने का सोचा। सबने उन्हें राजपद स्वीकारने का आग्रह किया पर उन्हें राम के प्रेमवश यह सबकुछ स्वीकार नहीं था। वे सब की इच्छानुसार सबजन समुदाय और राजपरिवार तथा गुरु वशिष्ठ की अगुवाई में राम के पास जाने को चित्रकूट में जहां राम थे चलने को तैयार हुये। उधर राम को वन में छोडक़र जब मंत्रि सुमंत दुखी मन से वापस हुये तो मातृप्रेम से भरे हुये राम ने उनसे संदेश भेजा-

कहब संदेश भरत के आये, नीति न तजिब राज पद पाये।

पालेहु प्रजहिं करम मन बानी, सेएहि मातु सकल समजानी।

क्रमशः…

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 16 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 16 ??

लोकसंस्कृति, सृष्टि को युग्मराग मानती है। सृष्टि, प्रकृति और पुरुष के युग्म का परिणाम है। स्त्री प्रकृति है। स्त्री एकात्मता की दूत है। मायके से ससुराल आती है, माँ से, मायके से स्वाभाविक रूप से एकात्म होती है। इसी एकात्म भाव से ससुराल से एकरूप हो जाती है। स्त्रियाँ केवल समझती नहीं अपितु माँ बनकर विस्तार करती हैं एकात्मता का। लोक में वस्तुओं के विनिमय की पद्धति का विकास महिलाओं ने बहुतायत से किया। आवश्यकता पड़ने पर पुरुषों से छिपकर ही सही, कथित निचले वर्ग  या विजातीय स्त्रियों के साथ लेन-देन किया। त्योहारों में मिठाई के आदान-प्रदान में विधर्मियों के साथ व्यवहार की वर्जना को स्त्रियों ने सूखे अनाज के बल पर कुंद किया। तर्क यह कि अनाज, धरती की उपज है और धरती तो सबके लिए समान है। यह अद्वैत दृष्टि, यह एकात्मता अनन्य है।

मनुष्य विकारों से मुक्त नहीं हो सकता। स्वाभाविक है कि लोक भी इसका अपवाद नहीं हो सकता लेकिन वह गाँठ नहीं बांधता। किसी कारण से किसी से द्वेष हो भी गया तो उसकी नींव पक्की होने से पहले विरोधी से होली पर गले मिल लेता है, दिवाली पर धोक देने चला जाता है। जैन दर्शन का क्षमापना पर्व भी इसी लोकसंस्कृति का एक गरिमापूर्ण अध्याय है।

लोक और प्रकृति में समरसता है, एकात्म है। लोक ‘क्षिति, जल, पावक, गगन, सरीरा, पंचतत्व से बना सरीरा’ के अनुसार इन्हीं तत्वों को सृष्टि के विराट में देखता है। सूक्ष्म को विराट में देखना, आत्मा को परमात्मा का अंश मानना, एकात्मता की इससे बेहतर कोई परिभाषा हो सकती है क्या?

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 4 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 4 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

सीता जी से वाटिका में मिलने पर हनुमान जी ने माता को अपना परिचय दिया। पहले कभी देखा नहीं था, इसलिये विश्वास दिलाने को वे राम के दूत हैं उन्हें राम द्वारा परिचय के लिये दी गई रामनाम अंकित मुद्रिका प्रस्तुत की। सीता जी ने उन पर विश्वास कर उन्हें रामदूत माना और आशीष दिया।

वहीं अशोक वाटिका में रावन ने सेना सहित आकर सीता जी को डराया-धमकाया और एक माह के भीतर उसकी इच्छा की पूर्ति के लिये समय दे चला गया। सीता जी अत्यंत व्याकुल हो मन से अपने को नष्ट कर डालने के लिये अपनी चौकसी में तैनात त्रिजटा राक्षसी से अग्नि ला देने की इच्छा व्यक्त करती हैं। वह उत्तर देती हैं कि रात अधिक हो गई है, उस समय कहीं अग्नि नहीं मिलेगी। ऐसा कहकर चली जाती है, परन्तु सीता को ढांढस बंधाने के लिये उसने अन्य राक्षसियां जो वहां पहरे पर तैनात थीं, को अपना सपना सुनाती हैं कि उसने स्वप्न देखा है कि रावण गधे पर बैठा हुआ दक्षिण दिशा की ओर जाते देखा गया है। इस सपने से संकेत दिया है कि रावण का शीघ्र ही विनाश होगा और श्रीराम सीता जी के ले जाने के लिये शीध्र ही लंका में आयेंगे। अत: ये सीता को डरायें-धमकायें नहीं तभी उनका सबका हित होगा।

सपने वानर लंका जारी, जातुधान सेना सब मारी।

खर आरुढ़ नगन दससीसा, मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥

एहि विधि सो दक्षिण दिसि जाई, लंका मनहुं विभीषण पाई।

नगर फिरी रघुबीर दोहई, तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥

यह सपना मैं कहऊं पुकारी, होइहिं सत्य गये दिन चारी।

तासु वचन सुनि ते सब डरीं, जनकसुता के चरनन्हि परी॥

इस प्रकार के अनेक प्रसंगों का वर्णन मानस में तुलसी ने किया है। सबका विस्तार से उल्लेख करना इस लेख में कठिन इसलिये है क्योंकि उससे लेख की सीमा का विस्तार बहुत होगा। फिर भी कुछ और का नामोल्लेख नीचे किया जा रहा है। जिसे पाठक मूल मानस में पढक़र समझ सकते हैं तथा तुलसी के अभिव्यक्ति कौशल का आनंद ले सकते हैं। ऐसे अन्य प्रसंग हैं- (1) भरत और शत्रुघ्न का ननिहाल से बुलवाये जाने पर मार्ग में उन्हें अपशकुनों का अनुभव होना। (2) सीता जी की खोज में लंका जाते समय हनुमान जी को अनेकों शुभ शकुनों का होना। (3) लंका में मंदोदरी और रावन को युद्ध के समय अनेकों अशुभों का आभास या अनुभव होना। (4) लंका में विजय प्राप्त कर बनवास की समाप्ति पर राम के लौटने पर भरतजी को माताओं तथा आयोध्यावासियों को मन में शुभ भावों का उदित होना, मन का प्रफुल्लित होना, मौसम का अच्छा हो जाना। (5) शंकर जी के मन को काम के द्वारा क्षुब्ध किये जाने पर सारी प्रकृति और जन जीवन में कामभाव का प्रादुर्भाव इसी प्रकार कई अन्य प्रसंगों में तुलसी का साहित्यिक अभिव्यक्ति कौशल स्पष्ट परिलक्षित होता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #138 ☆ सब्र और ग़ुरूर ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सब्र और ग़ुरूरयह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 138 ☆

☆ सब्र और ग़ुरूर

‘ज़िंदगी दो दिन की है।  एक दिन आपके हक़ में और एक दिन आप के खिलाफ़ होती है। जिस दिन आपके हक़ में हो, ग़ुरूर मत करना और जिस दिन खिलाफ़ हो, थोड़ा-सा सब्र ज़रूर करना।’ सब दिन होत समान अर्थात् समय परिवर्तनशील है; पल-पल रंग बदलता है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति सुख में कभी फूलता नहीं; अपनी मर्यादा व सीमाओं का उल्लंघन नहीं करता तथा अभिमान रूपी शत्रु को अपने निकट नहीं फटकने देता, क्योंकि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। वह दीमक की तरह बड़ी से बड़ी इमारत की जड़ों को खोखला कर देता है। उसी प्रकार अहंनिष्ठ मानव का विनाश अवश्यंभावी होता है। वह दुनिया की नज़रों में थोड़े समय के लिए तो अपना दबदबा क़ायम कर सकता है, परंतु एक अंतराल के पश्चात् वह अपनी मौत स्वयं मर जाता है। लोग उसके निकट जाने से भी गुरेज़ करने लगते हैं। इसलिए मानव को इस तथ्य को सदैव अपने ध्यान में रखना चाहिए कि ‘सुख के सब साथी दु:ख में न कोय।’ सो! मानव को सुख में अपनी औक़ात को सदैव स्मरण में रखना चाहिए, क्योंकि सुख सदैव रहने वाला नहीं। वह तो बिजली की कौंध की मानिंद अपनी चकाचौंध प्रदर्शित कर चल देता है

इंसान का सर्वश्रेष्ठ साथी उसका ज़मीर होता है; जो अच्छी बातों पर शाबाशी देता है और बुरी बातों पर अंतर्मन को झकझोरता है। किसी ने सत्य ही कहा है कि ‘हां! बीत जाती है सदियां/ यह समझने में/ कि हासिल करना क्या है? 

जबकि मालूम यह भी नहीं/ इतना जो मिला है/ उसका करना क्या है?’ यही है हमारे जीवन का कटु यथार्थ। हम यह नहीं जान पाते कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है; हम संसार में आए क्यों हैं और हमारे जीवन का प्रयोजन क्या है? इसलिए कहा जाता है कि अच्छे दिनों में आप दूसरों की उपेक्षा मत करें; सबसे अच्छा व्यवहार करें तथा इस बात पर ध्यान केंद्रित करें कि सीढ़ियां चढ़ते हुए बीच राह चलते लोगों की उपेक्षा न करें, क्योंकि लौटते समय वे सब आपको दोबारा अवश्य मिलेंगे। सो! अच्छे दिनों में ग़ुरूर से दूर रहने का संदेश दिया गया है।

जब समय विपरीत दिशा में चल रहा हो, तो मानव को थोड़ा-सा सब्र अथवा संतोष अवश्य रखना चाहिए, क्योंकि यह सुख वह आत्म-धन है; जो हमारी सकारात्मक सोच को दर्शाता है। इसलिए दु:ख को कभी अपना साथी मत समझिए, क्योंकि सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। एक के जाने के पश्चात्  ही दूसरा दस्तक देता है। इसलिए कहा जाता है कि जो सुख में साथ दें, रिश्ते होते हैं/ जो दु:ख में साथ दें, फरिश्ते होते हैं।’ विषम परिस्थितियों में कोई कितना ही क्यों न बोल; स्वयं को शांत रखें, क्योंकि धूप कितनी तेज़ हो; समुद्र को नहीं सुखा सकती।  सो! अपने मन को शांत रखें; समय जैसा भी है– अच्छा या बुरा, गुज़र जाएगा।

विनोबा भावे के अनुसार ‘जब तक मन नहीं जीता जाता और राग-द्वेष शांत नहीं होते; तब तक मनुष्य इंद्रियों का गुलाम बना रहता है।’ सो! मानव को स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना होगा। इसके लिए वाशिंगटन उत्तम सुझाव देते हैं कि ‘अपने कर्त्तव्य में लगे रहना और चुप रहना बदनामी का सबसे अच्छा जवाब है।’ हमें लोगों की बातों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए, क्योंकि लोगों का काम तो दूसरों के मार्ग में कांटे बिछा कर पथ-विचलित करना है। यदि आप कुछ समय के लिए ख़ुद को नियंत्रित कर मौन का दामन थाम लेते हैं और तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देते, तो उसका परिणाम घातक नहीं होता। क्रोध तो दूध के उफ़ान की भांति आता है; जो पल भर में शांत हो जाता है। सो! मौन रह कर अपने कार्य को सदैव निष्ठा से करें और व्यस्त रहें– यही सबसे कारगर उपाय है। इस प्रकार आप निंदा व बदनामी से बच सकते हैं। वैसे भी बोलना एक सज़ा है। इसलिए मानव को यथा-समय, यथा-स्थान उचित बात कहनी चाहिए, ताकि हमारी प्रतिष्ठा व मान-सम्मान सुरक्षित रह सके। सच्ची बात यदि मर्यादा में रहकर व मधुर भाषा में बोल कर कहें, तो सम्मान दिलाती है; वरना कलह का कारण बन जाती है। ग़लत बोलने से मौन रहना श्रेयस्कर है और यही समय की मांग है। दूसरे शब्दों में वाणी पर नियंत्रण व मर्यादापूर्वक वाणी का प्रयोग मानव को सम्मान दिलाता है तथा इसके विपरीत आचरण निरादर का कारण बनता है। 

कबीरदास के मतानुसार ‘सबद सहारे बोलि/ सबद के हाथ न पांव/ एक सबद करि औषधि/ एक सबद करि घाव’ अर्थात् वाणी से निकला एक कठोर शब्द घाव करके महाभारत करा सकता है तथा वाणी की मर्यादा में रहकर बड़े-बड़े युद्धों पर नियंत्रण किया जा सकता है। आगे चलकर वे कहते हैं कि ‘जिभ्या जिन बस में करी/ तिन बस किये जहान/ नहीं तो औगुन उपजै/ कहें सब संत सुजान।’ इस प्रकार मानव अपने अच्छे स्वभावानुसार बुरे समय को टाल सकता है। दूसरी ओर ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान।’ रहीम जी का यह दोहा भी मानव को आत्म-संतुष्ट रहने की सीख देता है। मानव को किसी से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि जो मिला है अर्थात् प्रभु प्रदत्त कांटों को भी पुष्प-सम मस्तक से लगाना चाहिए और प्रसाद समझ कर ग्रहण करना चाहिए। 

भगवद्गीता का यह संदेश अत्यंत सार्थक है कि ‘जो हुआ है, जो हो रहा है और जो होगा निश्चित है।’ इसमें मानव कुछ नहीं कर सकता। इसलिए उसे नतमस्तक हो स्वीकारना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि ‘होता वही है जो मंज़ूरे ख़ुदा होता है।’ सो! उस परम सत्ता की रज़ा को स्वीकारने के अतिरिक्त मानव के पास कोई विकल्प नहीं है।

मीठी बातों से मानव को सर्वत्र सुख प्राप्त होता है और कठोर वचन का त्याग वशीकरण मंत्र है। तुलसी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। मानव को अपनी प्रशंसा सुन कर कभी गर्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह आपकी उन्नति के मार्ग में बाधक है। इसलिए कठोर वचनों का त्याग वह  वशीकरण मंत्र है; जिसके द्वारा आप दूसरों के हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। सो! जीवन में मानव को कभी अहम् नहीं करना चाहिए तथा जो मिला है ; उसी में संतोष कर अधिक की कामना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह मार्ग हमें पतन की ओर ले जाता है। दूसरे शब्दों में वह हमारे हृदय में राग-द्वेष के भाव को जन्म देता है और हम दूसरों को सुख-सुविधाओं से संपन्न देख उनसे ईर्ष्या करने लग जाते हैं तथा उन्हें नीचा दिखाने के अवसर तलाशने में लिप्त हो जाते हैं। दूसरी ओर हम अपने भाग्य को ही नहीं, प्रभु को भी  कोसने लगते हैं कि उसने हमारे साथ वह अन्याय क्यों किया है? दोनों स्थितियों में इंसान ऊपर उठ जाता है और उसे वही मनोवांछित फल प्राप्त होता है और वह जीते जी आनंद से रहता है। ग़मों की गर्म हवा का झोंका उसका स्पर्श नहीं कर पाता।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 15 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 15 ??

लोकपरंपराओं, लोकविधाओं- गीत, नृत्य, नाट्य, आदि का जन्मदाता कोई एक नहीं है। प्रेरणास्रोत भी एक नहीं है। इनका स्रोत, जन्मदाता, शिक्षक, प्रशिक्षक, सब लोक ही है। गरबा हो, भंगड़ा हो,  बिहू हो या होरी, लोक खुद इसे गढ़ता है, खुद इसे परिष्कृत करता है। यहाँ जो है, समूह का है। जैसे ॠषि परंपरा में सुभाषित किसने कहे, किसने लिखे का कोई रेकॉर्ड नहीं है, उसी तरह लोकोक्तियों, सीखें किसी एक की नहीं हैं। परंपरा की चर्चा अतीतजीवी होना नहीं होता। सनद रहे कि अतीत के बिना वर्तमान नहीं जन्मता और भविष्य तो कोरी कल्पना ही है। जो समुदाय अपने अतीत से, वह भी ऐसे गौरवशाली अतीत से अपरिचित रखा जाये. उसके आगे का प्रवसन सुकर कैसे होगा? विदेशी शक्तियों ने अपने एजेंडा के अनुकूल हमारे अतीत को असभ्य और ग्लानि भरा बताया। लज्जित करने वाला विरोधाभास यह है कि निरक्षरों का ‘समूह’, प्राय: पढ़े-लिखों तक आते-आतेे ‘गिरोह’ में बदल जाता है। गिरोह निहित स्वार्थ के अंतर्गत कृत्रिम एकता का नारा उछालकर उसकी आँच में अपनी रोटी सेंकता है जबकि समूह एकात्मता को आत्मसात कर, उसे जीता हुआ एक साथ भूखा सो जाता है।

लोक का जीवन सरल, सहज और अनौपचारिक है। यहाँ छिपा हुआ कुछ भी नहीं है। यहाँ घरों के दरवाज़े सदा खुले रहते हैं। महाराष्ट्र के शिर्डी के पास शनैश्वर के प्रसिद्ध धाम शनि शिंगणापुर में लोगों के घर में सदियों से दरवाज़े नहीं रखने की लोकपरंपरा है। कैमरे के फ्लैश में चमकने के कुछ शौकीन ‘चोरी करो’(!) आंदोलन के लिए वहाँ पहुँचे भी थे। लोक के विश्वास से कुछ सार्थक घट रहा हो तो उस पर ‘अंधविश्वास’ का ठप्पा लगाकर विष बोने की आवश्यकता नहीं। खुले दरवाज़ों की संस्कृति में पास-पड़ोस में, मोहल्ले में रहने वाले सभी मामा, काका, मामी, बुआ हैं। इनमें से कोई भी किसीके भी बच्चे को अधिकार से डाँट सकता है, अन्यथा मानने का कोई प्रश्न ही नहीं। इन आत्मीय संबोधनों का परिणाम यह कि सम्बंधितों के बीच  अपनेपन का रिश्ता विकसित होता है। गाँव के ही संरक्षक हो जाने से अनैतिक कर्मों और दुराचार की आशंका कम हो जाती है। विशेषकर बढ़ते यौन अपराधों के आँकड़ों पर काम करने वाले संबोधन द्वारा उत्पन्न होने वाले नेह और दायित्व का भी अध्ययन करें तो तो यह उनके शोध और समाज दोनों के लिए हितकर होगा।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 3 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में तुलसी का अभिव्यक्ति कौशल – भाग – 3 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

वनयात्रा में ही एक अन्य सुन्दर प्रसंग आता है जहां ग्रामीण स्त्रियां नारि सुलभ उत्सुकता से सीता जी ने प्रश्न करती हैं और सीता जी ने बिना शब्दों का उपयोग किये भारतीय मर्यादा की रक्षा करते हुये उनसे पति का नाम लिये बिना नारि की स्वाभाविकता शील को रखते हुये केवल अपने सहज हावभाव से उन्हें राम और लक्ष्मण से उनका क्या संबंध है बताती हैं-

ग्राम्य नारियां पूंछती हैं-

कोटि मनोज लजावन हारे, सुमुखि कहहु को आंहि तुम्हारे।

सुनि सनेहमय मंजुल वाणी, सकुची सिय मन महुँ मुसकानी॥

सीता जी के उत्तर को कवि यूं वर्णन करता है-

तिन्नहिं बिलोकि विलोकत धरनी, दुहुं सकोच सकुचत बरबरनी।

सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी, बोली मधुर वचन पिकबयनी॥

सहज सुभाय सुभग तन गोरे, नाम लखनु लघु देवर मोरे।

बहुरि बदन बिधु लोचन ढाँकी, प्रियतन चितई भौंह कर बाँकी।

खंजन मंजु तिरीछे नयननि, निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सयननि।

भई मुदित सब ग्राम वधूटी, रंकन्ह राय रासि जनु लूटी।

ग्राम वघूटियों ने सीता जी को प्रसन्न हो ग्रामीण भाषा और वैसी ही उपमा में आशीष दिया-

अति सप्रेम सिय पाँय परि, बहुविधि देहिं असीस।

सदा सोहागनि होहु तुम्ह, जब लगि महि अहि सीस॥

कितना भोला और पावन व्यवहार है जो तुलसी ने संकेतों का उपयोग कर प्रस्तुत किया है।

इसी प्रकार हनुमान जी के माँ जानकी की खोज में लंका पहुंचने पर जो उनके लिये सर्वथा नयी अपरिचित जगह थी, उन्हें न तो राह बताने वाला कोई था और न सीता जी का पता ही बताने वाला था। तुलसीदास जी ने शब्द संकेतों व चित्रित चिन्हों से राम भक्त विभीषण को पाया जिसने माता सीता जी तक पहुंचने की युक्ति बताई और पता समझाया। वर्णन है-

रामायुध अंकित गृह शोभा बरनि न जाय।

नव तुलसिका वृन्द तहं देखि हरष कपिराय॥

लंका निसिचर निकर निवासा, इहां कहां सज्जन कर वासा।

मन महुँ तरक करै कपि लागा, तेही समय विभीषण जागा।

राम-राम तेहिं सुमिरन कीन्हा, हृदय हरष कपि सज्जन चीन्हा।

एहि सन हठ करहहुं पहिचानी, साधुते होई न कारज हानि॥

इस प्रकार कठिन समय में संकेतों से कथा को मनमोहक रूप दे आगे बढ़ाया है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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