English Literature – Articles – ☆ World Environment Day Special – पर्यावरण दिवस की दस्तक – श्री संजय भरद्वाज ☆ English Version by Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi article 👉 पर्यावरण दिवस की दस्तकpublished today on the eve of World Environment Day.  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? पर्यावरण दिवस की दस्तक  –  श्री संजय भरद्वाज ??

(विश्व पर्यावरण दिवस पर श्री संजय भारद्वाज जी की एक प्रासंगिक और विचारणीय रचना साझा कर रहा हूँ। साथ में संलग्न है मेरा एक अंग्रेज़ी में अनुवाद प्रयास,अहिन्दी भाषियों और विदेशी  समुदाय हेतु – कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी )

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोज़र और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।

माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, आज पर्यावरण दिवस है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।

कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक – श्री संजय भरद्वाज ☆

☆  English translation by Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

After a trip, I am on my return journey! But, this too is an illusion, since journey never returns, it’s only the man who returns…! D’you really think man ever returns exactly the same way? No, never!

Anyways… Whatever distance I’ve traversed in a direction since morning, the same is being traversed back after the U-turn… Witnessing the fertile land along the railway track and the highways; and the landfill to make these pathways. The bevy of middlemen roam in private sedans and hired-cars from Mumbai, Pune and some upcoming cities, eyeing to grab the land in the “Outskirts” to make a fresh-killing…! These “Dalals”– the Land-agents,  reap the fat-profits! Land-sharks buying-selling the land!

Between the deafening noise of bulldozers and JCBs are standing these terrorized-trees, cursed to witness the massacres of their friends everyday… Even fresh drizzle this morning fails to uplift their sagging spirits…As the adage goes: Even the snakes desert the place where their meat is eaten…But helpless trees can’t even run away; forcing them to remain rooted  wherever they are…only to be chopped off by those, whom they give shade, fruits and the wood…!

Premonition about the death makes a person freeze like an inanimate object…Innately, he doesn’t want to do anything, infact he cannot as he is rendered incapable… Contrary to mankind, an about-to-be-chopped tree gives life-giving oxygen, flowers & fruits and shade till last moment…Even if being trimmed or chopped off, then also tree tries to give new life through its remaining branches…

Our ancestors used to plant trees and invest their hard labour in the land…

Now, the man shamelessly engages himself in buying-selling-trading the land, while remaining in between  felling the trees and calling it: ‘Mother earth’! I find these buyers, sellers, middlemen, as the “Agents” only… Cruelly buying-selling the mother-earth! Inevitably feel as if, the nation has become the “Agent-hub” in the name of development!

Intriguingly, I think how can the development of human race and the annihilation of the nature be a complementary to each other? Mocking at the so-called ever-increasing IQ level of the ‘Shekh Chilli’ — the bufooned-nature man, who takes the life of the life-giving trees!

Killing sun-protecting-shades and piercing ozone-layer through harmful carbon dioxide by excessive use of air-conditioning, makes even all the lunatics of all the mental asylums guffaw at the mankind…

The true picture of today’s ‘Protective Europe’,  selling the dream of ‘Global-village’ to villages, and the images of India of 1980’s decade are almost similar. The pictures depict lush green trees, sources of water, villages! Now, we have waterless lakes, dried up ponds, buildings on the reclaimed water-bodies standing tall on death-defining foundations, absent greenery, dying cattles for the want of fodder; and, converting-fodder into money-grazing beastly humans.

It is believed that human is the dearest child of the ‘Mother-nature’! One always sees the reflection of her child in the eyes of the mother….Cursed mother is shockingly despondent to see the murder of herself in the iris of her own offspring!

And yes, today is World Environment Day. We all will collectively curse the government, politicians, builders,  officials and the inert public. Sheets of papers will be inked with lectures, they will get typed and printed. Though, while printing the monitor will be adorned with: “Save environment. Print this only if necessary!” Nevertheless, disregarding this, we will take out the prints. Possibly, we will make even more printouts, especially, to give it to our media-friends!

How long will this hypocrisy go on? Water is flowing above the nose! Before the nature converts the trailer of Kedarnath disaster into large scale cinemascopic film, we must get rid of the politician, builder, corrupt official and the inert countryman residing within us…

This time, lets pledge ourselves that along with the seminars and discussions, we will pick up spades, hoes, shovels; plant a few trees; and, more importantly, save them. Incidentally, what will we truly gain by writing-printing and so called intellectual ruminations??

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 141 ☆ दर्शन-प्रदर्शन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 141 ☆ दर्शन-प्रदर्शन ?

आज यूँ ही विचार उठा कि समय ने मूल्यों को कितनी गति से और आमूल बदल दिया है। अपवाद तो हर समय होते हैं पर समय के विश्लेषण का मानक तो परम्परा ही होती है। दो घटनाओं के माध्यम से इसे समझने का प्रयास करेंगे।

पहली घटना लगभग चालीस वर्ष पुरानी है।  बड़े भाई महाविद्यालय में पढ़ते थे। उनके एक मित्र उनसे मिलने घर आए। यह साइकिल का जमाना था। गर्मी की छुट्टियों का समय रहा होगा। वे काफी दूर से आए थे, पसीने से लथपथ थे। पानी पीने के बाद माँ से बोले, “चाची शिकंजी बनाना।”  फिर पैंट की जेब में हाथ डाल कर दो नीबू निकाले और कहा, “सोचा, पता नहीं घर में नीबू होगा या नहीं। रास्ते में एक जगह नीबू दिखे तो खरीद लाया।” माँ ने उन्हीं नीबुओं से शिकंजी बनाई।

ये वे दिन थे जब जीवन को सहजता से जिया  जाता था। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का दर्शन  हमारे सामाजिक-जीवन का केंद्र था। समय के साथ केंद्र सरका और दर्शन को प्रदर्शन ने विस्थापित कर दिया। इस विस्थापन का एक अनुभव हुआ लगभग दस वर्ष पहले।

एक व्याख्यान के लिए दिल्ली जाना था। सम्बंधित संस्था ने आने-जाने के लिए हवाई जहाज की यात्रा का किराया देने का प्रावधान किया था। मैंने इकोनॉमी क्लास के टिकट खरीदे। एक  परिचित भी उसी आयोजन में जाने वाले थे। सोचा एक से भले दो। यात्रा में साथ हो जाएगा। उनसे बात की। उन्होंने बताया कि वे एक अन्य प्रीमियम एयरलाइंस की बिजनेस क्लास से यात्रा करेंगे। बात समाप्त हो गई।… मैं दिल्ली पहुँचा। व्याख्यान हुआ। होटल में मैं और मेरे परिचित अड़ोस-पड़ोस के कमरे में ही ठहरे थे। बातचीत के दौरान किसी संदर्भ में उन्होंने आने-जाने के टिकट दिखाए। उनके टिकट भी इकोनॉमी क्लास के ही थे। उन्हें तो अपना असत्य याद नहीं रहा पर सत्य सारी परतें भेदकर बाहर आ गया।

गाड़ी के शीशे पर लिखा होता है, ‘ऑब्जेक्ट्स  इन मिरर आर क्लोजर देन दे एपियर।’ सत्य भी मनुष्य के निकट ही होता है, उसे दिखता भी है पर गाड़ी के शीशे में दिखती वस्तु की भाँति वह उसे दूर मानकर उससे भागने की फिराक में रहता है। नश्वरता को शाश्वत से बड़ा मान लेने की मनुष्य की प्रवृत्ति विचित्र है। ‘लार्जर देन लाइफ’ सामान्यत: अद्वितीय सकारात्मक क्षमता के लिए प्रयोग किया जाता है। इसके मूल को नष्ट करते हुए हमने प्रदर्शन के लिए इसका प्रयोग करना आरंभ कर दिया है।

वस्तुत: जीवन जितना सादा होगा, जितना सरल होगा, जितना सहज होगा, उतना ही ईमानदार होगा। जीवन को काँच-सा पारदर्शी रखें, भीतर-बाहर एक-सा। भीतर कुछ और, बाहर कुछ और.. इस ओर-छोर का संतुलन बनाये रखने की कोशिश में बीच की नदी सूख जाती है। जीवन प्रवाह के लिए है। अपने आप को सूखने से बचाइए।

प्रकृति का एक घटक है मनुष्य। प्रकृति हरी है, जीवन हरा रहने के लिए है। पर्यावरण दिवस पर इस हरेपन का सबसे बड़ा प्रतिदान मनुष्य, प्रकृति को दे सकता है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #126 ☆ नाम की महत्ता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 126 ☆

☆ ‌आलेख – नाम की महत्ता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

सुमिरी पवन सुत पावन नामू।

अपने बस करि राखे रामू।।

(रा० च०मानस०)

गोस्वामी तुलसी दास जी लिखते है कि- नाम स्मरण करते करते हनुमान जी ने भगवान राम को भी अपने बस में कर लिया था और उनके प्रिय अनुचर बन बैठे थे। वहीं पर राम चरित मानस में नाम की महिमा बताते हुए कहते हैं कि –

कलियुग केवल नाम अधारा।

सुमिरि सुमिरि नर उतरहि पारा।।

के अलावा भी बहुत कुछ लिखा गया है यूँ  तो नाम व्याकरण के अनुसार एक संज्ञा है जिसके बारे में

हिंदी भाषा व्याकरण में पारिभाषित किया गया है कि –   किसी वस्तु व्यक्ति अथवा स्थान के नाम को संज्ञा कहते हैं।

जिससे  हमें उसकी आकृति, प्रकृति, गुण, स्वभाव तथा प्रभाव का बोध होता है। नाम से ही सबकी पहचान है, यहाँ तक कि  सृष्टि के समस्त प्राणी देव दानव सुर असुर किन्नर गंधर्व मानव सभी अपनी पहचान के लिए नाम के ही मोहताज है, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सारी  शक्तियों की सिद्धि में नाम जप ही मूल है। हजारों की भीड़ में पुकारा गया नाम आप आपको भीड़ से अलग कर देता है।

नाम में शक्ति है, नाम में भक्ति है, नाम में ही सार छुपा है, नाम में ही मारण मोहन वशीकरण सब कुछ समाया हुआ है इसकी महिमा अनंत है तभी तो नाम की महिमा से प्रभावित तुलसी दास जी लिखते है कि-

राम न सकहि नाम गुण गाई।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नाम की महिमा अगम अगोचर अनंत है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 8 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 8 ??

इसी अनुक्रम में व्रत-त्योहारों की कहानियाँ लोकजीवन की अभिन्न कड़ी हैं। हर व्रत त्यौहार की कथा के अंत में एक वाक्य कहा जाता है, ‘ जैसे उसका अच्छा हुआ, सबका अच्छा हो।’ इस भाव का मूल है, ’ सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद्दुखभाग्भवेत।’ लोक उदात्तता पर चर्चा नहीं करता अपितु उदात्तता को जीता है।

भारत की लोकसंस्कृति की आँख में अद्वैत है। इसके रोम-रोम में समत्व बसता है। समय साक्षी है कि अनेक संस्कृतियाँ आक्रमणकारियों के रूप में यहाँ आईं और यहीं की होकर रह गईं। बुद्ध का धम्म, महावीर स्वामी का अस्तेय, गुरु नानक का ‘एक ओंकार’ हों या पारसी, यहूदी, ईसाईयत या इस्लाम या चार्वाक का नास्तिकता का सिद्धांत, सब यहीं पनपे या पले-बढ़े या आत्मसात हुए। अथर्ववेद के ‘ माता भूमि पुत्रोअहम् पृथिव्या’ के साथ लोक का एकाकार है।

भारतीय लोक की इस गज़ब की एकात्मता को समझने के लिए सुदूर के कुछ गाँवों में चले जाइए। एक ही कच्चे मकान में अलग-अलग चूल्हा करते दो भाइयों का परिवार रहता है। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि इनमें से एक परिवार हिंदू है और दूसरा मुसलमान। एक के पास रामायण-पुराण हैं, दूसरे के पास कुरान है। विविधता में एकात्मता देखने वाले सनातान भारतीय दर्शन का उद्घोष है-‘आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्/ सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रतिगच्छति।’ अर्थात जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदियों के माध्यम से अंतिमत: सागर में जा मिलता है, उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को मिलता है। इसी अर्थ में यह भी कहा गया है, ‘एक वर्णं यथा दुग्धं भिन्नवर्णासु धनुषु/ तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मृतम्।’ अर्थात जिस प्रकार विविध रंग की गायें एक ही- सफेद रंग का दूध देती हैं, उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एक ही तत्व की सीख देते हैं।’ एक ही मकान में रहते दो भिन्न धर्मावलंबी भाइयों का यह रूप ही भारतीय लोकसंस्कृति है। देश को धर्म की विभाजन की विभाजन रेखाओं में बाँटकर देखने वाले, असहिष्णुता का नारा बोने में असफल रहने पर उसे थोपने की कोशिश करने वाले इन कच्चे मकानों तक पहुँचने की राह अपनी सुविधा से भूल जाते हैं।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #135 ☆ अभिमानी और स्वाभिमानी ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अभिमानी और स्वाभिमानी । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 135 ☆

☆ अभिमानी और स्वाभिमानी ☆

‘अभिमानी और स्वाभिमानी में केवल इतना-सा  फ़र्क़ है कि स्वाभिमानी व्यक्ति कभी किसी से कुछ मांगता नहीं और अभिमानी व्यक्ति किसी को कुछ देता नहीं।’ अहंकार में डूबे व्यक्ति को न तो ख़ुद की ग़लतियाँ दिखाई देती है, न ही दूसरों की अच्छी बातें उसके अंतर्मन को प्रभावित करती हैं। उसे विश्व मेंं स्वयं से अधिक बुद्धिमान कोई दूसरा दिखाई नहीं देता। वैसे भी छिद्रान्वेषण अर्थात् दूसरों में दोष-दर्शन की प्रवृत्ति मानव में स्वाभाविक रूप से होती है। उसे सभी लोग दोषों व बुराइयों का आग़ार भासते हैं और वह स्वयं को दूध का धुला समझता है। दूसरी ओर जहाँ तक स्वाभिमानी का संबंध है, उसमें आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा होता है और वह स्व अर्थात् मैं में विश्वास रखता है और उसका अहं उसे दूसरों के सम्मुख नत-मस्तक नहीं होने देता। उसे प्रभु में आस्था होती है और वह ‘तुम कर सकते हो’ के विश्वास के सहारे बड़े से बड़ा कार्य कर गुज़रता है, क्योंकि उसके शब्दकोश में असंभव शब्द होता ही नहीं है।

‘सफलता हासिल करने के लिए मानव का विश्वास भय से बड़ा होना चाहिए, क्योंकि असफलता का भय ही सपनों के साकार करने में बाधा बनता है। यदि आप भय पर विजय पा लेते हैं, तो आपकी विजय निश्चित् है’ प्लेटो का यह संदेश अत्यंत कारग़र है। यदि हमारा लक्ष्य निश्चित् और हृदय में आत्मविश्वास है, तो कोई भी बाधा आपका पथ नहीं रोक सकती। इसलिए कहा जाता है,’मन के हारे हार है,मन के जीते जीत।’ हमारा मन ही जय-विजय का कारक है। सो! ‘विजयी भव’ एक सर्वश्रेष्ठ भाव है, जिसके साथी हैं– विद्या, विनय व विवेक। इन मानवीय गुणों के आधार पर हम आपदाओं से मुकाबला कर सकते हैं। विनम्रता सर्वोत्तम गुण है, जो अहंनिष्ठ व्यक्ति के हृदय से कोसों दूर रहता है। इसके लिए वस्तुस्थिति का ज्ञान होने के साथ- साथ यथा-समय लिया गया निर्णय भी हमें सफलता की सीढ़ियों पर पहुंचाता है। दु:ख में धैर्य का बना रहना अत्यंत आवश्यक व सार्थक है।

‘कोई भी चीज़ आपके लिए फायदेमंद नहीं हो सकती, जिसे पाने के लिए आपको आत्म- सम्मान से समझौता करना पड़े।’ मार्क्स ऑरेलियस का यह तथ्य आत्म-सम्मान को सर्वश्रेष्ठ समझ समझौता न करने का सुझाव देता है। सो! समझौता परिस्थितियों से करना चाहिए, आत्म-सम्मान से नहीं, क्योंकि जब उस पर आँच आ जाती है; तो व्यक्ति सिर उठा कर नहीं जी सकता। ऐसी स्थिति में प्रभु शरणागति कारग़र उपाय है। मुझे स्मरण हो रही हैं दुष्यंत की यह पंक्तियाँ ‘कौन कहता है आकाश में सुराख हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’ से हमें यह संदेश मिलता है कि दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं, सिर्फ़ आप में जज़्बा होना चाहिए उस कार्य को अंजाम देने का। ‘राह  को मंज़िल बनाओ, तो कोई बात बने’ में भी यही सोच व भाव निहित है। जब हम दृढ़-संकल्प कर उन राहों पर  निकल पड़ते हैं, तो हमारा मंज़िल पर पहुंचना निश्चित हो जाता है। लाख आँधी, तूफ़ान व सुनामी भी आपके पथ के अवरोधक नहीं बन सकते।

स्वाभिमान व आत्मविश्वास पर्यायवाची हैं तथा एक-दूसरे के पूरक हैं। इसलिए इनकी महत्ता को नकारना असंभव है। सो! हमारे हृदय में शंका भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि यह तनाव की स्थिति का द्योतक है, जो हमें पथ-विचलित करता है। भगवद्गीता में भी यही संदेश दिया गया है कि सुख का लालच व दु:ख का भय मानव के अजात शत्रु हैं। यदि मानव भविष्य के प्रति आशंकित रहता है, तो वह वर्तमान के अपरिमित सुखों से वंचित हो जाता है, क्योंकि यही है दु:खों का मूल। व्यक्ति जीवन में अधिकाधिक धन-सम्पदा व पद-प्रतिष्ठा पाना चाहता है, परंतु उसको एवज़ में छोड़ना कुछ भी नहीं चाहता; जबकि संसार का नियम है ‘एक हाथ दे, दूसरे हाथ ले’ अर्थात् जो भी आप इस संसार में देते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। वैसे भी आप एक साँस छोड़े बिना बिना दूसरी साँस नहीं ले सकते। यह संसार का नियम है कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट जाना है। केवल सत्कर्म ही उसके साथ जाते हैं। इसलिए मानव हरपल प्रभु का सिमरन तथा समय का सदुपयोग करना चाहिए।

अहंनिष्ठ प्राणी आजीवन काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार में उलझा रहता है। वे उसे अपना गुलाम बनाए रहती हैं। उसके कदम धरा पर नहीं टिकते। वह केवल दूसरों की भावनाओं को आहत नहीं करता, बल्कि अपना जीवन भी नरक बना लेता है तथा आजीवन इसी उधेड़बुन में खोया रहता है। डॉ वसुधा छवि का यह कथन भी इस तथ्य की सार्थकता सिद्ध करता है कि ‘जब व्यक्ति के पास पैसा होता है, तो वह भूल जाता है कि वह कौन है और जब पैसा नहीं होता, तो लोग भूल जाते हैं कि वह कौन है,’ यही जीवन का कटु यथार्थ है। धन-लिप्सा उसे अपने शिकंजे साथ बाहर नहीं निकलने देती और वह इस भ्रम में अपने जीवन के प्रयोजन को भुला बैठता है। मानव स्वार्थी है और संसार व संबंध मिथ्या। मानव केवल स्वार्थ साधने हेतू संबंध साधता है और उसके पश्चात् उसे भुला देता है। इतना ही नहीं, वह माया महा-ठगिनी के मायाजाल में आजीवन उलझा रहता है और लख चौरासी से मुक्त नहीं हो सकता।

सहारे मानव को खोखला कर देते हैं और उम्मीदें कमज़ोर। मानव को अपने बल पर जीना प्रारंभ करना चाहिए क्योंकि उसका आपसे अच्छा साथी व हमदर्द कोई दूसरा नहीं हो सकता। वैसे भी ‘मंज़िलें बड़ी जिद्दी होती हैं/ हासिल कहाँ नसीब से होती हैं/ मगर तूफ़ान भी वहां हार जाते हैं/ जहां कश्तियां ज़िद पर होती हैं।’ जी हां! यदि मानव का हृदय साहस व धैर्य से लबालब है, तो तूफ़ान भी रुक जाते हैं और व्यक्ति अपने मनचाहे लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ सिद्ध होता है। जब मन रूपी कश्ती ज़िद पर होती है, तो तूफ़ानों को अपने रास्ते से हट जाना पड़ता है, क्योंकि हौसलों के सम्मुख कोई भी नहीं ठहर नहीं सकता। मानव को न तो किसी की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, न ही उम्मीद रखनी चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां उसके मनोबल को तोड़ती हैं। मानव स्वयं अपना साथी व हमदर्द है। इसलिए जीवन में अपेक्षा व उपेक्षा को त्याग कर जीवन पथ पर बढ़ते जाना चाहिए, अन्यथा यह मानव को अवसाद की स्थिति में ले जाती है। मानव को अहं को शत्रु समझ अपने आसपास नहीं आने देना चाहिए और आत्मविश्वास को धरोहर सम संजोए रखना चाहिए, क्योंकि आत्मविश्वास के बल पर आप असंभव कार्य को भी कर गुज़रते हैं। इसलिए आत्मसम्मान से कभी भी समझौता न करें, क्योंकि जिसमें आत्मविश्वास है, वह सिर उठाकर जीता है; किसी के सम्मुख घुटने नहीं टेकता और न ही नतमस्तक होता है। सो! अभिमानी नहीं;  स्वाभिमानी बनें और अपने मान-सम्मान व प्रतिष्ठा को क़ायम रखें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 7 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 7 ??

सहभागिता और साहचर्य का आरंभ बच्चे के जन्म से ही होता है। संतान को लेकर प्रसूता सबसे पहले कुआँ पूजन के लिए घर से निकलती है। पहला पूजा जलदेवता के स्रोत की। शरीर का पचहत्तर प्रतिशत जल से ही बना है। वह अपने दूध की धार कुएँ में छोड़ती है। प्रकृति से प्रार्थना करती है कि जैसे मेरा दूध पीकर मेरा बेटा/ बेटी स्वस्थ रहें, उसी भाव से मैं अपना दूध कुएँ के जल में डालती हूँ जिससे मेरा गाँव स्वस्थ रहे।

जन्म से आरंभ ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ का यह भाव, आजन्म चलता है। सधवा स्त्रियों द्वारा किया जानेवाला करवा चौथ का व्रत अकेली स्त्रियों द्वारा भी बड़ी संख्या में घर-परिवार- समाज  के लिए भी किया जाता है। यह व्रत करनेवाली ऐसी ही एक निराधार वृद्धा से एक सर्वेक्षक ने जब कारण जानना चाहा तो उसने कहा कि गाँवराम मेरा पालन-पोषण करता है, सो उसके लिए करती हूँ। मैं न रहूँ तब भी मेरा गाँवराम खुश रहे। अद्भुत दर्शन है ये।

इस घटना में गाँवराम को किसी व्यक्ति का नाम समझने वालों को पता हो कि गाँव से अर्थात पूरे समाज में ईश्वरीय तत्व देखने-जोड़ने की भावना के चलते गाँव को गाँवराम कहा गया। इसी श्रद्धाभाव के चलते बच्चे का नाम भी भी ‘राम’ नहीं अपितु ‘सियाराम’, ‘श्रीराम’, ‘रामजी’ रखा जाता है। ईश्वर के पर्यायवाची या देवी-देवताओं के नाम पर बच्चों का नामकरण लोक में पहली पसंद रहा।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 6 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 6 ??

लोक में मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों की भी प्रतिष्ठा है। महाराष्ट्र में बैलों की पूजा का पर्व ‘बैल पोळा’ मनाया जाता है। वर्ष भर किसान के साथ खेत में काम करनेवाले बैलों के प्रति यह कृतज्ञता का भाव है। पंजाब में बैसाखी में बैलों की पूजा, दक्षिण में हाथी की पूजा इसी कृतज्ञता की कथा कहते हैं। नागपंचमी पर साक्षात काल याने नाग की पूजा भी पूरी श्रद्धा से की जाती है।

पीपल, बरगद, आँवला, तुलसी जैसे पेड़-पौधों की पूजा वसुधा पर हर घटक को परिवार मानने के दर्शन को प्रकट करती है, हर घट में राम देखती है। हर घट में राम देखने की दृष्टि रखनेवालों को अंधविश्वासी, मूर्ख, रिलीजियस फूल, स्टुपिड ब्लैक कहकर उपहास उड़ाने वाले आज पर्यावरण विनाश पर टेसू बहाते हैं। आँख की क्षुद्रता ऐसी कि बरगद को मन्नत के धागे बांधकर कटने से उसका बचाव नहीं दिखा। धागों में अंधविश्वास देखने वाले पर्यावरण संरक्षण का आत्मविश्वास नहीं पढ़ पाए। इस संदर्भ में इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता है-

लपेटा जा रहा है

कच्चा सूत

विशाल बरगद

के चारों ओर,

आयु बढ़ाने की

मनौती से बनी

यह रक्षापंक्ति

अपनी सदाहरी

सफलता की गाथा

सप्रमाण कहती आई है,

कच्चे धागों से बनी

सुहागिन वैक्सिन

अनंतकाल से

बरगदों को

चिरंजीव रखती आई है!

इसी प्रकार जिसका दूध पीकर पुष्ट हुए, उस गौ को माँ के तुल्य ‘गौमाता’ का स्थान देना अनन्य लोकसंस्कृति है। पेड़ों के पत्ते न तोड़ना, चींटियों को आटा डालना, पहली रोटी दूध देनेवाली गाय के लिए, अंतिम रोटी रक्षा करने वाले श्वान के लिए इसी अनन्यता का विस्तार है। गाय का दूध दुहकर अपना घर चलाने वाले ग्वालों द्वारा गाय के थनों में बछड़े के पीने के लिए पर्याप्त दूध छोड़ देना, शहरों की यांत्रिकता में बछड़ों को निरुपयोगी मानकर वधगृह भेजने के हिमायतियों की समझ के परे है। वस्तुत: लोकजीवन में सहभागिता और साहचर्य है। लोकजीवन आदमी का एकाधिकार नकारता है। यहाँ आदमी घटक है, स्वामी नहीं है। चौरासी लाख योनियों का दर्शन भी इसे ही प्रतिपादित करता है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 5 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 5 ??

जैसाकि कहा जा चुका है, समाज के केंद्र में किसान था। कोई माने न माने पर शरीर के केंद्र में जैसे पेट था, है और रहेगा, वैसे ही खेती सदा जीवन के केंद्र में रहेगी। किसान के सिवा कारू और नारू की आवश्यकता पड़ती थी। भारतीय समाज को विभाजन रेखा खींचकर देखनेवाली आँखें, अपने रेटीना के इलाज की गुहार करती हैं।  सत्य कहा जाये तो ग्राम्य जीवन लोक को पढ़ने, समझने और अपनी समझ को मथने का श्रेष्ठ उदाहरण है।

ऐसा नहीं है कि लोक निर्विकार या निराकार है। वह सर्वसाधारण मनुष्य है। वह लड़ता, अकड़ता, झगड़ता है। वह रूठता, मानता है। वह पड़ोसी पर मुकदमा ठोंकता है पर मुकदमा लड़ने अदालत जाते समय उसी अग्रज पड़ोसी से आशीर्वाद भी लेता है। इतना ही नहीं, पड़ोसी उसे ‘विजयी भव’ का आशीर्वाद भी देता है। विगत तीन दशकों से भारतीय राजनीति के केंद्र में रहे ‘श्रीरामजन्मभूमि विवाद’ के दोनों पैरोकार महंत परमानंद जी महाराज और स्व. अंसारी एक ही कार में बैठकर कोर्ट जाते रहे। बकौल भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी, ‘ मतभेद तो हों पर मनभेद न हो’ का जीता-जागता चैतन्य उदाहरण है लोक।

बलुतेदार हो या अबलूतेदार, अगड़ा हो या पिछड़ा, धनवान हो निर्धन, सम्मानित हो या उपेक्षित, हरेक को मान देता है लोक। बंगाल में विधवाओं को वृंदावन भेजने की कुरीति रही पर यही बंगाल दुर्गापूजा में हर स्त्री का हाथ लगवाता है। यही कारण है कि माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों के घर से मिट्टी ली जाती है। इनमें वेश्या भी सम्मिलित है। अद्वैत या एकात्म भाव का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा? यह बात अलग है कि भारतीय समाज की कथित विषमता को अपनी दुकानदारी बनानेवालों की मिट्टी, ऐसे उदाहरणों से पलीद हो जाती है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 160 ☆ आलेख – धर्मनिरपेक्षता मिले तो बताना… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय आलेख धर्मनिरपेक्षता मिले तो बताना …. इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 160 ☆

? आलेख  धर्मनिरपेक्षता मिले तो बताना … ?

देश संविधान से चलता है. न्यायालय का सर्वोपरी विधान संविधान ही है. प्रत्येक अच्छे नागरिक का नैतिक कर्तव्य है कि वह संविधान का परिपालन करे. बचपन से ही मैं अच्छा नागरिक बनना चाहता हूं, पर अब तक तो मैं लाइनो में ही लगा रहा, इसलिये मुझे अच्छा नागरिक बनने का मौका ही नही मिल सका. सुबह सबेरे पानी के लिये नल की लाइन में,  मिट्टी तेल के लिये केरोसिन की लाइन में,  राशन के लिये लम्बी लाइन में, कभी बस या मेट्रो की कतार में, इलाज के लिये अस्पताल की लाइन में, स्कूल में तो अनुशासन के नाम पर पंक्तिबद्ध रहना ही होता था, बैंक में रुपया जमा करने तक के लिये लाइन, इस या उस टिकिट की लाइन में लगे लगे ही जब अठारह का हुआ और संविधान ने चुपके से मुझे मताधिकार दे दिया तो मैं संविधान के प्रति कृतज्ञता बोध से अभीभूत होकर वोट डालने गया पर वहाँ भी लाइन में खड़े रहना ही पड़ा. मुझे लगा कि लाइन में लगकर बिना झगड़ा किये अपनी पारी का इंतजार करना ही अच्छे नागरिक का कर्तव्य होता है.

वरिष्ट जनो, महिलाओ, विकलांगों को अपने से आगे जाने का अवसर देना तो मानवीय नैतिकता ही है.नियम पूर्वक बने वी आई पी मसलन स्वतंत्रता सेनानी, सेवानिवृत मिलट्री पर्सनल भी सर आंखो पर, कथित जातिगत आरक्षण के चलते बनी आगे बढ़ती कतार को भी सह लेता किन्तु बलात पुलिस वाले के साथ आकर या नेता जी के फोन के साथ कंधे पर सवार नकली वी आई पी मैं बर्दाश्त नही कर पाता, बहस हो जाती . बदलता तो कुछ नहीं, मन खराब हो जाता. घर लौटकर जब अकेले में अपने आप से मिलता तो लगता कि मैं अच्छा नागरिक नही हूं. इसलिये एक अच्छे नागरिक बनने के लिये मैंने संविधान को समझने की योजना बनाई .

संविधान की प्रस्तावना से ज्ञात हुआ कि हमने संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न धर्मनिरपेक्ष समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये अपना संविधान अपने आप अंगीकृत किया है. अब मेरे लिए यह समझना जरूरी था कि यह धर्मनिरपेक्षता क्या है ? मैं तो कई कई दिन एक बार भी मंदिर नही जाता था. जबकि मेरा सहकर्मी जोसफ प्रत्येक रविवार को नियम से प्रेयर के लिये चर्च जाता था. मेरा अभिन्न मित्र अब्दुल दिन में पाँच बार मस्जिद जाता है. अब्दुल बेबाक आफिस से कार्यालयीन समय में भी नमाज पढ़ने निकल लेता है. उसे कोई कुछ नही कहता. मस्जिद में या चर्च में एक ही धर्मावलंबी नियम पूर्वक तय समय से मिलते हैं, पूजा ध्यान से इतर चर्चायें भी होना अस्वाभाविक नहीं. किसे वोट देना है किसे नही इस पर मौलाना साहब के फतवे जारी होते भी मैंने देखा है. राजनैतिक दलो द्वारा अपने घोषणा पत्र में बाकायदा चुनाव आयोग के संज्ञान में धार्मिक प्रलोभन, नेताओ द्वारा अपने पक्ष में वर्ग विशेष के वोट लेने के लिये सार्वजनिक मंच से घोषणायें, कभी मंदिर न जाने वालों द्वारा एन चुनावी दौरो में मंदिर मंदिर जाना आदि देखकर मैं धर्मनिरपेक्षता को लेकर बहुत कनफ्यूज हो गया.

कभी इस धर्म की तो कभी उस धर्म की रैलियां सड़कों पर देखने मिलती. अनेक अवसरो पर टीवी में बापू की समाधि पर सर्व धर्म प्रार्थना सभा का सरकारी आयोजन मैनें देखा था मुझे लगा कि शायद यही धर्मनिरपेक्षता है.  कुछ अच्छी तरह समझने के लिये गूगल बाबा की शरण ली तो, सर्च इंजन ने फटाफट बता दिया कि दुनिया के 43 देशों का कोई न कोई आधिकारिक धर्म है, 27 देशों का धर्म इस्लाम तो 13 का धर्म ईसाईयत है.  भारत समेत 106 देश धर्मनिरपेक्ष देश हैं.ऐसा राष्ट्र एक भी नहीं है जिसका धर्म हिन्दू हो. दुनियां की आबादी का लगभग सोलह प्रतिशत हिन्दू धर्मावलंबी हैं. दुनियां का पहला धर्मनिरपेक्ष देश अमेरिका है. इस जानकारी से भी धर्मनिरपेक्षता समझ नही आ रही थी. तो मैंने शाम को टीवी चैनलो पर विद्वानो की बहस और व्हाट्सअप समूहो से कुछ ज्ञानार्जन करने का यत्न किया, पर यह तो बृहद भूलभुलैया थी. सबके अपने अपने एजेण्डे समझ आये पर धर्मनिरपेक्षता समझ नही आई. कुछ कथित बुद्धिजीवी बहुसंख्यकों को रोज नए पाठ पढ़ाते,उनके अनुसार बहुसंख्यकों को दबाना ही धर्म निरपेक्षता है। मुझे स्पष्ट समझ आ रहा था की यह तो  कतई धर्म निरपेक्षता नही है ।अंततोगत्वा मैं धर्मनिरपेक्षता की तलाश में देशाटन पर निकल पड़ा.  बंगलौर रेल्वे स्टेशन के वेटिंग रूम में मस्जिद नुमा तब्दीली मिली, मुम्बई के एक रेल्वे प्लेटफार्म पर भव्य मजार के दर्शन हुये, सड़क किनारे सरकारी जमीन पर ढ़ेरों छोटे बड़े मंदिर और मजारें नजर आईं, धर्मस्थलो के आसपास खूब अतिक्रमण दिखे. लाउड स्पीकर से अजान और भजन के कानफोड़ू पाठ सुनाई पड़े. सांप्रदायिकता मिली सरे आम बेशर्मी से बुर्के को तार तार करती मिली, कट्टरता ठहाके मारती मिली, रूढ़िवादिता भी मिली, कम्युनलिज्म टकराया  किन्तु मेरी संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता की तलाश अब तक अधूरी ही है. आपको धर्मनिरपेक्षता समझ आ जाये तो प्लीज मुझे भी समझा दीजीयेगा जिससे मैं एक अच्छा नागरिक बनने के अपने संवैधानिक मिशन में आगे बढ़ सकूं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बंदर के हाथ में उस्तरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “बंदर के हाथ में उस्तरा।)

☆ आलेख ☆ बंदर के हाथ में उस्तरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

कहावत हमारे देश की है, और बहुत पुरानी भी है। कहावत भले ही बंदर पर बनी हुई है, लेकिन मानव जाति इसका प्रयोग अपने दैनिक जीवन में यदा कदा करता रहता हैं। 

आज विश्व के सबसे संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका में एक अठारह वर्षीय युवा ने अपनी बंदूक से पाठशाला में पढ़ रहे करीब पच्चीस बच्चों की हत्या कर दी हैं। पचास से अधिक बच्चे हॉस्पिटल में इलाज़ करवा रहे हैं। युवा ने अपनी दादी और कुछ शिक्षकों को भी मौत के घाट उतार दिया।अमेरिका में ये घटनाएं आए दिन होती रहती हैं।हमारे देश में भी कुछ लोग मानसिक रूप से ग्रस्त होते हुए कभी कभार बंदूक/ तलवार इत्यादि से एक दो लोगों पर हमला कर देते हैं,और अधिकतर पकड़े जाते हैं।इस सब के पीछे उनकी गरीबी या किसी रंजिश ( आर्थिक,सामाजिक या धार्मिक) प्रमुख कारण रहता हैं।                                          

अमेरिका की संपन्नता में वहां के हथियार उद्योग का बड़ा हाथ है,ये सर्वविदित हैं।हमारे देश में भी कुछ स्थानों पर देसी कट्टे/ रामपुरिया चाकू इत्यादि आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, चुकीं उनकी मारक क्षमता अमरीकी हथियारों के सामने शून्य से भी कम होती हैं।इसलिए जन हानि कम होती हैं।                                      

हम,अमरीकी युवा को इस प्रकार के होने वाली घटनाओं के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं।वहां की जीवन शैली के सामाजिक / पारिवारिक मूल्यों में आई भारी गिरावट और आसानी से हथियारों की उपलब्धता ही पूर्ण रूप से जिम्मेवार हैं।अमेरिका पूरे विश्व में हथियारों की उपलब्धता सुनिश्चित कर अपनी तिज़ोरी भरता हैं।आज वो ही हथियार उसके अपने बच्चें इस्तमाल कर एक बड़ा प्रश्न खड़ा कर रहे हैं।बड़े लोग ठीक ही कहते थे,जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, वो एक दिन स्वयं भी उसी गड्ढे में गिर जाता हैं।

सत्तर के दशक  में पाठशाला में एक निबंध का विषय ” विज्ञान एक अभिशाप” हुआ करता था।अब लग रहा है,कहीं निबंध का विषय आज भी मान्य तो नहीं हैं ?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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