हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ सामाजिक अव्यवस्था और अपराधों का प्रमुख कारण॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सामाजिक अव्यवस्था और अपराधों का प्रमुख कारण ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आजकल दैनिक समाचार पत्रों, रेडियो और टी.व्ही. चैनलों से जो खबरें प्रकाशित और प्रसारित होती हैं उनमें अनैतिक आचरणों की घटनाओं की प्रमुखता होती है। इन घटनाओं को घटित करने वाले विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं, उच्च पदस्थ शासकीय सेवकों से लेकर जनसाधारण में निम्न तबकों तक के लोग होते हैं। क्या पढ़े-लिखे-क्या अनपढ़, क्या धनी-क्या निर्धन, क्या विद्धान-क्या धार्मिक, क्या शहरी-क्या देहाती। समाज के सभी वर्गों की इनमें आसक्ति और लिप्तता उजागर होती है। सारे देश में ऐसी कुछ हवा बह चली है कि उसने सारे वातावरण को दूषित और विषाक्त सा कर दिया है। अनैतिकता का असंगत विस्तार होता जा रहा है। धार्मिक भावनायें, सरकारी कानून-कायदे और समस्त प्रशासनिक अंकुश दिखता है, बेअसर हो चले हैं। अपराधी आजाद हैं, निर्भय हैं और समझदार ईमानदार बंधन में हैं और भयभीत हैं। शासन-प्रशासन बात अपनी चुस्ती-दुरुस्ती की चाहे जितनी करें पर जो कुछ होता दिख रहा है वह इस तथ्य के कुछ विपरीत ही दिखाई दे रहा है। अनियमिता की बाढ़ सी आ गई है।

आश्चर्य की बात है कि धर्मप्राण भारत में जो अपने आध्यात्मिक चिंतन के कारण विश्व गुरु माना जाता रहा है, ऐसा अधोपतन क्यों बढ़ता जा रहा है? आज से पचास साल पहले तक लोगों में धार्मिकता थी, मानवीयता थी, सहानुभूति थी, संवेदनायें थी फिर वे सब कहां चली गई? एकाएक कमी क्यों हो गई? यह सच है कि अभी भी पूर्ण रूप से मानवीयता और नैतिकता समूल नष्ट नहीं हुई है। परन्तु मुद्दे की बात यह है कि यदि नैतिकता की भावना 20′ है तो अनैतिकता, स्वार्थ और दुराचरण की भावना 80′ हो गई है। इसका प्रमुख कारण क्या है समझा जाना चाहिये और उसी के अनुरूप सुधार के प्रयास शीघ्र किये जाने चाहिये।

सामाजिक राजनैतिक आर्थिक और वैचारिक आधार पर तो कारण अनेक गिनाये जा सकते हैं परन्तु सीधी-सच्ची बात तो एक ही है- संस्कारहीनता। समाज ने अपने संस्कार खो दिये हैं और दिनों-दिन खोता जा रहा है। संस्कारहीनता ने ही कुठाराघात किया है। अगर सुधार करना है तो नई पीढ़ी को संस्कारवान बनाना पहली आवश्यकता है। वे कार्य जो हमारे आदर्शों और संस्कारों की जड़ें काट रहे हैं उनको रोकना होगा। सुसंस्कारित नागरिक आत्मसंयमी और अनुशासन प्रिय होते हैं। हमें अपने अतीत की ओर देखना होगा और सुसंस्कारों को पल्लवित करने के तात्कालिक प्रयत्न करने होंगे। केवल ऊपरी बातों से या कुछ नियम कायदों में सुधार करने से लाभ नहीं होगा।

व्यक्ति के सुसंस्कार बचपन में माता-पिता और बड़ों की देखरेख में आदर्शों की मान्यताओं के अनुसार दैनिक व्यवहारों में अभ्यास से उपजते हैं। बड़ों का समयोचित मार्गदर्शन दिया जाना आवश्यक होता है। स्कूल में निर्धारित पाठ्यक्रम के आत्मसात करने से और पढ़ाने वाले शिक्षकों की चारित्रिक उज्जवलता के अनुसरण से जागते हैं। पवित्र चेतना और सामाजिक सदाचरण के वातावरण में बढ़ते हैं तथा विभिन्न संस्थाओं के आयोजनों-अनुष्ठानों के अनुकरणीय तत्वों को समझने और अनुकरणीय व्यवहारों की बारम्बारता से पुष्ट होते हैं।

आज समाज और शासन को यह देखना सोचना और उचित कदम उठाने हैं। क्या घर-परिवार, समाज, स्कूल, धार्मिक संस्थायें और राजनेतागण अपने दायित्वों का निर्वाह ईमानदारी से कर रहे हैं? मुझे तो दिखता है कि पहले की तुलना में हर क्षेत्र में सदाशयता, कर्मनिष्ठा और ईमानदारी दायित्व के निर्वहण में कमी आई है, इसीलिये अव्यवस्था और अनैतिकता का बढ़ाव हो चला है। सभी को आत्मनिरीक्षण करने और आत्म सुधार कर अनुकरणीय व्यवहार करने की जरूरत है। छोटे हमेशा बड़ों से सीखते हैं। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ तथा ‘महाजनो येन गत: स पन्था:’  इन कहावतों की भावना को समझकर, समाज में और प्रशासनतंत्र में ऊंचे पद पर आसीनजनों को कार्य करना होगा तब सुधार संभव है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ हिंसा का मूल कारण स्वार्थ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ हिंसा का मूल कारण स्वार्थ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

सृष्टि द्वंदात्मक है। अच्छाई के साथ बुराई, सत्य के साथ असत्य, स्नेह के साथ ईष्र्या, मित्रता के साथ शत्रुता और परोपकार के साथ स्वार्थ का जन्म भी सृजन के साथ हुआ है। पुण्यभूमि भारत में समय-समय पर महापुरुषों ने जन्म लेकर मनुष्य को सद्पथ दिखाकर दुखी मानवता को सुखी बनाने के उपदेश दिये हैं। सभी धर्मों ने मनुष्य जीवन को आनन्दमय बनाने का प्रयत्न किया है। आनन्द ही हर प्राणी के जीवन का प्राप्य है। इसी आनन्द की प्राप्ति के लिये मनुष्य सद्पथ से हटकर अनुचित आचरण करता है। स्वत: के सुख के लिये अनेकों को दुख देता है। किसी भी हिंसा का मूलकारण केवल स्वार्थ ही है। पुण्यभूमि भारत में महात्मा महावीर, महात्मा बुद्ध, महात्मा गांधी ने स्वत: कष्ट सहकर भी अहिंसा का मार्ग प्रतिपादित किया है, क्योंकि सबके सुख के लिये वही एक सही रास्ता है। विस्तृत दृष्टि से देखने पर यह सहज ही समझ में आता है कि इस सृष्टि में जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है वह सब परमात्मा ने सबके सामूहिक हित के लिये बनाया है।

प्रत्येक पदार्थ का और प्रत्येक प्राणी का हर दूसरे जीवनधारी से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से गहन संबंध है। हर एक का हित एक दूसरे के हित से गुंथा हुआ है। अत: यदि एक का अहित या हनन होता है तो वह सबको थोड़ा या अधिक प्रभावित करता है। एक का आचरण समस्त प्राणिजगत के जीवन की गतिविधि को प्रभावित करता है। इसीलिये सभी महात्माओं ने जीवन में परोपकार की भावना को विकसित करने और हिंसा की वृत्ति को त्यागने का उपदेश दिया है। रामचरितमानस में महात्मा तुलसीदास ने जीवन में सुख का एक सरल मंत्र दिया है- ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई’। यही धर्मग्रंथों में कहा है- ‘परोपकारम् पुण्याय, पापाय परपीडऩम्’। किसी भी प्राणी को पीड़ा देना, कष्ट देना ही हिंसा कही गई है और हिंसा पाप है, इसीलिये स्वत: के लाभ के लिये दूसरे का अहित या पीड़ा न की जाय। हिंसा धर्म विरुद्ध है क्योंकि वह अनेकों के दुख का कारण बनती है और किसी न किसी रूप में हिंसाकर्ता के मन को भी दुख ही देती है। हिंसा से कभी तात्कालिक लाभ भले दिखे परन्तु समय के बीतने पर उसका दुष्परिणाम हिंसा करने वाले को दुखदायी ही होता है। धार्मिक कर्म विपाक में यही बताया गया है। यह बारीकी से चिन्तन करने पर जगत में देखने को भी मिलता है और समझ में भी आता है। मनुष्य ने प्रकृति के साथ जो अनुचित छेड़छाड़ और दुव्र्यवहार अपनी प्रगति के लिये किया, वर्षों तक किये गये उस व्यवहार का परिणाम ही आज जलप्रदूषण, वायुप्रदूषण, व्योम प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और प्राकृतिक कोप के रूप में भूकम्प, सुनामी, आंधी, तूफान, सारे विश्व में देखे और अनुभव किये जा रहे हैं। अहिंसा के सिद्धांत को गहराई से सोचने-समझने और आचरण में उतारने की बड़ी जरूरत है। जिससे आध्यात्मिक संबंधों के ताने-बाने को ध्यान में लाकर अपने आचरण से मनुष्य, मनुष्य जाति ही नहीं समस्त प्राणि जगत और प्रकृति को सुरक्षित और सुखी रख स्वत: भी शांति से जीवन यापन कर सकता है तथा समस्त सुख का लाभ पा सकता है। इसी सिद्धांत को मंत्र रूप में महात्मा महावीर ने कहा है- ‘जियो और जीने दो’। निश्चित ही हर व्यक्ति को समझना चाहिये- ‘अहिंसा परमो धर्म:।’ अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग -5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

वायुयान में प्रवेश के समय अंतर्मन में विचार चल रहे थे, कि कैसी और कौनसी सीट मिलेगी। खिड़की वाली होगी तो ऊपर से अपनी प्यारी दुनिया देख सकेंगे। आज की पीढ़ी तो ऑनलाइन ही अपनी पसंदीदा सीट का चयन करने में सक्षम है।  वैसे इस बेसब्री का अपना ही मज़ा हैं।

युवावस्था में बस / रेल यात्रा के समय खिड़की से रूमाल  सीट पर फेंक कर कब्जा करने में भी महारत थी। ऐसी सीट को लेकर हमेशा विवाद ही हुआ करते थे।

विमान में अपनी सीट पर विराजमान होने के पश्चात व्योम बालाएं यात्रा के नियम इत्यादि की जानकारी देने का कार्य किया करती थी। अब समय के साथ उद्घोषणा और सीट के सामने लगें पट पर जानकारी उपलब्ध कराई जाती हैं।

कुछ यात्री जिनको आपने साथी के साथ सीट नहीं मिली थी, वो अब सीट बदलने / एडजस्ट करने में लग गए थे।उधर विमान गति पकड़ कर जमीं छोड़ने की तैयारी में था।एक झटका सा लगा और विमान ने जमीं छोड़ दी। हमे अपने बजाज स्कूटर की याद आ गई, जब उसमें स्टार्टिंग समस्या थी, तब उसको दौड़ा कर गाड़ी को गियर में डाल देते थे और उछल कर बैठ जाते थे, तो वैसा ही झटका लगता था। “हमारा बजाज” का कोई जवाब नहीं था। रजत जयंती मना कर ही उसको भरे मन से विदा किया था।

विमान परिचारिकाएं नाश्ता परोस गई हैं, खाने के बाद मिलते हैं।

क्रमशः… 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ परिवेश का प्रभाव॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ परिवेश का प्रभाव ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

बौद्ध धर्म में जीवदया प्रमुख सिद्धांत है। हिंसा वर्जित है। इसीलिये मांसाहार निषिद्ध है। महात्मा बुद्ध ने भिक्षुओं को मौन भिक्षा प्राप्त करने का उपदेश दिया था। आशय था कि किसी द्वार पर आवाज दे भिक्षा देने का आग्रह न किया जाय। पात्र में दानी की स्वेच्छा से जो कुछ आ जाये उसी में भिक्षु निर्वाह करे। प्रथम दाता से जो प्राप्त हो उसमें ही संतोष करे। मानसिक हिंसा तक से बचने और संतोष करने का बड़ा सीधा और सरल कार्य है यह। एक दिन हाथ में भिक्षा पत्र धरे एक भिक्षु भिक्षा लेने को निकला। मार्ग में ऊपर उड़ता हुआ एक बाज पक्षी अपने पंजों में मांस का टुकड़ा लिये जा रहा था। संयोगवश वह मांस का टुकड़ा अचानक ही भिक्षु के भिक्षापात्र में आ टपका। प्रथमदाता से भिक्षु को प्राप्त वह आकस्मिक भिक्षा थी। भिक्षु के लिये बड़े असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गई। वह क्या करे कुछ निश्चय न कर सक रहा था। नियमानुसार प्रथमदाता से प्राप्त भिक्षा स्वीकार की जानी उचित थी। अहिंसा की वृत्ति के कारण मांसाहार निषिद्ध था।

स्वत: कोई निर्णय कर सकने में असमर्थ होने के कारण उसने अपने अन्य साथियों से उनकी राय जानने के लिये दैवयोग से घटित वह सारी घटना सुना दी। घटना विचित्र थी। दोनों तरह से उसकी व्याख्या की जा सकती थी। एक यह कि भिक्षा पात्र में बिना याचना के दाता द्वारा जो कुछ मिला था वही उस दिन का भिक्षु का आहार होना चाहिये और दूसरा यह भी कि चूंकि मांसाहार वर्जित या त्याज्य है अत: उसे स्वीकार न किया जाय। भिक्षु निराहार रहे। कोई भी निर्णय न हो सकने पर सब भिक्षु महात्मा बुद्ध के पास गये। उनका निर्णय जानने उनसे निवेदन किया। सुनकर महात्मा बुद्ध मौन रहे। सोचकर उन्होंने कहा- समस्या की दोनों व्याख्यायें सही हैं। भिक्षु को स्वीकार न कर निराहार रहने को कहना भी तो हिंसा होगी, अत: उन्होंने स्वविवेक का उपयोग करने का आदेश दिया। ऐसे अटपटे उलझनपूर्ण प्रसंग जीवन में कभी-कभी उत्पन्न होते हैं। जहां नियम निर्णायक की भूमिका नहीं निभा पाते। स्वविवेक ही सबसे बड़ा निर्णायक होता है। कहते हैं भिक्षु ने महात्मा बुद्ध की भावना को स्पष्ट न समझ स्वविवेक से अन्य साथियों की भावना का सम्मान करते हुये पहले विकल्प को स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि उसी भावना और निर्णय को आधार मान चीन, जापान, मंगोलिया, लंका अािद देशों के बुद्ध धर्मावलंबी मांसाहार को वर्जित नहीं मानते। सच्चाई चाहे जो भी हो पर कभी एक छोटी सी स्वविवेक की धटना ऐसे महत्व की बन जाती है कि देश और विश्व के इतिहास की दिशा बदल देती है, जो लाखों-लाख के जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती है। सन् 1947 में भारत के विभाजन और फिर काश्मीर में एल.ओ.सी. अर्थात् लाइन ऑफ कंटोल की रेखा का निर्माण की स्वीकृति परिस्थितिवश स्वविवेक के उपयोग की ऐसी ही घटनायें हैं- जिनसे कौन कब तक प्रभावित होंगे, कहना कठिन है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ भारतीय संस्कृति॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ भारतीय संस्कृति॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

हमारी भारतीय संस्कृति प्राकृतिक गोद में पली बढ़ी अनोखी प्रेमल संस्कृति है। वनस्थलियों में ऋषिमुनियों-मनीषियों के आश्रम थे। वे शिक्षा के केन्द्र थे। वहीं आरण्यकों का सृजन हुआ। वनों ने ही आध्यात्मिक चेतना जगाई और हमें प्रकृति पूजा सिखाई। किन्तु आज की नागरी सभ्यता नये कल्पना लोक में पनपती हुई वनो से दूर होती गई है। आज तो शहरों में अनेकों निवासी ऐसे हैं जिन्होंने वनों को देखा भी नहीं, केवल चित्रों में ही देखा होगा। वे शायद वनों को हिंस्र वन्यजीवों का आवास स्थल मात्र मानते हैं और उनसे भयभीत रहते हैं। किन्तु ऐसा है नहीं। वन तो देश की भौतिक समृद्धि के स्रोत और आध्यात्मिक उन्नति के उद्गम स्थल हैं। उन्हें सही दृष्टि से देखने, पढऩे और समझने की आवश्यकता है। वे मनोरंजन, ज्ञान और आध्यात्म चेतना के संदेशवाहक हैं। वहां आल्हादकारी पवित्र वातावरण, प्राणदायिनी शीतल शुद्ध वायु, मनमोहक प्राकृतिक सौंदर्य, प्रभावोत्पादक परिवेश तथा मन को असीम आनंद के साथ ही सद्शिक्षा प्रदान करने वाले अनेकों उपादान उपलब्ध हैं। अनेकों प्रजातियों के पौधे, वृक्ष, लतायें, झाडिय़ां औषधियां तथा विभिन्न प्रकार की घास एक दूसरे के पास हिल-मिलकर ऊगते, विकसते और फलते-फूलते दिखाई देते  हैं। हरे भरे ऊंचे वृक्ष अभिमान त्याग लताओं और कटीली झाडिय़ों को भी गले लगाते स्नेह बांटते दिखते हैं। वृक्ष अपनी शाखाओं में रंग-बिरंगे विभिन्न चहचहाते पक्षियों को आश्रय देते नजर आते हैं तो विभिन्न रंगरूप की नीची और ऊंची घनी घास एक साथ अपने स्नेह की थपकियां देती छोटे-बड़े निर्दोष प्राणियों और हिंस्र पशुओं को भी अपनी गोद में अंचल से ढांक कर रखती दिखती है। पक्षियों की टोलियां आकाश में निर्बाध गीत गातीं, किलोल करती उड़ती दिखाई देती हैं, तो विभिन्न प्रकार के हिरणों के समूह, उछलते कूदते घास के मैदानों में चरते दिखते हैं। छोटे हिंस्र पशु सियार, कुत्ते, भेडिय़े शिकार को लोलुप दृष्टि से ताकते, भागते झुरमुटों में घुसते निकलते दिखते हैं तो कहीं सुन्दर सजीले मयूर, वनमुर्ग जैसे पक्षी फुदकते देखे जाते हैं। पोखरों में जंगली सुअर झुण्डों में जलक्रीड़ा करते हैं तो वन भैंसे अपने समुदाय में निर्भीक विचरण करते रहते हैं। कहीं दूर शेर, तेंदुओं की दहाड़ें सुन पड़ती हैं जो क्षणभर को सबका दिल दहला देती हैं पर पेट भर भोजन करने के बाद वही जानवर कहीं घनी झाड़ी में पसरकर सोते भी दिखाई देते हैं। उनमें मनुष्य की संग्रह की प्रवृत्ति के विपरीत निश्चिंत संतोष का भाव झलकता है। पशु-पक्षियों-वनस्पतियों के बीच निर्मल जलधारायें मार्ग में पाषाणों और चट्टानों पर कूदती उछलती अपने अज्ञात किन्तु सुनिश्चित लक्ष्य की ओर निरन्तर एक लालसा लिये बहती दिखती हैं जो दर्शकों को शांति के साथ ही अपने निर्णय के अनुसार सतत् आगे बढऩे की प्रेरणा देती हैं। इस प्रकार वन प्रदेश नई प्रेरणायें, कल्पनायें, स्नेह और सहयोग व संतोष की भावनायें तथा इस बहुरंगी प्रकृति के सर्जक के प्रति आभार व श्रद्धा की भावनायें उत्पन्न करती हैं। क्या ऐसा बहुमुखी लाभ व्यक्ति को अन्यत्र संभव है जहां समन्वय, सहयोग, श्रद्धा के भाव भी हों और मनोरंजन भी। आज की आडम्बरपूर्ण तथा कथित सभ्यता की भड़भड़ से पटे नगरों की तुलना तो प्राकृतिक सुषमा के पावन मंदिर वनों से बिल्कुल ही नहीं की जा सकती।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 151 ☆ सादी पोशाक के सैनिक – 1 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

संजय उवाच # 151 ☆ सादी पोशाक के सैनिक 🇮🇳 – 1 ?

आज़ादी का अमृत महोत्सव चल रहा है। 13 अगस्त से ‘हर घर तिरंगा’ अभियान भी आरंभ हो चुका है। देश का सम्मान है तिरंगा। इस तिरंगे को प्राप्त करने के लिए अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना बलिदान दिया है। राष्ट्रध्वज की शान बनाए रखने के लिए 1947 से अब तक हज़ारों सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए हैं।  सैनिक शब्द के साथ ही सेना की पोशाक पहने ऐसे पुरुष या स्त्री का चित्र उभरता है जिसके लिए हर नागरिक के मन में अपार आदर और विश्वास है।

सेना की पोशाक पहन सकने का सौभाग्य हरेक को प्राप्त नहीं होता। इस सौभाग्य का अधिकारी सैनिक तो सदा वंदनीय है ही, साथ ही देश के हर नागरिक में भी एक सैनिक बसता है, फिर चाहे उसने सेना की पोशाक पहनी हो या नहीं। सादी पोशाक के ऐसे ही एक सैनिक का उल्लेख आज यहाँ  करेंगे जिसने पिछले दिनों अपनी कर्तव्यपरायणता से देश और मानवता की सर्वोच्च सेवा की।

पैंतालीस वर्षीय इस सेवादार का नाम था जालिंदर रंगराव पवार। जालिंदर, सातारा के खटाव तहसील के पलशी गाँव के निवासी थे। वे  महाराष्ट्र राज्य परिवहन महामंडल की बस में ड्राइवर की नौकरी पर थे। 3 अगस्त 2022 को वे पुणे से 25 यात्रियों को बस में लेकर म्हसवड नामक स्थान के लिए निकले। अभी लगभग 50 किलोमीटर की दूरी ही तय हुई थी कि उन्हें तेज़ चक्कर आने लगे। क्षण भर में आने वाली विपदा को उन्होंने अनुभव कर लिया। गति किसी तरह धीमी करते हुए महामार्ग से हटाकर बस एक तरफ रोक दी। बस रुकते ही स्टेयरिंग पर सिर रख कर सो गए और उसके बाद फिर कभी नहीं उठे। बाद में जाँच से पता चला कि तीव्र हृदयाघात के कारण उनकी मृत्यु हुई थी। अपने जाने की आहट सुनते ही बस में सवार  यात्रियों की जान का विचार करना, बस को हाईवे से हटाकर रास्ते के किनारे खड़ा कर भीषण दुर्घटना की आशंका को समाप्त करना, न केवल अकल्पनीय साहस है अपितु मनुष्यता का उत्तुंग सोपान भी है। 

सैनिक अपने देश और देश के नागरिकों की रक्षा करते हुए सर्वोच्च बलिदान देता है। जालिंदर रंगनाथ पवार ने भी अपने कर्तव्य का निर्वहन किया, नागरिकों के जीवन की रक्षा की और मृत्यु से पूर्व सैनिक-सा जीवन जी लिया।

आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए सीमा पर अपना बलिदान देने वाले सैनिकों, आतंकवादियों से मुठभेड़ करते हुए हमें बचाने के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले सैनिकों, सेना की पोशाक में राष्ट्र की रक्षा के लिए खड़े सैनिकों को नमन करने के साथ-साथ सादी पोशाक के इन सैनिकों को भी सैल्युट अवश्य कीजिएगा।

आज़ादी के अमृत महोत्सव की शुभकामनाएँ। जय हिंद।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ दुख का मूल तृष्णा॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ दुख का मूल तृष्णा ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

महात्मा बुद्ध ने अपने गहन, अध्ययन, मनन और चिन्तन के बाद यह बताया कि संसार में मानव मात्र के दुख का एकमेव कारण तृष्णा है। तृष्णा का शाब्दिक अर्थ है- प्यास। अर्थात् पाने की उत्कट इच्छा। सच है मनुष्य के दुखों का कारण उसकी कामनायें ही तो हैं। कामनायें जो अनन्त हैं और जिन की पुनरावृत्ति भी होती रहती है। कामना जागृत होने पर उसे प्राप्ति की या पूरी करने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है। एक के पूरी होते ही दूसरी तृष्णा की उत्पतित होती है। नई तृष्णा की या पुनरावृत्त तृष्णा की पुन: पूर्ति के लिये प्रयत्न होते हैं और मनुष्य जीवन भर अपनी इसी पूर्ति के दुष्चक्र में फंसा हुआ चलता रहता है। इच्छा की पूर्ति न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है, जिससे अज्ञान, मति-भ्रम और अनुचित व्यवहारों की श्रृंखला चल पड़ती है। जिनसे परिणामत: दुख होता है। सारत: समस्त दुखों का मूल तृष्णा है। इसी तृष्णा को आध्यात्मिक चिन्तकों में माया कहा है? माया का सरल अर्थ है वह स्वरूप जो वास्तव में नहीं किन्तु भासता है। जैसे तीव्र गर्मी की दोपहर में रेतीले मैदान पर दूर से देखते पर जलतरंगों का भास होता है, जिसे मृगतृष्णा या मृगमरीचिका कहा जाता है। गहराई से चिन्तन करें तो समझ में आता है कि यह संसार भी कुछ ऐसा ही झूठा है। जो दिखता है वैसा है नहीं। समयचक्र तेजी से परिवर्तन करता चलता है। जो अभी है वह थोड़ी देर के बाद नहीं है। आज का परिदृश्य कल फिर वैसा दिखाई नहीं देता। यह परिवर्तन न केवल ऊपरी बल्कि भीतरी अर्थात् आन्तरिक भी है। मन के भाव भी क्षण-प्रतिक्षण बदलते रहते हैं इससे आज जो जैसा परिलक्षित होता है, कल भी वैसा ही नहीं लगता। यही तो विचारों की क्षणभंगुरता और खोखलापन सिद्ध करता है और यह माया ही सबको भुलावे में डालकर दुखी बनाये हुये है। इसीलिये कबीर महात्मा ने कहा- माया महाठगिनि हम जानी। इस महाठगिनी माया या तृष्णा से बचने के दो ही रास्ते हैं। 1. जो इच्छा हो उसको अपने पुरुषार्थ से पूर्ति कर के उस सुफल का उपभोग कर सुखी हो या 2. तृष्णा की पूर्ति का सामथ्र्य न हो तो इच्छा का परित्याग करना या त्याग करना उस प्रवृत्ति का जिससे मन में प्राप्ति की इच्छायें जन्म लेती हैं। चूंकि सबकुछ, सब परिस्थितियों में सहजता से नहीं मिल पाता इसलिये विचारकों ने त्याग की वृत्ति को प्रधानता दी है। त्याग को भी दो प्रकार से समझा जा सकता है। एक तो विचारों का त्याग अर्थात् विचार का ही न उत्पन्न होना और दूसरा वह संग्रह (वस्तु आदि) जो नई इच्छाओं को उत्पन्न करती है। इसलिये कोई संग्रह ही न किया जाये। इसी भाव की पराकाष्ठा जैन सन्यासियों के आचरण में परिलक्षित होती है कि वे दिगम्बर रहकर जीवन व्यतीत करते हैं। किसी वस्तु को आवश्यक न मान सब कुछ त्याग देते हैं। इसीलिये हमारे यहां त्याग तप और दान की बड़ी महिमा है। सभी धर्मों में परोपकार और दान के लिये यथोचित त्याग करने का उपदेश दिया है। धर्मोपदेश के उपरांत भी किससे कितना त्याग संभव है यह व्यक्ति खुद ही समझ सकता है। जीवन में त्याग के दर्शन को समझकर भी मनुष्य कर्म का पूर्णत: परित्याग नहीं कर सकता। अत: गीता ने इसी को और स्पष्ट करने के लिये कहा है-

‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्’ अर्थात् हे मानव तेरा अधिकार मात्र कर्म पर है उसके परिणाम (फल) पर नहीं, क्योंकि फल तो किसी अन्य शक्ति के हाथ में है इसीलिये तू कर्म तो कर, क्योंकि वह तो तेरा आवश्यक उपक्रम है, किन्तु उसके फल की कामना को त्याग कर जिससे परिणाम चाहे जो भी हो तुझे दुख न हो।

वास्तव में सच्चा सुख त्याग में है। त्याग का अर्थ दान भी और स्वेच्छा का विसर्जन भी लिया जाकर अपना संग्रह बहुजन हिताय, बहुजन७ सुखाय बांटने में सुख और संतोष पाया जा सकता है। कहा है- संतोषं परम सुखम्। 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ प्राकृतिक परिवर्तन ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ प्राकृतिक परिवर्तन ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

यदि हम अपने परिवेश में प्रकृति का बारीक निरीक्षण करें तो देखते हैं कि बस्ती से दूर भी प्रत्येक वृक्ष उचित हवा-पानी और सूर्य का प्रकाश पाकर ऋतु के अनुकूल बढ़ता है, फूलता है, फलता है, छाया देता है और स्वभाववश जनसेवा में अपने फूल अर्पित करता है। यहां तक कि जो उसे पत्थर मारते हैं उन्हें भी अपनी सेवा से उपकृत करता है। अपनी निश्चित अवधि तक जीता है और एक दिन बिना किसी आडम्बर के शांत हो जाता है। अपने द्वारा दी गई सेवा का न तो कोई बखान करता है न ही कोई अभिमान।

उच्च गिरी-श्रृंगों की किसी सघन उपत्यका से कोई अनजान नदी पतली सी जलधारा के रूप में निकलती है। आगे बढ़ती है। कटीली झाडिय़ों से होती चट्टानों पर गिरती-उठती बढ़ती हुई जल संग्रह करके उपजाऊ खेतों को खींचती विभिन्न प्रकार की फसलों का उत्पादन बढ़ाती सदा आगे बढ़ी चलती है। वनों से शहरों में पहुंचाती। उद्योगों, कारखानों को संचालित करने में सहयोग देती, जनसमुदाय से अपने सौंदर्य से अभिभूत करती, कलाकारों को प्रेरणा देती, व्यापार बढ़ाती, लाखों की प्यास बुझाती, अनेकों को आजीविका जुटाती, भरण-पोषण करती, प्राणियों को सुखी बनाती अपनी जीवनयात्रा सागर तक पहुंचकर पूरी करती परन्तु कभी अपनी न तो प्रशंसा करती और न कार्यों का विज्ञापन।

कालचक्र की अपनी गति है। निर्धारित समय पर सभी ऋतुयें आतीं। अपने सुखद आगमन से जनसेवा करतीं। विगत ऋतुओं के संत्रास से सबको बचाती नये-नये फल-फूलों-फसलों को बढ़ाने में योगदान देती और अपने नियमितता में बिना कोई परिवर्तन किये संसार को सरस और सुखद बनाये रखती है।

खास प्राकृतिक परिवेश अपने आकर्षक रूप में नश्वर संसार पर अपनी भूमिका निष्पादित कर जन मन को आनंदित और आप्लावित करने में कोई कोर कसर नहीं रखता। धरती की सजावट और श्रृंगार करता भूमंडल में विविधता व समरसता बनाये रखता है। प्राणिमात्र में नवजीवन का संचार करता पर कभी दर्शकों से कोई मूल्य नहीं लेता।

इसी प्रकार जहां देखो वहां संसार में जहां जो परिवर्तन होते रहते हैं उनमें भी एक यांत्रिक, समरसता, सद्भावना का भाव परिलक्षित होता है। कभी-कभी ऐसा दिखता है उनसे कोई बड़ा नुकसान हो रहा है, परन्तु उससे भी दूरगामी हित लाभ ही होता है, जिसे मनुष्य अपनी सीमित दृष्टि से समझ नहीं पाता। किन्तु यह सब देखकर भी अपने स्वार्थवश मानव मन में लोकहित की भावना का न तो उदय होना परिलक्षित होता है न ही उसके व्यवहार में उदारता नियमितता, कर्मनिष्ठा, पारस्परिक प्रेम व आपसी सहयोग ही बढ़ता दिखाई देता है। छोटे-छोटे प्रकरणों में मनुष्य की आत्म प्रशंसा, अहंकार, द्वेष तथा दूसरों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की प्रवृत्ति ही प्रमुख दिखाई देती है। आज जगह-जगह फैले आतंकवाद, लूट, खसोट, हत्या, अग्निकांड के पीछे मनुष्य मन की दुर्भावना और मैल ही साफ दिखाई देता है। मानव के व्यवहार में मानवता की कमी है। इसी से आज मानव समाज में विश्व व्यापी दुख, अविश्वास और सदाचार की तथा नैतिकता का घोर संकट सा छा गया है। आवश्यकता है कि मनुष्य अपने खुद को समझे अपनी अच्छाइयों को पहचाने और नये समाज के निर्माण के लिये अपनी मानसिकता को बदलने का संकल्प करें तभी दुख और समृद्धि की स्थापना होगी। मनुष्य का मन वास्तव में उसके सारे कर्मों और व्यवहारों का केन्द्र है व उद्गम भी। यदि मन संकल्प कर ले तो संसार में कोई भी परिवर्तन किये जाने में कठिन नहीं है। मन के एक दृढ़ संकल्प से दुनिया से हर व्यवहार बदला जा सकता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #145 ☆ वक्त, मौसम और फ़ितरत ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त, मौसम और फ़ितरत। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 145 ☆

☆ वक्त, मौसम और फ़ितरत

वक्त,मौसम व लोगों की फ़ितरत एक-सी होती है। कौन, कब,कहां बदल जाए– कह नहीं सकते,क्योंकि लोग वक्त देखकर इज़्ज़त देते हैं। सो! वे आपके कभी नहीं हो सकते, क्योंकि वक्त देखकर तो सिर्फ़ स्वार्थ-सिद्धि की जा सकती है; रिश्ते नहीं निभाए जा सकते। वक्त परिवर्तनशील है; कभी एक-सा नहीं रहता; निरंतर बहता रहता है। भविष्य अनिश्चित् है और उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ‘कल क्या हो, किसने जाना।’ भले ही ज़िंदगी का सफ़र सुहाना है। परंतु मानव को किसी की मजबूरी व भरोसे का फायदा नहीं उठाना चाहिए, क्योंकि ‘सब दिन ना होत समान।’ नियति प्रबल व अटल है। इसलिए मानव को वर्तमान में जीने का संदेश दिया गया है,क्योंकि भविष्य सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। वक्त के साथ लोगों की सोच,नज़रिया व कार्य-व्यवहार भी बदल जाता है। सो! किसी पर भी भरोसा करना कारग़र नहीं है।

इंसान मौसम की भांति रंग बदलता है। ‘मौसम भी बदलते हैं/ दिन रात बदलते हैं/ यह समाँ बदलता है/ हालात बदलते हैं/ यादों से महज़ दिल को/ मिलता नहीं सुक़ून/ ग़र साथ हो सुरों का/ नग़्मात बदलते हैं।’ मेरी स्वरचित पंक्तियाँ मानव को एहसास दिलाती हैं कि जैसे रात्रि के पश्चात् दिन,पतझड़ के पश्चात् बसंत और दु:ख के पश्चात् सुख का आना निश्चित् व अवश्यंभावी है; उसी प्रकार समय के साथ-साथ मानव की सोच,नज़रिया व जज़्बात भी बदल जाते हैं। अतीत की स्मृतियों में रहने से मानव सदैव अवसाद की स्थिति में रहता है; उसे कभी भी सुक़ून की प्राप्ति नहीं होती। यदि सुरों के साथ संगीत भी हो तो उसका स्वरूप मनभावन हो जाता है और प्रभाव-क्षमता भी चिर-स्थायी हो जाती है। यही जीवन-दर्शन है। जो व्यक्ति इसके अनुसार व्यवहार करता है; उसे कभी आपदाओं का सामना नहीं करना पड़ता।

‘समय अच्छा है,तो सब साथ देते हैं और बुरे वक्त में तो अपना साया भी साथ छोड़ देता है।’ इसलिए मानव को वक्त की महत्ता को स्वीकारना चाहिए। दूसरी ओर आजकल रिश्ते स्वार्थ पर आधारित होते हैं। इसलिए वे विश्वास के क़ाबिल न होने के कारण स्थायी नहीं होते,क्योंकि आजकल मानव धन-संपदा व पद-प्रतिष्ठा देख कर ही दुआ-सलाम करता है। ऐसे रिश्ते छलना होते हैं,क्योंकि वे रिश्ते विश्वास पर आश्रित नहीं होते। विश्वास रिश्तों की नींव है और प्रतिदान प्रेम का पर्याय अर्थात् दूसरा रूप है। स्नेह व समर्पण रिश्तों की संजीवनी है। ज़िंदगी में ज्ञान से अधिक गहरी समझ होनी चाहिए। वास्तव में आपको जानते तो बहुत लोग हैं, परंतु समझते बहुत कम हैं। वास्तव में जो लोग आपको समझते हैं; आपके प्रिय होते हैं और आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पर पक्षधर बन कर खड़े रहते हैं। वे अंतर्मन से आपके साथ जुड़े होते हैं; आपका हित चाहते हैं और जीवन में ऐसे लोगों का मिलना अत्यंत कठिन होता है– वे ही दोस्त कहलाने योग्य होते हैं।

सच्चा साथ देने वालों की बस एक निशानी है कि वे ज़िक्र  नहीं; हमेशा आपकी फ़िक्र करते हैं। उनके जीवन के निश्चित् सिद्धांत होते हैं; जीवन-मूल्य होते हैं, जिनका अनुसरण वे जीवन-भर सहर्ष करते हैं। वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि मानव जीवन क्षणभंगुर है,पंचतत्वों से निर्मित्त है और उसका अंत दो मुट्ठी राख है। ‘कौन किसे याद रखता है/ ख़ाक हो जाने के बाद/ कोयला भी कोयला नहीं रहता/ राख हो जाने के बाद। किस बात का गुमान करते हो/ वाह रे बावरे इंसान/ कुछ भी नहीं बचेगा/ पंचतत्व में विलीन हो जाने के बाद’– यही जीवन का अंतिम सत्य है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि जीवन में भले ही हर मौके का फायदा उठाओ; मगर किसी की मजबूरी व भरोसे का नहीं,क्योंकि ‘सब दिन न होत समान।’ नियति अटल व  बहुत प्रबल है। कल अर्थात् भविष्य के बारे में कोई नहीं जानता। इसलिए किसी की विवशता का लाभ उठाना वाज़िब नहीं,क्योंकि विधाता अर्थात् वक्त पल भर में किसी को अर्श से फर्श पर लाकर पटक देता  है तथा रंक को सिंहासन पर  बैठाने की सामर्थ्य रखता है। इसलिए मानव को सदैव अपनी औक़ात में रहना चाहिए तथा जो निर्धारित सीमाओं का उल्लंघन करता है; मर्यादा का अतिक्रमण करता है,उसका पतन होना होने में समय नहीं लगता।

स्वेट मार्टेन के मतानुसार विश्वास ही हमारा अद्वितीय संबल है, जो हमें मंज़िल पर पहुंचा देता है तथा यह मानव की धरोहर है। किसी का विश्वास तोड़ना सबसे बड़ा पाप है। इसलिए मानव को किसी से विश्वासघात नहीं करना चाहिए, क्योंकि भावनाओं से खिलवाड़ करना उचित नहीं है। सो! यह रिश्तों से निबाह करने का सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम साधन है। संबंध व रिश्ते कभी अपनी मौत नहीं मरते; उनका क़त्ल किया जाता है और उन्हें अंजाम देने वाले हमारे अपने क़रीबी ही होते हैं। इस कलियुग में अपने ही,अपने बनकर, अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं। वास्तव में हम भी वही होते हैं,रिश्ते भी वही होते हैं और बदलता है तो बस समय, एहसास और नज़रिया। परंतु रिश्तों की सिलाई अगर भावनाओं से हुई हो,तो उनका टूटना मुश्किल है और यदि स्वार्थ से हुई है,तो टिकना असंभव है– यही है जीवन का सार।

रिश्तों को क़ायम रखने के लिए मानव को कभी गूंगा,तो कभी बहरा बनना पड़ता है। रिश्ते व नाते मतलब पर चलने वाली रेलगाड़ी है,जिसमें जिसका स्टेशन आता है; उतरता चला जाता है। आजकल संबंध स्वार्थ पर आधारित होते हैं। यह कथन भी सर्वथा सत्य है कि ‘जब विश्वास जुड़ता है, पराए भी अपने हो जाते हैं और जब वह टूटता है तो अपने भी पराए हो जाते हैं।’ वैसे कुछ बातें समझाने पर नहीं,स्वयं पर गुज़र जाने पर समझ में आती हैं। बुद्धिमान व्यक्ति दूसरों के अनुभव से सीखते हैं और मूर्ख व्यक्ति लाख समझाने पर भी नहीं समझते। ‘उजालों में मिल जाएगा कोई/ तलाश उसी की करो/ जो अंधेरों में साथ दे अर्थात् ‘सुख के सब साथी, दु:ख में न कोय।’ सुख में तो बहुत साथी मिल जाते हैं,परंतु दु:ख व ग़मों में साथ देने वाले बहुत कठिनाई से मिलते हैं। वे मौसम की तरह रंग नहीं बदलते; सदा आपके साथ रहते हैं, क्योंकि वे मतलब-परस्त नहीं होते। इसलिए मानव को सदैव यह संदेश दिया जाता है कि रिश्तों का ग़लत इस्तेमाल कभी मत करना,क्योंकि रिश्ते तो बहुत मिल जाएंगे,परंतु अच्छे लोग ज़िंदगी में बार-बार नहीं आएंगे। सो! उनकी परवाह कीजिए; उन्हें समझिए– ज़िंदगी सीधी-सपाट व अच्छी तरह बसर होगी। जीवन में मतभेद भले हो जाएं; मनभेद कभी मत होने दो और मन में मलाल व आँगन में दीवारें मत पनपने दो। संवाद करो,विवाद नहीं तथा जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाओ। अहं का त्याग करो, क्योंकि यह मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। इसे अपने हृदय में कभी भी आशियाँ मत बनाने दो। यह दिलों में दरारें उत्पन्न करता है,जिन्हें पाटना मानव के वश में नहीं रहता। सो! परमात्म-सत्ता में विश्वास रखें,क्योंकि वह जानता है कि हमारा ही हमारा हित किसमें है?

वैसे समय के साथ सब कुछ बदल जाता है और मानव शरीर भी पल-प्रतिपल मृत्यु की ओर जाता है। ‘यह किराए का मकान है/ कौन जाने कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे!/ खाली हाथ तू जाएगा’ मेरे स्वरचित गीत की पंक्तियाँ यह एहसास दिलाती हैं कि मानव को इस नश्वर संसार को तज खाली हाथ लौट जाना है। इसलिए उसे मोह-ममता का त्याग कर निस्पृह भाव से जीवन बसर करना चाहिए। ‘अपने क़िरदार की हिफाज़त जान से बढ़कर कीजिए,क्योंकि इसे ज़िंदगी के बाद भी याद किया जाता है अर्थात् मानव अपने सत्कर्मों  से सदैव ज़िंदा रहता है और चिर-स्मरणीय हो जाता है। यह चिरंतन सत्य है कि लोग तो स्वार्थ साधते ही नज़रें फेर लेते हैं।

इसलिए वक्त, मौसम व लोगों की फ़ितरत विश्वसनीय नहीं  होती। यह दुनिया पल-पल रंग बदलती है। इसलिए भरोसा ख़ुद पर रखिए; दूसरों पर नहीं और अपेक्षा भी ख़ुद से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि जब उम्मीद टूटती है तो बहुत तक़लीफ होती है। मुझे स्मरण है हो रही है स्वरचित गीत की पंक्तियां ‘मोहे ले चल मांझी उस पार/ जहाँ न हो रिश्तों का व्यापार।’ ऐसी मन:स्थिति में मन कभी वृंदावन धाम जाना चाहता है तो कभी गंगा के किनारे जाकर सुक़ून की साँस लेना चाहता है। भगवान बुद्ध ने भी इस संसार को दु:खालय कहा है। इसलिए मानव शांति पाने के लिए प्रभु की शरणागति चाहता है और यह स्थिति तब आती है,जब दूसरे अपने उसे दग़ा दे देते हैं,विश्वासघात करते हैं। ऐसी विषम स्थिति में प्रभु की शरण में ही चिन्ताओं का शमन हो जाता है। विलियम जेम्स के शब्दों में ‘विश्वास उन शक्तियों में से है,जो मनुष्य को जीवित रखती हैं और विश्वास का पूर्ण अभाव ही जीवन का अवसान है।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ प्राकृतिक परिवर्तन ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ प्राकृतिक परिवर्तन ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

यदि हम अपने परिवेश में प्रकृति का बारीक निरीक्षण करें तो देखते हैं कि बस्ती से दूर भी प्रत्येक वृक्ष उचित हवा-पानी और सूर्य का प्रकाश पाकर ऋतु के अनुकूल बढ़ता है, फूलता है, फलता है, छाया देता है और स्वभाववश जनसेवा में अपने फूल अर्पित करता है। यहां तक कि जो उसे पत्थर मारते हैं उन्हें भी अपनी सेवा से उपकृत करता है। अपनी निश्चित अवधि तक जीता है और एक दिन बिना किसी आडम्बर के शांत हो जाता है। अपने द्वारा दी गई सेवा का न तो कोई बखान करता है न ही कोई अभिमान।

उच्च गिरी-श्रृंगों की किसी सघन उपत्यका से कोई अनजान नदी पतली सी जलधारा के रूप में निकलती है। आगे बढ़ती है। कटीली झाडिय़ों से होती चट्टानों पर गिरती-उठती बढ़ती हुई जल संग्रह करके उपजाऊ खेतों को खींचती विभिन्न प्रकार की फसलों का उत्पादन बढ़ाती सदा आगे बढ़ी चलती है। वनों से शहरों में पहुंचाती। उद्योगों, कारखानों को संचालित करने में सहयोग देती, जनसमुदाय से अपने सौंदर्य से अभिभूत करती, कलाकारों को प्रेरणा देती, व्यापार बढ़ाती, लाखों की प्यास बुझाती, अनेकों को आजीविका जुटाती, भरण-पोषण करती, प्राणियों को सुखी बनाती अपनी जीवनयात्रा सागर तक पहुंचकर पूरी करती परन्तु कभी अपनी न तो प्रशंसा करती और न कार्यों का विज्ञापन।

कालचक्र की अपनी गति है। निर्धारित समय पर सभी ऋतुयें आतीं। अपने सुखद आगमन से जनसेवा करतीं। विगत ऋतुओं के संत्रास से सबको बचाती नये-नये फल-फूलों-फसलों को बढ़ाने में योगदान देती और अपने नियमितता में बिना कोई परिवर्तन किये संसार को सरस और सुखद बनाये रखती है।

खास प्राकृतिक परिवेश अपने आकर्षक रूप में नश्वर संसार पर अपनी भूमिका निष्पादित कर जन मन को आनंदित और आप्लावित करने में कोई कोर कसर नहीं रखता। धरती की सजावट और श्रृंगार करता भूमंडल में विविधता व समरसता बनाये रखता है। प्राणिमात्र में नवजीवन का संचार करता पर कभी दर्शकों से कोई मूल्य नहीं लेता।

इसी प्रकार जहां देखो वहां संसार में जहां जो परिवर्तन होते रहते हैं उनमें भी एक यांत्रिक, समरसता, सद्भावना का भाव परिलक्षित होता है। कभी-कभी ऐसा दिखता है उनसे कोई बड़ा नुकसान हो रहा है, परन्तु उससे भी दूरगामी हित लाभ ही होता है, जिसे मनुष्य अपनी सीमित दृष्टि से समझ नहीं पाता। किन्तु यह सब देखकर भी अपने स्वार्थवश मानव मन में लोकहित की भावना का न तो उदय होना परिलक्षित होता है न ही उसके व्यवहार में उदारता नियमितता, कर्मनिष्ठा, पारस्परिक प्रेम व आपसी सहयोग ही बढ़ता दिखाई देता है। छोटे-छोटे प्रकरणों में मनुष्य की आत्म प्रशंसा, अहंकार, द्वेष तथा दूसरों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की प्रवृत्ति ही प्रमुख दिखाई देती है। आज जगह-जगह फैले आतंकवाद, लूट, खसोट, हत्या, अग्निकांड के पीछे मनुष्य मन की दुर्भावना और मैल ही साफ दिखाई देता है। मानव के व्यवहार में मानवता की कमी है। इसी से आज मानव समाज में विश्व व्यापी दुख, अविश्वास और सदाचार की तथा नैतिकता का घोर संकट सा छा गया है। आवश्यकता है कि मनुष्य अपने खुद को समझे अपनी अच्छाइयों को पहचाने और नये समाज के निर्माण के लिये अपनी मानसिकता को बदलने का संकल्प करें तभी दुख और समृद्धि की स्थापना होगी। मनुष्य का मन वास्तव में उसके सारे कर्मों और व्यवहारों का केन्द्र है व उद्गम भी। यदि मन संकल्प कर ले तो संसार में कोई भी परिवर्तन किये जाने में कठिन नहीं है। मन के एक दृढ़ संकल्प से दुनिया से हर व्यवहार बदला जा सकता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

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