(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “बंदर के हाथ में उस्तरा”।)
☆ आलेख ☆ बंदर के हाथ में उस्तरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆
कहावत हमारे देश की है, और बहुत पुरानी भी है। कहावत भले ही बंदर पर बनी हुई है, लेकिन मानव जाति इसका प्रयोग अपने दैनिक जीवन में यदा कदा करता रहता हैं।
आज विश्व के सबसे संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका में एक अठारह वर्षीय युवा ने अपनी बंदूक से पाठशाला में पढ़ रहे करीब पच्चीस बच्चों की हत्या कर दी हैं। पचास से अधिक बच्चे हॉस्पिटल में इलाज़ करवा रहे हैं। युवा ने अपनी दादी और कुछ शिक्षकों को भी मौत के घाट उतार दिया।अमेरिका में ये घटनाएं आए दिन होती रहती हैं।हमारे देश में भी कुछ लोग मानसिक रूप से ग्रस्त होते हुए कभी कभार बंदूक/ तलवार इत्यादि से एक दो लोगों पर हमला कर देते हैं,और अधिकतर पकड़े जाते हैं।इस सब के पीछे उनकी गरीबी या किसी रंजिश ( आर्थिक,सामाजिक या धार्मिक) प्रमुख कारण रहता हैं।
अमेरिका की संपन्नता में वहां के हथियार उद्योग का बड़ा हाथ है,ये सर्वविदित हैं।हमारे देश में भी कुछ स्थानों पर देसी कट्टे/ रामपुरिया चाकू इत्यादि आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, चुकीं उनकी मारक क्षमता अमरीकी हथियारों के सामने शून्य से भी कम होती हैं।इसलिए जन हानि कम होती हैं।
हम,अमरीकी युवा को इस प्रकार के होने वाली घटनाओं के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं।वहां की जीवन शैली के सामाजिक / पारिवारिक मूल्यों में आई भारी गिरावट और आसानी से हथियारों की उपलब्धता ही पूर्ण रूप से जिम्मेवार हैं।अमेरिका पूरे विश्व में हथियारों की उपलब्धता सुनिश्चित कर अपनी तिज़ोरी भरता हैं।आज वो ही हथियार उसके अपने बच्चें इस्तमाल कर एक बड़ा प्रश्न खड़ा कर रहे हैं।बड़े लोग ठीक ही कहते थे,जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, वो एक दिन स्वयं भी उसी गड्ढे में गिर जाता हैं।
सत्तर के दशक में पाठशाला में एक निबंध का विषय ” विज्ञान एक अभिशाप” हुआ करता था।अब लग रहा है,कहीं निबंध का विषय आज भी मान्य तो नहीं हैं ?
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 3
इसी अनुक्रम में एक और परंपरा देखें। बरात जिस गाँव में जाती, दूल्हे के पिता के पास इस गाँव में ससुराल कर चुकी अपने गाँव की ब्याहताओं की सूची होती। ये लड़कियाँ किसी भी जाति या धर्म की हों, दूल्हे का पिता हरेक के घर एक रुपया और यथाशक्ति ‘लावणा’ (मंगलकार्यों में दी जानी वाली मिठाई) लेकर जाता। लड़की प्रतीक्षा करती कि उसके गाँव से कोई ताऊ जी, काका जी, बाबा जी आये हैं। मायके से (यहाँ गाँव ही मायका है) किसीका आना, ब्याहता को जिस आनंद से भर देता है, वह किसी से छुपा नहीं है। मंगलकार्यों (और अशुभ प्रसंगों में भी) बहु-बेटियों को मान देने का यह अमृत, लोक-परम्परा को चिरंजीव कर देता है। विष को गले में रोककर नीलकंठ महादेव कालातीत हैं, लोक की नीलकंठी परम्परा भी महादेव की अनुचर है।
वस्तुत: लोक में किसी के लिए दुत्कार नहीं है, अपितु सभी के लिए सत्कार है। जाति प्रथा का अस्तित्व होने पर भी सभी जातियों के साथ आने पर ही ब्याह-शादी, उत्सव-त्यौहार संपन्न हो सकते थे। महाराष्ट्र में 12 बलूतेदार परंपरा रही। कृषक समाज के केंद्र में था। उसके बाद बलूतेदारों का क्रम था। बलूतेदार को ‘कारू’ या कार्यकारी अर्थात जिनके सहारे काम चलता हो, भी माना गया। इनमें कुंभार (कुम्हार), कोळी (कोली या मछुआरा), गुरव, चांभार(चर्मकार), मातंग, तेली, न्हावी ( नाभिक), भट, परीट, महार, लोहार ( लुहार), सुतार को प्रमुखता से स्थान दिया गया। क्षेत्रवार इनमें न्यूनाधिक अंतर भी मिलता है। 12 बलूतेदारों के साथ 18 नारू अर्थात जिनकी आवश्यकता यदा-कदा पड़ती है, का उल्लेख भी है। इनमें कलावंत, कोरव, गोंधळी, गोसावी, घडसी, ठाकर, डवरया, तराळ, तांबोली, तेली, भट, माली, जंगम, वाजंत्री. शिंपी, सनगर, साळी, खटीक, मुलाणा का संदर्भ सामान्यत: मिलता है। इनके सिवा बनजारा और अन्यान्य घुमंतू जनजातियों और उपरोक्त उल्लेख में छूट गई सभी जातियों का योगदान रहा है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 140 ☆ एकोऽहम् बहुस्यामः ☆
शहर में ट्रैफिक सिग्नल पर बल्ब के हरा होने की प्रतीक्षा में हूँ। लाल से हरा होने, ठहराव से चलायमान स्थिति में आने के लिए संकेतक 28 सेकंड शेष दिखा रहा है। देखता हूँ कि बाईं ओर सड़क से लगभग सटकर पान की एक गुमटी है। दोपहर के भोजन के बाद किसी कार्यालय के चार-पाँच कर्मी पान, सौंफ आदि खाने के लिए निकले हैं। एक ने सिगरेट खरीदी, सुलगाई, एक कश भरा और समूह में सम्मिलित एक अपने एक मित्र से कहा, ‘ले।’ सम्बंधित व्यक्ति ने सिगरेट हाथ में ली, क्षण भर ठिठका और मित्र को सिगरेट लौटाते हुए कहा, “नहीं, आज सुबह मैंने अपनी छकुली (नन्ही बिटिया) से प्रॉमिस की है कि आज के बाद कभी सिगरेट नहीं पीऊँगा।” मैं उस व्यक्ति का चेहरा देखता रह गया जो संकल्प की आभा से दीप्त हो रहा था। बल्ब हरा हो चुका था, ठहरी हुई ऊर्जा चल पड़ी थी, ठहराव, गतिमान हो चुका था।
वस्तुत: संकल्प की शक्ति अद्वितीय है। मनुष्य इच्छाएँ तो करता है पर उनकी पूर्ति का संकल्प नहीं करता। इच्छा मिट्टी पर उकेरी लकीर है जबकि संकल्प पत्थर पर खींची रेखा है। संकल्प, जीवन के आयाम और दृष्टि बदल देता है। अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,
कह दो उनसे,
संभाल लें
मोर्चे अपने-अपने,
जो खड़े हैं
ताक़त से मेरे ख़िलाफ़,
कह दो उनसे,
बिछा लें बिसातें
अपनी-अपनी,
जो खड़े हैं
दौलत से मेरे ख़िलाफ़,
हाथ में
क़लम उठा ली है मैंने
और निकल पड़ा हूँ
अश्वमेध के लिए…!
संकल्प अपनी साक्षी में अपने आप को दिया वचन है। संकल्प से बहुत सारी निर्बलताएँ तजी जा सकती हैं। संकल्प से उत्थान की गाथाएँ रची जा सकती हैं।
संकल्प की सिद्धि के लिए क्रियान्वयन चाहिए। क्रियान्वयन के लिए कर्मठता चाहिए। संकल्प और तत्सम्बंधी क्रियान्वयन के अभाव में तो सृष्टि का आविष्कार भी संभव न था। साक्षात विधाता को भी संकल्प लेना पड़ा था, ‘एकोऽहम् बहुस्यामः’ अर्थात मैं एक से अनेक हो जाऊँ। एक में अनेक का बल फूँक देता है संकल्प।
संकल्प को सिद्धि में बदलने के लिए स्वामी विवेकानंद का मंत्र था, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ अर्थात् उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक मत रुको।
संकल्प मनोबल का शस्त्र है, संकल्प, असंभव से ‘अ’ हटाने का अस्त्र है। उद्देश्यपूर्ण जीवन की जन्मघुट्टी है संकल्प, मनुष्य से देवता हो सकने की बूटी है संकल्प।..इति।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 3
एकता शब्द व्यक्तिगत रूप से मुझे अँग्रेजी के ‘यूनिटी’ के अनुवाद से अधिक कुछ नहीं लगता। अनेक बार राजनीतिक दल, गठबंधन की विवशता के चलते अपनी एकता की घोषणा करते हैं। इस एकता का छिपा एजेंडा हर मतदाता जानता है। हाउसिंग सोसायटी के चुनाव हों या विभिन्न देशों के बीच समझौते, राग एकता अलापा जाता है।
लोक, एकता के नारों और सेमिनारों में नहीं उलझता। वह शब्दों को समझने और समझाने, जानने और पहचानने, बरगलाने और उकसावे से कोसों दूर खड़ा रहता है पर लोक शब्दों को जीता है। जो शब्दों को जीता है, समय साक्षी है कि उसीने मानवता का मन जीता है। यही कारण है कि ‘एकता’ शब्द की मीमांसा और अर्थ में न पड़ते हुए लोक उसकी आत्मा में प्रवेश करता है। इस यात्रा में एकता झंडी-सी टँगी रह जाती है और लोक ‘एकात्मता’ का मंदिर बन जाता है। वह एकात्म होकर कार्य करता है। एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हुए भी ‘एकता’ बहुत छोटा शब्द है ‘एकात्मता’ के आगे। अत: इन पंक्तियों के लेखक ने शीर्षक में एकात्मता का प्रयोग किया है। कहा भी गया है,
एकात्मता के दर्शन से लोक का विशेषकर ग्राम्य जीवन ओतप्रोत है। आज तो संचार और परिवहन के अनेक साधन हैं। लगभग पाँच दशक पहले तक भी राजस्थान के मरुस्थली भागों में एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के लिए ऊँट या ऊँटगाड़ी (स्थानीय भाषा में इसे लड्ढा कहा जाता था) ही साधन थे। समाज की आर्थिक दशा देखते हुए उन दिनों ये साधन भी एक तरह से लक्जरी थे और समाज के बेहद छोटे वर्ग की जद में थे। आम आदमी कड़ी धूप में सिर पर टोपी लगाये पैदल चलता था। यह आम आदमी दो-चार गाँव तक पैदल ही यात्रा कर लेता था। रास्ते के गाँव में जो कुएँ पड़ते वहाँ बाल्टी और लेजु (रस्सी) पड़ी रहती। सार्वजनिक प्याऊ के गिलास या शौचालय के मग को चेन से बांध कर रखने की आज जैसी स्थिति नहीं थी। कुएँ पर महिला या पुरुष भर रहा होता तो पथिक को सप्रेम पानी पिलाया जाता। उन दिनों कन्यादान में पूरे गाँव द्वारा अंशदान देने की परंपरा थी। अत: सामाजिक चलन के कारण पानी पीने से पहले पथिक पता करता कि इस गाँव में उसके गाँव की कोई कन्या तो नहीं ब्याही है। मान लीजिये कि पथिक ब्राह्मण है तो उसे पता होता था कि उसके गाँव के किस ब्राह्मण परिवार की कन्या इस गाँव में ब्याही है। इसी क्रम में वह अपने गाँव का हवाला देकर पता करता कि उसके गाँव की कोई वैश्य, क्षत्रिय या हरिजन कन्या तो इस गाँव में नहीं ब्याही। जातियों और विशेषकर धर्मों में ‘डिफॉल्ट’ वैमनस्य देखनेवालों को पता हो कि पथिक यह भी तहकीकात करता कि किसी ‘खाँजी’ (मुस्लिम धर्मावलंबियों के लिए तत्कालीन संबोधन) की बेटी का ससुराल तो इस गाँव में नहीं है। यदि दूसरे धर्म की कोई बेटी, उसके गाँव की कोई भी बेटी, इस गाँव में ब्याही होती तो वहाँ का पानी न पीते हुए 44-45 डिग्री तापमान की आग उगलती रेत पर प्यासा पथिक आगे की यात्रा शुरू कर देता। ऐसा नहीं कि इस प्रथा का पालन जाति विशेष के लोग ही करते। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, हरिजन, खाँजी, सभी करते। एक आत्मा, एकात्म, एकात्मता के इस भाव का व्यास, कागज़ों की परिधि में नहीं समा सकता।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख चित्र नहीं चरित्र। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 134 ☆
☆ चित्र नहीं चरित्र ☆
‘ईश्वर चित्र में नहीं, चरित्र में बसता है। अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ’ चाणक्य का यह संदेश अनुकरणीय है, क्योंकि मंदिर में जाकर देवताओं की प्रतिमाओं के सम्मुख नतमस्तक होने से कोई लाभ नहीं; उनके सद्गुणों को आत्मसात् करो और मन को मंदिर बना लो तथा कबीर की भांति उन्हें नैनों में बसा लो। ‘नैना अंतर आव तूं, नैन झांपि तोहे लेहुं/ ना हौं देखूं और को, ना तुझ देखन देहुं’ यह है प्रभु से सच्चा प्रेम। उसे देखने के पश्चात् नेत्रों को बंद कर लेना और जीवन में किसी को भी देखने की तमन्ना शेष न रहना। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘मैं मन को मंदिर कर लूं/ देह को मैं चंदन कर लूं/ तुम आन बसो मेरे मन में/ मैं हर पल तेरा वंदन कर लूं’ यही है मन को मंदिर बना उसके ध्यान में स्वस्थित हो जाना। देह को चंदन सम घिस कर अर्थात् दुष्प्रवृत्तियों को त्याग कर सच्चे हृदय से स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना और उसका दरश पाने पर किसी अन्य को न निहारना व वंदन करना–आसान नहीं है; अत्यंत दुष्कर है। वास्तव में स्अपने अंतर्मन को परमात्मा के दैवीय गुणों से आप्लावित करना व अपने चरित्र में निखार लाना बहुत टेढ़ी खीर है। राम आदर्शवादी व पुरुषोत्तम राजा थे तथा उन्होंने घर-परिवार व समाज में सामंजस्य स्थापित किया। वे आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति व आदर्श राजा थे तथा त्याग की प्रतिमूर्ति थे। कृष्ण सोलह कलाओं के स्वामी थे। उन्होंने अपनी दिव्य शक्तियों से दुष्टों को पराजित किया तथा कौरवों व पांडवों के युद्ध के समय अर्जुन को युद्ध के मैदान में संदेश दिया, जो भगवद्गीता के रूप में देश-विदेश में मैनेजमेंट गुरू के रूप में आज भी मान्य है।
‘अहं त्याग देने के पश्चात् मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध त्याग देने से वह शोकरहित; काम त्याग देने से धनवान व लोभ त्याग देने से सुखी हो जाता है।’ युधिष्ठिर का यह यह कथन मानव को अहं त्यागने के साथ-साथ काम, क्रोध व लोभ को त्यागने की सीख भी देता है और जीवन में प्यार व त्याग की महत्ता को दर्शाता है। महात्मा बुद्ध भी इस ओर इंगित करते हैं कि ‘जो हम संसार में देते हैं; वही लौटकर हमारे पास आता है।’ इसलिए सबको दुआएं दीजिए, व्यर्थ में किसी के प्रति राग-द्वेष व स्व-पर का भाव हृदय में मत आने दीजिए। दूसरी ओर त्याग से तात्पर्य अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाना है, क्योंकि इससे मानव तनाव मुक्त रहता है। वैसे भी बौद्ध व जैन मत में अपरिग्रह अथवा संग्रह न करने की सीख दी गई है, क्योंकि हम सारी धन-सम्पदा के बदले में एक भी अतिरिक्त सांस उपलब्ध नहीं करा सकते। दूसरी ओर ‘यह दुनिया है एक मेला/ हर शख़्स यहां है अकेला/ तन्हाई में जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जायेगा’ स्वरचित गीत की यहां पंक्तियाँ उक्त भाव को दर्शाती हैं कि इंसान इस संसार में अकेला आया है और उसे अकेले ही जाना है। एकांत, एकाग्रता व प्रभु के प्रति समर्पण भाव कैवल्य-प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन हैं।
यदि हम आसन्न तूफ़ानों व आग़ामी आपदाओं के प्रति पहले से सजग व सचेत रहते हैं, तो शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं और वे सहसा प्रकट नहीं हो सकती। हमें ‘खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ’ के सिद्धांत को जीवन में न अपना कर, भविष्य के प्रति सजग व सचेत रहना चाहिए। शायद! हमें इसलिए ही ‘खाओ, पीओ व मौज उड़ाओ’ के सिद्धांत को जीवन में न अपनाने की सीख दी गयी है। इस सिद्धांत का अनुसरण न करने पर हमारी जग-हंसाई होगी और हमें दूसरों के सम्मुख हाथ पसारना पड़ेगा। ‘मांगन मरण समान’ अर्थात् किसी के प्रति के सम्मुख हाथ पसारना मरने के समान है। विलियम शेक्सपियर के मतानुसार ‘हमें किसी से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि एक न एक दिन उम्मीद टूटती अवश्य है और उसके टूटने पर दर्द भी बहुत होता है।’ वैसे तो उम्मीद पर दुनिया क़ायम है। परंतु मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, स्वयं से रखनी चाहिए। इसके साथ-साथ हमारे अंतर्मन में कर्ता भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि अहं मानव को पल भर में अर्श से फर्श पर ला पटकता है।
लोग विचित्र होते हैं। स्वयं तो ग़लती स्वीकारते नहीं और दूसरों को ग़लत साबित करने में अपना अमूल्य समय नष्ट कर देते हैं। सफल इंसान की नींव उसके विचार होते हैं। महात्मा बुद्ध भी अच्छे व अनमोल विचार रखने की सीख देते हैं, क्योंकि कर्म ख़ुद-ब-ख़ुद अच्छाई की ओर खिंचे चले आते हैं और अच्छे कर्म हमें अच्छाई की ओर अग्रसर करते हैं। सफलता जितनी देर से मिलती है, व्यक्ति में उतना निखार आता है, क्योंकि सोना अग्नि में तप कर ही कुंदन बनता है। गुरूनानक जी भी मानव को यही सीख देते हैं कि ‘नेकी करते वक्त उम्मीद किसी से मत रखो, क्योंकि सत्कर्मों का बदला भगवान देते हैं। किसी को प्रेम देना सबसे बड़ा उपहार है और प्रेम पाना सबसे बड़ा सम्मान।’ सो! अपनी सोच मोमबत्ती जैसी रखें। जैसे एक मोमबत्ती से दूसरी मोमबत्ती जलाने पर उसका प्रकाश कम नहीं होता, वैसे ही जीवन में बाँटना, परवाह व मदद करना कभी बंद मत करें; यही जीवन की सार्थकता है, सार है। सब अंगुलियों की लंबाई बराबर नहीं होती, परंतु जब वे झुकती व मुड़ती हैं, तो समान हो जाती हैं। इसी प्रकार जब हम जीवन में झुकना व समझौता करना सीख जाते हैं; ज़िंदगी आसान हो जाती है और तनाव व अवसाद भूले से भी दस्तक नहीं सकते।
वास्तव में हम चुनौतियां को समस्याएं समझ कर परेशान रहते हैं और संघर्ष नहीं करते, बल्कि पराजय स्वीकार कर लेते हैं। वैसे समाधान समस्याओं के साथ ही जन्म ले लेते हैं। परंतु हम उन्हें तलाशने का प्रयास ही नहीं करते और सदैव ऊहापोह की स्थिति में रहते हैं। नेपोलियन समस्याओं को भय व डर की उपज मानते थे। यदि डर की स्थिति विश्वास के रूप में परिवर्तित हो जाए, तो समस्याएं मुँह छिपा कर स्वत: लुप्त हो जाती हैं। इसलिए मानव आत्म-विश्वास को थरोहर सम संजोकर रखना चाहिए; यही सफलता की कुंजी है। वैसे भी ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ विवेकानंद जी के मतानुसार ‘यदि आप ख़ुद को कमज़ोर समझते हो, तो कमज़ोर हो जाते हो; अगर ताकतवर समझते हैं तो ताकतवर, क्योंकि हमारी सोच ही हमारा भविष्य निर्धारित करती है ।’ इसलिए हमें अपनी सोच को सकारात्मक रखना चाहिए–यह आत्म-संतोष की परिचायक है। हमारे अंतर्मन में निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा होना चाहिए; लक्ष्य को जुनून बनाकर उसकी पूर्ति में अपनी शक्तियों को झोंक देना चाहिए। ऐसी स्थिति में सफलता प्राप्ति निश्चित है। सो! हमें निष्काम कर्म को पूजा समझ कर निरंतर आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि यह सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय है।
‘यूं ही नहीं आती खूबसूरती रिश्तो में/ अलग- अलग विचारों को एक होना पड़ता है’ में निहित है–पारस्परिक स्नेह, सौहार्द व त्याग का भाव। यदि मानव में उक्त भाव व्याप्त हैं, तो रिश्ते लंबे समय तक चलेंगे, अन्यथा आजकल रिश्ते भुने हुए पापड़ की तरह पलभर में टूट जाते हैं। सो! अपने अहं को मिटाकर, दूसरे के अस्तित्व को स्वीकारना आवश्यक है। इसलिए जहाँ दूसरे को समझना मुश्किल हो; वहाँ ख़ुद को समझ लेना बेहतर है। इससे तात्पर्य यह है कि मानव को आत्मावलोकन करना चाहिए और अपने भीतर सुप्त शक्तियों को पहचानना चाहिए।
इंसान की पहचान दो बातों से होती है– एक उसका सब्र; जब उसके पास कुछ न हो और दूसरा उसका रवैया अथवा व्यवहार; जब उसके पास सब कुछ हो। ऐसे लोग आत्म-संतोषी होते हैं; वे और अधिक पाने की तमन्ना नहीं करते, बल्कि यही प्रार्थना करते हैं कि ‘मेरी औक़ात से ज़्यादा मुझे कुछ ना देना मेरे मालिक/ क्योंकि ज़रूरत से अधिक रोशनी भी मानव को अंधा बना देती है।’ ऐसे लोगों का जीवन अनुकरणीय होता है, क्योंकि वे प्रत्येक जीव में परमात्मा की सत्ता का आभास पाते हैं तथा प्रभु के प्रति सदैव समर्पित रहते हैं। वे अपनी रज़ा को उसकी रज़ा में मिला देते हैं। सो! ईश्वर चित्र में नहीं; चरित्र में बसता है। भगवान राम, कृष्ण व अन्य देवगण अपने दैवीय गुणों के कारण पहचाने जाते हैं तथा उनकी संसार में पूजा-अर्चना व उपासना होती है। सो! मानव को उन दैवीय गुणों व शक्तियों को अपने जीवन में जाग्रत करना चाहिए, ताकि वे भी संसार में अनुकरणीय व वंदनीय बन सकें।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 1
‘हम हैं, इसलिए मैं हूँ’ अनन्य होते हुए भी सहज दर्शन है। सामूहिकता में व्यक्ति के अस्तित्व का बोध तलाशने की यह वृत्ति पाथेय है। मछलियों की अनेक प्रजातियाँ समूह में रहती हैं। हमला होने पर एक साथ मुकाबला करती हैं। छितरती नहीं और आवश्यकता पड़ने पर सामूहिक रूप से काल के विकराल में समा जाती हैं।
लोक इसी भूमिका का निर्वाह करता है। वहाँ ‘मैं’ होता ही नहीं। जो कुछ हैे, ‘हम’ है। राष्ट्र भी ‘मैं’ से नहीं बनता। ‘हम’ का विस्तार है राष्ट्र। ‘देश’ या ‘राष्ट्र’ शब्द की मीमांसा इस लेख का उद्देश्य नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मानकों ने राष्ट्र (देश के अर्थ में) को सत्ता विशेष द्वारा शासित भूभाग माना है। इस रूप में भी देखें तो लगभग 32, 87, 263 वर्ग किमी क्षेत्रफल का भारत राष्ट्र् है। सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो इस भूमि की लोकसंस्कृति कम या अधिक मात्रा में अनेक एशियाई देशों यथा नेपाल, थाइलैंड, भूटान, मालदीव, मारीशस, बाँग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, तिब्बत, चीन तक फैली हुई है। इस रूप में देश भले अलग हों, एक लोकराष्ट्र है। लोकराष्ट्र भूभाग की वर्जना को स्वीकार नहीं करता। लोकराष्ट्र को परिभाषित करते हुए विष्णुपुराण के दूसरे स्कंध का तीसरा श्लोक कहता है-
उत्तरं यत समुद्रस्य हिमद्रेश्चैव दक्षिणं
वर्ष तात भारतं नाम भारती यत्र संतति।
अर्थात उत्तर में हिमालय और दक्षिण में सागर से आबद्ध भूभाग का नाम भारत है। इसकी संतति या निवासी ‘भारती’ (कालांतर में ‘भारतीय’) कहलाते हैं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 1
लोक अर्थात समाज की इकाई। समाज अर्थात लोक का विस्तार। यही कारण है कि ‘इहलोक’, ‘परलोक’ ‘देवलोक’, ‘पाताललोक’, ‘त्रिलोक’ जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ। गणित में इकाई के बिना दहाई का अस्तित्व नहीं होता। लोक की प्रकृति भिन्न है। लोक-गणित में इकाई अपने होने का श्रेय दहाई कोे देती है। दहाई पर आश्रित इकाई का अनन्य उदाहरण है, ‘उबूंटू!’
दक्षिण अफ्रीका के जुलू आदिवासियों की बोली का एक शब्द है ‘उबूंटू।’ सहकारिता और प्रबंधन के क्षेत्र में ‘उबूंटू’ आदर्श बन चुका है। अपनी संस्था ‘हिंदी आंदोलन परिवार’ में अभिवादन के लिए हम ‘उबूंटू’ का ही उपयोग करते हैं। हमारे सदस्य विभिन्न आयोजनों में मिलने पर परस्पर ‘उबूंटू’ ही कहते हैं।
इस संबंध में एक लोककथा है। एक यूरोपियन मनोविज्ञानी अफ्रीका के आदिवासियों के एक टोले में गया। बच्चों में प्रतिद्वंदिता बढ़ाने के भाव से उसने एक टोकरी में मिठाइयाँ भर कर पेड़ के नीचे रख दी। उसने टोले के बच्चों के बीच दौड़ का आयोजन किया और घोषणा की कि जो बच्चा दौड़कर सबसे पहले टोकरी तक जायेगा, सारी मिठाई उसकी होगी। जैसे ही मनोविज्ञानी ने दौड़ आरम्भ करने की घोषणा की, बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा, एक साथ टोकरे के पास पहुँचे और सबने मिठाइयाँ आपस में समान रूप से वितरित कर लीं। आश्चर्यचकित मनोविज्ञानी ने जानना चाहा कि यह सब क्या है तो बच्चों ने एक साथ उत्तर दिया,‘उबूंटू!’ उसे बताया गया कि ‘उबूंटू’ का अर्थ है,‘हम हैं, इसलिए ‘मैं’ हूँ। उसे पता चला कि आदिवासियों की संस्कृति सामूहिक जीवन में विश्वास रखता है, सामूहिकता ही उसका जीवनदर्शन है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “विश्व परिवार दिवस”।)
☆ आलेख ☆ विश्व परिवार दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆
विगत मई माह के तीसरे रविवार को अलसुबाह एक मित्र का ‘विश्व परिवार दिवस’ का मेसेज प्राप्त हुआ ही था कि स्थानीय समाचार पत्र ने विस्तार पूर्वक एक सर्वे की जानकारी देकर इस बाबत पुष्टि कर दी थी।
हमारी संस्कृति तो सदियों से “वसुधैव कुटुंबकम्” की वकालत कर रही हैं। हमें आज परिवार दिवस की दरकार क्यों आन पड़ी हैं ?
पश्चिमी संस्कृति हमारी संस्कृति को दीमक के समान चट कर रही हैं। दीमक जिस प्रकार पूरे दिन के चौबीस घंटे लगकर वस्तुओं को नष्ट कर देता हैं, उसी प्रकार से पश्चिमी सभ्यता हमारी जड़े खोखली कर चुका हैं।
उसी दिन दोपहर को एक परिचित परिवार से लंबे अंतराल के बाद बातचीत हुई तब पता चला एकल परिवार के दोनों पहिए अब स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के कारण अलग अलग शहर में बस गए हैं। परिचित (आयु चालीस वर्ष) की पत्नी जयपुर से कोटा चली गई हैं, ताकि वहां उपलब्ध कोचिंग संस्थान में बच्चे के लिए विशेष पढ़ाई करवा सकें। उनकी पत्नी किसी विदेशी कंपनी के लिए एक दशक से ऑनलाइन कार्य कर रही हैं, इसलिए उनकी नौकरी में कोई बाधा नहीं होगी। लेकिन बातों बातों में ऐसा प्रतीत हुआ कि एकल परिवार में कुछ तो गड़बड़ हैं। अंदाज लगा पाए शायद ईगो/ स्पेस बाबत कोई कारण हैं।
हमने परिचित को उनके परिवार का हवाला दिया की वो एक जाने माने साहित्यकार और कला के क़द्रदानों कदरदानों के परिवार से आते हैं।
युवा परिचित भी तुरंत पलट कर बोले – “वो ये सब अब नहीं मानते, सुप्रसिद्ध कहानीकार सलीम साहब के दो बेटों ने तो भी विवाह विच्छेद कर लिया हैं। जावेद साहब तो स्वयं और उनके पुत्र भी विवाह विच्छेद कर चुके हैं।“
वो यहां भी नहीं रुके और धर्मेंद्र/हेमामालिनी के दूसरे विवाह की बात सुनकर हम तो निश्शब्द हो गए।
कुछ बहाना कर, हमने उनकी वार्तालाप को विराम दिया। हृदय में कहीं से आवाज़ आई “बहते पानी के साथ चलो” और विश्व परिवार दिवस मनाने के लिए परिवार सहित रात्रि का भोजन किसी भोजनालय में करते हैं।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 139 ☆ बिन पानी सब सून☆
जल जीवन के केंद्र में है। यह कहा जाए कि जीवन पानी की परिधि तक ही सीमित है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। नाभिनाल हटाने से लेकर मृतक को स्नान कराने तक सारी प्रक्रियाओं में जल है। अर्घ्य द्वारा जल के अर्पण से तर्पण तक जल है। इतिहास साक्षी है कि पानी के स्रोत के इर्द-गिर्द नगर और महानगर बसे। भोजन ग्रहण करने से लेकर विसर्जन तक जल साथ है।
जल ऐसा पदार्थ है जो ठोस, तरल और वाष्प तीनों रूपों में है। वह जल, थल और नभ तीनों में है। वह ब्रह्मांड के तीनों घटकों का समन्वयक है। वह “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते’ का प्रमाणित संस्करण है। हिम से जल होना, जल से वायु होना और वायु का पुनः जल होकर हिम होना, प्रकृति के चक्र का सबसे सरल और खुली आँखों से दिखने वाला उदाहरण है। आत्मा की नश्वरता का आध्यात्मिक सिद्धांत हो या ऊर्जा के अक्षय रहने का वैज्ञानिक नियम, दोनों को अंगद के पांव -सा प्रतिपादित करता-बहता रहता है जल।
प्रकृति के समान मनुष्य की देह में भी दो-तिहाई जल है। जल निराकार है।निराकार जल, चेतन तत्व की ऊर्जा धारण करता है। जल प्रवाह है। प्रवाह चेतना को साकार करता है। जल परिस्थितियों से समरूप होने का अद्भुत उदाहरण है। पात्र मेंं ढलना उसका चरित्र और गुणधर्म है। वह ओस है, वह बूँद है, वह झरने में है, नदी, झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया, बावड़ी, कुएँ, कुईं में है और वह सागर में भी है। वह धरती के भीतर है और धरती के ऊपर भी है। वह लघु है, वही प्रभु है। कहा गया है-“आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरं।’ बूँद वाष्पीकृत होकर समुद्र से बादल में जा छिपती है। सागर बूँद को तरसता है तो बादल बरसता है और लघुता से प्रभुता का चक्र अनवरत चलता है।
भारतीय लोक का यह अनुशासन ही था जिसके चलते कम पानी वाले अनेक क्षेत्रों में घर की छत के नीचे पानी के हौद बनाए गए थे। छत के ढलुआ किनारों से वर्षा का पानी इस हौद में एकत्रित होता। जल के प्रति पवित्रता का भाव ऐसा कि जिस छत के नीचे जल संग्रहित होता, उस पर युगल का सोना वर्जित था। प्रकृति के चक्र के प्रति श्रद्धा तथा “जियो और जीने दो’ की सार्थकता ऐसी कि कुएँ के चारों ओर हौज बाँधा जाता। पानी खींचते समय हरेक से अपेक्षित था कि थोड़ा पानी इसमें भी डाले। ये हौज पशु-पक्षियों के लिए मनुष्य निर्मित पानी के स्रोत थे। पशु-पक्षी इनसे अपनी प्यास बुझाते। पुरुषों का स्नान कुएँ के समीप ही होता। एकाध बाल्टी पानी से नहाना और कपड़े धोना दोनों काम होते। इस प्रक्रिया में प्रयुक्त पानी से आसपास घास उग आती। यह घास पानी पीने आनेवाले मवेशियों के लिए चारे का काम करती। पनघट तत्कालीन दिनचर्या की धुरी था। पानी से भरा पनघट आदमी के भीतर के प्रवाह का विराट दर्शन था।
कालांतर में सिकुड़ती सोच ने पनघट का दर्शन निरपनिया कर दिया। स्वार्थ की विषबेल और मन के सूखेपन ने मिलकर ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दीं कि गाँव की प्यास बुझानेवाले स्रोत अब सूखे पड़े हैं। भाँय-भाँय करते कुएँ और बावड़ियाँ एक हरी-भरी सभ्यता के खंडहर होने के साक्षी हैं।
हमने केवल पनघट नहीं उजाड़े, कुओं को सींचनेवाले तालाबों और छोटे-मोटे प्राकृतिक स्रोतों को भी पाट दिया। बूँद-बूँद सहेजनेवाला समाज आज उछाल-उछाल कर पानी का नाश कर रहा है।
जल प्राकृतिक स्रोत है। प्राकृतिक संसाधन निर्माण नहीं किए जा सकते। प्रकृति ने उन्हें रिसाइकिल करने की प्रक्रिया बना रखी है। बहुत आवश्यक है कि हम प्रकृति से जो ले रहे हैं, वह उसे लौटाते भी रहें।
रहीमदास जी ने लिखा है-
‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून,
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।’
विभिन्न संदर्भों में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न हो सकती है किंतु यह प्रतीक जगत में जल की अनिवार्यता को प्रभावी रूप से रेखांकित करता है। पानी के बिना जीवन की कल्पना करते ही मुँह सूखने लगता है। जिसके अभाव की कल्पना इतनी भयावह है, उसका यथार्थ कैसा होगा! बेहतर होगा कि हम समय रहते चेत जाएँ।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ आलेख – छाया का मानव जीवन तथा प्राकृतिक पर्यावरण पर प्रभाव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
यूँ तो छाया शब्द व्याकरण के अनुसार शब्द और मात्रा द्वारा निर्मित है तथा परछाई, प्रतिकृति, प्रतिबिंब, प्रतिमूर्ति और बिंब छांव उसके पर्याय है, जो अपने आप में विस्तृत अर्थ समेटे हुए है जिसके अलग अलग निहितार्थ भाव तथा प्रभाव दृष्टि गोचर होते रहते हैं। उसके स्थान परिस्थिति के अनुसार उसकी उपयोगिता अलग-अलग दिखाई देती है। जैसे माँ की ममतामयी आँचल की छांव में जहां अबोध शिशु को आनंद की अनुभूति होती है, वहीं पिता की छत्रछाया में सुरक्षा की अनुभूति होती है।
वहीं बादलों की छाया तथा वृक्ष की छांव धूप से जलती धरती तथा पथिक को शीतलता का आभास कराती है। छाया चैतन्यात्मा न होते हुए भी गतिशील दिखाई देती है, जब हम गतिशील होते हैं तो साथ चलती हुई छाया भी चलती है। तथा आकृति की प्रतिकृति अथवा प्रतिबिंब बनती दिखती है। यह प्रकाश परावर्तन से भी निर्मित होती है। कभी कभी कमरे में में झूलती हुई रस्सी की छाया हमारे मन में सांप के होने का भ्रम पैदा करती है तो वहीं पर भयानक आकृति की छाया लोगों को प्रेत छाया बन डराती है। यह कोरा भ्रम भले ही हो लेकिन हमारी मनोवृत्ति पर उसका प्रभाव तो दीखता ही है।
छाया किस प्रकार पृथ्वी को गर्म होने से बचाती है वहीं उसकी अनुभूति करने के लिए किसी वृक्ष के पास धूप में खड़े होइए, तथा उसके बाद वृक्ष की छांव में जाइए, अंतर समझ में आ जाएगा। जहां धूप में थोड़ी देर में आप की त्वचा में जलन होती है वहीं वृक्ष की सघन छांव में आप घंटों बैठकर गुजार देते हैं। इसलिए छाया का मानव मन तथा जीवन प्रकृति तथा पर्यावरण पर बहुत ही गहरा असर पड़ता है। इस लिए हमें भौतिक संसाधनों पर निर्भरता कम करते हुए वृक्ष लगाने चाहिए ताकि उस वृक्ष की छांव फल फूल तथा लकड़ी का मानव सदुपयोग कर सके।