डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सुनना और सहना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 133 ☆
☆ सुनना और सहना ☆
‘हालात सिखाते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह ही होता है’ गुलज़ार इस कथन के माध्यम से समय व परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हैं। वैसे यह तथ्य महिलाओं पर अधिक लागू होता है, क्योंकि ‘औरत को सहना है, कहना नहीं और यही उसकी नियति है।’ उसे तो अपना पक्ष रखने का अधिकार भी प्राप्त नहीं है। वैसे कोर्ट-कचहरी में भी आरोपी को अपना पक्ष रखने की हिदायत ही नहीं दी जाती; अवसर भी प्रदान किया जाता है। परंतु औरत की नियति तो उससे भी बदतर है। बचपन से उसे समझा दिया जाता है कि यह घर उसका नहीं है और पति का घर उसका होगा। परंतु पहले तो उसे यह सीख दी जाती थी कि ‘जिस घर से डोली उठती है, उस घर से अर्थी नहीं उठती। इसलिए तुम्हें इस घर में अकेले लौट कर नहीं आना है।’ सो! वह मासूम आजीवन उस घर को अपना समझ कर सजाती-संवारती है, परंतु अंत में उस घर से उस अभागिन को दो गज़ कफ़न भी नसीब नहीं होता और उसके नाम की पट्टिका भी कभी उस घर के बाहर दिखाई नहीं पड़ती।
परंतु समय के साथ सोच बदली है और आठ से दस प्रतिशत महिलाएं सशक्त हो गई हैं– शेष वही ढाक के तीन पात। कुछ महिलाएं समानता के अधिकारों का दुरुपयोग भी कर रही हैं। वे ‘लिव इन व मी टू’ के माध्यम से हंसते-खेलते परिवारों में सेंध लगा रही हैं तथा दहेज व घरेलू हिंसा आदि के झूठे इल्ज़ाम लगा पति व परिवारजनों को सीखचों के पीछे पहुंचा अहम् भूमिका वहन कर रही हैं। यह है परिस्थितियों के परिर्वतन का परिणाम, जैसा कि गुलज़ार ने कहा है कि समानता का अधिकार प्राप्त करने के पश्चात् महिलाओं की सोच बदली है। वे अब आधी ज़मीन ही नहीं, आधा आसमान लेने पर आमादा हो रही हैं। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘मौसम भी बदलते हैं, हालात बदलते हैं/ यह समाँ बदलता है, जज़्बात बदलते हैं/ यादों से महज़ मिलता नहीं, दिल को सुक़ून/ ग़र साथ हो सुरों का, नग़मात बदलते हैं।’ जी हां! यही सत्य है जीवन का– समय के साथ- साथ व्यक्ति की सोच भी बदलती है। वैसे स्मृतियों में विचरण करने से दिल को सुक़ून नहीं मिलता। परंतु यदि सुरों अथवा संगीत का साथ हो, तो उन नग़मों की प्रभाव-क्षमता भी अधिक हो जाती है।
‘संसार में मुस्कुराहट की वजह लोग जानना चाहते हैं; उदासी की वजह कोई नहीं जानना चाहता।’ यहां ‘सुख के सब साथी, दु:ख में ना कोय।’ सो! इंसान सुखों को इस संसार के लोगों से सांझा नहीं करना चाहता, परंतु दु:खों को बांटना चाहता है। उस स्थिति में वह आत्म- केंद्रित रहते हुए दूसरों से संबंध-सरोकार रखना पसंद नहीं करता। अक्सर लोग सत्ता व धन- सम्पदा व सम्मान वाले व्यक्ति का साथ देना पसंद करते हैं; उसके आसपास मंडराते हैं, परंतु दु:खी व्यक्ति से गुरेज़ करते हैं। यही है ‘दस्तूर- ए-दुनिया।’
‘हौसले भी किसी हक़ीम से कम नहीं होते/ हर तकलीफ़ में ताकत की दवा देते हैं।’ मानव का साहस, धैर्य व आत्मविश्वास किसी वैद्य से कम नहीं होता। वे मानव को मुसीबतों में उनका सामना करने की राह सुझाते हैं। जैसे एक छोटी-सी दवा की गोली रोग-मुक्त करने में सहायक सिद्ध होती है, वैसे ही संकट काल में सहानुभूति के दो मीठे बोल संजीवनी का कार्य करते हैं। ‘मैं हूं ना’ यह तीन शब्द से उसे संकट-मुक्त कर देते हैं। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए तथा हार होने से पहले पराजय को नहीं स्वीकारना चाहिए। दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला कहते हैं ‘हिम्मतवान् वह नहीं, जिसे डर नहीं लगता, बल्कि वह है जो डर को जीत लेता है’ तथा वैज्ञानिक मैडम क्यूरी का मानना है कि ‘जीवन डरने के लिए नहीं: समझने के लिए है। सकारात्मक संकल्प से ही हम मुश्किलों से बाहर निकल सकते हैं।’ सो! संसार में वीर पुरुष ही विजयी होते और कायर व्यक्ति का जीना प्रयोजनहीन होता है। इसके साथ हम सकारात्मक सोच व दृढ़-संकल्प से कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। नैपोलियन का यह संदेश अनुकरणीय है कि ‘समस्याएं भय व डर से उत्पन्न होती हैं। यदि डर की जगह विश्वास ले ले, तो वे अवसर बन जाती हैं। वे विश्वास के साथ आपदाओं का सामना कर उन्हें अवसर में बदल डालते थे।’ इसलिए हर इंसान को अपने हृदय से डर को बाहर निकाल फेंकना चाहिए। यदि आप साहस-पूर्वक यह पूछते हैं–’इसके बाद क्या’ तो प्रतिपक्ष के हौसले पस्त हो जाते हैं। जिस दिन मानव के हृदय से भय निकल जाता है; वह आत्मविश्वास से आप्लावित हो जाता है और आकस्मिक आपदाओं का सामना करने में स्वयं को समर्थ पाता है। हमारे हृदय का भय का भाव ही हमें नतमस्तक होने पर विवश करता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में यही संदेश दिया है कि ‘अन्याय करने वाले से अधिक दोषी अन्याय सहन करने वाला होता है।’ हमारी सहनशीलता ही उसे और अधिक ज़ुल्म करने को प्रोत्साहित करती है। जब हम उसके सम्मुख डटकर खड़े हो जाते हैं, तो वह अपनी झेंप मिटाने के लिए अपना रास्ता बदल लेता है। यह अकाट्य सत्य है कि हमारा समर्पण ही प्रतिपक्ष के हौसलों को बुलंद करता है।
मौन नव निधियों की खान है; विनम्रता आभूषण है। परंतु जहां आत्म-सम्मान का प्रश्न हो, वहाँ उसका सामना करना अपेक्षित व श्रेयस्कर है। ऐसी स्थिति में मौन को कायरता का प्रतीक स्वीकारा जाता है। सो! वहाँ समझौता करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। भले ही सुनना व सहना हमें हालात सिखाते हैं, परंतु उन्हें नतमस्तक हो स्वीकार कर लेना पराजय है।
‘यदि तुम स्वयं को कमज़ोर समझते हो, तो कमज़ोर हो जाओगे। यदि ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो ताकतवर’– स्वामी विवेकानंद जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। हमारी सोच ही हमारा भविष्य निर्धारित करती है। इसलिए जीवन में नकारात्मकता को जीवन में कभी भी घर न बनाने दो। रोयटी बेनेट के अनुसार चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें हमारा साक्षात्कार कराने हेतु आती हैं कि हम कहां हैं? तूफ़ान हमारी कमज़ोरियों पर आघात करते हैं, लेकिन तभी हमें अपनी शक्तियों का आभास होता है। समाजशास्त्री प्रौफेसर कुमार सुरेश के शब्दों में ‘अगर हमारा परिवार साथ है, तो हमें मनोबल मिलता है और हम हर संकट का सामना करने को तत्पर रहते हैं।’ अरस्तु के शब्दों में ‘श्रेष्ठ व्यक्ति वही बन सकता है, जो दु:ख और चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा मानकर आगे बढ़ता है।’ सो! मानव को उन्हें प्रभु-प्रसाद व अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल स्वीकारना चाहिए। माता देवकी व वासुदेव को 14 वर्ष तक काराग़ार में रहना पड़ा। देवकी के कृष्ण से प्रश्न करने पर उसने उत्तर दिया कि इंसान को अपने कृत-कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। आप त्रेतायुग में माता कैकेयी व पिता वासुदेव दशरथ थे। आपने मुझे 14 वर्ष का वनवास दिया था। इसलिए आपकी मुक्ति भी 14 वर्ष पश्चात् ही संभव थी। सो! ‘जो हुआ, जो हो रहा है और जो होगा, अच्छा ही होगा। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए और हर परिस्थिति का खुशी से स्वागत् करना चाहिए। समय कभी थमता नहीं; निरंतर गतिशील रहता है। इसलिए मन में कभी मलाल को मत आने दो। यह समाँ भी गुज़र जाएगा और उलझनें भी समयानुसार सुलझ जाएंगी। उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला दें, तो सब अच्छा ही होगा। औचित्य-अनौचित्य में भेद करना सीखें और विपरीत परिस्थितियों में प्रसन्न रहें, क्योंकि शरणागति ही शांति पाने का सर्वोत्तम साधन है।
© डा. मुक्ता
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