(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 23
नौचंदी मेला- मेरठ में प्रतिवर्ष लगने वाला नौचंदी मेला हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक है। नवचंडी का अपभ्रंश कालांतर में नौचंदी हो गया। नौचंदी देवी एवं हजरत बाले मियाँ की दरगाह एक दूसरे के पास हैं। मंदिर में भजन और दरगाह पर कव्वाली का अद्भुत दृश्य इस मेले में देखने को मिलता है। घंटी और शंख के बीच अजान की आवाज़ और मंत्रों के उच्चारण का इंद्रधनुष इस मेले में खिलता है। नौचंदी मेला सामासिकता और एकात्मता का जीता जागता उदाहरण है। यह मेला चैत्र मास की नवरात्रि से एक सप्ताह पहले आरंभ होता है तथा एक माह तक चलता है।
शहीद मेला- 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय की घटना है। 14 अगस्त 1942 को मैनपुरी के बेवर नामक स्थान पर कुछ छात्रों ने ध्वज यात्रा निकाली। छात्रों और देशप्रेमी जनसमुदाय ने थाने पर कब्जा कर लिया। अतिरिक्त पुलिस बल बुलाकर इन्हें वहाँ से हटाया गया। अगले दिन 15 अगस्त 1942 को थाने पर भीड़ ने भारत का झंडा फहरा दिया। पुलिस ने गोलियां चलाईं। इस कांड में 14 वर्षीय कृष्ण कुमार, 42 वर्षीय जमुना प्रसाद त्रिपाठी, 40 वर्षीय सीताराम गुप्त शहीद हो गए।
शहीद अशफाकउल्ला का एक प्रसिद्ध शेर है,
शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
संभवत: ऐसी ही कोई भावना रही होगी कि इस बलिदान की स्मृति में 1972 में स्वर्गीय जगदीश नारायण त्रिपाठी ने ‘शहीद मेला’ आरंभ किया। स्वाधीनता के युद्ध में शहीद हुए लोगों के स्मृति में यह मेला 19 दिनों तक चलता है। यहाँ शहीद मंदिर भी है। शहीदों की फोटो प्रदर्शनी, शहीदों के परिजनों का सम्मान ,स्वतंत्रता सेनानी सम्मान, रक्तदान , राष्ट्रीय एकता सम्मेलन इसे विशिष्ट बनाते हैं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 127 ☆ स्टैच्यू..! ☆
संध्याकाल है। शब्दों का महात्म्य देखिए कि प्रत्येक व्यक्ति उनका अर्थ अपने संदर्भ से ग्रहण कर सकता है। संध्याकाल, दिन का अवसान हो सकता है तो जीवन की सांझ भी। इसके सिवा भी कई संदर्भ हो सकते हैं। इस महात्म्य की फिर कभी चर्चा करेंगे। संप्रति घटना और उससे घटित चिंतन पर मनन करते हैं।
सो अस्त हुए सूर्य की साक्षी में कुछ सौदा लेने बाज़ार निकला हूँ। बाज़ार सामान्यत: पैदल जाता हूँ। पदभ्रमण, निरीक्षण और तदनुसार अध्ययन का अवसर देता है। यूँ भी मुझे विशेषकर मनुष्य के अध्ययन में ख़ास रुचि है। संभवत: इसी कारण एक कविता ने मुझसे लिखवाया, ‘उसने पढ़ी आदमी पर लिखी किताबें/ मैं आदमी को पढ़ता रहा।’
आदमी को पढ़ने की यात्रा पुराने मकानों के बीच की एक गली से गुज़री। बच्चों का एक झुंड अपने कल्लोल में व्यस्त है। कोई क्या कह रहा है, समझ पाना कठिन है। तभी एक स्पष्ट स्वर सुनाई देता है, ‘गौरव स्टेच्यू!’ देखता हूँ एक लड़का बिना हिले-डुले बुत बनकर खड़ा हो गया है। . ‘ ऐ, जल्दी रिलीज़ कर। हमको खेलना है’, एक आवाज़ आती है। स्टैच्यू देनेवाली बच्ची खिलखिलाती है, रिलीज़ कर देती है और कल्लोल जस का तस।
भीतर कल्लोल करते विचारों को मानो दिशा मिल जाती है। जीवन में कब-कब ऐसा हुआ कि परिस्थितियों ने कहा ‘स्टैच्यू’ और अपनी सारी संभावनाओं को रोककर बुत बनकर खड़ा होना पड़ा! गिरना अपराध नहीं है पर गिरकर उठने का प्रयास न करना अपराध है। वैसे ही नियति के हाथों स्टैच्यू होना यात्रा का पड़ाव हो सकता है पर गंतव्य नहीं। ऐसे स्टैच्यू सबके जीवन में आते हैं। विलक्षण होते हैं जो स्टैच्यू से निकलकर जीवन की मैराथन को नये आयाम और नयी ऊँचाइयाँ देते हैं।
नये आयाम देनेवाला ऐसा एक नाम है अरुणिमा सिन्हा का। अरुणिमा, बॉलीबॉल और फुटबॉल की उदीयमान युवा खिलाड़ी रहीं। दोनों खेलों में अपने राज्य उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर चुकी थीं। सन 2011 में रेलयात्रा करते हुए बैग और सोने की चेन लुटेरों के हवाले न करने की एवज़ में उन्हें चलती रेल से नीचे फेंक दिया गया। इस बर्बर घटना में अरुणिमा को अपना एक पैर खोना पड़ा। केवल 23 वर्ष की आयु में नियति ने स्टैच्यू दे दिया।
युवा खिलाड़ी अब न फुटबॉल खेल सकती थी, न बॉलीबॉल। नियति अपना काम कर चुकी थी पर अनेक अवरोधक लगाकर सूर्य के आलोक को रोका जा सकता है क्या? कृत्रिम टांग लगवाकर अरुणिमा ने पर्वतारोहण का अभ्यास आरम्भ किया। नियति दाँतो तले उँगली दबाये देखती रह गयी जब 21 मई 2013 को अरुणिमा ने माउंट एवरेस्ट फतह कर लिया। अरुणिमा सिन्हा स्टैच्यू को झिंझोड़कर दुनिया की सबसे ऊँची चोटी पर पहुँचने वाली पहली भारतीय दिव्यांग महिला पर्वतारोही बनीं।
चकबस्त का एक शेर है,
कमाले बुज़दिली है, पस्त होना अपनी आँखों में अगर थोड़ी सी हिम्मत हो तो क्या हो सकता नहीं।
स्टैच्यू को अपनी जिजीविषा से, अपने साहस से स्वयं रिलीज़ करके, अपनी ऊर्जा के सकारात्मक प्रवाह से अरुणिमा होनेवालों की अनगिनत अद्भुत कथाएँ हैं। अपनी आँख में विजय संजोने वाले कुछ असाधारण व्यक्तित्वों की प्रतिनिधि कथाओं की चर्चा उवाच के अगले अंकों में करने का यत्न रहेगा। प्रक्रिया तो चलती रहेगी पर कुँवर नारायण की पंक्तियाँ सदा स्मरण रहें, ‘हारा वही जो लड़ा नहीं।’..इति।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
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संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 22
भारत के प्रसिद्ध प्रतिनिधि मेला-
कुंभ मेला- संस्कृत शब्द ‘कुंभ’ का अर्थ घड़ा होता है। कुंभ विश्व का सबसे बड़ा मेला है। 1989 में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में 5 फरवरी को प्रयागराज के मेले में डेढ़ करोड़ लोगों की उपस्थिति और स्नान की पुष्टि की जो एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी। 2001 में 24 जनवरी को प्रयागराज में अधिकृत रूप से तीन करोड़ लोग उपस्थित थे। अध्यात्म, संस्कृति, धर्म, व्यापार, परंपरा, हर दृष्टि से इसका अनन्य स्थान है। समय साक्षी है कि मानव ने जलस्रोतों के निकट बस्तियाँ बसाईं। यही कारण है कि कुंभ मेला विशाल जलराशि वाले प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नाशिक, प्रत्येक नगर में बारह वर्ष के अंतराल से कुंभ होता है। प्रयागराज में छह वर्ष के अंतराल पर अर्द्धकुंभ भी होता है। हमारी परंपरा में नदियाँ अमृतकुंभ कहलाती हैं। अमृतकुंभ के किनारे जनकुंभ की साक्षी हरिद्वार में माँ गंगा बनती हैं। प्रयागराज में गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम इसका साक्षी होता है। उज्जैन और नासिक में क्रमश: क्षिप्रा और गोदावरी यह दायित्व वहन करती हैं।
मान्यता है कि क्षीरसागर मंथन से प्राप्त अमृत कलश को लेकर देवराज इंद्र के पुत्र जयंत नभ में उड़ चले। पीछा करते दानवों ने धावा बोला तो जयंत के हाथ का कलश थोड़ा-सा छलक पड़ा। इससे पृथ्वी पर उपरोक्त चार स्थानों पर अमृत की बूँदें गिरीं। इसी संदर्भ के कारण इन नगरों में कुंभ का आयोजन होता है।
कुंभ मेला मकर संक्रांति से आरंभ होता है। ज्योतिष के अनुसार इस समय बृहस्पति, कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तथा सूर्य का मेष राशि में प्रवेश होता है। ग्रहों की स्थिति उन दिनों हरिद्वार स्थित हर की पौड़ी के गंगाजल को औषधीय प्रभाव से युक्त करती है। यही कारण है इस अवधि में यहाँ स्नान करना आरोग्य के लिए लाभदायक माना गया है। गंगा माँ के तो दर्शनमात्र को मुक्ति का साधन.माना गया है। कहा गया है, ‘गंगे तवदर्शनात् मुक्ति!’
कुंभ में मकर संक्रांति, पौष पूर्णिमा, एकादशी, मौनी अमावस्या के दिन स्नान करना विशेष फलदायी माना जाता है।
कुंभ विश्व का सबसे बड़ा मेला है। जो कारण, मेले के लिए आधार का काम करते हैं, वे सभी इसमें विस्तृत स्तर पर दृष्टिगोचर होते हैं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
किसी भी राष्ट्र की पहचान के पहलूओं मे उसकी संस्कृति का महत्वपूर्ण योगदान होता है।भारत सदियों से अपनी संस्कृति और विरासत के लिए विश्व धरातल पर जाना जाता है।परन्तु वर्तमान दौर मे हम इस संबंध मे पिछड़ते जा रहे है। आखिर क्यों?इसका मुख्य कारण है बदलता परिवेश।
भारतीय संस्कृति मे आये कुछ अहितकारी बदलाव इसके स्पष्ट संकेत है।हमारी संस्कृति सदैव “अतिथि देवो भव्” के लिए जानी जाती है परन्तु विगत कुछ वर्षो मे विदेशी सैलानियों मुख्यतः महिलाओ से अत्याचार, घिनौनी एवं शर्मनाक उत्पीड़ना ,यौन हिंसा ने इसे शर्मशार किया है। “वसुधैव कुटुम्बकम” का भाव सदैव से धारण किये हुए भारतीय समाज ने समग्र वसुधा को अपना परिवार माना है।परन्तु वर्तमान मे विश्व तो दूर सामूहिक परिवार मे ही कलह देखने को मिलते है। आखिर क्यों?
क्षेत्र,राज्य और समुदाय के नाम पर हुए बटवारे ने भारत को बाँट दिया है। “अनेकता मे एकता” के लिए विश्व विख्यात भारत आज धर्म के नाम पर विभाजित होता प्रतीत हो रहा है।कबीर दास जी ने कहा था “भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां हिन्दू व मुस्लिम एक ही घाट पर पानी भरते है ऐसे राष्ट्र मे जन्म लेना मेरा सौभाग्य है।
“होली, दिवाली, ईद हो, रमजान या अन्य त्यौहार जहाँ सभी भारतीय एक साथ मनाते थे। त्योहार किसी विशेष धर्म का ना होकर समग्र राष्ट्र का था, जहाँ मुस्लिम फटाके फोड़ते थे व हिन्दू ईद मुबारक कहते थे ऐसे राष्ट्र मे आज धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक दंगे हो रहे है! अनेकों निर्दोषो की जानें जा रही है ! जिसका उदाहरण हाल ही मे हुई कुछ घटनाओ से ज्ञात होता है। और तो और ऋषि, मुनियो की इस संस्कृति को कुछ ढोंगी पीर बाबाओ ने शर्मसार किया है।
हिन्दी भाषा के कारण विश्व धरातल पर पहचान प्राप्त करने वाले भारतीय आज हिन्दी बोलने से कतराने लगे है।आज के समय में रामायण व गीता कुछ ही घरो मे मिलेगी। अगर मिलेगी भी तो धूल से धूमिल या गुम होती हुई।क्या यही है हमारी संस्कृति ?
अगर हम सभी भारतीय है और अपनी संस्कृति का संरक्षण और हिफाजत चाहते है तो प्रेम स्नेह ,सहयोग सदभावना, बसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ओत प्रोत क्यों नही कर देते ? क्यों नही है सभी एक साथ मिलकर भाईचारा ,सौहार्द प्रेम का बीज बो देते ?
क्यों हम पीछे हट जाते है विदेशी ताकत से?
क्यों नही है सभी अपनी भारत माता, अपनी प्रकृति की रक्षा कर सकते?
अगर हम सभी वैचारिक समभाव से आगे बढ़े, अपने देश के प्रति प्रेम, अपनी धरती माता की तड़पती पुकार को सुनें तो निश्चित ही हम सभी एक जुट होकर ये सब कर सकेंगे और महाराज श्री अग्रसेन के लाल कहलाने पर हम गर्व महसूस करेंगे।
धूमिल सी हो गई है वो यादें जब गाँवो मे चौपालो पर बुजुर्गो की भीड़ मिलती थी, अब कही देखने को नही मिलती। यूं समझिए जैसे पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करने की तो रीति रिवाज कही गुम सी हो गयी है।
“अहिंसा परमो धर्म्” के भाव वाले इस राष्ट्र मे विगत कुछ वर्षो मे हुई हिंसा ने समग्र विश्व को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या ये वही देश है जहाँ गांधी जैसे शांतिप्रिय दूत ने अहिंसा का संदेश दिया था? बेशक योग को विश्व धरातल पर लाकर भारत ने ये साबित भी किया कि वो आज भी विश्व गुरु है। हमारी भारतीय संस्कृति सदैव से अमर रही है।क्योंकि यह स्वयं मे सम्पूर्ण को समेटे हुए है। परन्तु इसकी पहचान कही खोती जा रही है।हमारी कुछ कमियों ने ,कुछ ऐसे कृत्यों ने इसे दागदार बना दिया है।भौतिकवादी इस युग मे हम इतना गुम हो गए हैं कि हम भूल गए हैं की अपनी संस्कृति ही अपनी पहचान है।
जरूरत है हमे जरूरत है भारतीय संस्कृति के संरक्षण और हिफाजत की हमें जरूरत है।
संरक्षण और हिफाजत करके इसे आगे बढ़ाने की हमें जरूरत है।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोरोना और भूख। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 122 ☆
☆ कोरोना और भूख ☆
कोरोना बाहर नहीं जाने देता और भूख भीतर नहीं रहने देती। आजकल हर इंसान दहशत के साये में जी रहा है। उसे कल क्या, अगले पल की भी खबर नहीं। अब तो कोरोना भी इतना शातिर हो गया है कि वह इंसान को अपनी उपस्थिति की खबर ही नहीं लगने देता। वह दबे पांव दस्तक देता है और मानव शरीर पर कब्ज़ा कर बैठ जाता है। उस स्थिति में मानव की दशा उस मृग के समान होती है, जो रेगिस्तान में सूर्य की चमकती किरणों को जल समझ कर दौड़ता चला जाता है और वह बावरा मानव परमात्मा की तलाश में इत-उत भटकता रहता है। अंत में उसके हाथ निराशा ही लगती है, क्योंकि परमात्मा तो आत्मा के भीतर बसता है। वह अजर, अमर, अविनाशी है। उसी प्रकार कोरोना भी शहंशाह की भांति हमारे शरीर में बसता है, जिससे सब अनभिज्ञ होते हैं। वह चुपचाप वार करता है और जब तक मानव को रोग की खबर मिलती है,वह लाइलाज घोषित कर दिया जाता है। घर से बाहर अस्पताल में क्वारेंटाइन कर दिया जाता है और आइसोलेशन में परिवारजनों को उससे मिलने भी नहीं दिया जाता। तक़दीर से यदि वह ठीक हो जाता है, तो उसकी घर-वापसी हो जाती है, अन्यथा उसका दाह-संस्कार करने का दारोमदार भी सरकार पर होता है। आपको उसके अंतिम दर्शन भी प्राप्त नहीं हो सकते। वास्तव में यही है– जीते जी मुक्ति। कोरोना आपको इस मायावी संसार ले दूर जाता है। उसके बाद कोई नहीं जानता कि क्या हो रहा है आपके साथ… कितनी आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है आपको… और अंत में किसी से मोह-ममता व लगाव नहीं; उसी परमात्मा का ख्याल … है न यह उस सृष्टि-नियंता तक पहुंचने का सुगम साधन व कारग़र उपाय। यदि कोई आपके प्रति प्रेम जताना भी चाहता है, तो वह भी संभव नहीं, क्योंकि आप उन सबसे दूर जा चुके होते हो।
परंतु भूख दो प्रकार की होती है… शारीरिक व मानसिक। जहां तक शारीरिक भूख का संबंध है, भ्रूण रूप से मानव उससे जुड़ जाता है और अंतिम सांस तक उसका पेट कभी नहीं भरता। मानव उदर-पूर्ति हेतु आजीवन ग़लत काम करता रहता है और चोरी-डकैती, फ़िरौती, लूटपाट, हत्या आदि करने से भी ग़ुरेज़ नहीं करता। बड़े-बड़े महल बनाता है, सुरक्षित रहने के लिए, परंतु मृत्यु उसे बड़े-बड़े किलों की ऊंची-ऊंची दीवारों के पीछे से भी ढूंढ निकालती है। सो! कोरोना भी काल के समान है, कहीं भी, किसी भी पल किसी को भी दबोच लेता है। फिर इससे घबराना व डरना कैसा? जिस अपरिहार्य परिस्थिति पर आपका अंकुश नहीं है, उसके सम्मुख नतमस्तक होना ही बेहतर है। सो! आत्मनिर्भर हो जाइए, डर-डर कर जीना भी कोई ज़िंदगी है। शत्रु को ललकारिए, परंतु सावधानी-पूर्वक। इसलिए एक-दूसरे से दो गज़ की दूरी बनाए रखिए, परंतु मन से दूरियां मत बनाइए। इसमें कठिनाई क्या है? वैसे भी तो आजकल सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं… एक छत के नीचे रहते हुए अजनबीपन का एहसास लिए…संबंध-सरोकारों से बहुत ऊपर। सो! कोरोना तो आपके लिए वरदान है। ख़ुद में ख़ुद को तलाशने व मुलाकात करने का स्वर्णिम अवसर है, जो आपको राग-द्वेष व स्व-पर के बंधनों से ऊपर उठाता है। इसलिए स्वयं को पहचानें व उत्सव मनाएं। कोरोना ने आपको अवसर प्रदान किया है, निस्पृह भाव से जीने का; अपने-पराये को समान समझने का… फिर देर किस बात की है। अपने परिवार के साथ प्रसन्नता से रहिए। मोबाइल व फोन के नियंत्रण से मुक्त रहिए, क्योंकि जब आप किसी के लिए कुछ कर नहीं सकते, तो चिन्ता किस बात की और तनाव क्यों? घर ही अब आपका मंदिर है, उसे स्वर्ग मान कर प्रसन्न रहिए। इसी में आप सबका हित है। यही है ‘ सर्वे भवंतु सुखिनः ‘ का मूल, जिसमें आप भरपूर योगदान दे सकते हैं। सो! अपने घर की लक्ष्मण-रेखा न पार कर के, अपने घर में ही अलौकिक सुख पाने का प्रयास कीजिए। लौट आइए! अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर…तनिक चिंतन कीजिए, कैसे ऋषि-मुनि वर्षों तक जप-तप करते थे। उन्हें न भूख सताती थी; न ही प्यास। आप भी तो ऋषियों की संतान हैं। ध्यान-समाधि लगाइए– शारीरिक भूख-प्यास आप के निकट आने का साहस भी नहीं जुटा पाएगी और आप मानसिक भूख पर स्वतः विजय प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगे।
आधुनिक युग में आपके बुज़ुर्ग माता-पिता तो वैसे भी परिवार की धुरी में नहीं आते। बच्चों के साथ खुश रहिए। एक-दूसरे पर दोषारोपण कर घर की सुख-शांति में सेंध मत लगाइए। पत्नी और बच्चों पर क़हर मत बरसाइए, क्योंकि इस दशा के लिए दोषी वे नहीं हैं। कोरोना तो विश्वव्यापी समस्या है। उसका डटकर मुकाबला कीजिए। अपनी इच्छाओं को सीमित कर ‘दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’ में मस्त रहिए। वैसे भी पत्नी तो सदैव बुद्धिहीन अथवा दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती है। सो! उस निर्बल व मूर्ख पर अकारण क्रोध व प्रहार क्यों? बच्चे तो निश्छल व मासूम होते हैं। उन पर क्रोध करने से क्या लाभ? उनके साथ हंस-बोल कर अपने बचपन में लौट जाइए, क्योंकि यह सुहाना समय है…खुश रहने का; आनंदोत्सव मनाने का। ज़रा! देखो तो सदियों बाद कोरोना ने सबकी साध पूरी की है… ‘कितना अच्छा हो, घर बैठे तनख्वाह मिल जाए… रोज़ की भीड़ के धक्के खाने से मुक्ति प्राप्त हो जाए…बॉस की डांट-फटकार का भी डर न हो और हम अपने घर में आनंद से रहें।’ लो! सदियों बाद आप सबको मनचाहा प्राप्त हो गया…परंतु बावरा मन कहां संतुष्ट रह पाता है, एक स्थिति में…वह तो चंचल है। परिवर्तनशीलता सृष्टि का नियम है। मानव अब तथाकथित स्थिति में छटपटाने लगा है और उस से तुरंत मुक्ति पाना चाहता है। परंतु आधुनिक परिस्थितियां मानव के नियंत्रण में नहीं हैं। अब तो समझौता करने में ही उसका हित है। सो! मोबाइल फोन को अपना साथी बनाइए और भावनाओं पर नियंत्रण रखिए, क्योंकि तुम असहाय हो और तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं। तुम्हारी आवाज़ तो दीवारों से टकराकर लौट आएगी।
औरत की भांति हर विषम परिस्थिति में ओंठ सी कर व मौन रह कर खुश रहना सीखिए और सर्वस्व समर्पण कर सुक़ून की ज़िंदगी गुज़ारिए। यहां तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं। अब सृष्टि-नियंता की कारगुज़ारियों को साक्षी भाव से देखिए, क्योंकि तुमने मनमानी कर धन की लालसा में प्रकृति से खिलवाड़ कर पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है, यहां तक कि अब तो हवा भी सांस लेने योग्य नहीं रह गयी है। पोखर, तालाब नदी-नालों पर कब्ज़ा कर उस भूमि पर कंकरीट की इमारतें बना दी हैं। इसलिए मानव को बाढ़, तूफ़ान, सुनामी, भूकंप, भू-स्खलन आदि का प्रकोप झेलना पड़ रहा है। जब इस पर भी मानव सचेत नहीं हुआ, तो प्रकृति ने कोरोना के रूप में दस्तक दी है।
इसलिए कोरोना, अब काहे का रोना। इसमें दोष तुम्हारा है। अब भी संभल जाओ, अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब सृष्टि में पुनः प्रलय आ जाएगी और विनाश ही विनाश चहुंओर प्रतिभासित होगा। इसलिए गीता के संदेश को अपना कर निष्काम कर्म करें। मानव इस संसार में खाली हाथ आया है और खाली हाथ उसे जाना है। इस नश्वर संसार में अपना कुछ नहीं है। इसलिए प्रेम व नि:स्वार्थ भाव से सबकी सेवा करो। न जाने! कौन-सी सांस आखिरी सांस हो जाए।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 21
आजकल विवाह सम्बंधी ऑनलाइन ‘मैरिज साइट्स’ हैं। इन साइट्स के माध्यम से विवाहयोग्य लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे के बारे में जानते हैं। आवश्यकता पड़ने पर साइट्स दोनों के बीच वरचुअल मीटिंग की व्यवस्था भी करती हैं। जब तक तकनीक नहीं आई थी, लड़का- लड़की के ‘एक्चुअल’ देखने दिखाने के काम मेले में ही हो जाते थे। मेला अधिकृत ‘ऑफलाइन’ वर-वधू परिचय सम्मेलन स्थल थे। छोटे गाँवों-कस्बों में आज भी यह चलन बना हुआ है।
प्रेम जीवन की धुरी है। इसके बिना जीवन की संभावनाएँ प्रसूत नहीं होतीं। रसखान लिखते हैं,
प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग, बहुरि, जात नाहिं रसखान।।
इस अगम, अनुपम, अमित प्रेम में मिलने की उत्कट भावना होती है। इस भावना को व्यक्त होने और मिलने का अवसर प्रदान करता है मेला। बहुत अधिक बंदिशों वाले समय में भी मेला, बेरोकटोक मिल सकने का सुरक्षित स्थान रहा।
पशु व्यापार, कृषि उपज, कृषि के औजार, वनौषधि आदि की दृष्टि से भी मेले उपयोगी व लाभदायी होते हैं। केवल उपयोगी और अनुपयोगी में विभाजित करनेवाली सांप्रतिक संकुचित वृत्ति के समय में ‘मेला’ की उपयोगिता और जनमानस में गहरी पैठ इस बात से ही समझी जा सकती है कि अब तो कॉर्पोरेट जगत अपनी व्यापारिक प्रदर्शनियों के लिए इसका धड़ल्ले से उपयोग करने लगा है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 20
मेलों का महत्त्व-
मेला भीड़ से लगता है, भीड़ से सजता है। जहाँ भी समूह होगा, वहाँ संभावनाएँ भी बहुगुणित होती जाती हैं। इन संभावनाओं के मूल में धर्म, अर्थ, समाज, संस्कृति, नीति, राजनीति, व्यापार-व्यवसाय, सहयोग, दर्शन, प्रदर्शन, लाभ आदि सभी विद्यमान होते हैं। सामान्यत: मेला एक क्षेत्र विशेष में एक लक्ष्य, एक उद्देश्य विशेष को लेकर आयोजित करने की परंपरा यही है। यह राजा से रंक तक सभी के लिए उपयोगी होता है।
मेलों में बड़े स्तर पर आर्थिक व्यवहार होता है। बड़े व्यापारियों/व्यवसायियों के साथ छोटे-छोटे दुकानदार भी एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। ग्राहक के लिए भाँति-भाँति प्रकार की वस्तुएँ एक स्थान पर लेने का यह अवसर होता है। यह अलग बात है कि मॉल और ऑनलाइन क्रय-विक्रय के इस समय में मेला बहुत पीछे छूटता जा रहा है। तथापि इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि मॉल की संकल्पना के मूल में मेला ही रहा है।
मेलों में मनोरंजन के साधन और करतब का विशेष आकर्षण होता है। बाल-गोपालों की इसमें विशेष रुचि होती है। हर माता-पिता अपनी संतान को आनंद के अधिकाधिक क्षण देना चाहता है। इसके चलते मनोरंजन के आयोजनों का अच्छा कारोबार होता है।
लोक-कलाकारों, हस्त शिल्पकारों, गायक/गायिकाओं, विभिन्न कलाकारों के लिए मेला बड़ा मंच होता है। यहाँ वे अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर सकते हैं। साथ ही यह आय का साधन भी बनता है।
धार्मिक कारणों से लगनेवाले मेलों में साधु-संत बड़ी संख्या में आते हैं। आम आदमी के लिए इन संतों के दर्शन का यह विशेष अवसर होता है। संत समाज के लिए भी यह जनता के बीच आने, उनकी समस्याएँ जानने की भवभूमि बनता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।
☆ आलेख ☆ बहुसांस्कृतिक और बहुआयामी – कैनेडा का शहर टोरंटो ☆ डॉ. हंसा दीप ☆
हर शहर का अपना एक वजूद, अपना वैशिष्ट्य और अपना एक अंदाज़ होता है। दुनिया के हज़ारों शहरों की भीड़ में कैनेडा का प्रमुख शहर टोरंटो अपनी कई खूबियों के साथ एक ऐसी जगह के रूप में उभर कर सामने आता है जो अपने बहुसांस्कृतिक एवं बहुआयामी स्वभाव के साथ अपनी आत्मीयता और सौहार्द्र के लिये भी जाना जाता है। सन् उन्नीस सौ चौरानबे में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में रहते हुए मैं और मेरा परिवार सिर्फ घूमने के लिये टोरंटो आये थे। टोरंटो शहर की उस तीन दिनों की यात्रा ने हमारा मन ऐसा मोह लिया कि दो वर्ष की अवधि में ही हम इस शहर के हो कर रह गए। इस शहर ने अपनी बाँहें फैलाकर हमारा स्वागत किया और एक नयी पहचान दी। तब से आज तक इस शहर के कई नये पहलुओं से हमारा परिचय होता रहा है। फिर चाहे वह सामाजिक पहलू हो, आर्थिक हो, सांस्कृतिक हो, कलात्मक हो, भाषायी हो, शैक्षणिक हो, खेलकूद हो या फिर धार्मिक ही क्यों न हो, हर जगह अपना श्रेष्ठ देने और अपना श्रेष्ठ लेने की परंपरा का अनुसरण करना सिखाता है यह शहर।
कैनेडा में आप्रवासियों के लिए एक महत्वपूर्ण गंतव्य के रूप में अपनी वर्तमान और ऐतिहासिक भूमिका को दर्शाता है टोरंटो। कई देशों के लोग बेहतर जीवन की तलाश में जब अपने देश के बाहर बसेरा खोजते हैं तो कैनेडा और शहर टोरंटो उनकी पहली पसंद की सूची में होता है। विविध संस्कृतियों को अपने में समेटे यह शहर अपनी विराट पहचान ही इसी परिप्रेक्ष्य में निर्मित करता है। शहर की बसाहट में संस्कृतियों की बहुलता के साथ धार्मिक, आर्थिक, भाषायी, व बहुआयामी कलात्मक और पेशेवर घटक इसे कैनेडा के दूसरे शहरों से पृथक कर एक नयी पहचान देते हैं।
( 1 & 3 टोरंटो शहर 2 टोरंटो सिटी हाल)
‘सीएन टावर’, ‘रॉयल ओंटेरियो म्यूज़ियम’, किला ‘कासालोमा’ मुख्यत: इस शहर के विशेष पहचान स्मारक हैं। जब शहर के बीचों-बीच डाउन टाउन की सड़कों पर घूमते हुए, हर गली-चौराहे पर सी एन टावर झाँकता हुआ दिखाई देता है, तब जुड़ता है उससे रिश्ता, शहर से रिश्ता। अपनेपन का अहसास, शहर की ऊँचाइयों का अहसास। ऐसा शहर जो सिर्फ सी एन टावर की ऊँचाइयों से नहीं पहचाना जाता बल्कि हर क्षेत्र में उस ऊँचाई को छूता नज़र आता है। किसी भी शहर में सिर्फ घूमना और रहना उस शहर को अपना नहीं बनाता, उसे अपना बनाने के लिए हमें उसे महसूस करना पड़ता है। हमने भी भारत, मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले से चलकर न्यूयॉर्क तक का सफर किया और फिर टोरंटो को अपना घर बनाया। इस धरती से एक रिश्ता जोड़ते हुए अपने जीवन के सुनहरे पलों को अपने अंदर कैद किया। ख्यालों और सपनों की यह दौड़ दूर तलक जाती है। इतनी दूर कि शायद इन सपनों की ऊँचाइयाँ टोरंटो के सी एन टावर की ऊँचाइयों को भी छू लें। टोरंटो की पहचान बन चुके सी एन टावर को देखते हुए शरीर में फुरफुरी-सी दौड़ने लगती है। किसी भी शहर का पहचान चिन्ह, चाहे वह कोई खास इमारत हो या स्मारक, अपने आप में एक खासियत लिए, उस शहर की पहचान बन जाता है। शहर का ऐसा खास स्थान, जिसे देखकर लगता है कि उसके बगैर शहर अधूरा है। शहर को महसूस करने के लिए, उस स्थान को अपने में समेटना होता है। तभी हो पाती है उस शहर से एक खास जान-पहचान, एक खास दोस्ती जो उस शहर को दिल के करीब लाती है।
दो सौ से अधिक विभिन्न देशों के लोग यहाँ निवास करते हैं जिनके भिन्न-भिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्व वहाँ के लोगों द्वारा किया जाता है। जहाँ टोरंटो के अधिकांश लोग अपनी प्राथमिक भाषा के रूप में अंग्रेजी बोलते हैं, वहीं शहर में लगभग एक सौ साठ से अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। फ्रेंच यहाँ की द्वितीय आधिकारिक भाषा है। भाषाओं से संपन्न शहर टोरंटो में अंग्रेजी और फ्रेंच के अलावा, इटालियन, स्पेनिश, चीनी, जर्मन, अरबी, हिब्रू, फारसी, तमिल, हिन्दी, पंजाबी, उर्दू के अलावा भी कई भाषाओं का बोलबाला है। इन भाषाओं के कई कोर्स यहाँ की यूनिवर्सिटी, कॉलेज, स्कूल में नियमित रूप से चलाए जाते हैं। भाषाओं की विविधता के साथ ही अंग्रेजी और फ्रेंच में हर आधिकारिक जानकारी उपलब्ध करायी जाती है।
बहुभाषायी विविधता के साथ स्वाभाविक ही बहुसंस्कृति को मान्यता देता यह शहर इन सारी भाषाओं से जुड़ी संस्कृतियों को बगैर किसी भेदभाव के समान अवसर देता है। बहुसांस्कृतिक परिवेश लिये यहाँ हर वर्ग के अपने बाज़ार हैं जहाँ वे सारी वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं जो संस्कृति विशेष के आयोजनों के लिये जरूरी होती हैं। यही विविधता टोरंटो के मन की विशालता के दर्शन करवाती है। इसी भावना के चलते टोरंटो शहर के भीतर, लिटिल इंडिया, लिटिल चाइना, चाइनाटाउन, लिटिल इटली, कोरसो इटालिया, ग्रीकटाउन, केंसिंग्टन मार्केट, कोएरटाउन, लिटिल जमैका, लिटिल पुर्तगाल और रोन्सेवेल्स (पोलिश समुदाय) जैसे और भी कई नाम अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं। ये नाम अपनी खास पहचान लिये होते हैं जो समुदाय विशेष की अपने देश को याद करने की इच्छा को पूरी करते हैं। यहाँ हर तरह के, हर देश और हर संस्कृति के त्योहारों का भरपूर आनंद लिया जाता है। उदाहरण के लिये दीवाली पर कई भारतीय बाज़ार ऐसे होते हैं जहाँ मिठाइयों के टैंट बाहर लगते हैं व आतिशबाजी की अनुमति भी ले ली जाती है। भारतीय समुदाय के लोग ऐसे कई भारतीय बाजारों का पूरा-पूरा आनंद उठाते हैं व भारत से दूर एक और भारत को आत्मसात करते हैं।
अपनी संस्कृतियों से जुड़े कई धार्मिक स्थान अपनी महत्ता लिये हैं। हिन्दू मंदिर, जैन मंदिर, गुरूद्वारे, सिनेगॉग, चर्च और मस्जिद जैसे कई प्रार्थना स्थल हैं जो अपने-अपने श्रद्धालुओं के लिये आस्था और विश्वास के प्रतीक के रूप में अपना स्थान बनाये हुए हैं। यूँ तो यहाँ अनेक धर्मों के अनुयायी हैं पर दो हजार ग्यारह की जनगणना के अनुसार टोरंटो में सबसे अधिक ईसाई धर्म के अनुयायी थे। शहर में अन्य धर्मों का महत्वपूर्ण रूप से पालन करने वालों की संख्या में प्रमुख स्थान रखते हैं, इस्लाम, हिंदू धर्म, यहूदी धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म।
टोरंटो का “रॉयल ओंटेरियो म्यूजियम” अपनी भव्यता और संग्रह के लिये कलाप्रेमियों व शोधकर्ताओं को आकर्षित करता है। यहाँ पर साउथ एशिया से संबंधित एक वृहत अनुभाग है जिसमें भारतीय सभ्यता की प्राचीनता और उत्कृष्टता को खूबसूरती के साथ दर्शाया गया है। विश्वभर के चित्रकला प्रेमियों के लिये “आर्ट गैलेरी ऑफ ओंटेरियो” नामक एक विशाल कला सेंटर है जहाँ चित्रकला की कई प्रदर्शनियाँ साल भर लगती हैं। गर्मी की छुट्टियों के दौरान बच्चों में चित्रकला को विकसित करने के लिये तमाम शिविर, कक्षाओं और प्रदर्शनियों का आयोजन किया जाता है। यह समय इतना व्यस्ततम होता है कि साल भर पहले से टिकट बुक किए हों तो ही प्रवेश मिल पाता है अन्यथा अगले साल की प्रतीक्षा सूची का इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं रहता।
टोरंटो संगीत का भी एक प्रमुख केंद्र है जहाँ दूर-दूर से संगीत के मूर्धन्य कलाकार आते हैं और कई विशाल कान्सर्ट्स व आयोजनों में भाग लेते हैं। भारत से ही बॉलीवुड के कई जाने-माने गायक, अभिनेता हर वर्ष यहाँ आते हैं जिनके कॉन्सर्ट में लाखों लोग हिस्सा लेकर अपने मनोरंजन के साथ ही शहर के आतिथ्य भाव का परिचय देते हैं। साथ ही कैनेडा के प्रमुख थिएटर, सिनेमा, और टेलीविजन के मुख्यालयों का घर भी यहीं पर है। साहित्य और कला के साथ ही खेलों की कई व्यावसायिक टीमें हैं जो पूरी दुनिया में अपने देश और शहर का प्रतिनिधित्व करती हैं।
पर्यटकों के लिये एक खास पसंद है टोरंटो शहर जो दिल खोल कर अपनी मेजबानी का परिचय देता है। हर तरह की खान-पान की सुविधाएँ, हर देश का खाना, उम्दा रेस्टोरेंट और अपेक्षाकृत उचित दाम के कारण इस शहर में पर्यटक खिंचे चले आते हैं। हर साल लाखों पर्यटक यहाँ आते हैं जिनके लिये टोरंटो का डाउन टाउन इलाका, सी एन टॉवर और कई गगनचुंबी इमारतों के साथ एक विशेष आकर्षण का केंद्र होता है।
यही इलाका कई बैंकों के मुख्यालयों के साथ कई बहुराष्ट्रीय निगमों का मुख्यालय भी है। हर सुबह इसी क्षेत्र में सर्वाधिक आवाजाही होती है जब गगनचुम्बी इमारतों के तले, सूट-बूट से सजे हर उम्र के पेशेवर पुरुष और महिलाएँ फुटपाथ पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। यह एक ऐसा विहंगम दृश्य होता है जो शहर की व्यावसायिकता के उच्च पैमानों को दर्शाता है। तब ऐसा महसूस होता है मानो काम और व्यक्तित्व के श्रेष्ठ नज़ारे से हमारा साक्षात्कार हो रहा हो।
उन्नीस सौ साठ के दशक के अंत तक टोरंटो दुनिया के सभी हिस्सों के आप्रवासियों के लिए एक गंतव्य बन गया था। उन्नीस सौ अस्सी के दशक तक, टोरंटो ने कैनेडा के सबसे अधिक आबादी वाले शहर और मुख्य आर्थिक केंद्र के रूप में मशहूर मॉन्ट्रियल शहर को पीछे छोड़ दिया था। इस समय के दौरान कई राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय निगमों ने अपने मुख्य कार्यालयों को मॉन्ट्रियल से टोरंटो में स्थानांतरित कर दिया था। आज टोरंटो की जनसंख्या का आँकड़ा लगभग चालीस लाख से ऊपर है।
टोरंटो की सैर करते समय ‘नायग्रा फॉल्स’ पर्यटकों के लिये एक बड़ा आकर्षण है जो शहर से लगभग एक घंटे की ड्राइव पर है। प्रकृति का ऐसा अजूबा है नायग्रा फॉल्स जो देखने वालों के रोंगटे खड़े कर देता है। ऊँचाइयों से गिरता पानी, एक ऐसा मनोरम दृश्य दिखाता है कि आँखें चकित होते हुए, जोशीले पानी पर ही टिकी रहती हैं। पानी का ऐसा आवेग, ऐसा जोश, ऐसा संगीतमयी राग, पर्यटकों के द्वारा ‘आह’ और ‘वाह’ के साथ देखा जाता है, महसूस किया जाता और कैमरों में कैद किया जाता है। इतनी ऊँचाई से बहता पानी मौसम के साथ अपना स्वभाव बदल लेता है। ये फॉल्स सर्दियों में बर्फ की चट्टान में तब्दील हो जाते हैं, असंख्य सैलानियों को अपनी ओर खींचते हुए। प्रकृति के अद्भुत नज़ारे का एक जीता-जागता उदाहरण पेश करता नायग्रा फॉल्स, कैनेडा का सबसे व्यस्त पर्यटन केन्द्र है जो टोरंटो के बेहद नजदीक है। यह रात की जगमगाती रौशनी के लिए भी विख्यात है, अलग-अलग दिशाओं से फेंकी जाने वाली रौशनी जब फॉल्स के पानी से प्रतिबिंबित होती है तो प्रकृति और मनुष्य के बीच की ‘पार्टनरशिप’ को विलक्षण व सुंदरतम स्वरूप दे देती है।
यह शहर छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा है और झील के किनारे बसा है। कभी हरियाली से घिरा रहता है, कभी रंग-बिरंगे खूबसूरत पत्तों और कभी बर्फ की सफेद चादर से। हर मौसम अपने मिजाज़ के साथ अलौकिक सौंदर्य बिखेरता है। एक ओर प्राकृतिक सुंदरता से रचा-बसा है शहर, तो दूसरी ओर प्राकृतिक विपदाओं से भी लगातार जूझता रहता है शहर टोरंटो। हर साल बर्फ के कहर को तो सहती ही है यहाँ की धरती, कभी-कभी बारिश के अंधड़नुमा प्रहार भी सहने पड़ते हैं इसे। आठ जुलाई दो हजार तेरह को धीमी गति से चलने वाली तेज आंधी के गुजरने के बाद टोरंटो में भयंकर बाढ़ आई। टोरंटो हाइड्रो यहाँ की इलेक्ट्रिक कंपनी है। इस कंपनी के समुचित प्रयासों के बाद भी तब तकरीबन साढ़े चार लाख लोगों को बिजली के बगैर रहना पड़ा था। इसके ठीक छह महीने के भीतर, बीस दिसंबर, दो हजार तेरह को, टोरंटो शहर ने अपने इतिहास के सबसे खराब बर्फीले तूफान का सामना किया, जो बर्फीले तूफानों की भयावहता का एक ऐसा रूप था जो शहर को पूरी तरह से झिंझोड़ गया था। तब भी तीन लाख से अधिक टोरंटो हाइड्रो के ग्राहकों के पास कोई बिजली या हीटिंग नहीं थी। यह टोरंटो वासियों के लिये एक बड़ी विपदा थी। इतनी भयंकर सर्दी में बगैर हीटिंग के रहना किसी बड़ी सजा से कम नहीं था।
“टोरंटो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेयर” के अलावा विश्व के कई बड़े कार्यक्रमों के आयोजन का श्रेय इस शहर के नाम है। इस दौरान दुनिया भर के फिल्मी सितारे टोरंटो की शान में चार चाँद लगाते हैं। इन चमकते सितारों के ग्लेमर की चकाचौंध के साथ ही, ऐसे अल्पसंख्यक समुदायों का दिल खोलकर स्वागत करता है जो अन्यत्र अपना अधिकार पाने में कठिनाइयाँ महसूस करते हैं। समलैंगिक जोड़ों के लिये यह शहर स्वर्ग के समान है। हर वर्ष प्राइड परेड के जलसे में दूर-दूर से लोग आते हैं। टोरंटो ने जून दो हजार चौदह में “वर्ल्डप्राइड” रैली की मेजबानी की जिसमें विश्वभर के समलैंगिक जोड़ों ने शिरकत की और शहर की उदारता और बड़प्पन को जी भर कर सराहा।
अपनी ऐसी ही कई विशेषताओं के कारण यह शहर लगातार बढ़ रहा है और आप्रवासियों को आकर्षित कर रहा है। रायर्सन यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन से पता चला है कि टोरंटो उत्तरी अमेरिका में सबसे तेजी से विकसित होने वाला शहर है। शहर ने जुलाई दो हजार सत्रह और जुलाई दो हजार अठारह के बीच अस्सी हजार लोगों को अपने रहवासियों में जोड़ कर एक रिकॉर्ड बनाया।
आज इस आलेख को लिखते हुए उन पलों का जिक्र करना भी जरूरी लग रहा है मुझे जब पूरा विश्व कोरोना महामारी के प्रकोप से आतंकित होकर घरों से बाहर कदम नहीं रख पा रहा। समस्त ओंटेरियो प्रांत में आपातकाल घोषित किया गया। शहर टोरंटो में भी कोविड19 के दुष्प्रभावों से जूझते हुए, तेईस मार्च, दो हजार बीस को मेयर जॉन टोरी द्वारा आपातकाल की स्थिति घोषित की गई। सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों में पाँच से अधिक लोगों की उपस्थिति को निषेध किया। तब से लेकर आज तक दो-तीन बार इसी स्थिति को दोहराया गया। रेस्तरां में टेकआउट और डिलीवरी सेवाएँ प्रदान करना जारी रखी गयीं। सभी स्कूलें, कॉलेज और यूनिवर्सिटी अनिश्चित काल के लिये बंद कर दिए गए। हालांकि यूनिवर्सिटी और कॉलेज स्तर तक की कक्षाएँ व परीक्षाएँ ऑनलाइन सफलतापूर्वक संपन्न हुईं, वहीं स्कूली शिक्षा की ऑनलाइन कक्षाएँ जिनमें प्राथमिक शालाएँ भी शामिल हैं, गर्मी की छुट्टियों तक जारी रहने के आदेश दिए गए। अब प्राथमिक शालाएँ सुचारू रूप से चल रही हैं परंतु पालकों को यह विकल्प दिया गया है कि वे चाहें तो अपने बच्चों को स्कूल भेजें, न चाहें तो ऑनलाइन कक्षाओं में पंजीकृत करें। इस भयंकर आपदा के समय भी शहर के स्वास्थ्य केंद्र हर रोगी को अपनी सेवाएँ निरंतर प्रदान करते रहे।
इन विविधताओं-विशेषताओं के अलावा टोरंटो का शुमार दुनिया के साफ-सुथरे शहरों में भी है। सचमुच किसी शहर को केवल शब्दों में पढ़ा नहीं जा सकता। उसे महसूस करना पड़ता है, आप सभी का स्वागत है हमारे शहर में। यह तो सिर्फ संक्षिप्त जानकारी है अभी तो बहुत कुछ शेष है जिससे आपका परिचय करवाना है। जी हाँ, सिर्फ ट्रेलर है यह, पिक्चर तो अभी बाकी है। आप एक बार आइए तो सही।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये।
संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 19
मेला और मनुष्य-
‘मेल’ शब्द से बना है ‘मेला।’ मिलाप का साकार, चैतन्य साकार रूप है मेला। दर्शन जगत को मेला कहता है क्योंकि मेले में व्यक्ति थोड़े समय के लिए साथ आता है, मिलाप का आनंद ग्रहण करता है, फिर लौट जाता है अपने निवास। सच देखा जाय तो लौटना ही पड़ता है। मेला किसीका निवास नहीं हो सकता। गंतव्य के अलावा कोई विकल्प नहीं। संत कबीर लिखते हैं,
उड़ जायेगा हंस अकेला,
जग दर्शन का मेला..!
अकारण जमाव या जमावड़ा भर नहीं होता मेला। किसी निश्चित कारण से, सोद्देश्य मिलाप होता है मेला। ये कारण धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, व्यापारिक आदि हो सकते हैं।
मेला आयोजित करने की परंपरा लगभग उतनी ही पुरानी है जितना मनुष्य का नागरी सभ्यता में प्रवेश। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समूह या समाज के बिना जी नहीं सकता। आदिवासी टोलों में संध्या समय सामूहिक नृत्य की परंपरा रही। यह एक तरह से मेले का ही दैनिक लघु रूप है। साथ ही मानसिक विरेचन का साधन भी। एक अन्य दृष्टि से देखें तो सूर्योदय से मिले दिन का सूर्यास्त के समय उत्सव मना लेना बहुत बड़ा दर्शन है। ज़िंदगी के क्षणभंगुर मेले का यह कितना गहरा दर्शन है। 1948 में ‘मेला’ फिल्म के लिए गीतकार शकील बदायूंनी ने लिखा,
ये ज़िंदगी के मेले
दुनिया में कम न होंगे
अफसोस हम न होंगे।
नागरी सभ्यता में प्रवेश करने के बाद मनुष्य के रहन-सहन में संकीर्णता प्रवेश करने लगी पर मन के भीतर एक मेला लगा रहा। मन के मेले ने सदेह अवतार लिया और लगने-सजने लगे सचमुच के मेले। लोग इनकी प्रतीक्षा करने लगे। काल कोई भी रहा हो, मेले का अकाल कभी नहीं पड़ा। सुदूर गाँवों से लेकर महानगरों तक मेला ने अपने पैर फैलाए। इतिहास में विभिन्न राजा-रजवाड़ों के शासन में प्रसिद्ध मेलों का उल्लेख मिलता है।
वस्तुत: उत्सव का विस्तार है मेला। उत्सव या त्योहार एक से लेकर अधिकतम कुछ दिनों तक चलता है। मेला की अवधि सप्ताह भर से लेकर कुछ महीनों तक हो सकती है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “संदूक – अंतिम भाग”.)
☆ संस्मरण ☆ “संदूक” – अंतिम भाग☆ श्री राकेश कुमार ☆
(यादों के झरोखे से)
सत्तरवें दशक के अंतिम वर्षों में संदूक सजावट और उपयोग की परिभाषा से मात्र उपयोग की ही वस्तु बन कर रह गया था।रेल यात्रा में जब तक थर्ड क्लास थी, लंबी दूरी की पारिवारिक यात्रा पर इसके बड़े लाभ थे, छोटा बच्चा आराम से सो कर निद्रा प्राप्त कर लेता था, वैसे इस पर बैठने की क्षमता दो लोगो को सुविधा पूर्वक यात्रा के लिए पर्याप्त हुआ करती थी।सह यात्री के पास भी संदूक होता था तो फिर साधारण लम्बाई के व्यक्ति की नींद में खलल नहीं पड़ता था। रेल का मैनेजर (गार्ड) अभी भी छोटे काले रंग के संदूक को साथ लेकर गाड़ी की व्यवस्था बनाता हैं।
निम्न माध्यम वर्गीय परिवार अपनी पुरानी विरासत को जल्द विदा नहीं करता हैं। संदूक का उपयोग घरों में बैठने के लिए होने लगा। संदूक पर गद्दा बिछा कर उसको चादर से पूरा ढक कर इज्जत से स्थान दिया जाता था। एक जोड़ी संदूक को ईंट के ऊपर करीने से बैठक खाने में उपयोग आम बात हुआ करती थी। वो बात अलग है,मेहमान को कुर्सी आदि पर आसन प्रदान किया जाता था, मेज़बान इसका उपयोग स्वयं के लिए ही करता था।
ट्रंक या बॉक्स के नाम से जानने वाले घर में “बड़े ट्रंक” से भी भली भांति परिचित होंगे। सर्दी की रजाई, कंबल या अनुपयोगी वस्तुओं के संग्रह में इसकी क्षमता का कोई सानी नहीं हैं। अब स्टील कि आलमारियों ने इनकी कमी पूरी करने के प्रयास किए हैं। बैंक में इसका उपयोग अनचाहा मेहमान (आडिटर) अपने गोपनीय कागज़ात को रखने के लिए करते थे। अब तो उनके पास भी चलायमान कंप्यूटर ( लेप टॉप) है, जिसमें सब कुछ निजी रह सकता हैं।
टीवी सीरियल सीआईडी में भी इसका उपयोग लाश या बड़ी धन राशि को ठिकाने लगाने में किया जाता हैं। पुराने समय में घर की बुजर्ग महिलाएं अपने संदूक को ताला लगाकर संचय की गई प्रिय, निजी वस्तुएं और थोड़ी सी जमा पूंजी को उनके विवाह में मिले संदूक में ही सुरक्षित रख पाती थी। उनके जाने के बाद उस संदूक को “दादी का खजाना” की विरासत की संज्ञा दी जाती थी। अब तो ये सब कहानियों और किस्से की बातें होकर रह गई हैं।