हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 126 ☆ शून्योत्सव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 126 ☆ शून्योत्सव ?

शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य में आशंका देखते हो, सो आतंकित होते हो। शून्य में संभावना देखोगे तो  प्रफुल्लित होगे। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। वैसे प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी सब चक्राकार हैं। प्रकृति भी वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता है। प्रसव की यह क्षमता हर बिंदु के केंद्र बन सकने की संभावना है।

यों गणित में भी शून्य अंतिम नहीं होता। वह संख्याशास्त्र का संतुलन है। शून्य से पहले माइनस है। शून्य के बाद प्लस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल, पात्र, परिस्थिति के अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक हद तक के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।

शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी।

स्मृति में अपनी एक रचना कौंध रही है-

शून्य अवगाहित / करती सृष्टि,

शून्य उकेरने की / टिटिहरी कृति,

शून्य के सम्मुख / हाँफती सीमाएँ,

अगाध शून्य की / अशेष गाथाएँ,

साधो…!

अथाह की / कुछ थाह मिली

या फिर शून्य ही / हाथ लगा?

शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ। अपने अपने शून्य का रसपान करें। शून्य में शून्य उँड़ेलें, शून्य से शून्य उलीचें।…इति।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 17 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 17 ??

ईसा मसीह को तत्कालीन व्यवस्था ने सूली पर चढ़ा दिया था। ईसाई धर्म की मान्यताओं के अनुसार 40 दिन बाद ईस्टर को  ईसा मसीह पुनर्जीवित हो गए। समय साक्षी है कि समाज दुर्जनों की सक्रियता नहीं अपितु सज्जनों की निष्क्रियता से अधिक प्रभावित होता है। समाज सक्रिय होकर सामने आए तो पुनर्जागरण में समय नहीं लगता। ईसा का पुनर्जीवित होना सज्जनों की एकता और एकात्मता का प्रतीक है। कहा गया है, ‘ यू आर नेवर अलोन। यू आर इटरनली कनेक्टेड विथ एवरीवन।’ 

हर त्योहार आचार और व्यवहार में एकात्मता का उदात्त दर्शन लेकर आता है। गुरुनानक जयंती को प्रकाशपर्व के रूप में मनाया जाता है। ‘एक ओंकार’ का आदर्श, ज्योति से दूसरी ज्योति प्रज्ज्वलित करना। ‘राम दी चिड़ियाँ, राम दा खेत। चुग लो चिड़ियों, भर-भर पेट,’ का गुरु नानक उवाच एकात्मता का ही एक आयाम है।

भगवान महावीर का जन्म कल्याणक उत्सव सम्यकता के दर्शन का उत्सव है।  दीपावली को उनका  निर्वाण दिवस माना जाता है। स्वामी दयानंद सरस्वती का निर्वाण भी दीपावली को ही हुआ था। अलौकिक आत्माओं का निर्वाण भी जगत को प्रकाशवान कर जाता है।

तथागत गौतम बुद्ध का तो पूरा जीवन एक अद्भुत परिक्रमा  है। उनका जन्म, ज्ञान की प्राप्ति तथा महापरिनिर्वाण एक ही दिन वैशाख पूर्णिमा को हुआ था।

एक माह के रोज़ा के बाद ईद उल फित्र  मनाई जाती है। इस अवसर पर निर्धन वर्ग को दान देने की परंपरा है ताकि वे भी ईद मना सकें। यही एकात्मता है। पारसी नववर्ष पतेती पर भी गरीबों को दान दिया जाता है। यह भी आनंद का विस्तार या एकात्मता ही है।

जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय यमुना नदी उफान पर थी। वसुदेव द्वारा टोकरी में कान्हा को रखकर नदी पार करते समय  शेषनाग का अपने फन से भगवान को भीगने से बचाने की पौराणिक गाथा भी पंचमहाभूतों की एकात्मता है। वैदिक दर्शन केवल बौद्धिक चर्वण तक नहीं रुकता। यहाँ क्रियान्वयन ही कर्म है। क्रियावान ही विद्वान है। ‘य क्रियावान स: पंडित।’ यही कारण है कि कृषिकार्य में उपयोगी बैल के लिए महाराष्ट्र में बैल पोला मनाया जाता है। साक्षात कालरूप माने गये नाग के लिए जैसे नागपंचमी पूरी श्रद्धाभाव के साथ मनाई जाती है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 121 ☆ दर्द की इंतहा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख दर्द की इंतहा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 121 ☆

☆ दर्द की इंतहा

‘दर्द को भी आधार कार्ड से जोड़ दो/ जिन्हें मिल गया है दोबारा ना मिले’ बहुत मार्मिक उद्गार क्योंकि दर्द हम-सफ़र है; सच्चा जीवन-साथी है, जिसका आदि अंत नहीं। ‘दु:ख तो अपना साथी है’ गीत की ये पंक्तियां मानव में आस्था व विश्वास जगाती हैं; मानव मन को ऊर्जस्वित व संचेतन करती है। वैसे तो रात्रि के पश्चात् भोर, अमावस्या के पश्चात् पूर्णिमा व दु:ख के पश्चात् सुख का आना निश्चित है; अवश्यंभावी है। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं और एक के जाने के पश्चात् दूसरा दस्तक देता है।

समय निरंतर अबाध गति से चलता रहता है; कभी रुकता नहीं। सो! जो आया है अवश्य जाएगा। इसलिए ऐ मानव! तू किसी के आने पर ख़ुशी व जाने का मलाल मत कर। ‘कर्म गति अति न्यारी’ इसके मर्म को आज तक कोई नहीं जान पाया। परंतु यह तो निश्चित् है कि ‘जो जैसा करता, वैसा ही फल पाता’ के माध्यम से मानव को सदैव सत्कर्म करने की सीख दी गयी है।

अतीत कभी लौटता नहीं; भविष्य अनिश्चित् है।  परंतु वह सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। वर्तमान ही शाश्वत् सत्य है, शिव है और सुंदर है। मानव को सदैव आज के महत्व को स्वीकारते हुए हर पल को ख़ुशी से जीना चाहिए। चारवॉक दर्शन में भी ‘खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ’ का संदेश निहित है। आज की युवा पीढ़ी भी इसी का अनुसरण कर रही है। शायद! इसलिए ‘वे यूज़ एंड थ्रो’, ‘लिव इन’ व ‘मी टू’ की अवधारणा के पक्षधर हैं। वे पुरातन जीवन मूल्यों को नकार चुके हैं, क्योंकि उनका दृष्टिकोण उपयोगितावादी है। वे सदैव वर्तमान में जीते हैं। संबंध-सरोकारों का उनके जीवन में कोई मूल्य नहीं तथा रिश्तों की अहमियत को भी वे नकारने लगे हैं, जिसका प्रतिफलन विकराल सामाजिक विसंगतियों के रूप में हमारे समक्ष है।

अमीर-गरीब की खाई सुरसा के मुख की भांति बढ़ती जा रही है और हमारा देश इंडिया व भारत दो रूपों में परिलक्षित हो रहा है। एक ओर मज़दूर, किसान व मध्यमवर्गीय लोग दिन-भर परिश्रम करने के पश्चात् दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते और आकाश की खुली छत के नीचे अपना जीवन बसर करने को विवश हैं। बाल श्रमिक शोषण व बाल यौन उत्पीड़न का घिनौना रूप हमारे समक्ष है। एक घंटे में पांच बच्चे दुष्कर्म का शिकार होते हैं; बहुत भयावह स्थिति  है। दूसरी ओर धनी लोग और अधिक धनी होते जा रहे हैं, जिनके पास असंख्य सुख-सुविधाएं हैं और वे निष्ठुर, संवेदनहीन, आत्मकेंद्रित व निपट स्वार्थी हैं। शायद! इसी कारण गरीब लोग दर्द को आधार-कार्ड से जोड़ने की ग़ुहार लगाते हैं, क्योंकि व्यक्ति छल-कपट से पुन: वे सुविधाएं प्राप्त नहीं कर सकता। उनके ज़हन में यह भाव दस्तक देता है कि यदि ऐसा हो जायेगा, तो उन्हें जीवन में पुन: दर्द प्राप्त नहीं होगा, क्योंकि वे अपने हिस्से का दर्द झेल चुके हैं। परंतु इस संसार में यह नियम लागू नहीं होता। भाग्य का लिखा कभी बदलता नहीं; वह अटूट होता है। सो! उन्हें इस तथ्य को सहर्ष क़ुबूल कर लेना चाहिए कि कृत-कर्मों का फल जन्म-जन्मांतर तक मानव के साथ-साथ चलता है और उसे अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए सुंदर भविष्य की प्राप्ति हेतू सदैव अच्छे कर्म करें, ताकि हमारा भविष्य उज्ज्वल हो सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग -16 – छठ पूजा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 16 – छठ पूजा ??

छठ पूजा-

छठ या षष्ठी पूजा विशेषकर बिहार और झारखंड का सबसे बड़ा पर्व है। षष्ष्ठी माता को समर्पित  चार दिवसीय छठ पूजन  कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से कार्तिक शुक्ल सप्तमी तक चलता है।  नहाय-खाय पहला दिवस है। द्वितीय दिवस को खरना अथवा लोहंडा नाम से जाना जाता है। तीसरे दिन सूर्यास्त के समय सूर्यनारायण को अर्घ्य दिया जाता है। अंतिम दिन प्रात:काल सूर्योदय के समय सूर्यदेव को उषा अर्घ्य  देकर व्रत खोला जाता है। छठ जाग्रत देवता सूर्य की उपासना वाला पर्यावरण स्नेही त्योहार है।

केवल उगते को सलाम करने की संकुचित मनोवृत्ति के समय में यह उदात्त भारतीय दर्शन ही है जो उदय एवं अस्त दोनों समय सूर्यदेव को अर्घ्य देकर प्रणाम करता है।

विभिन्न पर्वों में एकात्मता-

भारत विविध धर्मों एवं विविध मतों से सज्जित भूभाग है। दुनिया में कहीं से कोई भी आया हो, वैदिक एकात्मता के रंग में रंँगता गया। वस्तुत: आदर्श सदा समान रहते हैं, काल, पात्र, परिस्थितिनुसार नैतिकता बदलती रहती है। स्वाभाविक है कि सबके पर्व, त्योहारों में भी विविधता हो। तब भी विविधता में वैदिक दर्शन सबको एक सूत्र में बाँधता है। यही कारण है कि अथर्ववेद कहता है,

।।मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्‌, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।।2।।

(अथर्ववेद 3.30.3)

अर्थात : भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 15 – दीपावली ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 15 – दीपावली ??

दीपावली भारत का सबसे बड़ा त्योहार है। अपने घर में प्रकाश करना मनुष्य की सहज और स्वाभाविक वृत्ति है किंतु घर के साथ परिसर को आलोकित करना उदात्तता है। शतपथ ब्राह्मण का उद्घोष है,

असतो मा सद्गमय

तमसो मा ज्योतिर्गमय

मृत्योर्मामृतं गमय।

तमसो मा ज्योतिर्गमय का वास्तविक अर्थ यही है।  हर दीप अपने स्तर पर प्रकाश देता है पर असंख्य दीपक सामूहिक रूप से जब साथ आते हैं तो अमावस्या दीपावली हो जाती है।

इन पंक्तियों के लेखक की दीपावली पर एक चर्चित कविता है,

अँधेरा मुझे डराता रहा,

हर अँधेरे के विरुद्ध

एक दीप मैं जलाता रहा,

उजास की मेरी मुहिम

शनै:-शनै: रंग लाई,

अनगिन दीयों से

रात झिलमिलाई,

सिर पर पैर रख

अँधेरा पलायन कर गया

और इस अमावस

मैंने दीपावली मनाई !

कथनी और करनी दो भिन्न शब्द हैं। इन दोनों का अर्थ जिसने जीवन में अभिन्न कर लिया, वह मानव से देवता हो गया। अनेक मत, संप्रदाय सामूहिक प्रयासों की बात तो कर सकते हैं पर वैदिकता ही है जो व्यष्टि के साथ समष्टि को भी दीपों से प्रभासित करती है। यह ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ केवल कहती नहीं अपितु अंधकार को प्रकाश का दान देती भी है। सामूहिकता का ऐसा क्रियावान उदाहरण दुनिया भर में मिलना कठिन है।

माना जाता है कि प्रभु श्रीराम द्वारा रावण का वध करके अयोध्या लौटने पर जनता ने राज्य में दीप प्रज्ज्वलित कर  दीपावली मनाई थे। श्रीराम सद्गुण का साकार स्वरूप हैं। रावण, तमोगुण का प्रतीक है। श्रीराम ने समाज के  हर वर्ग को साथ लेकर रावण को समाप्त किया था। तम से ज्योति की यात्रा का एक बिंब यह भी है। 

सामूहिक दीपोत्सव के रेकॉर्ड भी भारतीयों के नाम ही हैं। यह सामूहिकता, सामासिकता और एकात्मता का प्रमाणित वैश्विक दस्तावेज़ भी है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग -14 श्रीगणेश चतुर्थी एवं श्राद्ध पक्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 14  – श्रीगणेश चतुर्थी एवं श्राद्ध पक्ष ??

श्रीगणेश चतुर्थी- श्रीगणेश का जन्मोत्सव है श्रीगणेशचतुर्थी। सनातन धर्म में श्रीगणेश प्रथमपूज्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनका प्रथमपूज्य होना वैदिक दर्शन में निहित उदात्तता तथा माता-पिता के प्रति गहन आदर व श्रद्धा का प्रतीक है। महर्षि मनु का उवाच है,

उपाध्यान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
सहस्रं तु पितृन माता गौरवेणातिरिच्यते।।

दस उपाध्यायों से बढ़कर आचार्य, सौ आचार्यों से बढ़कर पिता और एक हजार पिताओं से बढ़कर माता, गौरव में अधिक है।

इसी दर्शन का अंगीकार करते हुए श्रीगणेश ने माता-पिता की परिक्रमा को ब्रह्मांड की परिक्रमा की प्रतिष्ठा प्रदान की। यही कारण है कि कालांतर में ‘श्रीगणेश करना’, किसी भी काम का आरंभ करने के अर्थ में रूढ़ हुआ।

आरंभ में श्रीगणेशचतुर्थी घर में मनाया जानेवाले त्योहार तक सीमित था। विशेषत: महाराष्ट्र में पर्व के रूप में इसे व्यक्तिगत से समष्टिगत बनाने का मार्ग दिखाया लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने। आज यह पर्व एकात्मता एवं सहयोग का सजीव प्रतीक बन चुका है।

श्राद्ध पक्ष- भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक श्राद्धपक्ष चलता है। सोलह दिवस चलने वाले श्राद्धपक्ष को पर्व कहना अटपटा लग सकता है। इसका भावपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और कर्तव्य का निर्वहन है। व्यवहार पक्ष देखें तो पितरों को खीर, पूड़ी व मिष्ठान का भोग इसे पर्व का रूप देता है। जगत के रंगमंच के पार्श्व में जा चुकी आत्माओं की तृप्ति के लिए सदाचारी निर्धन पुरोहित के स्थूल शरीर के माध्यम से स्वर्गीय के सूक्ष्म को भोज देना लोकातीत एकात्मता है। ऐसी सदाशय व उत्तुंग अलौकिकता वैदिक दर्शन में ही संभव है। यूँ भी सनातन परंपरा में प्रेत से प्रिय का अतिरेक अभिप्रेरित है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की ऐसी परंपरा वाला लिए श्राद्धपक्ष संभवत: विश्व का एकमात्र अनुष्ठान है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वा

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग -13 -हरतालिका एवं गणगौर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 13 – हरतालिका एवं गणगौर ??

हरतालिका-  सुहागिनों (और कुमारिकाओं द्वारा भी) द्वारा किया जाता विशेषकर उत्तर भारत का यह प्रसिद्ध पर्व  है। भाद्रपद शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाया जाने वाला यह हरतालिका की महाराष्ट्र में भी विशेष मान्यता है। अखंड सौभाग्य के लिए किये जाने वाले इस व्रत में अंतर्निहित सामाजिकता देखिए कि सम्बंधित महिला की बीमारी की स्थिति में दूसरी स्त्री  उसके लिए यह व्रत रख लेती है। अनेक बार पत्नी के अस्वस्थ होने पर पति यह व्रत करता है।

गणगौर- यह मुख्यत: राजस्थान में  मनाया जाता है। गणगौर, गण और गौर ( शिवजी और गौरा जी) की पूजा है। पौराणिक गाथा है कि चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को गौरा जी अपने पीहर आती हैं। आठ दिन बाद ईसर जी (शिवजी) उन्हें विदा कराने आते हैं। चैत्र शुक्ल तृतीया को गौरा जी विदा होती हैं। इस प्रकार गणगौर  अठारह दिनों तक चलता है।

इसे सुहागिन और कुंवारी दोनों करती हैं। चूँकि यह युगलपूजा है, दो महिलाएँ मिलकर पूजती हैं। स्त्री  सामासिकता एवं एकात्मता का समन्वित प्रतिरूप है। यही कारण है कि गणगौर में भी यही भाव प्रतिबिंबित होते हैं। सुहागिनें अपने पीहर और ससुराल दोनों में सुख- समृद्धि बनाये रखने और अखंड सौभाग्य के लिए गणगौर पूजती हैं। कुंवारियाँ सच्चे व अच्छे जीवनसाथी के लिए गणगौर करती हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग -12 – रक्षाबंधन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 12 – रक्षाबंधन ??

भाई-बहन के सम्बन्धों का उत्सव मनाने वाला रक्षाबंधन संभवत: विश्व का एकमात्र पर्व है। इस पर्व में बहन, भाई को राखी बांधती है। पुरुष भी परस्पर राखी बांधते हैं। पुरोहित द्वारा भी राखी बांधी जाती है। अनेक स्थानों पर वृक्षों को भी राखी बांधी जाती है। ‘भविष्यपुराण’ के अनुसार इंद्राणी द्वारा निर्मित रक्षा सूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इंद्र के हाथों बांधते हुए स्वस्तिवाचन किया था।  रक्षासूत्र का मंत्र है-

येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल:

तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल:।

इस मंत्र का सामान्यत: यह अर्थ लिया जाता है कि दानवीर महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे,(धर्म में प्रयुक्त किए गये थे)  उसी से तुम्हें बांधता हूं। ( प्रतिबद्ध करता हूँ)।  हे रक्षे!(रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो। चलायमान न होने का अर्थ स्थिर अथवा अडिग रहने से है।

प्रकृति के विभिन्न घटकों, समाज के विभिन्न वर्गों को रक्षासूत्र बांधना/ उनसे बंधवाना राष्ट्रीय एकात्मता का प्रदीप्त और चैतन्य है। भारतीय समाज को खंडित भाव से खंड-खंड निहारने वाली आँखों के लिए यह अखंड भाव का अंजन है।

एक विचारप्रवाह है कि वैदिक काल से  रक्षाबंधन रक्षासूत्र एवं प्रतिबद्धता का उत्सव रहा। विदेशी आक्रमणकारियों के भारत में प्रवेश के पश्चात स्थितियाँ बदलीं। आक्रांताओं से  अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए कन्याएँ, भाई को रक्षासूत्र बांधने लगीं। सहोदर की समृद्धि वह सुरक्षा के लिए कार्तिक शुक्ल द्वितीया को मनाया जाने वाला भाईदूज या यमद्वितीया का त्योहार भी इसी शृंखला की एक कड़ी है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 125 ☆ छह बजेंगे अवश्य..! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 124 ☆ छह बजेंगे अवश्य..! ?

सोसायटी की पार्किंग में लगभग चार साल का एक बच्चा खेल रहा है। वह ऊपरी मंज़िल पर रहने वाले आयु में अपने से बड़े किसी मित्र को आवाज़ लगा रहा है, “…भैया खेलने आओ।”…”अभी पढ़ रहा हूँ “…, मित्र बच्चे का स्वर सुनाई देता है।…” अच्छा कब आओगे?”… ” छह बजे…”, …”ठीक है, छह बजे आओ..।” वह फिर से खेलने में मग्न हो गया।

यह छोटू अभी घड़ी देखना नहीं जानता। छह कब बजेंगे, इसका कोई अंदाज़ा भी नहीं है पर उसका अंतःकरण शुद्ध है, विश्वास दृढ़ है कि छह बजेंगे और भैया खेलने आएगा।

विचारबिंदु यहीं से विस्तार पाता है। जीवन में ऐसा कब- कब हुआ कि कठिनाइयाँ हैं, हर तरफ अंधेरा है पर दृढ़  विश्वास है कि अंधेरा छँटेगा, सूरज उगेगा। इस विश्वास को फलीभूत करने के लिए कितना डूबकर कर्म  किया? कितने शुचिभाव से ईश्वर को पुकारा? ईश्वर को मित्र माना है तो शत-प्रतिशत समर्पण से  पुकार कर तो देखो।

कुरुसभा के द्यूत में युधिष्ठिर अपने सहित सारे पांडव हार चुके। दाँव पर द्रौपदी भी लगा दी। दु:शासन केशों से खींचते हुए पांचाली को सभा में ले आया। दुर्योधन के आदेश पर सार्वजनिक रूप से वस्त्रहरण का विकृत कृत्य आरम्भ कर दिया। द्रुपदसुता ने पराक्रमी पांडवों की ओर निहारा।  पांडव सिर नीचा किये बैठे रहे। यथाशक्ति संघर्ष के बाद  असहाय कृष्णा ने अंतत: अपने परम सखा कृष्ण को पुकारा, ‘ अभयम् हरि, अभयम् हरि।’ मनसा, वाचा, कर्मणा जीवात्मा पुकारे, परमात्मा न आये, संभव ही नहीं। कृष्ण चीर में उतर आए। चीर, चिर हो गया। खींचते-खींचते आततायी दु:शासन का श्वास टूटने लगा, निर्मल मित्रता पर द्रौपदी का विश्वास जगत में बानगी हो चला।

इसी भाँति गजराज का पाँव  पानी में खींचने का प्रयास ग्राह ने किया। अनेक दिनों तक हाथी और मगरमच्छ का संघर्ष चला। मृत्यु निकट जान गजराज ने आर्त भाव से प्रभु को पुकारा। गजराज की यह पुकार ही स्तुति रूप में गजेन्द्रमोक्ष बनी।

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं

क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।

अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते

स आत्ममूलोवतु मां परात्परः।

अर्थात अपनी संकल्प शक्ति द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए, सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले, कार्य-कारणरूप जगत को जो निर्लिप्त भाव से साक्षी रूप से देखते रहते हैं, वे परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।…गज की न केवल रक्षा हुई अपितु भवसागर से मुक्ति भी मिली।

शुद्ध मन, निष्पाप भाव, दृढ़ विश्वास की त्रिवेणी भीतर प्रवाहित हो रही हो और आर्त भाव से ईश्वर से पूछ सको कि भैया कब आओगे, तो विश्वास रखना कि हाथ में घड़ी हो या न हो, समय देखना आता हो या न आता हो, तुम्हारे जीवन में भी छह बजेंगे अवश्य।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #109 ☆ ‌दानेन पाणिर्नतुकंकणेन ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 109 ☆

☆ ‌आलेख – दानेन पाणिर्नतुकंकणेन ☆

 

कश्चधर्म:परालोके,‌ कश्चधर्म: सदाफल:।

किं नियम्य न शोचन्ति, कैश्चसंधिर्न जिर्यते।

अर्थात्- लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है? सदा फलदाई धर्म क्या है? किसे बस में कर लेने से चिंता मुक्त रहा जा सकता है? किसकी मित्रता कभी पुरानी नहीं पडती?

आनृसंस्यंपरो धर्म:,  स्त्रयीधर्म:सदाफल:।

मनोयम्य न शोचंति, संधि:सद्भीर्नजिर्यते।।

अर्थात्- लोक में सर्वोत्तम धर्म दया है, वेदोक्त धर्म सदा फलदाई है, मन को वशीभूत रखने वाले सदा सुखी एवम् चिंता मुक्त रहते हैं। सज्जन पुरुष की मित्रता कभी पुरानी नहीं पड़ती।

संस्कृत वांग्मय में भी यह सूक्ति है,

विभुक्षितं किं न किं न करोति  पापं।।

(महाभारत वन पर्व ३१३)

अर्थात्- भूखा प्राणी कौन सा अधम पाप नहीं करता, वह अपनी क्षुधा पूर्ति के लिए चोरी के अलावा भी तमाम जघन्यतम कृत्य करने के लिए विवश होता है। वहीं पर विभिन्न लोक कहावतों में भी  भूख की पीड़ा ही प्रतिध्वनित होती है।

यथा – क्षुधापीर सहित सकै न जोगी। अथवा  भूखे भजन न होई गोपाला।

उपरोक्त संस्कृत सूक्ति, लोक कहावतों के निहितार्थो का स्पष्ट संकेत क्षुधाजनित पीड़ा की तरफ करते हैं, वहीं पर पौराणिक अध्ययन के दौरान जीवन में अन्न के महत्व पर प्रकाश डालती अनेक घटनाएं दृष्टिगोचर होती हैं। जो मानव जीवन में खाद्यान्न के महत्व को दर्शाती हैं। इस क्रम में द्रौपदी के जीवन की अक्षयपात्र कथा, सुदामा, रत्नाकर, महर्षि कणाद्  का जीवन दर्शन का पौराणिक घटना क्रम अवश्य ही पठनीय है, जो क्षुधा पूर्ति में अन्न की महत्ता दर्शाती है। इस क्रम में याद करिए भूख से बिलबिलाते, विप्र सुदामा के परिवार की कथा, तथा रत्नाकर, महर्षि कणाद् का जीवन वृत्त सारे प्रसंग भूख भोजन तथा अन्न के इर्द-गिर्द गोल गोल घूमते नजर आयेंगे।

मानव हों, पशु हों, पंछी हों, कीट पतंगे हो, हर जीव क्षुधा पूर्ति हेतु प्रयासरत दीखता है। इस क्रम में प्रकृति ने हमें दूध, दही, फल, फूल, शाकवर्गीय वनस्पतियां, प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाले खाद्यान्न फसलों का उपहार दिया, लेकिन उसके बावजूद एक तरफ जहां विश्व की बहुसंख्यक आबादी  भूख तथा कुपोषण की पीड़ा जनक परिस्थितियों से दो-चार होती दीख रही है, वहीं पर अदूरदर्शिता पूर्ण निर्णयों के चलते होटलों, वैवाहिक समारोहों, खुले आसमान के नीचे भंडारित सड़ते अन्न तथा पके निष्प्रयोज्य खाद्य-पदार्थ जिससे लाखों भूखों की भूख मिटाई जा सकती थी, लेकिन ऐसा होता कहां दीखता है, एक तरफ जहां आज भी गरीब वर्ग दीन हीन अवस्था में साधन सुविधा से वंचित अन्न के दाने दाने को मोहताज दीखता भूख एवम् कुपोषण से मरता दीख रहा है। वहीं पर नवधनाढ्य वर्ग अन्नो की बरबादी का जश्न महंगे होटलों तथा आयोजन के साथ मनाता है। जो कहीं न कहीं से उसके झूठी शान तथा अहं की तुष्टि का हिस्सा है।

हमारे प्रत्येक मांगलिक कार्यों तथा धार्मिक आयोजन का संबंध देवी देवताओं के आवाहन पूजन एवम् विसर्जन से जुड़ा है, हम जीवन के उन सुखद पलों ‌को यादगार बनाने के क्रम में हर आयोजन के प्रारंभ अथवा अंत में प्रीति भोजों का आयोजन करते हैं।उन आयोजन के निर्विघ्न समापन हेतु देवियों देवताओं का आवाहन पूजन करके भांति-भांति के प्रसाद फल फूल समर्पित करते हैं। लेकिन आयोजन की पूर्णता के बाद शेष बचे हुए व्यंजन अवशेषों को खुले आसमान तले  सड़कों के किनारे  कूड़े के ढेर पर  फेंक देते हैं, जो सड़ कर वातावरण को प्रदूषित तो करता ही है, वह फिजूलखर्ची तथा अकुशल प्रबंधन का भी प्रतीक है, क्या ही अच्छा होता जब प्रायोजक द्वारा आयोजक की सेवा शर्तों में यह बात भी जोड़ दी जाती कि  सफल आयोजन के बाद बचे अन्न अवशेषों को किसी लोक सेवी संस्था को दान कर दिया जाता जिससे सेंकड़ों नहीं हजारों की संख्या में भूख तो मिटती है, वातावरण भी प्रदूषित होने से बच जाता तथा उन दरिद्रनारायणों के हृदय से मिलने वाले आशिर्वाद से जीवन में मंगल ही मंगल होता। वर्ना लक्ष्मीऔर अन्नपूर्णा के रूठने पर दरिद्रता भूख पीड़ा बीमारी से उपजा आसन्न संकट आप के दरवाजे पर खड़ा खड़ा अपने गृहप्रवेश के अशुभ घड़ी का इंतजार कर रहा होगा।

हम सभी से आज भी अपने आसपास तमाम ऐसे गरीबवर्गीय महिलाओं बच्चों से आमना-सामना होता होगा, जिनके तन पर फटे झूलते चीथडों में बंटे वस्त्र तथा खाली पेट उनकी गरीबी लाचारी तथा बेबसी को बयां करते मिल जायेंगे, तो वहीं दूसरी तरफ नवधनाढ्यों की अलमारियों में अटे पड़े पुरानें कपड़े जो उपयोग में नहीं है, वे चाहे तो उन तमाम कपड़ों को धुलवाकर तमाम गरीबों का तन ढक कर नर से नारायण की श्रेणी में जा सकते हैं। इधर बीच कुछ लोकोपकारी  संस्थाओं के ऐसे लोग सामने आये हैं, जिनका नारा ही है “नर सेवा, नारायण सेवा”।  

जो नेकी की दीवार बनाते हैं, जो घर घर से बचें पके अन्न संग्रह कर तथा आयोजनों के बाद बचे हुए अवशेष तथा दान में प्राप्त पुराने वस्त्रो से गरीब का पेट भरने तथा उनके तन ढकने कार्य करते हैं, तथा उन धनवानों को भी पुण्य ‌लाभ का अतिरिक्त अवसर उपलब्ध कराते हैं। जिसे देख सुन कर बड़ी ही सुखद अनुभूति होती है, वरना हम मिथकीय मान्यताओं को ढोते हुए मंदिरों, मस्जिदों, गुरद्वारों आदि तीर्थ स्थानों में भटकते ही रहेंगे।

किसी विद्वान का मत है कि – “प्रार्थना करने वाले ओठों से किसी की सहायता में उठने वाले हाथ ‌ज्यादा पवित्र होते हैं आइए हम किसी की सहायता का संकल्प ले।” (अज्ञात)

तभी तो धर्म कर्म की व्याख्या करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा कि-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

परपीडा सम नहिं अधमाई।।

(रा०च०मानस०)

इसी सिद्धांत का समर्थन संस्कृत भाषा का यह श्लोक भी करता है।

श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन , दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,

विभाति कायः करुणापराणां , परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||

(अज्ञात)

अर्थात्- कानों की शोभा शास्त्रों के श्रवण से है, कुण्डल पहनने से नहीं। हाथों की शोभा दान देने से है, कंगन पहनने से नहीं। दयालु पुरूषों की शोभा परोपकार से है चंदनादि लेपन से नहीं ।इस लिए शरीर को आभूषण से नहीं सुंदर गुणों से सजाना चाहिए।

इस क्रम में उन दयावानों का अभिनंदन, वंदन, सहयोग तथा समर्थन अवश्य किया जाना चाहिए। जो तन मन धन तीनों से ही नेकी के कार्यों से जुड़े हैं। आप और हम सभी नेक व्यवस्था का अंग बनें औरअंत में  “शुभंभवतु“।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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