हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – निठल्ला चिंतन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – निठल्ला चिंतन ??

कभी विचार किया कि तुम्हारे न होने से कितने लोगों को पर असर पड़ेगा? पत्नी-बच्चों पर, बहन पर, भाई पर, माता-पिता हैं तो उन अभागों पर, एकाध संगी-साथी पर, और…..?

नाम सूझ नहीं रहे न! …सच कहूँ, तुम्हारे होने का भी सिर्फ़ इन्हीं लोगों पर असर पड़ता है।

बाकी ये जो सोच रहे हो कि तुम हो तो दुनिया चल रही है, यह अपने समय और हर समय का सबसे बड़ा मज़ाक है।

…मानना न मानना, तुम्हारी मर्ज़ी..!

©  संजय भारद्वाज

4:53 बजे, 20.01.2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 68 ☆ स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि।)

☆ किसलय की कलम से # 68 ☆

☆ स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि ☆ 

“बाहर का खाना कितना स्वास्थ्यप्रद? कुछ ऐसे तथ्य जो आपको सचेत करेंगे”

अक्सर सभी के मन में यह विचार तो आता ही है कि होटल अथवा बाहर के लंच-डिनर का खाना हमेशा अच्छा क्यों लगता है? और हम गाहे-बगाहे खाना खाने बाहर जाने क्यों उतावले रहते हैं। किसी के भी आमंत्रण पर प्रीतिभोज में चटखारे भरते हुए छककर खाने की लालसा क्यों रखते हैं? बाहर के भोजन में ऐसी क्या विशेषताएँ होती हैं अथवा यह कहें कि घर के बनाए भोजन में ऐसी क्या कमियाँ होती हैं कि हम घर के बने भोजन के साथ घर पर निर्मित खाद्य पदार्थों का कमतर आकलन करते हैं। आईये, हम चिंतन करें कि आखिर हमारी मानसिकता ऐसी क्यों बनी है कि हमें बाहर का भोजन और पेय ज्यादा पसंद आते हैं।

यहाँ बताना आवश्यक है कि हमारे घर के पारंपरिक भोजन में ऐसी सभी चीजों को शामिल किया जाता है जो हमारे अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। दैनिक खानपान के अतिरिक्त पापड़, बड़ी, अचार, सुखाई गई सब्जी-भाजी, अदरक, धनिया, मिर्च-मसाले आदि भी घर पर पूरे वर्ष के लिए छान, पीस और सुखाकर सुरक्षित रख लिए जाते हैं। ऋतुओं के अनुरूप घर में खाना बनता है। दही कब खाना है, बड़ियाँ कब बनाना है, भाजियाँ या करेला कब नहीं खाना है, ये सभी बातें गृहणियाँ भलीभाँति जानती और समझती हैं। सबसे अधिक और सबसे कम हानिकारक कौन-कौन से खाद्य पदार्थ हैं, उनका कम और ज्यादा उपयोग करना भी पता रहता है। घरेलू खाने एवं पेय पदार्थों में स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाले रसायन, रंग, मसाले यहाँ तक कि भोज्य वनस्पतियों के भी वे हिस्से जो हमें हानि पहुँचा सकते हैं उनके उपयोग से बचा जाता है।

हमारे आयुर्वेद में विस्तार से उन सभी बातों का वर्णन मिलता है जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक और हानिकारक हैं। घरों में प्रयास रहता है कि घर के सभी सदस्य दिन के दोनों वक्त ताजा भोजन ही करें। खाने और पीने की हर सामग्री को अच्छे से साफ किया जाता है। उनकी ताजगी और पौष्टिकता का ध्यान रखा जाता है। पेय पदार्थों की शुद्धता और ताजगी के साथ-साथ स्वाद तथा बासेपन का भी ध्यान रखा जाता है। रसोईघर की पूर्ण स्वच्छता का ध्यान रखना दिनचर्या में शामिल होता ही है। पेयजल एवं अन्य कार्यों के उपयोग हेतु जल की शुद्धता व उसके प्रदूषण का ध्यान रखा जाता है। प्रतिदिन रसोई घर में काम करने के पूर्व स्नान और ईश्वर की पूजा-पाठ तक को महत्त्व दिया जाता है। खाना खाने के समय भी डाइनिंग रूम में बाहरी लोगों का दखल कम ही होता है। एक तरह से हम देखते हैं कि घर पर स्वास्थ्यकारी (हाइजेनिक) भारतीय परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यही कारण था कि पहले हमारे देश में नाममात्र के डॉक्टर व चिकित्सालय होने के बावजूद आरोग्यता का ग्राफ काफी ऊँचा था। इन्हीं बातों का आज भी यदा-कदा उल्लेख होता ही रहता है।

आज उपरोक्त तथ्यों के बारीकी से अध्ययन की आवश्यता है कि हम उपरोक्त परंपराओं, प्रथाओं अथवा रीतियों का कितना अनुसरण कर पाते हैं? महीने भर घर का भोजन खाने के बाद यदि एक दिन भी बाहर किया गया अस्वास्थ्यप्रद भोजन निश्चित रूप से आपके स्वास्थ्य के लिए भारी पड़ सकता है, क्योंकि प्रदूषण, छुआछूत, विषाक्तता, असंगत मिलावट तो एक बार में ही अपना प्रभाव दिखा देती है। घर के दो-चार-दस सदस्यों के खाने की और सामूहिक भोज अथवा होटलों के खाने की शुद्धता की तुलना किसी भी स्तर, श्रेणी और विषय में श्रेष्ठ हो ही नहीं सकती। इसके लिए केवल यही उदाहरण पर्याप्त है कि घरेलू उपयोग हेतु दस किलो गेहूँ अथवा चावल के कंकड़, घुन आदि निकाल कर धोने सुखाने की प्रक्रिया में निश्चित रूप से ज्यादा शुद्धता होती है न कि एक साथ दो-चार सौ किलो इसी सामग्री को मशीनी प्रक्रिया से शुद्धता प्राप्त होगी। यह बात तार्किक तो नहीं लेकिन प्रायोगिक रूप से शत-प्रतिशत सिद्ध है। हम खाद्य सामग्री अथवा पकवानों में कृत्रिम रंग व रसायन मिलाकर आकर्षक व स्वादिष्ट तो बना सकते हैं, लेकिन स्वास्थ्यप्रद कभी नहीं बना सकते, क्योंकि बाहरी खाने में स्वाद, रंग और आकर्षण लाने के लिए उपयोग में लाई जाने वाली चीजें लगभग 95 प्रतिशत हानिकारक ही होती हैं। कुछ स्वास्थ्यकारक चीजों की अधिकता भी हमें हानि पहुँचाती हैं। घी, तेल, मेवा, शक्कर आदि की ज्यादा मात्रा भी हानिकारक होती है। बहुसंख्य हाथों द्वारा निर्मित, सामूहिक भोज हेतु रखे गए भोजन को हजारों हाथों द्वारा, वही चम्मच, वही खाद्य पकवान पकड़ने, छूने और बिना दूरी का ध्यान रखे एक साथ खाना कितना सुरक्षित और हितकर होगा। बस, इन्हीं तथ्यों को अपने घर की डाइनिंग टेबल पर रखे भोजन और अपने ही दो-चार पारिवारिक लोगों के बीच बैठकर खाने को स्मरण करने की आज सभी को आवश्यकता है।

बाहरी भोजन में तेल, घी, खटाई, मसालों की अधिकता तो होती ही है, इनको अजीनोमोटो, सॉस, विनेगर, डिब्बाबंद सामग्रियों, और तो और कभी-कभी बतौर घी के विकल्प के रूप में जानवरों की चरबी के उपयोग से बेहद हानिकारक बना दिया जाता है। पाया गया है कि होटलों अथवा सामूहिक भोज में खाना बनाने वाले लोग बासे, खराब होने की स्थिति में आई सामग्री, कीड़े, मक्खियाँ आदि तक को ईमानदारी से अलग नहीं करते। छिलके व अनुपयोगी हिस्सों को भी मिलाकर आपको खिला दिया जाता है। शायद इसीलिए यह जुमला प्रसिद्ध है कि यदि आप एक बार बाहर का खाना बनते देख लोगे तो फिर बाहर का खाना कभी नहीं खाओगे। गंदे हाथ, खाद्य पदार्थों में पसीना टपकाते, खाना बनाते समय साफ-सफाई पर ध्यान न रखने जैसी कई बातें हैं, जिनका कड़ाई से पालन किया ही नहीं जाता। खाना बनाने, परोसने तथा खाने के बर्तनों की स्वच्छता का कोई पैमाना निर्धारित नहीं होता। आप कितना ही ध्यान दो, लेकिन कहीं न कहीं चूक होती ही है, जो हमारे स्वास्थ्य को बिगाड़ सकती है। खाने में कभी स्वाद बढ़ाने के लिए, तो कभी सस्ते होने के कारण मांस, रक्त व जैविक अंशों से निर्मित वस्तुएँ भी मिलाकर खिला दी जाती हैं। केक में अंडे, चीजकेक और च्युंगम आदि में जिलेटिन, नूडल्स में सोडियम इनोसिनेट, ऑरेंज जूस में इन्कोवी (नमकीन स्वाद की छोटी मछली) और सार्डिन, चिप्स में पोर्क एंजाइम का उपयोग किया जाता है। कई बार पनीर में रेनेट नामक घटक मिला दिया जाता है। चीनी की ब्लीचिंग में भी जानवरों की हड्डियों का उपयोग किया जाता है। ये सारे पदार्थ मांसाहारी होने के बावजूद उत्पादों में स्पष्टतः नहीं लिखे जाते। इन मांसाहारी पदार्थों का मिलाना निश्चित रूप से शाकाहारियों को अंधेरे में रखने जैसा तो है ही, ये भोजन को हानिकारक भी बनाते हैं।

वर्तमान समय में प्राकृतिक व जैविक खाद से पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के उपयोग पर इसीलिए जोर दिया जाने लगा है, क्योंकि इनसे स्वास्थ्य को खतरा नहीं होता। पिज्जा, बर्गर, नूडल्स, केक, मोमोज आदि ऐसे ही खाद्य पदार्थ है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं कहे जा सकते। वैसे आजकल हमारे समाज में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता देखने तो मिलने लगी है, लेकिन ये जागरूकता अभी भी अपेक्षाकृत कम है। आज जरूरत इस बात की है कि हम अपरिहार्य परिस्थितियों को छोड़कर स्वस्फूर्तभाव से बाहरी भोजन व भोज्य पदार्थों के उपयोग का पूर्णतः परहेज करें।

हम सब ये बातें अच्छी तरह से जानते हैं कि इन धंधों में हमारे समाज के ही एक बड़े हिस्से की भागीदारी होती है। पूरा होटल बिजनेस, पूरे खाद्य पदार्थ उत्पादक व विक्रेताओं सहित कहीं न कहीं चिकित्सा जगत, दवा बाजार तक संलग्न है। कोल्ड ड्रिंक्स, फास्ट फुड और स्नैक्स विक्रेता सहित हम किस किसको रोक पाएँगे? अतः हमें खुद ही सतर्कता जागरूकता एवं परहेज रखने की आवश्यकता है। साथ ही खाद्य पदार्थ विक्रेताओं और पका-पकाया खाना बनाने के व्यवसाय से जुड़े लोगों को भी चाहिए कि वे भले ही अपने वास्तविक हानि-लाभ का ध्यान रखकर मूल्य निर्धारित करें, लेकिन सस्ते और मुनाफाखोरी के स्वार्थवश मिलावट से बाज आएँ।

यहाँ यह बात कहना भी जरूरी है कि शराब, गुटखा, तंबाकू, सिगरेट आदि के पैकेट पर वैधानिक चेतावनी के बावजूद जब एक बहुत बड़े नशे का व्यवसाय पहले से ही फल-फूल रहा है और उसे मानने के लिए आज तक अधिकांश लोग तैयार नहीं है। अब दिनोंदिन हमारे स्वास्थ्य को बुरी तरह से हानि पहुँचाने वाले इस बढ़ रहे व्यवसाय को भी रोक पाना बड़ा मुश्किल लगता है। हम वर्तमान में स्वाद के लिए अपनी जीभ के सामने नतमस्तक रहते हैं, जबकि हमें मानना ही होगा कि स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि। अब देखना रह गया है कि बाहर का बना खाना व बाहर के डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ हमारे स्वास्थ्य को कब तक बीमार बनाते रहेंगे और हम अपने आपको इन सब से कितना और कब तक दूर रख पाते हैं।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गुड़ – भाग-2 ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(ई- अभिव्यक्ति में श्री राकेश कुमार जी का स्वागत है। भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से अतीत और वर्तमान को जोड़ता हुए रोचक आलेख “गुड़” की श्रृंखला  का दूसरा भाग।)   

☆ आलेख ☆ गुड़ – भाग -2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे कवियों की कल्पना की उड़ान भी बड़ी ऊंची होती हैं। एक गीतकार ने तो यहां तक कह दिया “गुड़ नाल (से) इश्क मीठा” होता हैं।         

गुड़ खाने की आदत भी किसी नशे से कम नहीं होती हैं। पुराने जमाने में एक बहुत ही पहुंचे हुए साधु थे, सभी की समस्या चुटकी में सुलझा देते थे। एक दिन स्त्री अपने पुत्र को ले कर आई और कहा मेरा पुत्र गुड़ बहुत अधिक मात्रा में सेवन करता है, इसकी ये आदत छुड़वा दीजिए। साधु ने उनको तीन दिन बाद आने के लिए कहा, उसके बाद उस बालक का गुड़ खाना बंद हुआ। साधु के शिष्यों ने पूछा आप ने इतनी आसान सी समस्या को सुलझाने में तीन दिन का समय क्यों लिया। साधु बोले मैं स्वयं बहुत गुड़ खाता था, और चाह कर भी नहीं छोड़ पा रहा था, तो किस हक़ से इस बालक से छोड़ने के लिए कह सकता था।    

कुल मिलाकर गुड़ चीज़ ही ऐसी है। यदि आप किसी के चेहरे से मन की खुशी समझ सकते हैं, तो किसी गूंगे को गुड़ खाने के बाद उसके चेहरे को देखें। 

लोक भाषा में तो “गुड़ गोबर” का प्रयोग भी दैनिक भाषा में बहुधा हो ही जाता हैं।               

पंजाब प्रांत में तो स्त्री की सुंदरता का बखान “मर जवां गुड़ खाके” शब्द बोलकर किया जाता है। जयपुर शाखा में हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी जो विदेश पदस्थापना में लंबा समय बीता कर स्वदेश लौटे थे। उन्होंने  कहा सर्दी सीजन में  लंच करने के बाद गुड़ खाया करे, बाज़ार से ले आना। दूसरे दिन उन्होंने पूछा की अच्छे गुड़ की पहचान क्या होती है। हमने कहा गुड़ तो सभी अच्छे होते हैं, तो वो बोले जिस गुड़ की ढेरी पर सब से अधिक चिंटे चिपके हो, वो ही गुड़ सब से बढ़िया और मीठा होता हैं। तो जब भी गुड़ खरीदने जाए तो इस बात का ध्यान अवश्य रखें।

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 122 ☆ अहम् और अहंकार – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 122 ☆ अहम् और अहंकार..(2) ?

अहम् और अहंकार की अपनी विवेचना को आज आगे जारी रखेंगे। संसार नश्वर है। यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं। अपने समय पर विभिन्न कारणों से अहंकार करनेवाले भी काल के गाल में समा गये।

एक गृहस्थ ने कहा- ‘घर में मैं अकेला कर्ता हूँ, मैं हूँ तो घरवाले पेट भर रहे हैं। मुझे कुछ हो गया तो जाने क्या होगा?’ पीछे एक दुर्घटना में वह चल बसा। सूतक के दौरान रिश्तेदार और पास-पड़ोसी भोजन भेजते रहे, फिर बच्चों ने छोटी-मोटी नौकरी पकड़ ली। कथित कर्ता के न रहने पर भी उसके परिवार का पेट भरता रहा। कथित कर्ता को जिस श्मशान में फूँका गया, उसी की दीवार पर लिखा था-

मुरदे को प्रभु देत हैं कपड़ा, लकड़ा, आग

ज़िंदा नर चिंता करै, ताँ के बड़े अभाग। 

दुनिया में अकूत धन के लिए किसीको नहीं याद किया जाता, अनेक युगों में अनेक रूपवान स्त्रियाँ आईं-गईं, रूप भी आया-गया। प्रसिद्धि के अति भूखे अपने समय में जोड़तोड़ कर अखबारों में, मीडिया में आकर  दुनिया की आँखों में बने रहे, बाद में उन्हीं अखबारी कतरनों को निहारते उनका जीवन बीता। अपने अंतिम समय में दुनिया की आँखों के इन कथित तारों को न दीन मिला, न दुनिया। जिन्होंने अपने समय में पैंतरेबाजियों से दूसरोंं को विस्थापन का दंश दिया, बदला समय अपने साथ उनके लिए निर्वासन का शाप लाया।

अनेकदा ऐसा भास होता है कि ज्ञान भी समय की चक्की में पिसकर समाप्त होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिसे हम ज्ञान मान रहे हैं,वह मोटे तौर पर जानकारी का संग्रह मात्र है। वस्तुत: ज्ञान शाश्वत होता है। हर स्थिति में अचल और अडिग रहता है। ज्ञान अक्षय है। अतः सच्चा ज्ञानी अहम् अर्थात अस्तित्व बोध संपन्न तो होता है पर अहंकारी नहीं होता। पृथ्वी के सारे धनों में ज्ञान धन ही ऐसा है जो बाँटने से बढ़ता है। अन्य धन प्राप्त होने से आसक्ति  बढ़ती जाती है, ज्ञान विरक्ति के साधन से मन का सारा मैल धो डालता है। हरि को पाकर हरि से भी विरक्ति, ऐसी विरक्ति कि हरि आसक्त हो जाए। उत्कर्ष ऐसा कि जिसे साध्य मानकर यात्रा आरंभ की थी, उसे पाकर उससे भी आगे चल पड़े। साधन, साध्य हो गया और साध्य, साधन रह गया।

कबीरा मन ऐसा निर्मल भया जैसा गंगानीर

पाछै-पाछै हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर।

हरि से प्राप्त सामर्थ्य को प्राणपण से निष्काम भाव सहित हरि को अर्पित करनेवाला निरंहकारी,  हरि को अपना भक्त कर सकने की असाधारण संभावना का धनी होता है।

.. इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #105 ☆ मौन का संगीत – एकअनहद नाद ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 105 ☆

☆ मौन का संगीत – एकअनहद नाद ☆

अनहद नाद क्या है? यह क्यों है? आखिर इसकी जरूरत क्या है? यह विषय चिंतन का है। इस विषय पर साधना पथ पर चलने वाले अनेक योगी यति लोगों ने बहुत कुछ लिखा है। आज मैं अपने पाठक वर्ग से इस बिंदु पर अपने विचार साझा करना चाहता हूँ। यह मेरे अपने निजी विचार तथा अनुभव है। इस आलेख को आप पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ  इस उम्मीद से कि साधना पथ पर चलने वाला कोई नवपथिक इस आलेख के आलोक में कुछ अनुभूति कर सकें,और अपने शाब्दिक प्रतिक्रिया से अभिसिंचित कर सकें।

अनहद नाद, मौन का गीत एवं संगीत है, जिसे मौन में रह कर ही सुना समझा जा सकता है, जो इस अदृश्य अंतरिक्ष में अनंत काल से गूंज रहा है गूंजता रहेगा। और अविराम बजता रहेगा। उसे सुनने के लिए कोलाहल युक्त वातावरण नहीं, बाह्यकर्णपटल की नहीं, उस शांत एकांत वातावरण तथा मौन की आवश्यकता है, जो ध्वनि प्रदूषण वायुप्रदूषण मुक्त हो। जहाँ आप शांत चित्त बैठकर मौन हों अपने अंतर्मन में उतर कर उस अनहद नाद की शांत स्वर लहरी में खोकर पूर्ण विश्राम पा सकें। जहां कोलाहल के गर्भ से उपजी अनिंद्रा तनाव व थकान न हो। बस चारों तरफ प्राकृतिक सौंदर्य बोध हो, शांति ही शांति हो, जहां न कुछ पाना बाकी हो न कुछ खोना शेष हो। जहां आत्मसत्ता का साम्राज्य हो और वहीं आपकी मंजिल भी। आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार, शिव से जीव के मिलन, नदी से सागर के मिलन की आत्मतृप्ति की प्रक्रिया मात्र दृष्टि गोचर हो। आत्मचेतना परमात्मसत्ता में समाहित हो और सूक्ष्म विराट में समाहित हो, अपना अस्तित्व मिटा दे। फिर उन्हीं परिस्थितियों में मुखर हो अनहद नाद प्रतिध्वनित हो उठे। मौन का वह संगीत अंतरात्मा के आत्मसाक्षात्कार सुख के साथ उर अंतर में उतर जाय।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 116 ☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख प्रेम, प्रार्थना और क्षमा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 116 ☆

☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा

प्रेम, प्रार्थना और क्षमा अनमोल रतन हैं। शक्ति, साहस, सामर्थ्य व सात्विकता जीवन को सार्थक व उज्ज्वल बनाने के उपादान हैं। मानव परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है और प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव उससे अपेक्षित है…यही समस्त जीव-जगत् की मांग है। प्रेम व करुणा पर्यायवाची हैं…एक के अभाव में दूसरा अस्तित्वहीन है। सो! प्रेम में अहिंसा व्याप्त है, जो करुणा की जनक है। जब इंसान को किसी से प्रेम होता है, तो वह उसका हित चाहता है; मंगल की कामना करता है। उस स्थिति में सबके प्रति हृदय में करुणा भाव व्याप्त रहता है और उसके पदार्पण करते ही स्नेह, सौहार्द, त्याग, सहनशीलता व सहानुभूति के भाव स्वतः प्रकट हो जाते हैं और अहं भाव विलीन हो जाता है। अहं मानव में निहित दैवीय गुणों का सबसे बड़ा शत्रु है। अहं में सर्वश्रेष्ठता का भाव सर्वोपरि है तथा करुणा में स्नेह, त्याग, समानता, दया व मंगल का भाव व्याप्त रहता है। सो! किसी के प्रति प्रेम भाव होने से हम उसकी अनुपस्थिति में भी उसके पक्षधर व उसकी ढाल बनकर खड़े रहते हैं। प्रेम दूसरों के गुणों को देख कर हृदय में उपजता है। इसलिए स्व-पर व राग-द्वेष आदि उसके सम्मुख टिक नहीं पाते और हृदय से मनोमालिन्य के भाव स्वत: विलीन हो जाते हैं। प्रेम नि:स्वार्थता का प्रतीक है तथा प्रतिदान की अपेक्षा नहीं रखता।

ईश्वर के प्रति श्रद्धा व प्रेम का भाव प्रार्थना कहलाता है, जिसमें अनुनय-विनय का भाव प्रमुख रहता है। श्रद्धा में गुणों के प्रति स्वीकार्यता का भाव विद्यमान रहता है। शुक्ल जी ने ‘श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति की संज्ञा से अभिहित किया है।’ प्रभु की असीम सत्ता के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए मानव को सदैव उसके सम्मुख नत रहना अपेक्षित है; उसकी करुणा- कृपा को अनुभव कर उसका गुणगान करना तथा सहायता के लिए ग़ुहार लगाना– प्रार्थना कहलाता है। दूसरे शब्दों में यही भक्ति है। श्रद्धा किसी व्यक्ति के प्रति भी हो सकती है…यह शाश्वत सत्य है। जब हम किसी व्यक्ति में दैवीय गुणों का अंबार पाते हैं, तो मस्तक उसके समक्ष अनायास झुक जाता है।

प्रार्थना हृदय के वे उद्गार हैं, जो उस मन:स्थिति में प्रकट होते हैं; जब मानव हैरान-परेशान, थका-मांदा, दुनिया वालों के व्यवहार से आहत, आपदाओं से अस्त-व्यस्त व त्रस्त होकर प्रभु से मुक्ति पाने की ग़ुहार लगाता है। प्रार्थना के क्षणों में वह अपने अहं को मिटाकर उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देता है। उन क्षणों में अहं अर्थात् मैं और तुम का भाव विलीन हो जाता है और रह जाता है केवल सृष्टि-नियंता, जो सृष्टि अथवा प्रकृति के कण-कण में व्याप्त होता है। उस स्थिति में आत्मा व परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उन अलौकिक क्षणों में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव नदारद हो जाते हैं… सर्व- मांगल्य व सर्व-हिताय की भावना बलवती व प्रबल हो जाती है।

जहां प्रेम होता है, वहां क्षमा तो बिन बुलाए मेहमान की भांति स्वयं ही दस्तक दे देती है और अहं का प्रवेश वर्जित हो जाता है। सो! स्व-पर व अपने-पराये का प्रश्न ही कहाँ उठता है? किसी के हृदय को दु:ख पहुंचाने, बुरा सोचने व नीचा दिखाने की कल्पना बेमानी है। प्रेम के वश में मानव क्रोध व दखलांदाज़ी करने की सामर्थ्य ही कहां जुटा पाता है? वैसे संसार में सभी ग़लत कार्य क्रोध में होते हैं और क्रोध तो दूध के उबाल की भांति सहसा दबे-पांव दस्तक देता है तथा पल-भर में सब नष्ट-भ्रष्ट कर रफूचक्कर हो जाता है। वर्षों पहले के गहन संबंध उसी क्षण कपूर की मानिंद विलुप्त हो जाते हैं और अविश्वास की भावना हृदय में स्थायी रूप से घर कर लेती है। क्रोध अव्यवस्था फैलाता है तथा शांति भंग करना उसके बायें हाथ का खेल होता है। क्रोध की स्थिति में जन्म-जन्मांतर के संबंध टूट जाते हैं और इंसान एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करता। सो! इससे निज़ात पाने का उपाय है…क्षमा अर्थात् दूसरों को मुआफ़ कर उदार हृदय से उन्हें स्वीकार लेना। इससे हृदय की दुष्प्रवृत्तियों व निम्न भावनाओं का शमन हो जाता है। इसलिए जैन संप्रदाय में ‘क्षमापर्व’ मनाया जाता है। यदि हमारे हृदय में किसी के प्रति दुष्भावना व शत्रुता है, तो उस से क्षमा याचना कर दोस्ताना स्थापित कर लिया जाना अत्यंत आवश्यक है, जो श्लाघनीय है और  मानव स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है, हितकारी है।

वैसे भी यह ज़िंदगी चार दिन की मेहमान है। इंसान इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट कर जाना है…फिर किसी से ईर्ष्या व शत्रुता भाव क्यों? जो भी हमारे पास है… हमने यहीं से लिया है और उसे यहीं छोड़ उस अनंत-असीम सत्ता में समा जाना है… फिर अभिमान कैसा? परमात्मा ने तो सबको समान बनाया है…यह जात-पात, ऊंच-नीच व अमीर-गरीब का भेदभाव तो मानव-मस्तिष्क की उपज है। सब उस प्रभु के बंदे हैं और सारे संसार में उसका नूर समाया है। कोई छोटा-बड़ा नहीं है, इसलिए सबसे प्रेम करें; दया भाव प्रदर्शित करें; संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग कर किसी को पीड़ा मत पहुंचाएं तथा जो मिला है, उसमें संतोष करें। सो! दूसरों के अधिकारों का हनन मत करें–यही जीवन की उपादेयता है, सार्थकता है।

शक्ति, सामर्थ्य, साहस व सात्विकता वे गुण हैं, जो मानव जीवन को श्रद्धेय बनाते हैं। सो! इनके सदुपयोग की आवश्यकता है। इसलिए यदि आप में शक्ति है, तो आप तन, मन, धन से निर्बल की रक्षा करें तथा अपने कार्य स्वयं करें, क्योंकि शक्ति सामर्थ्य का प्रतीक है और जीवन का सार व प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव दर्शाने का उपादान है। सो! यदि आप में शक्ति व सामर्थ्य है, तो साहसपूर्वक निरंतर कर्मशील रह कर सबका मंगल करें तथा विपरीत व विषम परिस्थितियों में आत्म-विश्वास से आगामी आपदाओं-बाधाओं का सामना करें। साहसी व्यक्ति को धैर्य रूपी धरोहर सदैव संजोकर रखनी चाहिए और निर्बल, दीनहीन व अक्षम पर कभी भी प्रहार नहीं करना चाहिए। हां! इसके लिए दरक़ार है…भावों की सात्विकता, पावनता व पवित्रता की, जिसका पदार्पण जीवन में सकारात्मक सोच, आस्था व विश्वास पर आधारित होता है। यदि मानव में स्नेह, प्रेम, करुणा व श्रद्धा के साथ क्षमा-भाव भी व्याप्त है, तो सोने पर सुहागा क्योंकि इससे सभी गलतफ़हमियां व झगड़े तत्क्षण तत्क्षण समाप्त हो जाते हैं। इसका दूसरा रूप है प्रायश्चित… जिसके हृदय में प्रवेश करते ही मानव को अपनी ग़लती का आभास हो जाता है कि वह दोषी ही नहीं; अपराधी है। सो! वह उसे न दोहराने का निश्चय करता है तथा उससे क्षमा मांग कर अपने हृदय को शांत करता है। उस स्थिति में दूसरे भी सुक़ून पाकर धन्य हो जाते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात’ अर्थात् क्षमा भाव सबसे श्रेष्ठ गुण है। क्षमा याचना करना अथवा दूसरों को क्षमा करना… इन दोनों स्थितियों में मानव हृदय की कलुषता व मनोमालिन्य समाप्त हो जाता है अर्थात् जब छोटे ग़लतियां करते हैं, तो बड़ों का दायित्व है… वे उन्हें क्षमा कर उदारता व उदात्तता का परिचय दें। इसलिए यदि आप क्रोध अथवा अज्ञानवश किसी जीव के प्रति निर्दयता भाव रखते हैं और उसे शारीरिक व मानसिक कष्ट पहुंचाते हैं, तो आपको उससे क्षमा याचना कर अपना बड़प्पन दिखाना चाहिए। परंतु अहंनिष्ठ व्यक्ति से ऐसी अपेक्षा रखने की कल्पना करना भी बेमानी है।

‘सो! रिश्ते जब मज़बूत होते हैं, बिन बोले महसूस होते हैं तथा ऐसे संबंध अटूट होते हैं; ऐसी सोच के लोग महान् कहलाते हैं।’ उनका सानिध्य पाकर सब गौरवान्वित अनुभव करते हैं। वास्तव में ऐसी सोच के धनी…’व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व होते हैं।’ परंतु वे अत्यंत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए उन्हें भी अमूल्य धन-सम्पदा व धरोहर की भांति सहेज-संभाल कर रखना चाहिए तथा उनके गुणों का अनुसरण करना चाहिए, ताकि वे उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर कर सकें। वास्तव में वे आपको कभी भी चिंता के सागर में अवगाहन नहीं करने देते।

प्रेम, प्रार्थना व क्षमा अनमोल रत्न हैं। उन्हें शक्ति, सामर्थ्य, साहस, धैर्य व सात्विक भाव से तराशना अपेक्षित है, क्योंकि हीरे का मूल्य जौहरी ही जानता है और वही उसे तराश कर अनमोल बना सकता है। इसके लिए आवश्यकता है कि हम उन परिस्थितियों को बदलने की अपेक्षा स्वयं को बदलने का प्रयास करें …उस स्थिति में जीवन के शब्दकोश से कठिन व असंभव शब्द नदारद हो जायेंगे। इसलिए आत्मसंतोष व सब्र को जीवन में धारण करें, क्योंकि ये दोनो अनमोल रत्न हैं; जो आपको न तो किसी की नज़रों में झुकने देते हैं और न ही किसी के कदमों में। इसका मुख्य उपादान है– आपका मधुर व्यवहार, जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण व सुख दु:ख में सम रहने का भाव समरसता का द्योतक है। सो! अपने दैवीय गुणों व सकारात्मक दृष्टिकोण द्वारा सबके जीवन को उमंग, उल्लास व असीम प्रसन्नता से आप्लावित कर; उनकी खुशी के लिए स्वार्थों को तिलांजलि दे ‘सुक़ून से जीएँ व जीने दें’ तथा ‘सबका मंगल होय’ की राह का अनुसरण कर जीवन को सुंदर, सार्थक व अनुकरणीय बनाएं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 67 ☆ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना अपराध से कम नहीं ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना अपराध से कम नहीं ।)

☆ किसलय की कलम से # 67 ☆

☆ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना अपराध से कम नहीं ☆ 

ईश्वर ब्रह्मांड की सर्वोच्च-शक्ति का पर्याय है। यही शक्ति जगत नियंता के नाम से भी जानी जाती है। आदि मानव से वर्तमान मानव के विकास में अनेक पड़ाव आए। मानव का प्राकृतिक गोद में जन्म लेने के कारण मानव और प्रकृति का अभिन्न नाता बना हुआ। है शनैः शनैः मानव द्वारा कृतज्ञता, भय, उपलब्धियों एवं अलौकिक चमत्कारों को देख-देखकर कुछ अदृश्य शक्तियों, प्रतीकों, जीवों आदि को पूजा-आराधना की श्रेणी में रखने का क्रम शुरू किया गया। सामाजिक व्यवस्थाओं की शुरुआत होते-होते कुछ शक्तिशाली, विशेष लोगों, महापुरुषों, राजा-महाराजाओं व ऋषि-मुनियों द्वारा उल्लिखित सिद्धांतों का अनुगमन करना तथा उनकी स्तुतियाँ करना आदि प्रारंभ हो गया। समय के साथ-साथ कुछ प्रतीकों व दिव्य प्रतिभावानों को देवी-देवताओं के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई।

दुनिया में समाज व संस्कृति विकसित होती गई। अनेक धर्म व संप्रदाय बनते चले गए। एक समय ऐसा भी आया कि लोगों द्वारा अपने-अपने धर्मों की श्रेष्ठता और वर्चस्व स्थापित करने हेतु तरह-तरह के नैतिक-अनैतिक कार्य किए जाने लगे। समय बदला और बदलता भी जा रहा है, लेकिन आज भी कहीं न कहीं, किसी न किसी के ऊपर अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने का भूत सवार हो ही जाता है, जबकि यह प्रामाणिक बात है कि सभी धर्म मानवीय हितों के संवाहक होते हैं।

आज संपूर्ण विश्व में लोग अपने अपने धर्मों की मान्यतानुसार अपना जीवन जी रहे हैं। यह एक सत्यता है कि विसंगतियों एवं सहमति-असहमतियों का क्रम आदि काल से ही शुरू हो गया था और अनादि काल तक चलता रहेगा। हमारा देश विभिन्न धर्मावलंबियों का देश है। सभी को धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त है और उसी के अनुरूप सभी जीवन जी भी रहे हैं। पूर्व के शासकों की गलतियों, दुष्प्रचारों एवं तानाशाही रवैये से हमारी सामाजिक सद्भावना को पूर्व में ही बहुत क्षति पहुँच चुकी है। समय व परिवेश बदलने के बावजूद आज भी लोग पूर्व की कड़वाहट, गलतियों एवं कट्टरपंथियों के अनैतिक विचारों का अनुकरण करने से नहीं चूकते। आज भी हमें कहीं कहीं अवांछित कृत्य व व्यवहार नजर आ ही जाते हैं, जो समाज की फिजा बिगाड़ने में अहम भूमिका का निर्वहन करते हैं। अनजाने में किए गए अधार्मिक कृत्यों को क्षमा करना माननीय गुण है, लेकिन जानबूझकर अनैतिक व अधार्मिक कृत्य कभी उचित नहीं हो सकते।

यह सभी जानते हैं कि हमारे सनातन धर्म में मूर्ति पूजा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। गाय को माता का दर्जा दिया गया है और उसकी पूजा की जाती है। ईश्वर का नाम श्रद्धा, आदर और पवित्रता के साथ लिया जाता है, बावजूद इसके यदि हमारे देवी-देवताओं राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, लक्ष्मी आदि के नाम पर मटन शॉप खोले जाएँ, भगवान राम के नाम पर जूते चप्पलों की दुकान खोली जाए। जूते-चप्पलों पर गणेश जी अथवा अन्य देवी-देवताओं के चित्रों को छापा जाए, तब यह हिंदू धर्मावलंबियों के लिए निश्चित रूप से आपत्तिजनक बात है। लक्ष्मी के चित्र वाले पटाखे, जिनके फूटने पर उनके चिथड़े बिखरें और उनके पवित्र चित्रों को हमारे पैर रौंदें, वाकई कष्टप्रद है। अन्य देशों में भले ही गौ-मांस खाया जाता है, लेकिन आपके सामने ही माँ का दर्जा प्राप्त गाय का कत्ल किया जाए तो आत्मा आहत होगी ही।

आजकल ऐसा देखा गया है कि दुर्भावना अथवा स्वार्थवश हिंदु देवालयों के निकट मटन, शराब, बीयर बार खोल दिए जाते हैं। इसी प्रकार सद्भावना का वातवरण बिगाड़ने तथा अशांति फैलाने के उद्देश्य से देवालयों के नज़दीक अन्य धर्मावलंबियों द्वारा अपने प्रार्थना स्थलों का निर्माण करा दिया जाता है। पूजाघरों में जहाँ शांति, साधना, एकाग्रता आदि की महती आवश्यकता होती है, यह जानते हुए भी कुछ असामाजिक प्रवृत्ति के लोग इन स्थलों के पास ध्वनि विस्तारकों, विभिन्न व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक, सांगीतिक तथा अन्य तरह के कार्यक्रमों द्वारा अशांति, अव्यवस्था एवं शोरगुल किया जाता है, ऐसी बातें भी अक्सर प्रकाश में आती रहती हैं। शरारती तत्त्वों द्वारा मूर्तियों व देवालयों को खंडित करने, तोड़फोड़ करने, अपवित्र करने आदि की घटनाएँ अक्सर देखने और सुनने में आती रहती हैं। विघ्नसंतोषियों द्वारा पूजाघरों में मांस, वर्जित सामग्री, अपवित्र सामग्री आदि फेंकने तथा धर्म स्थलों में मारपीट, दंगे-फसाद की वारदातें भी यदा-कदा दिखाई दे जाती हैं। चोर, झूठ बोलने वाले, दारूखोरों द्वारा भी मूर्तियों, दानपेटियों व देवी-देवताओं के आभूषणों की चोरी के मामले भी देखे जाते हैं। ये कृत्य किसी भी धर्मावलम्बी द्वारा किए जाएँ शर्मनाक व अधार्मिक ही कहलाएँगे।

आजकल देखा गया है कि कुछ लोग सार्वजनिक मंचों से देवी-देवताओं का, उनके स्वरूप, उनके कार्यों आदि का उल्लेख करते हुए उनका माखौल उड़ाते हैं। उन पर अशोभनीय टिप्पणियाँ करते हैं। उन पर केंद्रित अमर्यादित चुटकुले सुनाते हैं। प्रहसन, मंचन, चलचित्रों तक में धार्मिक आख्यानों को तोड़-मरोड़ कर हमारी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले निंदनीय दृश्य प्रस्तुत किए जाते हैं, जो किसी भी तरह से उचित नहीं हैं। हमें कष्ट तो तब होता है जब श्रोतागण, पाठक अथवा दर्शक बजाय विरोध करने के उन बातों पर मजा लेते हैं, जबकि होना यह चाहिए कि उनका विरोध किया जाए और उन गतिविधियों को तत्काल प्रभाव से बंद किया जाए जो हमारी धार्मिक भावनाओं को आहत करते हैं। यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि ये चतुर-चालाक लोग कानून एवं तर्कों का हवाला देते हुए इन सभी बातों को सही सिद्ध करने की भरपूर कोशिश करते हैं। वहीं कानूनविद कानून के वशीभूत होते हैं और कानून की मंशा का ध्यान में न रखने हेतु विवश रहते हैं। कानून के शब्द हमारे संविधान में पत्थर की लकीर जैसे हैं। ऐसे कानूनों की आड़ में ही अनगिनत अपराध और अनैतिक कार्य खुलेआम किए जाते हैं और आम आदमी मुँह ताकता रह जाता है। स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के नाम पर कानूनों की भावना के विपरीत लोगों का अनर्गल प्रलाप मानवता के लिए कदापि उचित नहीं है हो सकता।

हम सभी जानते हैं कि आज से सौ दो सौ साल पूर्व जो बातें समाज में मान्य थीं, वर्तमान के समाज ने उन्हीं बातों को अमान्य कर दिया है, इसलिए युग, समय और बदलते परिवेश के चलते तत्कालीन धर्मग्रंथों में लिखी गईं उन बातों का विरोध भी तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि हम आज के रचयिता से तो रूबरू हो सकते हैं, लेकिन प्राचीन ग्रंथों के रचयिताओं ने तो उन्हीं बातों का उल्लेख किया है, जो उस समय प्रचलन में रहीं और समाज में जिन्हें मान्यता प्राप्त थी। इसी तरह संयुक्त परिवार, वर्णप्रथा, जातिगत कर्म, छूत-अछूत भी है, जिन्हें आज नकारा जा चुका है। अब तो लिंगभेद, खून के रिश्ते, त्याग, समर्पण, पड़ोसी-धर्म, सच्चाई, न्याय, शिष्टाचार सभी कुछ अवसरवादिता पर आधारित हो गए हैं।

आज के जमाने में पिछड़े क्षेत्रों व ख़ासतौर पर अशिक्षित लोगों को धन, नौकरी, छोकरी व विभिन्न तरह से मदद के नाम पर बरगलाया जाकर धर्मांतरण कराया जाने लगा है। ये बातें अक्सर समाचारों में आती रहती हैं और इनकी सत्यता भी उजागर हो चुकी है। कुछ अन्य धर्मों के युवक छद्म हिंदु नाम रख लेते हैं और हिंदु लड़कियों को सतरंगी सपने दिखाकर उनसे विवाह ही इसलिए करते हैं कि उनके धर्मावलंबियों का दायरा बढ़े। बाकायदा इसके लिए उन्हें उनके संगठनों से पैसा भी प्राप्त होता है, ऐसा सुना गया है। यह भी देखा गया है कि दूसरे धर्मावलंबी तरह-तरह से धार्मिक परचे निकालते हैं,जो उनके धर्म को श्रेष्ठ बताते हुए उस धर्म को अपनाने की बात की जाती है। अपने सामुदायिक भवनों, शिक्षालयों व धार्मिक स्थानों पर ऐसे कार्यों हेतु प्रशिक्षण भी दिया जाता है। कानून को ठेंगा दिखाकर हमारी आँखों के सामने सब कुछ होता रहता है। अपने धर्म की आड़ में दूसरे धर्म की आलोचना से आज की पीढ़ी को दिग्भ्रमित किया जाना चिंताजनक विषय बन गया है।

इस तरह हम देखते हैं कि जब आज के प्रगतिशील युग में नवयुवक देश-विदेश में अपने बुद्धि-कौशल से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर रहे हैं। उन्हें अपनी, अपने परिवार व अपने देश की प्रगति का जुनून सवार है। आज के परिवेश में कहा जाए कि जब से युवा पीढ़ी देश और धर्म से ऊपर उठकर अपना अस्तित्व बनाने में लगी है, तब उसी पीढ़ी को कुछ धूर्त, आतताई, कट्टरपंथी और अवसरवादी लोग दिग्भ्रमित करें यह कदापि बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। सर्वधर्म-समभाव की भावना को जन-जन में जगाना चाहिए। सभी धर्मों के लोगों को अन्य धर्मों का सम्मान करना चाहिए। दूसरी ओर अराजक तत्त्वों को भी इतना भान होना चाहिए कि आज के बदलते समय में उनके कृत्य अब ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध नहीं हो पाएँगे। हमें अपने, अपने परिवार, अपने समाज व अपने देश के लिए ईमानदार इंसान बनना होगा। हम किसी भी धर्म के हों, हमारे आदर्श संस्कार, हमारी आदर्श शिक्षा तथा प्रेम भाईचारे का भाव ही समाज व देश में शांति का वातावरण निर्मित कर सकेगा। धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना किसी भी धर्म के लिए उचित नहीं है। यह अपराध से कम नहीं है, इसका बंद होना ही हम सभी के हित में है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

दिनांक: 6 जनवरी 2022

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गुड़ – भाग-1 ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(ई- अभिव्यक्ति में श्री राकेश कुमार जी का स्वागत है। भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से अतीत और वर्तमान को जोड़ता हुए रोचक आलेख “गुड़” की श्रृंखला  का पहला भाग।)   

☆ आलेख ☆ गुड़ – भाग -1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज स्थानीय समाचार पत्र में एक ब्रांडेड गुड़ का विज्ञापन छपा था “डॉ. गुड़” तो अचंभा लगा कि गुड़ जैसे खाद्य पदार्थ को विज्ञापन की क्या आवश्यकता आ गई ? ब्रांड का नाम ही रखना था तो “वैद्य गुड़” कर सकते थे। ये तो वही बात हो गई गुरु (वैद्य) गुड़ रह गया चेला (डॉ.) शक्कर हो गया। माहत्मा गांधी ने सही कहा था “अंग्रेज देश में ही रह जाए परंतु अंग्रेज़ी वापिस जानी चाहिए”, लेकिन हुआ इसका विपरीत अंग्रेज़ तो चले गए और अंग्रेज़ी छोड़ गए।

देश में हापुड़ को गुड़ की मंडी का नाम दिया गया है। दक्षिण भारत में तो अंका पली का डंका बजता हैं। उत्तर भारत को सबसे बड़ा आई टी केंद्र गुरुग्राम भी तो गुड़ का गांव (गुड़गांव) ही था। कुछ वर्ष पूर्व दैनिक पेपर में अनाज और अन्य जिंसों की भाव तालिका प्रतिदिन छपा करती थी, आज की युवा पीढ़ी क्रय करने से पूर्व मूल्य पर कम ही ध्यान देती हैं।

हर चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती है, यही बात शक्कर (चीनी) पर भी लागू होती है। गुड़ सोना है,और चीनी चांदी है। हालांकि ये बात शुगर लॉबी वालों को हज़म नहीं होगी, उनके निज़ी स्वार्थ जो  जुड़े हैं। खांडसारी कुटीर उद्योग को तो शुगर इंडस्ट्री कब का चट कर गई।

अब लेखनी को विराम देता हूँ, गुड़ की चाय पीने के बाद दूसरा भाग लिखूंगा।

अगले सप्ताह पढ़िए गुड़ की चाय पीने के बाद का अगला भाग ….. 

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 121 ☆ अहम् और अहंकार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 121 ☆ अहम् और अहंकार ?

प्रबोधन और व्याख्यान के लिए विभिन्न समुदायों के बीच जाना होता रहता है। प्रायः हर मंच से कहा जाता है कि फलां समुदाय या वर्ग की एकता देखो, पर हम ऐसी केकड़ा प्रवृत्ति के हैं कि हमारा वर्ग कभी एक नहीं हो सकता। जबकि सत्य यह है कि कोई भी समुदाय इसका अपवाद नहीं है। अलबत्ता अहंकार की अधिकता व्यक्ति विशेष को सर्वग्राही, सर्वमान्य बनने से रोकती है।

सिक्के का दूसरा पहलू है कि अहम्‌ के भाव के बिना कोई प्रगति कर भी नहीं सकता। यहाँ ‘अहम्‌’ का संदर्भ अपने अस्तित्व के प्रति सचेत रहने, अपने पर विश्वास रखने से है। तथापि ‘अति सर्वत्र वर्ज्येत’, यहाँ भी लागू होता है। इस अहम् को विस्तार न दें, आकार न दें। यह ऐसा ही है जैसे थोड़ी सी आग से हाथ सेंककर ठंड दूर कर ली जाए या भोजन बना लिया जाए, पर आग यदि बढ़ जाए, अलाव दावानल में बदल जाए तो उसमें व्यक्ति स्वयं ही भस्मीभूत हो जाएगा। अहम्‌ को आकार देना ही अहंकार है, इससे बचें।

फिर अहंकार भी किसलिए ! नीति कहती है कि हर मूल का मूल पहले से ही मौजूद है। सृष्टि में मौलिक कुछ भी नहीं है। जो बात हमने आज जानी, वह हम से पहले लाखों जानते थे, हमारे बाद करोड़ों जानेंगे। अपने ज्ञान की तुलना यदि हम अपने अज्ञान से करें तो कथित ज्ञान स्वयं ही लज्जित हो जाएगा, उसका आकार बहुत छोटा हो जाएगा, अतः आवश्यक है-अहंकार का निर्मूलन।

कबीर लिखते हैं-

जब मैं था तब हरि नाहिं, अब हरि हैं मैं नाहिं,
प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समाहिं।

अहंकार होगा तो हरि कैसे मिलेंगे, यदि हरि नहीं मिलेंगे तो अज्ञान का तम कौन हरेगा? मनुष्य के हाथ में कर्म तो है पर फल की निष्पत्ति उसके बस में नहीं।

समय के कुप्रबंधन के शिकार प्रायः कहते हैं, ‘आज इतना व्यस्त रहा कि भोजन के लिए समय ही नहीं रहा।’ अर्थात्‌ सारी भाग-दौड़ के बाद भी उस दिन भोजन पाना या ना पाना उसके हाथ में नहीं है। ‘मैं’ की अति व्यक्ति को दृष्टिहीन-सा कर देती है। वह कर्म का नियंता और उपभोक्ता भी खुद को ही समझने लगता है।

किसी नगर में एक साधु आए। नगरसेठ ने मुनीम के हाथ उस दिन के भोजन का निमंत्रण भेजा। नगरसेठ के यहाँ काम करते-करते मुनीम की ज़बान पर अहंकार चढ़ गया था। जाकर साधु से कहा,”आपको आजका भोजन हमारे सेठ खिलायेंगेे।” साधु फक्कड़ था, कहा,”अपने सेठ से कहना आज तो तू खिला रहा है, कल कौन खिलायेगा?” मुनीम ने सारा किस्सा जाकर सेठ को सुनाया। सेठ बुद्धिमान और विनम्र था। सारी बात समझ गया। स्वयं साधु के पास पहुँचा और हाथ जोड़कर बोला,” महाराज कल जिसने खिलाया था, आज भी वही खिला रहा है और आनेवाले कल भी वही खिलायेगा। मुझे तो उसने आज के लिए निमित्त भर बनाया है।”

मनुष्य के लिए अपनी इस नैमित्तिक स्थिति को समझना ज़रूरी है। पथिक यदि यह मान ले कि वह नहीं चलेगा तो पगडंडी कहीं जाएगी ही नहीं, वहीं पड़ी रहेगी, तो इससे बड़ी नादानी कोई नहीं।

धन, प्रसिद्धि, रूप आदि का संचय व्यक्ति को बौरा देता है। लोग बटोरकर बड़ा होना चाहते हैं। विनम्रता से कहना चाहता हूँ, “बाँटकर देखो, जितना बाँटोगे, अहंकार घटेगा। जितना अहंकार घटेगा, उतना तुम्हारा कद बढ़ेगा।”… विश्वास न हो तो प्रयोग करके देख लो।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ज़िंदगी का एलबम ☆ डॉ निशा अग्रवाल

डॉ निशा अग्रवाल

☆ आलेख – ज़िंदगी का एलबम ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

आज की इस रफ्तार दुनिया मे हम सभी इतने खो से गए है कि हमे खुद का ख्याल तक नही। बस भाग ही भाग रहे है उस दिशा में जिसे हम ठीक से जानते तक नही। आखिर क्यों?

क्योंकि सभी भाग रहे है तो हम भी भाग रहे है कि कहीं हम पीछे ना रह जाएं,कहीं हमसे कुछ पीछे ना छूट जाए।

अरे!उसका क्या जो वास्तव में हमसे बहुत पीछे छूट गया जैसे हमारी यादें, जीवन के कीमत पल, संघर्ष, सुख-दुख के भाव और ना जाने ऐसे कितने लोग, जो कभी इस दुनिया मे लौट कर नही आएंगे।

उदासी सी छा जाती है, मन भावुक सा हो उठता है जब भी उन यादों ,उन पलों,उन व्यक्तियों के बारे में सोचती हूँ।कभी मन फूट -फूट कर रोने को करता है तो कभी मुस्कराने लग जाती हूँ।जब भी उन पलों को याद करती हूँ ,तो अहसास करती हूँ जैसे ज़िंदगी मे बहुत कुछ खो दिया है।

एक दिन अलमारी साफ करते वक्त मुझे पुरानी तस्वीरें, एक नोटबुक के अंदर चिपकी हुई मिली।क्योंकि उस वक्त ना मोबाइल और ना ही सेल्फी ।

लेकिन आज के समय मे हम प्रतिदिन स्वयं को बदलने की चेष्टा में रहते हैं।रोज़ स्टेटस बदलते है तो रोज़ सेल्फी के पात्र बदलते है।

मेरे मन मे बार बार यही ख्याल आता है कि क्या हमारी यादें समय के साथ बदल सकती है? नही ना,

नई यादें तो पुरानी यादों के साथ जुड़ जाती है लेकिन पुरानी यादें कभी समय मे घुलकर कभी खत्म नही होती।

ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों का ये अदभुत एलबम रिश्तों को संजोकर रखता है।जब भी उन एलबम को खोलती हूँ तो यादों की ढेर सारी तितलियां मेरे आस- पास उड़ने लगती है।

आज का युग डिजिटल और रंगीन हो गया है।जब मर्ज़ी आयी एलबम से किसी को भी उड़ा दिया जाता है और किसी को भी जोड़ दिया जाता है।रिश्ते एवं अहसासों में  यूँ मानो कि कृत्रिमता आ गयी है।

ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों में नेचुरल / प्राकृतिक मुस्कराहट दिखाई देती थी ,लेकिन आज ज़माना रंगीन जरूर हो गया है,लेकिन चेहरे पर सिर्फ खोखली मुस्कराहट की छवि ही नज़र आती है।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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