हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बूट पालिश ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(ई- अभिव्यक्ति में श्री राकेश कुमार जी का स्वागत है। भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से अतीत और वर्तमान को जोड़ता हुआ एक आलेख – “बूट पालिश”.)   

☆ आलेख ☆ बूट पालिश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पच्चास के दशक में फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर साहब ने इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया था। गरीब परिवार के लड़के इस सेवा से धनोपार्जन कर जीवनयापन करते हैं, ऐसा हमारी फिल्मों में  दिखाया जाता है। आज कल तो गायन या नृत्य के अनेक टीवी प्रतियोगी भी बूट पालिश के बैक ग्राउंड से आते हैं। ऐसा बताने से जनता की सहानभूति भी वोटों में परिवर्तित हो जाती है। सदी के महानायक ने भी एक फिल्म यही कार्य करते हुए जमीन पर फेंके हुए पैसे उठाने से मना कर दिया था, वो डायलॉग आज भी लोगों की जुबां पर रहता है।

ऐसा कहा जाता है कि किसी भी व्यक्ति का सबसे पहला प्रभाव उसके जूतों से ही पड़ता है। साठ के दशक में “बिल्ली” नाम की शू पालिश चला करती थी। ब्लैक और ब्राउन दो रंग होते थे। हमारे देश में अंग्रेज अपने साथ इसे लाए थे। बाद में क्रीम पालिश भी आ गई थी। हमारे जैसे जिन्होंने शीत ऋतु में भी चेहरे पर सरसों के तेल लगा कर जीवन काट लिया हो, वो क्या जाने जूते वाली क्रीम के बारे में ?

रेलवे स्टेशन और प्रमुख बाजारों में पालिश करने वाले क्रमबद्ध बैठ कर पालिश पालिश पुकार कर ग्राहकों को आकर्षित करते थे। शादी के कार्यक्रम में भी इनकी सेवाएं ली जाती थी। दक्षिण मुम्बई के चर्चगेट लोकल स्टेशन पर आज भी पालिश वाले अपने बक्से पर ब्रश स ठक-ठक कि आवाज़ से जनमानस को अपनी और आकर्षित करने में सक्षम हैं। विगत कुछ वर्षों से बूट पालिश में चेरी ब्लॉसम नामक  ब्रांड ही चल रहा है।

परिवर्तन के दौर से बूट पालिश भी अछूता नहीं है। विगत तीन दशकों से कपड़े (स्पोर्ट्स) और रबर के जूते प्रचलन में आ जाने से इसके उपयोग में भी कमी आ गई है। लेकिन वर्दीधारी सेवा में इसका उपयोग यथावत जारी है। कुछ समय पूर्व तरल पालिश को भी अजमाया गया था, जिसका उपयोग सरल है। लेकिन ये भी उपभोक्ता पर पकड़ नहीं बना सकी। कुछ बड़े होटलों, अतिथि ग्रहों में बूट पालिश की मशीन लग जाने से इस रोज़गार में कार्यरत लोगों के लिए कठिनाइयां हो गई है।

शायद मैन और मशीन में मशीन हमेशा आगे निकल जाती है।

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 120 ☆ भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 120 ☆ भोर भई ?

मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बायीं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाहिनी ओर सड़क सरपट दौड़ रही है।  महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!

अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ  नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक  ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’

इहलोक के रेले में आत्मा और देह का सम्बंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।

अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का कल से आरम्भ हुआ यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 114 ☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 114 ☆

☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद

‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।

हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है,  उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।

‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।

हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?

वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।

सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।

‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।

इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।

‘कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।

हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।

सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 65 ☆ लोक एवं निजी संपत्ति के नुकसान पर अंकुश ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “लोक एवं निजी संपत्ति के नुकसान पर अंकुश।)

☆ किसलय की कलम से # 65 ☆

☆ लोक एवं निजी संपत्ति के नुकसान पर अंकुश ☆

अपना हक लेना यह सब का अधिकार है। हमें व्यक्तिगत रूप में और सामूहिक रूप में सरकार तथा निजी संस्थानों से हक प्राप्त करने की कानूनी पात्रता है।  कानून, पद, योग्यता, पैतृक संपत्ति हस्तांतरण आदि के आधार पर प्राप्त शक्ति अथवा अधिकार से हमें कोई वंचित नहीं कर सकता। युगों-युगों से मानव अधिकार के लिए लड़ता आया है। हक की ही लड़ाई पांडवों ने लड़ी थी। यही कारण है कि आज भी समाज में न्यायालयों का सम्मान किया जाता है।

एक समय था जब धरने, हड़तालें, अनशन, प्रदर्शन, आंदोलन अथवा विरोध बड़ी शांति पूर्वक किए जाते थे। पहले लोगों के व्यक्तिगत, शासकीय अथवा निजी मामले आपसी वार्तालाप, मोहल्ले, पंचायतों अथवा न्यायालयों के माध्यम से निपट जाया करते थे। लोग इन पर विश्वास भी करते थे, लेकिन धीरे-धीरे शिक्षा, स्वतंत्रता, मूल अधिकारों के गलत प्रयोग, राजनैतिक वर्चस्व के चलते हक और अधिकारों की लड़ाई में निजी तथा शासकीय संपत्तियों को क्षति पहुँचाने, तोड़फोड़ करने, इमारतों, वाहनों, कार्यालयों में आग लगा देने जैसी घटनाओं को लोग अंजाम  देने लगे। स्वार्थवश, संप्रदाय, स्थानीय, प्रदेशीय, देशीय, धार्मिक अथवा अन्य घोषित माँगों के लिए भी अधिकारों व स्वतंत्रता का हवाला देकर ये विरोध, प्रदर्शन, आंदोलन आदि होने लगे। इनके नारे भी जोशीले हुआ करते हैं-

‘चाहे जो मजबूरी हो, माँग हमारी पूरी हो’

‘तानाशाही नहीं चलेगी, नहीं चलेगी’ अथवा ‘जो हमसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा”

इन परिस्थितियों में भीड़ का फायदा उठाकर, आक्रोश अथवा जोश में आकर आंदोलनकारी असंवैधानिक तरीके से तोड़-फोड़ व आगजनी भी करने लगे। हत्याएँ,  दुर्घटनाएँ, गोली चालन जैसी वारदातें होने लगीं, जो निश्चित रूप से हक या अधिकार की लड़ाई में कदापि उचित नहीं है। जब अधिकार माँगने वाला या अधिकार देने वाला ही दुनिया में नहीं रहेगा तो, ऐसे आंदोलनों अथवा प्रदर्शनों का कोई औचित्य नहीं है।

निसंदेह स्वतंत्रता के पश्चात हमें अपना देश और अधिकार की सौगात मिली है। इसका लाभ भी सभी को मिला है, लेकिन इन कृत्यों से हुई अकूत सरकारी क्षति क्या निंदनीय नहीं है? हमारे ही पैसों से बनी संपत्ति को हम ही नष्ट करें, यह कितनी दुःखद बात है। सरकारें आती-जाती रहेंगी, लेकिन चाहे जब लाखों-करोड़ों की संपत्ति नष्ट होते रहना तो सबके लिए कष्टप्रद होगी ही।

देर आयद, दुरुस्त आयद कहावत को चरितार्थ करते हुए भला हो उन कानूनविदों और  कुछ सरकारी नुमाइंदों का, जिनकी सक्रियता से हम ऐसे नुकसान की रोक-थाम हेतु ऐसा सकारात्मक कदम आगे बढ़ा पाए। इसे अभी हम शुरुआत ही मानें क्योंकि देश में हमारे मध्यप्रदेश को मिलाकर अभी मात्र छह ही ऐसे राज्य हैं जिन्होंने इन असंवैधानिक कार्यों के विरुद्ध यह विधेयक बनाया है। इस विधेयक के अन्य प्रदेशों में सुखद परिणाम भी दिखाई देने लगे हैं। मध्यप्रदेश की विधानसभा ने दिसंबर 2021 में इस विधेयक को पारित कर दिया है, जो ‘मध्यप्रदेश लोक एवं निजी संपत्ति को नुकसान का निवारण व नुकसानी की वसूली विधेयक 2021’ के नाम से जाना जाएगा।

इस कानून के अंतर्गत धरना, जुलूस, हड़ताल, बंद, दंगा या व्यक्तियों के समूह द्वारा पत्थरबाजी, आग लगाने या तोड़फोड़ से सरकारी या निजी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने पर अब उनसे इसकी क्षतिपूर्ति कराई जाएगी। इसके अतिरिक्त उन लोगों को भी इस कानून के दायरे में लिया गया है जो उक्त कृत्य करने के लिए उकसाने या ऐसे कार्यों को करने हेतु प्रेरित करते हैं। इस विधेयक में नुकसान हुई राशि की दोगुनी रकम तक वसूले जाने का प्रावधान है। राशि के भुगतान न हो सकने की स्थिति में ऐसे लोगों की चल-अचल संपत्ति की नीलामी करने का अधिकार भी सरकार के पास होगा।

इस तरह हम कह सकते हैं कि अब उपरोक्त होने वाले नुकसान में रोक संभव हो सकेगी। ऐसे उन सभी कृत्यों में भी लगाम लगेगी, जिनसे निजी अथवा शासकीय संपत्तियों को नुकसान होता है।

अब बदले हुए परिवेश में अधिकार माँगने वालों के बदले-स्वर कितने प्रभावी होंगे? यह भी देखना होगा कि उक्त प्रदर्शनों, धरना विरोधी आंदोलनों का स्वरूप क्या होता है? विचारणीय बिंदु यह भी है कि अब निजी संस्थानों और सरकारी नुमाइंदों की सोच में भी बदलाव आता है अथवा नहीं। शांतिप्रिय आंदोलनों अथवा विरोध की गतिविधियों पर अब त्वरित निर्णय लेने हेतु ऊपर बैठे लोगों की नैतिक जवाबदेही बन गई है। वहीं जनता और भीड़ के संयम की पराकाष्ठा न चाहते हुए भी कुछ अप्रिय करने पर बाध्य न हो जाए, इसलिए अब दोनों पक्षों के मध्य संवादहीनता अथवा असहमति के बचाव हेतु एक समन्वय मंडल की भी आवश्यकता है जो उभय पक्षों के तथ्यों की जानकारी लेकर समन्वय स्थापित करा सके।

देश हमारा है। सरकार हमारी है और लोग भी अपने हैं। इसलिए जनता, प्रशासन और निजी संस्थानों को आपसी सौहार्दपूर्वक सबके अधिकारों और हक का ध्यान रखते हुए उक्त विधेयक के अनुरूप आगे बढ़ना चाहिए।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 136 ☆ आलेख – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय आलेख ‘साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका ’ । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 136 ☆

? आलेख – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका ?

वास्तव में साहित्य निरंतर साधना है. नियमित अभ्यास से ही लेखन में परिष्कार परिलक्षित होता है. रचनाकारों के लिये साहित्यिक संस्थायें स्कूल का कार्य करती हैं. अलग अलग परिवेश से आये समान वैचारिक पृष्ठभूमि के लेखक कवि मित्रो से मेल मुलाकात, पठन पाठन की सामग्री के आदान प्रदान, साहित्यिक यात्राओ में साथ की अनुभूतियां वर्तिका जैसी सक्रिय साहित्यिक संस्थाओ की सदस्यता से ही संभव हो पाती हैं.  एक दूसरे के लेखन से रचनाकार परस्पर प्रभावित होते हैं. नई रचनाओ का जन्म होता है. नये संबंध विकसते हैं. तार सप्तक से सामूहिक रचना संग्रह उपजते हैं. वरिष्ठ साहित्यकारो के सानिध्य से सहज ही रचनाओ के परिमार्जन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है. प्रकाशको, देश की अन्य संस्थाओ से परिचय के सूत्र सघन होते हैं. साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका निर्विवाद है.

जबलपुर की गिनी चुनी पंजीकृत साहित्यिक संस्थाओ में वर्तिका एक समर्पित साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था है जो नियमित आयोजनो से अपनी पहचान बनाये हुये है. प्रति माह के अंतिम रविवार को बिना नागा काव्य गोष्ठी का आयोजन वर्तिका करती आ रही है. यह क्रम बरसों से अनवरत जारी है. पाठकीय त्रासदी से निपटने के लिये वर्तिका ने अनोखा तरीका अपनाया है, जब सामान्य पाठक रचना तक सुगमता से नही पहुंच रहे तो वर्तिका ने हर माह कविता के फ्लैक्स तैयार करवाकर, उसे बड़े पोस्टर के रूप में शहर के मध्य शहीद स्मारक के प्रवेश के पास लगवाने का बीड़ा उठा रखा है. स्वाभाविक है सुबह शाम घूमने जाने वाले लोगों के लिये यह कविता का बैनर उन्हें मिनट  दो मिनट रुककर कविता पढ़ने के लिये मजबूर करता है. नीचे लिखे मोबाईल पर मिलते जन सामान्य के  फीड बैक से इस प्रयोग की सार्थकता सिद्ध होती दिखती है. समारोह पूर्वक इस काव्य पटल का विमोचन किया जाता है, जिसकी खबर शहर के अखबारो में सचित्र सिटी पेज का आकर्षण होती है. प्रश्न यह उठा कि इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम के लिये कविता का चयन कैसे किया जावे? उत्तर भी हम मित्रो ने स्वयं ही ढ़ूंढ़ निकाला, जिस माह जिन कवियों का जन्मदिन होता है, उस माह उन एक या दो  कवि मित्रो  की कविताओ को पोस्टर में स्थान दिया जाता है.

सामान्यतः साहित्यिक आयोजनो के व्यय के लिये रचनाकार राज्याश्रयी रहा है. राज दरबारो के समय से वर्तमान सरकारो तक किंबहुना यही स्थिति दिखती है. किन्तु इस दिशा में लेकको में वैचारिक परिवर्तन करने में भी साहित्यिक संस्थाओ की भूमिका बड़ी सकारात्मक दिखती है. वर्तिका की हीबात करें तो मुझे स्मरण नही कि हम लोगो को कभी कोई सरकारी अनुदान मिला है. हर आयोजन के लिये हम लोकतांत्रिक, स्वैच्छिक तरीके से परस्पर चंदा करते हैं. इसी सामूहिक सहयोग से मासिक काव्य गोष्ठियां, वार्षिक सम्मान समारोह, साहित्यिक कार्यशालायें, वैचारिक गोष्ठियां,मासिक काव्य पटल,  साहित्यिक पिकनिक, सामाजिक दायित्वो के लिये वृद्धाश्रम, अनाथाश्रमो में योगदान, सांस्कृतिक गितिविधियां, सहयोगी प्रकाशन आदि आदि आयोजन वर्तिका के बैनर से होते आ रहे हैं. आयोजन के अनुरूप, पदाधिकारियो के कौशल व संबंधो से किंचित परिवर्तन धन संग्रह हेतु होता रहता है. उदाहरण के लिये सम्मान समारोह के लिये हम अपने संपर्को में परिचितो से आग्रह करते हैं कि वे अपने प्रियजनो की स्मृति में दान स्वरूप संस्था के नियमो के अनुरूप सम्मान प्रदान करें, और हमने देखा है कि बड़ी संख्या में हर वर्ष सम्मान प्रदाता सामने आते रहे हैं. वर्तिका ने कभी भी उस साहित्यकार से कभी कोई आर्थिक सहयोग नही लिया जिसे हम उसकी साहित्यिक उपलब्धियो के लिये सम्मानित करते हैं, यही कारण है कि वर्तिका के अलंकरण राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करते हैं. प्रकाशन हेतु मित्र संस्थानो से विज्ञापन के आधार पर आर्थिक सहयोग मिल जाता है, तो काव्य पटल के लिये जिसका जन्मदिन साहित्यिक स्वरूप से मनाया जाता है, वह प्रसन्नता पूर्वक सहयोग कर देता है, कुल मिलाकर बिना किसी बाहरी मदद के भी संस्था की गतिविधियां सफलता पूर्वक वर्ष भर चलती रहती हैं. और अखबारो में वर्तिका के आयोजन छाये रहते हैं. संरक्षक मनोनीत किये जाते हैं, जो खुशी खुशी संस्था को नियत राशि दान स्वरूप देते हैं, यह राशि संस्था के खाते में  बैंक में जमा रखी जाती है.

 कोई भी साहित्यिक संस्था केवल संस्था के विधान से नही चलती. वास्तविक जरूरत होती है कि संस्था ऐसे कार्य करे जिनकी पहचान समाज में बन सके. इसके साथ साथ संस्था से जुड़े वरिष्ठ, व युवा साथियो को प्रत्येक के लिये सम्मानजनक तरीके से प्रस्फुटित होने के मौके संस्था के आयोजनो के माध्यम से मिल सकें. यह सब  तभी संभव है जब संस्था के पदाधिकारी  निर्धारित लक्ष्यो की पूर्ति हेतु, बिना वैमनस्य के, आत्म प्रवंचना को पीछे छोड़कर समवेत भाव से संस्था के लिये हिलमिलकर कार्य करें, प्रतिभावान होने के साथ ही  विनम्रता  और एकजुटता के साथ संस्था के लिये समर्पित होना भी संस्था चलाने के लिये सदस्यो में होना जरूरी होता हैं.

एक बात जो वर्तिका की सफलता में बहुत महत्वपूर्ण है, वह है हमारे पदाधिकारियों का समर्पण भाव. अपने व्यक्तिगत समय व साधन लगाकर अध्यक्ष, संयोजक, संरक्षक ही नही वर्तिका के सभी सामान्य सदस्य तक एक फोन पर जुट जाते हैं, एक दूसरे की व्यक्तिगत, पारिवारिक, साहित्यिक खुशियो में सहज भाव से शरीक होते हैं, सदैव सकारात्मक बने रहना सरल नही होता पर संस्था की यही विशेषता हमें अन्य संस्थाओ से भिन्न बनाती है. मैं जानबूझकर कोई नामोल्लेख नही कर रहा हूं, किन्तु हम सब जानते हैं कि संस्थापक सदस्यो से लेकर नये जुड़ते, जोड़े जा रहे सदस्य, पूर्व रह चुके अध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष व अन्य पदाधिकारी सब एक दूसरे का सम्मान रखते हैं, एक दूसरे को बताकर, पूछकर, सहमति भाव से निर्णय लेकर संस्थागत कार्य करते हैं, पारदर्शिता रखते हैं, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को संस्था से बड़ा नही बनने देते, ऐसी कार्यप्रणाली ही वर्तिका जैसी सक्रिय साहित्यिक संस्था की सफलता का मंत्र है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 135 ☆ आलेख – यात्राओं के झरोखे से ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय आलेख ‘यात्राओं के झरोखे से’ । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 135 ☆

? आलेख – यात्राओं के झरोखे से ?

पर्यटन व यात्राओ को साहित्य की जननी कहा जाता है. पर्यटन के दौरान साहित्यकार का मन प्रकृति का सानिध्य पाकर स्वाभाविक रूप से उर्वर हो जाता है. नये नये अनुभव व दृश्य वैचारिक विस्फोट करते हैं. कुछ रचनाकार इस अवस्था में उपजे मनोविचारो को तुरंत बिंदु रूप में लिख लेते हैं व अवकाश मिलते ही उस पर रचना लिख डालते हैं. कुछ के मन में उपजे यात्रा जन्य विचार उमड़ते घुमड़ते हुये बड़े लम्बे अंतराल के बाद कविता, कहानी या लेख के रूप में आकार ले पाते हैं, तो अनेक बार मन में ही रचना का गर्भपात भी हो जाता है. यह सब कुछ लेखकीय संवेदनाये हैं. राहुल सास्कृत्यायन जी को घुमक्ड़ी साहित्य का बड़ा श्रेय है.डॉ नगेन्द्र, महादेवी वर्मा के यात्रा साहित्य भी चर्चित हैं । इधर यात्रा साहित्य के क्षेत्र में कुछ नवाचारी प्रयोग भी किये गये हैं. लेखक समूह की किसी स्थान विशेष की यात्रायें आयोजित की गईं, फिर सभी से यात्रा वृत्तांत लिखवाया गया तथा उसे पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया है,मुझे ऐसी किताबें पढ़ने व उन पर चर्चा करने  का सौभाग्य मिला है. मैंने पाया कि एक ही यात्रा के सहभागी लेखको की रचनाओ में उनके अनुभवो, वैचारिक स्तर के अनुसार व्यापक वैभिन्य था. अस्तु, इस सब के बाद भी हिन्दी का पर्यटन साहित्य बहुत समृद्ध नही है. ट्रेवेलाग की तरह की किताबों की बड़ी जरूरत है, जिससे पाठक के मन में पर्यटन स्थल के प्रति रुचि जागृत हो, उसे स्थल विशेष की अनुभूत जानकारियां मिल सकें तथा पर्यटन को बढ़ावा मिले. ऐसी पुस्तकें न केवल साहित्य को समृद्ध करती हैं, वरन पर्यटन को बढ़ावा देती हैं.

आम आदमी जो यात्रायें करता है, उसके अनुभव उस तक या वाचिक परम्परा से उसके परिवार व मित्रो तक ही सीमित रह जाते हैं, पर जब अमृतलाल वेगड़ जैसे व्यक्ति नर्मदा के किनारे भी चलते हैं तो वे अपने अनुभवों को 4 पुस्तकों में ही अभिव्यक्त नही करते वरन ढेर से कोलाज और चित्र बनाते हैं. आशय मात्र यह है कि यात्राओ का कला साहित्य को समृद्ध करने में योगदान महत्वपूर्ण है जिससे निरतंर पाठको को प्रेरणा  मिलती है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 119 ☆ सद्भावना से संभावना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 119 ☆ सद्भावना से संभावना?

मनुष्य की देह पाना, जीव की सबसे बड़ी संभावना है। इस देह को बुद्धितत्व का वरदान मिला है। इस वरदान के चलते मनुष्य अपने अस्तित्व पर विचार कर सकता है। विसंगति यह कि प्राय: यह अस्तित्वबोध गहरे नहीं उतरता। मनुष्य वस्त्र विशेष, संप्रदाय विशेष, आचार विशेष, विचार विशेष को अस्तित्व से जोड़ लेता है। अनेकदा वह जगत को ही नकारने लगता है, देह को गौण कर देता है। ध्यान देने योग्य बात है कि देह से ही अस्तित्व है। मनुष्य की देह जगत में व्याप्त पाँच तत्वों का मिश्रण है। यही कारण है कि ‘जो ब्रहमांड में, वही पिंड में!’ अस्तित्व का रनवे यही है। टेक ऑफ यहीं से करना है। रनवे से ही इंकार करोगे तो टेक ऑफ कैसे करोगे?

वस्तुत: मनुष्य तत्व का विस्तार, मनुष्य को ईश्वरीय  पथ पर ले जाने में सहायक होता है। मनुष्य तत्व से दूर रहकर जीव, ईश्वर के पथ पर जाना तो दूर, सामान्य मनुष्य भी नहीं रहने पाता।

आचार्य रामानुज के पास शिष्य होने का इच्छुक एक युवक आया। आचार्य जी ने पूछा कि वह भक्ति के पथ पर क्यों चलना चाहता है? युवक ने उत्तर दिया, “मैं ईश्वर से प्रेम करना चाहता हूँ। अपनी प्रीति ईश्वर से रखना चाहता हूँ, ईश्वर तक पहुँचना चाहता हूँ।”  आचार्य जी बोले, “यह अच्छी बात है कि ईश्वर से प्रीति तेरा उद्देश्य है। अच्छा भला बता कि जगत में तुझे किस-किससे प्रेम है, किस-किससे प्रीति है?”  युवक ने कहा, “मुझे अपने रिश्ते नातों से, अपने माता-पिता से, भाई -बहन, किसीसे किसी प्रकार की कोई प्रीति नहीं। जगत मिथ्या है, मायाजाल है। मैं इस से मुक्त होकर केवल ईश्वर से प्रीति रखना चाहता हूँ।” आचार्य जी ने गंभीर होकर कहा, “तब तो तू इस पथ पर चलने के योग्य नहीं है।” इस उत्तर से निराश हुआ युवक कुछ आक्रोश से बोला,” आचार्य जी, जगत से मुक्त होना, ईश्वर के पथ पर चलने की पहली सीढ़ी मानी जाती है। मैं उस सीढ़ी तक पहुँच चुका और आप मुझे लौटा रहे हैं।”

स्नेह भाव से आचार्य जी बोले,” ईश्वर से प्रीति करना चाहता है पर हृदय में प्रीति रखना नहीं चाहता। भीतर थोड़ी- सी भी प्रीति होगी तो उसका विस्तार परमेश्वर से प्रीति करने में हो सकता है। परंतु यदि बीज ही नहीं है अंकुर कैसे उगेगा?  अंकुर नहीं उगेगा तो पौधा कैसे बनेगा? पौधा नहीं होगा तो वृक्ष कैसे खड़ा होगा?”

इसी विचार का विस्तार करने की आवश्यकता है।  प्रेम जगत का आधार है, प्रीति जगत की नींव है। जगत से नि:स्वार्थ प्रेम करो, परमात्मा तुम्हारी परिधि में खिंचे चले आएँगे। चराचर के  कल्याण की सद्भावना, ईश्वर तक पहुँचने की संभावना बनेगी। यही संभावना आगे चलकर अन्वेषण को बाहर के बजाय भीतर मोड़ेगी, साक्षात्कार होगा और जन्म धन्य हो उठेगा। …स्मरण रहे, पल-पल बीत रहा तुम्हारा यह जन्म धन्य होने की प्रतीक्षा में है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य#113 ☆ सफलता प्राप्ति के मापदंड ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख सफलता प्राप्ति के मापदंड। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 113 ☆

☆ सफलता प्राप्ति के मापदंड ☆

अमिताभ बच्चन का यह संदेश जीवन की आदर्श राह दर्शाता है कि यदि आप जीवन में सफलता पाना और आनंदपूर्वक जीवन बसर करना चाहते हैं, तो यह पांच चीज़ें छोड़ दीजिए …सब को खुश करना, दूसरों से ज़्यादा उम्मीद करना, अतीत में जीना, अपने आप को किसी से कम आंकना व ज़्यादा सोचना बहुत सार्थक है, अनमोल है, अनुकरणीय है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी यह कहा गया है कि अतीत के गहन अंधकार से बाहर निकल, वर्तमान में जीना सीखो। जो गुज़र गया, लौट कर कभी आयेगा नहीं। सो! उसकी स्मृतियों को अपने आज को, वर्तमान को नष्ट न करने दो। रात्रि के पश्चात् स्वर्णिम भोर का स्वागत करो; उसकी ऊर्जा को ग्रहण करो। उसकी लालिमा तुम्हें ओज, बल, शक्ति व उम्मीदों से आप्लावित कर देगी। वर्तमान सत्य है, हक़ीक़त है, उसे स्वीकार्य व उपास्य समझो। जो आज है; वह कल लौटकर नहीं आएगा, इसकी महत्ता को स्वीकारो। अतीत में की गई ग़लतियों से शिक्षा ग्रहण करो… उन्हें दोहराओ नहीं, यह सर्वश्रेष्ठ उपहार है।

जो इंसान अपने कृत-कर्मों से सीख लेकर अपने वर्तमान को सुंदर बनाता है– वह श्रेष्ठ मानव है और जो उनसे सीख नहीं लेता, पुन: वही ग़लतियां दोहराता है, निकृष्ट मानव है; त्याज्य है; निंदा का पात्र बनता है और जो दूसरों की ग़लतियों से सीख लेकर उनसे बचता है; दूर रहता है; उन्हें त्याग देता है … वह सब सर्वश्रेष्ठ मानव है। ऐसे महापुरुष महात्मा बुद्ध, महावीर भगवान, गुरु नानक, महात्मा गांधी व अब्दुल कलाम की भांति सदैव स्मरण किए जाते हैं; युग-युगांतर तक उनकी उपासना व आराधना की जाती है; उनकी शिक्षाओं का बखान किया जाता है तथा वे अनुकरणीय हो जाते हैं… क्योंकि वे सदैव सत्कर्म करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।

इसलिए ‘जो अच्छा है, श्रेष्ठ है, उसे ग्रहण करना उत्तम है और जो अच्छा नहीं है, उसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है।’ यदि हम उनकी आलोचना में अपना समय नष्ट कर देंगे, तो हमारा ध्यान उनके गुणों की ओर नहीं जाएगा और हम उस निंदा रूपी भंवर से कभी भी मुक्त नहीं हो पाएंगे। इस संदर्भ में मुझे एक महान् उक्ति का स्मरण हो रहा है, ‘यदि राह में कांटे हैं, तो उस पर रेड-कारपेट बिछाने का प्रयास करने की अपेक्षा अपने पांव में जूते पहनना बेहतर है। सो! हमें सदैव उसी राह का अनुसरण करना चाहिए, जो सुविधा- जनक हो; जिसमें कम समय व कम परिश्रम की आवश्यकता हो, न कि व्यवस्था व व्यक्ति विशेष की निंदा करना अर्थात् जो प्रकृति व परमात्मा द्वारा प्रदत्त है, उसमें से श्रेष्ठ चुनने की दरक़ार है। जो मिला है, उसमें संतोष करना अच्छा है, बेहतर है। इसके साथ-साथ गीता का निष्काम कर्म व कर्म-फल का संदेश हमारे भीतर नवीन ऊर्जा संचरित करता है तथा ‘शुभ कर्मण से कबहुं न टरूं’ का संदेश देता है। जीवन में निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, थककर बैठना नहीं चाहिए। जो लोग आत्म-संतोषी होते हैं, अर्थात् ‘जो मिला है, उसी में संतुष्ट रहते हैं, तो उन्हें  वही मिलता है, जो परिश्रमी लोगों के ग्रहण करने के पश्चात् शेष बच जाता है। अब्दुल कलाम का यह संदेश अनुकरणीय है कि जो लोग भाग्यवादी होते हैं, आलसी कहलाते हैं। वे नियति पर विश्वास कर संतुष्ट रहते हैं कि जो हमारे भाग्य में लिखा था, वह हमें मिल गया है।

यह नकारात्मक भाव जीवन में नहीं आने चाहिएं। यदि आप सागर के गहरे जल में नहीं उतरेंगे, तो अनमोल मोती कहां से लाएंगे? सो! साहिल पर बैठे रहने वाले उस आनंद व श्रेष्ठ सीपियों से वंचित रह जाते हैं। प्रथम सीढ़ी पर कदम न रखने वाले अंतिम सीढ़ी तक पहुंचने की कल्पना भी नहीं कर पाते, उनके लिए आकाश की बुलंदियों को छूने की कल्पना बेमानी है। मुझे याद आ रही हैं, कवि दुष्यंत की वे पंक्तियां, ‘कौन कहता है/ आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’ सकारात्मकता का संदेश देती हैं। हमें मंज़िल पर पहुंचने से पहले थककर नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि बीच राह से लौटने में उससे भी कम समय लगेगा और आप अपनी मंज़िल पर पहुंच जाएंगे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘एकला चलो रे’ कविता हमें यह संदेश देती है… जीवन की राह पर अकेले आगे बढ़ने का, क्योंकि ज़िंदगी के सफ़र में साथी तो बहुत मिलते हैं और छूट जाते हैं। उनका साथ देने के लिए बीच राह में रुकना श्रेयस्कर नहीं है और न ही उनकी स्मृतियों में अवगाहन कर अपने वर्तमान को नष्ट करने का कोई औचित्य है।

एकांत सर्वश्रेष्ठ उपाय है– आत्मावलोकन का, अपने अंतर्मन में झांकने का, क्योंकि मौन नव-निधियों को अपने आंचल में समेटे है। मौन परमात्मा तक पहुंचने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है और मौन रूपी साधना द्वारा हृदय के असंख्य द्वार खुलते हैं; अनगिनत रहस्य  उजागर होते हैं और आत्मा-परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता है… यह ‘एकोहम्-सोहम्’ की स्थिति कहलाती है, जिससे मानव बाहर नहीं आना चाहता। यह कैवल्य की स्थिति है, जीते जी मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।

आइए! हम चर्चा करते हैं… स्वयं को किसी से कम नहीं आंकने व अधिक सोचने की, जो आत्मविश्वास को सर्वोत्तम धरोहर स्वीकार उस पर प्रकाश डालता है, क्योंकि अधिक सोचने का रोग हमें पथ-विचलित करता है। व्यर्थ का चिंतन, एक ऐसा अवरोध है, जिसे पार करना कठिन ही नहीं, असंभव है। आत्मविश्वास वह शस्त्र है, जिसके द्वारा आप राह की आपदाओं को भेद सकते हैं। इसके लिए आवश्यकता है, प्रबल इच्छा-शक्ति की… यदि आपका निश्चय दृढ़ है और आप में अपनी मंज़िल पर पहुंचने का जुनून है, तो लाख बाधाएं भी आपके पथ में अवरोधक नहीं बन सकतीं। इसके लिए आवश्यकता है…एकाग्रता की; एकचित्त से उस कार्य में जुट जाने की और लोगों के व्यंग्य-बाणों की परवाह न करने की, क्योंकि ‘कुछ तो लोग कहेंगे/ लोगों का काम है कहना’ अर्थात् दूसरों को उन्नति की राह पर अग्रसर होते देख, उनके सीने पर सांप लोटने लग जाते हैं और वे अपनी सारी शक्ति, ऊर्जा व समय उस सीढ़ी को खींचने व निंदा कर नीचा दिखाने में लगा देते हैं। ईर्ष्या-ग्रस्त मानव इससे अधिक और कर भी क्या सकता है? उस सामर्थ्यहीन इंसान में इतनी शक्ति, ऊर्जा व सामर्थ्य तो होती ही नहीं कि वह उनका पीछा व अनुकरण कर उस मुक़ाम तक पहुंच सके। सो! वह उस शुभ कार्य में जुट जाता है, जो उसके लिए शुभाशीष के रूप में फलित होता है। परंतु यह तभी संभव हो पाता है, यदि उसकी सोच सकारात्मक हो। इस स्थिति में वह जी-जान से अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जुट जाता है। अगर वह अधिक बोलने वाला प्राणी है, तो उसका सारा ध्यान व्यर्थ की बातों की ओर केंद्रित होगा तथा वह मायाजाल में उलझा रहेगा। यदि परिस्थितियां उसके अनुकूल न रहीं, तो वह क्या करेगा और उसके परिवार का क्या होगा और यदि उसे बीच राह से लौटना पड़ा, तो…तो क्या होगा…वह इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने में स्वयं को असमर्थ पाता है। सो! अधिक सोचना आधि अथवा मानसिक रोग है, जिससे मानव अपनी प्रबल इच्छा-शक्ति व ऊर्जा के बिना लाख प्रयास करने पर भी उबर नहीं पाता।

जहां तक स्वयं को कम आंकने का प्रश्न है… वह आत्मविश्वास की कमी को उजागर करता है। मानव असीमित शक्तियों का पुंज है, जिससे वह अवगत नहीं होता। आवश्यकता है, उन्हें पहचानने की, क्योंकि घने अंधकार में एक जुगनू भी पथ आलोकित कर सकता है… एक दीपक में क्षमता है; अमावस के निविड़ अंधकार का सामना करने की, परंतु मूढ़ मानव न जाने इतनी जल्दी अपनी पराजय क्यों स्वीकार कर लेता है। विषम परिस्थितियों में वह थक-हार कर, निष्क्रिय होकर बैठ जाता है। अक्सर तो वह साहस ही नहीं जुटाता और उस राह पर अपने कदम बढ़ाता ही नहीं, क्योंकि वह अपनी आंतरिक शक्तियों व सामर्थ्य से परिचित नहीं होता। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वरचित काव्य- संग्रह अस्मिता की पंक्तियां ‘औरत! तुझे इंसान किसी ने माना नहीं/ तू जीती रही औरों के लिए/ तूने आज तक/ स्वयं को पहचाना नहीं’ के साथ-साथ मैंने ‘नारी! तू नारायणी बन जा, कलयुग आ गया है/ तू दुर्गा, तू काली बन जा/ कलयुग आ गया है’ के माध्यम से अपनी शक्तियों को पहचानने के साथ-साथ नारी को दुर्गा व काली बनकर शत्रुओं का मर्दन करने का संदेश दिया है। इसलिए मानव को कभी स्वयं को दूसरों से कम नहीं आंकना चाहिए। यदि हम इस रोग से मुक्ति पा लेंगे, तो हम सब को खुश करने व दूसरों से ज़्यादा उम्मीद करने के चक्कर में उससे मुक्त हो जाएंगे।

‘यदि किसी व्यक्ति के शत्रु कम है या नहीं हैं, तो उसने जीवन में बहुत से समझौते किए होंगे’ उक्त भाव की अभिव्यक्ति करता है। हमें दूसरों की खुशी का ध्यान तो रखना चाहिए, परंतु अपनी भावनाओं- इच्छाओं को अपने हाथों रौंद कर अथवा मिटाकर नहीं, क्योंकि हमारे लिए आत्म-सम्मान को बरक़रार रखना अपेक्षित है। वास्तव में जो स्वार्थ हित दूसरों की खुशी के लिए कुछ भी कर गुज़रते हैं, वे चाटुकार कहलाते हैं। हमें रीतिकालीन कवियों बिहारी, केशव आदि की भांति केवल आश्रयदाताओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन नहीं करना है, बल्कि उन्हें उनके कर्तव्य-पथ से अवगत कराना है … ‘नहीं पराग नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल/ अलि कली ही सौं बंध्यो,आगे कौन हवाल’ के द्वारा बिहारी ने राजा जयसिंह को अपने दायित्व के प्रति सजग रहने का संदेश दिया था। साहित्य में जहां सबको साथ लेकर चलने का भाव समाहित है; वहीं साहित्य का सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् भाव से आप्लावित होना भी अपेक्षित है।  वास्तव में यही सामंजस्यता है।

आइए! इसी से जुड़े दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात कर लें, यदि हम बात करें कि ‘हमें दूसरों से ज़्यादा उम्मीद नहीं रखनी चाहिए क्योंकि इच्छाएं,आकांक्षाएं व  लालसाएं तनाव की जनक हैं। उम्मीद सुंदर भाव है; हमें प्रेरित करता है; परिश्रम करने का संदेश देता है तथा हमारे अंतर्मन में ऊर्जस्वित करता है तथा असीमित शक्तियों को संचरित करता है। इसके साथ ही वह स्वयं से अपेक्षा रखने का संदेश देता है, क्योंकि यदि मानव दूसरों से अधिक उम्मीद रखता है, तो उसके एवज़ में उसे अपने आत्मसम्मान का अपने हाथों से क़त्ल कर, उसके कदमों में बिछ जाना पड़ता है और कठपुतली की भांति उसके इशारों पर नाचना पड़ता है; उसके दोषों पर परदा डाल उसका गुणगान करना होता है। अनेक बार हर संभव प्रयास करने के पश्चात् भी जब हमें मनचाहा प्राप्त नहीं होता, तो हम चिन्ता व अवसाद के व्यूह से बाहर आने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। अर्थशास्त्र का नियम भी यही है कि ‘अपनी इच्छाओं को सीमित रखो और उन पर अंकुश लगाओ।’ इसके साथ यह भी आवश्यक है कि दूसरों से कभी भी उम्मीद मत रखो, क्योंकि मनचाहा न मिलने पर निराशा का होना स्वाभाविक है। मुझे याद आ रहा है वह प्रसंग, जब एक संत प्रजा के हित में राजा से कुछ मांगने के लिए गया और वहां उसने राजा को सिर झुकाए इबादत करते हुए देखा, तो वह तुरंत वहां से लौट गया। राजा उस संत के लौटने की खबर सुन उससे मिलने कुटिया में गया और उसने वहां आने का प्रयोजन पूछा। संत ने स्पष्ट शब्दों में कहा’ जब मैंने आपको ख़ुदा की इबादत में मस्तक झुकाए इल्तिज़ा करते देखा, तो मैंने सोचा– आपसे क्यों मांगूं, उस दाता से सीधा ही क्यों न मांग लूं।’ यह दृष्टांत मानव की सोच बदलने के लिए काफी है। सो! मानव का मस्तक सदैव ख़ुदा के दर पर ही झुकना चाहिए; व्यक्ति की अदालत में नहीं, क्योंकि वह सृष्टि-नियंता ही सबका दाता है, पालनहार है। इसी संदर्भ में गुरु नानक देव जी का यह संदेश भी उतना ही सार्थक है ‘जो तिद् भावे,सो भली कार’…ऐ! मालिक वही करना, जो तुझे पसंद हो, क्योंकि तू ही जानता है; मेरे हित में क्या है? यह है सर्वस्व समर्पण की स्थिति, जिसमें मानव में मैं और तुम का भाव समाप्त हो जाता है। उसे केवल ‘तू और तेरा ही’ नज़र आता है। यह है तादात्म्य की मनोदशा, जहां अहं विगलित हो जाता है… केवल उस नियंता का अस्तित्व शेष रह जाता है। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए हठयोगी हजारों वर्ष तक एक ही मुद्रा में तपस्या करते हैं और मानव इस स्थिति को पाने के लिए लख चौरासी योनियों में भटकता रहता है।

अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि बच्चन जी का यह संदेश सफलता पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है; शांत मन से जीवन जीने की कला है; मैं से तुम हो जाने का सर्वोत्तम ढंग है… उपरोक्त पांच चीज़ो का त्याग कर आप आनंदमय जीवन बसर कर सकते हैं। सो! इसमें निहित हैं–समस्त दैवीय गुण। यदि आप इस मार्ग को जीवन में अपना लेते हैं, तो शेष सब पीछे-पीछे स्वत: चले आते हैं। ‘एक के साथ एक फ्री’ का प्रचलन तो आधुनिक युग में भी प्रचलित है। यहां तो आप उस नियंता की शरण में अपना अहं विसर्जित कर दीजिए; जीवन की सब समस्याओं-इच्छाओं का स्वत: शमन हो जाएगा और मानव  ‘मैं व मेरा भाव’ से विमुक्त हो जाएगा और ‘तू ही तू और तेरा भाव में परिवर्तित हो जाएगा, जिसकी चाहत हर इंसान को आजीवन रहती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 64 ☆ क्या निस्वार्थ और निष्पक्ष चुनाव सम्भव है? ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “क्या निस्वार्थ और निष्पक्ष चुनाव सम्भव है?।)

☆ किसलय की कलम से # 64 ☆

☆ क्या निस्वार्थ और निष्पक्ष चुनाव सम्भव है? ☆

चुनाव शब्द का स्मरण होते ही सबसे पहले हमारे जेहन में मतदान, प्रत्याशी, दल और हार-जीत के भाव उभरते हैं, जबकि हम सब जीवन के पग-पग पर चुनाव करते रहते हैं। बिना चुनाव के जिंदगी चलना बहुत मुश्किल है। जीवन में चुनाव का अत्यधिक महत्त्व होता है। जीवन-साथी का चुनाव, निवास स्थान का चुनाव, पोशाकों का चुनाव, यहाँ तक कि हम मित्र के चुनाव में भी सतर्कता बरतते हैं। एक सज्जन व शाकाहारी व्यक्ति किसी सज्जन व्यक्ति को ही मित्र बनाना चाहेगा, लेकिन वह सज्जन व्यक्ति यदि मांसाहारी हो तो क्या वह उसे मित्र के रूप में चयन कर पाएगा? शायद नहीं। एक धनाढ्य प्रेमिका किसी गरीब लड़के को अपना जीवनसाथी चुनती है तो उसका चुनाव विचारधाराओं पर आधारित होता है, जबकि मानव की सदैव यही आकांक्षा होती है कि वह अधिक से अधिक सुख-संपन्न व समृद्ध हो। आशय यही है कि चुनाव में हमारी भावनाएँ, हमारे दृष्टिकोण व हमारे हित भी जुड़े होते हैं।

मेरी दृष्टि से चुनाव कभी निःस्वार्थ नहीं हो सकते। राजनीतिक चुनाव में भी विचारधाराओं की जीत अथवा हार का महत्त्व होता है। यहाँ यह बात मायने नहीं रखती कि हम निष्पक्ष व निस्वार्थ रूप से चयन प्रक्रिया संपन्न करें। हमारी स्वयं की जो विचारधारा अथवा जो दृष्टिकोण होता है हम उसका ही समर्थन करते हैं, और वही सब अपने समाज तथा व्यक्तिगत जीवन में भी चाहते हैं।

राजनीतिक चुनावों में निष्पक्षता  होती ही कहाँ है? हम तो किसी एक पक्ष को चुनते हैं। यदि आप किसी एक पक्ष के व्यक्ति हैं, लेकिन आपके विचारों व भावों वाला उम्मीदवार विपक्ष का है, तब आप किसे चुनेंगे? मुझे तो संशय है कि आप अपनी विचारधारा से मेल खाते विपक्षी उम्मीदवार को चुनेंगे! यहाँ भी आप अपने स्वार्थ को महत्त्व देंगे न कि अपनी विचारधारा को। बड़ी विडंबना है कि आज हम पक्ष और स्वार्थ दोनों के बीच ऐसे भ्रमित रहते हैं कि हमारा उचित निर्णय भी यथार्थ की कसौटी पर खरा नहीं उतरता और हम आदर्श मार्ग चुनते-चुनते रह जाते हैं।

जीवन में उचित चुनाव बेहद जरूरी होते हैं। आपका चुनाव आपकी जिंदगी बदल देता है। आप के शैक्षिक विषयों का चयन, आपके विद्यालय का चयन, आपकी नौकरी का चयन जो, शायद आपकी विचारधारा व रुचियों से मेल नहीं खाता हो फिर भी आप चुनने हेतु बाध्य हो जाते हैं। अर्थात ये चुनाव परिस्थितियों वश निष्पक्ष अथवा निःस्वार्थ हो ही नहीं पाते और यदि हम ऐसा करते हैं तो भविष्य में विकट संघर्ष की स्थितियाँ निर्मित हो सकती हैं। यही हाल संतानोत्पत्ति में संख्या व लिंग का होता है, संतानों के भविष्य निर्माण को लेकर निर्णय की होती है। बड़ी विचित्र बात है कि जब हमें अनेक अवसरों पर अपने हित-अहित का चुनाव स्वयं करना होता है, तब भी हम अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पाते! आखिर समाज में रहने की खातिर वह सब क्यों करते हैं जो एक आदर्श मार्ग की ओर ले जाने से हमें रोकता है। तब इसका हल क्या हो सकता है? तब यह जरूर कहा जा सकता है कि यह भी हमारे वश में है, बशर्ते आप ने प्रारंभ में ही शिक्षा और संस्कार प्राप्त किए हों। यदि इस दायित्व को हम अपने अभिभावकों पर भी छोड़ दें तो भी हम अपनी बालसुलभ प्रवृत्तियों के चलते कई बार सुसंस्कारों व शिक्षा को अपेक्षाकृत कम हृदयंगम कर पाते हैं। एक अन्य बात भी अक्सर देखी जाती है कि हम अपने बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ जानबूझकर नहीं उठाते। हम यह समझने की कोशिश ही नहीं करते कि हमारे बुजुर्गों ने जिन अनुभवों को प्राप्त करने में वर्षों लगाये हैं, उन्हें आधार बनाकर उसके बढ़ना चाहिए। बल्कि आप पुनः शून्य से वही प्रक्रिया प्रारंभ करते हैं जिससे आपके बहुमूल्य जीवन का एक लंबा समय जाया होता है। क्या यह  चुनाव आपकी समय बर्बादी या प्रगति में विलंब का कारण नहीं है? अधिकांशत यही नवपीढ़ी द्वारा चयन की त्रुटि बन जाती है।

आज का मानव आदर्श, नैतिकमूल्य, परोपकार, निस्वार्थता, निष्पक्षता, सौहार्दता, दायित्व निर्वहन आदि को किताबी बातें मानने लगा है। चुनाव करते वक्त आज प्रसिद्धि, लोकप्रियता, संपन्नता आदि बातों का ध्यान रखा जाने लगा है। जिन बातों से स्वार्थ सिद्ध हो उसे लोग अपना लेते हैं, भले ही वे अन्य दृष्टियों में कमतर अथवा विपरीत क्यों न हों।

तब क्या जीवन भर हमें निष्पक्ष अथवा निस्वार्थभाव से ही चुनाव करते रहना चाहिए? यदि ऐसा होता है तब समाज में तरह-तरह की विसंगतियाँ भी उत्पन्न होने की संभावनाएँ बढ़ जाएँगी। हम विपक्षी उम्मीदवार को चुनने लगेंगे। हम मनपसंद प्रेमी अथवा प्रेमिका को न चुनकर किसी और का चयन करने लगेंगे। हम निस्वार्थ भाव से नौकरी करेंगे जो इस जमाने में पागलपन ही कहलाएगा।

अंत में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परिवार, समाज और देश को चलाने के लिए हमें अपनी विचारधारा तथा निष्पक्षता में सामंजस्य बिठाना होगा, तब ही हम अपनी और अपने समाज की गाड़ी वर्तमान सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच आगे ले जाने में सफल हो सकेंगे। हमें इसमें निश्चित रूप से कुछ खोना भी पड़ सकता है। मिलने की संभावनाएँ और आशाएँ तो रहती ही हैं। कहा भी गया है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है।

इस तरह मानव जीवन में जब भी चुनाव की परिस्थितियाँ निर्मित हो तो हमें स्वयं के साथ-साथ समाज के भी हितों का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि हम स्वयं, परिवार और समाज परस्पर जुड़े हुए हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 112 ☆ प्रकृति शिक्षिका के रूप में ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  प्रकृति शिक्षिका के रूप में। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 112 ☆

☆ प्रकृति शिक्षिका के रूप में ☆

मानव व प्रकृति का संबंध अनादि व अखंड है। प्रकृति का सामान्य अर्थ है–समस्त चराचर में स्थित सभी वनस्पति,जीव व पदार्थ, जिनके निर्माण में मानव का हाथ नहीं लगा; अपने स्वाभाविक रूप में विद्यमान हैं। इसके अंतर्गत मनुष्य भी आ जाता है, जो प्रकृति का अंग है और शेष सृष्टि उसकी रंगभूमि है। सो! उसकी अन्त:प्रकृति उससे अलग कैसे रह सकती है? मनुष्य प्रकृति को देखता व अपनी गतिविधि से उसे प्रभावित करता है और स्वयं भी उससे प्रभावित हो बदलता-संवरता है; तत्संबंधी अनुभूति को अभिव्यक्त करता है। उसी के माध्यम से वह जीवन को परिभाषित करता है। मानव प्रकृति के अस्तित्व को हृदयंगम कर उसके सौंदर्य से अभिभूत होता है और उसे चिरसंगिनी के रूप में पाकर अपने भाग्य को सराहता है और उसे मां के रूप में पाकर अपने भाग्य को सराहता है।

मानव प्रकृति के पंचतत्वों पृथ्वी,जल,वायु,अग्नि, आकाश व सत्,रज,तम तीन गुणों से निर्मित है…फिर वह प्रकृति से अलग कैसे हो सकता है? जिन पांच तत्वों से प्रकृति का रूपात्मक व बोधगम्य रूप निर्मित हुआ है,वे सब इंद्रियों के विषय हैं। इन पांच तत्वों के गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ही असंख्य रूपों में मानव चेतना के कोश को कर्म, चिन्तन, कल्पना, भावना, भावुकता, संकल्प, जिज्ञासा, समाधान आदि से कितना समृद्ध किया है–इसका अनुमान मानव की उपलब्धियों से लगाया जा सकता है। प्रकृति का वैभव अपरिमित एवं अपार है। उसकी पूर्णता को न दृष्टि छू सकती है, न ही उसकी सीमाओं तक कान ही पहुंच सकते हैं और न ही क्षणों की गति को मापा जा सकता है। प्रकाश व शब्द की गति के साथ कौन दौड़ लगा सकता है? प्रकृति के अद्भुत् सामर्थ्य व निरंतर गतिशीलता के कारण उसमें देवत्व की स्थापना हो गयी तथा उसकी अतिन्द्रियता, अद्भुतता, उच्चता, गहनता आदि के कारण उसे विराट की संज्ञा प्रदान की गयी है। विराट में मानव,मानवेतर प्राणी व अचेतन जगत् का समावेश है। अचेतन जगत् ही प्रकृति है और जगत् का उपादान अथवा मूल तत्व है। वह स्वयंकृत, चिरंतन व सत्य है। उसका निर्माण व विनाश कोई नहीं कर सकता। प्रकृति के अद्भुत् क्रियाकलाप व अनुशासनबद्धता को देख कर मानव में भय, विस्मय, औत्सुक्य व प्रेम आदि भावनाओं का विकास हुआ, जिनसे क्रमश: दर्शन, विज्ञान व काव्य का विकास हुआ। सो! मानव मन में आस्था, विश्वास व आदर्शवाद जीवन-मूल्यों के रूप में सुरक्षित हैं और विश्व में हमारी अलग पहचान है। सम्पूर्ण विश्व के लोग भारतीय दर्शन से प्रभावित हैं। रामायण व महाभारत अद्वितीय ग्रंथ हैं और गीता को मैनेजमेंट गुरू स्वीकारा जाता है। उसे विश्व के विभिन्न देशों में पढ़ाया जाता है। यह एक जीवन-पद्यति है; जिसे धारण कर मानव अपना जीवन सफलतापूर्वक बसर कर सकता है।

प्रकृति हमारी गुरू है, शिक्षिका है, जो जीने की सर्वोत्तम राह दर्शाती है। प्रकृति हमारी जन्मदात्री मां के समान है और हमारी प्रथम गुरू कहलाती है और जो संस्कार व शिक्षा हमें मां से प्राप्त होती हैं, वह पाठ संसार का कोई गुरू नहीं पढ़ा सकता। प्रकृति हमें सुक़ून देती है; अनगिनत आपदाएं सहन करती है और हम पर लेशमात्र भी आँच नहीं आने देती। वह हमारी सहचरी है; सुख-दु:ख की संगिनी है। दु:ख की वेला में यह ओस की बूंदों के रूप में आंसू बहाती भासती है, जो सुख में मोतियों-सम प्रतीत होते हैं। इतना ही नहीं, दु:ख में प्रकृति मां के समान धैर्य बंधाती है।

प्रकृति हमें कर्मशीलता का संदेश देती है और उसके विभिन्न उपादान निरंतर सक्रिय रहते हैं।क्षरात्रि के पश्चात् स्वर्णिम भोर, अमावस के बाद पूनम व विभिन्न मौसमों का यथासमय आगमन समय की महत्ता व गतिशीलता को दर्शाता है। नदियाँ निरंतर परहिताय प्रवाहशील रहती हैं। इसलिए वे जीवन-दायिनी कहलाती हैं। वृक्ष भी कभी अपने फलों का रसास्वादन नहीं करते तथा पथिक को शीतल छाया प्रदान करते हैं। वे हमें आपदा के लिए संचय करने को प्रेरित करती है। जैसे जल के अभाव में वह बंद बोतलों में बिकने लगा है। बूंद-बूंद से सागर भर जाता है और जल को बचा कर हम अपने भविष्य को सुरक्षित कर सकते हैं। वायु भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। परंतु मानव की बढ़ती लालसाओं ने जंगलों के स्थान पर कंक्रीट के महल बनाकर पर्यावरण-प्रदूषण में बहुत वृद्धि की है, जिसका विकराल रूप हमने कोरोना काल में आक्सीजन की कमी के रूप में देखा है; जिसके लिए लोग लाखों रुपये देने को तत्पर थे। परंतु उसकी अनुपलब्धता के कारण लाखों लोगों को अपने प्राण गंवाने पड़े। काश! हम प्रकृति के असाध्य भंडारण व असाध्यता का अनुमान लगा पाते कि वह हमें कितना देती है? हम करोड़ों-अरबों की वायु का उपयोग करते हैं; अपरिमित जल का प्रयोग करते हैं; वृक्षों का भी हम पर कितना उपकार है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। वे कार्बन-डॉयोक्साईड लेकर हमें आक्सीजन देते हैं। इतना ही नहीं, वे हमें अन्न व फल-फूल देते हैं, जिससे हमें जीवन मिलता है।

मानव व प्रकृति का संबंध अटूट, चिरंतन व शाश्वत् है। प्रकृति विभिन्न रूपों में हमारे सम्मुख बिखरी पड़ी है। प्रकृति के कोमल व कमनीय सौंदर्य से प्रभावित होकर कवि उसे कल्पना व अनुभूति का विषय बनाता है, जो विभिन्न काव्य- रूपों में प्रकट होती है। यदि हम हिन्दी साहित्य पर दृष्टिपात करें, तो प्रकृति हर युग में मानव की प्रेरणा-शक्ति ही नहीं रही, उसकी चिर-संगिनी भी रही है। वैदिक-कालीन सभ्यता का उद्भव व विकास प्रकृति के उन्मुक्त प्रांगण में हुआ। मंत्रदृष्टा ऋषियों ने प्रकृति के प्रति जहां अनुराग व्यक्त किया, वहीं उसके उग्र,रम्य व मानवीकरण आदि रूपों को अपनाया। ऋग्वेद मानव सभ्यता का प्राचीनतम ग्रंथ है। प्रकृति के दिव्य सौंदर्य से अभिभूत होकर जहां मानव उसके उन्मुक्त सौंदर्य का बखान करता है; वहीं विराट के प्रति भय, विस्मय श्रद्धा आदि की अनुभूतियों में अनंत सौंदर्य का अनुभव करता है। वाल्मीकि का प्रकृति-जगत् के कौंच-वध की हृदय-विदारक घटना से उद्वेलित आक्रोश व करुणा से समन्वित शोक का प्रथम श्लोक रूप में प्रस्फुरण इस तथ्य की पुष्टि करता है कि भावातिरेक या अनुभूति की तीव्रता ही कविता की मूल संजीवनी शक्ति है। महाभारत में प्रकृति केवल पर्वत, वन, नदी आदि का सामान्य ज्ञान कराती है। नल दमयंती प्रसंग में वह प्रकृति से संवेदनात्मक संबंध स्थापित न कर, स्वयं को अकेला व नि:सहाय अनुभव करती है।

कालिदास को बाह्य-जगत् का सर्वश्रेष्ठ कवि स्वीकारा जाता है। उनका प्रकृति-चित्रण संस्कृत साहित्य में ही नहीं, विश्व साहित्य में दुर्लभ है। वे प्रकृति को मूक, चेतनहीन व निष्प्राण नहीं मानते, बल्कि वे उसमें मानव की भांति सुख- दु:ख व संवेदनशीलता अनुभव करते हैं। इस प्रकार अश्वघोष, भवभूति, भास, माघ, भारवि, बाणभट्ट आदि में प्रकृति का व्यापक रूप में वर्णन हुआ है।

हिन्दी साहित्य के आदिकाल अथवा पूर्व मध्य-कालीन काव्य में प्रकृति का उपयोग पृष्ठभूमि, उद्दीपन व उपमानों के रूप में हुआ। विद्यापति के काव्य में प्रकृति कहीं-कहीं उपदेश देती भासती है और आत्मा परमात्मा में इस क़दर लीन हो जाती है, जैसे समुद्र में लहर और भौंरों का गुंजन नायिका को मान त्यागने का संदेश देता भासता है। वियोग में उनका बारहमासा वर्णन द्रष्टव्य है।

पूर्व मध्यकालीन काव्य में प्रकृति उन्हें माया सम भासती है तथा उन्होंने भावाभिव्यक्ति के लिए प्रकृति के विभिन्न रूपों को अपनाया है। कबीरदास जी ‘माली आवत देखि के, कलियन करि पुकार/ फूलि-फलि चुनि लहि, कालहि हमारी बारि’ के माध्यम से मानव को नश्वरता का संदेश देते हैं। दूसरी ओर ‘तेरा सांई तुझ में, ज्यों पुहुपन में वास/ कस्तूरी का मृग ज्यों फिरि-फिरि ढूंढे घास’ के माध्यम से वे मानव को संदेश देते हैं कि ब्रह्म पुष्पों की सुगंध की भाति घट-घट में व्याप्त है, परंतु अज्ञान के कारण बावरा मानव उसे अनुभव नहीं कर पाता और मृग की भांति वन-वन में ढूंढता रहता है। प्रेममार्गी शाखा के प्रवर्त्तक जायसी के काव्य में प्रकृति के उपमान, उद्दीपन व रहस्यात्मक रूपों का चित्रण हुआ है। वे चराचर प्रकृति में ब्रह्म के दर्शन करते हैं। समस्त जड़-चेतन प्रकृति में प्रेमास्पद के प्रतिबिंब को निहारते व अनुभव करते हैं। ‘बूंद समुद्र जैसे होइ मेरा/ मा हिराइ जस मिले न हेरा।’ जिस प्रकार बूंद समुद्र में मिलकर नष्ट हो जाती है,उसी प्रकार आत्मा भी ब्रह्ममय हो जाती है।

रामभक्ति शाखा के कवि तुलसीदास की वृत्ति प्रकृति-चित्रण में अधिक नहीं रमी, तथापि उनका प्रकृति-चित्रण स्वाभाविक बन पड़ा है। प्रकृति उनके काव्य में उपमान व उद्दीपन रूप में नहीं आयी, बल्कि उपदेशिका के रूप में आयी है। संयोग में वर्षा व बादलों की गर्जना होने पर पशु-पक्षी व समस्त प्रकृति जगत् उल्लसित भासता है और वियोग में मन की अव्यवस्थित दशा में मेघ-गर्जन भय संचरित करते हैं। मानवीकरण में मनुष्य का शेष सृष्टि के साथ रागात्मक संबंध स्थापित हो जाता है और मानव उसमें अपनी मन:स्थिति के अनुसार उल्लास, उत्साह, आनंद व शोक की भावनाएं- क्रियाएं आरोपित करता है। राम वन के पशु-पक्षियों से सीता का पता पूछते हैं। तुलसी सदैव लोक- कल्याण की भावना में रमे रहे और प्रकृति से उपदेश-ग्रहण की भावना में उन पर श्रीमद्भागवत् का प्रभाव द्रष्टव्य है–’आन छोड़ो साथ जब, ता दिन हितु न होइ/ तुलसी अंबुज अंबु बिनु तरनि, तासु रिपु होइ।’ जब कुटुम्बी साथ छोड़ देते हैं, तो संसार में कोई भी हितकारी नहीं रह पाता। कमल का जनक जल जब सूख जाता है, तो उसका मित्र सूर्य भी उसे दु:ख पहुंचाता है।

कृष्ण भक्ति शाखा के अतर्गत सूर, नंददास, रसखान आदि को कृष्ण के कारण प्रकृति अति प्रिय थी। प्रकृति का आलंबन, उद्दीपन व आलंकारिक रूप में चित्रण हुआ है। वियोग में प्रकृति गोपियों को दु:ख पहुंचाती है और वे मधुवन को हरा-भरा देख झुंझला उठती हैं– ‘मधुबन! तुम कत रहत हरे/ विरह-वियोग स्याम सुंदर के ठाढ़ै,क्यों न जरे।’ कहीं-कहीं वे प्रकृति में उपदेशात्मकता का आभास पाते हैं और संसार के मोहजाल को भ्रमात्मक बताते हुए कहते हैं–’यह जग प्रीति सुआ, सेमर ज्यों चाखत ही उड़ि जाय।’ तोते को सेमर के फूल में रूई प्राप्त होती है और वह उड़ जाता है। सूर ने प्रकृति के व्यापारों का मानवीय व्यापारों से अतु्लनीय समन्वय किया है।

उत्तर मध्यकालीन को प्राकृतिक सौंदर्य आकर्षित नहीं कर पाता। बिहारी को गंवई गांव में गुलाब के इत्र का कोई प्रशंसक नहीं मिलता। केशव को प्राकृतिक दृश्यों के अंकन का अवसर मिला,परंतु वे अलंकारों में उलझे रहे। बिहारी सतसई में जहां मानवीकरण व आलंबनगत रूप चित्रण हुआ, वहीं पर नैतिक शिक्षा के रूप में अन्योक्तियों का आश्रय लिया गया है। इनके प्रकृति-चित्रण में हृदय-स्पर्शिता का अभाव है। सो! प्रकृति उद्दीपन व उपमान रूप में हमारे समक्ष है। ‘ नहीं पराग,नहीं मधुर मधु,नहीं विकास इहिं काल/ अलि कली ही सौं बंध्यौ,आगे कौन हवाल’ के माध्यम से राजा जयसिंह को सचेत किया गया है। ‘जिन-जिन देखे वे सुमन, गयी सो बीति बहार/ अब अलि रही गुलाब की, अपत कंटीली डार।’ यह उक्ति सम्पत्ति-विहीन व्यक्ति के लिए कही गयी है तथा भ्रमर को माध्यम बनाकर प्राचीन वैभव व वर्तमान की दरिद्रावस्था का बखूबी चित्रण किया गया है।

भारतेन्दु युग आधुनिक युग का प्रवेश-द्वार है और इसमें नवीन व प्राचीन काव्य-प्रवृत्तियों का समन्वय हुआ है। प्रकृति मानवीय भावनाओं के अनुरूप हर्ष-विषाद को अतिशयता प्रदान करती, वियोगियों को रुलाती तथा संयोगियों को उल्लसित करती है। इनका बारहमासा वर्णन विरहिणी की पीड़ा को और बढ़ा देता है तथा कहीं-कहीं प्रकृति उपदेश देती भासती है। ‘ताहि सो जहाज को पंछी सब गयो,अहो मन होई’ (भारतेन्दु ग्रंथावली)। अत:जीव जहाज़ के पक्षी की भांति पुन: ब्रह्म में मिलने का प्रयास करता है। बालमुकुंद जी के हृदय में प्रकृति के प्रति सच्चा अनुराग है, जो आलंबन, उद्दीपन व उपमान रूप में उपलब्ध है।

द्विवेदी युगीन कवियों ने प्रकृति को काव्य का वर्ण्य-विषय बनाया है तथा प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण किया है। श्रीधर पाठक, रूपनारायण पाण्डेय, रामनरेश त्रिपाठी आदि ने आलंबनगत चित्र प्रस्तुत किए हैं तथा स्वतंत्रतावादी कवियों ने रूढ़ रूपों को नहीं अपनाया, बल्कि जीवन के विस्तृत क्षेत्र में उसके साधारण चित्रमय, सजीव व मार्मिक रूप प्रदान किए हैं। पाठक ने कश्मीर सुषमा, देहरादून आदि कविताओं में प्रकृति के मनोरम चित्र उपलब्ध हैं। शुक्ल जी ने प्रकृति के आलंबन व त्रिपाठी ने पथिक व स्वप्न खंड काव्यों में प्रकृति का मार्मिक चित्रण किया  है। हरिऔध ने जहां ऐंद्रिय सुख की अनुभूति की, वहीं प्रकृति से उपादान ग्रहण कर नायिका के सौंदर्य का वर्णन किया है। मैथिलीशरण गुप्त जी के साकेत, पंचवटी, यशोधरा आदि काव्यों में मनोरम प्राकृतिक चित्रण उपलब्ध है। पंचवटी में प्रकृति की अपूर्व झांकी दिखाई देती है और प्रकृति मानव के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया रूप में संबंध स्थापित करती है। साकेत में प्रकृति का मानव व मानवेतर जगत् से तादात्म्य स्थापित हो जाता है। वे प्रकृति को सद्गुणों से परिपूर्ण मानते हैं– ‘सर्वश्रद्धा, क्षमा व सेवा की, ममता की वह धर्म में भी प्रतिमा/ खुली गोद में जो उसकी, समता की वह प्रतिमा।’ प्रकृति ममतामयी मां है, जो समभाव से सब पर अपना प्रेम व ममत्व लुटाती है।उपदेशिका की भांति मानव में उच्च विचार व सदाशयता के भाव संचरित करती है। वे भारतीयों में राष्ट्रीय-चेतना के भाव जाग्रत करते हुए ओजपूर्ण शब्दों में कहते हैं—‘पृथ्वी, पवन, नभ, जल, अनल सब लग रहे काम में/ फिर क्यों तुम्ही खोते हो, व्यर्थ के विश्राम में।’ कवि ने सर्वभूतों को सर्वदा व्यस्त दिखाते हुए देशवासियों को आलस्य त्यागने व जाग्रत रहने का संदेश दिया है। रामनरेश त्रिपाठी के काव्य में प्रकृति के सुंदर, मधुर, मंजुल रूप प्रकट होते हैं, उग्र नहीं। वे प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुए मानव-व्यापारों व मानव- संवेदना का आभास पाते हैं।

छायावाद में प्रकृति को स्वछंद रूप प्राप्त हुआ है और उसका उपयोग आध्यात्मिक भावों के प्रकाशन के लिए हुआ है। प्रकृति कवि की चेतना, प्रेरणा व स्पंदन है। इसलिए छायावाद को प्रकृति काव्य के नाम से अभिहित किया गया है।यदि प्रकृति को छायावाद से निकाल दिया जाए, तो वह पंगु हो जाएगा। प्रसाद ने प्रकृति में चेतना का अनुभव किया और वह मधुर, कोमल व सुकुमार भावनाओं की अभिव्यक्ति का साधन बन गयी, परंतु कवि ने कामायनी में प्रकृति के भयावह, विकराल व विराट आदि रूपों का दर्शन किया है। वे प्रकृति को सचेतन व सजीव मानकर उसमें अलौकिक सत्ता का दर्शन करते हैं तथा समस्त सृष्टि के कार्य-व्यापारों को सर्वोत्तम शक्ति द्वारा अनुप्राणित स्वीकारते हैं। प्रसाद ने संसार को रंगभूमि मानते हुए कहा है कि मानव यहां अपनी शक्ति के अनुसार संसार रूपी घोंसले में अपनी शक्ति के अनुसार ठहर सकता है, ‘शक्तिशाली विजयी भव’ का संदेश देता है। पंत प्रकृति के उपासक ही नहीं, अनन्य मित्र थे। उनके काव्य में मानव और प्रकृति का एकात्म्य हो जाता है। मधुकरि का मधुर राग उन्हें मुग्ध करता है और वे ‘सिखा दो न हे मधुप कुमारि/ मुझे भी अपने मीठे गान'(पल्लविनी)। वे प्रकृति के सहचरी, देवी, सखी, जननी आदि रूपों को काव्य में चित्रित करके उनमें अलौकिक सत्ता का आभास पाते हैं और प्रकृति उन्हें प्रेरणा प्रदान करती है।

निराला के काव्य में प्रकृति के चित्र दिव्य, समृद्ध व रहस्यात्मक रूप में आए हैं। उनके काव्य में दो तत्वों की प्रधानता है-रहस्यवाद व मानवीकरण। उनके काव्य विराटता व उदात्तता की दृष्टि से सराहनीय हैं। प्रकृति उसे सजीव प्राणी की भांति अपना रूप दिखाती, हाव-भावों से मुग्ध करती, संवेदना प्रकट करती उत्साहित करती है। इस प्रकार प्रकृति व मनुष्य का तादात्म्य हो जाता है। बादल प्रकृति को हरा-भरा कर देते हैं, जिससे प्रेरित होकर प्रकृति कर्त्तव्य- पथ पर अग्रसर होने का संदेश देती है।

महादेवी वर्मा सृष्टि में सर्वत्र दु:ख देखती हैं। प्रकृति उनके लिए सप्राण है तथा वे मानव व प्रकृति के लिए एक प्रकार की अनुभूति, सजीवता, विश्रंखलता, आत्मीयता व व्यापकता  का अनुभव करती हैं। वे संसार में प्रियतम को ढूंढती हैं । वे कभी प्रेम भाव में बिछ जाती हैं और जब प्रियतम अंतर्ध्यान हो जाते हैं, वे निराश होकर दु:ख-दैन्य भाव को इस प्रकार व्यक्त करती हैं—‘मैं फूलों में रोती, वे बालारुण में मुस्काते/ मैं पथ में बिछ जाती,वे सौरभ सम उड़ जाते।’ वे प्रकृति के चतुर्दिक प्रियतम के संदेश का आभास पाती हैं और प्रश्न कर उठती हैं — ‘मुस्काता प्रेम भरा नभ,अलि! क्या प्रिय आने वाले हैं?’ वे जीवन को संध्या से उपमित करती हैं ‘प्रिय सांध्य गगन मेरा जीवन’ ‘मैं नीर भरी दु:ख की बदली’ के माध्यम से वे प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करती हैं। वेएक ओर प्रकृति में विराट की छाया देखती हैं और दूसरी ओर अपना प्रतिबिंब पाती हैं। वै छायावाद का आधार स्तंभ-मात्र नहीं हैं, रहस्य व अरूप की साधिका रही हैं।

प्रगतिवाद भौतिकवादी दर्शन है, जिस पर मार्क्सवाद का प्रभाव था। समस्त सृष्टि का विकास दो वस्तुओं के संघर्ष से होता है, जो द्वंद्व का परिणाम है। यह वैज्ञानिक दर्शन है, जिसमें भावुकता के स्थान पर बुद्धि को स्वीकारा गया है।यह यथार्थवाद पर आधारित है। इन कवियों को जीवन से अनुरक्ति है और प्रकृति से प्रेम है।उन्होंने प्रकृति के उपेक्षित तत्वों व पात्रों को महत्व दिया है और प्रकृति उनके लिए शक्ति- प्रणेता है। वे दिन-रात व ऋतु-परिवर्तन को देख जीवन के विकास के लिए परिवर्तन-शीलता को अनिवार्य मानते हैं। इनके गीतों पर लोकगीतों कि प्रभाव द्रष्टव्य है।

प्रयोगवादी कविता में प्रकृति के भावात्मक स्वरूप का ग्रहण हुआ अबोध बालक की तरह ईश्वर, प्रकृति, जीवन-सौंदर्य के विभिन्न स्तरों पर प्रश्न करता है। इन कवियों ने जहां प्रकृति के उपेक्षित व वैज्ञानिक स्वरूपों को ग्रहण किया है,

वहीं प्रकृति में दैवीय सत्ता का आभास न पाकर , भौतिकता के संदर्भ में एक शक्ति के रूप में स्वीकारा गया है। इनका दृष्टिकोण भावात्मक न होकर, बौद्धिक है और प्रकृति के उपेक्षित स्वरूप(कुत्ता, गधा,चाय की प्याली, चूड़ी का टुकड़ा, प्लेटफार्म, धूल, साइरन) को काव्य का विषय बनाया।इन्होंने असुंदर, भौंडे, भदेस आदि में सौंदर्य के दर्शन किए तथि युगबोध के अनुकूल प्रकृति का चित्रण किया। इन्होंने जहां प्रकृति को अपनी मानसिक कुंठाओं की अभिव्यक्ति का साधन बनाया, वहां नवीन उपमानों, बिम्बों को अपने काव्य में प्रतिष्ठित किया तथा मानवीकरण कर मनोरम चित्रण किया है।

नयी कविता प्रयोगवाद का विकसित चरण है तथा इसमें उपलब्ध प्रकृति चित्रण की विशेषता है–ग्राम्य चित्रपटी की अवधारणा। नयी कविता वाद मुक्त है तथा वे जो भी मन में आता है, कहते हैं। वे क्षणवादी हैं और हर पल को जी लेना चाहते हैं,क्योंकि वे भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं हैं। उनमें एक दर्शन का अभाव है। कई बार उन्हें प्रकृति के विभिन्न रूप स्पंदनहीन भासते हैं और उन्हें अपने अस्तित्व के बारे में शंका होने लगती है। नये कवियों की विषय-व्यापकता, नया भाव-बोध तथा नवीन दृष्टिकोण सराहनीय है। सो! प्रकृति व मानव का संबंध अनादि काल से शाश्वत् व अटूट रहा है। वह हर रूप में आराध्या रही है। परंतु जब-जब मानव ने प्रकृति का अतिक्रमण किया है, उसने अपना प्रकोप व विकराल रूप दिखाया है, जो प्राकृतिक प्रदूषण व कोरोना के रूप में हमारे समक्ष है। इन असामान्य परिस्थितियों में मानव नियति के सम्मुख विवश व असहाय भासता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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