हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 478 ⇒ गंध, इत्र और परफ्यूम ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गंध, इत्र और परफ्यूम।)

?अभी अभी # 478 ⇒ गंध, इत्र और परफ्यूम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारी पांच ज्ञानेंद्रियों में से एक प्रमुख इन्द्री घ्राणेन्द्रिय भी है, जिसे हम आम भाषा में सूंघने की शक्ति अर्थात् sense of smell भी कहते हैं। गंध प्रमुख रूप से दो ही होती है, सुगंध और दुर्गन्ध ! फूलों में प्राकृतिक सुगंध होती है।

वसंत ऋतु में, पंडित भीमसेन जोशी के शब्दों में अगर कहें तो – केतकी गुलाब, जूही, चंपक बन फूले।

हम किसी भी खाद्य पदार्थ को पहले देखते हैं, फिर सूंघते हैं और उसके बाद ही चखते हैं। खुशबू दिखाई नहीं देती, सुनाई नहीं देती, लेकिन जब हवा में फैलती है तो मस्त कर देती है, मदमस्त कर देती है। एक फूल की गंध ही तो भंवरे को बाध्य करती है कि वह उसके आसपास मंडराया करे, उसका रसपान किया करे।।

गंधमादन अथवा सुमेरु पर्वत कैसा होगा, हम कल्पना भी नहीं कर सकते लेकिन जिन लोगों ने फूलों की घाटी देखी है, उन्हें उसका कुछ कुछ अंदाज हो सकता है। गंध जो आपको पागल कर दे, सुगंधित वायु युक्त मेरु ही तो शायद सुमेरु पर्वत होगा। कोई आश्चर्य नहीं, संजीवनी वटी की जगह पूरा पर्वत ही उठा लेने वाले पवनपुत्र हनुमान का ही वहां वास हो। हम तो हवाखोरी के लिए अल्मोड़ा नैनीताल, शिमला मसूरी, ऊटी मनाली और कोड़ई कनाल ही चले जाएं तो बहुत है।

वन, पर्वत और पहाड़ जहां मनुष्य का आना जाना नहीं के बराबर है, समझ में नहीं आता, वहां की गंदगी और दुर्गंध कौन साफ करता है। सभी हिंसक जीव वहां रहते हैं, जो आजादी से खुले में शौच करते हैं। वहां कोई स्वच्छता अभियान नहीं चलता, फिर भी वहां का पर्यावरण शुद्ध रहता है, हर तरफ हवा में स्वास्थ्यवर्धक ताजगी रहती है, इकोलॉजिकल बैलेंस रहता है और ओजोन की परत भी मजबूत रहती है। और जहां एक बार इस पढ़े लिखे इंसान के पांव वहां पड़े, जंगल में मंगल हो जाता है। मनुष्य अपने साथ धूल, धुआं और प्रदूषण वहां ले जाता है।

जो कभी प्राकृतिक जंगल था, धीरे धीरे कांक्रीट जंगल में परिवर्तित हो जाता है, जहां के आलीशान सभागारों और वातानुकूलित ऑडिटोरियम में पर्यावरण की सुरक्षा पर चिंता व्यक्त की जाती है, सेमिनार आयोजित किए जाते हैं।।

हमारी नाक हमेशा अपने चेहरे पर एक जगह ही होती है, फिर भी ऊंची नीची हुआ करती है। वह खुशबू और बदबू में अंतर पहचानती है। जब कोई शायर, किसी सुंदर युवती के बारे में, यह कहता नजर आता है, खुशबू तेरे बदन सी, किसी में नहीं नहीं, तो हम एकाएक यह समझ नहीं पाते कि उस भागवान ने कौन सी इंपोर्टेड परफ्यूम लगाई है।

पसीने की बदबू के अलावा हमारा लहसुन प्याज वाला तामसी भोजन, और ऊपर से मादक पदार्थों का सेवन करने के बाद, बस एक ऐसे पावरफुल परफ्यूम ही का तो सहारा होता है, जिसके कारण पार्टियों में खुशबू और रौनक फैलाई जाती है। किसी भी आयोजन के लिए पहले ब्यूटी पार्लर का श्रृंगार और बाद में परिधान पर देहाती भाषा में फुसफुस वाला परफ्यूम छिड़कने के बाद जो समा बंधता है, वह देखने लायक होता है।।

एक समय था जब हमारे सभी मागलिक कार्यों में जलपान के साथ इत्रपान की भी व्यवस्था होती थी। इत्र की शीशी से इत्र निकालकर आगंतुक मेहमानों के शरीर पर लगाया जाता था और गुलाब जल छिड़का जाता था। जीवन में अगर खुशबू नहीं तो खुशी नहीं।

मधुवन खुशबू देता है। हमारी पूजा, आराधना में भी धूप अगरबत्ती और सुगंधित पुष्पों का समावेश है। जीत हो तो पुष्पहार, जन्मदिन हो तो गुलदस्ता और मुखशुद्धि हो तो पान में केसर, इलायची, गुलकंद। खुशबू, खुशी का पर्याय है। कितना अच्छा हो, हमारी खुशी वास्तविक खुशी हो, कृत्रिम नहीं, और खुशबू भी प्राकृतिक ही हो, एक ऐसी तेज और ओजयुक्त जिंदगी, जिसमें बच्चों सी चहक और महक हो ;

ॐ त्र्यंबकम यजामहे सुगंधिं पुष्टि वर्धनम्।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 303 ☆ “नागार्जुन” की रचनाओं का उद्देश्य कब होगा पूरा ?  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 303 ☆

? “नागार्जुन” की रचनाओं का उद्देश्य कब होगा पूरा ? ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

“जब भी बीमार पड़ूं, तो किसी नगर के लिए टिकिट लेकर ट्रेन में बैठा देना, स्वस्थ हो जाऊंगा। “… अपने बेटे शोभा कांत से हँसते हुये ऐसा कहने वाले विचारक, घुमंतू जन कवि, उपन्यासकार, व्यंगकार, बौद्ध दर्शन से प्रभावित रचनाकार, “यात्री ” नाम से लिखे तो स्वाभाविक ही है. हिंदी के यशस्वी कवि बाबा नागार्जुन का जीवन सामान्य नहीं था। उसमें आदि से अंत तक कोई स्थाई संस्कार जम ही नहीं पाया। अपने बचपन में वे ठक्कन मिसर थे पर जल्दी ही अपने उस चोले को ध्वस्त कर वे वैद्यनाथ मिश्र हुए, और फिर बाबा नागार्जुन… मातृविहीन तीन वर्षीय बालक पिता के साथ नाते रिश्तेदारो के यहां जगह जगह जाता आता था, यही प्रवृति, यही यायावरी उनका स्वभाव बन गया, जो जीवन पर्यंत जारी रहा. राहुल सांस्कृत्यायन उनके आदर्श थे। उनकी दृष्टि में जैसे इंफ्रारेड… अल्ट्रा वायलेट कैमरा छिपा था, जो न केवल जो कुछ आंखो से दिखता है उसे वरन् जो कुछ अप्रगट, अप्रत्यक्ष होता, उसे भी भांपकर मन के पटल पर अंकित कर लेता… उनके ये ही सारे अनुभव समय समय पर उनकी रचनाओ में नये नये शब्द चित्र बनकर प्रगट होते रहे. जो आज साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर हैं. “हम तो आज तक इन्हें समझ नहीं पाए!”उनकी पत्नी अपराजिता देवी की यह टिप्पणी बाबा के व्यक्तित्व की विविधता, नित नूतनता, व परिवर्तनशीलता को इंगित करती है. उनके समय में छायावाद, प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, जनवादी कविता और नवगीत आदि जैसे कई काव्य-आंदोलन चले और उनमें से ज्यादातर कुछ काल तक सरगर्मी दिखाने के बाद समाप्त हो गये. पर “नागार्जुन” की कविता इनमें से किसी फ्रेम में बंध कर नहीं रही, उनके काव्य के केन्द्र में कोई ‘वाद’ नहीं रहा, बजाय इसके वह हमेशा अपने काव्य-सरोकार ‘जनसामान्य’ से ग्रहण करते रहे, और जनभावो को ही अपनी रचनाओ में व्यक्त करते रहे. उन्होंने किसी बँधी-बँधायी लीक का निर्वाह नहीं किया, बल्कि अपने काव्य के लिए स्वयं की नई लीक का निर्माण किया. तरौनी दरभंगा-मधुबनी जिले के गनौली -पटना-कलकत्ता-इलाहाबाद-बनारस-जयपुर-विदिशा-दिल्ली-जहरीखाल, दक्षिण भारत और श्रीलंका न जाने कहां-कहां की यात्राएं करते रहे, जनांदोलनों में भाग लेते रहे और जेल भी गए. सच्चे अर्थो में उन्होने घाट घाट का पानी पिया था. आर्य समाज, बौद्ध दर्शन, मार्क्सवाद से वे प्रभावित थे. मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान उनके अध्ययन, व अभिव्यक्ति को इंद्रधनुषी रंग देता है. किंतु उनकी रचना धर्मिता का मूल भाव सदैव स्थिर रहा, वे जन आकांक्षा को अभिव्यक्त करने वाले रचनाकार थे. उन्होंने हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है।

उनकी वर्ष 1939 में प्रकाशित आरंभिक दिनों की एक कविता ‘उनको प्रणाम’ में जो भाव-बोध है, वह वर्ष 1998 में प्रकाशित उनके अंतिम दिनों की कविता ‘अपने खेत में’ के भाव-बोध से बुनियादी तौर पर समान है. उनकी विचारधारा नितांत रूप से भारतीय जनाकांक्षा से जुड़ी हुई रही। आज इन दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ने पर, यदि उनके प्रकाशन का वर्ष मालूम न हो तो यह पहचानना मुश्किल होगा कि उनके रचनाकाल के बीच तकरीबन साठ वर्षों का फासला है. दोनों कविताओं के अंश इस तरह हैं

1939 में प्रकाशित ‘उनको प्रणाम’… 

… जो नहीं हो सके पूर्ण-काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय पर विज्ञापन से रहे दूर,

प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके कर दिए मनोरथ चूर-चूर! – उनको प्रणाम…

1998 में ‘अपने खेत में’… 

….. अपने खेत में हल चला रहा हूँ

इन दिनों बुआई चल रही है

इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही मेरे लिए बीज जुटाती हैं

हाँ, बीज में घुन लगा हो तो अंकुर कैसे निकलेंगे!

जाहिर है बाजारू बीजों की निर्मम छँटाई करूँगा

खाद और उर्वरक और सिंचाई के साधनों में भी

पहले से जियादा ही चौकसी बरतनी है

मकबूल फिदा हुसैन की चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक

हमारी खेती को चौपट कर देगी!

जी, आप अपने रूमाल में गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!

उनकी विख्यात कविता “प्रतिबद्ध” कि पंक्तियां…….

प्रतिबद्ध हूं/

संबद्ध हूं/

आबद्ध हूं… जी हां, शतधा प्रतिबद्ध हूं

तुमसे क्या झगड़ा है/हमने तो रगड़ा है/इनको भी, उनको भी, उनको भी, उनको भी!

उनकी प्रतिबद्धता केवल आम आदमी के प्रति है.

उनकी कई प्रसिद्ध कविताएँ जैसे कि ‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको‘, ‘अब तो बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन‘ और ‘तीन दिन, तीन रात आदि में व्यंगात्मक शैली में तात्कालिक घटनाओ पर उन्होंने गहरे कटाक्ष के माध्यम से अपनी बात कही है.

‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी‘ की ये पंक्तियाँ देखिए………….

यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो

एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो

बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो

जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!

आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!,

व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं… कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ. नागार्जुन का काव्य व्यंग्यशब्द चित्रों का विशाल अलबम है

कभी किसी जीर्ण-शीर्ण स्कूल भवन को देखकर बाबा ने व्यंग्य किया था, “फटी भीत है छत चूती है…” उनका यह व्यंग क्या आज भी देश भर के ढ़ेरों गांवो का सच नहीं है ?

अपने गद्य लेखन में भी उन्होंने समाज की सचाई को सरल शब्दों में सहजता से स्वीकारा, संजोया और आम आदमी के हित में समाज को आइना दिखाया है…..

पारो से…

“क्यों अपने देश की क्वाँरी लड़कियाँ तेरहवाँ-चौदहवाँ चढ़ते-चढ़ते सूझ-बूझ में बुढ़ियों का कान काटने लगती हैं। बाप का लटका चेहरा, भाई की सुन्न आँखें उनके होश ठिकाने लगाये रखती है। अच्छा या बुरा, जिस किसी के पाले पड़ी कि निश्चिन्त हुईं। क्वारियों के लिए शादी एक तरह की वैतरणी है। डर केवल इसी किनारे है, प्राण की रक्षा उस पार जाने से ही सम्भव। वही तो, पारो अब भुतही नदी को पार चुकी है। ठीक ही तो कहा अपर्णा ने। मैं क्या औरत हूँ? समय पर शादी की चिन्ता तो औरतों के लिए न की जाए, पुरुष के लिए क्या? उसके लिए तो शादी न हुई होली और दीपावली हो गई।……

दुख मोचन से…

पंचायत गांव की गुटबंदी को तोड़ नही सकी थी, अब तक. चौधरी टाइप के लोग स्वार्थसाधन की अपनी पुरानी लत छोड़ने को तैयार नही थे. जात पांत, खानदानी घमंड, दौलत की धौंस, अशिक्षा का अंधकार, लाठी की अकड़, नफरत का नशा, रुढ़ि परंपरा, का बोझ, जनता की सामूहिक उन्नति के मार्ग में एक नही अनेक रुकावटें थीं…..

आज भी कमोबेश हमारे गांवो की यही स्थिति नही है क्या ?

समग्र स्वरूप में ठक्कन मिसर… वैद्यनाथ मिश्र… “नागार्जुन” उर्फ “यात्री”… विविधता, नित नूतनता, व परिवर्तनशीलता के धनी… पर जनभाव के सरल रचनाकार थे. उनकी जन्म शती पर उन्हें शतशः प्रणाम, श्रद्धांजली, और यही कामना कि बाबा ने उनकी रचनाओ के माध्यम से हमें जो आइना दिखाया है, हमारा समाज, हमारी सरकारें उसे देखे और अपने चेहरे पर लगी कालिख को पोंछकर स्वच्छ छबि धारण करे, जिससे भले ही आने वाले समय में नागार्जुन की रचनायें अप्रासंगिक हो जावें पर उनके लेखन का उद्देश्य तो पूरा हो सके.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 477 ⇒ रुख और मुख ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रुख और मुख।)

?अभी अभी # 477 ⇒ रुख और मुख? श्री प्रदीप शर्मा  ?

रुख से ज़रा नकाब

उठा दो मेरे हुजूर

जलवा फिर एक बार

दिखा दो मेरे हुजूर

किस जमाने के शायर होंगे ये जो चेहरे से नकाब हटवा रहे हैं। पर्दा, हिजाब और घूंघट तक तो ठीक है लेकिन नकाब आजकल कौन पहनता है भाई। और फिर नकाब हटाकर चेहरा किसको देखना है वहां तो उन्हें जलवा देखना है। हम तो अभी तक मुजरे को ही जलवा समझते थे।

कुछ बरस पहले तक स्कूटर पर चलने वाली लड़कियां और कामकाजी नारियां कुछ इसी तरह अपना चेहरा छुपाए चलती थी। असुरक्षा जैसा कुछ नहीं था धूप की गर्मी से त्वचा को नुकसान पहुंचता था और जो कुछ ब्यूटी पार्लर का कमाल था वह पसीने में बह जाता था।।

कोरोना काल में नकाबपोश बहुत बढ़ गए थे पुरुष हो या स्त्री बालक हो या बूढ़ा। शुक्र है, अब सबके चेहरे से नकाब उठ गया है और सब तरफ अब जलवा ही जलवा है।

वैसे तो रुख चेहरे को ही कहते हैं और रुखसार को गाल। लेकिन अगर हमसे रुख, चेहरा और मुखड़ा में अंतर पूछा जाए तो हम शायद नहीं बता पाएं। अगर बातचीत का रुख ही बदल जाए तो मतलब भी शायद बदल ही जाएगा।।

कुछ कुछ ऐसा ही मुखड़े के साथ भी है। मुखड़ा क्या देखे दर्पण में, तेरे दया धर्म नहीं मन में। एक मुखड़ा गीत में भी होता है। जब भी किसी गाने की शुरूआत होती है, तो गाने की शुरूआत की पहली दो या तीन पंक्तियों को मुखड़ा कहते है। किसी भी गाने में मुखड़े को किसी भी एक पंक्ति को हर अंतरे के बाद अक्सर दोहराया जाता है। मुखड़ा खत्म होने के बाद तुरंत अंतरा शुरू नहीं होता है। मुखड़े और अंतरे के बीच संगीत का इस्तेमाल किया जाता है।

यानी सिर्फ मुखड़े यानी चेहरे की एक झलक पाने के लिए शायर ने पूरा मुखड़ा ही लिख मारा;

रुख से जरा नकाब हटा दो मेरे हुजूर।

वह चाहता तो जलवे की जगह मुखड़ा भी लिख सकता था ;

मुखड़ा फिर एक बार

दिखा दो मेरे हुजूर …

लेकिन शायर को हुजूर के मुखड़े से अधिक अपने गीत के मुखड़े की पड़ी थी, इसलिए जलवा लिखने/दिखाने पर मजबूर हो गए। हर अंतरे के बाद वही मुखड़ा, माफ कीजिए, वही जलवा।।

होते हैं कुछ अंतर्मुखी उदासीन पति, जो शायरी वायरी नहीं समझते। ना उनकी नजर हुस्न के जलवों पर जाती है और ना ही कभी अपनी खूबसूरत बीवी के चेहरे पर।

जो इंसान ही बेरुखा हो वह क्या अपनी बीवी के सुंदर चेहरे की और रुख करेगा।

शायर तो पूरी कोशिश करता है, लेकिन जिस इंसान के अरमान ही सोए हुए हों उसे कौन जगाए। है कोई ऐसा नायाब तरीका, जिससे जो बेरूखे और बदनसीब पति हैं, उनका रुख अपनी पत्नी के सुंदर मुख की ओर हो जाए

और वे भी कह उठें ;

ए हुस्न जरा जाग

तुझे इश्क जगाए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नींद ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – नींद ? ?

आँख में गहरी नींद बसती थी। फिर नींद में अबोध सपनों ने दखल दिया। आगे सपने वयस्क हो चले। वयस्कता भी कब तक टिकती! जल्दी ही सपनों से मन उचाट हो गया और चिंताओं से नींद प्रायः उचटने लगी।

समय के साथ चिंताएँ भी रूप बदलती गईं और आँखों में खालीपन भरने लगा। खालीपन के चलते नींद लगभग बेदखल हो गई। दिन फिरे और बेदखल नींद शनैः-शनैः उल्टे पाँव लौटने लगी। रात में कम, दिन में अधिक आधिपत्य जमाने लगी।

फिर एक दिन, रात-दिन की परिधि को समेटकर नींद, आँखों के साथ पूरी देह में गहरे उतर गई।

समय साक्षी है, यह नींद इतनी गहरी होती है कि इसमें जो गया, कभी उठा नहीं।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्रीगणेश साधना आज सम्पन्न हुई। पितृ पक्ष में पटल पर छुट्टी रहेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 476 ⇒ हिंदी डे ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हिंदी डे ।)

?अभी अभी # 476 ⇒ हिंदी डे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पिंकी ने स्कूल से घर आते ही अपनी माँ से प्रश्न किया, माँम, ये हिंदी डे क्या होता है ! मेम् ने हिंदी डे पर हिंदी में ऐसे essay लिखने को कहा है !

बेटा, जैसे पैरेंट्स डे होता है, वैलेंटाइन्स डे होता है, वैसे ही हिंदी डे भी होता है। इस दिन हम सबको हैप्पी हिंदी डे विश करते हैं, एक दूसरे को बुके देते हैं, और हिंदी में गुड मॉर्निंग और गुड नाईट कहते हैं। ।

मॉम, यह निबंध क्या होता है ? पता नहीं बेटा ! सुना सुना सा वर्ड लगता है। उनका यह वार्तालाप मंगला, यानी उनकी काम वाली बाई सुन रही थी ! वह तुरंत बोली, निबंध को ही एस्से कहते हैं, मैंने आठवीं क्लास में हिंदी दिवस पर निबंध भी लिखा था।

पिंकी एकाएक चहक उठी !

मॉम ! हिंदी में essay तो मंगला ही लिख देगी। इसको हिंदी भी अच्छी आती है ! मंगला को तुरंत कार्यमुक्त कर दिया गया। मंगला आज तुम्हारी छुट्टी। पिंकी के लिए हिंदी में, क्या कहते हैं उसे, हाँ, हिंदी डे पर निबंध तुम ही लिख दो न ! तुम तो वैसे भी बड़ी फ़्लूएंट हिंदी बोलती हो, प्लीज। ।

मंगला ने अपना सारा ज्ञान, अनुभव और स्मरण-शक्ति बटोरकर हिंदी पर निबंध लिखना शुरू किया। उसे एक नई कॉपी और महँगी कलम भी उपलब्ध करा दी गई थी। मुसीबत और परिस्थिति की मारी मंगला को वैसे भी मज़बूरी में पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी। लेकिन पढ़ाई में उसकी रुचि कम नहीं हुई थी। वह खाली समय में अखबार के अलावा गृहशोभा और मेरी सहेली के भी पन्ने पलट लिया करती थी।

और ” हिंदी दिवस ” पर मंगला ने बड़े मनोयोग से निबंध तैयार कर ही लिया। पिंकी और उसकी मॉम बहुत खुश हुई। पिंकी ने उस निबंध की सुंदर अक्षरों में नकल कर उसे असल बना स्कूल में प्रस्तुत कर दिया। ।

पिंकी के हिंदी डे के essay को स्कूल में प्रथम पुरस्कार मिला और मंगला को भी पुरस्कार-स्वरूप सौ रुपए का एक कड़क नोट और एक दिन का काम से ऑफ …!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पितृपक्ष में वास्तु शास्त्र से जुड़े महत्वपूर्ण सुझाव ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

☆ आलेख ☆ पितृपक्ष में वास्तु शास्त्र से जुड़े महत्वपूर्ण सुझाव ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

पितृपक्ष में वास्तु शास्त्र के अनुसार कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है ताकि घर में सकारात्मक ऊर्जा बनी रहे और पितरों की कृपा प्राप्त हो। यहाँ पितृपक्ष में वास्तु शास्त्र से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें दी गई हैं:

1. घर की सफाई और शुद्धिकरण

सफाई: पितृपक्ष में घर के हर कोने की अच्छी तरह सफाई करें, खासकर घर के उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान कोण) की। गंदगी और धूल को हटाएं क्योंकि यह नकारात्मक ऊर्जा का स्रोत हो सकती है।

शुद्धिकरण: घर में गंगा जल या गौमूत्र का छिड़काव करें। इसके अलावा, धूप, कपूर, या लोबान जलाकर घर में शुद्धि करें। इससे नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है और सकारात्मक वातावरण बनता है।

2. पितरों का स्थान

उत्तर दिशा में स्थान: पितरों की तस्वीरें या उनकी पूजा के लिए स्थान घर के उत्तर दिशा में होना चाहिए, क्योंकि यह दिशा पितरों के लिए शुभ मानी जाती है।

दीपक और अगरबत्ती: प्रतिदिन शाम के समय पितरों के स्थान पर दीपक जलाएं और अगरबत्ती लगाएं। इससे वातावरण शुद्ध और सकारात्मक रहता है।

3. प्रकाश और वेंटिलेशन

प्राकृतिक प्रकाश: घर में पर्याप्त प्राकृतिक प्रकाश और हवा का प्रवाह सुनिश्चित करें। घर के अंदरुनी हिस्सों में रोशनी की कमी न होने दें, खासकर पूजा स्थल पर।

खिड़कियां और दरवाजे: सुबह और शाम के समय खिड़कियां और दरवाजे खोलें ताकि ताजगी और सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह हो सके।

4. वास्तु दोष निवारण

दोष मुक्त करें: घर में यदि कोई वास्तु दोष हो, तो उसे पितृपक्ष के दौरान निवारण करने का प्रयास करें, जैसे कि टूटा हुआ सामान, कूड़ा-कर्कट, या बेकार सामान हटाएं।

ध्यान केंद्र: घर में पितरों के लिए एक शुद्ध और शांतिपूर्ण स्थान निर्धारित करें जहाँ नियमित रूप से ध्यान, तर्पण, और पूजा की जा सके।

5. शांति और साधना का वातावरण

शांति बनाए रखें: घर में शांति और सुकून का माहौल बनाए रखें। परिवार के सदस्यों के बीच विवाद या कलह न होने दें।

ध्यान और मंत्र जाप: नियमित रूप से पितरों के लिए मंत्र जाप और ध्यान करें, खासकर ईशान कोण में बैठकर।

6. पानी के स्रोत का ध्यान

पानी की व्यवस्था: घर में पानी का स्रोत (जैसे कि नल, टंकी) पवित्र और साफ रखें। पानी का रिसाव या नल का टपकना वास्तु दोष माना जाता है, इसे जल्द ठीक करवाएं।

7. पित्रों के लिए तर्पण स्थान

उत्तर दिशा की ओर मुख करके करें तर्पण: पितृ पक्ष में तर्पण या पिंडदान करते समय उत्तर दिशा की ओर मुख करके करें, क्योंकि यह दिशा पितरों की मानी जाती है।

8. रसोईघर और भोजन

रसोई में साफ-सफाई: रसोई घर को साफ रखें और वहां से आने वाले धुएं और गंध को बाहर जाने दें। अन्न को सम्मान दें और श्राद्ध के भोजन में शुद्धता का विशेष ध्यान रखें।

भोजन का दान: जरूरतमंदों, ब्राह्मणों या गायों को भोजन दान करें। इससे पितरों को संतुष्टि मिलती है।

9. सकारात्मक चित्र और प्रतीक

धार्मिक प्रतीक: घर में पवित्र और धार्मिक प्रतीकों (जैसे ॐ, स्वास्तिक) का प्रयोग करें। इससे सकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है।

इन सब उपायों से पितृपक्ष में वास्तु शास्त्र के अनुसार घर में सकारात्मकता बनी रहेगी और पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होगा।

मां शारदा से प्रार्थना है या आप सदैव स्वस्थ सुखी और संपन्न रहें। जय मां शारदा।

निवेदक:-

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 475 ⇒ शाही बनाम राजसी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शाही बनाम राजसी।)

?अभी अभी # 475 ⇒ शाही बनाम राजसी… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कोई शेख पीर, शेक्सपीयर बनकर कह गया है, नाम में क्या रखा है, गुलाब जल कहें अथवा देशी शराब की दुकान पर मिलने वाली मौसम्मी, और संतरा परिवार की महारानी, राजस्थान की महनसर शाही गुलाब। सोमरस और कंट्री लिकर के रहते फॉरेन लिकर का गुणगान हमें कतई पसंद नहीं।

हम नहीं मानते, नाम में क्या रखा है। मुगल राज, ब्रिटिश राज और स्वराज में जमीन आसमान का अंतर है। जो कभी जम्बूद्वीप, भारतखण्ड, हिमवर्ष, अजनाभवर्ष, भारतवर्ष, आर्यावर्त, हिन्द, और हिन्दुस्तान रहा हो, उसे हम इंडिया कैसे मान लें। अंग्रेजों ने इंडिया का बंटवारा किया, भारत का नहीं, सनातन भारत तब भी एक ही था, आज भी एक है, और सदा सर्वदा के लिए अखंड भारत ही रहेगा।।

होते होंगे कभी एक सिक्के के दो पहलू, जिसकी एक और इंडिया और दूसरी ओर भारत लिखा रहता था, अब सिक्के में हेड और टेल नहीं रहेगा, दोनों ओर भारत ही अंकित रहेगा। चित भी हमारी और पट भी हमारी।

जिस तरह कुछ शब्दों से अंग्रेजियत की बू आती है, उसी तरह कुछ शब्द ऐसे हैं, जो हमें मुगलों की याद दिलाते हैं। हम ऐसी सराय, शहर, सड़क और मोहल्लों के नाम तक बदल चुके हैं, जो हमें हमारे काले अतीत की याद दिलाता है। हमें सिर्फ अपने स्वर्णिम अतीत से ही प्रेरणा लेना है, और बीती ताहि बिसार के, आगे की सुध लेना है।।

कई बरसों से एक शब्द हमारी आंखों में खटक रहा था, लेकिन मरदूद, जबान पर भी चढ़ा था। इंसान हो अथवा भोजन, दोनों में तीन गुण होते हैं, सत, रज और तम, जिसे हम सात्विक, राजसी और तामसिक कहते हैं। ईश्वर सर्वगुण संपन्न होते हुए भी राजसी गुण प्रधान है, क्योंकि वह सभी ऐश्वर्यों का स्वामी और प्रदाता है।

राजसी सुख, और राजसी भोजन की चाह किसे नहीं होती।

लेकिन हमारी गुलाम जबान देखिए, आज भी शाही पर ही अटकी हुई है। महाकाल की भी शाही सवारी और कुंभ का भी शाही स्नान। शाही ठाठबाट और शाही भोजन। चाइनीज फूड की तरह जिधर देखो उधर शाही का ही बोलबाला, शाही कोरमा और शाही टिक्का।।

शाही व्यंजनों की बात करें तो, ऐसे व्यंजन हैं जो पहले राजघरानों में पकाए गए थे, लेकिन आज हर कोई उन्हें खा सकता है।

शाही टुकड़ा अब राजसी टुकड़ा कहलाएगा, और शाही कबाब राजसी कबाब। क्या होता है यह शाही पहनावा, क्या यह राजसी नहीं हो सकता।

सरकार हो या अफसर मंत्री और अदानी अंबानी जैसे उद्योगपति, संत, महात्मा, मंडलेश्वर हों अथवा शंकराचार्य क्या किसी के राजसी ठाठ में आपको कोई कमी नज़र आती है, अगर नहीं, तो शाही को मारिए गोली और राजसी से ही काम चलाइए। हमने एक तीर से दो शिकार कर लिए, पहले सिक्के और संविधान से इंडिया को हटाया और भारत को प्रतिष्ठित किया और फिर हमारे अपने अंदाज़ को भी शाही से राजसी किया। आज ही घर में राजसी पालक पनीर बनेगा, राजसी अंदाज़ में। आज की राजसी दावत में आपका स्वागत है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 101 – देश-परदेश – ऊपर उठो, ऊपर उठो ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 101 ☆ देश-परदेश – ऊपर उठो, ऊपर उठो ☆ श्री राकेश कुमार ☆

इन दकियानूसी आदतों से अब ऊपर उठ जाओ, समय के साथ चलो। दिन भर पतंग, गिल्ली डंडा खेलते रहते हो, इन को छोड़ ऊपर उठो पढ़ाई/ लिखाई कर लो, जिंदगी में कुछ बन कर दिखाओ। पूरा बचपन ये ही सब सुनते सुनते बीत गया।

पांच दशक से हमने देखा कि हम सब बहुत ऊपर उठ गए है। चटाई पर भोजन ग्रहण करने वाले अब प्रसादी भी ऊंचे टेबल कुर्सी पर ग्रहण करते हैं।

जब भोजन ऊंचाई पर करना है, तो वो भी ऊंचाई वाले प्लेटफार्म पर ही ना, बनेगा। पूर्वकाल में रात्रि जमीन पर सब चैन की नींद सोते थे, अब ऊंचे पलंग पर मोटी ऊंचाई वाले गद्दों पर नींद की गोली खा कर ही नींद प्राप्त होती हैं।

कार्यालय, दफ्तर सब में टेबल/कुर्सी सामान्य बात होती हैं। अब तो किराना, कपड़े आदि वाले दुकानदार भी तख्त छोड़ काउंटर पर व्यापार कर ऊंचे व्यक्तियों की श्रेणी में शामिल हो चुके हैं। “ऊंचे लोग ऊंची पसंद” खाने वाले ऊपर भी जल्दी ही चले जाते हैं।

विवाह के समय में अग्नि देवता के समक्ष सब कुर्सियों पर विराजमान मिलेंगे। नीचे बैठने से पतलून की क्रीज़ खराब हो जाती हैं। कोट के कपड़े का फॉल भी नहीं पता चलता हैं।

श्रद्धांजलि सभा में भी कमर की तकलीफ का हवाला देख कर कुर्सी पर बहुत सारे युवा बैठे हुए दिख जाते हैं। दिन का आरंभ डेढ़ फुट ऊंचे शौचालय पर बैठ कर करने वालों के घुटनों की रिप्लेसमेंट भी गारंटी से पूर्व समाप्त हो जाता हैं।

घुटने संबंधित रोग इसी ऊंचाई के कारण फल फूल रहें हैं। आने वाले समय में शल्य चिकत्सा में “घुटना विशेषज्ञ” एक अलग विषय बन जायेगा।

हमारे जैसे लोग इस “घुटना रोग ” से बहुत डरते है, क्योंकि हमारा दिमाग जो इन घुटनों में रहता हैं। इसलिए जमीं से जुड़े रहें, अंत में इसी जमीं का सहारा हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 474 ⇒ सोचकर लिखना ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सोचकर लिखना।)

?अभी अभी # 474 ⇒ सोचकर लिखना? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बिना विचारे बोलना जितना आसान है उतना ही मुश्किल है बिना सोचे कुछ लिखना। सोचने के लिए हमें क्या चाहिए, कुछ नहीं, लेकिन लिखने के लिए सिर्फ सोचना ही जरूरी नहीं, कागज कलम या कुछ तो चाहिए, जिस पर हम कुछ लिख सकें, अथवा अंकित कर सकें। ‌

जितनी हमारी सोचने की गति है उससे कम हमारी लिखने की गति है। विचारों का क्या है चले आते हैं बादलों की तरह उमड़ घुमड़ कर, लेकिन जब लिखने का वक्त आता है, तो सिर्फ कुछ बूंदाबांदी, या कुछ अभिव्यक्त होता है कुछ नहीं होता है सब जाने कहां खो जाता है।।

लेकिन बोलते वक्त ऐसा नहीं होता, धारा प्रवाह बोला जाता है, भले ही उसका कोई अर्थ हो अथवा ना हो। घुमा फिराकर अर्थ निकाला जाता है, शब्दों को तोड़ा मरोड़ा जाता है, लेकिन अंत में बात बन ही जाती है। विशेषकर बच्चे और महिलाएं कितनी जल्दी-जल्दी बोलते हैं, कितनी जल्दी-जल्दी उनके ज़ेहन में विचार आते हैं और प्रकट भी हो जाते हैं। धारा प्रवाह बोलना कोई या तो बच्चों से सीखे अथवा महिलाओं से।

जितना आसान आजकल टेलीप्रॉम्पटर के जरिए लिखा हुआ बोलना हो गया है, उतना ही आसान, मोबाइल पर बोलकर लिखना भी हो गया है। एक जमाना था जब साहब स्टेनो को अंग्रेजी/हिंदी में डिक्टेशन देते थे और स्टेनो उसे शॉर्टहैंड में लिखकर बाद में टाइपराइटर पर टाइप करती थी /करता था।

आज की तकनीक के सहारे अगर आप सिर्फ बोल सकते हैं तो केवल बोलकर भी एक अच्छे लेखक बन सकते हैं। उसके लिए आपका लिखना पढ़ना बिल्कुल जरूरी नहीं। अगर आप एक अच्छे वक्ता हैं तो अच्छे लेखक तो हो ही गए। जिन्हें पहले बोलने में संकोच होता था वे अब बोलकर लिख सकते हैं और अपने विचारों के प्रवाह को आसानी से प्रकट कर सकते हैं।।

विचार भी बारिश की तरह होते हैं अगर आ गए तो आ गए, वरना आसमान साफ। बिस्तर में अथवा एकांत में जो विचारों की बारिश होती है वह झमाझम होती है बस उस समय अगर उनको कैद कर लिया जाए, तो कभी विचारों का अकाल ना पड़े।

आईये विचारों के जंगल में अच्छे विचारों का शिकार करें। उन्हें अपनी फेसबुक की वॉल पर सजाएं, और बुरे विचारों को सूली पर टांग दें, लिखकर अथवा बोलकर। देखें, कानून हम पर कौन सी धारा लगाता है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभियंता दिवस विशेष – भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया अभियंताओ के सतत प्रेरणास्रोत ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

? भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया अभियंताओ के सतत प्रेरणास्रोत ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

बदलते समय के साथ अब भारत सेमी कंडक्टर हब बनने जा रहा है. ए आई ने क्रांति की है. पर आज भी अमेरिका में सिलिकान वैली में तब तक कोई कंपनी सफल नही मानी जाती जब तक उसमें कोई भारतीय इंजीनियर कार्यरत न हो. भारत के आई आई एस सी, आई आई टी जैसे संस्थानो के इंजीनियर्स ने विश्व में अपनी बुद्धि से भारतीय श्रेष्ठता का समीकरण अपने पक्ष में कर दिखाया है.

इस तकनीकी क्रांति की नीव भारत में सर मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया ने एक सदी पहले डाली थी. उनका जन्मदिवस इंजीनियर्स डे के रूप में हर साल मनाया जाता है. हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कल कारखानो को नये भारत के तीर्थ कहा था, इन्ही तीर्थौ के पुजारी, निर्माता इंजीनियर्स को आज अभियंता दिवस पर बधाई.

विगत कुछ दशको में इंजीनियर्स की छबि में गिरावट हुई, भ्रष्टाचार के घोलमाल में बढ़ोत्री हुई है, अनेक इंजीनियर्स प्रशासनिक अधिकारी या मैनेजमेंट की उच्च शिक्षा लेकर बड़े मैनेजर बन गये हैं, आइये आज इंजीनियर्स डे पर कुछ पल चिंतन करे समाज में इंजीनियर्स की इस दशा पर, हो रहे इन परिवर्तनो पर चिंतन जरूरी है.

इंजीनियर्स अब राजनेताओ के इशारो पर चलने वाली कठपुतली नही हो गये हैं क्या?

देश में आज इंजीनियरिंग शिक्षा के हजारो कालेज खुल गये हैं, लाखो इंजीनियर्स प्रति वर्ष निकल रहे हैं, पर उनमें से कितनो में वह जज्बा है जो भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया में था.

मनन चिंतन का विषय है कि क्यों इंजीनियरिंग डिग्री धारी क्लर्क की नौकरी के आवेदन करने को मजबूर हो गए हैं.

भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया का जीवन अभियंताओ के लिये सतत प्रेरणा. . .

भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया का जन्म मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुक में 15 सितंबर 1860 को हुआ था. उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री तथा माता का नाम वेंकाचम्मा था. पिता संस्कृत के विद्वान थे. विश्वेश्वरैया ने प्रारंभिक शिक्षा जन्म स्थान से ही पूरी की. आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने बंगलूर के सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लिया. लेकिन यहां उनके पास धन का अभाव था. अत: उन्हें टयूशन करना पड़ा. विश्वेश्वरैया ने 1881 में बीए की परीक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त किया. इसके बाद मैसूर सरकार की मदद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया. 1883 की एलसीई व एफसीई (वर्तमान समय की बीई उपाधि) की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करके अपनी योग्यता का परिचय दिया. इसी उपलब्धि के चलते महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें नासिक में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त किया.

 दक्षिण भारत के मैसूर, कर्र्नाटक को एक विकसित एवं समृद्धशाली क्षेत्र बनाने में भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया का अभूतपूर्व योगदान है. तकरीबन 55 वर्ष पहले जब देश स्वंतत्र नहीं था, तब कृष्णराजसागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील व‌र्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ मैसूर समेत अन्य कई महान उपलब्धियां एमवी ने कड़े प्रयास से ही संभव हो पाई. इसीलिए इन्हें कर्नाटक का भगीरथ भी कहते हैं. जब वह केवल 32 वर्ष के थे, उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर कस्बे को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया. सरकार ने सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के उपायों को ढूंढने के लिए समिति बनाई. इसके लिए भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया ने एक नए ब्लॉक सिस्टम को ईजाद किया. उन्होंने स्टील के दरवाजे बनाए जो कि बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करता था. उनके इस सिस्टम की प्रशंसा ब्रिटिश अधिकारियों ने मुक्तकंठ से की. आज यह प्रणाली पूरे विश्व में प्रयोग में लाई जा रही है.

विश्वेश्वरैया ने मूसा व इसा नामक दो नदियों के पानी को बांधने के लिए भी प्लान तैयार किए. इसके बाद उन्हें मैसूर का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया गया.

 उस वक्तराज्य की हालत काफी बदतर थी. विश्वेश्वरैया लोगों की आधारभूत समस्याओं जैसे अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी आदि को लेकर भी चिंतित थे. फैक्टरियों का अभाव, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता तथा खेती के पारंपरिक साधनों के प्रयोग के कारण समस्याएं जस की तस थीं. इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्वेश्वरैया ने इकॉनोमिक कॉन्फ्रेंस के गठन का सुझाव दिया. मैसूर के कृष्ण राजसागर बांध का निर्माण कराया.

कृष्णराजसागर बांध के निर्माण के दौरान देश में सीमेंट नहीं बनता था, इसके लिए इंजीनियरों ने मोर्टार तैयार किया जो सीमेंट से ज्यादा मजबूत था. 1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया.

विश्वेश्वरैया शिक्षा की महत्ता को भलीभांति समझते थे. लोगों की गरीबी व कठिनाइयों का मुख्य कारण वह अशिक्षा को मानते थे. उन्होंने अपने कार्यकाल में मैसूर राज्य में स्कूलों की संख्या को 4, 500 से बढ़ाकर 10, 500 कर दिया. इसके साथ ही विद्यार्थियों की संख्या भी 1, 40, 000 से 3, 66, 000 तक पहुंच गई. मैसूर में लड़कियों के लिए अलग हॉस्टल तथा पहला फ‌र्स्ट ग्रेड कॉलेज (महारानी कॉलेज) खुलवाने का श्रेय भी विश्वेश्वरैया को ही जाता है.

उन दिनों मैसूर के सभी कॉलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध थे. उनके ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है. इसके अलावा उन्होंने श्रेष्ठ छात्रों को अध्ययन करने के लिए विदेश जाने हेतु छात्रवृत्ति की भी व्यवस्था की. उन्होंने कई कृषि, इंजीनियरिंग व औद्योगिक कालेजों को भी खुलवाया.

 वह उद्योग को देश की जान मानते थे, इसीलिए उन्होंने पहले से मौजूद उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील आदि को जापान व इटली केविशेषज्ञों की मदद से और अधिक विकसित किया. धन की जरूरत को पूरा करने के लिए उन्होंने बैंक ऑफ मैसूर खुलवाया. इस धन का उपयोग उद्योग-धंधों को विकसित करने में किया जाने लगा. 1918 में विश्वेश्वरैया दीवान पद से सेवानिवृत्त हो गए. औरों से अलग विश्वेश्वरैया ने 44 वर्ष तक और सक्रिय रहकर देश की सेवा की. सेवानिवृत्ति के दस वर्ष बाद भद्रा नदी में बाढ़ आ जाने से भद्रावती स्टील फैक्ट्री बंद हो गई. फैक्ट्री के जनरल मैनेजर जो एक अमेरिकन थे, ने स्थिति बहाल होने में छह महीने का वक्त मांगा. जोकि विश्वेश्वरैया को बहुत अधिक लगा. उन्होंने उस व्यक्ति को तुरंत हटाकर भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षित कर तमाम विदेशी इंजीनियरों की जगह नियुक्त कर दिया. मैसूर में ऑटोमोबाइल तथा एयरक्राफ्ट फैक्टरी की शुरूआत करने का सपना मन में संजोए विश्वेश्वरैया ने 1935 में इस दिशा में कार्य शुरू किया. बंगलूर स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स तथा मुंबई की प्रीमियर ऑटोमोबाइल फैक्टरी उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है. 1947 में वह आल इंडिया मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन के अध्यक्ष बने. उड़ीसा की नदियों की बाढ़ की समस्या से निजात पाने के लिए उन्होंने एक रिपोर्ट पेश की. इसी रिपोर्ट के आधार पर हीराकुंड तथा अन्य कई बांधों का निर्माण हुआ.

 वह किसी भी कार्य को योजनाबद्ध तरीके से पूरा करने में विश्वास करते थे. 1928 में पहली बार रूस ने इस बात की महत्ता को समझते हुए प्रथम पंचवर्षीय योजना तैयार की थी. लेकिन विश्वेश्वरैया ने आठ वर्ष पहले ही 1920 में अपनी किताब रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया में इस तथ्य पर जोर दिया था.

इसके अलावा 1935 में प्लान्ड इकॉनामी फॉर इंडिया भी लिखी. मजे की बात यह है कि 98 वर्ष की उम्र में भी वह प्लानिंग पर एक किताब लिख रहे थे. देशकी सेवा ही विश्वेश्वरैया की तपस्या थी. 1955 में उनकी अभूतपूर्व तथा जनहितकारी उपलब्धियों के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया. जब वह 100 वर्ष के हुए तो भारत सरकार ने डाक टिकट जारी कर उनके सम्मान को और बढ़ाया. 101 वर्ष की दीर्घायु में 14 अप्रैल 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया. 1952 में वह पटना गंगा नदी पर पुल निर्माण की योजना के संबंध में गए. उस समय उनकी आयु 92 थी. तपती धूप थी और साइट पर कार से जाना संभव नहीं था. इसके बावजूद वह साइट पर पैदल ही गए और लोगों को हैरत में डाल दिया. विश्वेश्वरैया ईमानदारी, त्याग, मेहनत इत्यादि जैसे सद्गुणों से संपन्न थे. उनका कहना था, कार्य जो भी हो लेकिन वह इस ढंग से किया गया हो कि वह दूसरों के कार्य से श्रेष्ठ हो.

उनकी जीवनी हमारे लिये सतत प्रेरणा है.

इंजीनियर्स डे वह दिन है जब स्वयं इंजीनियर्स और समाज, राजनेता और सरकार इंजीनियर्स के हित में बड़े फैसले ले, क्योंकि देश के विकास की तकदीर लिखने वाले अभियंता ही हैं.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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