हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 64 ☆ क्या निस्वार्थ और निष्पक्ष चुनाव सम्भव है? ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “क्या निस्वार्थ और निष्पक्ष चुनाव सम्भव है?।)

☆ किसलय की कलम से # 64 ☆

☆ क्या निस्वार्थ और निष्पक्ष चुनाव सम्भव है? ☆

चुनाव शब्द का स्मरण होते ही सबसे पहले हमारे जेहन में मतदान, प्रत्याशी, दल और हार-जीत के भाव उभरते हैं, जबकि हम सब जीवन के पग-पग पर चुनाव करते रहते हैं। बिना चुनाव के जिंदगी चलना बहुत मुश्किल है। जीवन में चुनाव का अत्यधिक महत्त्व होता है। जीवन-साथी का चुनाव, निवास स्थान का चुनाव, पोशाकों का चुनाव, यहाँ तक कि हम मित्र के चुनाव में भी सतर्कता बरतते हैं। एक सज्जन व शाकाहारी व्यक्ति किसी सज्जन व्यक्ति को ही मित्र बनाना चाहेगा, लेकिन वह सज्जन व्यक्ति यदि मांसाहारी हो तो क्या वह उसे मित्र के रूप में चयन कर पाएगा? शायद नहीं। एक धनाढ्य प्रेमिका किसी गरीब लड़के को अपना जीवनसाथी चुनती है तो उसका चुनाव विचारधाराओं पर आधारित होता है, जबकि मानव की सदैव यही आकांक्षा होती है कि वह अधिक से अधिक सुख-संपन्न व समृद्ध हो। आशय यही है कि चुनाव में हमारी भावनाएँ, हमारे दृष्टिकोण व हमारे हित भी जुड़े होते हैं।

मेरी दृष्टि से चुनाव कभी निःस्वार्थ नहीं हो सकते। राजनीतिक चुनाव में भी विचारधाराओं की जीत अथवा हार का महत्त्व होता है। यहाँ यह बात मायने नहीं रखती कि हम निष्पक्ष व निस्वार्थ रूप से चयन प्रक्रिया संपन्न करें। हमारी स्वयं की जो विचारधारा अथवा जो दृष्टिकोण होता है हम उसका ही समर्थन करते हैं, और वही सब अपने समाज तथा व्यक्तिगत जीवन में भी चाहते हैं।

राजनीतिक चुनावों में निष्पक्षता  होती ही कहाँ है? हम तो किसी एक पक्ष को चुनते हैं। यदि आप किसी एक पक्ष के व्यक्ति हैं, लेकिन आपके विचारों व भावों वाला उम्मीदवार विपक्ष का है, तब आप किसे चुनेंगे? मुझे तो संशय है कि आप अपनी विचारधारा से मेल खाते विपक्षी उम्मीदवार को चुनेंगे! यहाँ भी आप अपने स्वार्थ को महत्त्व देंगे न कि अपनी विचारधारा को। बड़ी विडंबना है कि आज हम पक्ष और स्वार्थ दोनों के बीच ऐसे भ्रमित रहते हैं कि हमारा उचित निर्णय भी यथार्थ की कसौटी पर खरा नहीं उतरता और हम आदर्श मार्ग चुनते-चुनते रह जाते हैं।

जीवन में उचित चुनाव बेहद जरूरी होते हैं। आपका चुनाव आपकी जिंदगी बदल देता है। आप के शैक्षिक विषयों का चयन, आपके विद्यालय का चयन, आपकी नौकरी का चयन जो, शायद आपकी विचारधारा व रुचियों से मेल नहीं खाता हो फिर भी आप चुनने हेतु बाध्य हो जाते हैं। अर्थात ये चुनाव परिस्थितियों वश निष्पक्ष अथवा निःस्वार्थ हो ही नहीं पाते और यदि हम ऐसा करते हैं तो भविष्य में विकट संघर्ष की स्थितियाँ निर्मित हो सकती हैं। यही हाल संतानोत्पत्ति में संख्या व लिंग का होता है, संतानों के भविष्य निर्माण को लेकर निर्णय की होती है। बड़ी विचित्र बात है कि जब हमें अनेक अवसरों पर अपने हित-अहित का चुनाव स्वयं करना होता है, तब भी हम अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पाते! आखिर समाज में रहने की खातिर वह सब क्यों करते हैं जो एक आदर्श मार्ग की ओर ले जाने से हमें रोकता है। तब इसका हल क्या हो सकता है? तब यह जरूर कहा जा सकता है कि यह भी हमारे वश में है, बशर्ते आप ने प्रारंभ में ही शिक्षा और संस्कार प्राप्त किए हों। यदि इस दायित्व को हम अपने अभिभावकों पर भी छोड़ दें तो भी हम अपनी बालसुलभ प्रवृत्तियों के चलते कई बार सुसंस्कारों व शिक्षा को अपेक्षाकृत कम हृदयंगम कर पाते हैं। एक अन्य बात भी अक्सर देखी जाती है कि हम अपने बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ जानबूझकर नहीं उठाते। हम यह समझने की कोशिश ही नहीं करते कि हमारे बुजुर्गों ने जिन अनुभवों को प्राप्त करने में वर्षों लगाये हैं, उन्हें आधार बनाकर उसके बढ़ना चाहिए। बल्कि आप पुनः शून्य से वही प्रक्रिया प्रारंभ करते हैं जिससे आपके बहुमूल्य जीवन का एक लंबा समय जाया होता है। क्या यह  चुनाव आपकी समय बर्बादी या प्रगति में विलंब का कारण नहीं है? अधिकांशत यही नवपीढ़ी द्वारा चयन की त्रुटि बन जाती है।

आज का मानव आदर्श, नैतिकमूल्य, परोपकार, निस्वार्थता, निष्पक्षता, सौहार्दता, दायित्व निर्वहन आदि को किताबी बातें मानने लगा है। चुनाव करते वक्त आज प्रसिद्धि, लोकप्रियता, संपन्नता आदि बातों का ध्यान रखा जाने लगा है। जिन बातों से स्वार्थ सिद्ध हो उसे लोग अपना लेते हैं, भले ही वे अन्य दृष्टियों में कमतर अथवा विपरीत क्यों न हों।

तब क्या जीवन भर हमें निष्पक्ष अथवा निस्वार्थभाव से ही चुनाव करते रहना चाहिए? यदि ऐसा होता है तब समाज में तरह-तरह की विसंगतियाँ भी उत्पन्न होने की संभावनाएँ बढ़ जाएँगी। हम विपक्षी उम्मीदवार को चुनने लगेंगे। हम मनपसंद प्रेमी अथवा प्रेमिका को न चुनकर किसी और का चयन करने लगेंगे। हम निस्वार्थ भाव से नौकरी करेंगे जो इस जमाने में पागलपन ही कहलाएगा।

अंत में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परिवार, समाज और देश को चलाने के लिए हमें अपनी विचारधारा तथा निष्पक्षता में सामंजस्य बिठाना होगा, तब ही हम अपनी और अपने समाज की गाड़ी वर्तमान सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच आगे ले जाने में सफल हो सकेंगे। हमें इसमें निश्चित रूप से कुछ खोना भी पड़ सकता है। मिलने की संभावनाएँ और आशाएँ तो रहती ही हैं। कहा भी गया है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है।

इस तरह मानव जीवन में जब भी चुनाव की परिस्थितियाँ निर्मित हो तो हमें स्वयं के साथ-साथ समाज के भी हितों का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि हम स्वयं, परिवार और समाज परस्पर जुड़े हुए हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 112 ☆ प्रकृति शिक्षिका के रूप में ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  प्रकृति शिक्षिका के रूप में। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 112 ☆

☆ प्रकृति शिक्षिका के रूप में ☆

मानव व प्रकृति का संबंध अनादि व अखंड है। प्रकृति का सामान्य अर्थ है–समस्त चराचर में स्थित सभी वनस्पति,जीव व पदार्थ, जिनके निर्माण में मानव का हाथ नहीं लगा; अपने स्वाभाविक रूप में विद्यमान हैं। इसके अंतर्गत मनुष्य भी आ जाता है, जो प्रकृति का अंग है और शेष सृष्टि उसकी रंगभूमि है। सो! उसकी अन्त:प्रकृति उससे अलग कैसे रह सकती है? मनुष्य प्रकृति को देखता व अपनी गतिविधि से उसे प्रभावित करता है और स्वयं भी उससे प्रभावित हो बदलता-संवरता है; तत्संबंधी अनुभूति को अभिव्यक्त करता है। उसी के माध्यम से वह जीवन को परिभाषित करता है। मानव प्रकृति के अस्तित्व को हृदयंगम कर उसके सौंदर्य से अभिभूत होता है और उसे चिरसंगिनी के रूप में पाकर अपने भाग्य को सराहता है और उसे मां के रूप में पाकर अपने भाग्य को सराहता है।

मानव प्रकृति के पंचतत्वों पृथ्वी,जल,वायु,अग्नि, आकाश व सत्,रज,तम तीन गुणों से निर्मित है…फिर वह प्रकृति से अलग कैसे हो सकता है? जिन पांच तत्वों से प्रकृति का रूपात्मक व बोधगम्य रूप निर्मित हुआ है,वे सब इंद्रियों के विषय हैं। इन पांच तत्वों के गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ही असंख्य रूपों में मानव चेतना के कोश को कर्म, चिन्तन, कल्पना, भावना, भावुकता, संकल्प, जिज्ञासा, समाधान आदि से कितना समृद्ध किया है–इसका अनुमान मानव की उपलब्धियों से लगाया जा सकता है। प्रकृति का वैभव अपरिमित एवं अपार है। उसकी पूर्णता को न दृष्टि छू सकती है, न ही उसकी सीमाओं तक कान ही पहुंच सकते हैं और न ही क्षणों की गति को मापा जा सकता है। प्रकाश व शब्द की गति के साथ कौन दौड़ लगा सकता है? प्रकृति के अद्भुत् सामर्थ्य व निरंतर गतिशीलता के कारण उसमें देवत्व की स्थापना हो गयी तथा उसकी अतिन्द्रियता, अद्भुतता, उच्चता, गहनता आदि के कारण उसे विराट की संज्ञा प्रदान की गयी है। विराट में मानव,मानवेतर प्राणी व अचेतन जगत् का समावेश है। अचेतन जगत् ही प्रकृति है और जगत् का उपादान अथवा मूल तत्व है। वह स्वयंकृत, चिरंतन व सत्य है। उसका निर्माण व विनाश कोई नहीं कर सकता। प्रकृति के अद्भुत् क्रियाकलाप व अनुशासनबद्धता को देख कर मानव में भय, विस्मय, औत्सुक्य व प्रेम आदि भावनाओं का विकास हुआ, जिनसे क्रमश: दर्शन, विज्ञान व काव्य का विकास हुआ। सो! मानव मन में आस्था, विश्वास व आदर्शवाद जीवन-मूल्यों के रूप में सुरक्षित हैं और विश्व में हमारी अलग पहचान है। सम्पूर्ण विश्व के लोग भारतीय दर्शन से प्रभावित हैं। रामायण व महाभारत अद्वितीय ग्रंथ हैं और गीता को मैनेजमेंट गुरू स्वीकारा जाता है। उसे विश्व के विभिन्न देशों में पढ़ाया जाता है। यह एक जीवन-पद्यति है; जिसे धारण कर मानव अपना जीवन सफलतापूर्वक बसर कर सकता है।

प्रकृति हमारी गुरू है, शिक्षिका है, जो जीने की सर्वोत्तम राह दर्शाती है। प्रकृति हमारी जन्मदात्री मां के समान है और हमारी प्रथम गुरू कहलाती है और जो संस्कार व शिक्षा हमें मां से प्राप्त होती हैं, वह पाठ संसार का कोई गुरू नहीं पढ़ा सकता। प्रकृति हमें सुक़ून देती है; अनगिनत आपदाएं सहन करती है और हम पर लेशमात्र भी आँच नहीं आने देती। वह हमारी सहचरी है; सुख-दु:ख की संगिनी है। दु:ख की वेला में यह ओस की बूंदों के रूप में आंसू बहाती भासती है, जो सुख में मोतियों-सम प्रतीत होते हैं। इतना ही नहीं, दु:ख में प्रकृति मां के समान धैर्य बंधाती है।

प्रकृति हमें कर्मशीलता का संदेश देती है और उसके विभिन्न उपादान निरंतर सक्रिय रहते हैं।क्षरात्रि के पश्चात् स्वर्णिम भोर, अमावस के बाद पूनम व विभिन्न मौसमों का यथासमय आगमन समय की महत्ता व गतिशीलता को दर्शाता है। नदियाँ निरंतर परहिताय प्रवाहशील रहती हैं। इसलिए वे जीवन-दायिनी कहलाती हैं। वृक्ष भी कभी अपने फलों का रसास्वादन नहीं करते तथा पथिक को शीतल छाया प्रदान करते हैं। वे हमें आपदा के लिए संचय करने को प्रेरित करती है। जैसे जल के अभाव में वह बंद बोतलों में बिकने लगा है। बूंद-बूंद से सागर भर जाता है और जल को बचा कर हम अपने भविष्य को सुरक्षित कर सकते हैं। वायु भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। परंतु मानव की बढ़ती लालसाओं ने जंगलों के स्थान पर कंक्रीट के महल बनाकर पर्यावरण-प्रदूषण में बहुत वृद्धि की है, जिसका विकराल रूप हमने कोरोना काल में आक्सीजन की कमी के रूप में देखा है; जिसके लिए लोग लाखों रुपये देने को तत्पर थे। परंतु उसकी अनुपलब्धता के कारण लाखों लोगों को अपने प्राण गंवाने पड़े। काश! हम प्रकृति के असाध्य भंडारण व असाध्यता का अनुमान लगा पाते कि वह हमें कितना देती है? हम करोड़ों-अरबों की वायु का उपयोग करते हैं; अपरिमित जल का प्रयोग करते हैं; वृक्षों का भी हम पर कितना उपकार है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। वे कार्बन-डॉयोक्साईड लेकर हमें आक्सीजन देते हैं। इतना ही नहीं, वे हमें अन्न व फल-फूल देते हैं, जिससे हमें जीवन मिलता है।

मानव व प्रकृति का संबंध अटूट, चिरंतन व शाश्वत् है। प्रकृति विभिन्न रूपों में हमारे सम्मुख बिखरी पड़ी है। प्रकृति के कोमल व कमनीय सौंदर्य से प्रभावित होकर कवि उसे कल्पना व अनुभूति का विषय बनाता है, जो विभिन्न काव्य- रूपों में प्रकट होती है। यदि हम हिन्दी साहित्य पर दृष्टिपात करें, तो प्रकृति हर युग में मानव की प्रेरणा-शक्ति ही नहीं रही, उसकी चिर-संगिनी भी रही है। वैदिक-कालीन सभ्यता का उद्भव व विकास प्रकृति के उन्मुक्त प्रांगण में हुआ। मंत्रदृष्टा ऋषियों ने प्रकृति के प्रति जहां अनुराग व्यक्त किया, वहीं उसके उग्र,रम्य व मानवीकरण आदि रूपों को अपनाया। ऋग्वेद मानव सभ्यता का प्राचीनतम ग्रंथ है। प्रकृति के दिव्य सौंदर्य से अभिभूत होकर जहां मानव उसके उन्मुक्त सौंदर्य का बखान करता है; वहीं विराट के प्रति भय, विस्मय श्रद्धा आदि की अनुभूतियों में अनंत सौंदर्य का अनुभव करता है। वाल्मीकि का प्रकृति-जगत् के कौंच-वध की हृदय-विदारक घटना से उद्वेलित आक्रोश व करुणा से समन्वित शोक का प्रथम श्लोक रूप में प्रस्फुरण इस तथ्य की पुष्टि करता है कि भावातिरेक या अनुभूति की तीव्रता ही कविता की मूल संजीवनी शक्ति है। महाभारत में प्रकृति केवल पर्वत, वन, नदी आदि का सामान्य ज्ञान कराती है। नल दमयंती प्रसंग में वह प्रकृति से संवेदनात्मक संबंध स्थापित न कर, स्वयं को अकेला व नि:सहाय अनुभव करती है।

कालिदास को बाह्य-जगत् का सर्वश्रेष्ठ कवि स्वीकारा जाता है। उनका प्रकृति-चित्रण संस्कृत साहित्य में ही नहीं, विश्व साहित्य में दुर्लभ है। वे प्रकृति को मूक, चेतनहीन व निष्प्राण नहीं मानते, बल्कि वे उसमें मानव की भांति सुख- दु:ख व संवेदनशीलता अनुभव करते हैं। इस प्रकार अश्वघोष, भवभूति, भास, माघ, भारवि, बाणभट्ट आदि में प्रकृति का व्यापक रूप में वर्णन हुआ है।

हिन्दी साहित्य के आदिकाल अथवा पूर्व मध्य-कालीन काव्य में प्रकृति का उपयोग पृष्ठभूमि, उद्दीपन व उपमानों के रूप में हुआ। विद्यापति के काव्य में प्रकृति कहीं-कहीं उपदेश देती भासती है और आत्मा परमात्मा में इस क़दर लीन हो जाती है, जैसे समुद्र में लहर और भौंरों का गुंजन नायिका को मान त्यागने का संदेश देता भासता है। वियोग में उनका बारहमासा वर्णन द्रष्टव्य है।

पूर्व मध्यकालीन काव्य में प्रकृति उन्हें माया सम भासती है तथा उन्होंने भावाभिव्यक्ति के लिए प्रकृति के विभिन्न रूपों को अपनाया है। कबीरदास जी ‘माली आवत देखि के, कलियन करि पुकार/ फूलि-फलि चुनि लहि, कालहि हमारी बारि’ के माध्यम से मानव को नश्वरता का संदेश देते हैं। दूसरी ओर ‘तेरा सांई तुझ में, ज्यों पुहुपन में वास/ कस्तूरी का मृग ज्यों फिरि-फिरि ढूंढे घास’ के माध्यम से वे मानव को संदेश देते हैं कि ब्रह्म पुष्पों की सुगंध की भाति घट-घट में व्याप्त है, परंतु अज्ञान के कारण बावरा मानव उसे अनुभव नहीं कर पाता और मृग की भांति वन-वन में ढूंढता रहता है। प्रेममार्गी शाखा के प्रवर्त्तक जायसी के काव्य में प्रकृति के उपमान, उद्दीपन व रहस्यात्मक रूपों का चित्रण हुआ है। वे चराचर प्रकृति में ब्रह्म के दर्शन करते हैं। समस्त जड़-चेतन प्रकृति में प्रेमास्पद के प्रतिबिंब को निहारते व अनुभव करते हैं। ‘बूंद समुद्र जैसे होइ मेरा/ मा हिराइ जस मिले न हेरा।’ जिस प्रकार बूंद समुद्र में मिलकर नष्ट हो जाती है,उसी प्रकार आत्मा भी ब्रह्ममय हो जाती है।

रामभक्ति शाखा के कवि तुलसीदास की वृत्ति प्रकृति-चित्रण में अधिक नहीं रमी, तथापि उनका प्रकृति-चित्रण स्वाभाविक बन पड़ा है। प्रकृति उनके काव्य में उपमान व उद्दीपन रूप में नहीं आयी, बल्कि उपदेशिका के रूप में आयी है। संयोग में वर्षा व बादलों की गर्जना होने पर पशु-पक्षी व समस्त प्रकृति जगत् उल्लसित भासता है और वियोग में मन की अव्यवस्थित दशा में मेघ-गर्जन भय संचरित करते हैं। मानवीकरण में मनुष्य का शेष सृष्टि के साथ रागात्मक संबंध स्थापित हो जाता है और मानव उसमें अपनी मन:स्थिति के अनुसार उल्लास, उत्साह, आनंद व शोक की भावनाएं- क्रियाएं आरोपित करता है। राम वन के पशु-पक्षियों से सीता का पता पूछते हैं। तुलसी सदैव लोक- कल्याण की भावना में रमे रहे और प्रकृति से उपदेश-ग्रहण की भावना में उन पर श्रीमद्भागवत् का प्रभाव द्रष्टव्य है–’आन छोड़ो साथ जब, ता दिन हितु न होइ/ तुलसी अंबुज अंबु बिनु तरनि, तासु रिपु होइ।’ जब कुटुम्बी साथ छोड़ देते हैं, तो संसार में कोई भी हितकारी नहीं रह पाता। कमल का जनक जल जब सूख जाता है, तो उसका मित्र सूर्य भी उसे दु:ख पहुंचाता है।

कृष्ण भक्ति शाखा के अतर्गत सूर, नंददास, रसखान आदि को कृष्ण के कारण प्रकृति अति प्रिय थी। प्रकृति का आलंबन, उद्दीपन व आलंकारिक रूप में चित्रण हुआ है। वियोग में प्रकृति गोपियों को दु:ख पहुंचाती है और वे मधुवन को हरा-भरा देख झुंझला उठती हैं– ‘मधुबन! तुम कत रहत हरे/ विरह-वियोग स्याम सुंदर के ठाढ़ै,क्यों न जरे।’ कहीं-कहीं वे प्रकृति में उपदेशात्मकता का आभास पाते हैं और संसार के मोहजाल को भ्रमात्मक बताते हुए कहते हैं–’यह जग प्रीति सुआ, सेमर ज्यों चाखत ही उड़ि जाय।’ तोते को सेमर के फूल में रूई प्राप्त होती है और वह उड़ जाता है। सूर ने प्रकृति के व्यापारों का मानवीय व्यापारों से अतु्लनीय समन्वय किया है।

उत्तर मध्यकालीन को प्राकृतिक सौंदर्य आकर्षित नहीं कर पाता। बिहारी को गंवई गांव में गुलाब के इत्र का कोई प्रशंसक नहीं मिलता। केशव को प्राकृतिक दृश्यों के अंकन का अवसर मिला,परंतु वे अलंकारों में उलझे रहे। बिहारी सतसई में जहां मानवीकरण व आलंबनगत रूप चित्रण हुआ, वहीं पर नैतिक शिक्षा के रूप में अन्योक्तियों का आश्रय लिया गया है। इनके प्रकृति-चित्रण में हृदय-स्पर्शिता का अभाव है। सो! प्रकृति उद्दीपन व उपमान रूप में हमारे समक्ष है। ‘ नहीं पराग,नहीं मधुर मधु,नहीं विकास इहिं काल/ अलि कली ही सौं बंध्यौ,आगे कौन हवाल’ के माध्यम से राजा जयसिंह को सचेत किया गया है। ‘जिन-जिन देखे वे सुमन, गयी सो बीति बहार/ अब अलि रही गुलाब की, अपत कंटीली डार।’ यह उक्ति सम्पत्ति-विहीन व्यक्ति के लिए कही गयी है तथा भ्रमर को माध्यम बनाकर प्राचीन वैभव व वर्तमान की दरिद्रावस्था का बखूबी चित्रण किया गया है।

भारतेन्दु युग आधुनिक युग का प्रवेश-द्वार है और इसमें नवीन व प्राचीन काव्य-प्रवृत्तियों का समन्वय हुआ है। प्रकृति मानवीय भावनाओं के अनुरूप हर्ष-विषाद को अतिशयता प्रदान करती, वियोगियों को रुलाती तथा संयोगियों को उल्लसित करती है। इनका बारहमासा वर्णन विरहिणी की पीड़ा को और बढ़ा देता है तथा कहीं-कहीं प्रकृति उपदेश देती भासती है। ‘ताहि सो जहाज को पंछी सब गयो,अहो मन होई’ (भारतेन्दु ग्रंथावली)। अत:जीव जहाज़ के पक्षी की भांति पुन: ब्रह्म में मिलने का प्रयास करता है। बालमुकुंद जी के हृदय में प्रकृति के प्रति सच्चा अनुराग है, जो आलंबन, उद्दीपन व उपमान रूप में उपलब्ध है।

द्विवेदी युगीन कवियों ने प्रकृति को काव्य का वर्ण्य-विषय बनाया है तथा प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण किया है। श्रीधर पाठक, रूपनारायण पाण्डेय, रामनरेश त्रिपाठी आदि ने आलंबनगत चित्र प्रस्तुत किए हैं तथा स्वतंत्रतावादी कवियों ने रूढ़ रूपों को नहीं अपनाया, बल्कि जीवन के विस्तृत क्षेत्र में उसके साधारण चित्रमय, सजीव व मार्मिक रूप प्रदान किए हैं। पाठक ने कश्मीर सुषमा, देहरादून आदि कविताओं में प्रकृति के मनोरम चित्र उपलब्ध हैं। शुक्ल जी ने प्रकृति के आलंबन व त्रिपाठी ने पथिक व स्वप्न खंड काव्यों में प्रकृति का मार्मिक चित्रण किया  है। हरिऔध ने जहां ऐंद्रिय सुख की अनुभूति की, वहीं प्रकृति से उपादान ग्रहण कर नायिका के सौंदर्य का वर्णन किया है। मैथिलीशरण गुप्त जी के साकेत, पंचवटी, यशोधरा आदि काव्यों में मनोरम प्राकृतिक चित्रण उपलब्ध है। पंचवटी में प्रकृति की अपूर्व झांकी दिखाई देती है और प्रकृति मानव के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया रूप में संबंध स्थापित करती है। साकेत में प्रकृति का मानव व मानवेतर जगत् से तादात्म्य स्थापित हो जाता है। वे प्रकृति को सद्गुणों से परिपूर्ण मानते हैं– ‘सर्वश्रद्धा, क्षमा व सेवा की, ममता की वह धर्म में भी प्रतिमा/ खुली गोद में जो उसकी, समता की वह प्रतिमा।’ प्रकृति ममतामयी मां है, जो समभाव से सब पर अपना प्रेम व ममत्व लुटाती है।उपदेशिका की भांति मानव में उच्च विचार व सदाशयता के भाव संचरित करती है। वे भारतीयों में राष्ट्रीय-चेतना के भाव जाग्रत करते हुए ओजपूर्ण शब्दों में कहते हैं—‘पृथ्वी, पवन, नभ, जल, अनल सब लग रहे काम में/ फिर क्यों तुम्ही खोते हो, व्यर्थ के विश्राम में।’ कवि ने सर्वभूतों को सर्वदा व्यस्त दिखाते हुए देशवासियों को आलस्य त्यागने व जाग्रत रहने का संदेश दिया है। रामनरेश त्रिपाठी के काव्य में प्रकृति के सुंदर, मधुर, मंजुल रूप प्रकट होते हैं, उग्र नहीं। वे प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुए मानव-व्यापारों व मानव- संवेदना का आभास पाते हैं।

छायावाद में प्रकृति को स्वछंद रूप प्राप्त हुआ है और उसका उपयोग आध्यात्मिक भावों के प्रकाशन के लिए हुआ है। प्रकृति कवि की चेतना, प्रेरणा व स्पंदन है। इसलिए छायावाद को प्रकृति काव्य के नाम से अभिहित किया गया है।यदि प्रकृति को छायावाद से निकाल दिया जाए, तो वह पंगु हो जाएगा। प्रसाद ने प्रकृति में चेतना का अनुभव किया और वह मधुर, कोमल व सुकुमार भावनाओं की अभिव्यक्ति का साधन बन गयी, परंतु कवि ने कामायनी में प्रकृति के भयावह, विकराल व विराट आदि रूपों का दर्शन किया है। वे प्रकृति को सचेतन व सजीव मानकर उसमें अलौकिक सत्ता का दर्शन करते हैं तथा समस्त सृष्टि के कार्य-व्यापारों को सर्वोत्तम शक्ति द्वारा अनुप्राणित स्वीकारते हैं। प्रसाद ने संसार को रंगभूमि मानते हुए कहा है कि मानव यहां अपनी शक्ति के अनुसार संसार रूपी घोंसले में अपनी शक्ति के अनुसार ठहर सकता है, ‘शक्तिशाली विजयी भव’ का संदेश देता है। पंत प्रकृति के उपासक ही नहीं, अनन्य मित्र थे। उनके काव्य में मानव और प्रकृति का एकात्म्य हो जाता है। मधुकरि का मधुर राग उन्हें मुग्ध करता है और वे ‘सिखा दो न हे मधुप कुमारि/ मुझे भी अपने मीठे गान'(पल्लविनी)। वे प्रकृति के सहचरी, देवी, सखी, जननी आदि रूपों को काव्य में चित्रित करके उनमें अलौकिक सत्ता का आभास पाते हैं और प्रकृति उन्हें प्रेरणा प्रदान करती है।

निराला के काव्य में प्रकृति के चित्र दिव्य, समृद्ध व रहस्यात्मक रूप में आए हैं। उनके काव्य में दो तत्वों की प्रधानता है-रहस्यवाद व मानवीकरण। उनके काव्य विराटता व उदात्तता की दृष्टि से सराहनीय हैं। प्रकृति उसे सजीव प्राणी की भांति अपना रूप दिखाती, हाव-भावों से मुग्ध करती, संवेदना प्रकट करती उत्साहित करती है। इस प्रकार प्रकृति व मनुष्य का तादात्म्य हो जाता है। बादल प्रकृति को हरा-भरा कर देते हैं, जिससे प्रेरित होकर प्रकृति कर्त्तव्य- पथ पर अग्रसर होने का संदेश देती है।

महादेवी वर्मा सृष्टि में सर्वत्र दु:ख देखती हैं। प्रकृति उनके लिए सप्राण है तथा वे मानव व प्रकृति के लिए एक प्रकार की अनुभूति, सजीवता, विश्रंखलता, आत्मीयता व व्यापकता  का अनुभव करती हैं। वे संसार में प्रियतम को ढूंढती हैं । वे कभी प्रेम भाव में बिछ जाती हैं और जब प्रियतम अंतर्ध्यान हो जाते हैं, वे निराश होकर दु:ख-दैन्य भाव को इस प्रकार व्यक्त करती हैं—‘मैं फूलों में रोती, वे बालारुण में मुस्काते/ मैं पथ में बिछ जाती,वे सौरभ सम उड़ जाते।’ वे प्रकृति के चतुर्दिक प्रियतम के संदेश का आभास पाती हैं और प्रश्न कर उठती हैं — ‘मुस्काता प्रेम भरा नभ,अलि! क्या प्रिय आने वाले हैं?’ वे जीवन को संध्या से उपमित करती हैं ‘प्रिय सांध्य गगन मेरा जीवन’ ‘मैं नीर भरी दु:ख की बदली’ के माध्यम से वे प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करती हैं। वेएक ओर प्रकृति में विराट की छाया देखती हैं और दूसरी ओर अपना प्रतिबिंब पाती हैं। वै छायावाद का आधार स्तंभ-मात्र नहीं हैं, रहस्य व अरूप की साधिका रही हैं।

प्रगतिवाद भौतिकवादी दर्शन है, जिस पर मार्क्सवाद का प्रभाव था। समस्त सृष्टि का विकास दो वस्तुओं के संघर्ष से होता है, जो द्वंद्व का परिणाम है। यह वैज्ञानिक दर्शन है, जिसमें भावुकता के स्थान पर बुद्धि को स्वीकारा गया है।यह यथार्थवाद पर आधारित है। इन कवियों को जीवन से अनुरक्ति है और प्रकृति से प्रेम है।उन्होंने प्रकृति के उपेक्षित तत्वों व पात्रों को महत्व दिया है और प्रकृति उनके लिए शक्ति- प्रणेता है। वे दिन-रात व ऋतु-परिवर्तन को देख जीवन के विकास के लिए परिवर्तन-शीलता को अनिवार्य मानते हैं। इनके गीतों पर लोकगीतों कि प्रभाव द्रष्टव्य है।

प्रयोगवादी कविता में प्रकृति के भावात्मक स्वरूप का ग्रहण हुआ अबोध बालक की तरह ईश्वर, प्रकृति, जीवन-सौंदर्य के विभिन्न स्तरों पर प्रश्न करता है। इन कवियों ने जहां प्रकृति के उपेक्षित व वैज्ञानिक स्वरूपों को ग्रहण किया है,

वहीं प्रकृति में दैवीय सत्ता का आभास न पाकर , भौतिकता के संदर्भ में एक शक्ति के रूप में स्वीकारा गया है। इनका दृष्टिकोण भावात्मक न होकर, बौद्धिक है और प्रकृति के उपेक्षित स्वरूप(कुत्ता, गधा,चाय की प्याली, चूड़ी का टुकड़ा, प्लेटफार्म, धूल, साइरन) को काव्य का विषय बनाया।इन्होंने असुंदर, भौंडे, भदेस आदि में सौंदर्य के दर्शन किए तथि युगबोध के अनुकूल प्रकृति का चित्रण किया। इन्होंने जहां प्रकृति को अपनी मानसिक कुंठाओं की अभिव्यक्ति का साधन बनाया, वहां नवीन उपमानों, बिम्बों को अपने काव्य में प्रतिष्ठित किया तथा मानवीकरण कर मनोरम चित्रण किया है।

नयी कविता प्रयोगवाद का विकसित चरण है तथा इसमें उपलब्ध प्रकृति चित्रण की विशेषता है–ग्राम्य चित्रपटी की अवधारणा। नयी कविता वाद मुक्त है तथा वे जो भी मन में आता है, कहते हैं। वे क्षणवादी हैं और हर पल को जी लेना चाहते हैं,क्योंकि वे भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं हैं। उनमें एक दर्शन का अभाव है। कई बार उन्हें प्रकृति के विभिन्न रूप स्पंदनहीन भासते हैं और उन्हें अपने अस्तित्व के बारे में शंका होने लगती है। नये कवियों की विषय-व्यापकता, नया भाव-बोध तथा नवीन दृष्टिकोण सराहनीय है। सो! प्रकृति व मानव का संबंध अनादि काल से शाश्वत् व अटूट रहा है। वह हर रूप में आराध्या रही है। परंतु जब-जब मानव ने प्रकृति का अतिक्रमण किया है, उसने अपना प्रकोप व विकराल रूप दिखाया है, जो प्राकृतिक प्रदूषण व कोरोना के रूप में हमारे समक्ष है। इन असामान्य परिस्थितियों में मानव नियति के सम्मुख विवश व असहाय भासता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 62 ☆ हिंदी साहित्य की पुस्तकों के बढ़ते मूल्य व अनुपलब्धता एक चुनौती ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “हिंदी साहित्य की पुस्तकों के बढ़ते मूल्य व अनुपलब्धता एक चुनौती।)

☆ किसलय की कलम से # 63 ☆

हिंदी साहित्य की पुस्तकों के बढ़ते मूल्य व अनुपलब्धता एक चुनौती ☆

हमारी हिंदी विश्व की श्रेष्ठ भाषाओं में शामिल है। विश्व के अधिकांश देश हिंदी और हिंदी पुस्तकों-ग्रंथों के प्रति रुचि रखते हैं। विभिन्न देशों के लोग हिंदी भाषा से परिचित हैं, बोलने और पढ़ने के अतिरिक्त वहाँ हिंदी सिखाई भी जाती है। इसका मुख्य कारण हिंदी जैसी लिखी जाती है वैसी ही पढ़ी जाती है। समृद्ध साहित्य और परिपक्वता इसकी विशिष्टता है। आज विश्व का समस्त ज्ञान हिंदी माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। हिंदी भाषा निश्चित रूप से देवभाषा संस्कृत से बनी है। संस्कृत के प्रायः अधिकांश ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद हो चुका है। हिंदी के महान लेखकों एवं कवियों द्वारा प्रचुर मात्रा में सृजन भी हुआ है। इस तरह हिंदी साहित्य अपने आप में साहित्य का सागर बन चुका है।

प्रारंभ में हिंदी पुस्तकों की हस्तलिखित पांडुलिपियाँ हुआ करती थीं। शनैः शनैः अक्षर कंपोज करने वाली प्रिंटिंग मशीनों से आगे आज ऑफसेट मशीनें बाजार में उपलब्ध हैं। अंतरजाल की बढ़ती उपयोगिता के चलते आज अधिकांश हिंदी साहित्य डिजिटल फार्म में भी सुरक्षित किया जाने लगा है। अत्यंत उपयोगी पुस्तकों के तो अनेक संस्करण निकलते रहते हैं। उनकी उपलब्धता बनी रहती है, लेकिन जो सामान्य, दिवंगत अथवा सक्षम लोगों की श्रेष्ठ पुस्तकें हैं उनका पुनः प्रकाशन नहीं हो पाता जिस कारण एक बड़ा पाठक वर्ग लाभान्वित होने से वंचित रहता है। आर्थिक, बौद्धिक व बहुमूल्य समयदान के उपरांत साहित्यकारों का सृजन जब पुस्तक का रूप लेता है तब यह खुशी उनको अपनी संतान के जन्म से कमतर नहीं लगती। प्रत्येक लेखक अथवा कवि का सपना होता है कि उनकी पुस्तक का प्रचार-प्रसार हो। लोग उनकी पुस्तक के माध्यम से उनको जानें।

आज हम देख रहे हैं कि अधिकांश पूर्व प्रकाशित उपयोगी पुस्तकें धीरे-धीरे नष्ट हो रही हैं और कुछ गुमनामी के अँधेरे में चली जा रहीं हैं। उनकी उपयोगिता और दिशाबोधिता की किसी को चिंता नहीं होती, न ही शासन की ऐसी कोई जनसुलभ नीतियाँ हैं, जिनसे इन प्रकाशित पुस्तकों की कुछ प्रतियाँ ग्रंथालयों में सुरक्षित रखी जा सकें। आज अक्सर देखा जाता है कि पाठक जिन पुस्तकों को पढ़ना चाहता है वे बाजार में उपलब्ध ही नहीं रहतीं अथवा इतनी महँगी होती हैं कि आम पाठक इनको खरीदने में असमर्थ रहता है।

आज जब शासन समाचार पत्रों, सरकारी अकादमियों एवं विभिन्न शासकीय विभागों को प्रकाशन हेतु सब्सिडी और सहायता देता है। विभिन्न शासकीय योजनाओं के चलते भी इनका लाभ आज सुपात्र को कम, जुगाड़ व पहुँच वालों को ज्यादा मिलता है। इसके अतिरिक्त यह भी देखा गया है कि दिवंगत अथवा गुमनाम साहित्यकारों की पुस्तकों के पुनः प्रकाशन अथवा उनकी पांडुलिपियों के प्रकाशन की कोई भी सरकारी आसान योजना नहीं है। ऐसा कोई विभाग भी नहीं है जो लुप्त हो रहे ऐसे हिंदी साहित्य को संरक्षित करने का काम कर सके।

देश में जब धर्म के नाम पर, संस्थाओं के नाम पर, सामाजिक सरोकारों के नाम पर, जनहित के नाम पर सहायता, सब्सिडी और अन्य तरह से राशि उपलब्ध करा दी जाती है, तब क्या अथक बौद्धिक परिश्रम और समय लगाकर सृजित किए गए उपयोगी साहित्य प्रकाशन हेतु उक्त सहायता प्रदान नहीं की जाना चाहिए? होना तो यह चाहिए कि एक ऐसा सक्षम शासकीय संस्थान बने जो पांडुलिपियों की उपादेयता की जाँच करे और साहित्यकारों के संपर्क में भी रहे जिससे वे अपने साहित्य के निशुल्क प्रकाशन हेतु उस संस्थान तक सहजता से पहुँच सकें।

बिजली की छूट, किसानों को छूट, गरीबों को छूट, आयकर में छूट के अलावा रसोई गैस और सौर ऊर्जा पर सब्सिडी दी जाती है तो क्या प्रकाशित उपयोगी पुस्तकों के क्रय पर कुछ सरकारी छूट उपलब्ध नहीं हो सकती? इससे इन पुस्तकों को लोग आसानी से खरीद कर लाभान्वित तो हो सकेंगे। अन्य प्रक्रिया के अंतर्गत उपयोगी पुस्तकों के प्रकाशन पर भी सरकारी मदद मिलना चाहिए क्योंकि आज अकादमियों अथवा शासकीय योजनाओं से लाभ लेना हर साहित्यकार के बस में नहीं होता। पहुँच, जोड़-तोड़, उपयोगिता सिद्ध करना सब कुछ उन्हीं के पास होता है जो सरकारी सहायता चेहरे देखकर प्रदान करते हैं।

वाकई आज हिंदी साहित्य की पुस्तकों की महँगी कीमतें हिंदी पाठक के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। कुछ भी हो हिंदी साहित्य की पुस्तकों हेतु छपाई वाला उपयुक्त पेपर सस्ते दामों में मिलना चाहिए। आसमान को छूते प्रिंटिंग चार्ज भी कम होना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि जब पुस्तकों के प्रकाशन की लागत कम होगी तभी अधिक से अधिक हिंदी साहित्य की पुस्तकें बाजार में उपलब्ध हो पाएँगी और लोग अधिक से अधिक लाभान्वित भी हो सकेंगे। दुर्लभ होती जा रहीं उपयोगी पुस्तकों का पुनः प्रकाशन सरकारी खर्च पर होना चाहिए।

जब कहा गया है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है तब साहित्यिक पुस्तकों के ऊँचे दाम तथा इनकी अनुपलब्धता के चलते समाज का दर्पण क्या दिखाएगा? साहित्य का संरक्षण व संवर्धन हमारी संस्थाओं तथा सरकार की प्राथमिकता में होना चाहिए। साहित्यकारों को दी जाने वाली सुविधाएँ व प्रोत्साहन ही उपयोगी साहित्य सृजन को अपेक्षित बढ़ावा देगा। इस तरह हम कह सकते हैं कि सभी के मिले-जुले प्रयास ही हिंदी साहित्य की पुस्तकों के बढ़ते मूल्य और अनुपलब्धता का समाधान है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 117 ☆ विश्वास से विष-वास तक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 117 ☆ ? विश्वास से विष-वास तक

एक चुटकुला पढ़ने के लिए मिला। दुकान में चोरी के आरोप में मालिक के विश्वासपात्र एक पुराने कर्मी को धरा गया। जज ने आरोपी से कहा- तुम किस तरह के व्यक्ति हो? जिसने तुम पर इतना विश्वास किया, तुमने उसी के साथ विश्वासघात किया? चोर ने हँसकर उत्तर दिया-  कैसी बात करते हैं जज साहब? यदि वह विश्वास नहीं करता तो मैं विश्वासघात कैसे करता?

चुटकुले से परे विचार कीजिएगा। पिछले कुछ दशकों से समाज का चित्र इसी तरह बदला है और विश्वास का फल विश्वासघात होने लगा है।

अपवाद तो सर्वदा रहे हैं, तब भी वह समय भी था जब परस्पर विश्वास प्रमुख जीवनमूल्य था।  महाराष्ट्र के एक वयोवृद्ध शिक्षक ने एक किस्सा सुनाया। साठ के दशक में वे ग्रामीण भाग में अध्यापन करते थे। मूलरूप से कृषक थे पर आर्थिक स्थिति के चलते शिक्षक के रूप  नौकरी भी किया करते थे। उन दिनों गरीबी बहुत थी। अधिकांश लोगों की गुज़र- बसर ऐसे ही होती थी। विद्यालय में वेतन तो मिलता था पर बहुत अनियमित था।  कभी-कभी दो-चार माह तक वेतन न आता। इससे घर चलाना दूभर हो जाता।

एक बार लगभग छह माह वेतन नहीं आया। स्थिति बिगड़ती गई। कुल छह शिक्षक विद्यालय में पढ़ाते थे। उनमें से एक कर्नाटक के थे। उनके घर में पत्नी के पास यथेष्ट गहने थे। उन्होंने अपनी पत्नी के गहने एक राजस्थानी महाजन के पास गिरवी रखे। उससे जो ऋण मिला, वह छहों शिक्षकों ने आपस में बांट लिया।

कर्ज़ लेने के लिए यहाँ तक तो ठीक है पर उनका सुनाया इस कथा का उत्तरार्द्ध आज के समय में कल्पनातीत है। उन्होंने कहा कि सम्बंधित महाजन भी पास के ही गाँव में रहते थे। सब एक दूसरे से परिचित थे। महाजन ने कहा, ” गुरु जी,  अपना घर चलाने के लिए हुंडी रखकर ऋण देना मेरा व्यवसाय है। अत:  गहने मेरे पास जमा रखता हूँ। लेकिन यदि घर परिवार में किसी तरह का शादी-ब्याह आए, अन्य कोई प्रसंग हो जिसमें पहनने के लिए गहनों की आवश्यकता हो तो नि:संकोच ले जाइएगा। काम सध जाने के बाद  फिर जमा करा दीजिएगा।”  उन्होंने बताया कि हम छह शिक्षकों को तीन वर्ष लगे गहने छुड़वाने में। इस अवधि में सात-आठ बार ब्याह-शादी और अन्य आयोजनों के लिए उनके पास जाकर सम्बंधित शिक्षक गहने लाते और आयोजन होने के बाद फिर उनके पास रख आते। कैसा अनन्य, कैसा अद्भुत विश्वास!

सम्बंधित पात्रों के राज्यों का उल्लेख इसलिए किया कि वे अलग-अलग भाषा, अलग-अलग रीति-रिवाज़ वाले थे पर मनुष्य पर मनुष्य का विश्वास वह समान सूत्र था जो इन्हें एक करता था।

आज इस तरह के लोग और इस तरह का विश्वास कहीं दिखाई नहीं देता। जैसे-जैसे जीवन के केंद्र में पैसा प्रतिष्ठित होने लगा, विश्वास में विष का वास होने लगा। अमृतफल दे सकनेवाली मनुष्य योनि को विष-वास से पुन: विश्वास की ओर ले जाने का संभावित सूत्र, मनुष्यता को बचाये रखने के लिए समय की बड़ी मांग बन चुका है। इस मांग की पूर्ति हमारा परम कर्तव्य होना चाहिए।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 111 ☆ प्रार्थना और प्रयास ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख प्रार्थना और प्रयास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 111 ☆

☆ प्रार्थना और प्रयास ☆

प्रार्थना ऐसे करो, जैसे सब कुछ भगवान पर निर्भर है और प्रयास ऐसे करो कि जैसे सब कुछ आप पर निर्भर है–यही है लक्ष्य-प्राप्ति का प्रमुख साधन व सोपान। प्रभु में आस्था व आत्मविश्वास के द्वारा मानव विषम परिस्थितियों में कठिन से कठिन आपदाओं का सामना भी कर सकता है…जिसके लिए आवश्यकता है संघर्ष की। यदि आपमें कर्म करने का मादा है, जज़्बा है, तो कोई भी बाधा आपकी राह में अवरोध नहीं उत्पन्न कर सकती। आप आत्मविश्वास के सहारे निरंतर बढ़ते चले जाते हैं। परिश्रम सफलता की कुंजी है। दूसरे शब्दों में इसे कर्म की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘संघर्ष नन्हे बीज से सीखिए, जो ज़मीन में दफ़न होकर भी लड़ाई लड़ता है और तब तक लड़ता रहता है, जब तक धरती का सीना चीरकर वह अपने अस्तित्व को साबित नहीं कर देता’– यह है जिजीविषा का सजीव उदाहरण। तुलसीदास जी ने कहा है कि यदि आप धरती में उलटे-सीधे बीज भी बोते हैं, तो वे शीघ्रता व देरी से अंकुरित अवश्य हो जाते हैं। सो! मानव को कर्म करते समय फल की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कर्म का फल मानव को अवश्य प्राप्त होता है।

कर्म का थप्पड़ इतना भारी और भयंकर होता है कि जमा किया हुआ पुण्य कब खत्म हो जाए, पता ही नहीं चलता। पुण्य खत्म होने पर समर्थ राजा को भी भीख मांगने पड़ सकती है।इसलिए कभी भी किसी के साथ छल-कपट करके उसकी आत्मा को दु:खी मत करें, क्योंकि बद्दुआ से बड़ी कोई कोई तलवार नहीं होती। इस तथ्य में सत्-कर्मों पर बल दिया गया है, क्योंकि सत्-कर्मों का फल सदैव उत्तम होता है। सो! मानव को छल-कपट से सदैव दूर रहना चाहिए, क्योंकि पुण्य कर्म समाप्त हो जाने पर राजा भी रंक बन जाता है। वैसे मानव को किसी की बद्दुआ नहीं लेनी चाहिए, बल्कि प्रभु का शुक्रगुज़ार रहना चाहिए, क्योंकि प्रभु जानते हैं कि हमारा हित किस स्थिति में है? प्रभु हमारे सबसे बड़े हितैषी होते हैं। इसलिए हमें सदैव सुख में प्रभु का सिमरन करना चाहिए, क्योंकि परमात्मा का नाम ही हमें भवसागर से पार उतारता है। सो! हमें प्रभु का स्मरण करते हुए सर्वस्व समर्पण कर देना चाहिए, क्योंकि वही आपका भाग्य-विधाता है। उसकी करुणा-कृपा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। दूसरी ओर मानव को आत्मविश्वास रखते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। इस स्थिति में मानव को यह सोचना चाहिए कि वह अपने भाग्य का विधाता स्वयं है तथा उसमें असीम शक्तियां संचित हैं।  अभ्यास के द्वारा जड़मति अर्थात् मूढ़ व्यक्ति भी बुद्धिमान बन सकता है, जिसके अनेक उदाहरण हमारे समक्ष हैं। कालिदास के जीवन-चरित से तो सब परिचित हैं। वे जिस डाली पर बैठे थे, उसी को काट रहे थे। परंतु प्रभुकृपा प्राप्त होने के पश्चात् उन्होंने संस्कृत में अनेक महाकाव्यों व नाटकों की रचना कर सबको स्तब्ध कर दिया। तुलसीदास को भी रत्नावली के एक वाक्य ने दिव्य दृष्टि प्रदान की और उन्होंने उसी पल गृहस्थ को त्याग दिया। वे परमात्म-खोज में लीन हो गए, जिसका प्रमाण है रामचरितमानस  महाकाव्य। ऐसे अनगिनत उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘तुम कर सकते हो’– मानव असीम शक्तियों का पुंज है। यदि वह दृढ़-निश्चय कर ले, तो वह सब कुछ कर सकता है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। सो! हमारे हृदय में शंका भाव का पदार्पण नहीं होना चाहिए। संशय उन्नति के पथ का अवरोधक है और हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। हमें संदेह, संशय व शंका को अपने हृदय में प्रवेश नहीं करने देना चाहिए।

संशय मित्रता में सेंध लगा देता है और हंसते-खेलते परिवारों के विनाश का कारण बनता है। इससे निर्दोषों पर गाज़ गिर पड़ती है। सो! मानव को कानों-सुनी पर नहीं, आंखिन- देखी पर विश्वास करना चाहिए, क्योंकि अतीत में जीने से उदासी और भविष्य में जीने से तनाव आता है। परंतु वर्तमान में जीने से आनंद की प्राप्ति होती है। कल अर्थात् बीता हुआ कल हमें अतीत की स्मृतियों में जकड़ कर रखता है और आने वाला कल भविष्य की चिंताओं में जकड़ लेता है और उस व्यूह से हम चाह कर भी मुक्त नहीं हो सकते। ऐसी स्थिति में मानव सदैव इसी उधेड़बुन में उलझा रहता है कि उसका अंजाम क्या होगा और इस प्रकार वह अपना वर्तमान भी नष्ट कर लेता है। तो वर्तमान वह स्वर्णिम काल है, जिसमें जीना सर्वोत्तम है। वर्तमान आनंद- प्रदाता है, जो हमें संधर्ष व परिश्रम करने को प्रेरित करता है। सो। संघर्ष ही जीवन है और जो मनुष्य कभी बीच राह से लौटता नहीं; वह धन्य है। सफलता सदैव उसके कदम चूमती है और वह कभी भी अवसाद के घेरे में नहीं आता। वह हर पल को जीता है और हर वस्तु में अच्छाई की तलाशता है। फलत: उसकी सोच सदैव सकारात्मक रहती है। 

हमारी सोच ही हमारा आईना होती है और वह आप पर निर्भर करता है कि आप गिलास को आधा भरा देखते हैं या खाली समझ कर परेशान होते हैं। रहीम जी का यह दोहा ‘जै आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ आज भी समसामयिक व सार्थक है। जब जीवन में संतोष रूपी धन आ जाता है, तो उसे धन-संपत्ति की लालसा नहीं रहती और वह उसे धूलि समान भासता है। शेक्सपीयर का यह कथन ‘सुंदरता व्यक्ति में नहीं, दृष्टा की आंखों में होती है’ अर्थात् सौंदर्य हमारी नज़र में नहीं, नज़रिए में होता है इसलिए जीवन में नज़रिया व सोच को बदलने की शिक्षा दी जाती है।

जीवन में कठिनाइयां हमें बर्बाद करने के लिए नहीं आतीं,बल्कि हमारी छुपी हुई सामर्थ्य व  शक्तियों को बाहर निकालने में हमारी मदद करती हैं। ‘कठिनाइयों को जान लेने दो कि आप उनसे भी कठिन हैं। कठिनाइयां हमारे अंतर्मन में संचित सामर्थ्य व शक्तियों को उजागर करती हैं;  हमें सुदृढ़ बनाती हैं तथा हमारे मनोबल को बढ़ाती हैं।’ इसलिए हमें उनके सम्मुख पर पराजय नहीं स्वीकार नहीं चाहिए। वे हमें भगवद्गीता की कर्मशीलता का संदेश देती हैं। ‘उम्र ज़ाया कर दी लोगों ने/ औरों के वजूद में नुक्स निकालते-निकालते/ इतना ख़ुद को तराशा होता/ तो फ़रिश्ते बन जाते।’ गुलज़ार की ये पंक्तियां मानव को आत्मावलोकन करने का संदेश देती हैं। परंतु मानव दूसरों पर अकारण  दोषारोपण करने में प्रसन्नता का अनुभव करता है और निंदा करने में उसे अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। इस प्रकार वह पथ-विचलित हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘अगर ज़िन्दगी में सुक़ून चाहते हो, तो फोकस काम पर करो; लोगों की बातों पर नहीं। इसलिए मानव को अपने कर्म की ओर ध्यान देना चाहिए; व्यर्थ की बातों पर नहीं।’ यदि आप ख़ुद को तराशते हैं, तो लोग आपको तलाशने लगते हैं। यदि आप अच्छे कर्म करके ऊंचे मुक़ाम को हासिल कर लेते हैं, तो लोग आपको जान जाते हैं और आप का अनुसरण करते हैं; आप को सलाम करते हैं। वास्तव में लोग समय व स्थिति को प्रणाम करते हैं; आपको नहीं। इसलिए आप अहं को जीवन में पदार्पण मत करने दीजिए। सम भाव से जीएं तथा प्रभु-सत्ता के सम्मुख समर्पण करें। लोगों का काम है दूसरों की आलोचना व निंदा करना। परंतु आप उनकी बातों की ओर ध्यान मत दीजिए; अपने काम की ओर ध्यान दीजिए। ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती।’ सो!  निरंतर प्रयासरत रहिए– मंज़िल आपकी प्रतीक्षारत रहेगी। प्रभु-सत्ता में विश्वास बनाए रखिए तथा सत्कर्म करते रहिए…यही जीवन जीने का सही सलीका है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 62 ☆ शुद्धता को ताक पर रखते लोग! ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख शुद्धता को ताक पर रखते लोग!।)

☆ किसलय की कलम से # 62 ☆

☆ शुद्धता को ताक पर रखते लोग! 

मानव का गहना मानवता है। सच्चाई, सद्भावना और परोपकार रूपी ये तीन गुण यदि मानव आत्मसात ले तो शेष सभी अच्छाईयाँ उसके मन में स्थाई रूप से बस जाती हैं। जीवनयापन का मूल आधार धनोपार्जन होता है। बुद्धि और श्रम के अनुपात में ही आपकी संपन्नता लताओं और पौधों के समान धीरे-धीरे बढ़ती है। त्वरित संपन्नता का कारक नैतिकता व ईमानदारी कभी नहीं हो सकता, लेकिन आज यही सब समाज में दिखाई दे रहा है। अधिकांश लोग आज नैतिकता व ईमानदारी को अपने लॉकर में बंद कर उद्योग-धंधे, नौकरी-पेशा अथवा व्यवसाय करते नजर आते हैं।

जब तक मानव जीवन के लिए कोई भी कृत्य अथवा व्यवहार हानिकारक या जानलेवा न हो तब तक ठीक है, लेकिन जब आपके कृत्य व आचरण से व्यक्तिगत अथवा सामूहिक क्षति होने लगे तो यह मानवता के लिए घोर संकट का कारण बन सकता है।

एक समय था जब लोग खाद्य पदार्थों में मिलावट करना अपराध मानते थे, अपराध बोध से द्रवित हो जाते थे। मानते थे कि हमारे अनैतिक कार्य ईश्वर भी देखता है। उनका अंतस ऐसे गलत कार्य करने की स्वीकृति कभी नहीं देता था, लेकिन वर्तमान में स्वार्थ की हवस इतनी बढ़ती जा रही है कि लोग नैतिकता और ईमानदारी को फिजूल की बातें मानने लगे हैं। शुद्धता को ताक पर रखकर ये लोग केवल अपना उल्लू सीधा करने में संलिप्त हैं।

अनाज की पैदावार बढ़ाने के लिए अधिकांश लोग रासायनिक खाद का उपयोग करते हैं। यह सभी जानते हैं कि हुबहू अनाज के रूप में हमें इस प्रकार का पौष्टिकताविहीन खाद्य पदार्थ मिलता है लेकिन “ज्यादा उत्पादन – ज्यादा पैसा” के समीकरण का सिद्धांत आज की प्रवृत्ति बनता जा रहा है। लौकी, कद्दू जैसी सब्जियों को इंजेक्शन लगाकर रातों-रात बड़ा कर दिया जाता है। पपीते और केलों को कार्बाइड जैसे केमिकल से पकाकर बाजार में बेचा जाता है। मुरझाई व पीली पड़ी सब्जियों में रंग और रसायनों से कई दिनों तक हरा भरा रखा जाता है। सीलबंद खाद्य पदार्थों में विनेगर, नाइट्रोजन व प्रिजर्वेटिव जैसे हानिकारक रसायन मिलाकर न सड़ने की सुनिश्चितता पर कई-कई महीनों तक बेचे जाते हैं। आटे में बेंजोयल पर ऑक्साइड जिसे सिर्फ 4 मिलीग्राम डालने की शासन की स्वीकृति है उसे 400 मिलीग्राम तक डालकर लोगों की किडनी से खिलवाड़ किया जाता है। आटे में चाक पाउडर, बोरिक पाउडर और घटिया चावल का चूरा मिलाना भी आम बात है। और तो और अब यूरिया, डिटर्जेंट, घटिया तेल आदि से हानिकारक सिंथेटिक दूध बनाकर बेचा जा रहा है। ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन गाय-भैंसों को लगाकर दूध का उत्पादन बढ़ाया जाता है। कहा जाता है कि 25% दूध पशु अपने बच्चों के लिए बचा लेती है। इस बचे दूध को भी इंजेक्शन लगाकर निकाल लिया जाता है, इस इंजेक्शन से हमारे शारीरिक विकास पर विपरीत प्रभाव तो पड़ता ही है, हाइपोथैलेमस ग्लैंड में ट्यूमर होने की भी संभावना बढ़ जाती है। अब सुनने मिलता है कि कृत्रिम चावल और पत्ता गोभी भी पन्नियों  से बनाए जाने लगे हैं। खाद्य तेलों और वनस्पति घी में जानवरों की चर्बी मिलाई जाती है। घी में उबले आलू भी मिलाये जाते हैं। हम बहुत पहले से नकली दवाइयों के धंधे फूलते-फलते देख रहे थे। अनजाने में नकली दवाईयों का सेवन कर कितनों की जानें गई होंगी, इनका कभी लेखा-जोखा नहीं किया जा सका है। दवाईयों में सबसे घातक मिलावट और चालबाजी हाल ही में कोरोना के चलते सामने आई जब इस महामारी का सबसे कारगर इंजेक्शन रेमडेसिवर का मिलावटी और नकली होना पाया गया। इस अमानवीय कृत्य में संलग्न लोग पकड़े भी गए हैं। देखना है मानवता से खिलवाड़ करने का इन पर क्या दंड निर्धारित होता है। वैसे इस धंधे में पूरी एक श्रृंखला होती है जो उत्पादक, वितरक, मेडिकल स्टोर्स, हॉस्पिटल तथा पूरे डॉक्टर वर्ग की बनी होती है। उत्पादन मूल्य में उक्त सभी लोगों का प्रतिशत जोड़कर दवाईयाँ उपभोक्ताओं को जिस मूल्य पर विक्रय हेतु उपलब्ध होती हैं वे दवाईयाँ कितने प्रतिशत बढ़े हुए मूल्य पर बेची जाती है, आप स्वयं इसका अंदाजा लगा सकते हैं। सब कुछ जानते हुए भी सरकार इसलिए कुछ नहीं कर पाती कि सरकार में बैठे लोग भी किसी न किसी कारण कीमतें कम करने में सदैव असमर्थ रहते हैं।

मिष्ठान्नों में भी नकली खोवा केमिकल्स, रंगों, प्रिजर्वेटिव्स एवं निषिद्ध घटिया पदार्थों का बहुतायत में प्रयोग किया जाता है, जो सेहत के लिए नुकसानदायक होता है। शासकीय स्तर पर सैंपल और दुकानों तथा कारखानों में छापे के बाद भी लगभग सारे दोषी पुनः निर्दोष होने का प्रमाण पत्र लिए उन्हीं गोरखधंधों में लिप्त हो जाते हैं।

मानव जहाँ ऐसे खाद्य पदार्थों को खाकर अपनी जान गँवा रहा है, वहीं मिलावटी सीमेंट, मिलावटी सोने-चांदी के जेवरात, दैनिक उपयोग की घटिया वस्तुओं से भी लोग परेशान और हैरान हैं। कम लागत के लोभ में घटिया पदार्थों के साथ ही मूल वस्तुओं के रूप, गुण, धर्म में समानता रखने वाले सस्ती कीमत के उत्पादों को भी बाजार में शुद्ध वस्तुओं के दामों बेचकर बेतहाशा पैसा कमाया जा रहा है।

हमारे मानव समाज की ये भी एक विडंबना है कि हम जहाँ भौतिक चीजों में मिलावट की बात करते हैं, वहीं हमारी बातों, हमारे व्यवहार यहाँ तक कि हमारी हँसी में भी मिलावट पाई जाने लगी है। हम अंदर से कुछ और हैं तथा बाहर कुछ और प्रदर्शित करते हैं। क्या ये सभी मानव जाति के लिए सही है? हम क्या लेकर आए थे, और क्या लेकर इस दुनिया छोड़ कर जाएँगे, ये विचारणीय बातें हैं।

आज हम स्वयं के द्वारा कमाए हुए रुपयों का लाखों-लाख रुपया अपनी ही बीमारियों में लगा देते हैं। दुर्घटनाओं के बाद हाथ-पैर सुधारवाने में लगा देते हैं। अपने अच्छे-भले घरों, और पुलों, इमारतों को हम ढहते देखते हैं। ये अधिकांश क्षति किन कारणों से होती है। हम एक अनीति से पैसा कमाते हैं। दूसरा व्यक्ति दूसरी अनीति से कमाता है। हम दूसरे के जीवन को दाँव पर लगा देते हैं। दूसरा आपके जीवन के साथ खिलवाड़ करता है। काश! हम सभी एक दूसरे के जीवन को बहुमूल्य मानते हुए नैतिकता और ईमानदारी से अपना-अपना काम करें तो शायद हमारा समाज, हमारा देश, यहाँ तक कि सारा विश्व स्वर्ग न सही, स्वर्ग जैसा जरूर बन सकता है। कुछ भी हो, हमें सच्चाई, सद्भावना और परोपकार के मार्ग पर यथासंभव चलना ही चाहिए। आखिर हम मानव हैं और मानवता समाज का ध्यान रखना हमारा कर्त्तव्य भी है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 132 ☆ आलेख – हरीश नवल बजरिये अंतरताना ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय आलेख  ‘हरीश नवल बजरिये अंतरताना’ । इस विचारणीय आलेख  के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 132 ☆

? आलेख – हरीश नवल बजरिये अंतरताना ?

किसी भी व्यक्ति को जानने समझने के लिये अंतरताना यानी इंटरनेट आज वैश्विक सुलभ सबसे बढ़ियां संसाधन है. एक क्लिक पर गूगल सहित ढ़ेरो सर्च एंजिन व्यक्ति के विषय में अलग अलग लोगों के द्वारा समय समय पर पोस्ट किये गये समाचार, आलेख, चित्र,  वीडीयो, किताबें वगैरह वगैरह जानकारियां पल भर में स्क्रीन पर ले आते हैं. यह स्क्रीनीग बड़ी रोचक होती है. मैं तो कभी कभी स्वयं अपने आप को ही सर्च कर लेता हूं. कई बार स्वयं मेरी ही विस्मृत स्मृतियां देखकर प्रसन्नता होती है. अनेक बार तो अपनी ही रचनायें ऐसे अखबारों या पोर्टल पर पढ़ने मिल जाती हैं, जिनमें कभी मैने वह रचना भेजी ही नही होती. एक बार तो अपने लेख के अंश वाक्य सर्च किये और वह एक नामी न्यूज चैनल के पेज पर बिना मेरे नामोल्लेख के मिली. इंटरनेट के सर्च एंजिन्स की इसी क्षमता का उपयोग कर इन दिनो निजी संस्थान नौकरी देने से पहले उम्मीदवारों की जांच परख कर रहे हैं. मेरे जैसे माता पिता बच्चो की शादी तय करने से पहले भी इंटरनेट का सहारा लेते दिखते हैं.  अस्तु.

मैने हिन्दी में हरीश नवल लिखकर इंटरनेट के जरिये उन्हें जानने की छोटी सी कोशिश की. एक सेकेन्ड से भी कम समय में लगभग बारह लाख परिणाम मेरे सामने थे. वे फेसबुक, से लेकर विकीपीडीया तक यू ट्यूब से लेकर ई बुक्स तक, ब्लाग्स से लेकर समाचारों तक छाये हुये हैं. अलग अलग मुद्राओ में उनकी युवावस्था से अब तक की ढ़ेरों सौम्य छबियां देखने मिलीं. उनके इतने सारे व्यंग्य पढ़ने को उपलब्ध हैं कि पूरी रिसर्च संभव है. इंटरनेट ने आज अमरत्व का तत्व सुलभ कर दिया है.

बागपत के खरबूजे लिखकर युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले हरीश जी आज  व्यंग्य के परिपक्व मूर्धन्य विद्वान हैं. उन्हें साहित्य के संस्कार परिवार से विरासत में मिले हैं. उनकी शालीनता व शिष्‍टता उनके साहित्य व व्यक्‍तित्व की विशेषता है. उनसे फोन पर भी बातें कर हृदय प्रफुल्लित हो जाता है. वे इतनी सहजता और आत्मीयता से बातें करते हैं कि उनके विशाल साहित्यिक कद का अहसास ही नही होता. अपने लेखन में मुहावरे और लोकोक्‍तियों का रोचक तरीके से प्रयोग कर वे पाठक को बांधे रहते हैं.  वे माफिया जिंदाबाद कहने के मजेदार प्रयोग करने की क्षमता रखते हैं. पीली छत पर काला निशान, दिल्ली चढ़ी पहाड़, मादक पदार्थ, आधी छुट्टी की छुट्टी, दीनानाथ का हाथ, वाया पेरिस आया गांधीवाद, वीरगढ़ के वीर,  निराला की गली में जैसे टाइटिल ही उनकी व्यंग्य अभिव्यक्ति के परिचायक हैं.

प्रतिष्ठित हिन्दू कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहते हुये उन्होंने ऐसा अध्यापन किया है कि  उनके छात्र जीवन पर्यंत उन्हें भूल नही पाते. उन्होने शिक्षा के साथ साथ छात्रो को संस्कार दिये हैं औ उनके  व्यक्तित्व का रचनात्मक विकास किया है. अपने लेखन से उन्होने मेरे जैसे व्यक्तिगत रूप से नितांत अपरिचित पाठको का विशाल वैश्विक संसार रचा है.  डॉ. हरीश नवल बतौर स्तम्भकार इंडिया टुडे, नवभारत टाइम्स, दिल्ली प्रेस की पत्रिकाएँ, कल्पांत, राज-सरोकार तथा जनवाणी (मॉरीशस) से जुड़े रहें हैं. उन्होने इंडिया टुडे, माया, हिंद वार्ता, गगनांचल और सत्ताचक्र के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण काम किये हैं. वे एन.डी.टी.वी के हिन्दी प्रोग्रामिंग परामर्शदाता, आकाशवाणी दिल्ली के कार्यक्रम सलाहकार, बालमंच सलाहकार, जागृति मंच के मुख्य परामर्शदाता, विश्व युवा संगठन के अध्यक्ष, तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय सह-संयोजक पुरस्कार समिति तथा हिन्दी वार्ता के सलाहकार संपादक के पद पर सफलता पूर्वक काम कर चुके हैं.  वे अतिथि व्याख्याता के रुप में सोफिया वि.वि. बुल्गारिया तथा मुख्य परीक्षक के रूप में मॉरीशस विश्वविद्यालय (महात्मा गांधी संस्थान) से जुड़े रहे हैं. दुनियां के ५० से ज्यादा देशो की यात्राओ ने उनके अनुभव तथा अभिव्यक्ति को व्यापक बना दिया है. उनके इसी हिन्दी प्रेम व विशिष्ट व्यक्तित्व को पहचान कर स्व सुषमा स्वराज जी ने उन्हें ग्यारहवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की पांच सदस्यीय आयोजक समिति का संयोजक मनोनीत किया था.  

हरीश जी ने आचार्य तुलसी के जीवन को गंभीरता से पढ़ा समझा और अपने उपन्यास रेतीले टीले का राजहंस में उतारा है.  जैन धर्म के अंतर्गत ‘तेरापंथ’ के उन्नायक आचार्य तुलसी भारत के एक ऐसे संत-शिरोमणि हैं, जिनका देश में अपने समय के धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक आदि विभिन्न क्षेत्रों पर गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है. आचार्य तुलसी का दर्शन, उनके जीवन-सूत्र, सामाजिक चेतना, युग-बोध, साहित्यिक अवदान और मार्मिक तथा प्रेरक प्रसंगों को हरीश जी ने इस कृति में प्रतिबिंबित किया है.  पाठक पृष्ठ-दर-पृष्ठ पढ़ते हुये आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व और अवदान से परिचित होते हैं व आत्मोत्थान की राह ढ़ूंढ़ सकते हैं.

उनके लेखन में विविधता है. समीक्षात्मक लेख,  पटकथा लेखन, संपादन, निबंध लेखन, लघुकथा, व्यंग्य के हाफ लाइनर, जैसे प्रचुर प्रयोग, और हर विधा में श्रेष्ठ प्रदर्शन उन्हें विशिष्ट बनाता है. अपनी कला प्रेमी चित्रकार पत्नी व बेटियों के प्रति उनका प्यार उनकी फेसबुक में सहज ही पढ़ा जा सकता है. उन्हें यू ट्यूब के उनके साक्षात्कारो की श्रंखलाओ व प्रस्तुतियो में जीवंत देख सुन कर कोई भी कभी भी आनंदित हो सकता है. लेख की शब्द सीमा मुझे संकुचित कर रही है, जबकि वास्तविकता यह है कि “हरीश नवल बजरिये अंतरताना” पूरा एक रिसर्च पेपर बनाया जा सकता है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 116 ☆ सोना और सोना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 116 ☆ सोना और सोना 

‘समय बलवान, समय का करो सम्मान’, बचपन में इस तरह की अनेक कहावतें सुनते थे। बाल मन कच्ची मिट्टी होता है, जल्दी ग्रहण करता है। जो ग्रहण करता है, वही अंकुरित होता है। जीवनमूल्यों के बीज, जीवनमूल्यों के वृक्ष खड़े करते हैं।

अब अनेक बार  किशोरों और युवाओं को मोबाइल पर बात करते सुनते हैं,- क्या चल रहा है?… कुछ खास नहीं, बस टीपी।.. टीपी अर्थात टाइमपास। आश्चर्य तो तब होता है जब अनेक पत्र-पत्रिकाओं के नाम भी टाइमपास, फुल टाइमपास, ऑनली टाइमपास, हँड्रेड परसेंट टाइमपास देखते-सुनते हैं। वैचारिक दिशा और दशा के संदर्भ में ये शीर्षक बहुत कुछ कह देते हैं।

वस्तुतः व्यक्ति अपनी दिशा और दशा का निर्धारक स्वयं ही होता है। गोस्वामी जी ने लिखा है- “बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।” मनुष्य तन पाना सौभाग्य की बात है। देवताओं के लिए भी यह मनुष्य योनि पाना दुर्लभ है। वस्तुत: ईश्वर से साक्षात्कार की सारी संभावनाएँ इसी योनि में हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि यह योनि नश्वर है।

योनि नश्वर है, अर्थात कुछ समय के लिए ही मिली है। यह समय भी अनिश्चित है। किसका समय कब पूरा होगा, यह केवल समय ही जानता है। ऐसे में क्षण-क्षण का अपितु क्षणांश का भी जीवन में बहुत महत्व है। जिसने समय का मान किया, उसने जीवन का सदुपयोग किया। जिसने समय का भान नहीं रखा, उसे जीवन ने कहीं का नहीं रखा। अपनी कविता ‘क्षण-क्षण’ का स्मरण हो आता है। कविता कहती है,  “मेरे इर्द-गिर्द / बिखरे पड़े हज़ारों क्षण / हर क्षण खिलते/ हर क्षण बुढ़ाते क्षण/ मैं उठा/ हर क्षण को तह कर / करीने से समेटने लगा / कई जोड़ी आँखों में / प्रश्न भी उतरने लगा / क्षण समेटने का / दुस्साहस कर रहा हूँ /मैं यह क्या कर रहा हूँ?..अजेय भाव से मुस्कराता / मैं निशब्द / कुछ कह न सका/ समय साक्षी है / परास्त वही हुआ जो/ अपने समय को सहेज न सका।”

एक प्रसंग के माध्यम से इसे बेहतर समझने का प्रयास करते हैं। साधु महाराज के गुरुकुल में एक अत्यंत आलसी विद्यार्थी था। हमेशा टीपी में लगा रहता। गुरुजी ने उसका आलस्य दूर करने के अनेक प्रयास किए पर सब व्यर्थ। एक दिन गुरुजी ने एक पत्थर उसके हाथ में देकर कहा,” वत्स मैं तुझ से बहुत प्रसन्न हूँ। यह पारस पत्थर है। इसके द्वारा लोहे से सोना बनाया जा सकता है। मैं दो दिन के लिए आश्रम से बाहर जा रहा हूँ। दो दिन में चाहे उतना सोना बना लेना। कल सूर्यास्त के समय लौट कर पारस वापस ले लूँगा।” गुरु जी चले गए। आलसी चेले ने सोचा, दो दिन का समय है। गुरु जी नहीं हैं, सो आज का दिन तो सो लेते हैं, कल बाजार से लोहा ले आएँगे और उसके बाद चाहिए उतना सोना बना कर लेंगे। पहले दिन तो सोने पर उसका उसका सोना भारी पड़ा। अगले दिन सुबह नाश्ते, दोपहर का भोजन, बाजार जाने का लक्ष्य इस सबके नाम पर टीपी करते सूर्यास्त हो गया। हाथ में आया सोना, सोने के चलते खोना पड़ा।

स्मरण रहे, यह पारस कुछ समय के लिए हरेक को मिलता है। उस समय सोना और सोना में से अपना विकल्प भी हरेक को चुनना पड़ता है। इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #99 ☆ यज्ञ तथा प्राकृतिक पर्यावरण का मानव जीवन पर प्रभाव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 99 ☆

☆ यज्ञ तथा प्राकृतिक पर्यावरण का मानव जीवन पर प्रभाव ☆

पृथ्वी सगंधसरसास्तथाप:, स्पर्शी च वायुर्ज्वलितं च तेज:।

नभ:  सशब्दं महतां सहैव, कुर्वंतु सर्वे मम सुप्रभातम्।

इत्थं प्रभाते परमंपवित्रम्, पठेतस्मरेद्वा श्रृणयाच्च  भक्त्या।

दु:स्वप्न नाशस्ति्त्व: सुप्रभातमं, भवेच्चनित्यम् भगवत् प्रसादात्।।

(वामन पुराण14-26,14-28)

अर्थात्–गंध युक्त पृथ्वी,रस युक्त जल,स्पर्शयुक्त वायु, प्रज्वलित तेज, शब्द सहित आकाश, एवम् महतत्त्व, सभी मिलकर कर मेरा प्रात:काल मंगल मय करें।

सहयज्ञा: प्रजा:सृष्ट्वा पुरोवाचप्रजापति।

अनेन‌ प्रसविष्यध्वमेण वोअस्तित्वष्ट काम धुक्।।

 देवानंद भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।

परस्परं भावयंत:श्रेय: परमवाप्स्यथ।।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यंते यज्ञभाविता:।

तैर्दत्तान प्रदायभ्यो तो भुंक्तेस्तेन एवस:।।

(श्री मद्भागवतगीताअ०३-१०-११-१२)

अर्थात् सृष्टि के प्रारंभ में समस्त प्राणियों के स्वामी प्रजापति ने भगवान श्री हरि विष्णु के प्रीत्यर्थ, यज्ञ सहित मनुष्यों तथा देवताओं के संततियों की रचना की। तथा उनसे कहा कि तुम यज्ञ से सुखी रहो, क्यों कि इसके करने से तुम्हें सुख शांति पूर्वक रहने तथा मोक्ष प्राप्ति करने के लिए समस्त वांछित वस्तुएं प्राप्त होंगी, उन यज्ञों से पोषित  प्रसंन्न देवता वृष्टि करेंगे, इस प्रकार परस्पर सहयोग से सभी सुख-शांति तथा समृद्धि को प्राप्त होंगे। लेकिन जो देवताओं द्वारा प्रदत्त उपहारों को उन्हें अर्पित किए बिना उपभोग करेगा वह महाचोर है।

इस प्रकार श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित श्लोक के चरणांश हमें शांत सुखी एवं आदर्श जीवन यापन की आदर्श शैली का सफल सूत्र तो बताती ही है।

हमारी जीवन पद्धति पूर्व पाषाण काल से लेकर आज तक लगभग प्रकृति की दया दृष्टि पर ही निर्भर है।जब पाषाण कालीन मानव असभ्य एवं बर्रबर था, सभ्यातायें विकसित नहीं थी, वह आग जलाना खेती करना पशुपालन करना नहीं जानता था। गुफा  पर्वतखोह कंदराएं ही उसका निवास होती थी। उस काल से लेकर वर्तमान कालीन  विकसित सभ्यता होने तक तमाम वैज्ञानिक आविष्कारों ने मानव समाज को  सुविधा भोगी आलसी एवं नाकारा एवम् पंगुं बना दिया, जिसके चलते हम प्रकृति एवम् पर्यावरण से दूर होते चले गए। हम आज भी उतनें ही लाचार एवम् विवस है जितना तब थे। बल्कि हम आज श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित सिद्धांतों का परित्याग कर, प्रकृति का पोषण छोड़ उसका अंधाधुंध दोहन करने में लगे हुए हैं। हम प्राकृतिक नियमों की अनदेखी कर प्राकृतिक प्रणाली में  खुला हस्तक्षेप करने लगे हैं। जिसका परिणाम आज सारा विश्व भुगतता त्राहिमाम करता दीख रहा है। पर्यावरणीय असंतुलन अपने घातक स्तर को पार कर चुका है।

इसी क्रम में हमें याद आती है हमारे सनातन धर्म में वर्णित वेद ऋचाओं में शांति पाठ के उपयोगिता की, जिसमें पूर्ण की समीक्षा करते हुए लोक मंगल की मनोकामनाओं के साथ  समस्त प्राकृतिक शक्तियों पृथ्वी, अंतरिक्ष, वनस्पतियों औषधियों को शांत रहने के लिए आवाहित किया गया है। इस लिए वैदिक ऋचाओं का उल्लेख सामयिक जान पड़ता है।

 ऋचा—-

ऊं  पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते।

पूर्णस्यपूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

ऊं द्यौ:शान्तिरन्तरिक्षऽशांति शांति:, पृथ्वीशांतराप: शांतिरोषधय: शांति।

वनस्पतय: शांतर्विश्वेदेवा: शांतिर्ब्ह्म शांति: सर्वऽवम् शांति शातिरेव शांति:सा मां शातिरेधि शांति:।

ऊं शांति:! शांति:!! शांति!! सर्वारिष्टा सुशांतिर्भवंति।।

आज अंतरिक्ष अशांत है, पृथ्वी अशांत है, धरती एवम् आकाश के सीने में कोलाहल से हलचल मची हुई है, जलवायु प्रदूषण परिवर्तन तीव्रतम गति से जारी है, वनस्पतियां औषधियां अशांत हो अपना स्वाभाविक नैसर्गिक गुण खो रही है।

जिसका परिणाम सूखा बाढ़ बर्फबारी, आंधी तूफान तड़ित झंझा के रूप में दृष्टि गोचर हो रहा है, लाखों लोग भूकंप महामारी भूस्खलन से काल कवलित हो रहे हैं। वे अपने आचार विचार आहार विहार की प्राकृतिक नैसर्गिकता से बहुत दूर हो गये है।

प्राचीन समय के हमारे मनीषियों ने प्रकृति के प्राकृतिक महत्त्व को समझा था। इसी कारण वह धरती का शोषण नहीं पोषण करते थे।

जिसके चलते हमें प्रकृति ने फल फूल लकड़ी चारा जडी़ बूटियां उपलब्ध कराये। जिनके उपभोग से मानव  सुखी शांत समृद्धि का जीवन जी रहा था, यज्ञो तथा आध्यात्मिक उन्नति के चलते मानव समाज, लोक-मंगल कारी कार्यों में पूर्णनिष्ठा लगन से तन मन धन से जुड़ा रहता था, वह तालाबों कूपों बावड़ियों का निर्माण कराता, बाग बगीचे लगाता जिसे समाज का पूर्ण सहयोग तथा समर्थन प्राप्त होता। मानव औरों को सुखी देख स्वयं सुखी हो लेता,उसके लिए अपना सुख अपना दुख कोई मायने नहीं रखता। आत्म संतुष्टि से ओत प्रोत जीवन दर्शन का यही भाव कविवर रहीम दास जी के इस दोहे से प्रतिध्वनित होता है।

गोधन गजधन बाजिधन, और रतन धन खान।

जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।।

लेकिन आज ज्यो ज्यो सभ्यता विकसित होती गई, प्रकृति के साथ हमारी संवेदनाएं तथा लगाव खत्म होता गया, हमारे आचार विचार व्यवहार अस्वाभाविक रूप से बदल गये, दया करूणा प्रेम सहानुभूति जैसे मानवीय मूल्यों की जगह हम स्वार्थी क्रूर अवसरवादी एवं उपभोग वादी बनते चले गये।

हमने जल जंगल जमीन के प्राकृतिक श्रोतों को काटना पाटना आरंभ कर दिया, पहाड़ों को नंगा कर ढहाने लगे, नदियों पर बांध बना तत्कालिक लाभ के लिए उसकी जीवन धारा ही छीन लिया।

उसमें शहरों की गंदी नालियों का जल-मल बहा उसे पनाले का रूप दे दिया। हमने अपने ही आंगन के पेड़ों कटाई कर उसकी छाया खत्म कर दिया, और हमारे शहर गांव कंक्रीट के जंगलों में बदलते चले गये  इस प्रकार हमारा जीवन भौतिक संसाधनों पर आश्रित होता चला गया, हमें अपनी संस्कृति अपने रीती रिवाज दकियानूसी लगने लगे, हमनें अपने कमरे तो ऐसी कूलर फ्रीज लगा ठंडा तो कर लिया लेकिन अपने वातावरण को भी जहरीली गैसों से भरते रहे आज हमारे शहर जहरीले गैस चेंबर में बदल गये है। भौतिक जीवन शैली और जलवायु परिवर्तन प्रदूषण ने जितना नुकसान आज पहुंचाया है उतना पूर्व काल में कभी भी देखा सुना नहीं गया।

आज इंसान अपने ही अविष्कारों के जंजाल में बुरी तरह फंस कर उलझ चुका है।

यद्यपि उसके द्वारा उत्पादित प्लास्टिक ने मानव जीवन को सुविधाजनक बनाया है लेकिन वहीं पर उसके न सड़ने गलने वाले प्लास्टिक एवम् इलेक्ट्रॉनिक रेडियो धर्मी कचरे ने पृथ्वी आकाश एवम् जलस्रोतों को इस कदर प्रदूषित किया है कि आज आदमी को पानी भी छान कर पीना पड़ रहा है।

मानव का जीना मुहाल होता जा रहा है। आज विश्व के सारे शहर प्लास्टिक के कचरे के ढेर में बदल रहे हैं। जिसके चलते डेंगू मलेरिया चिकनगुनिया  पीलिया हेपेटाइटिस तथा करोना जैसी महामारियां  तेजी से पांव पसार रही है।संक्रामक संचारी महामारियों के रूप पकड़ चुके हैं और इंसानी समाज अपने प्रिय जनों को खोकर मातम मनाने पर विवस है। जो आने वाले बुरे समय का भयानक संकेत दे रहा है जिससे दुनिया सहमी हुई है।हम अब भी नहीं चेते तो वह दिन दूर नहीं जब महाकाल नग्न नर्तन करेगा और एक दिन इंसानी सभ्यता मिट जायेगी। क्यौं कि हमने अपनी तबाही और बरबादी की सारी  सामग्री खुद ही जुटा रखी है।

इस क्रम में हम अपने पूर्वजों की जीवन शैली का अपनी जीवनशैली से तुलनात्मक अध्ययन करें तो पायेंगे कि उनके लंबी आयु का मुख्य आधार तनावमुक्त जीवन शैली थी। वे गुरुकुलो एवम् ऋषिकुल संकुलों में प्राकृतिक  साहचर्य में रहते थे। अपनी यज्ञशालाओं में वेदरिचाओं  का आरोह अवरोह युक्त सस्वर पाठ करते, उनकी ध्वनियों तथा यज्ञ में आहूत समिधा के जलने से उत्तपन्न सुगंध से सुवासित सारा वातावरण सुरभित हो महक उठता था और वातावरण की नकारात्मक उर्जा नष्ट हो सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित हो उठती, सुबह शाम का संध्याबंदन अग्निहोत्र हमारी सांस्कृतिक जीवन शैली में प्राण चेतना भर कर उसे अभिनव गरिमा प्रदान करती, हम दिनभर सकारात्मक उर्जा से परिपूर्ण रहते, जिसके चलते हमारे समाज का जन जीवन उमंग उत्साह एवम् आनंद से परिपूर्ण होता, हमारे व्रतो त्यौहारों का उद्देश्य कहीं न कहीं  लोक-मंगल एवम पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा है, लेकिन आज़ तो हमारे जीवन की सुरूआत ही गाड़ी मोटर के हार्नो की कर्कस आवाजों टी वी मिक्सचर के शोर से आरंभ होकर  शाम डी जे के शोर में ढलती है क्यों कि हमारा कोई भी उत्सव हो अब बिना डीजे के शोर और धूमधड़ाके के अश्लील एवम् फूहड़ दो अर्थी गीतों के पूरा ही नहीं होता, मानों समस्त कर्मकांडो के अंत में कोई नया कर्मकांड जुड़ गया है।

आज हमारी स्वार्थपरता ने हमारे अपने बच्चों का ही बचपन छीन लिया है, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उन्हें बलि का बकरा बना दिया है, उन्हें डाक्टर या इंजिनियर बनाने की चाहत में हमने उनके खेलने खाने के दिन कम कर दिए हैं, उनकी जिंदगी पाश्चात्य शिक्षा पद्धति की किताबों के बोझ तले दब कर घुट घुट कर सिसकने के लिए मजबूर है। उनकी बचपना की शरारतें खिलखिलाहट भरी नैसर्गिक मुस्कान उन्मुक्त हास्य कहीं मोबाइल फोन टीवी विडियो गेम के आकर्षण में खो गई है, टी वी नेट  तथा मोबाइल का अंधाधुंध दुरूपयोग बच्चों युवाओं को खेल के मैदान से दूर कर अपने मोह पास में कैद कर लिया है, जिससे उनका शारीरिक विकास तथा दमखम बुरी तरह प्रभावित हुआ है, और अंत में कमरों के भीतर अंधेरे में गुजरने वाला समय एकाकी पन का रूप पकड़ मानसिक अवसाद में परिवर्तित हो आत्महत्या का कारण भी बन रहा है उसके आकर्षण से क्या बच्चा क्या जवान क्या बूढ़ा कोई नहीं बचा। आज हमारे दिन की शुरूआत चिड़ियों के कलरव, बच्चों की किलकारियों, संगीत की स्वरलहरियों से नहीं, ध्वनिप्रदूषण वायुप्रदूषण के दौर से गुजरती हुई तनाव के साथ शाम की अवसान बेला क्लबों के शोर शराबे, नशे की चुस्कियों के बीच गुजरने के लिए बाध्य है, जो जीवन को दुखों के दरिया में डुबोने को आतुर दीखती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कि प्राकृतिक जीवन शैली यज्ञों एवम् लोक मंगल कारी सोच विचार का मानव जीवन तथा समाज पर बड़ा ही गहरा एवम् सकारात्मक प्रभाव होता है तथा जीवन शांति पूर्ण बीतता है।

और अंत में———————

#सर्वे भवन्तु सुखिन: की मंगल मनोकामना#

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 110 ☆ ज़िंदगी और ज़िंदगी ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी और ज़िंदगी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 110 ☆

☆ ज़िंदगी और ज़िंदगी ☆

कुछ लोग ज़िंदगी होते हैं, कुछ लोग ज़िंदगी में होते हैं; कुछ लोगों से ज़िंदगी होती है और कुछ लोग होते हैं, तो ज़िंदगी होती है। वास्तव में ज़िंदगी निरंतर चलने का नाम है और रास्ते में चंद लोग हमें ऐसे मिलते हैं, जिनकी जीवन में अहमियत होती है। उनके बिना हम ज़िंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकते और कुछ लोगों के ज़िंदगी में होने से हमें अंतर नहीं पड़ता अर्थात् उनके न रहने से भी हमारा जीवन सामान्य रूप से चलता रहता है। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जिन्हें हम अवसरवादी कह सकते हैं। ये स्वार्थ के कारण हमारा साथ देते हैं। सो! ऐसे लोगों से मानव को सावधान रहना चाहिए। सच्चे दोस्त वे होते हैं, जो सुख-दु:ख में हमारे अंग-संग रहते हैं और सदैव हमारे हितैषी होते हैं। वे हमारी अनुपस्थिति में भी हमारे पक्षधर होते हैं। वास्तव में उनके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते, क्योंकि वे हर विषम परिस्थिति व आपदा में वे हमारा साथ निभाते हैं।

जीवन एक यात्रा है। इसे ज़बरदस्ती नहीं; ज़बरदस्त तरीके से जीएं। मानव जीवन अनमोल है तथा चौरासी लाख योनियों के पश्चात् प्राप्त होता है। इसलिए हमें जीवन में कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए, बल्कि इसे उत्सव समझना चाहिए और असामान्य परिस्थितियों में भी आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। मुझे स्मरण हो रही हैं अब्दुल कलाम की पंक्तियां– ‘आप अपना भविष्य नहीं बदल सकते, परंतु अपनी आदतों में परिवर्तन कर सकते हैं; जिससे आपका भविष्य स्वतः बदल सकता है।’ भले ही हम अपनी नियति नहीं बदल सकते, परंतु अपनी आदतों में परिवर्तन कर सकते हैं और यह हमारी सोच पर निर्भर करता है। यदि हमारी सोच सकारात्मक होगी, तो हमें गिलास आधा खाली नहीं; आधा भरा हुआ दिखाई पड़ेगा, जिसे देख हम संतोष करेंगे और अवसाद रूपी शिकंजे से सदैव बचे रहेंगे।

हर समस्या का समाधान होता है–आवश्यकता होती है आत्मविश्वास व धैर्य की। यदि हम निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं और बीच राह से लौटने से परहेज़ करते हैं, तो हमें सफलता अवश्य प्राप्त होती है। मन का संकल्प व शरीर का पराक्रम यदि किसी कार्य में लगा दिया जाए, तो असफल होने का प्रश्न ही नहीं उठता। हर समस्या के समाधान के केवल दो ही रास्ते नहीं होते हैं। हमें तीसरे विकल्प की ओर ध्यान देना चाहिए तथा तथा उस दिशा में अग्रसर होना चाहिए। ऐसी सीख हमें शास्त्राध्ययन, गुरुजन व सच्चे दोस्तों से प्राप्त हो सकती है।

संसार में जिसने दूसरों की खुशी में ख़ुद की खुशी सीखने का हुनर सीख लिया, वह कभी भी दु:खी नहीं हो सकता। बहुत ही आसान है/ ज़मीन पर मकान बना लेना/ दिल में जगह बनाने में/ ज़िंदगी गुज़र जाती है। सो!  चंचल मन पर अंकुश लगाना आवश्यक है। यह पल भर में तीन लोकों की यात्रा कर लौट आता है। यदि इच्छाएं कभी पूरी नहीं होती, तो क्रोध बढ़ता है; यदि पूरी होती हैं, तो लोभ बढ़ता है। इसलिए हमें हर परिस्थिति में सम रहना है और सुख-दु:ख के ऊपर उठना है। इसके लिए आवश्यकता है– मौन रहने और अवसरानुकूल सार्थक वचन बोलने की। मानव को तभी बोलना चाहिए, यदि उसके शब्द मौन पर बेहतर हैं। जितना समय आप मौन रहते हैं; आपकी इच्छाएं शांत रहती हैं और आप राग-द्वेष व स्व-पर के भाव से मुक्त रहते हैं। जब तक मानव एकांत व शून्य में रहता है; उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है और वह अलौकिक आनंद की अनुभूति करता है।

परमात्मा सदैव हमारे मन में निवास करता है। ‘तलाश ना कर मुझे/ ज़मीन और आसमान की ग़र्दिशों में/ अगर तेरे दिल में नहीं/ तो मैं कहीं भी नहीं।’ आत्मा व परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। वह घट-घट वासी है तथा उसे कहीं भी खोजने की आवश्यकता नहीं; अन्यथा हमारी दशा उस मृग की भांति हो जाएगी, जो जल की तलाश में भटकते हुए अपने प्राणों का त्याग कर देता है। ‘कस्तूरी कुंडली बसे/ मृग ढूंढे बन माहिं/ ऐसे घट-घट राम हैं/  दुनिया देखे नाहिं।’ सो! मानव को मंदिर-मस्जिद में जाने की आवश्यकता नहीं।

परमात्मा तक पहुंचने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा हमारा अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव है; जो हमें सब से अलग कर देता है। इसलिए कहा जाता है कि जो अपनों के बिना बीती वह उम्र और जो अपनों के साथ बीती  वह ज़िंदगी। सो!अहंकार प्रदर्शित कर रिश्तों को तोड़ने से अच्छा है, क्षमा मांगकर रिश्तों को निभाना। संसार में अच्छे लोग बड़ी कठिनाई से मिलते हैं, उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए। प्रकृति का नियम है–जैसे कर्म आप करते हैं, वही लौटकर आपके पास आते हैं। इसलिए सदैव निष्काम भाव से सत्कर्म कीजिए और किसी के बारे में बुरा भी मत सोचिए, क्योंकि समय से पहले और भाग्य से अधिक इंसान को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इसलिए अपनी ख़ुदी को ख़ुदा की रज़ा में मिला दीजिए; तुम्हारा ही नहीं, सबका मंगल ही मंगल होगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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