हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 106 ☆ सुक़ून की तलाश ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख सुक़ून की तलाश।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 106 ☆

☆ सुक़ून की तलाश ☆

‘चौराहे पर खड़ी ज़िंदगी/ नज़रें दौड़ाती है / कोई बोर्ड दिख जाए /जिस पर लिखा हो /सुक़ून… किलोमीटर।’ इंसान आजीवन दौड़ता रहता है ज़िंदगी में… सुक़ून की तलाश में, इधर-उधर भटकता रहता है और एक दिन खाली हाथ इस जहान से रुख़्सत हो जाता है। वास्तव में मानव की सोच ही ग़लत है और सोच ही जीने की दिशा निर्धारित करती है। ग़लत सोच, ग़लत राह, परिणाम- शून्य अर्थात् कभी न खत्म होने वाला सफ़र है, जिसकी मंज़िल नहीं है। वास्तव में मानव की दशा उस हिरण के समान है, जो कस्तूरी की गंध पाने के निमित्त, वन-वन की खाक़ छानता रहता है, जबकि कस्तूरी उसकी नाभि में स्थित होती है। उसी प्रकार बाबरा मनुष्य सृष्टि-नियंता को पाने के लिए पूरे संसार में चक्कर लगाता रहता है, जबकि वह उसके अंतर्मन में बसता है…और माया के कारण वह मन के भीतर नहीं झांकता। सो! वह आजीवन हैरान- परेशान रहता है और लख-चौरासी अर्थात् आवागमन के चक्कर से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। कबीरजी का दोहा ‘कस्तूरी कुंडली बसे/ मृग ढूंढे बन मांहि/ ऐसे घट-घट राम हैं/ दुनिया देखे नांही’  –सांसारिक मानव पर ख़रा उतरता है। अक्सर हम किसी वस्तु को संभाल कर रख देने के पश्चात् भूल जाते हैं कि वह कहां रखी है और उसकी तलाश इधर-उधर करते रहते हैं, जबकि वह हमारे आसपास ही रखी होती है। इसी प्रकार मानव भी सुक़ून की तलाश में भटकता रहता है, जबकि वह तो उसके भीतर निवास करता है। जब हमारा मन व चित्त एकाग्र हो जाता है; उस स्थिति में परमात्मा से हमारा तादात्म्य हो जाता है और हमें असीम शक्ति व शांति का अनुभव होता है। सारे दु:ख, चिंताएं व तनाव मिट जाते हैं और हम अलौकिक आनंद में विचरण करने लगते हैं… जहां ‘मैं और तुम’ का भाव शेष नहीं रहता और सुख-दु:ख समान प्रतीत होने लगते हैं। हम स्व-पर के बंधनों से भी मुक्त हो जाते हैं। यही है आत्मानंद अथवा हृदय का सुक़ून; जहां सभी नकारात्मक भावों का शमन हो जाता है और क्रोध,  ईर्ष्या आदि नकारात्मक भाव जाने कहां लुप्त जाते हैं।

हां ! इसके लिए आवश्यकता है…आत्मकेंद्रितता, आत्मचिंतन व आत्मावलोकन की…अर्थात् सृष्टि में जो कुछ हो रहा है, उसे निरपेक्ष भाव से देखने की। परंतु जब हम अपने अंतर्मन में झांकते हैं, तो हमें अच्छे-बुरे व शुभ-अशुभ का ज्ञान होता है और हम दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति पाने का भरसक प्रयास करते हैं। उस स्थिति में न हम दु:ख से विचलित होते हैं; न ही सुख की स्थिति में फूले समाते हैं; अपितु राग-द्वेष से भी कोसों दूर रहते हैं। यह है अनहद नाद की स्थिति…जब हमारे कानों में केवल ‘ओंम’ अथवा ‘तू ही तू’ का अलौकिक स्वर सुनाई पड़ता है अर्थात् ब्रह्म ही सर्वस्व है… वह सत्य है, शिव है, सुंदर है और सबसे बड़ा हितैषी है। उस स्थिति में हम निष्काम कर्म करते हैं…निरपेक्ष भाव से जीते हैं और दु:ख, चिंता व अवसाद से मुक्त रहते हैं। यही है हृदय की मुक्तावस्था… जब हृदय में उठती भाव-लहरियां शांत हो जाती हैं… मन और चित्त स्थिर हो जाता है …उस स्थिति में हमें सुक़ून की तलाश में बाहर घूमना नहीं पड़ता। उस मनोदशा को प्राप्त करने के लिए हमें किसी भी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि आप स्वयं ही अपने सबसे बड़े संसाधन हैं। इसके लिए आपको केवल यह जानने की दरक़ार रहती है कि आप एकाग्रता से अपनी ज़िंदगी बसर कर रहे हैं या व्यर्थ की बातों अर्थात् समस्याओं में उलझे रहते हैं। सो! आपको अपनी क्षमता व योग्यताओं को बढ़ाने के निमित्त अधिकाधिक समय स्वाध्याय व चिंतन-मनन में लगाना होगा और अपना चित्त ब्रह्म के ध्यान में  एकाग्र करना होगा। यही है…आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग। यदि आप शांत भाव से अपने चित्त को एकाग्र नहीं कर सकते, तो आपको अपनी वृत्तियों को बदलना होगा और यदि आप एकाग्र-चित्त होकर, शांत भाव से परिस्थितियों को बदलने का सामर्थ्य भी नहीं जुटा पाते, तो उस स्थिति में आपके लिए मन:स्थिति को बदलना ही श्रेयस्कर होगा। यदि आप दुनिया के लोगों की सोच नहीं बदल सकते, तो आपके लिए अपनी सोच को बदल लेना ही उचित, सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम होगा। राह में बिखरे कांटों को चुनने की अपेक्षा जूता पहन लेना आसान व सुविधाजनक होता है। जब आप यह समझ लेते हैं, तो विषम परिस्थितियों में भी आपकी सोच सकारात्मक हो जाती है, जो आपको पथ-विचलित नहीं होने देती। सो! जीवन से नकारात्मकता को निकाल बाहर फेंकने के पश्चात् पूरा संसार सत्यम् शिवम्, सुंदरम् से आप्लावित दिखाई पड़ता है।

सो! सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहिए, क्योंकि बुरी संगति के लोगों के साथ रहने से बेहतर है… एकांत में रहना। ज्ञानी, संतजन व सकारात्मक सोच के लोगों के लिए एकांत स्वर्ग तथा मूर्खों के लिए क़ैद-खाना है। अज्ञानी व मूर्ख लोग आत्मकेंद्रित व कूपमंडूक होते हैं तथा अपनी दुनिया में रहना पसंद करते हैं। ऐसे अहंनिष्ठ लोग पद-प्रतिष्ठा देखकर, ‘हैलो-हाय’ करने व संबंध स्थापित करने में विश्वास रखते हैं। इसलिए हमें ऐसे लोगों को कोटिश: शत्रुओं सम त्याग देना चाहिए…तुलसीदास जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है।

मानव अपने अंतर्मन में असंख्य अद्भुत, विलक्षण शक्तियां समेटे है। परमात्मा ने हमें देखने, सुनने, सूंघने, हंसने, प्रेम करने व महसूसने आदि की शक्तियां प्रदान की हैं। इसलिए मानव को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति स्वीकारा गया है। सो! हमें इनका उपभोग नहीं, उपयोग करना चाहिए… सदुपयोग अथवा नि:स्वार्थ भाव से उनका प्रयोग करना चाहिए। यह हमें परिग्रह अर्थात् संग्रह-दोष से मुक्त रखता है, क्योंकि हमारे शब्द व मधुर वाणी, हमें पल भर में सबका प्रिय बना सकती है और शत्रु भी। इसलिए सोच-समझकर मधुर व कर्णप्रिय शब्दों का प्रयोग कीजिए,  क्योंकि शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। सो! हमें दूसरों के दु:ख की अनुभूति कर, उनके प्रति करुणा-भाव प्रदर्शित करना चाहिए। समय सबसे अनमोल धन है; उससे बढ़कर तोहफ़ा दुनिया में हो ही नहीं सकता… जो आप किसी को दे सकते हैं। धन-संपदा देने से अच्छा है कि आप उस के दु:ख को अनुभव कर, उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करें तथा प्राणी-मात्र के प्रति स्नेह-सौहार्द भाव बनाए रखें।

स्वयं को पढ़ना दुनिया का सबसे कठिन कार्य है… प्रयास अवश्य कीजिए। यह शांत मन से ही संभव है। खामोशियां बहुत कुछ कहती हैं। कान लगाकर सुनिए, क्योंकि भाषाओं का अनुवाद तो हो सकता है, भावनाओं का नहीं…हमें इन्हें समझना, सहेजना व संभालना होता है। मौन हमारी सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम भाषा है, जिसका लाभ दोनों पक्षों को होता है। यदि हमें स्वयं को समझना है, तो हमें खामोशियों को पढ़ना व सीखना होगा। शब्द खामोशी की भाषा का अनुवाद तो नहीं कर सकते। सो! आपको खामोशी के कारणों की तह तक जाना होगा। वैसे भी मानव को यही सीख दी जाती है कि ‘जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों, तभी मुंह खोलना चाहिए।’  मानव की खामोशी अथवा एकांत में ही हमारे शास्त्रों की रचना हुई है। इसीलिए कहा जाता है कि अंतर्मुखी व्यक्ति जब बोलता है, तो उसका प्रभाव लंबे समय तक रहता है… क्योंकि उसकी वाणी सार्थक होती है। परंतु जो व्यक्ति अधिक बोलता है, व्यर्थ की हांकता है तथा आत्म-प्रशंसा करता है… उसकी वाणी अथवा वचनों की ओर कोई ध्यान नहीं देता…उसकी न घर में अहमियत होती है, न ही बाहर के लोग उसकी ओर तवज्जो देते हैं। इसलिए अवसरानुकूल, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने की दरक़ार होती है, क्योंकि जब आप सोच-समझ कर बोलेंगे, तो आपके शब्दों का अर्थ व सार्थकता अवश्य होगी। लोग आपकी महत्ता को स्वीकारेंगे, सराहना करेंगे और आपको चौराहे पर खड़े होकर सुक़ून की तलाश …कि• मी• के बोर्ड की तलाश नहीं करनी पड़ेगी, बल्कि आप स्वयं तो सुक़ून से रहेंगे ही; आपके सानिध्य में रहने वालों को भी सुक़ून की प्राप्ति होगी।

वैसे भी क़ुदरत ने तो हमें केवल आनंद ही आनंद दिया है, दु:ख तो हमारे मस्तिष्क की उपज है। हम जीवन-मूल्यों का तिरस्कार कर,  प्रकृति से खिलवाड़ व उसका अतिरिक्त दोहन कर, स्वार्थांध होकर दु:खों को अपना जीवन-साथी बना लेते हैं और अपशब्दों व कटु वाणी द्वारा उन्हें अपना शत्रु बना लेते हैं। हम जिस सुख व शांति की तलाश संसार में करते हैं, वह तो हमारे अंतर्मन में व्याप्त है। हम मरुस्थल में मृग-तृष्णाओं के पीछे दौड़ते-दौड़ते, हिरण की भांति अपने प्राण तक गंवा देते हैं और अंत में हमारी स्थिति ‘माया मिली न राम’ जैसी हो जाती है। हम दूसरों के अस्तित्व को नकारते हुए, संसार में उपहास का पात्र बन जाते हैं;  जिसका दुष्प्रभाव दूसरों पर ही नहीं, हम पर ही पड़ता है। सो! संस्कृति को, संस्कारों की जननी स्वीकार, जीवन-मूल्यों को अनमोल जानकर जीवन में धारण कीजिए, क्योंकि लोग तो दूसरों की उन्नति करते देख, उनकी टांग खींच, नीचा दिखाने में ही विश्वास रखते हैं। उनकी अपनी ज़िंदगी में तो सुक़ून होता ही नहीं और वे दूसरों को भी सुक़ून से नहीं जीने देते हैं। अंत में, मैं महात्मा बुद्ध का उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी। एक बार उनसे किसी ने प्रश्न किया ‘खुशी चाहिए।’ उनका उत्तर था पहले ‘मैं’ का त्याग करो, क्योंकि इसमें ‘अहं’ है। फिर ‘चाहना’ अर्थात् ‘चाहता हूं’ को हटा दो, यह ‘डिज़ायर’ है, इच्छा है। उसके पश्चात् शेष बचती है, ‘खुशी’…वह  तुम्हें मिल जाएगी। अहं का त्याग व इच्छाओं पर अंकुश लगाकर ही मानव खुशी को प्राप्त कर सकता है, जो क्षणिक सुख ही प्रदान नहीं करती, बल्कि शाश्वत सुखों की जननी है।’ हां! एक अन्य तथ्य की ओर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी कि ‘इच्छा से परिवर्तन नहीं होता; निर्णय से कुछ होता है तथा निश्चय से सब कुछ बदल जाता है और मानव अपनी मनचाही मंज़िल अथवा मुक़ाम पर पहुंच जाता है।’ इसलिए दृढ़-निश्चय व आत्मविश्वास को संजोकर रखिए; अहं का त्याग कर मन पर अंकुश लगाइए; सबके प्रति स्नेह व सौहार्द रखिए तथा मौन के महत्व को समझते हुए, समय व स्थान का ध्यान रखते हुए अवसरानुकूल सार्थक वाणी बोलिए अर्थात् आप तभी बोलिए, जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों…क्योंकि यही है–सुक़ून पाने का सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम मार्ग, जिसकी तलाश में मानव युग-युगांतर से भटक रहा है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 57 ☆ पर्वों पर सांप्रदायिक सद्भावना ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “पर्वों पर सांप्रदायिक सद्भावना।)

☆ किसलय की कलम से # 57 ☆

☆ पर्वों पर सांप्रदायिक सद्भावना ☆

पर्वों की सार्थकता तभी है जब उन्हें आपसी सद्भाव, प्रेम-भाईचारे और हँसी-खुशी से मनाया जाए। अपनी संस्कृति, प्रथाओं व परंपराओं की विरासत को अक्षुण्ण रखने के साथ-साथ अगली पीढ़ी के अनुकरणार्थ हम पर्वों को मनाते हैं। ये पर्व धार्मिक, सामाजिक अथवा राष्ट्रीय क्यों न हों, हर पर्व का अपना इतिहास और सकारात्मक उद्देश्य होता है। पर्व कभी भी विद्वेष अथवा अप्रियता हेतु नहीं मनाये जाते। पर्वों के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए परंपरानुसार उन्हें मनाने की रीति चली आ रही है। पहले हमारे भारतवर्ष में हिंदु धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई धर्मावलंबी नहीं थे, तब आज जैसी परिस्थितियाँ कभी निर्मित ही नहीं हुईं। आज जब विभिन्न धर्मावलंबी हमारे देश में निवास करते हैं, तब धर्म हर धर्म के लोग अपनी अपनी रीति रिवाज के अनुसार अपने पर्व सामाजिक स्तर पर मनाते हैं और होना भी यही चाहिए। मानवीय संस्कार सभी को अपने-अपने धर्मानुसार पर्व मनाने की सहज स्वीकृति देते हैं।

कहते हैं कि जहाँ चार बर्तन होते हैं उनका खनकना आम बात है। ठीक इसी प्रकार जब हमारे देश में विभिन्न धर्मावलंबी एक साथ, एक ही सामाजिक व्यवस्थानुसार रहते हैं तो यदा-कदा कुछेक अप्रिय स्थितियों का निर्मित होना स्वाभाविक है। विवाद तब होता है जब मानवीयता से परे, स्वार्थवश, संकीर्णतावश, विद्वेष भावना के चलते कभी अप्रिय स्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं। ऐसी परिस्थितियों के लिए मुख्य रूप से कट्टरपंथियों की अहम भूमिका होती है। ये विशेष स्वार्थ के चलते फिजा में जहर घोलकर अपना वर्चस्व व प्रभाव स्थापित करना चाहते हैं। तथाकथित धर्मगुरुओं एवं विघ्नसंतोषियों के बरगलाने पर भोली जनता इनके प्रभाव अथवा दबाव में आकर इनका साथ देती है। ये वही लोग होते हैं जो धर्म स्थलों, धार्मिक जुलूसों अथवा पर्व मना रही भीड़ में घुसकर ऐसी अप्रिय स्थितियाँ निर्मित कर देते हैं, जिससे आम जनता न चाहते हुए भी आक्रोशित होकर इतरधर्मियों पर अपना गुस्सा निकालने लगती है। यही वे हालात होते हैं, जब धन-जन की क्षति के साथ-साथ सद्भावना पर भी विपरीत असर पड़ता है। ये हालात समय के साथ-साथ सामान्य तो हो जाते हैं लेकिन इनका दूरगामी दुष्प्रभाव भी पड़ता है। नवयुवकों में इतरधर्मों के प्रति नफरत का बीजारोपण होता है। ये दिग्भ्रमित नवयुवक भविष्य में समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं। ऐसे लोग देश और समाज के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकते हैं।

आज जब विश्व में शैक्षिक स्तर गुणोत्तर उठ रहा है। भूमंडलीकरण के चलते सामाजिक, धार्मिक व व्यवसायिक दायरे विस्तृत होते जा रहे हैं। आज धर्म और देश की सीमा लाँघकर अंतरराष्ट्रीय विवाह होने लगे हैं। लोग अपने देश को छोड़कर विभिन्न देशों में उसी देश के प्रति वफादार और समर्पण की मानसिकता से वहीं की नागरिकता ग्रहण कर रहे हैं, बावजूद इसके हम आज भी वहीं अटके हुए हैं और उन्हीं चिरपरिचित स्वार्थी लोगों का समर्थन कर देश को हानि पहुँचाने में एक सहयोगी जैसी भूमिका का निर्वहन करते हैं।

आज हमें बुद्धि एवं विवेक से वर्तमान की परिस्थितियों पर पुनर्विचार करना पड़ेगा। हमें स्वयं व अपने देश के विकास पर ध्यान केंद्रित करना होगा। मानव की प्रकृति होती है कि वह सबसे पहले अपना और स्वजनों का भला करें, जिसे पूर्ण करने में लोगों का जीवन भी कम पड़ जाता है। तब आज किसके पास इतना समय है कि वह समाज, धर्म, देश व आपसी विद्वेष के बारे में सोचे। ऐसे कुछ ही प्रतिशत लोग हैं जिन्हें न अपनी, और न ही देश की चिंता रहती है। पराई रोटी के टुकड़ों पर पलने वाले और तथाकथित आकाओं-संगठनों के पैसों से ऐशोआराम करने वाले ही आज समाज के विरोध में खड़े दिखाई देते हैं।

आप स्वयं चिंतन-मनन कर पाएँगे कि वर्तमान की परिस्थितियाँ सामाजिक विघटन तथा अलगाव की बिल्कुल भी अनुमति नहीं देती। आज की दिनचर्या भी इतनी व्यस्त और एकाकी होती जा रही है कि मानव को दीगर बातें सोचने का अवसर ही नहीं मिलता। तब जाकर यह बात सामने आती है कि आखिर इन परिस्थितियों का निराकरण कैसे किया जाये।

एक साधारण इंसान भी यदि निर्विकार होकर सोचे तो उसे भी इसका समाधान मिल सकता है। हमें बस कुछ बातों का ध्यान रखना होगा। हम एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के नागरिक हैं। यहाँ सबको अपने धर्म और मजहब के अनुसार जीने का हक है। जब तक इतरधर्मी शांतिपूर्ण ढंग से, अपनी परंपरानुसार पर्व मनाते हैं, हमें उनके प्रति आदर तथा सद्भाव बनाये रखना है। पर्वों के चलते जानबूझकर नफरत फैलाने का प्रयास कदापि नहीं करना है। इतरधर्मियों, इतर धार्मिक पूजाघरों के समक्ष जोश, उत्तेजना व अहंकारी बातों से बचना होगा। सभी धर्मों के लोग भी इन परिस्थितियों में सद्भाव बनाए रखें तथा सहयोग देने से न कतरायें। धर्म का हवाला देकर दूरी बनाना किसी भी धर्म में नहीं लिखा है। यह सब धर्मगुरुओं के नियम-कानून और स्वार्थ हो सकते हैं। ईश्वर ने सबको जन्म दिया है, वह सब का भला चाहता है। तब उसके व्यवहार में अंतर कैसे हो सकता है। शासन-प्रशासन, धर्म-गुरु और सामान्य लोग सभी मिलजुल कर सारे समाज का स्वरूप बदलने में सक्षम हैं। बस सकारात्मक और अच्छे नजरिए की जरूरत है। यह सकारात्मक नजरिया लोगों में कब देखने मिलेगा हमें इंतजार रहेगा। बात बहुत बड़ी है, लेकिन कहा जाता है कि आशा से आसमान टिका है तब हमें इस आशा को विश्वास में बदलने हेतु कुछ प्रयास आज से ही शुरु नहीं करना चाहिए? बस एक बार सोचिए तो सही। आप खुद ब खुद चल पड़ेंगे सद्भावना की डगर, जहां इंसानियत और सद्भावना का बोलबाला होगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 122 ☆ रायल होटल भवन, जबलपुर, जहां कभी ‘इंडियन्स नाट एलाउड’ का बोर्ड लगा रहता था ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक विचारणीय आलेख  ‘रायल होटल भवन, जबलपुर, जहां कभी इंडियन्स नाट एलाउड का बोर्ड लगा रहता था । इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 122 ☆

?  रायल होटल भवन, जबलपुर, जहां कभी ‘इंडियन्स नाट एलाउड’ का बोर्ड लगा रहता था ?

19वीं शताब्दी में , १८५७ की क्रांति के लगभग तुरंत बाद जबलपुर के एक बड़े टिम्बर मर्चेन्ट डा बराट जो एक एंग्लो इंडियन थे, ने  इस तत्कालीन शानदार भवन का निर्माण करवाया था। बाद में यह भवन  तत्कालीन राजा गोकुलदास के आधिपत्य में आ गया , क्योकि डा बराट राजा गोकुलदास के सागौन के जंगलो से ही लकड़ी का  व्यापार करते थे। राजा गोकुलदास ने  अपनी नातिन राजकुमारी को यह भवन दहेज में दिया था। जिन्होंने इस भवन को रॉयल ग्रुप को बेच दिया गया। ग्रुप ने इसे एक आलीशान होटल में तब्दील कर दिया।

यह होटल सिर्फ ब्रिटिशर्स और यूरोपीयन लोगों के लिए बनाया गया था। ब्रिटिशर्स भारतीयों पर हुकूमत कर रहे थे। अपने समय में होटल की भव्यता के काफी चर्चे थे। होटल के गेट पर ही ‘इंडियंस नॉट अलाउड’ का बोर्ड लगा हुआ था।  रॉयल होटल ब्रिटिशकाल में अंग्रेजों की एशगाह रही । खास बात यह है कि भारत में होने के बावजूद भारतीयों को इस महल के आस-पास फटकने की भी इजाजत नहीं थी। यहां तक की होटल के सुरक्षा गार्ड और कर्मचारी भी ब्रिटिशर्स या यूरोपियन ही होते थे।

यूरोपियन शैली का निर्माण

रॉयल होटल इंडो-वेस्टर्न के साथ-साथ यूरोपियन शैली में बना है।  इस होटल के हॉल की चकाचौंध देखकर ही लोग आश्चर्य में पड़ जाते थे। इसके साथ ही अंग्रेजों के आराम के लिए बड़े-बड़े कमरे बनाए गए थे। जिसमें एशो-आराम की सारी सुविधाएं मौजूद थीं। होटल की बनावट ऐसी थी कि कमरों में वातानुकूलित व्यवस्था जैसा अहसास होता था। अंग्रेजों की प्राइवेसी का भी यहां खास ध्यान रखा जाता था।

भवन में लगे सेनेटरी फिटिंग , झाड़ फानूस आदि इंग्लैंड , इटली आदि देशो से लाये गये थे। अभी भी जो चीनी मिट्टी के वेस्ट पाइप टूटी हुई अवस्था में भवन में लगे हुये हैं , उनके मुहाने पर शेर के मुंह की आकृति है। जो मेंगलूर टाइल्स छत पर हैं वे भी चीनी मिट्टी के हैं।

अब खंडहर में तब्दील हो गया होटल

स्वतंत्रता के बाद इस महल में बिजली विभाग का दफ्तर चला। कुछ समय बाद यहां एनसीसी की कन्या बटालियन का कार्यालय बनाया गया। लेकिन, अब यह महल खंडहर में तब्दील हो चुका है। प्रदेश सरकार ने इसे संरक्षित इमारत घोषित किया है लेकिन इसके रखरखाव पर अब तक ध्यान नहीं दिया गया है।

जबलपुर का रायल होटल राज्य शासन संरक्षित स्माकर बनेगा। राज्य के संस्कृति विभाग ने इस संबंध में मप्र एन्शीएन्ट मान्युमेंट एण्ड आर्कियोलाजीकल साईट्स एण्ड रिमेंस एक्ट,1964 के तहत इस प्राचीन स्मारक को ऐतिहासिक पुरातत्व महत्व के प्राचीन स्मारक को राज्य संरक्षित करने की कार्यवाही प्रारंभ कर दी है और इस संबंध में अधिसूचना जारी कर दी है। यह राजस्व खण्ड सिविल लाइन ब्लाक नं। 32 प्लाट नं। 11-12/1 में स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल 14144-05 वर्गफुट है। फिलहाल इसका स्वामित्व एमपी इलेक्ट्रिक बोर्ड जबलपुर रामपुर के पास लीज के तहत है।

रायल होटल बंगला राज्य संरक्षित घोषित होने के बाद इसके सौ मीटर आसपास किसी भी प्रकार का निर्माण कार्य प्रतिबंधित रहेगा तथा इस सौ मीटर के और दो सौ मीटर व्यास में रेगुलेट एरिया रहेगा जिसमें किसी भी प्रकार का निर्माण कार्य विहित प्रावधानों के तहत आयुक्त पुरातत्व संचालनालय की अनुमति से ही हो सकेगा, उक्त प्राचीन होटल के बारे में राज्य सरकार की राय है कि इसे विनष्ट किये जाने, क्षतिग्रस्त किये जाने, परिवर्तित किये जाने, विरुपित किये जाने,हटाये जाने, तितर-बितर किये जाने या उसके अपक्षय होने की संभावना है जिसे रोकने के लिये इसे संरक्षित किया जाना आवश्यक हो गया है।

अब समय आ गया है कि इस पुरातन भवन को संग्रहालय के रूप में इस तरह विकसित किया जावे कि कभी भारतीयो को अपमानित करने वाला भवन का द्वार हर भारतीय नागरिक को ससम्मान आमंत्रित करते हुये हमारी पीढ़ियों को हमारे इतिहास से परिचित करवाये।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 121 ☆ कान्हा राष्ट्रीय उद्यान – हार्ड ग्राउंड बारासिंघा और बाघों का बसेरा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक ज्ञानवर्धक आलेख  ‘कान्हा राष्ट्रीय उद्यान – हार्ड ग्राउंड बारासिंघा और बाघों का बसेरा। इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 121 ☆

?  कान्हा राष्ट्रीय उद्यान – हार्ड ग्राउंड बारासिंघा और बाघों का बसेरा ?

घने ऊँचे वृक्षों के बीच से सूरज की रोशनी कुछ इस तरह से झर रहीं थीं मानो स्वर्ण किरणें सीधे स्वर्ग से आ रही हों. हम खुली जीप पर सवार थे. जंगल की नमी युक्त, महुये की खुशबू से सराबोर हवा हमें एक मादक स्पर्श से अभीभूत कर रही थी.गर्मी के मौसम में भी हल्की ठंड का अहसास हो रहा था,मानो प्रकृति ने एारकंदीशनर चला रखा हो. पत्तों की कड़खड़ाहट भी हमें चौंका देती थी, लगता था कि अगले ही पल कोई वन्य जीव हमारे सामने होगा. मेरे बच्चों की जिज्ञासा हर पल एक नया सवाल लेकर मेरे सम्मुख थी. मिलिट्री कलर की ड्रेस में ग्राम खटिया का रहने वाला मूलतः आदिवासी गौंड़, हमारा गाइड मुन्नालाल बार बार बच्चों को शांत रहने का इशारा  कर रहा था जिससे वह किसी आसन्न जानवर की आहट ले सके. बिटिया चीना ने खाते खाते चिप्स का पैकेट खाली कर दिया था, और उसने पालीथिन के उस खाली पैकेट को अपने बैग में रख लिया जंगल में घुसने से पहले ही हमें बताया गया था कि जंगल नो पालीथिन जोन है. जिससे कोई जानवर पालिथिन गलती से न खा  ले, जो उसकी जिंदगी की मुसीबत बन जाये. कान्हा का अभयारण्य क्षेत्र ईकोलाजिकल फारेस्ट के रूप में जाना जाता है. जंगल में यदि कोई पेड़ सूखकर गिर भी जाता है तो यहां की विशेषता है कि उसे उसी स्थिति में प्राकृतिक तरीके से ही समाप्त होने दिया जाता है. यही कारण है कि कान्हा में जगह जगह उँचे  बड़े दीमक के घर “बांमी” देखने को मिलते हैं.

पृथ्वी पर पाई जानें वाली बड़ी बिल्ली की प्रजातियों में से सबसे रोबीला, अपनी मर्जी का मालिक और खूबसूरत है,भारत का राष्ट्रीय पशु – बाघ. जहां एक बार भारत के जंगलों में 40,000 से अधिक बाघ थे, पिछले दशक में ऐसा लगा मानो यह प्रजाति विलुप्त  होने की कगार पर है.  शिकार के कारण तथा जंगलों की अंधा धुंध कटाई के चलते भारत के वन्य क्षेत्रों में बाघों की संख्या घट कर 2000 से भी कम हो गई थी. समय रहते सरकार और पर्यावरण विदो ने सक्रिय भूमिका निभाई. कान्हा जैसे वन अभयारण्यों में पुनः बाघों को अपना घर मिला और प्रसन्नता का विषय है कि अब बाघो की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज हुई है.  बाघों को तो चिड़ियाघर में भी देखा जा  सकता है,  परंतु जंगल में मुक्त विचरण करते बाघ देखने का रोमांच और उत्साह अद्भुत होता है. वन पर्यटन हेतु प्रदेश टूरिज्म डिपार्टमेंट ने   कान्हा राष्ट्रीय उद्यान,  बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, पेंच राष्ट्रीय उद्यान आदि में बाघ सफारी हेतु इंतजाम किये हैं. इन वनो में हम भी शहरी आपाधापी छोड़कर जंगल के नियमों और प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुये, बिना वन्य प्राणियो को नुकसान पहुंचाये उन्हें निहार सकते हैं. इन पर्यटन स्थलो के वन संग्रहालयो में पहुंचकर वन्य प्राणियो के जीवन चक्र को समझ सकते हैं, और लाइफ टाइम मैमोरीज के साथ ही प्राकृतिक छटा में, अविस्मरणीय फोटोग्राफ लेकर एक रोचक, रोमांचक अनुभव कर सकते हैं.

कान्हा राष्ट्रीय उद्यान व बाघ अभयारण्य मध्य प्रदेश राज्य के मंडला एवम्‌ बालाघाट जिलों में स्थित है. कान्हा में हमें बाघों व अन्य वन्य जीवों के अलावा पृथ्वी पर सबसे दुर्लभ हिरण प्रजातियों में से एक -हार्ड ग्राउंड बारहसिंगा को भी देखने का मौका मिलता हैं. समर्पित स्टाफ व उत्कृष्ट बुनियादी पर्यटन ढांचे के साथ कान्हा भारत का सबसे अच्छा और अच्छी तरह से प्रबंधित अभयारण्य हैं. यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य, हरे भरे साल और बांस के सघन जंगल, घास के मैदान तथा शुद्ध व शांत वातावरण पर्यटक को सम्मोहित कर लेता हैं. कान्हा पर्यटकों, प्राकृतिक इतिहास,वन्य जीव फोटोग्राफरों, बाघ और वन्यजीव प्रेमियों के साथ बच्चो और आम लोगों के बीच बड़े पैमाने पर प्रसिद्ध है. कहा जाता है कि लेखक श्री रुडयार्ड किपलिंग को ‘जंगल बुक’ नामक विश्व प्रसिद्ध उपन्यास लिखने के लिए इसी जंगल से प्रेरणा मिलीं थी.  किपलिंग रिसार्ट नामक एक परिसर उनकी स्मृतियां हर पर्यटक को दिलाता रहता है. बाघ व बारह सिंगे के सिवाय कान्हा में  तेंदुआ, गौर (भारतीय बाइसन), चीतल, हिरण, सांभर, बार्किंग डीयर, सोन कुत्तों के झुंड, सियार इत्यादि अनेक स्तन धारी जानवरों, तथा कुक्कू, रोलर्स, कोयल, कबूतर, तोता, ग्रीन कबूतर, रॉक कबूतरों, स्टॉर्क, बगुलों, मोर, जंगली मुर्गी, किंगफिशर, कठफोड़वा, फिन्चेस, उल्लू और फ्लाई कैचर जैसे पक्षियों की 250 से अधिक प्रजातियों, विभिन्न सरीसृपों और हजारों कीट पतंगे हम यहाँ  देख सकते हैं. प्रकृति की सैर व वन्य जीवों को देखने के अलावा बैगा और गोंड आदिवासीयो की संस्कृति व रहन सहन को समझने के लिए भी पर्यटक यहाँ देश विदेश से आते हैं.

भारत में सबसे पुराने अभयारण्य में से एक, कान्हा राष्ट्रीय उद्यान को 1879 में आरक्षित वन तथा 1933 में अभयारण्य घोषित किया गया, 1973 में इसे वर्तमान स्वरूप और आकार में अस्तित्व में लाया गया था, लेकिन इसका इतिहास महाकाव्य रामायण के समय से पहले का हैं. कहा जाता हैं कि अयोध्या के महाराज दशरथ ने कान्हा में स्थित श्रवण ताल में ही श्रवण कुमार को हिरण समझ के शब्द भेदी बाण से मार दिया था तथा श्रवण कुमार का अंतिम संस्कार श्रवण चित्ता में हुआ था. आज भी वर्ष में एक दिन जब श्रवण ताल में आदिवासियो का मेला भरता है, सभी को वन विभाग द्वारा कान्हा वन्य क्षेत्र में निशुल्क प्रवेश दिया जाता है. 

इस क्षेत्र में पायी जाने वाली रेतीली अभ्रक युक्त  मिट्टी जिसे स्थानीय भाषा में ‘कनहार’ के नाम से जाना जाता है, के कारण इस वन क्षेत्र में कान्हा नामक वन्य ग्राम था जिसके नाम पर ही इस जंगल का नाम कान्हा पड़ा. एक अन्य प्रचलित लोक गाथा के अनुसार कवि कालिदास जी द्वारा रचित ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में वर्णित ऋषि कण्व यहां के निवासी थे तथा उनके नाम पर इस क्षेत्र का नाम कान्हा पड़ा.

कान्हा राष्ट्रीय पार्क के चारों ओर बफर क्षेत्र में आदिवासी संस्कृति और जीवन स्तर को देखने के लिए गांव का भ्रमण तथा जंगल को पास से देखने व समझने के लिए एवम्‌ पक्षियो को  निहारने के लिए सीमित क्षेत्र में पैदल जंगल भ्रमण किया जा सकता हैं. कान्हा के प्राकृतिक परिवेश और शांत वातावरण में स्वास्थ्यप्रद भोजन, योग और ध्यान के साथ स्वास्थ्य पर्यटन का आनंद भी लिया जा सकता है. कान्हा क्षेत्र बैगा और गोंड आदिवासियों का निवास रहा है. बैगा आदिवासियों को भारतीय उप महाद्वीप के सबसे पुराने निवासियों में से एक के रूप में जाना जाता है। वे घुमंतू खेती किया करते थे और जंगल से शहद, फूल, फल, गोंद, आदि लघु वनोपज एकत्र कर के अपना जीवन यापन करते थे. स्थानीय क्षेत्र और वन्य जीवन का उनको बहुत गहरा ज्ञान है. बांस के घने जंगल कान्हा की विशेषता हैं. यहां के स्थानीय ग्रामीण बांस से तरह तरह के फर्नीचर व अन्य सामग्री बनाने में बड़े निपुण हैं. मण्डला में कान्हा सिल्क के नाम से स्थानीय स्तर पर कुकून से रेशम बनाकर हथकरघा से रेशमी वस्त्रो का उत्पादन इन दिनों किया जा रहा है. आप कान्हा से लौटते वक्त सोवेनियर के रूप में बांस की कोई कलाकृति, वन्य उपज जैसे शहद, चिरौंजी, आंवले के उत्पाद या रेशम के वस्त्र अपने साथ ला सकते हैं, जो बार बार आपको प्रकृति के इस रमणीय सानिध्य की याद दिलाते रहें.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ देखो रूठा ना करो, बात मित्रों की सुनो…… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज  श्री अजीत सिंह जी द्वारा प्रस्तुत है  एक विचारणीय आलेख  ‘देखो रूठा ना करो, बात मित्रों की सुनो……’ । हम आपकी अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय-समय पर साझा करते  रहेंगे।)

☆ जीवन यात्रा ☆ देखो रूठा ना करो, बात मित्रों की सुनो….. ☆

रूठना, मनाना और मान जाना मानवीय व्यव्हार की कुछ अजीब सी मानसिक क्रियाएं हैं। इनका चलन यूं तो आदि काल से देखा जा सकता है पर स्मार्टफोन और व्हाट्सएप के आने के बाद इनका अलग ही रूप देखने को मिल रहा है।

रूठने की शुरुआत किसी बात पर नाराज़ होने से होती है। प्रारम्भिक लक्षण बोलचाल बंद होने के रूप में देखे जा सकते हैं।

व्हाटसएप के कारण क्योंकि संवाद का दायरा बहुत बढ़ गया है, इसीलिए रूठने, मनाने और मान जाने के अवसर भी बढ़ गए हैं।

आजकल दूर चले जाने पर भी व्यक्तियों का संपर्क नहीं टूटता। व्हाटसएप , फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया रूप उन्हे जोड़े ही रखते हैं। मित्रता का दायरा बहुत ही व्यापक हो गया है। सस्ता और आसान भी हो गया है।

आजकल बच्चे, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष घण्टों स्मार्टफोन पर व्यस्त देखे जा सकते हैं। वे अपने आप ही मुस्कुराते और उत्साहित हो अपना उत्तर टाइप करते रहते हैं। इस प्रक्रिया से व्यक्ति का नज़रों से दूर बैठे व्यक्तियों से संपर्क बढ़ा है, पर नज़रों के सामने आसपास और पड़ोस के व्यक्तियों से बहुत ही कम हो गया है। इसे वर्टिकल यूनिटी बढ़ने और हॉरिजॉन्टल यूनिटी घटने के रूप में भी समझा जा सकता है।

खैर बात सोशल मीडिया के दौर में रूठने, मनाने और मान जाने की हो रही थी, तो उसी पर लौटते हुए कह सकते हैं कि आजकल पट दोस्ती और चट नाराज़गी का दौर भी चलने लगा है। अक्सर दोस्त किसी विषय को लेकर बहस में उलझते रहते हैं। फटाफट संदेशों के छक्के लग रहे होते हैं। मित्रता है तो अनोपचारिकता भी होगी और थोड़ी बहुत टांग खिचाई भी चलेगी। बस यही समय होता है कि कोई भाई कुछ कह कर या बिना कहे ही ‘लेफ्ट’ हो जाता है,  यानि ग्रुप छोड़ जाता है। जो बिना कहे छोड़ जाते हैं, उनके बारे में पहले तो यही समझा जाता है कि उनसे कोई ग़लत बटन दब गया होगा तो उन्हे ‘इन्वाइट रिक्वेस्ट’ भेज कर अक्सर मना लिया जाता है।

जो मेसेज छोड़ कर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए चले जाते हैं, उन्हे मनाने का दौर शुरू होता है, जो चंद घंटे या चंद दिनों तक चल सकता है। आने वाले अक्सर आ जाते हैं पर उनका पुराना जोश वापिस नहीं आता या फिर उसे आने में लंबा समय लग जाता है।

नाराज़गी का अक्सर कारण फरवार्डेड मेसेज होते हैं यानि ऐसे संदेश जो हमारे पास कहीं से आते हैं और हम बिना कुछ गंभीर विचार के उसे अपने ग्रुप में धकेल देते हैं जहां कोई मित्र उस पर आपत्ति उठा देता है और इस बहसबाजी में कोई न कोई नाराज़ हो ग्रुप छोड़ जाता है। ये उड़ते फिरते मेसेज कई दोस्तियां खराब कर जाते हैं। इनसे बचना जरूरी है। यह न सोचें कि आप यह कह कर बच जाएंगे कि आपने तो केवल फॉरवर्ड किया था। आपकी कानूनी ज़िम्मेदारी भी उतनी ही है जितनी उस व्यक्ति की जिसने वह आपत्तिजनक मेसेज बनाकर पहली बार भेजा था। भेजने का सीधा मतलब है आप सहमति के साथ वह संदेश आगे भेज रहे हैं। आप निरपेक्ष नहीं हो सकते। सावधान रहिए। मित्रों को नाराज़ न करें।

आइए अब लगे हाथ पुराने ज़माने में रूठने, मनाने और मान जाने की बात करते हैं। यह अदा अक्सर युवा प्रेमियों में देखी जाती थी। अक्सर प्रेमिका नाराज़ होती थी और प्रेमी उसे मनाता था। आपने वह गाना तो सुना होगा,

‘रूठ कर पहले उनको सताऊंगी मैं, जब मनाएंगे तो मान जाऊंगी मैं…..’

ऐसा रूठना केवल नखरे दिखाने की अदा होती है। ऐसी अदाओं से प्रेम गहरा होता है। और बानगी देखिए…

‘तुम रूठी रहो,

मैं मनाता रहूं,

तो मज़ा जीने का

और आ जाता है…’

या फिर,

‘देखो रूठा न करो,

बात नज़रों की सुनो,

हम न बोलेंगे कभी,

तुम सताया न करो..’

और यह भी,

‘अजी, रूठ कर अब

कहां जाएगा,

जहां जाइयेगा,

हमें पाएगा….’

पंजाबी के शीर्ष कवि प्रो मोहन सिंह की एक कविता में प्रेमिका लंबे समय बाद लौटने वाले अपने प्रेमी से नाराज़ हो रूठने का मन बनाती है पर जब वो सामने आता है, तो खिड़ खिड़ हंस पड़ती है…

एक और बात। कभी किसी एक के रूठने पर दूसरे को भी  नहीं रूठ जाना चाहिए। वो गीत है ना….

‘असिं दोवें रूस जाईए,

ते मनाऊ कौन वे…’

लगता है रूठने का अधिकार जैसे महिलाओं का ही एकाधिकार है। तभी तो हमारे पिताजी बचपन में हमें धमकाते हुए कहते थे, ‘क्यों औरतों की तरह टसुए बहा रहा है’।

बस ऐसी ही बातों से हम रोना भूलते गए और पत्थर दिल बनते गए। औरतों के दिल आज भी ज़्यादा मानवीय हैं। वे झट से आंसू बहा मन हल्का कर लेती हैं।

एक बात और बताऊं। हमारे गांव में लड़के की शादी के वक्त भाई बंधुओं के रूठने का बड़ा रिवाज़ था। लड़के का पिता साथियों और बुजुर्गों को लेकर नाराज़ व्यक्ति को मनाने जाता था। उसकी शिकायत सुनता था। हाथ जोड़ कर सब बातों की माफी मांगता था। यह ज़रूर कहता था, ‘भाई, तेरे भतीजे का ब्याह है और तुझे ही करना है। तेरे बिना मैं कुछ नहीं कर सकता’। बस इतनी सी बात पर सारे गिले शिकवे फुर्र हो जाते थे। फिर तो नाराज़ हुआ व्यक्ति ही सबसे आगे शादी के प्रबंध देखता था।

कहां गए वो दिन जब कहते थे, ‘फटे को सीये नहीं,

और रूठे को मनाएं नहीं,

तो काम कैसे चलेगा!’

आजकल कोई पूछता भी नहीं कि शादी में कोई आया भी कि नहीं…

आखिर में मैं यह भी बताता चलूं कि एक दो बार मेरा भी मन किया है कि मैं यह ग्रुप ‘लेफ्ट’ कर दूं। पर फिर खयाल आया कि अगर किसी ने न मनाया तो फिर क्या होगा। कोई कह सकता है, ‘गुड रिडैंस यानि अच्छा हुआ, छुटकारा मिला’।

यह तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी। इतने प्यारे, इतने सारे दोस्तों को छोड़ कर जाने पर। बस इसी ख्याल से नाराज़गी का घूंट पी कर हम चुप रहते हैं। यारों को पता भी नहीं लगने देते कि हम नाराज़ हुए थे।

और फिर दो चार दिन में ऐसा मौका आता है कि हम खिड़ खिड़ हंस पड़ते हैं।

या फिर कोई लेख लिख लेते हैं।

तो मित्रो, रूठिए मत, कोई रूठ जाए  तो मनाते रहिए और मान जाते रहिए…

 

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

(लेखक हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे दूरदर्शन हिसार के समाचार निदेशक के रूप में कार्यरत रह चुके हैं। )

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 111 ☆ मन एव मनुष्याणां ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 111 ☆ मन एव मनुष्याणां ☆

‘मेरे शुरुआती दिनों में उसने मेरे साथ बुरा किया था। अब मेरा समय है। ऐसी हालत की है कि ज़िंदगी भर याद रखेगा।’…’मेरी सास ने मुझे बहुत हैरान-परेशान किया था। बहुत दुखी रही मैं। अब घर मेरे मुताबिक चलता है। एकदम सीधा कर दिया है मैंने।’…’उसने दो बात कही तो मैंने भी चार सुना दीं।’…आदि-आदि। सामान्य जीवन में असंख्य बार प्रयुक्त होते हैं ऐसे वाक्य।

यद्यपि  पात्र और परिस्थिति के अनुरूप हर बार प्रतिक्रिया भिन्न हो सकती है पर मनुष्य के मूल में मनन न हो तो मनुष्यता को लेकर चिंता का कारण बनता है।

मनुष्यता का सम्बंध मन में उठनेवाले भावों से है। मन के भाव ही बंधन या मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। कहा गया है,

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।

मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का प्रमुख कारण है।

वस्तुत: भीतर ही बसा है मोक्ष का एक संस्करण, उसे पाने के लिए, उसमें समाने के लिए मन को मनुष्यता में रमाये रखो। मनुष्यता, मनुष्य का प्रकृतिगत लक्षण है। प्रकृतिगत की रक्षा करना मनुष्य का स्वभाव होना चाहिए।

एक साधु नदी किनारे स्नान कर रहे थे। डुबकी लगाकर ज्यों ही सिर बाहर निकाला, देखते हैं कि एक बिच्छू बहे जा रहा है। साधु ने समय लगाये बिना अपनी हथेली पर बिच्छू को लेकर जल से निकालकर भूमि की ओर फेंकने का प्रयास किया। फेंकना तो दूर जैसे ही उन्होंने बिच्छू को स्पर्श किया, बिच्छू ने डंक मारा। साधु वेदना से बिलबिला गये, हथेली थर्रा गई, बिच्छू फिर पानी में बहने लगा। अपनी वेदना पर उन्होंने बिच्छू के जीवन को प्रधानता दी। पुनश्च बिच्छू को हथेली पर उठाया और क्षणांश में ही फिर डंक भोगा। बिच्छू फिर पानी में।…तीसरी बार प्रयास किया, परिणाम वही ढाक के तीन पात। किनारे पर स्नान कर रहा एक व्यक्ति बड़ी देर से घटना का अवलोकन कर रहा था। वह साधु से बोला, ” महाराज! क्यों इस पातकी को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। आप बचाते हैं और यह काटता है। इस दुष्ट का तो स्वभाव ही डंक मारना है।” साधु उन्मुक्त हँसे, फिर बोले, ” यह बिच्छू होकर अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकता तो मैं मनुष्य होकर अपना स्वभाव कैसे छोड़ दूँ?”…

लाओत्से का कथन है, “मैं अच्छे के लिए अच्छा हूँ, मैं बुरे के लिए भी अच्छा हूँ।” यही मनुष्यता का स्वभाव है। मनन कीजिएगा क्योंकि ‘मन एव मनुष्याणां…।’

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 105 ☆ युवा पीढ़ी संस्कारहीन क्यों? ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख युवा पीढ़ी संस्कारहीन क्यों ? यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 105 ☆

☆ युवा पीढ़ी संस्कारहीन क्यों ? ☆

भोर होते समाचार पत्र हाथ में लेते ही मस्तिष्क की नसें झनझना उठती हैं… अमुक ने नाबालिग़ से दुष्कर्म कर, उसका वीडियो वॉयरल करने की धमकी दी; कहीं मज़दूरिन की चार वर्ष की बेटी बेसमेंट में लहूलुहान दशा में पाई गई; कहीं विवाहिता से उसके पति के सम्मुख दुष्कर्म; तो कहीं मासूम बच्ची को स्कूल से लौटते हुए अग़वा कर हफ़्तों नहीं, महीनों तक बंदी बनाकर उससे बलात्कार; कहीं ज़मीन या मकान की रजिस्ट्री अपने नाम पर करवाने के लिए वृद्धा या विधवा को हवस का शिकार बनाने का प्रचलन सामान्य-सा हो गया है। यह आमजन को कटघरे में खड़ा करता है… आखिर क्यों मौन हैं हम सब…ऐसे असामाजिक तत्वों का विरोध-बहिष्कार क्यों नहीं…उन्हें सरे-आम फांसी की सज़ा क्यों नहीं … यह तो बहुत कम है, एक पल में मुक्ति…नहीं… नहीं; उन्हें तो नपुंसक बना आजीवन सश्रम, कठोर कारावास की सज़ा दी जानी चाहिए, ताकि उनके संबंधियों को उसे असहाय दशा में देखने का दुर्लभ अवसर प्राप्त हो…मिलने का नहीं, ताकि वे अपने लाड़-प्यार व स्वतंत्रता देने का अंजाम देख, प्रायश्चित हेतु केवल आंसू बहाते रहें और दूसरों को यह संदेश दें, कि ‘वे भविष्य में अपने बच्चों से सख्ती से पेश आएं…उन्हें सुसंस्कार दें, ताकि वे समाज में सिर उठा कर जी सकें।’

परन्तु यह सब होता कहां है? कहां दी जाती है उन्हें …कानून के अंतर्गत फांसी की कठोर व भीषणतम सज़ा…यह तो मात्र जुमला बनकर रह गया है। कानून की देवी की आंखों, कानों पर बंधी पट्टी इस बात का संकेत है कि वह अंधा व बहरा है…आज- कल वह पीड़ित पक्ष की सुनता ही कहां है…अक्सर तो वह रसूखदार लोगों के हाथों की कठपुतली बन कर कार्य करता है…और शक़ की बिनाह पर छूट जाते हैं वे दुष्कर्मी …वैसे भी फांसी की सज़ा मिलने पर भी उन्हें अधिकार है; राष्ट्रपति से दया की ग़ुहार लगाने का, जिसका फैसला होने में एक लंबा समय गुज़र जाता है।

ज़रा सोचिए! कितने मानसिक दबाव में जीना पड़ता होगा उस पीड़िता व उसके परिवारजनों को? हर दिन गाली-गलौज, केस वापस लेने का दबाव, अनुरोध व धमकी तथा नित्य नए हादसे… उनकी ज़िन्दगी को नरक बना कर रख देते हैं। ज़रा ग़ौर कीजिए, उन्नाव की पीड़िता …कितनी शारीरिक पीड़ा व मानसिक यंत्रणा से गुज़र रही होगी वह मासूम… किस बात की सज़ा मिली रही है, उसके माता-पिता व परिजनों को… सोचिए! अपराधिनी वह पीड़िता है या राजनेता, जो दो वर्ष से उस परिवार पर ज़ुल्म ढा रहा है। क्या यही है, सत्य की राह पर चलने का अंजाम…अपने अधिकारों की मांग करने का इनाम? शायद! आपबीती अर्थात् स्वयं पर हुए ज़ुल्मों की दास्तान बखान कर, केस दर्ज कराने का साहस जुटाना जुर्म है? ऐसा लगता है कि सज़ा प्रतिपक्षी ‘औ’ दुष्कर्मी को नहीं, पीड़िता को मिल रही है।

यदि तुरंत कार्यवाही कर निर्णय लेना अनिवार्य कर दिया जाता, तो उसे इतनी भीषण यातनाएं न सहन करनी पड़तीं और न ही उन लोगों के हौंसले इतने बुलंद होते…वे उस परिणाम से सीख लेकर, भविष्य में गलत राह पर न चलते और बेटियों के माता-पिता को दहशत के साये में अपना जीवन बसर नहीं करना पड़ता। हर दिन निर्भया व आसिफ़ा दरिंदगी का शिकार न होतीं और लोगों को न्याय प्राप्त करने हेतु केंडल मार्च निकाल व धरने देकर आक्रोश की अभिव्यक्ति न करनी पड़ती… और बेटी के जन्म पर घर में मातम-सा माहौल पसरा नहीं दिखाई पड़ता।

एक प्रश्न हर दिन मन में कुलबुलाता है कि आखिर हमारी कानून-व्यवस्था इतनी लचर क्यों? विदेशों में ऐसे हादसे क्यों नहीं होते… वहां के लोग सुसभ्य व सुसंस्कृत क्यों होते हैं? आइए! ज़रा दृष्टिपात करें, इस समस्या के विविध पहलुओं व उसके समाधान पर… हमें जन्म से बेटी-बेटे को समान समझ उनकी परवरिश करनी होगी, क्योंकि बेटे में व्याप्त जन्म- जात श्रेष्ठता व अहमियत का भाव, वास्तव में उसे ऐसे दुष्कर्म व कुकृत्य करने को प्रोत्साहित करता है। इसके निमित्त हमें दोनों के लिए शिक्षा व व्यवसाय के समान अवसर जुटाने होंगे। हां! इसके लिए सबसे अधिक आवश्यकता है… बुज़ुर्गों की सोच बदलने की; जिनके मन में आज भी यह भावना बलवती है कि मृत्यु के समय, पुत्र के हाथों गंगा-जल का आचमन करने से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होगी। परन्तु ऐसा कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। आज कल तो बेटियां भी मुखाग्नि तक देने लगी हैं। प्रश्न उठता है, क्या उनके माता-पिता आजीवन प्रेत-योनि में भटकते रहेंगे और परिवारजनों को आहत करते रहेंगे?

सो! हमें बच्चों के साथ-साथ उनके माता-पिता को भी इन अंधविश्वासों व दक़ियानूसी धारणाओं से मुक्त करना होगा तथा उन्हें इस तथ्य से अवगत कराना होगा कि ‘बेटियां दो-दो कुलों को आलोकित करती हैं…घर को स्वर्ग बनाती हैं।’ हां! यदि कोई बच्चा या युवा गलत राहों पर चल निकलता है, तो उसके लिए ऐसे गुरुकुल व सुधार-गृहों का निर्माण किया जाए; जहां उसे संस्कार व संस्कृति की महत्ता से अवगत कराया जाए तथा उस राह का अनुसरण न करने पर, उसके भीषणतम परिणामों से अवगत करा कर, यह चेतावनी दी जाए कि यदि भविष्य में उसने कोई गलत काम किया, तो कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर पाएगा। इन परिस्थितियों में शायद, उसकी सोच में कुछ सुधार आ पाए और समाज में शांत व सुखद वातावरण स्थापित हो सके।

चलिए! हम विवेचना करते हैं– सरकार द्वारा निर्मित कानूनों की…आखिर वे इतने अप्रभावी क्यों हैं? लोग जुर्म करने से पहले उसके भयावह पक्षों पर ध्यान क्यों नहीं देते; उनके बारे में क्यों सोच-विचार अथवा गहन चिंतन-मनन नहीं करते? इसके लिए हमें त्वरित न्याय-प्रणाली को अपनाना होगा और ऐसे शोहदों को सरे-आम दंण्डित करना होगा, ताकि समाज के पथ-भ्रष्ट बाशिंदे उनके हृदय-विदारक अंजाम को देख कर शिक्षा ग्रहण कर सकें…अपने बच्चों पर पूर्ण रूप से अंकुश लगा पाएं…भले ही उन्हें किसी भी सीमा तक दण्डित क्यों न करना पड़े। इसके साथ-साथ आवश्यकता है– स्कूल व कॉलेजों में नैतिक शिक्षा को अनिवार्य विषय के रूप में मान्यता प्रदान करने की, ताकि उनकी दूषित मानसिकता परिवर्तित हो सके; उनकी विकृत मन: स्थिति में बदलाव आ सके और सोच सकारात्मक बन सके।

चंद दिन पहले यह जानकर आश्चर्य हुआ कि पब्लिक स्कूलों के बच्चे ‘फन सेक’ कंडोम तक का प्रयोग करते हैं और बाल्यावस्था के यह असामान्य संबंध, भविष्य में उनके लिए इतना बड़ा संकट उत्पन्न कर सकते हैं…यह गंभीर विषय है। हमें पब्लिक स्कूलों में बढ़ते ऐसे फन पर प्रतिबंध लगाना होगा, क्योंकि ऐसी कारस्तानियां मन को आहत करती हैं और हमारा मीडिया उन्हें भ्रमित कर, किस दिशा की ओर अग्रसर कर रहा है? आप अनुमान नहीं लगा सकते, यह स्थिति समाज व देश के लिए किस क़दर घातक है तथा विस्फोटक स्थिति उत्पन्न कर सकती है। कल्पना कीजिए, क्या होगा…इस देश के बच्चों का भविष्य… क्या वे अपने गंतव्य पर पहुंच देश को समुन्नत बनाने में योगदान दे पाएंगे? शायद नहीं… कभी नहीं।

मैं लौट जाना चाहती हूं, पचपन वर्ष पूर्व के समय में, जब मुझे महाविद्यालय की छात्रा के रूप में, वाद- विवाद प्रतियोगिता में प्रतिभागिता करने का अवसर प्राप्त हुआ; जहां प्राचार्या को अपने महाविद्यालय की छात्राओं को आदेश देते हुए सुना,’पुट योअर दुपट्टा एट योअर प्रो-पर प्लेस’ …सुनकर बहुत विचित्र-सी अनुभूति हुई। परन्तु आज से सोलह वर्ष पूर्व जब मैंने महिला महाविद्यालय का कार्यभार संभाला, तो छात्राओं को टॉइट जींस, शार्ट टॉप पहने व हाथों में मोबाइल थामे देख, मन यह सोचने पर विवश हो गया…’आखिर क्या होगा, हमारे देश का भविष्य? क्या यह लड़कियां भविष्य में दो कुलों को रोशन करने में समर्थ सिद्ध हो पायेंगी…जिनमें शालीनता लेशमात्र को भी नहीं है। क्या इनके ससुराल वाले ‘हैलो-हॉय’ कल्चर पसंद करेंगे? यह जानकर मैं अवाक् रह गयी, जब चंद दिन बाद सी•आई•डी• वालों ने मुझे इस तथ्य से अवगत कराया कि आजकल लड़कियां अक्सर होटलों में दुल्हन की वेशभूषा में सोलह-सिंगार किए अपने ब्वॉयफ़्रेंड के साथ पायी जाती हैं; जिसके प्रमाण देख मेरे पांव तले से ज़मीन खिसक गई और मन उन्हें गलत राह से लौटा लाने को कटिबद्ध हो गया।

तत्पश्चात् मैंने अपने महाविद्यालय में मोबाइल व जीन्स पर प्रतिबंध लगा दिया। मुझे यह बताते हुए अत्यंत दु:ख हो रहा है कि जिन प्राध्यापकों की बेटियां वहां शिक्षा ग्रहण कर रहीं थीं; उन्होंने इसे ग़लत ठहराया और महाविद्यालय में ऐसे नियम न लागू करने की सलाह भी दी। उनकी यह दलील कि साइकिल चलाते हुए, उनकी चुन्नियां उलझ कर रह जाती हैं। बताइए! क्या यह तर्क उचित है? इसी प्रकार मोबाइल की सार्थकता के बारे में कहा गया कि यह आज के समय की ज़रूरत है… वर्तमान की मांग है। इसके माध्यम से उनसे संवाद बना रहता है। परन्तु मैंने यह प्रतिबंध लागू कर दिया और इसकी अनुपालना न करने पर फ़ाइन की व्यवस्था का आदेश भी जारी कर दिया। परंतु उनके द्वारा विरोध करने की नौबत नहीं आई, क्योंकि चंद दिन बाद हरियाणा सरकार ने भी यह प्रतिबंध लागू कर दिया।

मेरा इस घटना को बताने का आशय यह है कि यदि माता-पिता व शिक्षक वर्ग चाहे, तो सब कुछ संभव है, क्योंकि बच्चे उन पर सर्वाधिक विश्वास करते हैं…उन्हें आदर्श मानकर उन जैसा ही बनने का प्रयास करते हैं। वे गीली मिट्टी के समान होते हैं और उन्हें मन-चाहा रूपा-कार प्रदान किया जा सकता है।

सो! सही दशा व दिशा जीवन का आधार है। आइए, हम सब इस यज्ञ में समिधा डाल कर अपने दायित्वों का निर्वहन करें, ताकि ऐसे भीषण हादसों से समाज को निज़ात मिल सके…चहुंओर शांति का साम्राज्य स्थापित हो सके। परिवार व समाज में समन्वय, सामंजस्यता व समरसता का वातावरण हो; संयुक्त परिवार-व्यवस्था में बच्चे स्वयं को सुरक्षित अनुभव करें और उनका सर्वांगीण विकास सम्भव हो सके… यह मेरी ही नहीं, समाज के हर बाशिंदे की इच्छा है, चाहना है। इस संदर्भ में इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया भी अपना भरपूर योगदान दे सकते हैं। इसके लिये सरकार को ऐसी वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगाना सुनिश्चित करना होगा, ताकि बच्चों में अपने लक्ष्य के प्रति गंभीरता व एकाग्रता बनी रहे और वे उसे प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 56 ☆ मानवता की सेवा ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “मानवता की सेवा”.)

☆ किसलय की कलम से # 56 ☆

☆ मानवता की सेवा ☆

इंसान जन्म लेता है, जिंदगी गुजारता है और एक दिन इस दुनिया से कूच कर जाता है। क्या, मात्र जीवन जीना और मरना मानव की नियति मानी जाए। नहीं। बचपन और बुढ़ापा छोड़ दिया जाए तो मुश्किल से तीस-चालीस वर्ष ही मानव के अपने हिस्से में आते हैं, जिसमें आधा समय रात्रि का होता है। बाद के शेष समय में भी दैनिक कार्य शामिल होते हैं। अब बचता ही कितना समय है, जिसे हम मानव सेवा हेतु निकालें।

वैसे अन्य जीव भी एक पूरा जीवन जी लेते हैं, परन्तु उनके मरने के बाद उन्हें किन बातों के लिए याद किया जाता है? किंतु इंसान को उसके मरणोपरांत उसे याद न किया जाए तो उसका इस संसार में जन्म लेने का औचित्य ही क्या होगा। इस तरह उस इंसान और अन्य जीवों के जीवन जीने में अंतर ही क्या होगा।

संसार में मानव ही एक ऐसा जीव है जिसे बुद्धि और विवेक की दृष्टि से श्रेष्ठ माना गया है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव के कर्त्तव्यों में भी व्यापकता होती है। उसे अपने साथ-साथ अपने परिवार और समाज के लिए भी जीना होता है। दुनिया में बिना किसी उपलब्धि, परोपकारिता, मिलनसारिता और निःस्वार्थता के जीना निरर्थक माना जाता है। हमारी शिक्षा, संस्कृति, संस्कार एवं परंपराएँ इतनी सुदृढ़ हैं कि उनका अनुकरण करने वाला सदैव विशिष्ट बन ही जाता है।

ईश्वर जन्म देता है लेकिन विवेक पर आपका अपना अधिकार होता है, जो आपके भले बुरे के लिए सदैव जवाबदेह होता है। आपके विवेक का निर्णय ही आपके रास्ते चुनता है। फर्क बस इतना होता है कि आपके संस्कार व आप की संलिप्तता आपके विवेक को प्रभावित करती है, जिस अच्छे या बुरे विचार का पलड़ा भारी होता है, आप उसी दिशा में आगे बढ़ जाते हैं। अर्थात परिणति का रास्ता आपके द्वारा पूर्व में ही चुन लिया जाता है।

यह सभी भलीभाँति जानते हैं कि मरने के बाद अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के इंसानों की चर्चा होती है, लेकिन अच्छे इंसानों का याद किया जाना ही समाज में मायने रखता है। देखा गया है कि समाज में लोग जब तक दूसरों के काम नहीं आते, दूसरों के लिए नहीं जीते, तब तक उनकी कोई खास पूछ परख नहीं होती। आपकी आर्थिक, बौद्धिक, पदेन उपलब्धियाँ आपकी अपनी होती हैं, जो मात्र आपके सेवा काल तक ही सीमित होती हैं, लेकिन परोपकारिता, जरूरतमंदों की सेवा, आपकी सहयोगी प्रवृत्ति तथा मिलनसारिता आपकी ऐसी उपलब्धियाँ होती हैं जो आपको चिरस्मरणीय तथा विशिष्ट सम्मान दिलाती हैं।

विगत पचास-साठ साल से मानवीय मूल्यों का निरंतर ह्रास हो रहा है। बड़ी अजीब बात यह है कि एक ओर तो हम शिक्षा और प्रगति के नए सोपानों पर चढ़ रहे हैं वहीं इसके ठीक विपरीत परोपकारिता व  सद्भावना के क्षेत्र में हम पिछड़ते जा रहे हैं।आज अर्थ व स्वार्थ की जकड़न इतनी मजबूत होती जा रही है कि हमारे अपनों के लिए भी कोई स्थान नहीं बच पाता।

आज ऐसी परिस्थितियों व परिवेश में यह आवश्यकता महसूस की जाने लगी है कि उक्त बातों को गंभीरता से लिया जाए। यदि यह क्रम जारी रहा तो हमारे मानवीय रिश्तों का कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा। क्या भाई-भाई की अहमियत रह जाएगी। क्या पड़ोसी का औचित्य रह जाएगा। तब कोई निस्वार्थ भाव से किसी की  मदद कर सकेगा? अपने और पराए को जब तराजू के एक ही पलड़े में तौला जाएगा तब सारे सामाजिक रिश्ते गड्डमड्ड नहीं हो जाएँगे? स्वजनों और परिजनों में अंतर ही क्या रह जाएगा? यह सब सोचकर ही जब हम असहज हो जाते हैं तब वास्तविकता में क्या हाल होगा।

आज पुनः अपनी संतानों में ऐसे संस्कार और विचारों के रोपण की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है, जिससे उन्हें उस कल्पित भयावह परिस्थितियों का सामना न करना पड़े। वर्तमान में हमें भी परोपकारिता और समाज के जरूरतमंदों की मदद करने हेतु आगे आना होगा। सद्भावना को बढ़ावा देना होगा, जिससे हमारी आगे आने वाली पीढ़ी भी इन सबका अनुकरण कर सके, साथ ही उनका महत्व भी समझे। वैसे भी किसी की मदद व परोपकार के पश्चात मिली खुशी का अपना स्थान होता है। मन की शांति और प्रसन्नता आपके जीवन को भी प्रभावित करती है, जो आपके सफल जीवन का एक अहम कारक भी कहा जा सकता है।

आईए हम आज से ही कुछ ऐसे कार्य प्रारम्भ करें जो समाजहित, मानवहित और स्वहित के लिए जरूरी हैं। आपके द्वारा किए गए कार्यों से अगर कुछ लोग भी लाभान्वित हो पाए तो निश्चित रूप से यह आपके जीवन की सार्थकता होगी। साथ ही ये कार्य समाज में मानव सेवा हेतु प्रेरणा के स्रोत भी बनेंगे।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 120 ☆ मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता.. छठी इंद्रिय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक विचारणीय  आलेख  ‘मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता.. छठी इंद्रिय। इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 120 ☆

? आलेख  – मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता.. छठी इंद्रिय ?

हमारी सबसे बड़ी योग्यता क्या है? जीवन के विहंगम दृश्य को देखने की हमारी दृष्टि? गीत और भाषा की ध्वनियाँ सुनने की शक्ति? भौतिक संसार का आनंद अनुभव करने की क्षमता? या शायद समृद्घ प्रकृति की मधुरता और सौंदर्य का स्वाद व गंध लेने की योग्यता? दार्शनिको व मनोवैज्ञानिको का मत है कि हमारी सबसे अधिक मूल्यवान अनुभूति है हमारी ‘‘मस्तिष्कदृष्टि’’ (mindsight). जिसे छठी इंद्रिय के रूप में भी विश्लेषित किया जाता है । यह एक दिव्यदृष्टि है. हमारे जीवन की कार्ययोजना भी यही तय करती है. यह एक सपना है और उस सपने को हक़ीक़त में बदलने की योग्यता भी । यही मस्तिष्क दृष्टि हमारी सोच निर्धारित करती है और सफल सोच से ही हमें व्यावहारिक राह सूझती है, मुश्किल समय में हमारी सोच ही हमें भावनात्मक संबल देती है। अपनी सोच के सहारे ही हम अपने अंदर छुपी शक्तिशाली कथित ‘‘छठी इंद्रिय’’ को सक्रिय कर सकते हैं और जीवन में उसका प्रभावी प्रयोग कर सकते हैं। हममें से बहुत कम लोग जानते हैं कि दरअसल हम अपने आप से चाहते क्या हैं? यह तय है कि जीवन लक्ष्य निर्धारित कर सही दिशा में चलने पर हमारा जीवन जितना रोमांचक, संतुष्टिदायक और सफल हो सकता है, निरुद्देश्य जीवन वैसा हो ही नहीं सकता। हम ख़ुद को ऐसी राह पर कैसे ले जायें, जिससे हमें स्थाई सुख और संतुष्टि मिले। सफलता व्यक्तिगत सुख की पर्यायवाची है। हम अपने बारे में, अपने काम के बारे में, अपने रिश्तों के बारे में और दुनिया के बारे में कैसा महसूस करते हैं, यही तथ्य हमारी व्यक्तिगत सफलता व संतुष्टि का निर्धारक होता है।

सच्चे सफल लोग हर नये दिन का स्वागत उत्साह, आत्मविश्वास और आशा के साथ करते हैं। उन्हें ख़ुद पर भरोसा होता है और उस जीवन शैली पर भी, जिसे जीने का विकल्प उन्होंने चुना है। वे जानते हैं कि जीवन में कुछ पाने के लिए उन्हें अपनी सारी शक्ति एकाग्र कर लगानी पड़ेगी । वे अपने काम से प्रेम करते हैं। वे लोग दूसरों को प्रेरित करने में कुशल होते हैं और दूसरों की उपलब्धियों पर ख़ुश होते हैं। वे दूसरों का ध्यान रखते हैं, उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं स्वाभाविक रूप से प्रतिसाद में उन्हें भी अच्छा व्यवहार मिलता है। मस्तिष्कदृष्टि द्वारा हम जानते हैं, कि मेहनत, चुनौती और त्याग जीवन के हिस्से हैं। हम हर दिन को व्यक्तिगत विकास के अवसर में बदल सकते हैं। सफल व्यक्ति डर का सामना करके उसे जीत लेते हैं और दर्द को झेलकर उसे हरा देते हैं। उनमें अपने दैनिक जीवन में सुख पैदा करने की क्षमता होती है, जिससे उनके आसपास रहने वाले लोग भी सुखी हो जाते हैं। उनकी निश्छल मुस्कान, उनकी आंतरिक शक्ति और जीवन की सकारात्मक शैली का प्रमाण होती है।

क्या आप उतने सुखी हैं, जितने आप होना चाहते हैं? क्या आप अपने सपनों का जीवन जी रहे हैं या फिर आप उतने से ही संतुष्ट होने की कोशिश कर रहे हैं, जो आपके हिसाब से आपको मिल सका है? क्या आपको हर दिन सुंदर व संतुष्टिदायक अनुभवों से भरे अद्भुत अवसर की तरह दिखता है? अगर ऐसा नहीं है, तो सच मानिये कि व्यापक संभावनाये आपको निहार रही हैं. किसी को भी संपूर्ण, समृद्ध और सफलता से भरे जीवन से कम पर समझौता नहीं करना चाहिये। आप अपनी मनचाही ज़िंदगी जीने में सफल हो पायेंगे या नहीं, यह पूरी तरह आप पर ही निर्भर है.आप सब कुछ कर सकते हैं, बशर्तें आप ठान लें। अपने जीवन के मालिक बनें और अपने मस्तिष्क में निहित अद्भुत संभावनाओं को पहचानकर उनका दोहन करें। अगर मुश्किलें और समस्याएँ आप पर हावी हो रही हैं तथा आपका आत्मविश्वास डगमगा रहा है, तो जरूरत है कि आप समझें कि आप अपनी समस्या का सामना कर सकते हैं.आप स्वयं को प्रेरित कर, आत्मविश्वास अर्जित कर सकते हैं, आप अपने डर भूल सकते हैं,असफलता के विचारों से मुक्त हो सकते हैं, आप में नैसर्गिक क्षमता है कि आप चमत्कार कर सकते हैं, आप अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से लाभ उठा कर अपना जीवन बदल सकते हैं, आप शांति से और हास्य-बोध के साथ खुशहाल जीवन जी सकते हैं, शिखर पर पहुँचकर वहाँ स्थाई रूप से बने रह सकते हैं, और इस सबके लिये आपको अलग से कोई नये यत्न नही करने है केवल अपनी मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता को एक दिशा देकर विकसित करते जाना है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ जीवेम शरदः शतम – शिव से संवाद है – डॉ. सुमित्र का सृजन ☆ डॉ. राजेश पाठक ‘प्रवीण’

? जीवेम शरदः शतम ?

डॉ. राजकुमार सुमित्र (कवि, कथाकार, व्यंग्यकार, रूपकलेखक, चिंतक, छंदशास्त्र में निष्णात वरिष्ठ पत्रकार – साहित्यकार)

✍ शिव से संवाद है – डॉ. सुमित्र का सृजन ☆ डॉ. राजेश पाठक ‘प्रवीण’☆

डॉ. राजकुमार सुमित्र का सृजन परमपिता शिव से साक्षात संवाद है। शिव-संवाद की विलक्षण शक्ति से सम्पन्न अग्रज डॉ. सुमित्र जी के सृजन में समाज निर्माण के बीज मंत्र जैसा चमत्कार निहित है।

दादा सुमित्र जी के अन्तर्मन में समाहित मानवीय करुणा का स्पंदन और आत्मीय भावों का प्रवाह उनके व्यक्तित्व की पारस आभा है। सम्बन्धों को पूजा भाव से जीने वाले दादा सुमित्र जी यथा नाम तथा गुणों से अलंकृत हैं। उनके व्यक्तित्व में कभी कृष्ण की कान्ति की दार्शनिक आभा अनुभूत होती है, तो कभी बुद्ध के मौन-माधुरी का विलक्षण सौन्दर्य । दादा के गीतों की माधुर्यता में कभी मन कि मनु भूमिका के दर्शन होते हैं तो कभी पुरुरवा के अभिसार के …. ।

शब्दों को चमत्कारपूर्ण तरीकों से अंकित करते हुए नित नए शब्द विन्यास की कला में निष्णात सुमित्र जी के अन्तर्मन की शालीनता, निर्मलता, सहजता, सरलता, सात्विकता, सत्यता ही उनके व्यक्तित्व की विराटता है। शब्दब्रह्म के उपासक दादा को जीवेम शरदः शतम की भावना के साथ प्रणाम ?

 – डॉ. राजेश पाठक ‘प्रवीण’

? ई- अभिव्यक्ति परिवार की और से गुरुवर  डॉ. राजकुमार सुमित्र जी को उनके 83वें जन्मदिवस पर सादर प्रणाम एवं हार्दिक शुभकामनाएं ?

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print