हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 41 ☆ वृद्धावस्था आज भी बड़ी समस्या है ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  “वृद्धावस्था आज भी बड़ी समस्या है”.)

☆ किसलय की कलम से # 41 ☆

☆ वृद्धावस्था आज भी बड़ी समस्या है ☆

 प्रायः यह देखा गया है कि हमारे समाज में वृद्धों की स्थिति अधिकांशतः दयनीय ही होती है, भले ही वे कितने ही समृद्ध एवं सभ्य क्यों न हों। उनकी संतानें उनके सभी दुख-सुख एवं उनकी समस्याओं का निराकरण नहीं कर पाते, मैं ये नहीं बताना चाहता कि इनके पीछे कौन-कौन से तथ्य हो सकते हैं। जिस वस्तु की उन्हें आवश्यकता होती है या उनका मन चाहता है, वे आसानी से प्राप्त नहीं कर पाते, तब उनके मन एवं मस्तिष्क में उस कमी के कारण चिंता के बीज अंकुरित होने लगते हैं। ये उनके के लिए घातक सिद्ध होते हैं। वैसे भी आधुनिक युग में वृद्ध अपनी जिंदगी से काफ़ी पहले ऊब जाते हैं। अधिकतर वृद्धों के चेहरों पर मुस्कराहट या चिकनाहट रह ही नहीं पाती। उनका गंभीर चेहरा उनके स्वयं की अनेक अनसुलझी समस्याओं का प्रतीक-सा बन जाता है। उनकी एकांतप्रियता दुखी हृदय की ही द्योतक होती है।

इस तरह की परिस्थितियाँ वृद्धावस्था में ही क्यों आती हैं? बचपन और जवानी के दिनों में क्यों नहीं आतीं ? इनके बहुत से कारणों को आसानी से समझा जा सकता है। बचपन में संतानें माता-पिता पर आश्रित रहती हैं। उनका पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा एवं नौकरी-चाकरी तक माँ-बाप लगवा देते हैं। इतने लंबे समय तक बच्चों को किसी भी प्रकार की कमी नहीं होती। प्रत्येक चाही-अनचाही आवश्यकताओं की पूर्ति माता-पिता ही करते हैं। बच्चे जवानी की दहलीज़ पर पहुँचते-पहुँचते अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं और अपने परिवार का भी दायित्व निर्वहन करने में सक्षम हो जाते हैं। अपनी इच्छानुसार अनेक मदों में धन का व्यय करके अपनी अधिकांश आवश्यकताएँ पूरी करते रहते हैं।

इन्हीं परिस्थितियों एवं समय में वही परंपरागत वृद्धावस्था की समस्या अंकुरित होने लगती है। जब वृद्ध माता-पिता के खान-पान, उनकी उचित देख-रेख और उनके सहारे की अनिवार्य आवश्यकता होती है, इन परिस्थितियों में वे संतानें जिन्हें रात-रात भर जागकर और खुद ही इनके मूत्र भरे गीले कपड़ों में लेटे रहकर इन्हें सूखे बिस्तर में सुलाया। इनका पालन-पोषण और प्रत्येक इच्छाओं को पूरा करते हुए पढ़ाया-लिखाया फिर रोज़ी-रोटी से लगाया  उनका विवाह कराया, उनके हिस्से के सारे दुखों को खुद सहा और वह केवल इसलिए की वे खुश रहें और वृद्धावस्था में उनका सहारा बनें, परंतु आज की अधिकतर कृतघ्न संतानें अपने माता-पिता से नफ़रत करने लगती हैं। उनकी सेवा-सुश्रूषा से दूर भागने लगती हैं। उनकी छोटी-छोटी सी अनिवार्य आवश्यकताओं को भी पूरी करने में रुचि नहीं दिखातीं। ऐसी संतानों को क्या कहा जाए जो उनसे ही जन्म लेकर अपने फ़र्ज़ को निभाने में कोताही करते हैं। उनकी अंतिम घड़ियों में उनकी आत्मा को शांति नहीं पहुँचातीं।

आज ऐसी शिक्षा कि आवश्यकता है जिसमें माता-पिता के लिए भावनात्मक एवं कृतज्ञता की विषयवस्तु का समावेश हो। आवश्यकता है पाश्चात्य संस्कृति के उन पहलुओं से बचने की जिनकी नकल करके हम अपने माता-पिता की भी इज़्ज़त करना भूल जाएँ। वहीं दूसरी ओर समझाईस के रूप में यह भी आवश्यक है की वृद्ध माता-पिता को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि संतान के परिपक्व होने के पश्चात उसे अपनी जिंदगी जीने का हक होता है और उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप हानिकार ही होगा। अतः बात -बात पर, समय-असमय, अपनी संतानों को भला-बुरा अथवा अपने दबाव का प्रभाव न ही बताना श्रेयस्कर होगा, अन्यथा वृद्धों की यह परंपरागत समस्या निराकृत होने के बजाय भविष्य में और भी विकराल रूप धारण कर सकती है

(पाठकों से निवेदन है कि वे इस आलेख को संकेतात्मक स्वीकार करें, अपवाद तो हर जगह संभव हैं)

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 91 ☆ आओ संवाद करें ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 91 ☆ आओ संवाद करें ☆

प्रातःकालीन भ्रमण पर हूँ। देखता हूँ कि कचरे से बिक्री लायक सामान बीनने वाली एक बुजुर्ग महिला बड़ा सा-थैला लिए चली जा रही है। अंग्रेजी शब्दों के चलन के आज के दौर में इन्हें रैगपिकर कहा जाने लगा है। बूढ़ी अम्मा स्थानीय सरकारी अस्पताल के पास पहुँची कि पीछे से भागता हुआ एक कुत्ता आया और उनके इर्द-गिर्द लोटने लगा। अम्मा बड़े प्यार से उसका सिर सहलाने-थपकाने और फिर समझाने लगीं, ” अभी घर से निकली।  कुछ नहीं है पिशवी (थैले) में।  पहले कुछ जमा हो जाने दे, फिर खिलाती।”  वहीं पास के पत्थर पर बैठ गईं अम्मा और सुनाने लगी अपनी रामकहानी। आश्चर्य! आज्ञाकारी अनुचर की तरह वहीं बैठकर कुत्ता सुनने लगा बूढ़ी अम्मा की बानी। अम्मा ने क्या कहा, श्वानराज ने क्या सुना, यह तो नहीं पता पर इसका कोई महत्व है भी नहीं।

महत्व है तो इस बात का कि जो कुछ अम्मा कह रही थी, प्रतीत हो रहा था कि कुत्ता उसे सुन रहा है। महत्व है संवाद का, महत्व है विरेचन। कहानी सुनते समय ‘हुँकारा’ भरने अर्थात ‘हाँ’ कहने की प्रथा है। कुत्ता निरंतर पूँछ हिला रहा है। कोई सुन रहा है, फिर चाहे वह कोई भी हो लेकिन मेरी बात में किसी की रुचि है, कोई सिर हिला रहा है, यह अनुभूति जगत का सबसे बड़ा मानसिक विरेचन है।

कैसा विरोधाभास है कि घर, आंगन, चौपाल में बैठकर बतियाने वाले आदमी ने मेल, मैसेजिंग, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, व्हाट्सएप, टेलिग्राम जैसे संवाद के अनेक द्रुतगामी प्लेटफॉर्म विकसित तो कर लिए लेकिन ज्यों-ज्यों कम्युनिकेशन प्लेटफॉर्मों से नज़दीकी बढ़ी, प्रत्यक्ष संवाद से दूर होता गया आदमी। अपनी अपनी एक कविता याद आती है,

“खेत/ कुआँ/ दिशा-मैदान/ हाट/  सांझा चूल्हा/  चौपाल/ भीड़ से घिरा/ बतियाता आदमी…, कुरियर/टेलीफोन/ मोबाइल/ फोर जी/  ईमेल/ टि्वटर/ इंस्टाग्राम/ फेसबुक/  व्हाट्सएप/ टेलिग्राम/  अलग-थलग पड़ा/  अकेला आदमी…”

तमाम ई-प्लेटफॉर्मों पर एकालाप सुनाई देता है।  मैं, मैं और केवल मैं का होना, मैं, मैं और केवल मैं का रोना… किसी दूसरे का सुख-दुख सुनने  का किसी के पास समय नहीं, दूसरे की तकलीफ जानने-समझने की किसी के पास शायद इच्छा भी नहीं। संवाद के अभाव में घटने वाली किसी दुखद घटना के बाद संवाद साधने की हिदायत देने वाली पोस्ट तो लिखी जाएँगी पर लिखने वाले हम खुद भी किसी से अपवादस्वरूप ही संवाद करेंगे। वस्तुत: हर वाद, हर विवाद का समाधान है संवाद। हर उलझन की सुलझन है संवाद। संवाद सेतु है। यात्रा दोनों ओर से हो सकती है। कभी अपनी कही जाय, कभी उसकी सुनी जाय। अपनी एक और रचना की कुछ पंक्तियाँ संक्षेप में बात को स्पष्ट करने में सहायक होंगी,

विवादों की चर्चा में/ युग जमते देखे/  आओ संवाद करें/ युगों को पल में पिघलते देखें/… मेरे तुम्हारे चुप रहने से/ बुढ़ाते रिश्ते देखे/ आओ संवाद करें/ रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें/…

नयी शुरुआत करें, आओ संवाद करें !

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 88 ☆ यह भी गुज़र जाएगा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख यह भी गुज़र जाएगा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 88 ☆

☆ यह भी गुज़र जाएगा ☆

‘गुज़र जायेगा यह वक्त भी/ ज़रा सब्र तो रख/ जब खुशी ही नहीं ठहरी/ तो ग़म की औक़ात क्या?’ गुलज़ार की उक्त पंक्तियां समय की निरंतरता व प्रकृति की परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डालती हैं। समय अबाध गति से निरंतर बहता रहता है; नदी की भांति प्रवाहमान् रहता है, जिसके माध्यम से मानव को हताश-निराश न होने का संदेश दिया गया है। सुख-दु:ख व खुशी-ग़म आते-जाते रहते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। मुझे याद आ रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं अर्थात् समयानुसार दिन-रात, हालात व मौसम के साथ फूल व पत्तियों का बदलना अवश्यंभावी है। प्रकृति के विभिन्न उपादान धरती, सूर्य, चंद्रमा, तारे आदि निरंतर परिक्रमा लगाते रहते हैं; गतिशील रहते हैं। सो! वे कभी भी विश्राम नहीं करते। मानव को नदी की प्रवाहमयता से निरंतर बहने व कर्म करने का संदेश ग्रहण करना चाहिए। परंतु यदि उसे यथासमय कर्म का फल नहीं मिलता, तो उसे निराश नहीं होना चाहिए; सब्र रखना चाहिए। ‘श्रद्धा-सबूरी’ पर विश्वास रख कर निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, क्योंकि जब खुशी ही नहीं ठहरी, तो ग़म वहां आशियां कैसे बना सकते हैं? उन्हें भी निश्चित समय पर लौटना होता है।

‘आप चाह कर भी अपने प्रति दूसरों की धारणा नहीं बदल सकते,’ यह कटु यथार्थ है। इसलिए ‘सुक़ून के साथ अपनी ज़िंदगी जीएं और खुश रहें’– यह जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को प्रकट करता है। समय के साथ सत्य के उजागर होने पर लोगों के दृष्टिकोण में स्वत: परिवर्तन आ जाता है, क्योंकि सत्य सात परदों के पीछे छिपा होता है; इसलिए उसे प्रकाश में आने में समय लगता है। सो! सच्चे व्यक्ति को स्पष्टीकरण देने की कभी भी दरक़ार नहीं होती। यदि वह अपना पक्ष रखने में दलीलों का सहारा लेता है तथा अपनी स्थिति स्पष्ट करने में प्रयासरत रहता है, तो उस पर अंगुलियाँ उठनी स्वाभाविक हैं। यह सर्वथा सत्य है कि सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है… ‘उपहास, विरोध व अंततः स्वीकृति।’ सत्य का कभी मज़ाक उड़ाया जाता है, तो कभी उसका विरोध होता है…परंतु अंतिम स्थिति है स्वीकृति, जिसके लिए आवश्यकता है– असामान्य परिस्थितियों, प्रतिपक्ष के आरोपों व व्यंग्य-बाणों को धैर्यपूर्वक सहन करने की क्षमता की। समय के साथ जब प्रकृति का क्रम बदलता है… दिन-रात, अमावस-पूनम व विभिन्न ऋतुएं, निश्चित समय पर दस्तक देती हैं, तो उनके अनुसार हमारी मन:स्थिति में परिवर्तन होना भी स्वाभाविक है। इसलिए हमें इस तथ्य में विश्वास रखना चाहिए कि यह परिस्थितियां व समय भी बदल जायेगा; सदा एक-सा रहने वाला नहीं। समय के साथ तो सल्तनतें भी बदल जाती हैं, इसलिए संसार में कुछ भी सदा रहने वाला नहीं। सो! जिसने संसार में जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। इसके साथ-साथ आवश्यकता है मनन करने की… ‘ इंसान खाली हाथ आया है और उसे जाना भी खाली हाथ है, क्योंकि कफ़न में कभी जेब नहीं होती।’ इसी प्रकार गीता का भी यह सार्थक संदेश है कि मानव को किसी वस्तु के छिन जाने का ग़म नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसने जो भी पाया व कमाया है, वह यहीं से लिया है। सो! वह उसकी मिल्कियत कैसे हो सकती है? फिर उसे छोड़ने का दु:ख कैसा? सो! हमें सुख-दु:ख से उबरना है, ऊपर उठना है। हर स्थिति में संभावना ही जीवन का लक्ष्य है। इसलिए सुख में आप फूलें नहीं, अत्यधिक प्रसन्न न रहें और दु:ख में परेशान न हों…क्योंकि इनका चोली-दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरे का पदार्पण होना स्वाभाविक है। इसमें एक अन्य भाव भी निहित है कि जो अपना है, वह हर हाल में मिल कर रहेगा और जो अपना नहीं है, लाख कोशिश करने पर भी मिलेगा नहीं। वैसे भी सब कुछ सदैव रहने वाला नहीं; न ही साथ जाने वाला है। सो! मन में यह धारणा बना लेनी आवश्यक है कि ‘समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कुछ मिलने वाला नहीं।’ कबीरदास जी का यह दोहा ‘माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आय फल होइ’…. समय की महत्ता व प्रकृति की निरंतरता पर प्रकाश डालता है।

समय का पर्यायवाची आने वाला कल अथवा भविष्य ही नहीं, वर्तमान है। ‘काल करे सो आज कर. आज करे सो अब/ पल में प्रलय होयेगी, मूरख करेगा कब’ में भी यही भाव निर्दिष्ट है कि कल कभी आएगा नहीं। वर्तमान ही गुज़रे हुए कल अथवा अतीत में परिवर्तित हो जाता है। सो! आज अथवा वर्तमान ही सत्य है। इसलिए हमें अतीत के मोह को त्याग, वर्तमान की महत्ता को स्वीकार, आगामी कल को सुंदर, सार्थक व उपयोगी बनाना चाहिए। दूसरे शब्दों में ‘कल’ का अर्थ है– मशीन व शांति। आधुनिक युग में मानव मशीन बन कर रह गया है। सो! शांति उससे कोसों दूर हो गयी है। वैसे शांत मन में ही सृष्टि के विभिन्न रहस्य उजागर होते हैं, जिसके लिए मानव को ध्यान का आश्रय लेना पड़ता है।

ध्यान-समाधि की वह अवस्था है, जब हमारी चित्त-वृत्तियां एकाग्र होकर शांत हो जाती हैं। इस स्थिति में आत्मा-परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उसका संबंध संसार व प्राणी-जगत् से कट जाता है; उसके हृदय में आलोक का झरना फूट निकलता है। इस मन:स्थिति में वह संबंध-सरोकारों से ऊपर उठ जाता है तथा वह शांतमना निर्लिप्त-निर्विकार भाव से सरोवर के शांत जल में अवगाहन करता हुआ अनहद-नाद में खो जाता है, जहां भाव-लहरियाँ हिलोरें नहीं लेतीं। सो! वह अलौकिक आनंद की स्थिति कहलाती है।

आइए! हम समय की सार्थकता पर विचार- विमर्श करें। वास्तव में हरि-कथा के अतिरिक्त, जो भी हम संवाद-वार्तालाप करते हैं; वह जग-व्यथा कहलाती है और निष्प्रयोजन होती है। सो! हमें अपना समय संसार की व्यर्थ की चर्चा में नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए हमें उसका शोक भी नहीं मनाना चाहिए। वैसे भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘नया नौ दिन, पुराना सौ दिन’ अर्थात् ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’… पुरातन की महिमा सदैव रहती है। यदि सोने के असंख्य टुकड़े करके कीचड़ में फेंक दिये जाएं, तो भी उनकी चमक बरक़रार रहती है; कभी कम नहीं होती है और उनका मूल्य भी वही रहता है। सो! हम में समय की धारा की दिशा को परिवर्तित करने का साहस होना चाहिए, जो सबके साथ रहने से, मिलकर कार्य को अंजाम देने से आता है। संघर्ष जीवन है…वह हमें आपदाओं का सामना करने की प्रेरणा देता है; समाज को आईना दिखाता है और गलत-ठीक व उचित-अनुचित का भेद करना भी सिखाता है। इसलिए समय के साथ स्वयं को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जो लोग प्राचीन परंपराओं को त्याग, नवीन मान्यताओं को अपना कर जीवन-पथ पर अग्रसर नहीं होते; पीछे रह जाते हैं… ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकते तथा उन्हें व उनके विचारों को मान्यता भी प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए संतोष रूपी रत्न को धारण कर, जीवन से नकारात्मकता को निकाल फेंके, क्योंकि संतोष रूपी धन आ जाने के पश्चात् सांसारिक धन-दौलत धूलि के समान निस्तेज, निष्फल व निष्प्रयोजन भासती है; शक्तिहीन व निरर्थक लगती है और उसकी जीवन में कोई अहमियत नहीं रहती। इसलिए हमें जीवन में किसी के आने और भौतिक वस्तुओं व सुख-सुविधाओं के मिल जाने पर खुश नहीं होना चाहिए और उसके अभाव में दु:खी होना भी बुद्धिमत्ता नहीं है, क्योंकि सुख-दु:ख का एक स्थान पर रहना असंभव है, नामुमक़िन है… यही जीवन का सार है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 40 ☆ भारत का प्रमुख ऐतिहासिक एवं महत्त्वपूर्ण नगर ‘जबलपुर’ ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका ऐतहासिक, ज्ञानवर्धक एवं रोचक आलेख  “भारत का प्रमुख ऐतिहासिक एवं महत्त्वपूर्ण नगर ‘जबलपुर’”.)

☆ किसलय की कलम से # 40 ☆

☆ भारत का प्रमुख ऐतिहासिक एवं महत्त्वपूर्ण नगर ‘जबलपुर’ ☆

मध्य प्रदेश में स्थित जबलपुर विशाल भारत के प्रमुख ऐतिहासिक एवं महत्वपूर्ण नगरों में से एक है। आचार्य विनोबा भावे द्वारा ‘संस्कारधानी‘ नाम से विभूषित जबलपुर शब्द की उत्पत्ति के संबंध में इसको जाउलीपत्तन का अपभ्रंश माना जा सकता है जो कि कल्चुरी नरेश जयसिंह के ताम्रलेख के अनुसार एक मण्डल था। जाबालि ऋषि की तपोभूमि होने के कारण इसे जाबालीपुरम् से भी जोड़ा जाता है। जबलपुर एवं इसका निकटवर्ती प्रक्षेत्र ऐतिहासिक, दार्शनिक, राजनैतिक, साहित्यिक एवं सामरिक दृष्टि से अपना विशेष महत्त्व रखता है।

प्राकृतिक सुन्दरता की गोद में बसे जबलपुर की दक्षिण – पश्चिम दिशा में बहती पावन नर्मदा एवं दूर तक दृष्टिगोचर होती पर्वत श्रृंखलाओं के फलस्वरूप इस नगर की सुन्दरता में एक अनोखा सामंजस्य बन गया है। भेड़ाघाट में संगमरमरी चट्टानों की सुरम्य घाटियों के दृश्य देखते हुए लोगों की आँखें आश्चर्य चकित हो जाती हैं। पास ही प्रकृति की अनोखी धरोहर ‘धुआँधार‘ नामक जलप्रपात के रूप में दिखाई देता है।

यहीं पहाड़ी पर बना चौसठ योगिनी का मन्दिर प्राचीन शिल्पकला का अनूठा उदाहरण है। एक चक्र के आकार में 86 से भी अधिक देवी, देवताओं एवं योगिनियों की मूर्तियों में अद्भुत शिल्पकला के दर्शन होते हैं। भेड़ाघाट के समीप ही नर्मदा के  लम्हेटाघाट में पाई जाने वाली चट्टानें विश्व की प्राचीनतम् चट्टानों में गिनी जाती हैं। भूगर्भशास्त्रियों द्वारा इनकी  प्राचीनता लगभग 50 लाख वर्ष बताई गई है जिन्हें विश्व की भूगर्भीय भाषा में लम्हेटाईट नाम से जाना जाता है। जबलपुर की पश्चिम दिशा में भेड़ाघाट रोड पर स्थित वर्तमान तेवर ही कल्चुरियों की राजधानी त्रिपुरी है जो कि शिशुपाल चेदि राज्य का वैभवशाली नगर था। इसी त्रिपुरी के त्रिपुरासुर नामक राक्षस का वध करने के कारण ही भगवान शिव का नाम ‘त्रिपुरारि‘ पड़ा।

गांगेय पुत्र कल्चुरी नरेश कर्णदेव एक प्रतापी शासक हुए, जिन्हें ‘इण्डियन नेपोलियन‘ कहा गया है। उनका साम्राज्य भारत के वृहद क्षेत्र में फैला हुआ था। सम्राट के रूप में दूसरी बार उनका राज्याभिषेक होने पर उनका कल्चुरी संवत प्रारंभ हुआ। कहा जाता है कि शताधिक राजा उनके शासनांतर्गत थे।

कल्चुरियों के पश्चात गौंड़ वंश का इतिहास सामने आता है और गढ़ा-मण्डला की वीरांगना रानी दुर्गावती की वीरता तथा देशभक्ति याद आती है। मुगलों से लड़ते हुए उनके पुत्र वीरनारायण की शहादत एवं अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए स्वयं के प्राणोत्सर्ग की घटना दुर्लभ कही जा सकती है। महारानी दुर्गावती के पूर्व मदनशाह की स्मृति में सुरम्य पहाड़ियों के मध्य बना मदन महल हो अथवा रानी दुर्गावती नाम का रानीताल, दुर्गावती के सेनापति अधार सिंह के नाम से अधारताल, श्वसुर संग्राम शाह के नाम से संग्राम सागर,, चेरी अर्थात दासी की स्मृतियों में बने चेरीताल के रूप में आज भी गौड़ वंश की स्मृतियाँ जीवित हैं। गौंड़ साम्राज्य चार भागों में बँटा हुआ था। उत्तर प्रान्त की राजधानी सिंगौरगढ, दक्षिण-पूर्व की मण्डला, पश्चिम की चौरागढ़ तथा मध्य की गढ़ा राजधानी थी। गढ़ा समस्त साम्राज्य का केन्द्र था।

स्वतंत्रा संग्राम की लड़ाई में भी जबलपुर का सक्रिय योगदान रहा है। भारत में झण्डा आंदोलन का सूत्रपात जबलपुर से ही हुआ था। जबलपुर वासियों की स्वतंत्रता के प्रति सक्रयिता का ही परिणाम था कि सन् 1939 में अखिल भारतीय कांग्रेस का 52 वाँ ‘त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन’ जबलपुर में हुआ था। ज्ञातव्य है कि इस अधिवेशन में महात्मा गांधी समर्थित पट्टाभि सीतारमैया को हराकर सुभाष चन्द्र बोस के राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने पर गांधी जी और उनके बीच मतभेद की परिणति सुभाष बाबू के फारवर्ड ब्लाक के गठन के रूप में हुई, जिसकी स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। ऐतिहासिक दृष्टि यह बात भी सदैव याद की जाएगी  कि श्री सुभाष चन्द्र बोस स्वतंत्रा आंदोलन में जबलपुर सेन्ट्रल जेल में भी रहे हैं।

‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी‘ कविता की रचयिता सुभद्रा कुमारी चौहान, व्यंग्य विधा के जनक हरिशंकर परसाई जैसे साहित्यकारों की नगरी जबलपुर में ख्यातिलब्ध व्यक्तित्वों की कमी नहीं रही। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र, मध्य प्रदेश विधान सभा के अध्यक्ष कुंजीलाल दुबे, सेठ गोविन्ददास, राजर्षि परमानन्द भाई पटेल, राजस्थान के पूर्व राज्यपाल निर्मल चंद जैन, साहित्य मनीषी रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल‘ एवं मध्य प्रदेश विधान सभा अध्यक्ष श्री ईश्वरदास रोहाणी का नाम कौन नहीं जानता।

जबलपुर की माटी और संस्कृति में पल्लवित आचार्य रजनीश (ओशो) एवं महर्षि महेश योगी विश्वविख्यात विभूतियाँ हैं। सम्पूर्ण भारत के डाकतार विभाग में पिन कोड अर्थात पोस्टल इन्डेक्स नंबर की प्रणेता भी जबलपुर की ही श्रीमती चौरसिया थीं। मध्य प्रदेश राज्य की विद्युत कंपनियों के मुख्यालय, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय, पश्चिम-मध्य रेलवे जोन मुख्यालय, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय एवं आयुध निर्माणियों का यह नगर देश में अपना विशेष स्थान रखता है।

उपनगरीय क्षेत्र गढ़ा में पर्वत श्रृंखला पर स्थित जैन मंदिर समूह एवं नीचे नंदीश्वर द्वीप सहित कांग्रेस अधिवेशन की स्मृति में निर्मित गांधी स्मारक कमानिया गेट, त्रिपुरी कांग्रेस स्मारक, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय भवन, गोकुलदास धर्मशाला आदि इमारतें आज भी वैभव एवं वास्तुकला के प्रमाण हैं। सुभाष चन्द्र बोस, विनोबा भावे, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु की अनेक प्रवासों की स्मृतियाँ संजोए जबलपुर आज भी राजनीति, साहित्य और संस्कारों की निजी पहचान बनाए हुए हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मनिषा खटाटे और इतिहास के साथ पहल! ☆ सुश्री मनिषा खटाटे

सुश्री मनिषा खटाटे

परिचय 

सुश्री मनिषा खटाटे जी एक प्रयोगवादी लेखिका हैं। आपका साहित्य अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है. इस योगदान के लिये ‘रणरागिणी’ पुरस्कार प्राप्त हुआ है. साहित्य और दर्शन तथा मनोविज्ञान का प्रभाव आपकि साहित्यिक कृतियों में स्पष्ट रुप से पाया जाता है. साहित्य से भी सृजनशील मानवता का जन्म हो सकता है. साहित्य भी मनुष्य की आत्मा को प्रकाशित कर सकता है.टिप्पणियाँ इस अवधारणा के साथ सकारात्मक साहित्य की उपज हो सकती है. अज्ञात लेखक की टिप्पणियाँ (उपन्यास), मेरे आयाम की कहानियाँ (कथा संग्रह), मरुस्थल (काव्य संग्रह) प्रकाशनधीन हैं. आपका एक यूट्यूब चैनल भी है.

यूट्यूब लिंक >>>> Maisha Khatate

 ☆ आलेख ☆ मनिषा खटाटे और इतिहास के साथ पहल ! ☆ सुश्री मनिषा खटाटे ☆ 

(सुश्री मनिषा खटाटे जी के उपन्यास ‘अज्ञात लेखक की टिप्पणियाँ’ का एक अंश)

मनिषा खटाटे और इतिहास के संदर्भो के साथ जो पहल हुई वह एक अज्ञात लेखक की आत्मा और मैं के बींच एक ग्रंथालय में हुई. वह ग्रंथालय पुरानी और नयी किताबों की अनंत संभावनाये लेकर खडा था. इतिहास और वर्तमान के कई रहस्य अपने आप में छुपाये हिम्मत से अपनी जडों को संभाल रहा था. वह मुझे पुराने किले की तरह भी छायांकित कर रहा था. उसके तहखाने में प्रवेश करना जैसे समय के अंधेरे में हाथ में दीया लेकर उतना ही देखना है कि जितनी दीये के प्रकाश की आभा है. उन पुरानी किताबों को वर्तमान के दीये तले ही पढना होता है. इतिहास समय के चक्रव्यूह में फँसी हुई मनुष्य के अस्तित्व की एक पहेली हैं. जो अस्तित्व के अर्थ खोजने का अंतहीन, अर्थहीन प्रयास है.

मुझे सामने वाली दीवार पर लटकी हुअी घडी में प्रवेश करके काटों पर सवार होकर समय को पीछे की तरफ धकेलना होता है. मूलस्रोत तक पहँचने की यात्रा में मुझे इतिहास के उन काले पन्नो को भी पढना होता है, जहाँ पर नासमझियों के पहाड खडे है. परंतु, मेरी वेदना यह है की सिर्फ देखने सिवाय हाथों मे कुछ नहीं है. आत्मा पर एक और बोझ चढ जाता है. लेखिका होने के नाते मैं उन पन्नों को मेरी इच्छा के अनुसार लिख भी नहीं सकती. ये स्वतंत्रता सिर्फ मेरी कहानियाँ मुझे देती हैं.

यह पहल मुझे ईसा मसिह की जीवनी का स्मरण करा देती है. उनका पूरा जीवन पुराने  भविष्यवक्ताओं के वचनों को जिंदा करने में बीता. सूली चढने के समय वे बच सकते थे. मगर उनको मसीह होने के अंतिम वचन को सिद्ध करना था. जो पुनरुत्थान के बाद ही हो सकता था. इतिहास भी पुनरुत्थान जैसा है. जो उसके बाद समय पर छा गये. इतिहास की सीमा रेखा पर मृत्यु खडी थी. जो स्वयं की आत्मा का पुनरुत्थान करके अनंत आकाश में छा गया.. इतिहास नियति के द्वारा नियत नही होता है, वह तो संघर्ष तथा युध्द की अमिट गाथाये है. इतिहास में मनुष्य या समाज की जडे खोज सकते हैं मगर इतिहास के काले पन्नो को मिटा नही सकते. इतिहास की किताबों की धूल झटकने के बाद मै के अस्तित्व की शुरुआत नयी चेतना के साथ करनी चाहिये.

इतिहास भी पुनरुत्थान जैसा है. सूली पर चढने के बाद और पुनरुत्थान के बाद वे इतिहास बने और पूरी मनुष्यता पर छा गये. इतिहास की सीमा रेखा पर मृत्यु खडी थी. जो स्वयं की आत्मा का पुनरुत्थान करके अनंत आकाश में छा गयी.

इतिहास पिता के आज्ञा की तरह भी होता हैं, जो उसकी आज्ञा अपने बच्चों के प्रति नियम का काम करती है. आत्मप्रकाश के लिये अपने संतान के लिये त्याग और संघर्ष की मांग करती है. हम इतिहास के पुत्र है, इतिहास की सत्ता के सामने हमारा कोई वजूद नहीं है. हम स्वतंत्र है ऐसा सोचकर हम स्वयं के अस्तित्व के नये नये अर्थ खोजते रहते है. आज्ञा को तोडने के बाद हम सजा के भी हकदार बनते है. इतिहास मनुष्य चेतना की प्रेरणा है, जो साहस बढाने का काम करता है. मैं अपना इतिहास जिंदा रखने के लिये जीती और मरती हूँ. अहिंसा को सिद्ध करने के लिये हिंसा करती हूँ. समानता स्थापित करने के लिये मनुष्यता की बलि लेती हूँ. मै स्वयं से हराने के लिये स्वयं से प्रतिबद्ध हूँ. मेरे सम्मुख मेरे सिवाय कोई नही है. मेरे कदम हर रास्ते पर पडते हैं, हे खुदा कहीं तेरे ऊपर आंच ना आ जाये, मेरा रास्ता देखकर कहीं तू अपना रास्ता ना बदल दे. क्या है तेरे दिल में, बयां कर किसको, क्या मेरे दिल में तू बसता है? क्या यह मै समझूँ कि मेरे दिल से जो आवाज निकलती है, वहीं तुम हो ? क्या ईश्वर के बाद मेरा नाम लिया जायेगा? अगर लिया भी गया तो हे! ईश्वर क्या तुम मेरे आत्मा में बसते नहीं हो?

मनिषा खटाटे इतिहास का एक छोटा सा संदर्भ है. उन संदर्भों के साथ संवाद करने के लिये भाषा ही एकमात्र माध्यम है. परंतु भाषा भी मनुष्य की रचना है. वह माया है. अंतिम सत्य नही है. लेकिन मैं सत्य हूँ! मेरा अस्तित्व भी सत्य है, मेरी संवेदनाओं के साथ, मेरी भावनाये और मेरे विचारों के साथ. दुर्भाग्यवश यह जगत भी सत्य हैं और मनिषा खटाटे भी!

© सुश्री मनिषा खटाटे

नासिक, महाराष्ट्र (भारत)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ शहीद दिवस विशेष – शहादत का दिन और हम ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ आलेख ☆ शहीद दिवस विशेष – शहादत का दिन और हम ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

(शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की पुण्यतिथि पर विशेष)

आज शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का शहीद दिवस है । सन् 1931 को इन तीनों को अंग्रेज सरकार ने देर शाम फांसी दी थी और लोग भड़क न जाएं इस डर से सतलुज के किनारे हुसैनीवाला में मिट्टी का तेल छिड़क कर अमानवीय ढंग से अंतिम संस्कार कर दिया था । दूसरे दिन भगत सिंह की बहन बीबी अमरकौर अपनी मां विद्यावती के साथ गयी थी और उस दिन के ट्रिब्यून अखबार में शहीदों की अस्थियां समेट कर लाई थी जो आज भी उसी अखबार मैं  लिपटीं या कहिए कि सहेजी रखी हैं खटकड़ कलां के शहीदी स्मारक में । सुखदेव की टोपी वाला कुल्ला रखा है और भगत सिंह की डायरी और पैन जैसे कि अभी भगत सिंह आयेंगे और नये जमाने पर अपनी बात लिखने लगेंगे । लाहौर के नेशनल कालेज गये तो थे पढ़ने लेकिन क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आए और फिर फांसी के फंदे तक झूल गये । नाटक और लेखन में भी रूचि थी । कानपुर अखबार में बलवंत नाम से पत्रकारिता भी की । अपने छोटे भाई को भी खत लिख कर पढ़ने की सलाह देते रहते थे । सुखदेव एक संगठनकर्त्ता थे । पैसा इकट्ठा करना और संगठन को चलाना उनका काम था । वे भी पंजाब के लुधिथाना के नौघरां मोहल्ले के थापर परिवार से थे । उनके छोटे भाई मथरादास थापर मुझसे मिलने हापुड़ से खटकड़ कलां आए थे और उन पर लिखी पुस्तक अनेकों में से एक : अमर शहीद सुखदेव उपहार में दे कर गये थे । इसी प्रकार शहीद भगत सिंह के भांजे प्रो जगमोहन सिंह ने पुस्तक उपहार में दी : भगत सिंह के पुरखे । यह उन्होंने बड़ी खोज और शोध के बाद लिखी जिसका संपादन सहयोग प्रो चमन लाल ने किया । ये सारी पुस्तकें मुझसे मेरे जालंधर दूरदर्शन में कार्यरत मित्र कृष्ण कुमार रत्तू एक कार्यक्रम बनाने के लिए ले गये और फिर जैसे कि होता है लौटाना भूल गये । शहीद भगत सिंह के परिवार से पूरे ग्यारह वर्ष मुलाकातों का सुनहरी अवसर मिलता रहा खटकड़ कलां के आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में प्राध्यापक व कार्यकारी प्रिंसिपल रहने के चलते । वे मेरे जीवन के सुनहरी साल कहे जा सकते हैं । हर बार पंजाब सरकार इन परिवारजनों को बुलाकर सम्मानित करती । मां विद्यावती को तो जब ज्ञानी जैल सिंह मुख्यमंत्री थे एक एम्बेसेडर कार और पंजाब माता की उपाधि भी दी गयी थी । इस पर संत राम उदासी नाम के पंजाबी के चर्चित कवि ने लिखा था गीत

हाड़े भगत सिंह दी मां

बेशक बनेयो

पर हाड़े बनेयो न कोई

पंजाब माता ।

यानी उदासी के विचार में जो भारतमाता के स्टेट्स के बराबर थीं वह पंजाब माता बन कर क्यों सिमट जाए ? यह गीत आज भी उनकी बेटी इकबाल कौर गाती हैं मंचों पर । फिर इसी शहीद स्मारक में भगत सिंह को प्रिय लगने वाली पंक्तियां भी लिखी गयी हैं जिन्हें वे अक्सर गुनगुनाते रहते थे :

सेवा देश दी करनी जिंदड़िए बड़ी ओक्खी

गल्लां करनियां ढेर सुख्लियां ने

जिहना देश सेवा विच पैर पाया

उहनां लक्ख मुसीबतां झल्लियां ने

इसी प्रकार उन्हें यह भी प्रिय थीं :

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर

हमको भी मां-बाप ने पाला था

दुख सह सह कर ,,,

कौन मां बाप चाहता है कि उसका बेटा फांसी पर झूल जाए ? पर भारत मां के लिए हम झूल गये । कोई अफसोस नहीं । फिर आयेंगे और फिर इसी देश के लिए क़ुर्बान हो जायेंगे ।

शहीदों की चिताओं पर

लगेंगे हर बरस मेले

वतन पे मिटने वालों का

यही बाकी निशां होगा ,,,

आज भी भगत सिंह और उनका इंकलाब जिंदाबाद अमर है ।

नमन् और स्मरण । इन शहीदों को ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 100 ☆ संवाद संजीवनी है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है पारिवारिक, सार्वजनिक जीवन में एवं राष्ट्रीय स्तर पर संवाद की  भूमिका। वास्तव में समय पर संवाद संजीवनी ही है।  इस शोधपरक विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

? श्री विवेक जी ने ई- अभिव्यक्ति में  अपने साप्ताहिक स्तम्भ ‘विवेक साहित्य’ में 100 रचनाओं के साथ अभूतपूर्व साहित्यिक सहयोग  किया ?

?अभिनन्दन ?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 100☆

? संवाद संजीवनी है ?

घर, कार्यालय हर रिश्ते में सीधे संवाद की भूमिका अति महत्वपूर्ण है.

संवादहीनता सदा कपोलकल्पित भ्रम व दूरियां तथा समस्यायें उत्पन्न करती है. वर्तमान युग मोबाइल का है, अपनो से पल पल का सतत संपर्क व संवाद हजारो किलोमीटर की दूरियों को भी मिटा देता है. जहां कार्यालयीन रिश्तों में फीडबैक व खुले संवाद से विश्वास व अपनापन बढ़ता है वहीं व्यर्थ की कानाफूसी तथा चुगली से मुक्ति मिलती है.

इसी तरह घरेलू व व्यैक्तिक रिश्तो में लगातार संवाद से परस्पर प्रगाढ़ता बढ़ती है, रिश्तों की गरमाहट बनी रहती है, खुशियां बांटने से बढ़ती ही हैं और दुःख बांटने से कम होता है. कठनाईयां मिटती हैं. बेवजह ईगो पाइंट्स बनाकर संवाद से बचना सदैव अहितकारी है.

आज प्रायः बच्चे घरों से दूर शिक्षा पा रहे हैं उनसे निरंतर संवाद बनाये रख कर हम उनके पास बने रह सकते हैं व उनके पेरेण्ट्स होने के साथ साथ उनके बैस्ट फ्रैण्ड भी साबित हो सकते हैं. डाइनिंग टेबल पर जब डिनर में घर के सभी सदस्य इकट्ठे होते हैं तो दिन भर की गतिविधियो पर संवाद घर की परंपरा बनानी चाहिये.

यदि सीता जी के पास मोबाईल जैसा संवाद का साधन होता तो शायद राम रावण युद्ध की आवश्यकता ही न पड़ती और सीता जी की खोज में भगवान राम को जंगल जंगल  भटकना न पड़ता. विज्ञान ने हमें संवाद के संचार के नये नये संसाधन,मोबाईल, ईमेल, फोन, सामाजिक नेटवर्किंग साइट्स आदि के माध्यम से सुलभ कराये हैं, पर रिश्तो के हित में उनका समुचित दोहन हमारे ही हाथों में है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय जल दिवस विशेष – बिन पानी सब सून  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय जल दिवस विशेष – बिन पानी सब सून ?

जल जीवन के केंद्र में है। यह कहा जाए कि जीवन पानी की परिधि तक ही सीमित है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। नाभिनाल हटाने से लेकर मृतक को स्नान कराने तक सारी प्रक्रियाओं में जल है। अर्घ्य द्वारा जल के अर्पण से तर्पण तक जल है। कहा जाता है-“क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा,पंचतत्व से बना सरीरा।’ इतिहास साक्षी है कि पानी के अतिरिक्त अन्य किसी तत्व की उपलब्धता देखकर मानव ने बस्तियॉं नहीं बसाई। पानी के स्रोत के इर्द-गिर्द नगर और महानगर बसे। प्रायः हर शहर में एकाध नदी, झील या प्राकृतिक जल संग्रह की उपस्थिति इस सत्य को शाश्वत बनाती है। भोजन ग्रहण करने से लेकर विसर्जन तक जल साथ है। यह सर्वव्यापकता उसे सोलह संस्कारों में अनिवार्य रूप से उपस्थित कराती है।

पानी की सर्वव्यापकता भौगोलिक भी है। पृथ्वी का लगभग दो-तिहाई भाग जलाच्छादित है पर कुल उपलब्ध जल का केवल 2.5 प्रतिशत ही पीने योग्य है। इस पीने योग्य जल का भी बेहद छोटा हिस्सा ही मनुष्य की पहुँच में है। शेष सारा जल अन्यान्य कारणों से मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं है। कटु यथार्थ ये भी है कि विश्व की कुल जनसंख्या के लगभग 15 प्रतिशत को आज भी स्वच्छ जल पीने के लिए उपलब्ध नहीं है। लगभग एक अरब लोग गंदा पानी पीने के लिए विवश हैं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार विश्व में लगभग 36 लाख लोग प्रतिवर्ष गंदे पानी से उपजनेवाली बीमारियों से मरते हैं।

जल प्राण का संचारी है। जल होगा तो धरती सिरजेगी। उसकी कोख में पड़ा बीज पल्लवित होगा। जल होगा तो धरती शस्य-श्यामला होगी। जीवन की उत्पत्ति के विभिन्न धार्मिक सिद्धांत मानते हैं कि धरती की शस्य श्यामलता के समुचित उपभोग के लिए विधाता ने जीव सृष्टि को जना। विज्ञान अपनी सारी शक्ति से अन्य ग्रहों पर जल का अस्तित्व तलाशने में जुटा है। चूँकि किसी अन्य ग्रह पर जल उपलब्ध होने के पुख्ता प्रमाण अब नहीं मिले हैं, अतः वहॉं जीवन की संभावना नहीं है। सुभाषितकारों ने भी जल को पृथ्वी के त्रिरत्नों में से एक माना है-“पृथिव्याम्‌ त्रीनि रत्नानि जलमन्नम्‌ सुभाषितम्‌।’

मनुष्य को ज्ञात चराचर में जल की सर्वव्यापकता तो विज्ञान सिद्ध है। वह ऐसा पदार्थ है जो ठोस, तरल और वाष्प तीनों रूपों में है। वह जल, थल और नभ तीनों में है। वह ब्रह्मांड के तीनों घटकों का समन्वयक है। वह “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ‘का प्रमाणित संस्करण है। हिम से जल होना, जल से वायु होना और वायु का पुनः जल होकर हिम होना, प्रकृति के चक्र का सबसे सरल और खुली आँखों से दिखने वाला उदाहरण है। आत्मा की नश्वरता का आध्यात्मिक सिद्धांत हो या ऊर्जा के अक्षय रहने का वैज्ञानिक नियम, दोनों को अंगद के पांव -सा प्रतिपादित करता-बहता रहता है जल।

भारतीय लोक जीवन में तो जल की महत्ता और सत्ता अपरंपार है। वह प्राणदायी नहीं अपितु प्राण है। वह प्रकृति के कण-कण में है। वह पानी के अभाव से निर्मित मरुस्थल में पैदा होनेवाले तरबूज के भीतर है, वह खारे सागर के किनारे लगे नारियल में मिठास का सोता बना बैठा है। प्रकृति के समान मनुष्य की देह में भी दो-तिहाई जल है। जल जीवन रस है। अनेक स्थानों पर लोकजीवन में वीर्य को जल कहकर भी संबोधित किया गया है। जल निराकार है। निराकार जल, चेतन तत्व की ऊर्जा धारण करता है। जल प्रवाह है। प्रवाह चेतना को साकार करता है। जल परिस्थितियों से समरूप होने का अद्‌भुत उदाहरण है। पात्र मेंं ढलना उसका चरित्र और गुणधर्म है। वह ओस है, वह बूँद है, वह झरने में है, नदी, झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया, बावड़ी, कुएँ, कुईं में है और वह सागर में भी है। वह धरती के भीतर है और धरती के ऊपर भी है। वह लघु है, वही प्रभु है। कहा गया है-“आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरं।” बूँद वाष्पीकृत होकर समुद्र से बादल में जा छिपती है। सागर बूँद को तरसता है तो बादल बरसता है और लघुता से प्रभुता का चक्र अनवरत चलता है।

लोक का यह अनुशासन ही था जिसके चलते कम पानी वाले अनेक क्षेत्रों विशेषकर राजस्थान में घर की छत के नीचे पानी के हौद बनाए गए थे। छत के ढलुआ किनारों से वर्षा का पानी इस हौद में एकत्रित होता। जल के प्रति पवित्रता का भाव ऐसा कि जिस छत के नीचे जल संग्रहित होता, उस पर शिशु के साथ मॉं या युगल का सोना वर्जित था। प्रकृति के चक्र के प्रति श्रद्धा तथा “जीओ और जीने दो’ की सार्थकता ऐसी कि कुएँ के चारों ओर हौज बॉंधा जाता। पानी खींचते समय हरेक से अपेक्षित था कि थोड़ा पानी इसमें भी डाले। ये हौज पशु-पक्षियों के लिए मनुष्य निर्मित पानी के स्रोत थे। पशु-पक्षी इनसे अपनी प्यास बुझाते। पुरुषों का स्नान कुएँ के समीप ही होता। एकाध बाल्टी पानी से नहाना और कपड़े धोना दोनों काम होते। इस प्रक्रिया में प्रयुक्त पानी से आसपास घास उग आती। यह घास पानी पीने आनेवाले मवेशियों के लिए चारे का काम करती।

पनघट तत्कालीन दिनचर्या की धुरि था। नंदलाल और राधारानी के अमूर्त प्रेम का मूर्त प्रतीक पनघट, नायक-नायिका की आँखों मेंे होते मूक संवाद का रेकॉर्डकीपर पनघट, पुरुषों के राम-श्याम होने का साझा मंच पनघट और स्त्रियों के सुख-दुख के कैथारसिस के लिए मायका-सा पनघट ! पानी से भरा पनघट आदमी के भीतर के प्रवाह का विराट दर्शन था। कालांतर में सिकुड़ती सोच ने पनघट का दर्शन निरपनिया कर दिया। कुएँ का पानी पहले खींचने को लेकर सामन्यतः किसी तरह के वाद-विवाद का उल्लेख नहीं मिलता। अब सार्वजनिक नल से पानी भरने को लेकर उपजने वाले कलह की परिणति हत्या में होने की खबरें अखबारों में पढ़ी जा सकती हैं। स्वार्थ की विषबेल और मन के सूखेपन ने मिलकर ऐसी स्थितियॉं पैदा कर दीं कि गॉंव की प्यास बुझानेवाले स्रोत अब सूखे पड़े हैं। भॉंय-भॉंय करते कुएँ और बावड़ियॉं एक हरी-भरी सभ्यता के खंडहर होने के साक्षी हैं।

हमने केवल पनघट नहीं उजाड़े, कुओं को सींचनेवाले तालाबों और छोटे-मोटे प्राकृतिक स्रोतों को भी पाट दिया। तालाबों की कोख में रेत-सीमेंट उतारकर गगनचुम्बी इमारतें खड़ी कर दीं। बाल्टी से पानी खींचने की बजाय मोटर से पानी उलीचने की प्रक्रिया ने मनुष्य की मानसिकता में भयानक अंतर ला दिया है। बूँद-बूँद सहेजनेवाला समाज आज उछाल-उछाल कर पानी का नाश कर रहा है। दस लीटर में होनेवाला स्नान शावर के नीचे सैकड़ों लीटर पानी से खेलने लगा है। पैसे का पीछा करते आदमी की आँख में जाने कहॉं से दूर का न देख पाने की बीमारी-मायोपिआ उतर आई है। इस मायोपिआ ने शासन और अफसरशाही की आँख का पानी ऐसा मारा कि सूखे से जूझते क्षेत्र में नागरिक को अंजुरि भर पानी उपलब्ध कराने की बजाय क्रिकेट के मैदान को लाखों लीटर से भिगोना ज्यादा महत्वपूर्ण समझा गया।

पर्यावरणविद मानते हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा। प्राकृतिक संसाधन निर्माण नहीं किए जा सकते। प्रकृति ने उन्हें रिसाइकिल करने की प्रक्रिया बना रखी है। बहुत आवश्यक है कि हम प्रकृति से जो ले रहे हैं, वह उसे लौटाते भी रहें। पानी की मात्रा की दृष्टि से भारत का स्थान विश्व में तीसरा है। विडंबना है कि सबसे अधिक तीव्रता से भूगर्भ जल का क्षरण हमारे यहॉं ही हुआ है। नदी को मॉं कहनेवाली संस्कृति ने मैया की गत बुरी कर दी है। गंगा अभियान के नाम पर व्यवस्था द्वारा चालीस हजार करोड़ डकार जाने के बाद भी गंगा सहित अधिकांश नदियॉं अनेक स्थानों पर नाले का रूप ले चुकी हैं। दुनिया भर में ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं। आनेवाले दो दशकों में पानी की मांग में लगभग 43 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की आशंका है और हम गंभीर जल संकट के मुहाने पर खड़े हैं।

आसन्न खतरे से बचने की दिशा में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कुछ स्थानों पर अच्छा काम हुआ है। कुछ वर्ष पहले चेन्नई में रहनेवाले हर नागरिक के लिए वर्षा जल संरक्षण को अनिवार्य कर तत्कालीन कलेक्टर ने नया आदर्श सामने रखा। देश भर के अनेक गॉंवों में स्थानीय स्तर पर कार्यरत समाजसेवियों और संस्थाओं ने लोकसहभाग से तालाब खोदे हैं और वर्षा जल संरक्षण से सूखे ग्राम को बारह मास पानी उपलब्ध रहनेवाले ग्राम में बदल दियाहै।ऐसेे प्रयासोंें को राष्ट्रीय स्तर पर गति से और जनता को साथ लेकर चलाने की आवश्यकता है।

रहीम ने लिखा है-” रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।’ विभिन्न संदर्भों में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न हो सकती है किंतु पानी का यह प्रतीक जगत्‌ में जल की अनिवार्यता को प्रभावी रूप से रेखांकित करता है। पानी के बिना जीवन की कल्पना करते ही मुँह सूखने लगता है। जिसके अभाव की कल्पना इतनी भयावह है, उसका यथार्थ कैसा होगा! महादेवीजी के शब्दों में कभी-कभी यथार्थ कल्पना की सीमा को माप लेता है। वस्तुतः पानी में अपनी ओर खींचने का एक तरह का अबूझ आकर्षण है। समुद्र की लहर जब अपनी ओर खींचती है तो पैरों के नीचे की ज़मीन ( बालू) खिसक जाती है। मनुष्य की उच्छृंखलता यों ही चलती रही तो ज़मीन खिसकने में देर नहीं लगेगी। बेहतर होगा कि हम समय रहते चेत जाएँ।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 90 ☆ अवस्था का मौन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 90 ☆ अवस्था का मौन ☆ 

एक परिचित के घर बैठा हूँ। उनकी नन्हीं पोती रो रही है। उसे भूख लगी है, पेटदर्द है, घर से बाहर जाना चाहती है या कुछ और कहना चाह रही है, इसे समझने के प्रयास चल रहे हैं।

अद्भुत है मनुष्य का जीवन। गर्भ से निकलते ही रोना सीख जाता है। बोलना, डेढ़ से दो वर्ष में आरंभ होता है। शब्द से परिचित होने और तुतलाने से आरंभ कर सही उच्चारण तक पहुँचने में कई बार जीवन ही कम पड़ जाता है।

महत्वपूर्ण है अवस्था का चक्र, महत्वपूर्ण है अवस्था का मौन। मौन से संकेत, संकेतों से कुछ शब्द, भाषा से परिचित होते जाना और आगे की यात्रा।

मौन से आरंभ जीवन, मौन की पूर्णाहुति तक पहुँचता है। नवजात की भाँति बुजुर्ग भी मौन रहना अधिक पसंद करता है। दिखने में दोनों समान पर दर्शन में ज़मीन-आसमान।

शिशु अवस्था के मौन को समझने के लिए माता-पिता, दादी-दादा, नानी-नाना, चाचा-चाची, मौसी, बुआ, मामा-मामी, तमाम रिश्तेदार, परिचित और अपरिचित भी प्रयास करते हैं। वृद्धावस्था के मौन को कोई समझना नहीं चाहता। कुछ थोड़ा-बहुत समझते भी हैं तो सुनी-अनसुनी कर देते हैं।

एक तार्किक पक्ष यह भी है कि जो मौन, एक निश्चित पड़ाव के बाद जीवन के अनुभव से उपजा है, उसे सुनने के लिए लगभग उतने ही पड़ाव तय करने पड़ते हैं।

इस मौन में अनुभव और भोगे हुए यथार्थ की एक यूनिवर्सिटी समाहित है। उनके पास बैठना, उनके मौन को सुनना ही उनकी सबसे बड़ी सेवा  है।

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।

जो व्यक्ति अभिवादनशील है अर्थात दूसरों का मान करना जानता है, दैनिक रूप से वृद्धों की सेवा करता है/ उनके मौन को सुनता-समझता है,  आशीर्वादस्वरूप उसके आयु, विद्या, यश और बल में वृद्धि होती है।

क्या अच्छा हो कि अपने-अपने सामर्थ्य में उस मौन को सुनने का प्रयास समाज का हर घटक करने लगे। यदि ऐसा हो सका तो ख़ासतौर पर बुजुर्गों के जीवन में आनंद का उजियारा फैल सकेगा।

इस संभावित उजियारे की एक किरण आपके हाथ में है। इस रश्मि के प्रकाश में क्या आप सुनेंगे और पढ़ेंगे बुजुर्गों का मौन?

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 87 ☆ रिश्तों की तपिश ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख रिश्तों की तपिश।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 87 ☆

☆ रिश्तों की तपिश ☆

‘सर्द हवा चलती रही/ रात भर बुझते हुए रिश्तों को तापा किया हमने’– गुलज़ार की यह पंक्तियां समसामयिक हैं; आज भी शाश्वत हैं। रिश्ते कांच की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं, जिसका कारण है संबंधों में बढ़ता अजनबीपन का एहसास, जो मानसिक संत्रास व एकाकीपन के कारण पनपता है और उसका मूल कारण है…मानव का अहं, जो रिश्तों को दीमक की भांति चाट रहा है। संवादहीनता के कारण पनप रही आत्मकेंद्रितता और संवेदनहीनता मधुर संबंधों में सेंध लगाकर अपने भाग्य पर इतरा रही है। सो! आजकल रिश्तों में गर्माहट कहां रही है?

विश्व में बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता के कारण मानव हर कीमत पर एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है। उसकी प्राप्ति के लिए उसे चाहे किसी भी सीमा तक क्यों न जाना पड़े? रिश्ते आजकल बेमानी हैं उनकी अहमियत रही नहीं। अहंनिष्ठ प्राणी अपने स्वार्थ-हित उनका उपयोग करता है। यह कहावत तो आपने सुनी होगी कि ‘मुसीबत में गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।’ आजकल रिश्ते स्वार्थ साधने का मात्र सोपान हैं और अपने ही, अपने बनकर अपनों को छल रहे  हैं अर्थात् अपनों की पीठ में छुरा घोंपना सामान्य-सी बात हो गयी है।

प्राचीन काल में संबंधों का निर्वहन अपने प्राणों की आहुति देकर किया जाता था… कृष्ण व सुदामा की दोस्ती का उदाहरण सबके समक्ष है; अविस्मरणीय है…कौन भुला सकता है उन्हें?  सावित्री का अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा के लिए यमराज से उलझ जाना; गंधारी का पति की खुशी के लिए अंधत्व को स्वीकार करना; सीता का राम के साथ वन-गमन; उर्मिला का लक्ष्मण के लिए राज महल की सुख- सुविधाओं का त्याग करना आदि तथ्यों से सब अवगत हैं। परंतु लक्ष्मण व भरत जैसे भाई आजकल कहां मिलते हैं? आधुनिक युग में तो ‘यूज़ एण्ड थ्रो’ का प्रचलन है। सो! पति-पत्नी का संबंध भी वस्त्र-परिवर्तन की भांति है। जब तक अच्छा लगे– साथ रहो, वरना अलग हो जाओ। संबंधों को ढोने का औचित्य क्या है? आजकल  तो चंद घंटों पश्चात् भी पति-पत्नी में अलगाव हो जाता है। परिवार खंडित हो रहे हैं। सिंगल पेरेंट का प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा है। बच्चे इसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा भुगतने को विवश हैं। एकल परिवार व्यवस्था के कारण बुज़ुर्ग भी वृद्धाश्रमों में आश्रय पा रहे हैं। कोई भी संबंध पावन नहीं रहा, यहां तक कि खून के संबंध, जो परमात्मा द्वारा बनाए जाते हैं, उनमें इंसान का तनिक भी योगदान नहीं होता…वे भी बेतहाशा टूट रहे हैं।

परिणामत: स्नेह, सौहार्द, प्रेम व त्याग का अभाव चहुंओर परिलक्षित है। हर इंसान निपट स्वार्थी हो गया है। विवाह-व्यवस्था अस्तित्वहीन हो गई है। पति-पत्नी भले ही एक छत के नीचे रहते हैं, परंतु कहां है उनमें समर्पण व स्वीकार्यता का भाव? वे हर पल एक-दूसरे को नीचा दिखा कर सुक़ून पाते हैं। सहनशीलता जीवन से नदारद होती जा रही है। पति-पत्नी दोनों दोधारी तलवार थामे, एक-दूसरे का डट कर सामना करते हैं। आरोप-प्रत्यारोप करना तो सामान्य प्रचलन हो गया है। बीस वर्ष तक साथ रहने पर भी वे पलक झपकते अलग होने में जीवन की सार्थकता स्वीकारते हैं, जिसका मुख्य कारण है…लिव-इन व विवाहेतर संबंधों को कानूनी मान्यता प्राप्त होना। जी हां! आप स्वतंत्र हैं। आप निरंकुश होकर अपनी पत्नी की भावनाओं पर कुठाराघात कर पर-स्त्री गमन कर सकते हैं। ‘लिव-इन’ ने भी हिन्दू विवाह पद्धति की सार्थकता व अनिवार्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। कैसा होगा आगामी पीढ़ी का चलन? क्या परिवार- व्यवस्था सुरक्षित रह पायेगी?

मैं यहां ‘मी टू’ पर भी प्रकाश डालना चाहूंगी, जिसे कानून ने मान्यता प्रदान कर दी है। आप पच्चीस वर्ष पश्चात् भी किसी पर दोषारोपण कर, अपने हृदय की भड़ास निकालने को स्वतंत्र हैं।  हंसते-खेलते परिवारों की खुशियों को होम करने को स्वतंत्र हैं। सो! इस तथ्य से तो आप सब परिचित हैं कि अपवाद हर जगह मिलते हैं।  कितनी महिलाएं कहीं दहेज का इल्ज़ाम लगा व ‘मी टू’ के अंतर्गत किसी की पगड़ी उछाल कर, उनकी खुशियों को मगर की भांति लील रही हैं।

इन विषम परिस्थितियों में आवश्यक है–  सामाजिक विसंगतियों पर चर्चा करना। बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण जीवन- मूल्य खण्डित हो रहे हैं और उनका पतन हो रहा है। सम्मान-सत्कार की भावना विलुप्त हो रही है और मासूमों के प्रति दुष्कर्म के हादसों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा। नब्बे प्रतिशत बालिकाओं का बचपन में अपनों द्वारा शीलहरण हो चुका होता है और उन्हें मौन रहने को विवश किया जाता है, ताकि परिवार विखण्डन से बच सके। वैसे भी दो वर्ष की बच्ची व नब्बे वर्ष की वृद्धा को मात्र उपभोग की वस्तु व वासना-पूर्ति का साधन स्वीकारा जाता है। हर चौराहे पर दुर्योधन व दु:शासनों की भीड़ लगी रहती है, जो उनका अपहरण करने के पश्चात् दुष्कर्म कर अपनी पीठ ठोकते हैं। इतना ही नहीं, वे उसकी हत्या कर सुक़ून पाते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि वे सबूत के अभाव में छूट जायेंगे। सो! वे निकल पड़ते हैं–नये शिकार की तलाश में। हर दिन इन घटित हादसों को देख कर हृदय चीत्कार कर उठता है और देश के कर्णाधारों से ग़ुहार लगाता है कि हमारे देश में सऊदी अरब जैसे कठोर कानून क्यों नहीं बनाए जाते, जहां पंद्रह मिनट में आरोपी को खोज कर सरेआम गोली से उड़ा दिया जाता है; जहां राजा स्वयं पीड़िता से मिल तीस मिनट में अपराधी को उल्टा लटका कर भीड़ को सौंप देते हैं ताकि लोगों को सीख मिल सके और उनमें भय उत्पन्न हो सके। इससे दुष्कर्म के हादसों पर अंकुश लगना स्वाभाविक है।

इस भयावह वातावरण में हर इंसान मुखौटे लगा कर जी रहा है; एक-दूसरे की आंखों में धूल झोंक रहा है। आजकल महिलाएं भी सुरक्षा हित निर्मित कानूनों का खूब फायदा उठा रही हैं। वे बच्चों के लिए पति के साथ एक छत के नीचे रहती हैं, पूरी सुख-सुविधाएं भोगती हैं और हर पल पति पर निशाना साधे रहती हैं। वे दोनों दुनियादारी के निर्वहन हेतू पति-पत्नी का क़िरदार बखूबी निभाते हैं, जबकि वे दोनों इस तथ्य से अवगत होते हैं कि यह संबंध बच्चों के बड़े होने तक ही कायम रहेगा। जी हां, यही सत्य है जीवन का…समझ नहीं आता कि पुरुष इन पक्षों को अनदेखा कर, कैसे अपनी ज़िंदगी गज़ारता है और वृद्धावस्था की आगामी आपदाओं का स्मरण कर चिंतित नहीं होता। वह बच्चों की उपेक्षा व अवमानना का दंश झेलता अपने अहं में जीता रहता है। पत्नी सदैव उस पर हावी रहती है, क्योंकि वह जानती है कि उसे  उसके अधिकार से कोई भी बेदखल नहीं कर सकता। हां! अलग होने पर मुआवज़ा, बच्चों की परवरिश का खर्च आदि मिलना उसका संवैधानिक अधिकार है। इसलिए महिलाएं अपने ढंग से जीवन-यापन करती हैं।

यह तो सर्द रातों में बुझते हुए दीयों की बात हुई।

जैसे सर्द हवा के चलने पर जलती आग के आसपास बैठ कर तापना बहुत सुक़ून देता है और इंसान उस तपिश को अंत तक महसूसना चाहता है, जबकि वह जानता है कि वे संबंध स्थायी नहीं हैं, पल भर में ओझल हो जाने वाले हैं। इंसान सदैव सुक़ून की तलाश में रहता है, परंंतु वह नहीं जानता कि आखिर सुक़ून उसे कहाँ और कैसे प्राप्त होगा? इसे आप रिश्तों को बचाने की मुहिम के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि मानव खाओ,पीओ और मौज उड़ाओ में विश्वास रखता है। वह आज को जी लेना चाहता है; कल के बारे में चिन्ता नहीं करता।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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