हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #83 – संरक्षकता ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है।आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी  आलेख  “संरक्षकता”)

☆ आलेख #83 – संरक्षकता”☆ 

आज 29 सितंबर है और आज से ठीक तीन दिन बाद सारा विश्व महात्मा गांधी की जन्म जयंती ‘अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाएगा।  मैं विगत अनेक वर्षों से, इन सात दिनों तक गांधी चर्चा करने और इस विश्व-मानव के सदविचारों, जो पीड़ित मानवता को राहत पहुंचाने के लिए किसी मलहम से कम नहीं है, पर लिखता रहा हूँ। इस बार मैंने सोचा कि  महात्माजी के संरक्षकता या trusteeship के सिद्धांत पर आपसे चर्चा करूँ।  मेरी यह कोशिश होगी कि  पहले छह-सात दिन तक गांधीजी के विचार, इस सिद्धांत को लेकर, पढ़ें और फिर उसका विश्लेषण आधुनिक समय के अनुसार करते हुए, उसकी वर्तमान में उपादेयता का आंकलन करें।  

– अरुण कुमार डनायक

संरक्षकता (Trustee-ship) का सिद्धांत (2)

आप कह सकते हैं की ट्रस्टीशिप तो कानून शास्त्र  की एक कल्पना मात्र है; व्यवहार में उसका कहीं कोई अस्तित्व दिखाई नहीं पड़ता।  लेकिन यदि लोग उस पर सतत विचार करें और उसे आचरण में उतारने की कोशिश भी करते रहें, तो मनुष्य-जाति के जीवन की नियामक शक्ति के रूप प्रेम आज जितना प्रभावशाली दिखाई देता है, उससे कहीं अधिक दिखाई पड़ेगा। बेशक, पूर्ण ट्रस्टीशिप तो यूक्लिड की बिन्दु की व्याख्या की तरह कल्पना ही है और उतनी ही अप्राप्य भी है। लेकिन यदि उसके लिए कोशिश की जाए, तो दुनिया में समानता की स्थापना की दिशा में हम किसी दूसरे उपाय से जितनी दूर तक जा सकते हैं, उसके बजाय इस उपाय से ज्यादा दूर तक जा सकेंगे। ….. मेरा दृढ़ निश्चय है कि यदि राज्य ने पूंजीवाद को हिंसा के द्वारा दबाने की, तो वह खुद ही हिंसा के जाल में फंस जाएगा और फिर कभी भी अहिंसा का विकास नहीं कर सकेगा। राज्य हिंसा का एक केंद्रित और संघटित रूप ही है। व्यक्ति में आत्मा होती है, परंतु चूंकि राज्य एक जड़ यंत्रमात्र है इसलिए उसे हिंसा से कभी नहीं छुड़ाया जा सकता। क्योंकि हिंसा से ही तो उसका जन्म होता है। इसीलिए मैं ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को तरजीह देता हूं।  यह डर हमेशा बना रहता है कि कहीं राज्य उन लोगों के खिलाफ, जो उससे मतभेद रखते हैं, बहुत ज्यादा हिंसा का उपयोग न करे।  लोग यदि स्वेच्छा से ट्रस्टियों की तरह व्यवहार करने लगें, तो मुझे  सचमुच बड़ी खुशी होगी। लेकिन यदि वे ऐसा न करें तो मेरा ख्याल है कि  हमें राज्य के द्वारा भरसक कम हिंसा का आश्रय  लेकर उनसे उनकी संपत्ति ले लेनी पड़ेगी। …. (यही कारण है की मैंने गोलमेज परिषद में यह कहा था की सभी निहित हित वालों की संपत्ति की जांच होनी चाहिए और जहां आवश्यक हो वहां उनकी संपत्ति राज्य को मुआवजा देकर या मुआवजा दिए बिना ही, जहां जैसा उचित हो, अपने हाथ में कर लेनी चाहिए।  ) व्यक्तिगत तौर पर तो मैं यह चाहूंगा  कि राज्य के हाथों में शक्ति का ज्यादा केन्द्रीकरण न हो, उसके बजाय ट्रस्टीशिप की भावना का विस्तार हो। क्योंकि मेरी राय में राज्य की हिंसा की तुलना में वैयक्तिक मालिकी की हिंसा कम खतरनाक है। लेकिन यदि राज्य की मालिकी अनिवार्य ही हो,  तो मैं भरसक कम से कम राज्य की मालिकी की सिफारिश करूंगा।  

 दी  माडर्न रिव्यू 1935

( यह लेख मैंने गांधीजी के विचारों के संग्रह पुस्तक ‘मेरे सपनों का भारत’ से लिया है और कतिपय जगह ऐसा लगा कि उनके विचारों में काट छांट की गई है।  गांधीजी का इस संबंध में लिखा मूल आलेख खोजने का प्रयास कर रहा हूं )

संरक्षकता (Trustee-ship) का सिद्धांत (3)

आजकल यह कहना एक फैशन हो गया है कि  समाज को अहिंसा के आधार पर न तो संघटित किया जा सकता है और न चलाया जा सकता है। मैं इस कथन का विरोध करता हूं। परिवार  में जब पिता अपने पुत्र को अपराध करने पर थप्पड़ मार देता है, तो पुत्र उसका बदला लेने की बात नहीं सोचता।  वह अपने पिता की आज्ञा इसलिए स्वीकार कर लेता है कि इस थप्पड़ के पीछे वह अपने पिता के प्यार को आहत हुआ देखता है, इसलिए नहीं कि थप्पड़ उसे वैसा अपराध दुबारा करने से रोकता है।  मेरी  राय में समाज की व्यवस्था इस तरह होनी चाहिए; यह उसका छोटा रूप है।  जो बात परिवार के लिए सही है, वही समाज के लिए सही है, क्योंकि समाज एक बड़ा परिवार ही है।   

हरिजन, 01.12.1938 

मेरी धारणा है कि अहिंसा केवल वैयक्तिक गुण नहीं है।  वह एक सामाजिक गुण भी है और अन्य गुणों की तरह उसका भी विकास किया जाना चाहिए।  यह तो मानना ही होगा कि समाज के पारस्परिक व्यवहारों का नियमन बहुत हद तक अहिंसा के द्वारा होता है।  मैं इतना ही चाहता हूं कि इस सिद्धांत का बड़े पैमाने पर, राष्ट्रीय और आंतरराष्ट्रीय पैमाने पर विस्तार किया जाए। 

हरिजन, 07.01.1939

(गांधीजी के अहिंसा संबंधी विचारों को ‘मेरे सपनों का भारत’ के एक अध्याय ‘संरक्षकता का सिद्धांत’ में स्थान दिया गया है। आगे जब हम संरक्षकता पर उनके विचार पढ़ेंगे तो यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि अहिंसा केवल सत्याग्रह और दमन का प्रतिकार करने का साधन मात्र नहीं है।  यह एक व्यापक दृष्टिकोण है जिसे महात्मा गांधी ने धन कमाने की असीमित लिप्सा को शांत करने का उपाय बताया था)

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ महालक्ष्मी पूजा विशेष –  महालक्ष्मी व्रत ☆ श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

☆ महालक्ष्मी पूजा विशेष –  महालक्ष्मी व्रत – श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव ☆

(आज महालक्ष्मी पूजा पर विशेष आलेख)

महर्षि  वेदव्यास जी  ने हस्तिनापुर में माता कुंती तथा गांधारी को महालक्ष्मी व्रत कथा बताई थी  जिससे  सुख-संपत्ति, पुत्र-पोत्रादि व परिवार सुखी रहें । इसे गजलक्ष्मी व्रत भी कहा जाता है। प्रतिवर्ष आश्विन कृष्ण अष्टमी को विधिवत यह पूजन किया जाता है।

इस दिन स्नान करके 16 सूत के धागों का डोरा बनाएं, उसमें 16 गांठ लगाएं, हल्दी से पीला करें। प्रतिदिन 16 दूब व 16 गेहूं डोरे को चढ़ाएं। 16 दिनों से महालक्ष्मी पूजन चलता रहता है अतः 16 का महत्व है । आश्विन (क्वांर) कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर मिट्टी के हाथी पर श्री महालक्ष्मीजी की प्रतिमा स्थापित कर विधिपूर्वक पूजन करें। यह व्रत पितृ दिवसों के बीच पड़ता है , शायद पितरों के खोने के अवसाद को किंचित भुला कर लक्ष्मी जी का स्मरण करना इसका उद्देश्य हो । 

महर्षि ने कुंती व गांधारी से वास्तविक ऐरावत हाथी का पूजन  करवाया  था , इसलिए प्रतीक रूप में मिट्टी के हाथी पर महा लक्ष्मी स्थापित कर पूजन की परम्परा है । कुछ लोग पीतल के हाथी का भी पूजन करते हैं ।

चूंकि कुंती व गांधारी ने स्वर्ण आभूषणों से ऐरावत को सजाया था अतः बेसन के बने पीले आभूषण पकवानों से हाथी को सजाने की परम्परा बन गई है । बच्चों को यह गहने पकवान जो विशिष्ट आकार के पपड़ी नुमा कुरकुरे तले हुए होते हैं , बहुत आकर्षित करते हैं ।

 

©  श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 105 ☆ समुद्र मंथन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 105 ☆ समुद्र मंथन ☆

स्वर्ग की स्थिति ऐसी हो चुकी थी जैसे पतझड़ में वन की। सारा ऐश्वर्य जाता रहा। महर्षि दुर्वासा के श्राप से अकल्पित घट चुका था। निराश देवता भगवान विष्णु के पास पहुँचे।  भगवान ने समुद्र की थाह लेने का सुझाव दिया। समुद्र में छिपे रत्नों की ओर संकेत किया। तय हुआ कि सुर-असुर मिलकर समुद्र मथेंगे।

मदरांचल पर्वत की मथानी बनी और नागराज वासुकि बने रस्सी या नेती। मंथन आरम्भ हुआ। ज्यों-ज्यों गति बढ़ी, घर्षण बढ़ा, कल्पनातीत घटने की संभावना और आशंका भी बढ़ी।

मंथन के चरम पर अंधेरा छाने लगा और जो पहला पदार्थ बाहर निकला, वह था, कालकूट विष। ऐसा घोर हलाहल जिसके दर्शन भर से मृत्यु का आभास हो। जिसका वास नासिका तक पहुँच जाए तो श्वास बंद पड़ने में समय न लगे। हलाहल से उपजे हाहाकार का समाधान किया महादेव ने और कालकूट को अपने कंठ में वरण कर लिया। जगत की देह नीली पड़ने से बचाने  के लिए शिव, नीलकंठ हो गए।

समुद्र मंथन में कुल चौदह रत्न प्राप्त हुए। संहारक कालकूट के बाद पयस्विनी कामधेनु, मन की गति से दौड़ सकनेवाला उच्चैश्रवा अश्व, विवेक का स्वामी ऐरावत हाथी, विकारहर्ता कौस्तुभ मणि, सर्व फलदायी कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी, मदिरा की जननी वारुणी, शीतल प्रभा का स्वामी चंद्रमा, श्रांत को विश्रांति देनेवाला पारिजात, अनहद नाद का पांचजन्य शंख, आधि-व्याधि के चिकित्सक भगवान धन्वंतरि और उनके हाथों में अमृत कलश।

अमृत पाने के लिए दोनों पक्षों में तलवारें खिंच गईं। अंतत: नारायण को मोहिनी का रूप धारण कर दैत्यों को भरमाना पड़ा और अराजकता शाश्वत नहीं हो पाई।

समुद्र मंथन की फलश्रुति के क्रम पर विचार करें। हलाहल से आरंभ हुई यात्रा अमृत कलश पर जाकर समाप्त हुई। यह नश्वर से ईश्वर की यात्रा है। इसीलिए कहा गया है, ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय।’

अमृत प्रश्न है कि क्या समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था?  फिर ये नित, निरंतर, अखण्डित रूप से मन में जो मथा जा रहा है, वह क्या है? विष भी अपना, अमृत भी अपना! राक्षस भी भीतर, देवता भी भीतर!… और मोहिनी बनकर जग को भरमाये रखने की चाह भी भीतर !

अपनी कविता की पंक्तियाँ स्मरण आती हैं-

इस ओर असुर/ उस ओर भी असुर ही / न मंदराचल / न वासुकि / तब भी-/ रोज़ मथता हूँ / मन का सागर…/ जाने कितने/ हलाहल निकले/ एक बूँद/ अमृत की चाह में..!

इस एक बूँद की चाह ही मनुष्यता का प्राण है।   यह चाह अमरत्व प्राप्त करे।…तथास्तु!

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…2 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…2”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…2 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

दरअसल “मैं” की यात्रा दुरूह होती है। माँ के गर्भ में आते ही “मैं” को कई सिखावन से लपेटना शुरू होता है वह यात्रा के हर पड़ाव पर कई परतों से ढँक चुका होता है। घर, घर के सदस्य, मोहल्ला, मोहल्ला के साथी, पाठशाला, पाठशाला के साथी, शिक्षक, संस्कारों की बंदिशें, मूल्यों की कथडियों, संस्था और संस्थाओं के रूढ़-रुग्ण नियमों से “मैं” घबरा कर समर्पण कर देता है। यह समर्पण स्थापित व्यवस्था के समक्ष होता है, देव या सर्वोच्च दैविक सत्ता के समक्ष नहीं। “मैं” का   दैविक सत्ता के समक्ष समर्पण अंतिम परिणति है। वह समर्पण मृत्यु के पूर्व चिंतन विधि से नियति के समक्ष जागृत अवस्था में होता है या मृत्यु देव के शिकंजे में लाचार स्थिति में होता है। यही मुख्य भेद है।

“मैं” मौलिकता खो देता है। उसकी जगह नया सृजित “मैं” सिंहासन पर क़ाबिज़ हो चुकता है। जिसे धन, यौवन, यश, मोह की रस्सियों से कस दिया जाता है। “मैं” जब कभी मौलिकता की ओर लौटना चाहता है तो उसे संस्कारों की दुहाई से बरबस खींच कर सृजित “मैं” की खोल में पुनः लाकर लपेट दिया जाता है।

आध्यात्मिक इतिहास को देखें तो पाते हैं कि “मैं” को छापों से मुक्त करके ही प्रज्ञा जन्मी है। कृष्ण गीता में अर्जुन के मस्तिष्क पर से उसके “मैं” की छापों से मुक्त करके एक स्वतंत्र अस्तित्व से परिचय करवाते हैं। जहाँ मोहग्रस्तता से मुक्त आत्मा निष्काम कर्म को प्रेरित होती है।

भगवत गीता में, “मैं” याने आत्मा की खोज याने आत्मचिंतन द्वारा आत्मबोध की पहली सीढ़ी पर चढ़ने का हवाला मिलता है। गीता कहती है “मैं” याने आत्मा देह से विलग एक स्वतंत्र अस्तित्व है। देह प्रकृति से उत्पन्न है उसमें परमात्मा का तत्व आत्मा रूप में स्थित है, जब तक आत्मा देह में है, देह सत्य है, शिव है, सुंदर है परंतु आत्मा के निकलते ही देह शव हो जाती है। जिसे अविलम्ब पंचतत्वों में विलीन करके प्रकृति को वापस करना होता है।

गीता बताती है कि आत्म तत्व को देह से अलग करने की अनुभूति ध्यनापूर्वक चिंतन से प्राप्त की जा सकती है। ग्रंथ कहता है कि “मैं” और देह के बीच इंद्रियों की सत्ता है। जब मैं भोग करूँ तब यह भाव मन में रहे कि “मैं कुछ नहीं कर रहा, इंद्रियाँ इंद्रियों में बरत रहीं हैं।” यदि जलेबी खा रहा हूँ तो यह कहना होगा कि रसना रस ले रही है, आत्मा को रस से कोई मतलब नहीं है। इस सोच से इंद्रियों से मोह छूटना आरम्भ होता है। यहीं से आत्मतत्व को देह तत्व से विलग करने की यात्रा आरम्भ की जा सकती है। इस यात्रा को ध्यान पद्धति से निरंतर करके आत्मबोध की तरफ़ बढ़ा जा सकता है। जैसे-जैसे आत्मबोध अनुभूति पक्की होने लगती है वैसे-वैसे जन्म-मृत्यु का बोध लुप्त होने लगता है।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 100 ☆ ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 100 ☆

☆ ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ ☆

ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ इंसान को हर रिश्ते से  गुमराह कर देता है। इसलिए सबको साथ रखो; स्वार्थ को नहीं, क्योंकि आपके विचारों से अधिक कोई भी आपको कष्ट नहीं पहुंचा सकता– यह कथन कोटिशः सत्य है। मानव की सोच ही शत्रुता व मित्रता का मापदंड है। ग़लत सोच के कारण आप पूरे जहान को स्वयं से दूर कर सकते हैं; जिसके परिणाम-स्वरूप आपके अपने भी आपसे आंखें चुराने लग जाते हैं और आपको अपनी ज़िंदगी से बेदखल कर देते हैं। यदि आपकी सोच सकारात्मक है, तो आप सबकी आंखों के तारे हो जाते हैं। सब आपसे स्नेह रखते हैं।

ग़लत सोच के साथ-साथ ग़लत अंदाज़ भी बहुत खतरनाक होता है। इसीलिए गुलज़ार ने कहा है कि लफ़्ज़ों के भी ज़ायके होते हैं और इंसान को लफ़्ज़ों को परोसने से पहले अवश्य चख लेना चाहिए। महात्मा बुद्ध की सोच भी यही दर्शाती है कि जिस व्यवहार की अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं, वैसा व्यवहार आपको उनके साथ भी करना चाहिए, क्योंकि जो भी आप करते हैं; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म कीजिए ताकि आपको उसका अच्छा फल प्राप्त हो।

मानव स्वयं ही अपना सबसे बड़ा शत्रु है, क्योंकि जैसी उसकी सोच व विचारधारा होती है, वैसी ही उसे संपूर्ण सृष्टि भासती है। इसलिए कहा जाता है कि मानव अपनी संगति से पहचाना  जाता है। उसे संसार के लोग इतना कष्ट नहीं पहुंचा सकते; जितनी वह स्वयं की हानि कर सकते हैं। सो! मानव को स्वार्थ का त्याग करना कारग़र है। इसके लिए उसे अपनी मैं अथवा अहं का त्याग करना होगा। अहं मानव को आत्मकेंद्रिता के व्यूह में जकड़ लेता है और वह अपने घर-परिवार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सोच पाता। सो! मानव को सदैव ‘सर्वे भवंतु सुखीन:’ की कामना करनी चाहिए, क्योंकि हम भारतीय ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की संस्कृति में विश्वास रखते हैं, जो सकारात्मक सोच का प्रतिफलन है।

सुख व्यक्ति के साहस की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की और सुख और दु:ख दोनों की परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाला व्यक्ति ही सफल होता है। मानव को सुख दु:ख में सदैव सम रहना चाहिए, क्योंकि सुख में व्यक्ति अहंनिष्ठ हो जाता है और अपने समान किसी को नहीं समझता। दु:ख में व्यक्ति के धैर्य की परीक्षा होती है। परंतु  दु:ख में वह टूट जाता है; पथ-विचलित हो जाता है। उस स्थिति में चिंता व तनाव उसे घेर लेते हैं और वह अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है। सुख दु:ख का चोली दामन का साथ है; दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक की उपस्थिति होने पर दूसरा दस्तक नहीं देता और उसके जाने के पश्चात् ही वह आता है। सृष्टि का क्रम आना और जाना है। मानव संसार में जन्म लेता है और कुछ समय पश्चात् उसे अलविदा कह चला जाता है और यह क्रम निरंतर चलता रहता है।

परमात्मा हमारा भाग्य नहीं लिखता। हर कदम पर हमारी सोच, विचार व कर्म ही हमारा भाग्य निश्चित करते हैं। जैसी हमारी सोच होगी, वैसे हमारे विचार होंगे और कर्म भी यथानुकूल होंगे। हमें किसी के प्रति ग़लत विचारधारा नहीं बनानी चाहिए, क्योंकि वह हमारे अंतर्मन में शत्रुता का भाव जाग्रत करती है और दूसरे लोग भी हमारे निकट आना तक पसंद नहीं करते। इस स्थिति में सब स्वप्न व संबंध मर जाते हैं। इसलिए मानव को ग़लत सोच कभी नहीं रखनी चाहिए और बोलने से पहले सदैव सोचना चाहिए, क्योंकि हमारे बोलने के अंदाज से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। इसलिए रहीम जी का यह दोहा मानव को मधुर वाणी में बोलने की सीख देता है– ‘रहिमन वाणी ऐसी बोलिए, मनवा शीतल होय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल होय।’ इसी संदर्भ में मैं इस तथ्य का उल्लेख करना चाहूंगी कि मानव को तभी बोलना चाहिए जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों अर्थात् यथासमय, अवसरानुकूल सार्थक शब्दों का ही प्रयोग करना सबसे कारग़र है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 52 ☆ पर्व एवं आस्था ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “पर्व एवं आस्था”.)

☆ किसलय की कलम से # 52 ☆

☆ पर्व एवं आस्था ☆

हिन्दु धर्मावलंबी धार्मिक कृत्य करने के समय या दिन को पर्व कहते हैं। लोग बड़ी आस्था, श्रद्धा व पवित्रता से धर्म के निर्देशानुसार अलग-अलग पर्वों पर उपवास, पूजन-हवन, प्रार्थनाएँ, आरती करते हैं, जिससे आनन्दमयी वातावरण निर्मित हो जाता है। शायद ही विश्व में कोई ऐसा धर्म होगा जिसमें इतने बहुसंख्य पर्व मनाए जाते होंगे। आप हिन्दी पञ्चाङ्ग खोल कर देखेंगे तो हर तिथि पर कोई न कोई पर्व दिखाई पड़ ही जाएगा। आप भी पढ़ लीजिए-  प्रथम तिथि पर बैठकी, धुरेड़ी, अन्नकूट पर्व आते हैं। भाईदूज, अक्षय तृतीया, हरतालिका, गणेश चतुर्थी, ऋषि पंचमी, बसंत पंचमी, रंग पंचमी, नाग पंचमी, हलषष्ठी, छठ पूजा, संतान सप्तमी, दुर्गाष्टमी, कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, दशहरा, प्रत्येक माह की एकादशी व द्वादशी (प्रदोष व्रत), धनतेरस, अनंत चतुर्दशी, नरक चौदस, प्रत्येक माह की अमावस्या एवं पूर्णिमा। इस तरह मास में दोनों पक्षों के पन्द्रह-पन्द्रह दिनों में प्रत्येक दिन कोई न कोई पर्व रहता ही है। आशय यह है कि हिन्दुधर्म में प्रत्येक दिन धर्मप्रधान होता है। सभी हिन्दुओं का कर्तव्य है कि वे आस्था और पवित्र मन से दिन की शुरुआत करें और रात्रि में शयन पूर्व प्रभु का नाम लेते हुए उनके प्रति आभार प्रकट करें।

ये तो धर्मोक्त की बातें हुईं। आज इक्कीसवीं सदी में ऐसे कितने प्रतिशत लोग बचे होंगे जो नियमित रूप से धर्मानुसार दिनचर्या अपना रहे होंगे। आज जब अर्थ और स्वार्थ का वर्चस्व स्थापित हो चुका है। निंदा, झूठ, छल, द्वेष आदि को स्वहित में जायज माना जाता है, तब सत्य, आदर्श, प्रेम, परोपकार, सद्भाव, रिश्ते जैसे शब्दों के अर्थ भी बदले-बदले लगने लगे हैं।

हमारे पारंपरिक पर्वों के आदर्श तार-तार हो चुके हैं। हर पर्व को लोग अवसर मानकर अपनी अपनी रोटी सेंकने में लग जाते हैं, जबकि हमारे पर्वों के पीछे कोई न कोई महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होते ही हैं। स्वास्थ्य एवं सामाजिक गतिविधियों की सार्थकता से जुड़े ये पर्व हमें परस्पर एक सूत्र में पिरोने का काम करते हैं। पावन, निश्छल एवं सद्भावना पूर्ण वातावरण निर्मित करते हैं, लेकिन जब हम पर्वों को ही महत्त्व नहीं देंगे तो बाकी अन्य सभी बातें गौण हो ही जायेंगी।

आज पर्व का मतलब घर में पकवान बनना होता है। उपवास के नाम पर भरपेट फलाहार करना होता है। हर पर्व पर समाज के लोगों द्वारा इनसे कमाई का, स्वार्थ का, मनोरंजन का, व्यसन का, फूहड़ता का, और तो और अश्लीलता का तरीका ढूँढ़ लिया जाता है। पर्वों में लगने वाली हर सामग्री आम दिनों की अपेक्षा लगभग दुगनी महँगी हो जाती है। खरीदने की अनिवार्यता के चलते व्यापारी वर्ग घटिया वस्तुएँ तथा बासे खाद्य पदार्थ तक बेच डालता है। पर्वों पर हर सेवाएँ भी जाने क्यों महँगी हो जाती हैं। लोग मुनाफे के कोई भी अवसर नहीं छोड़ते। पता नहीं इन लोगों की आस्था पर पत्थर पड़ जाते हैं।

आजकल पर्वों पर भोंड़े नृत्य-गीत-संगीत अथवा द्विअर्थी गानों की धूम मच जाती है। भीड़ की आड़ में लोग अश्लीलता की पराकाष्ठा पार कर जाते हैं। सौन्दर्य-दर्शन जहाँ कुछ पुरुषों के शगल बन जाते हैं, वहीं कुछ युवतियाँ भी सौन्दर्य, आकर्षक एवं लुभावनी दिखने हेतु कोई कोर-कसर नहीं छोड़तीं। छेड़छाड़, वाद-विवाद एवं स्तरहीन टिप्पणियों के चलते मजनूँ प्रकृति के लोग ही दोषी करार दिए जाते हैं। उनकी अधैर्यता का खामियाजा उन्हें पुलिस के सानिध्य में भुगतना पड़ता है।

पर्वों पर आस्था उस वक्त और भी किसी कोने में छिप जाती है, जब जोश का अतिरेक होने लगता है। इतर धर्म तथा हिन्दु धर्म की ईर्ष्या-निन्दा पर विवाद बढ़ते हैं। धर्म की आड़ में प्रतिशोध लिए जाते हैं। कट्टरवादिता के चलते मानवता को रौंद दिया जाता है। इन्हीं पर्वों पर राजनीति की रोटियाँ सेंकना भी कोई नई बात नहीं है। छुटभैये अपने नेता के दबदबे का भरपूर फायदा उठाते हैं।

आज कल पर्व के कुछ दिन पूर्व से कुछ दिनों पश्चात तक बड़े, भव्य, विशाल पंडालों में प्रायोजित तथाकथित धार्मिक आयोजन किए जाते हैं, जिनमें आस्था कम पुरुषों और महिलाओं के परस्पर आकर्षण और सौंदर्य दर्शन की ही प्रधानता होती है। पर्वों के अवसर पर घर से बाहर निकलने वाले कुछ युवक एवं युवतियों का भी यही उद्देश्य रहता है। यहीं पर धर्म और आस्था के तले प्रेम प्रसंग पनपते हैं जिनमें से कुछ वैवाहिक स्थिति तक भी पहुँच जाते हैं। यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन प्रेम में धोखा, जबरदस्ती की  घटनाओं के स्रोत क्या है? इन पर अभिभावकों के साथ-साथ स्वयं युवापीढ़ी का भी सावधान रहना अत्यावश्यक है।

वैसे तो अधिकांश पर्व धर्म पर आधारित होते हैं, लेकिन कुछ व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक व प्राकृतिक हित को भी ध्यान में रखकर मनाए जाते हैं, जो सद्भावना, सर्वकल्याण सुख-शांति, स्वच्छता स्वास्थ्य आदि के लिहाज से भी उपयोगी होते हैं। हमारे सभी पर्वों में अकेले मानव ही नहीं पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, नदियों-जलस्रोतों, सूर्य,चंद्र, ग्रह, नक्षत्रों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित की जाती है।

पर्वों के पावन, रम्य, सुखद वातावरण हमारे बच्चों में अच्छे संस्कारों के बीजारोपण में मददगार साबित होते हैं। मौसमी और अनूठे पकवान नए वस्त्र, घरों की स्वच्छता तथा सौंदर्यीकरण धार्मिक वातावरण  के साथ ही सबकी सहभागिता निश्चित रूप से सकारात्मकता बढ़ाती है। सबके दिलों में नवीन ऊर्जा और सात्विक विचारधारा का जन्म होता है। इन पर्वों के शुभ-अवसरों पर इतर धर्मावलंबियों को भी हमारे पर्व व धार्मिक कृत्यों को नजदीक से देखने-समझने का अवसर मिलता है, जिससे आपस में सद्भावना बढ़ती है। हम भी आगे बढ़कर उनका अभिनंदन करते हैं, क्योंकि हमारा वेदोक्त ही ‘वसुदेव कुटुंबकम’ है।

अंत में बस यही रह जाता है कि यदि हमें अपनी संस्कृति और धर्म को अक्षुण्ण बनाये रखना है, इसकी गरिमा बनाए रखना है तो पर्वों को अवसरवादिता की घटिया भावनाओं से ऊपर उठकर शत-प्रतिशत आस्था के साथ मनाना होगा। हम अपने पर्वों को आस्था पूर्वक पवित्र मन से मनाएँगे तो निश्चित रूप से हमारी भावी पीढ़ी पर्वों का वास्तविक उद्देश्य समझ पाएगी, अन्यथा भूमंडलीकरण एवं आधुनिकता की होड़ में हमारे धर्म और हमारी आस्था का क्या होगा? आप स्वयं समझ सकते हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चिंतन तो बनता है-? ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – चिंतन तो बनता है-? ?

बात 16 सितम्बर 2019 की है। हिंदी पखवाड़ा के उद्घाटन हेतु केंद्रीय जल और विद्युत अनुसंधान संस्थान, खडकवासला, पुणे में आमंत्रित था। कार्यक्रम के बाद सैकड़ों एकड़ में फैले इस संस्थान के कुछ मॉडेल देखे। केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के लिए अनेक बाँधों की देखरेख और छोटे-छोटे चेकडैम बनवाने में संस्थान महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह संस्थान चूँकि जल अनुसंधान पर काम करता है, भारत की नदियों पर बने पुल और पुल बनने के बाद जल के प्रवाह में आनेवाले परिवर्तन से उत्पन्न होनेवाले प्रभाव का यहाँ अध्ययन होता है। इसी संदर्भ में यमुना प्रोजेक्ट का मॉडेल देखा। दिल्ली में इस नदी पर कितने पुल हैं, हर पुल के बाद पानी की धारा और अविरलता में किस प्रकार का अंतर आया है, तटों के कटाव से बचने के लिए कौनसी तकनीक लागू की जाए, यदि राज्य सरकार कोई नया पुल बनाने का निर्णय करती है तो उसकी संभावनाओं और आशंकाओं का अध्ययन कर समुचित सलाह दी जाती है। आंध्र और तेलंगाना के लिए बन रहे नए बाँध पर भी सलाहकार और मार्गदर्शक की भूमिका में यही संस्थान है। इस प्रकल्प में पानी से 900 मेगावॉट बिजली बनाने की योजना भी शामिल है। देश भर में फैले ऐसे अनेक बाँधों और नदियों के जल और विद्युत अनुसंधान का दायित्व संस्थान उठा रहा है।

मन में प्रश्न उठा कि पुणे के नागरिक, विशेषकर विद्यार्थी, शहर और निकटवर्ती स्थानों पर स्थित ऐसे संस्थानों के बारे में कितना जानते हैं? शिक्षा जबसे व्यापार हुई और विद्यार्थी को विवश ग्राहक में बदल दिया गया, सारे मूल्य और भविष्य ही धुँधला गया है। अधिकांश निजी विद्यालय छोटी कक्षाओं के बच्चों को पिकनिक के नाम पर रिसॉर्ट ले जाते हैं। बड़ी कक्षाओं के छात्र-छात्राओं के लिए दूरदराज़ के ‘टूरिस्ट डेस्टिनेशन’ व्यापार का ज़रिया बनते हैं तो इंटरनेशनल स्कूलों की तो घुमक्कड़ी की हद और ज़द भी देश के बाहर से ही शुरू होती है।

किसीको स्वयं की संभावनाओं से अपरिचित रखना अक्षम्य अपराध है। हमारे नौनिहालों को अपने शहर के महत्वपूर्ण संस्थानों की जानकारी न देना क्या इसी श्रेणी में नहीं आता? हर शहर में उस स्थान की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक धरोहर से कटे लोग बड़ी संख्या में हैं। पुणे का ही संदर्भ लूँ तो अच्छी तादाद में ऐसे लोग मिलेंगे जिन्होंने शनिवारवाडा नहीं देखा है। रायगढ़, प्रतापगढ़ से अनभिज्ञ लोगों की कमी नहीं। सिंहगढ़ घूमने जानेवाले तो मिलेंगे पर इस गढ़ को प्राप्त करने के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज के जिस ‘सिंह’ तानाजी मालसुरे ने प्राणोत्सर्ग किया था, उसका नाम आपके मुख से पहली बार सुननेवाले अभागे भी मिल जाएँगे।

लगभग तीन वर्ष पूर्व मैंने महाराष्ट्र के तत्कालीन शालेय शिक्षामंत्री को एक पत्र लिखकर सभी विद्यालयों की रिसॉर्ट पिकनिक प्रतिबंधित करने का सुझाव दिया था। इसके स्थान पर ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व के स्थानीय स्मारकों, इमारतों, महत्वपूर्ण सरकारी संस्थानों की सैर आयोजित करने के निर्देश देने का अनुरोध भी किया था।

धरती से कटे तो घास हो या वृक्ष, हरे कैसे रहेंगे? इस पर गंभीर मनन, चिंतन और समुचित क्रियान्वयन की आवश्यकता है।

©  संजय भारद्वाज

प्रातः 6:47 बजे, 19.9.19

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 104 ☆ टेढ़ी खीर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 104 ☆ टेढ़ी खीर ☆

भोर का समय है। लेखन में मग्न हूँ। एकाएक कुछ नगाड़ों के स्वर कानों में गूँजने लगते हैं। विचार करता हूँ कि आज श्री गणेशोत्सव का नौवाँ दिन है। अपवादस्वरूप ही इस दिन विसर्जन होता है। फिर इस वर्ष भी सार्वजनिक गणपति की स्थापना नहीं हुई है। ऐसे में सुबह-सुबह नगाड़ों का स्वर कहाँ से आ रहा है? जिज्ञासा के शमन के लिए बाहर निकलता हूँ और देखता हूँ कि गाजे-बाजे के साथ एक मुनिवर का आगमन हो रहा है। भक्तों की भीड़ मुनिवर के आगे और पीछे पैदल चल रही है। सबसे आगे नगाड़ा बजाने वाले चल रहे हैं। अवलोकन करता हूँ कि हर भक्त बेहद महंगे वस्त्र धारण किये है। पदयात्रा में भव्यता और प्रदर्शन है। इन सबके बीच केवल मुनिवर हैं जो सारे प्रदर्शन से अनजान चिंतन और दर्शन में डूबे हैं। सच्चे निस्पृही, सच्चे अपरिग्रही।

अपरिग्रह भाव मानसपटल पर फ्रीज़ होता है और चिंतन की लहरें उठने लगती हैं। याद आता है एक फक्कड़ साधू महाराज का प्रसंग। महाराज जी के पास ठाकुर जी का अत्यंत सुंदर विग्रह था। वे ठाकुर जी की दैनिक रूप से सेवा करते। स्नान कराते, वस्त्र बदलते, पूजन करते। फिर महाराज जी भिक्षाटन के लिए निकलते। भिक्षा में जो कुछ मिलता, पहले ठाकुर जी को भोग लगाते, पीछे आप ग्रहण करते।

एक रात ठाकुर जी ने स्वप्न में दर्शन दिए और बोले, ” महाराज जी, हर रोज सूखी रोटी खाते-खाते थक गया हूँ। कभी थोड़ा घी भी चुपड़ दिया न करो। माखन और गुड़ की कभी-कभार व्यवस्था कर लिया करो।”

महाराज जी नींद से उठकर बैठ गये। सोचने लगे, मेरा ठाकुर तो लोभी निकला! क्रोध में भरकर ठाकुर जी से बोले, ” तुम्हारा यह चटोरापन नहीं चलेगा। ऐसे तो मेरा अपरिग्रह ही नष्ट हो जायेगा।”

चेले को बुलाकर महाराज जी ने ठाकुर जी उसे सौंपते हुए कहा,” इन्हें ले जाओ और किसी मंदिर में विधिवत स्थापित कर दो। सेठों की बस्ती के किसी मंदिर में बैठाना जहाँ इन्हें रोज जी भर के मिष्ठान, पकवान मिल सकें। मेरे पास तो सूखे टिक्कड़ के सिवा और कुछ मिलने से रहा।”

तात्पर्य है कि अपरिग्रह का इतना कठोर पालन कि ठाकुर जी भी छोड़ दिये। वस्तुत: प्रदर्शन, अनावश्यक संचय की जड़ है। दर्शन में सुविधा से ‘प्र’ उपसर्ग जड़कर चैतन्य समाज जड़ हो चला है। अपने ही हाथों खड़े किये इस एकाक्षरी भस्मासुर से मुक्त हो पाना मनुष्य के लिए टेढ़ी खीर सिद्ध हो रहा है।

अंतिम बात, ‘टेढ़ी खीर’ का अर्थ कठिन होता है लेकिन ‘कठिन’ का अर्थ ‘असंभव’ नहीं होता।…विचार कीजिएगा।

 

© संजय भारद्वाज

अपराह्न 4:34 बजे, 18 सितम्बर 2021

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #88 ☆ मानव मन पर देश काल तथा परिस्थितियों का प्रभाव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक विचारणीय आलेख  “# मानव मन पर देश काल तथा परिस्थितियों का प्रभाव #। ) 

– श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 88 ☆ # मानव मन पर देश काल तथा परिस्थितियों का प्रभाव # ☆

भोजपुरी भाषा में एक कहावत है,

मन ना रंगायो ,रंगायो जोगी कपड़ा।

बार दाढ़ी रखि बाबा ,बनिए गइले बकरा।

इसी प्रकार मन की   मनोस्थिति पर   टिप्पणी करते हुए कबीर साहब ने कहा कि —-

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।

कर का मनका (माला के दाने)डारि के ,मन का मनका फेर।।

कबिरा माला काठ की ,कहि समुझावत मोहि ।

मन ना फिरायो आपना, कहां फिरावत मोहिं।।

                अथवा

जप माला छापा तिलक,सरै न एकौ काम।

मन कांचे नांचे बृथा ,सांचे रांचे राम।।

तथा गोपी उद्धव संवाद में

सूरदास जी ने गोपियों के माध्यम से मन के मनोभावों का गहराई से चित्रण करते हुए कहा कि  #उधो मन ना भयो दस बीस# तथा अन्य संतों महात्माओं ने भी जगह जगह मन की गतिविधियों को उद्धरित किया है, और श्री मद्भागवत गीता में तो वेद ब्यास जी अर्जुन द्वारा मन की चंचलता पर भगवान कृष्ण से मन को बस में करने का उपाय पूछा था कि—- हे केशव ! आप मन को बस में करने की बात करते हैं —-जिस प्रकार वायु को मुठ्ठी में कैद नहीं किया जा सकता, फिर उसी तरह चंचल स्वभाव वाले मन को कैसे बस में किया जा सकता है।

जिसके प्रतिउत्तर में  भगवान कहते हैं —-हे अर्जुन! निरंतर योगाभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा मन को बस में करना अत्यंत सरल है।

हमने अपने अध्ययन में यह पाया कि क्षणिक ही सही उत्तेजित अवस्था में कठोर  से कठोर साधना करने वाला साधक नियंत्रण खो कर पतित हो अपना मान सम्मान गंवा देता है। आइए हम अपने अध्ययन द्वारा  मानव मन के स्वभाव प्रभाव का अध्ययन करें और समझे कि किस प्रकार उत्तेजना तथा भावुकता का  देश काल परिस्थिति तथा कहानी दृश्य चित्र तथा चलचित्र से परिस्थितियों से  मन  कैसे प्रभावित होता है।

मन की गतिविधियों पर अध्ययन करने से पहले हमें अपनी शारिरिक संरचना पर ध्यान देना होगा।   और उसकी बनावट तथा उसकी कार्यप्रणाली को समझना होगा तभी हम मन  के स्वभाव  को आसानी से समझ पायेंगे।

पौराणिक तथा बैज्ञानिक  अध्ययन तथा मान्यता के आधार पर  पंच भौतिक तत्वों  क्षिति ,जल पावक गगन तथा समीरा के संयोग  से मां के गर्भ में पल रहा , हमारा स्थूल शरीर निर्मित है, तथा शारीरिक संचालन के लिए जिस प्राण चेतना की आवश्यकता होती है वह प्राण वायु है उसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते।

जब प्राण शरीर से अलग होता है तब स्थूल शरीर मर जाता है उसी स्थूल शरीर में आत्मा निवास करती है जिसे इश्वरीय अंश से उत्पन्न माना जाता है , शरीर और आत्मा के बीच एक तत्व  मन भी रहता है

 जो इंद्रियों के द्वारा मन पसंद भोग करता है, तथा सुख और दुख की अनुभूति मन में ही होती है। शांत तथा उत्तेजित मन ही होता है मन ही मित्र है मन ही आप का शत्रु है यह अति संवेदनशील है  उसके उपर  परिस्थितियों तथा कथा कहानी गीत चलचित्र छाया चित्र का प्रभाव भी देखा गया है मन का क्षणिक आवेश व्यक्ति को पतन के गर्त में धकेल देता है। वहीं शांत तथा   एकाग्र मन आप को उन्नति शीर्ष पर स्थापित कर देता है।एक

तरफ कामुक दृश्य के चल चित्र तथा छाया चित्र उत्तेजना से भर देते हैं, वहीं भावुक दृश्य आपकी आंखों में पानी भर देते हैं इस लिए निरंतर योगाभ्यास तथा विरक्ति पथ पर चलते हुए लोककल्याण में रत रह कर हम अपनी आत्मिक शांति को प्राप्त कर आत्मोउन्नति कर सकते हैं।

ऊं सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे संतु निरामया।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

18–09–21

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…1 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…1”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…1 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

अन्य सभी समूहों की तरह यह समूह भी बौद्धिक, भावुक, भौतिक, आध्यात्मिक में से किसी एक या दो मौलिक प्रवृत्तियों से प्रधानतः परिचालित मनुष्यों का समूह है। यह लेख आध्यात्मिक रुझान के व्यक्तियों के लिए महत्व का हो सकता है। धार्मिकता और आध्यात्मिकता में बहुत अंतर होता है। आध्यात्मिक ज्ञान की खोज आत्मचिंतन से आरम्भ होकर प्रज्ञा पर जाकर खुलती है। जिसमें बाहरी अवयवों को छोड़ना होता है। यानि मोह की सत्ता को नकारना। धन, व्यक्ति, स्थान, ईश्वर मोह से बाँधते हैं। पत्नी, संतान, भौतिक वस्तुएँ मुझसे अलग हैं। यहाँ तक कि मेरे अंदर पार्थिव देह भी मुझसे विलग है। “मैं” नितांत अकेला है, जैसा जन्म के समय था, जैसा मृत्यु के समय होगा।

इन्हें त्यागकर गृह त्यागने वाला सन्यासी होता है। जो घर में रहकर ही अभ्यास करता है वह गृहस्थ सन्यासी।

हम सब उम्र के जिस पड़ाव पर हैं उसमें “मैं की यात्रा” पर चिंतन-मनन आनंददायक और बहुत राहत देने वाला अभ्यास हो सकता है। कभी हमने काग़ज़-पेन लेकर शांति से बैठकर सोचा ही नहीं कि जन्म से लेकर अब तक “मैं की यात्रा” किन पड़ावों से होकर गुजरी है। यह यात्रा नितांत अकेली है। कोई संगी-साथी नहीं। मैं और मेरी चेतना, परमात्मा से अलग भी और जुड़ी भी।

“मैं की यात्रा” के चार आयाम होते हैं- मेरी बौद्धिक यात्रा, मेरी भावनात्मक यात्रा, मेरी दैहिक यात्रा और मेरी आध्यात्मिक यात्रा। हम क्यों न इन चार यात्राओं पर चिंतन-मनन करें। इसके दो लाभ हो सकते हैं-

एक-यादों के रेचन से राहत महसूस होगी,

दूसरा- वर्तमान से आगे आनंददायक समय गुज़ारने के बारे में हमारा नज़रिया खुलेगा।

हो सकता है कुछ लोगों को यह महज़ बकवास लगे लेकिन पिछले छै महीनों में मैंने इस धारणा पर काम किया है। उसका सबसे बड़ा फ़ायदा हुआ कि “मैं क्या चाहता हूँ” यह अच्छी तरह से स्पष्ट होने लगा। मेरा आनंददायक समय का दायरा बढ़ने लगा है। समय आनंद से गुजरे, इस उम्र में इससे बड़ा वरदान कुछ और नहीं हो सकता।

महान दार्शनिक बर्ट्रेन्ड रसल की पुस्तक “Conquest of Happiness” में बताया गया है कि “अक्सर हम अपने से बात ही नहीं करते हैं। दूसरों से बातें करके अपना मापदंड तय करके समय गुज़ारते रहते हैं।”

भारतीय संदर्भ में कहें तो “आत्म चिंतन” नहीं करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हमारा नियंत्रण दूसरों के जैसे अख़बार, देश, समाज, रिश्तेदार, मीडिया, के हाथों में रहता हैं। हमारी खुद की चाहत नज़रअन्दाज़ होती जाती है। हम बेवजह परेशान होते रहते हैं।

जीवन का समय या तो यूँ ही गुजरता है, या चिंता व्याधि से बीतता है या इंद्रिय सुख-दुःख की अल्टा पलटी में गुजरता है। जीवन का आनंद और उस आनंद से मिलती राहत की अनुभूति कहीं गुम हो जाती है क्योंकि हम क्या चाहते हैं हमें इसका पता ही नहीं चलता।

खुद से बात के लिए हमें सबसे अलग होना होता है। आत्म तत्व को देह तत्व से विलग करना होता है। तब “मैं की यात्रा” शुरू होती है। सोचिए समझिए ठीक लगे तो अभ्यास कीजिए अन्यथा बकवास समझ कर दुनियावी बीन पर नाचते रहिए।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares