हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 213 ☆ निज आघात सहे मन कैसे ?… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना निज आघात सहे मन कैसे ?। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 213 ☆ निज आघात सहे मन कैसे ?…

समय- समय पर सभी के सामने चुनौतियाँ आतीं हैं, कुछ लोग इनका सामना एक अवसर के रूप में करते हैं वहीं कुछ लोग ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है कह कर रोना रोने लगते हैं।

अब सीधी सी बात है जिसे अवसर का लाभ लेना नहीं आता, समय को अपने अनुकूल करने की कला नहीं होती।

सच्चाई तो ये है कि जितना तनाव सहने की क्षमता होती उतना ही व्यक्ति सफल होगा। बिना संघर्ष के कुछ नहीं मिलता, उचित- अनुचित तथ्यों के परखने का गुण आपकी जीत को सुनिश्चित करता है। स्वयं पर पूर्ण विश्वास रखने वाले की जीत होती है।

इस संदर्भ में छोटी सी कहानी है, एक शिष्य बहुत दुःखी होकर अपने गुरु के सम्मुख रुदन करते हुए कहने लगा कि मैं आपके शिष्य बनने के काबिल नहीं हूँ, हर परीक्षा में जितने अंक मिलने चाहिए वो मुझे कभी नहीं मिले इसलिए मैं अपने घर जा रहा हूँ वहाँ पिता के कार्य में हाथ बटाऊँगा, गुरु जी ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की पर वो अधूरी शिक्षा छोड़ कर अपने गाँव चला गया।

किसी के जाने का दुःख एक दो दिन तो सभी करते हैं पर जल्दी ही उस रिक्त स्थान की पूर्ति हो जाती है। गुरुजी सभी शिष्यों को पढ़ा रहे थे तभी उन्हें वहाँ कुछ पक्षी उड़ते हुए दिखे उनका मन भी सब कुछ छोड़ हिमालय की ओर चला गया कि कैसे वो अपने गुरु के सानिध्य में वहाँ रहते थे, तो गुरुदेव ने भी तुरन्त अपने प्रिय शिष्य को जिम्मेदारी दी और चल दिये।

ये किस्सा एक बार का नहीं जब मन करता गुरुदेव कहीं न कहीं अचानक चल देते सो उनके शिष्य भी उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए अधूरे ज्ञान के साथ जब जी आता अपनी पढ़ाई छोड़ कर चल देते कुछ वापस भी आते। इस पूरी कहानी का उद्देश्य यही है, पानी पीजे छान के गुरू कीजे जान के। जैसे गुरु वैसे चेले होंगे ही।

कोई भी व्यक्ति या वस्तु पूर्ण नहीं होती है ये तो सर्वसत्य है, हमें उसके गुण दोषों को स्वीकार करने की समझ होनी चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 471 ⇒ रविवार अवकाश ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रविवार अवकाश।)

?अभी अभी # 471 ⇒ रविवार अवकाश? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Sunday Closed

हमारी पृथ्वी सूर्य का ही अंश है, इसलिए हम सूर्य से अधिक सनातन तो नहीं हो सकते, पृथ्वी तो फिर भी एक ही है, लेकिन इस ब्रह्मांड में कितने सूर्य हैं, इसका हमें पता नहीं। केवल एक दिव्य भास्कर, आदित्यनाथ हैं, जिसे सुना है, हमारे बाल हनुमान ने कभी गेंद समझकर निगल लिया था।

यह भी सत्य सनातन है कि हममें से अगर कुछ सूर्यवंशी हैं, तो कुछ चंद्रवंशी, लेकिन लोकतंत्र में आज सभी रविवार की छुट्टी यानी सन्डे के नाम पर वीकेंड मना रहे हैं, और चैन की बंसी बजा रहे हैं। ।

यह संडे अर्थात् रविवार की छुट्टी कितनी पुरानी अथवा सनातन है, इसके बारे में श्रुति, स्मृति और पुराण सभी मौन हैं। हां सूर्यनारायण हमारे आराध्य अवश्य हैं, शक्ति और प्रकाश के पुंज हैं, वे हमें कर्म की शिक्षा देते हैं, आराम और विश्राम की नहीं। उसके लिए सोलह कलाओं से युक्त हमारे चंद्र देव नभ में विराजमान हैं।

संध्या होते ही पक्षी तक अपने घोंसलों में विश्राम हेतु पहुंच जाते हैं। निशा निमंत्रण मिलते ही इंसान भी रजनी के साथ सुख से रात्रि व्यतीत करता है और सुबह अपने आपको ताजा महसूस करता है।

आज की बाल नरेंद्र की रिसर्च यह बताती है कि रविवार यानी संडे कभी हमारा सप्ताहिक अवकाश का दिन रहा ही नहीं। यह स्पष्ट रूप से अंग्रेजों की देन है। हमारे पास इससे असहमत होने का कोई कारण नहीं, क्योंकि रवि का इतिहास तो हमारे पास है, लेकिन रविवार की छुट्टी का नहीं। अंग्रेजों का क्या है, ठंडे प्रदेश के लोग हैं, जिस दिन सूरज उगा, उसी दिन सन्डे। ।

कभी हमारा भी सूरज उगता था, नहा धोकर उत्साहपूर्वक सोमवार को दफ़्तर जाते थे, लेकिन हमारी निगाह शनिवार पर ही लगी रहती थी, शनिवार हॉफ डे और सन्डे की छुट्टी। लेकिन रिटायरमेंट के बाद अब सन्डे की छुट्टी का वह मज़ा नहीं रहा। सुबह होती है, शाम होती है, जिंदगी यूं ही आराम से गुजर जाती है।

खेती किसानी में कोई अवकाश नहीं होता, पशु पक्षियों को हमने कभी साप्ताहिक अवकाश पर जाते नहीं देखा। दिवाकर यानी आदित्य ने कभी संडे ऑफ नहीं लिया। हमने भोजन से कभी साप्ताहिक अवकाश नहीं लिया। दिल की धड़कन और रात दिन चलती सांसें अगर अवकाश मांग ले, तो हमारी तो छुट्टी ही हो जाए। ।

हमने तो जीवन में बस सावधान और विश्राम का सबक ही सीखा है, सुबह होते ही सावधान ;

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत..

कठोपनिषद्

और

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 301 ☆ आलेख – तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 301 ☆

? आलेख – तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

राष्ट्र की प्रगति में तकनीकज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। सच्ची प्रगति के लिये अभियंताओ और वैज्ञानिकों का राष्ट्र की मूल धारा से जुड़ा होना अत्यंत आवश्यक है। हमारे देश में आज भी तकनीकी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। इस तरह अपने अभियंताओं पर अंग्रेजी थोप कर हम उन्हें न केवल जन सामान्य से दूर कर रहे हैं वरन अपने अभियंताओं एवं वैज्ञानिको को पश्चिमी राष्ट्रों का रास्ता भी दिखा रहे हैं।

अंग्रेजी क्यो ? इसके जवाब मे कहा जाता है कि यदि हमने अंग्रेजी छोड़ दी तो हम दुनिया से कट जायेगें। किंतु क्या रूस, जर्मनी, फ्रांस, जापान, चीन इत्यादि देश वैज्ञानिक प्रगति मे किसी से पीछे हैं ? क्या ये राष्ट्र  विश्व के कटे हुये हैं। इन राष्ट्रों मे तो तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी शिक्षा उनकी अपनी राष्ट्रभाषा मे ही होती है। अंग्रेजी मे नहीं। आज इतने सुविकसित अंतर्भाषा टूल्स बन चुके हैं कि विश्व संपर्क वाला यह तर्क बेमानी है ।

वास्तव मे विश्व संपर्क के लिये केवल कुछ बडे राष्ट्रीय संस्थान एवं केवल कुछ वैज्ञानिक व अभियंता ही जिम्मेदार होते हैं जो उस स्तर तक पहुचंते पहुंचते आसानी से अंग्रेजी सीख सकते हैं। देश के केवल उच्च तकनीकी संस्थानों में वैकल्पिक रूप से अंग्रेजी को तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकारा जा सकता है । किंतु वर्तमान स्थितियों में हम व्यर्थ ही सारे विद्यार्थियों को उनके अमूल्य 6 वर्ष एक सर्वथा नई भाषा सीखने में व्यस्त रखते हैं। जबकि आाज राष्ट्र भाषा हिन्दी में तकनीकी शिक्षण हेतु किताबें उपलब्ध कराई जा चुकी हैं । यदि कोई कमी है भी तो उसे दूर करने के लिये पर्याप्त संसाधन और बुद्धिजीवी सक्रिय हैं ।  दुनिया के अन्य राष्ट्रों की तुलना में भारत से कही अधिक संख्या में अभियंता तथा वैज्ञानिक विदेशों मे जाकर बस जाते हैं। इस पलायन का एक बहुत बडा कारण उनका अंग्रेजी मे प्रशिक्षण भी है।

हमारे देश में शिक्षा की जो वर्तमान स्थिति है उसमें गांव गांव में भी अंग्रेजी माध्यम की शालायें खुल रही हैं , क्योकि अंग्रेजी भाषा के माध्यम को रोजगार तथा व्यक्तित्व निर्माण के साधन के रूप में स्वीकार कर लिया गया है . इसके पीछे अंग्रेजो का देश पर लम्बा शासन काल तो जिम्मेदार है ही साथ ही देश में भाषाई विविधता के चलते भाषाई आधार पर राज्यो के विभाजन की राजनीति भी जबाबदार लगती है . जिसके कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा तो दिया गया पर उसे राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार नही किया गया और इसका लाभ अंग्रेजी को मिलता गया ,विशेष रूप से तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में यही हुआ .

हिंदी को कठिन बताने के लिये प्रायः रेल के लिये लौहपथगामनी जैसे शब्दों के गिने चुने दुरूह उदाहरण लिये जाते है , पर यथार्थ है कि हिंदी ने सदा से दूसरी भाषाओं को आत्मसात किया है। अतः ऐसे कुछ शब्द नागरी लिपि में लिखते हुये हिंदी मे यथावत अपनाये  जा सकते है। हिंदी शब्द तकनीक के लिये यदि अंग्रेजी वर्णमाला का प्रयोग करे तो हम अंग्रेजी अनुवाद टेक्नीक के बहुत निकट है।  संत के लिये सेंट, अंदर के लिये अंडर, नियर के लिये निकट जैसे ढेरों उदाहरण है। शब्दों की उत्पत्ति के विवाद मे न पड़कर यह कहना उचित है कि हिंदी क्लिष्ट नही है।

हमने एक गलत धारणा बना रखी है कि नई तकनीक के जनक पश्चिमी देश ही  होते है। यह सही नहीं है। पुरातन ग्रंथों में भारत विश्व गुरू के दर्जे पर था। हमारे वैज्ञानिको एवं तकनीकज्ञों में नवीन अनुसंधान करने की क्षमता है। तब प्रश्न उठता है कि क्यों हम अंग्रेजी ही अपनाये। क्यों न हम दूसरों की अन्वेषित तकनीक के अनुकरण की जगह अपनी क्षेत्रीय स्थितियों के अनुरूप स्वंय की जरूरतों के अनुसार स्वंय अनुसंधान करे जिससे उसे सीखने के लिये दूसरों को हिंदी अपनाने की आवश्यकता महसूस हो।

जब अत्याधुनिक जटिल कार्य करने वाले कप्यूटरों की चर्चा होती है तो आम आदमी की भी उनमें सहज रूचि होती है एवं वह भी उनकी कार्यप्रणाली समझना चाहता है। किंतु भाषा का माध्यम बीच में आ जाता है और जन सामान्य वैज्ञानिक प्रयोगों को केवल चमत्कार समझ कर अपनी जिज्ञासा शांत कर लेता है। इसकी जगह यदि इन प्रयोगों की विस्तृत जानकारी देकर हम लोगो की जिज्ञासा को और बढा सके तो निश्चित ही नये नये अनुसंधान को बढावा मिलेगा। इतिहास गवाह है कि अनेक ऐसे खोजे हो चुकी है जो विज्ञान के अध्येताओं ने नही किंतु आवश्यकता के अनुरूप अपनी जिज्ञासा के अनुसार जनसामान्य ने की है।

यह विडंबना है कि ग्रामीण विकास के लिये विज्ञान जैसे विषयो पर अंग्रेजी मे बडी बडी संगोष्ठियां तो होती हैं किंतु इनमें जिनके विकास की बातें होती हैं वे ही उसे समझ नही पाते। मातृभाषा में मानव जीवन के हर पहलू पर बेहिचक भाव व्यक्त करने की क्षमता होती है। क्योंकि बचपन से ही व्यक्ति मातृभाषा मे बोलता पढ़ता लिखता और समझता है। फिर विज्ञान या तकनीक ही मातृभाषा मे नही समझ सकता ऐसा सोचना नितांत गलत है।

आज हिंदी अपनाने की प्रक्रिया का प्रांरभ त्रैमासिक या छैमाही पत्रिका के प्रारंभ से होता है जो दो चार अंकों के बाद साधनों के अभाव में बंद हो जाती है। यदि हम हिंदी अपनाने के इस कार्य के प्रति ऐसे ही उदासीन रहे तो भावी पीढ़ियां हमें क्षमा नहीं करेगी। हिंदी अपनाने के महत्व पर भाषण देकर या हिंदी संस्थानों के कार्यक्रमों में हिंदी दिवस मनाकर हिंदी के प्रति हमारे कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो सकती। हमें सच्चे अर्थों में प्रयोग के स्तर पर हिंदी को अपनाना होगा। तभी हम मातृभाषा हिंदी को उसके सही स्थान पर पहुंचा पायेंगे।

हिंदी ग्रंथ अकादमी हिंदी मे तकनीकी साहित्य छापती है। बडी बडी प्रदर्शनियां इस गौरव के साथ लगाई जाती है कि हिंदी में तकनीकी साहित्य उपलब्ध है। किंतु इन ग्रंथो का कोई उपयोग नहीं करता। यहां तक कि इन पुस्तकों के दूसरे संस्करण तक छप नहीं पाते। क्योंकि विश्वविद्यालयों में तकनीकी का माध्यम अंग्रेजी ही है। यह स्थिति चिंता जनक है। हिंदी को प्रायः साम्प्रदायिकता क्षेत्रीयता एवं जातीयता के रंग में रंगकर निहित स्वार्थों वाले राजनैतिक लोग भाषाई ध्रुवीकरण करके अपनी रोटियां सेंकते नजर आते हैं। हमें एक ही बात ध्यान में रखनी है कि हम भारतीय हैं। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है यदि राष्ट्रीयता की मूल भावना से हिंदी को अपनाया जावेगा तो यही हिंदी राष्ट्र की अखंडता और विभिन्नता में एकता वाली हमारी संस्कृति के काश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले विभिन्न रूपों को परस्पर और निकट लाने में समर्थ होगी।

यही हिंदी भारतीय ग्रामों के सच्चे उत्थान के लिये नये विज्ञान और नई तकनीक को जन्म देगी। हमें चाहिये कि एक निष्ठा की भावना से कृत संकल्प होकर व्यवहारिक दृष्टिकोण से हिंदी को अपनाने में जुट जावे। अंग्रेजी के इतने गुलाम मत बनिये कि कल जब आप हिंदी की मांग करने निकले तो चिल्लाये कि वी वांट हिंदी।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

बी ई सिविल, पोस्ट ग्रेजुएशन फाउंडेशन, सर्टीफाइड इनर्जी मैनेजर

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 470 ⇒ नि गु रा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नि गु रा।)

?अभी अभी # 470  नि गु रा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

गुरु बिन कौन करे भव पारा !

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर ..

हमारे देश में आदमी अनपढ़, निरक्षर, अशिक्षित रह सकता है, लेकिन बिना गुरु के नहीं रह सकता। इतने जगतगुरु, साधु संत, महात्मा, शिक्षक, प्रोफेसर,  विद्वान, आचार्य, ज्योतिष, योग, आर्युवेद, महंत, और महामंडलेश्वर के रहते, भला कोई निगुरा कैसे रह सकता है। जिस देश में लोगों का तकिया कलाम ही गुरु हो, कोई महागुरु और कोई गुरु घंटाल हो, वहां गुरुओं की क्या कमी। गुरु, इसी बात पर ठोको ताली।

गुरु से बचना इतना आसान भी नहीं ! पहले गुरु तो माता पिता ही होते हैं। अब आप अजन्मे तो नहीं रह सकते। आप पालने में पड़े हो और किसी ज्योतिष गुरु ने आपका नामकरण भी कर दिया। घर में भवानीप्रसाद, और ज्वालाप्रसाद तो पहले से ही मौजूद थे, आप हो गए गुरुप्रसाद। लाड़ प्यार में नाम बनता बिगड़ता रहता है, किसी के लिए गुड्डू, तो किसी के लिए गुल्लू। गुरु कृपा से अच्छे पढ़ लिख लिए, तो बड़े होकर कॉलेज में आप प्रोफेसर जी.पी.दुबे कहलाने लगे। यथा नाम तथा गुण। ।

गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊँ ! द्रोणाचार्य और शुक्राचार्य। मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ, या फिर निगुरा ही रह जाऊँ। जो आपको जीवन के गुर सिखलाए, वह गुरु। वैसे भी गुरु को तो गुड़ ही रहना है, शक्कर तो चेले ही बनते हैं। जीवन में मिठास जरूरी है। या तो गुड़ बन जाएं, या फिर शक्कर। वैसे आप गुरु करें ना करें, आपकी मर्जी। लेकिन किसी ज्योतिष गुरु के कहने पर गुरुवार करने में क्या हर्ज है। जिन लोगों का गुरु कमज़ोर होता है, वे किसी उस्ताद की शरण में जाते हैं। गुरुवार तो वैसे भी हर हफ्ते आता ही रहेगा।

एक समय था, जब शहर में हर गुरुवार को सिनेमा घरों में नई फिल्म लगती थी। व्यापारी अपनी दुकानें बंद रखते थे। गुरुवार अब भी आता है, लेकिन क्या करें, सिनेमागृहों की गृह दशा ही खराब चल रही है। व्यापारी भी गुरुवार की जगह संडे मनाने लग गए। ।

संत कबीर बड़े ज्ञानी थे, गुरु ग्रंथ साहब तक में उनका जिक्र है, फिर भी वे निगुरे नहीं रह सके। उन्हें भी गुरु रामानंद की शरण में जाना ही पड़ा। दत्तात्रय तो भगवान थे, लेकिन उनके भी एक दो नहीं चौबीस गुरु थे। उन्हें सृष्टि के जिस जीव में गुण नजर आते, वे उसे गुरु रूप में स्वीकार कर लेते। जो हमें सीख दे, वही गुरु, वही शिक्षक और वही सदगुरु। अगर हम अपना सबक ठीक से याद नहीं करें, तो इसमें गुरु का क्या दोष।

आखिर गुरु को बाहर क्यूं ढूंढा जाए जब हमारे अंदर ही ब्रह्मांड समाया हुआ है। और लोग अंतर्गुरु तलाशने पहले ओशो, कृष्णमूर्ति और महर्षि रमण की शरण में गए लेकिन जब बात नहीं बनी तो जग्गी वासुदेव का दामन थाम लिया। श्री श्रीरविशंकर और योगगुरु बाबा रामदेव अपने अपने सुदर्शन चक्र चला ही रहे हैं, बचकर कहां जाओगे। ।

एक तरफ कुआं, एक तरफ खाई ! इन निगुरों के बीच यह कहां से आ टपका भाई ? यहां 24 x 7 चैनलों पर संत महात्माओं, साधुओं और परम हंसों का जमघट लगा रहता है। चित्रकूट के घाट से कम नहीं यह सत्संग और स्वाध्याय की चौपाटी। रामकथा, भागवत और शिव पुराण। कभी कोई तो कभी कोई और । दान पुण्य और गऊ सेवा का पुण्य अलग।

जो भी भक्त है, उसका अपना भगवान है। शिष्य का अपना गुरु है। बाकी सब स्वयं ही गुरु हैं। अहं ब्रह्मास्मि ! बस इस देश में वामपंथी ही निगुरे हैं। निगुरे नहीं, विश्व गुरु हैं हम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पुरस्कृत आलेख – मुंशी प्रेमचंद जी : कथा संवेदना के पितामह… ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पुरस्कृत आलेख ☆ मुंशी प्रेमचंद जी : कथा संवेदना के पितामह… ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव

 ‘प्रेमचन्द जी की भाव अनुरागी साहित्य तरंगिणी’ 

साहित्य का किसलिए निर्माण किया जाता है ? इसके जवाब के लिए मुंशी प्रेमचंद जी के शब्दों का आधार लें तो, “साहित्य केवल मनोरंजन की वस्तु नहीं और नायक एवं नायिका के विरह और मिलन का राग नहीं अलापता। उसका उद्देश्य है बहुत दूरगामी है। जीवन की समस्याओं का चित्रण, उन पर अपने विचारों के आधार पर समीक्षा करना और समस्या के निवारण का प्रयत्न करना। साहित्य का सम्बन्ध उतना बुद्धि से नहीं, जितना भावों से है। बुद्धि का प्रदर्शन करना है तो दर्शन शास्त्र है, विज्ञान है, नीतिपाठ है।भावाभिव्यक्ति के लिए उपन्यास, कहानियाँ और नाटक हैं।”

उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण, सम्पादकीय जैसे बहुविध प्रांतों में साहित्य सृजन करने वाले मुंशी प्रेमचंद (धनपत राय श्रीवास्तव-जन्म:३१ जुलाई १८८०, मृत्यु:८ अक्टूबर १९३६) के साहित्य में ३०० से अधिक कहानी, ३ नाटक, १५ उपन्यास, ७ बाल-पुस्तकें आदि शामिल हैं। वे न केवल बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे, अपितु उनके यथार्थवादी लेखन में हर प्रकार की मानवी संवेदनाओं का मार्मिक चित्रण है। उस समय का हिंदी साहित्य काल्पनिक, धार्मिक और पौराणिक चरित्रों पर आधारित था। इसके विपरीत मुंशी जी के साहित्य में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का चित्रण किया गया। इसी कारण प्रेमचंद जी का साहित्य तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक दस्तावेज प्रतीत होता है, जिसमें समाज-सुधार आंदोलन, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आंदोलनों के सामाजिक प्रभावों का वास्तववादी चित्रण है। मुंशी जी के साहित्य में दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, लिंग भेद, विधवा विवाह, शहरों की आधुनिकता से जूझता गाँवों का पिछड़ापन, स्त्री-पुरुष विषमता और समानता का द्वंद्व आदि उस दौर की समस्याएं प्रमुखता से दिखाई देती हैं। उनके साहित्य की प्रमुख देन है यथार्थवाद के चौखटे में समाने को उत्सुक भारतीय संस्कृति का आदर्शवाद! उनके द्वारा निर्मित व्यक्तिचित्र भावानुभूति एवं भावाभिव्यक्ति की चरम सीमा लांघकर हमारे दिलो-दिमाग में स्थाई रूप से बसे हैं। उन गरीबों का एक एक चीथड़ा हमारे ह्रदय को तार-तार कर देता है। जब जमींदार उन पर लाठी बरसाता है, तो उनकी चीखें हमारे कानों के पर्दों को मानों चीर देती हैं। उनकी भूख-प्यास हमें त्रासदी पहुँचाती है। १ गाय खरीदने को तरसने वाले ‘गोदान’ के होरी के जीवनान्त को कैसे भूलें हम ? मुझे आभास होता है कि, ‘पूस की रात’ कहानी के हल्कू और मुन्नी नायक नायिका न होकर महज़ ३ रुपए का कम्बल ही असली नायक है, जिसके अभाव में हल्कू पूस की रात की भीषण सर्दी का सामना करते-करते अधमरा हो जाता है। ‘कफ़न’ कहानी के बाप-बेटे घीसू और माधव की जिन्दा लाशें एवं माधव की घरवाली की वास्तविक लाश, दोनों में कुछ अधिक फर्क नहीं महसूस होता। ‘निर्मला’ मात्र उपन्यास की नायिका नहीं है, वह भारत के स्त्री वर्ग की त्रासदी को उजागर करती है। दहेज़ के अभाव में विवाह टूटना, अधेड़ उम्र के व्यक्ति से विवाह होना, एक बेटी के मातृत्व का बोझ और समाज से घोर उपेक्षा, इन सबसे ‘यमराज’ ही उसे मुक्ति दिलाता है। मृत्युदाता की प्रतीक्षा करने वाली ऐसी ‘निर्मला’ आज के समाज में भी जीवित है। मुंशी जी की भावाभिव्यक्ति से पशुधन भी अछूता नहीं था। ‘दो बैलों की कथा’ कहानी के ‘हीरा एवं मोती’ एक संवेदनशील पात्र बन पड़े हैं। इस मुई गरीबी के दाग की ऐसी क्या मज़बूरी है कि, कोई भी साबुन उसे मिटा नहीं पाया, चाहे वह किसी भी छाप का हो। यह ‘गरीबी की रेखा’ जिस किसी ने खींची है, वह तो लक्ष्मण रेखा की भांति अमर, अमिट और अजेय बन गई है। लोग कहते हैं कि, मुंशी प्रेमचंद हो या सत्यजीत रे हो, उन्होंने भारत की गरीबी के ग्लैमर के पत्ते को भुनाया है, लेकिन साहित्य हो या फिल्म हो, वे तो समाज का दर्पण होते हैं न! अगर यह न होता तो, हमें ‘गोदान’ की धनिया और झुनिया यूँ हमारे समक्ष मानों जीते-जागते इंसान के रूप में नजर नहीं आते। क्या समाज में ‘गबन’ उपन्यास के नायक-नायिका रमानाथ और जलपा मौजूद नहीं है ? लालच और नैतिकता का पतन तो आज कई गुना वृद्धिगत हुआ है।

‘नमक का दरोगा’ प्रेमचंद द्वारा रचित लघु कथा है, जो आज के दिन भी सामायिक लगती है। एक सम्मानित ईमानदार सरकारी नौकर अर्थात नामक नमक का दरोगा वंशीधर और भ्रष्टाचारी प्रतिष्ठित जमींदार पंडित अलोपीदीन के बीच का यह ‘धर्मयुद्ध’ है। मुन्शी जी की कहानी ऐसे बुनी गई है कि, किसी भी हिंदी फिल्म के ईमानदार नायक और बेईमान खलनायक की कहानी लगे। सत्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा और कर्मपरायणता जैसे मानव मूल्यों का आदर्श रूप यहाँ बहुत असरदार तरीके से प्रस्तुत किया गया है। इस सिलसिले में मुझे मुंशी जी की ‘परीक्षा’ नामक कहानी का स्मरण हुआ। अपने राजा के लिए अपना उत्तराधिकारी योग्य दीवान चुनने वाले सुजानसिंह परीक्षार्थियों की सत्यनिष्ठा और परोपकार की परीक्षा लेते हैं एवं माटी से सने साधारण युवक में ‘दीवान’ खोज लेते हैं।

कुल मिलाकर देखें तो प्रेमचंद जी के पात्र भारतीय संस्कृति का सच्चा रूप दर्शाते हैं। उनके ‘सौंधी देसी मटमैली भावनाओं से परिपूर्ण’ साहित्य में पिता का वात्सल्य, पुत्र का समर्पण, पत्नी का पवित्र प्रेम और ऐसे ही कई नातों के मनमोहक ‘माया जाल’ फैले हैं।

अगर मुंशी प्रेमचंद द्वारा निर्मित पात्र अमर हैं, तो उनकी असीम लेखन प्रतिभा व गहन अवलोकन शक्ति के कारण। क्या हम इस आपा-धापी के युग में अभी भी अपनी संवेदनशीलता को संजोए हुए हैं ? अगर इसकी जाँच पड़ताल करनी है तो, एक ‘परीक्षा’ देनी होगी। प्रेमचंद के किसी उपन्यास या कहानी की पुस्तक को पढ़ना होगा। पढ़ते-पढ़ते क्या आपकी ऑंखें नम हुईं ? क्या ‘गोदान’ के होरी के ‘अंतिम समय’ आपके मन में उथल-पुथल मची ? क्या ‘निर्मला’ का एक अधेड़ के साथ विवाह का प्रसंग पढ़ने पर आपको उसकी विवशता जान अपनी किसी विवशता का आभास हुआ ? अगर ऐसा है तो, आपकी रगों में लाल-नीला खून ही नहीं, अपितु जीवंत संवेदना की लहरें भी दौड़ रही हैं। आप एक भावनाशील इंसान हैं। समाज परिवर्तन हेतु हमें ऐसे ही ‘जिन्दादिल’ इंसानों की जरुरत है।

© डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 469 ⇒ माड़ साब ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “माड़ साब।)

?अभी अभी # 469 ⇒ माड़ साब? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह सरकारी दफ्तरों में एक किस्म बड़े बाबू की होती है, ठीक उसी तरह सरकारी स्कूलों में शिक्षक की एक किस्म होती है, जिसे माड़ साब कहते हैं। बड़े बाबू, नौकरशाही का एक सौ टका शुद्ध, टंच रूप है, जिसमें रत्ती भर भी मिलावट नहीं, जब कि शिक्षा विभाग में माड़ साब जैसा कोई शब्द ही नहीं, कोई पद ही नहीं।

माड़ साब, एक शासकीय प्राथमिक अथवा माध्यमिक विद्यालय के अध्यापक यानी शिक्षक महोदय, जिन्हें कभी मास्टर साहब भी कहा जाता था, का अपभ्रंश यानी, बिगड़ा स्वरूप है। ।

हमें आज भी याद है, हमारी प्राथमिक स्कूल की नर्सरी राइम, ए, बी, सी, डी, ई, एफ, जी, क्लास में बैठे पंडित जी … (रिक्त स्थानों की पूर्ति आप ही कर लीजिए) होती थी। यह तब की बात है, जब छम छम छड़ी की मार से, विद्या धम धम आती थी। बेचारे पंडित जी, कब मास्टर जी हो गए, और जब अधेड़ होते होते, माड़ साब हो गए, उन्हें ही पता नहीं चला।

इस प्राणी में यह खूबी है, कि यह केवल सरकारी स्कूलों में ही नजर आता है। हायर सेकंडरी के कुछ वरिष्ठ शिक्षक लेक्चरर अथवा व्याख्याता कहलाना अधिक पसंद करते हैं। आजकल प्राइवेट स्कूल, पब्लिक स्कूल कहलाए जाने लगे हैं, वहां सर अथवा टीचर किस्म के शिक्षक उपलब्ध होते हैं, जिनकी तनख्वाह माड़ साहब जितनी तो नहीं होती, लेकिन जिम्मेदारी धड़ी भर होती है। ।

वैसे यहां सरकारी स्कूलों में शिक्षिका भी होती हैं, जिन्हें कभी सम्मान से बहन जी कहा जाता था। लेकिन जब बहन जी भी घिस घिस कर भैन जी कहलाने लगी, तो उन्हें सम्मान से मैडम अथवा टीचर जी कहकर संबोधित किया जाने लगा।

मैडम शब्द के बारे में भी हमारे कार्यालयों में बड़ी भ्रांति है। शिक्षा के क्षेत्र से प्रचलित यह शब्द किसी विवाहित महिला के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए, लेकिन माड़ साब की तरह और मिस्टर की तरह मैडम शब्द हर कामकाजी महिला, और एक आम शिक्षिका के लिए प्रयुक्त होने लग गया। ।

एक बार स्थिति बड़ी विचित्र पैदा हो गई, जब किसी बैंक में एक रिटायर्ड फौजी पेंशनर ने किसी महिला कर्मचारी से पूछ लिया, are you married ? उस बेचारी कुछ दिन पहले ही लगी लड़की ने कह दिया, no Sir, I am still a bachelor ! इस पर उस पेंशनर ने आश्चर्य व्यक्त किया, why then, these people call you Madam, I dont understand. आपके साथी आपको मैडम क्यों कहते हैं, मुझे समझ में नहीं आता।

वैसे मास्टर शब्द को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए ! जो किसी भी विधा में, अपने इल्म में दक्ष हो, उसे मास्टर कहा जाता है। मास्टर्स की डिग्री वैसे भी बैचलर्स की डिग्री से बड़ी होती है। ।

संगीत और नृत्य में मास्टर जी, किसी उस्ताद अथवा गुरु से उन्नीस नहीं होते।

अध्यात्म के क्षेत्र में जो अदृश्य शक्तियां अमृत काल में, साधकों की सहायता करती हैं, उन्हें भी मास्टर ही कहते हैं। महावतार बाबा, युक्तेश्वर गिरी और लाहिड़ी महाशय की गिनती ऐसे ही मास्टर्स में होती है।

माड़ साब के साथ ऐसा कोई धर्मसंकट नहीं। उन्हें माड़ साब सुनने की वैसे ही आदत है, जैसे एक बड़े बाबू आजीवन घर और बाहर बड़े बाबू ही कहलाते चले आ रहे हैं। मेरे कई पारिवारिक और घनिष्ठ मित्रों को मुझे भी मजबूरन माड़ साब ही कहना पड़ता है। अगर कभी गलती से उनका नाम लेने में भी आ गया, तो सामने वाला सुधार कर देता है, अच्छा वही माड़ साब ना। ।

रिश्तों पर आजकल घनघोर संकट चल रहा है। प्रेम के संबंध और रिश्ते गायब होते जा रहे हैं, रिटायर्ड अकाउंटेंट और शिक्षाकर्मी और शिक्षाविद् जैसे भारी भरकम शब्द अधिक प्रचलन में है। कल ही मैने अपने एक प्रिय माड़ साब को खोया है, ईश्वर इन रिश्तों की रक्षा करे ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 100 – देश-परदेश – हिम्मत-ए-मर्दां मदद-ए-ख़ुदा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

आलेख # 100 ☆ देश-परदेश – हिम्मत-ए-मर्दां मदद-ए-ख़ुदा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज के समाचार पत्र में मुख्य बिंदु के रूप में प्रकाशित पेरिस में हुए ओलंपिक का मंथन पढ़ा। अच्छा लगा, हमारे पैराओलिंपिक खिलाड़ियों का प्रदर्शन साधारण ओलंपियंस के मुकाबले कहीं बेहतर रहा है।

मन में जिज्ञासा जाग्रत हुई, ऐसा क्यों हो रहा है? सभी इस देश की माटी से जुड़े हुए हैं। प्रशिक्षण सुविधा ओलंपियन खिलाड़ियों के लिए भी बेहतर हैं। वो बिना किसी के निजी सहयोग से एक स्थान से दूसरे स्थान आसानी से भी आ जा सकते हैं। पैराओलिंपियाई खिलाड़ी को समाज में भी उचित सम्मान नहीं मिलता हैं।

आशा करते हैं, देश की सरकार उनका भी अभिनंदन करेगी, जन मानस भी उनकी वापसी पर उतना ही स्वागत सत्कार करेगा, जितना विनेश फोगट का हुआ था, या हमारे क्रिकेटर का भी होता है। सदी के महानायक उनको भी केबीसी में आमंत्रित कर सकते हैं। इन खिलाड़ियों को भी उद्योग जगत अपने उत्पाद का विज्ञापन करवा कर, अन्य को भी प्रेरित कर सकते हैं। सच्चाई, तो आने वाला समय ही बता पाएगा।

इस बाबत कुछ प्रबुद्ध मित्रों से बातचीत भी हुई, अंत में ये निष्कर्ष निकला कि हम अधिकतर भारतीय कठिन समय/ परिस्थितियों आदि में अपनी योग्यता का बेहतर प्रदर्शन करते हैं। ये सब पैराओलैंपियन बहुत कठिनाई से अपना जीवन व्यतीत करते हैं। हिम्मत और हौंसला बुलंद हो तो कुछ भी मुमकिन हो सकता हैं। हमारे यहां वैसे भी कहते है” मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 468 ⇒ बच्चे, मन के सच्चे ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बच्चे, मन के सच्चे।)

?अभी अभी # 468 ⇒ बच्चे, मन के सच्चे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बच्चे जब पैदा होते हैं, तो भगवान का रूप होते हैं, उनमें कोई विकार नहीं होता, अच्छा बुरा, सच झूठ, बड़ा छोटा, और पाप पुण्य से वे परे रहते हैं। लेकिन जैसे जैसे वे बड़े होते जाते हैं, उनकी लीला पर भी माया का प्रभाव पड़ने लगता है।

कौन माता पिता नहीं चाहते, उनकी संतान बड़ी होकर अपने कुल और वंश का नाम ऊंचा करे। उसकी अच्छी परवरिश होती है और उसे अच्छे संस्कार दिए जाते हैं। शिक्षा दीक्षा और नैतिक मूल्यों का भी पाठ पढ़ाया जाता है। सच बोलने की तो उसको एक तरह की घुट्टी ही पिलाई जाती है। फिर अचानक ऐसा क्या हो जाता है कि अम्मा देख, तेरा मुंडा बिगड़ा जाए, वाली नौबत आ जाती है। ।

बच्चे शैतानी करते हैं, और उन्हें बार बार उनके भले के लिए टोका भी जाता है, क्योंकि बालक अबोध होता है, उसे अच्छे बुरे का भान नहीं रहता। नन्हा सा बालक, मौका देखते ही मिट्टी मुंह में भर लेता है, मिट्टी क्या उसका बस चले तो वह सांप बिच्छू भी मुंह में भर ले। हर चीज उसको मुंह में लेने की आदत जो होती है।

समझाने, पुचकारने और जरूरत पड़ने पर उसे डांटा भी जाता है, और मूसल से बांधा भी जाता है। माखन चोरी और झूठ जैसी बाल लीलाएं तो कन्हैया भी करते थे, अगर हमारा कन्हैया करता है, तो क्या गलत करता है। ।

लेकिन ऐसा नहीं होता। बच्चों को सबक सीखने पाठशाला भी जाना पड़ता है, और शैतानी करने पर दंडित भी होना पड़ता है। बढ़ती उम्र, संगति और परिवेश का असर तो उस पर पड़ता ही है।

हर बच्चा हरिश्चंद्र का अवतार नहीं होता। झूठ बोलना वह हम से ही सीखता है। बच्चों से मार मारकर सच उगलवाया जाता है। ज्यादा लाड़ प्यार और अधिक सख्ती, दोनों ही इस स्थिति में काम नहीं आती। बढ़ती उम्र में भी अगर आपका बालक सुशील, सुसंस्कृत और आज्ञाकारी है तो आप एक खुशनसीब अभिभावक हैं।।

बाल मन बड़ा विचित्र होता है। बढ़ती उम्र के बच्चों की अपनी समस्या होती है, जहां एक कुशल पेरेंटिंग की जरूरत होती है। बाल मनोविज्ञान समझना इतना आसान भी नहीं। मन्नू भंडारी का आपका बंटी बाल मनोविज्ञान का एक अनूठा दस्तावेज है। माता पिता के टूटते संबंधों का असर बालक पर भी पड़ता है। बाल संवेदना आपका बंटी का मूल विषय है।

नई पौद ही तो गुलशन को गुलजार करती है। एक एक बच्चा इस देश की रीढ़ की हड्डी है। पालक, शिक्षक, मित्र, पड़ोसी, रिश्तेदार सभी की इसमें भागीदारी होती है। केवल सच्चाई और ईमानदारी ही बच्चों के चरित्र का निर्माण करती है। बच्चे झूठ क्यों बोलते हैं, यह प्रश्न आज भी विचारणीय है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 256 – उड़ जाएगा हंस अकेला… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 256 उड़ जाएगा हंस अकेला… ?

आनंदलोक में विचरण कर रहा हूँ। पंडित कुमार गंधर्व का सारस्वत कंठ हो और दार्शनिक संत कबीर का शारदीय दर्शन तो इहलोक, आनंदलोक में परिवर्तित हो जाता है। बाबा कबीर के शब्द चैतन्य बनकर पंडित जी के स्वर में प्रवाहित हो रहे हैं,

उड़ जाएगा हंस अकेला

जग दर्शन का मेला…!

आनंद, चिंतन को पुकारता है। चिंतन की अंगुली पकड़कर विचार हौले-हौले चलने लगता है। यह यात्रा कहती है कि ‘मेल’ शब्द से बना है ‘मेला।’ मिलाप का साकार रूप है मेला। दर्शन जगत को मेला कहता है क्योंकि मेले में व्यक्ति थोड़े समय के लिए साथ आता है, मिलाप का आनंद ग्रहण करता है, फिर लौट जाता है अपने निवास। लौटना ही पड़ता है क्योंकि मेला किसीका निवास नहीं हो सकता। गंतव्य के अलावा कोई विकल्प नहीं।

विचार अब चलना सीख चुका। उसका यौवनकाल है। उसकी गति अमाप है। पलक झपकते जिज्ञासा के द्वार पर आ पहुँचा है।  जिज्ञासा पूछती है कि महात्मा कबीर ने ‘हंस’ शब्द का ही उपयोग क्यों किया? वे किसी भी पखेरू के नाम का उपयोग कर सकते थे फिर हंस ही क्यों? चिंतन, मनन समयबद्ध प्रक्रिया नहीं हैं। मनीषी अविरत चिंतन में डूबे होते हैं। समष्टि के हित का भाव ऐसा, सात्विकता ऐसी कि वे मुमुक्षा से भी ऊपर उठ जाते हैं। फलत: जो कुछ वे कहते हैं, वही विचार बन जाता है। अपने शब्दों की बुनावट से उपरोक्त रचना में द्रष्टा कबीर एक अद्वितीय विचार दे जाते हैं।

विचार कीजिएगा कि हंस सामान्य पक्षियों में नहीं है। हंस श्वेत है, शांत वृत्ति का है। वह सुंदर काया का स्वामी है। आत्मा भी ऐसी ही है, सुंदर, श्वेत, शांत, निर्विकार। हंस गहरे पानी में तैरता है तो हज़ारों फीट ऊँची उड़ान भी भरता है। आकाशमार्ग की यात्रा हो अथवा वैतरणी पार करनी हो, उड़ना और तैरना दोनों में कुशलता वांछनीय है।

हंस पवित्रता का प्रतीक है। शास्त्रों में हंस की हत्या, पिता, गुरु या देवता की हत्या के तुल्य मानी गई है।

हंस विवेकी है। लोकमान्यता है कि दूध में जल मिलाकर हंस के सामने रखा जाए तो वह दूध और जल का पृथक्करण कर लेता है। संभवत:  ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ मुहावरा इसी संदर्भ में अस्तित्व में आया। हंस के नीर-क्षीर विवेक का भावार्थ है कि स्वार्थ, सुविधा या लाभ की दृष्टि से नहीं अपितु अपनी बुद्धि, मेधा, विचारशक्ति के माध्यम से उचित, अनुचित को समझना। मनुष्य जब भी कुछ अनुचित करना चाहता है तो उसे चेताने के लिए उसके भीतर से ही एक स्वर उठता है। यह स्वर नीर-क्षीर विवेक का है, यह स्वर हंस का है। हंस को माँ सरस्वती के वाहन के रूप में मिली मान्यता अकारण नहीं है।

कारणमीमांसा से उपजे अर्थ का कुछ और विस्तार करते हैं। दिखने में हंस और बगुला दोनों श्वेत हैं। मनुष्य योनि हंस होने की संभावना है। विडंबना है कि इस संभावना को हमने गौण कर दिया है।  हम में से अधिकांश बगुला भगत बने जीवन बिता रहे हैं। जीवन के हर क्षेत्र में बगुला भगतों की भरमार है। हंस होने की संभावना रखते हुए भी भी बगुले जैसा जीना, जीवन की शोकांतिका है।

मनुष्य को बुद्धि का वरदान मिला है। इस वरदान के चलते ही वह नीर-क्षीर विवेक का स्वामी है। विवेक होते हुए भी अपनी सुविधा के चलते ढुलमुल मत रहो। स्पष्ट रहो। सत्य-असत्य के पृथक्करण का साहस रखो। यह साहस तुम्हें अपने भीतर पनपते बगुले से मुक्ति दिलाएगा, तुम्हारा हंसत्व निखरता जाएगा। जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य जी कहते हैं कि महर्षि वेदव्यास जब महाभारत का वर्णन करते हैं तो पांडवों का उदात्त चरित्र उभरता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वे पांडवों के प्रवक्ता हैं। सनद रहे कि महर्षि वेदव्यास सत्य के प्रवक्ता हैं।

अपनी एक कविता स्मृति में कौंध रही है,

मेरे भीतर फुफकारता है

काला एक नाग,

चोरी छिपे जिसे रोज़ दूध पिलाता हूँ,

ओढ़कर चोला राजहंस का

फिर मैं सार्वजनिक हो जाता हूँ…!

दिखावटी चोले के लिए नहीं अपितु उजला जीवन जिओ अपने भीतर के हंस के लिए। स्मरण रहे, वह समय भी आएगा जब हंस को उड़ना होगा सदा-सर्वदा के लिए। इस जन्म की अंतिम उड़ान से पहले अपने हंस होने को सिद्ध कर सको तो जन्म सफल है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 गणेश चतुर्थी तदनुसार आज शनिवार 7 सितम्बर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार मंगलवार 17 सितम्बर 2024 तक चलेगी।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है- ॐ गं गणपतये नमः। 🕉️

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 467 ⇒ हरतालिका तीज ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हरतालिका तीज।)

?अभी अभी # 467 हरतालिका तीज? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज गणेश चतुर्थी है, कल हरतालिका थी। बचपन में हम इसे हड़ताली तीज कहते थे, क्योंकि इस दिन घर में महिलाओं की खाने पीने की छुट्टी रहती थी। हमारे भारतवर्ष में, वर्ष भर में इतने व्रत उपवास और तीज त्योहार होते हैं कि शायद ही कोई दिन खाली जाता होगा।

कुछ विशेष दिनों को छोड़कर मुझे याद नहीं रहता, आज कौन सी तिथि है। यही हाल हमारी धर्मपत्नी जी का है, उन्हें सभी तिथि, वार और त्योहार तो कंठस्थ हैं, लेकिन अगर पूछा जाए, आज तारीख क्या है, तो वे अखबार की ओर नजरें दौड़ाती हैं। ।

वार त्योहार और तिथि का तो यह हाल है कि आप बस गिनते जाओ गिनती की तरह। गुड़ी पाड़वा, भाई दूज, सातोड़ी तीज, गणेश चतुर्थी, कभी नागपंचमी तो कभी ऋषि पंचमी, बैंगन छठ, सीतला सप्तमी, जन्माष्टमी, विजया दशमी, डोल ग्यारस/देव उठनी ग्यारस, बज बारस, धनतेरस, अनंत चतुर्दशी, और गुरु/बुद्ध पूर्णिमा अथवा सर्व पितृ अमावस्या। मजाल है एक तिथि खाली छूट जाए। किसी का आज श्रावण सोमवार, किसी का मंगलवार तो किसी का बुधवार का व्रत। गुरुवार को एक टाइम, शुक्र है शुक्रवार बच गया। फिर शनिवार का व्रत। एकादशी कैसे भूल सकते हैं। बस, संडे ही ऑफ समझिए।

यों तो महिलाओं के लिए सभी त्योहार और व्रत उपवास महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन करवा चौथ और हरतालिका तीज की बात ही कुछ और है क्योंकि ये दोनों व्रत वे हमारे लिए करती हैं। हरतालिका व्रत तो कुंवारी कन्याएं भी कर सकती हैं ताकि उन्हें शिव जी जैसा पति मिल सके। पुरुष को सब कुछ पका पकाया ही मिल जाता है।

उसे अच्छी पत्नी पाने के लिए इतने पापड़ नहीं बेलने पड़ते। ।

निर्जला व्रत किसे कहते हैं, बाप रे !आदमी का तो गुटका नहीं छूटता, वह क्या व्रत करेगा। इसे कहते हैं व्रत और निष्ठा ! विष्णु भगवान का ऑफर ठुकरा दिया पार्वती जी ने, शिव जी को पाने के लिए। बात वही, लेकिन इसमें गूढ़ अर्थ है, आप नहीं समझोगे। दिल लगा जब शिव जी से, तो विष्णु जी क्या चीज हैं। यहां तो पुरुष सिर्फ दहेज का माल देखता है, वह क्या समझे, गुण क्या चीज होती है।

आज एक आदर्श पुरुष नारी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर व्रत उपवास भले ही कर ले, उनके साथ हरतालिका और करवा चौथ का व्रत भी रख ले, फिर भी उसकी निष्ठा और समर्पण में वह बात नहीं जो एक भारतीय नारी में है। इतना धर्मपरायण पुरुष नहीं हो सकता कि रात भर गीत गाता हुआ जागरण करे। उसे नौकरी धंधे भी संभालना है। उसका कंधा बड़ा है, भले ही पत्नी better half हो। ।

पुरुष इतना लालची है कि जब वह इश्वर को अपने जप तप से प्रसन्न कर लेता है तो वरदान में धन, संपत्ति और औलाद मांगता है, जब कि स्त्री इतनी आत्म संतुष्ट होती है, कि ईश्वर से वह, और कुछ नहीं, बस एक अच्छा वर मांगकर ही संतुष्ट हो लेती है। मांग के साथ तुम्हारा, मैने मांग लिया संसार। अब तो मांग भरो सजना।

पुरुष की अपेक्षाओं का कोई अंत नहीं। उसे तो अपनी होने वाली वधू में भी एक सर्वगुण सम्पन्न स्त्री की तलाश होती है।

हमें भी अपनी होने वाली धर्मपत्नी से कई आशाएं, अपेक्षाएं और अरमान थे। हम चाहते थे, उसके भी कुछ सपने हों, अरमान हों, अपने पति से भी कुछ अपेक्षाएं हों।

इसी उद्देश्य से जब हमने विवाह से पहले उनके सपनों, अरमानों और लक्ष्य के बारे में जानकारी ली, तो उनका एक ही जवाब था, मेरा तो जीवन का एक ही सपना है, मुझे एक अच्छा पति मिल जाए बस। हम समझ गए, तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा और तुम्हीं देवता वाला मामला है यह तो। समर्पण नहीं, टोटल सरेंडर। दिल के अरमाॅं (खुशी के?) आंसुओं में घुल गए। ।

अगर हमारी महिलाएं इतनी धार्मिक और पतिव्रता नहीं हों, तो बेचारे संत महात्माओं के कथा प्रवचन कौन सुने। शिव कथा, भागवत कथा, अथवा नानी बाई का मायरा, श्रोता अधिकतर महिलाएं ही होती हैं। कहीं कहीं तो सास बहू एक साथ भी देखी जा सकती हैं।

पुरुष जैसा भी हो चलेगा।

बस संसार ऐसा ही चलना चाहिए। बेहतर की उम्मीद पुरुष से ही की जा सकती है। नारी ने तो घर के बाहर भी अपनी उपयोगिता सिद्ध ही नहीं कर दी, अपना लोहा भी मनवा लिया है। आधुनिकता की कितनी भी हवा बह ले, वह एक भारतीय नारी के आदर्श, संस्कार, और समर्पण को कम नहीं कर सकती। गृहस्थी की गाड़ी दो पहिये पर ही चलेगी, चाहे घर में साइकिल हो अथवा चार पहिये का वाहन। निष्ठा और समर्पण ही भारतीय नारी का वास्तविक आभूषण है, अनमोल गहना है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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