हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बुंदेली दिवस विशेष – बुंदेली और बुंदेली विद्वानो को सुप्रतिष्ठित करने की आवश्यकता ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

बुंदेली दिवस विशेष 
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।

स्व डॉ पूरन चंद श्रीवास्तव जी के 104 वे जन्म दिवस  पर उन्हें सादर नमन।  इसअवसर पर प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक विशेष आलेख बुंदेली और बुंदेली विद्वानो को सुप्रतिष्ठित करने की आवश्यकता”।  विदित हो कि स्व डॉ पूर्ण चंद श्रीवास्तव जी का जन्मदिवस बुंदेली दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस समसामयिक आलेख के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार। )

☆ बुंदेली दिवस विशेष – बुंदेली और बुंदेली विद्वानो को सुप्रतिष्ठित करने की आवश्यकता ☆

ईसुरी बुंदेलखंड के सुप्रसिद्ध लोक कवि हैं,उनकी रचनाओं में ग्राम्य संस्कृति एवं सौंदर्य का चित्रण है. उनकी ख्‍याति फाग के रूप में लिखी गई रचनाओं के लिए सर्वाधिक है,  उनकी रचनाओं में बुन्देली लोक जीवन की सरसता, मादकता और सरलता और रागयुक्त संस्कृति की रसीली रागिनी से जन मानस को मदमस्त करने की क्षमता है.

बुंदेली बुन्देलखण्ड में बोली जाती है. यह कहना कठिन है कि बुंदेली कितनी पुरानी बोली हैं लेकिन ठेठ बुंदेली के शब्द अनूठे हैं जो सादियों से आज तक प्रयोग में आ रहे हैं. बुंदेलखंडी के ढेरों शब्दों के अर्थ बंगला तथा मैथिली बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं. प्राचीन काल में राजाओ के परस्पर व्यवहार में  बुंदेली में पत्र व्यवहार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख तक सुलभ  है. बुंदेली में वैविध्य है, इसमें बांदा का अक्खड़पन है और नरसिंहपुर की मधुरता भी है. वर्तमान बुंदेलखंड क्षेत्र में अनेक जनजातियां निवास करती थीं. इनमें कोल, निषाद, पुलिंद, किराद, नाग, सभी की अपनी स्वतंत्र भाषाएं थी, जो विचारों अभिव्यक्तियों की माध्यम थीं. भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र में भी बुंदेली बोली का उल्लेख मिलता है.  सन एक हजार ईस्वी में बुंदेली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरण प्राप्त होते हैं. जिसमें देशज शब्दों की बहुलता थी. पं॰ किशोरी लाल वाजपेयी, लिखित हिंदी शब्दानुशासन के अनुसार हिंदी एक स्वतंत्र भाषा है, उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से भिन्न है. बुंदेली प्राकृत शौरसेनी तथा संस्कृत जन्य है.  बुंदेली की अपनी चाल,  प्रकृति तथा वाक्य विन्यास की अपनी मौलिक शैली है. भवभूति उत्तर रामचरित के ग्रामीणों की भाषा विंध्‍येली प्राचीन बुंदेली ही थी. आशय मात्र यह है कि बुंदेली एक प्राचीन, संपन्न, बोली ही नही परिपूर्ण लोकभाषा है. आज भी बुंदेलखण्ड क्षेत्र में घरो में बुंदेली खूब बोली जाती है. क्षेत्रीय आकाशवाणी केंद्रो ने इसकी मिठास संजोई हुयी हैं.

ऐसी लोकभाषा के उत्थान, संरक्षण व नव प्रवर्तन का कार्य तभी हो सकता है जब क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों,संस्थाओ, पढ़े लिखे विद्वानो के  द्वारा बुंदेली में नया रचा जावे. बुंदेली में कार्यक्रम हों. जनमानस में बुंदेली के प्रति किसी तरह की हीन भावना न पनपने दी जावे, वरन उन्हें अपनी माटी की इस सोंधी गंध, अपनापन ली हुई भाषा के प्रति गर्व की अनुभूति हो. प्रसन्नता है कि बुंदेली भाषा परिषद, गुंजन कला सदन, वर्तिका जैसी संस्थाओ ने यह जिम्मेदारी उठाई हुई है. प्रति वर्ष १ सितम्बर को स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जी के जन्म दिवस के सुअवसर पर बुंदेली पर केंद्रित अनेक आयोजन गुंजन कला सदन के माध्यम से होते हैं. स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जी के जन्म दिवस को बुंदेली दिवस के रूप में मनाया जाता है।

आवश्यक है कि बुंदेली के विद्वान लेखक, कवि, शिक्षाविद स्व पूरन चंद श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व, विशाल कृतित्व से नई पीढ़ी को परिचय कराया जाना चाहिए. जमाना इंटरनेट का है. इस कोरोना काल में सांस्कृतिक आयोजन तक यू ट्यूब, व्हाट्सअप ग्रुप्स व फेसबुक के माध्यम से हो रहे हैं, किंतु बुंदेली के विषय में, उसके लेखकों, कवियों, साहित्य के संदर्भ में इंटरनेट पर जानकारी नगण्य है.

स्व पूरन चंद श्रीवास्तव जी का जन्म १ सितम्बर १९१६ को ग्राम रिपटहा, तत्कालीन जिला जबलपुर अब कटनी में हुआ था. कायस्थ परिवारों में शिक्षा के महत्व को हमेशा से महत्व दिया जाता रहा है, उन्होने अनवरत अपनी शिक्षा जारी रखी, और पी एच डी की उपाधि अर्जित की. वे हितकारिणी महाविद्यालय जबलपुर से जुड़े रहे और विभिन्न पदोन्तियां प्रापत करते हुये प्राचार्य पद से १९७६ में सेवानिवृत हुये. यह उनका छोटा सा आजीविका पक्ष था. पर इस सबसे अधिक वे मन से बहुत बड़ साहित्यकार थे. बुंदेली लोक भाषा उनकी अभिरुचि का प्रिय विषय था. उन्होंने बुंदेली में और बुंदेली के विषय में खूब लिखा. रानी दुर्गावती बुंदेलखण्ड का गौरव हैं. वे संभवतः विश्व की पहली महिला योद्धा हैं जिनने रण भूमि में स्वयं के प्राण न्यौछावर किये हैं. रानी दुर्गावती पर श्रीवास्तव जी का खण्ड काव्य बहु चर्चित महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है. भोंरहा पीपर उनका एक और बुंदेली काव्य संग्रह है. भूगोल उनका अति प्रिय विषय था और उन्होने भूगोल की आधा दर्जन पुस्तके लिखि, जो शालाओ में पढ़ाई जाती रही हैं. इसके सिवाय अपनी लम्बी रचना यात्रा में पर्यावरण, शिक्षा पर भी उनकी किताबें तथा विभिन्न साहित्यिक विषयों पर स्फुट शोध लेख, साक्षात्कार, अनेक प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओ में प्रकाशन आकाशवाणी से प्रसारण तथा संगोष्ठियो में सक्रिय भागीदारी उनके व्यक्तित्व के हिस्से रहे हैं. मिलन, गुंजन कला सदन, बुंदेली साहित्य परिषद, आंचलिक साहित्य परिषद जैसी अनेकानेक संस्थायें उन्हें सम्मानित कर स्वयं गौरवांवित होती रही हैं. वे उस युग के यात्री रहे हैं जब आत्म प्रशंसा और स्वप्रचार श्रेयस्कर नही माना जाता था, एक शिक्षक के रूप में उनके संपर्क में जाने कितने लोग आते गये और वे पारस की तरह सबको संस्कार देते हुये मौन साधक बने रहे.

उनके कुछ चर्चित बुंदेली  गीत उधृत कर रहा हूं…

कारी बदरिया उनआई……. ️

कारी बदरिया उनआई,  हां काजर की झलकार .

सोंधी सोंधी धरती हो गई,  हरियारी मन भाई,खितहारे के रोम रोम में,  हरख-हिलोर समाई .ऊम झूम सर सर-सर बरसै,  झिम्मर झिमक झिमकियाँ .लपक-झपक बीजुरिया मारै,  चिहुकन भरी मिलकियां. रेला-मेला निरख छबीली- टटिया टार दुवार,कारी बदरिया उनआई,हां काजर की झलकार .

औंटा बैठ बजावै बनसी,  लहरी सुरमत छोरा .  अटक-मटक गौनहरी झूलैं,  अमुवा परो हिंडोरा .खुटलैया बारिन पै लहकी,  त्योरैया गन्नाई .खोल किवरियाँ ओ महाराजा  सावन की झर आई  ऊँचे सुर गा अरी बुझाले,  प्रानन लगी दमार,कारी बदरिया उनआई,  हां काजर की झलकार .

मेंहदी रुचनियाँ केसरिया,  देवैं गोरी हाँतन .हाल-फूल बिछुआ ठमकावैं  भादों कारी रातन .माती फुहार झिंझरी सें झमकै  लूमै लेय बलैयाँ-घुंचुअंन दबक दंदा कें चिहुंकें,  प्यारी लाल मुनैयाँ .हुलक-मलक नैनूँ होले री,  चटको परत कुँवार,कारी बदरिया उनआई,  हाँ काजर की झलकार .

इस बुंदेली गीत के माध्यम से उनका पर्यावरण प्रेम स्पष्ट परिलक्षित होता है.

इसी तरह उनकी  एक बुन्देली कविता में जो दृश्य उनहोंने प्रस्तुत किया है वह सजीव दिखता है.

बिसराम घरी भर कर लो जू…————-

बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां,ढील ढाल हर धरौ धरी पर,  पोंछौ माथ पसीना .तपी दुफरिया देह झांवरी,  कर्रो क्वांर महीना .भैंसें परीं डबरियन लोरें,   नदी तीर गई गैयाँ .बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां .

सतगजरा की सोंधी रोटीं,  मिरच हरीरी मेवा .खटुवा के पातन की चटनी,  रुच को बनों कलेवा .करहा नारे को नीर डाभको,  औगुन पेट पचैयाँ .बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां .

लखिया-बिंदिया के पांउन उरझें,  एजू डीम-डिगलियां .हफरा चलत प्यास के मारें,  बात बड़ी अलभलियां .दया करो निज पै बैलों पै,  मोरे राम गुसैंयां .बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां .

 वे बुन्देली लोकसाहित्य एवं भाषा विज्ञान के विद्वान थे. सीता हरण के बाद श्रीराम की मनः स्थिति को दर्शाता उनका एक बुन्देली गीत यह स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि राम चरित मानस के वे कितने गहरे अध्येता थे.

अकल-विकल हैं प्रान राम के—————-

अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ .फिरैं नाँय से माँय बिसूरत,  करें झाँवरी मुइयाँ .

पूछत फिरैं सिंसुपा साल्हें,  बरसज साज बहेरा .धवा सिहारू महुआ-कहुआ,  पाकर बाँस लमेरा .

वन तुलसी वनहास माबरी,  देखी री कहुँ सीता .दूब छिछलनूं बरियारी ओ,  हिन्नी-मिरगी भीता .

खाई खंदक टुंघ टौरियाँ,   नादिया नारे बोलौ .घिरनपरेई पंडुक गलगल,  कंठ – पिटक तौ खोलौ  .ओ बिरछन की छापक छंइयाँ,  कित है जनक-मुनइयाँ ?अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ .

उपटा खांय टिहुनिया जावें,  चलत कमर कर धारें .थके-बिदाने बैठ सिला पै,  अपलक नजर पसारें .

मनी उतारें लखनलाल जू,  डूबे घुन्न-घुनीता .रचिये कौन उपाय पाइये,  कैसें म्यारुल सीता .

आसमान फट परो थीगरा,  कैसे कौन लगावै .संभु त्रिलोचन बसी भवानी,  का विध कौन जगावै .कौन काप-पसगैयत हेरें,  हे धरनी महि भुंइयाँ .अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ .

बुंदेली भाषा का भविष्य नई पीढ़ी के हाथों में है, अब वैश्विक विस्तार के सूचना संसाधन कम्प्यूटर व मोबाईल में निहित हैं, समय की मांग है कि स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जैसे बुंदेली के विद्वानो को उनका समुचित श्रेय व स्थान, प्रतिष्ठा मिले व बुंदेली भाषा की व्यापक समृद्धि हेतु और काम किया जावे.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #60 ☆ सेल्फ क्वारंटीन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – सेल्फ क्वारंटीन ☆

लॉकडाउन आरम्भ हुआ। पहले लगा, थोड़े समय की बात है। फिर पूर्णबंदी की अवधि बढ़ती गई। अनेकजन को लगता था कि यूँ समय कैसे कटेगा?

समय बीतता गया। कभी विचार किया कि इस समय को बिताने(!) में आभासी दुनिया का कितना बड़ा हाथ रहा! वॉट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, टेलिग्राम पर कितना समय बीता। ब्लॉगिंग, मेलिंग और ऑनलाइन मीटिंग एपस् ने कितना समय लिया। फिर आभासी दुनिया से ऊब हो चली। जान लिया कि हरेक स्वमग्न है यहाँ। आभासी की खोखली वास्तविकता समझ आने लगी।

विडंबना यह है कि जिसे वास्तविक दुनिया समझते हो, वह भी ऐसी ही आभासी है।

सफलता, पद, प्रतिष्ठा, धन, संपदा, लाभ पाने की इच्छा, यही सब छिपा है इस आभास में भी। तुमसे थोड़ी मात्रा में भी लाभ मिल सकने की संभावना बनती है तो जमावड़ा है तुम्हारे इर्द-गिर्द। …और जमावड़े की आलोचना क्यों करते हो, ध्यान से देखो, तुम भी वहीं डटे हो जहाँ से कुछ पा सकते हो। तुम अलग नहीं हो। वह अलग नहीं है। मैं अलग नहीं हूँ। सारे के सारे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे। सारे के सारे स्वमग्न!

मानसिक व्याधि है स्वमग्नता। है कोई कुछ नहीं पर सोचता है कि वह न हो तो जगत का क्या हो!

चलो प्रयोग करें। एक शब्द चलन में है इन दिनों,’क्वारंटीन’.., एकांतवास। कुछ दिन वास्तविक अर्थ में सेल्फ क्वारंटीन करो। विचार करो कि ऐसे कितने साथी हैं जो तन, मन, धन तीनों को खोकर भी तुम्हारा साथ दे सकेंगे? सिक्के को उलटकर अपना विश्लेषण भी इसी कसौटी पर कर लेना। सारे रिश्तों की पोल खुल जाएगी।

स्वमग्नता से बाहर आने का मार्ग दिखाया है आपदा ने। अभी भी समय है चेतने का। अपने यथार्थ को जानने-समझने का। आभासी से वास्तविक में लौटने का।

जगत में ऐसे रहो जैसे कमल के पत्ते पर जल की बूँद।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 59 ☆ मैं शब्द तुम अर्थ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख मैं शब्द, तुम अर्थ । संभवतः जीवनसाथी के लिए “मैं शब्द तुम अर्थ/ तुम बिन मैं व्यर्थ” से बेहतर परिभाषा हो ही नहीं सकती। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 59 ☆

☆ मैं शब्द, तुम अर्थ 

एक नन्ही सी परिभाषा है, जीवन साथी की ‘मैं शब्द तुम अर्थ/ तुम बिन मैं व्यर्थ,’ परंतु आधुनिक युग में यह कल्पनातीत है। आजकल तो जीवन-साथी की परिभाषा ही बदल गई है…’जब तक आप एक-दूसरे की आकांक्षाओं पर खरा उतरें; भावनात्मक संबंध बने रहें; मौज-मस्ती से रह सकें’ उचित है, अन्यथा संबंध-निर्वहन की आवश्यकता नहीं, क्योंकि जीवन खुशी व आनंद से जीने का नाम है, ढोने का नाम नहीं। सो! तुरंत संबंध-विच्छेद के लिए आगे बढ़ें क्योंकि ‘तू नहीं और सही’ का आजकल सर्वाधिक प्रचलन है।

प्राचीन काल में विवाह को पति-पत्नी का सात जन्मों तक चलने वाला संबंध स्वीकारा जाता था। परंतु आजकल इसके मायने ही नहीं रहे। वैसे तो आज की युवा-पीढ़ी विवाह रूपी संस्था को नकार कर, ‘लिव-इन’ में रहना अधिक पसंद करती है। जब तक मन चाहे साथ रहो और जब मन भर जाए, अलग हो जाओ। आजकल लोग भरपूर ज़िंदगी जीने में विश्वास रखते हैं। ‘खाओ पीओ, मौज उड़ाओ’ उनके जीवन का लक्ष्य है। चारवॉक दर्शन में उनकी आस्था है। वे प्रतिबंधों में जीना पसंद नहीं करते।

शब्द ब्रह्म है; सृष्टि का सार है। शब्द और अर्थ का शाश्वत व चिरंतन संबंध है, क्योंकि शब्द में ही उसका अर्थ निहित होता है। ‘मैं शब्द, तुम अर्थ/ तुम बिन मैं व्यर्थ’ का जीवन में महत्व है। जिस प्रकार शब्द को अर्थ से अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार  पति-पत्नी को भी एक-दूसरे से अलग करने की कल्पना बेमानी थी, जिसका प्रमाण प्राचीन काल में पत्नी का पति के साथ जौहर के रूप में देखा जाता था। परंतु समय के साथ सती-प्रथा का अंत हुआ, क्योंकि पत्नी को ज़िदा जला देना सामाजिक बुराई थी। परंतु समय ने तेज़ी से करवट ली और संबंधों के रूपाकार में अप्रत्याशित परिवर्तन हुआ। लोग संबंधों को वस्त्रों की भांति बदलने लगे। वे अनचाहे संबंध- निर्वाह को कैंसर के रोग की भांति स्वीकारने लगे। जिस प्रकार एक अंग के कैंसर-पीड़ित होने पर, उसे शरीर से निकाल कर फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार यदि जीवन-साथी से विचार-वैषम्य हो, तो उसे जीवन से निकाल बाहर कर देना कारग़र उपाय समझा जाता है। यदि जीवन-साथी से संबंध अच्छे नहीं हैं, तो उन संबंधों को ज़बरदस्ती निभाने की क्या आवश्यकता है? तुरंत संबंध-विच्छेद उसका सर्वश्रेष्ठ व  सर्वोत्तम उपाय है; जिसका प्रमाण है… तलाक़ की संख्या में निरंतर इज़ाफा होना। पहले पति-पत्नी एक-दूसरे के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकते थे। एक के अभाव में अर्थात् न रहने पर दूसरे को जीवन निष्प्रयोजन अथवा निष्फल लगता था। परंतु आजकल यदि वे एक-दूसरे के साथ रहना पसंद नहीं करते। यदि उनमें विचार-वैषम्य है; वे तुरंत अलग हो जाते हैं।

आधुनिक युग में अहंनिष्ठ मानव आत्मविश्लेषण करना अर्थात् अपने अंतर्मन में झांकना व गुण-दोषों का विश्लेषण करना ही नहीं चाहता; स्वीकारने की उम्मीद रखना तो बहुत दूर की बात है। उसके हृदय में यह बात घर कर जाती है कि वह तो कोई ग़लती कर ही नहीं सकता तथा वह गुणों की खान है। सारे दोष तो दूसरे व्यक्ति अर्थात् सामने वाले में हैं। इसलिए उसे नहीं, प्रतिपक्ष को अपने भीतर सुधार लाने की आवश्यकता है। यदि वह समर्पण कर देता है, तो समस्या स्वतः समाप्त हो जाती है अर्थात् यदि पत्नी-पति के अनुकूल आचरण करने लगती है; कठपुतली की भांति उसके इशारों पर नाचने लगती है, तो दाम्पत्य संबंध सुचारू रूप से कायम रह सकता है, अन्यथा अंजाम आपके समक्ष है।

ज़िंदगी एक फिल्म की तरह है, जिसमें इंटरवल अर्थात् मध्यांतर नहीं होता; पता नहीं कब एंड अर्थात् समाप्त हो जाए। आजकल संबंध भी ऐसे ही हैं… कौन जानता है, कब अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाए। मुझे स्मरण हो रही है ऐसी ही एक घटना, जब विवाहोपरांत चंद घंटों में पति-पत्नी में संबंध- विच्छेद हो गया और पत्नी घर छोड़कर मायके चली गई। यदि आप कारण सुनेंगे, तो हैरान रह जाएंगे। प्रथम रात्रि को बार-बार फोन आने पर, पति का पत्नी से यह कहना कि ‘बहुत फोन आते हैं तुम्हारे’ और पत्नी का इसी बात पर तुनक कर पति से झगड़ा करना; उस पर संकीर्ण मानसिकता का आरोप लगा, सदैव के लिए उसे छोड़कर चले जाना … सोचने पर विवश करता है, ‘क्या वास्तव में संबंध कांच की भांति नाज़ुक नहीं हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते दरक़ जाते हैं?’ परंतु यहां तो निर्दोष पति को अपना पक्ष रखने का अवसर भी प्रदान नहीं किया गया। बरसों से महिलाएं यह सब सहन कर रही थीं। उन्हें कहां प्राप्त था…अपना पक्ष रखने का अधिकार? पत्नी को तो किसी भी पल जीवन से बे-दखल करने का अधिकार पति को प्राप्त था। महात्मा बुद्ध का यह कथन कि ‘संसार में जैसा व्यवहार आप दूसरों के साथ करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है।’ इसलिए सबसे अच्छा व्यवहार कीजिए।

सो! आधुनिक युग में संविधान द्वारा महिलाओं को समानाधिकार प्राप्त हुए हैं, जो कागज़ की फाइलों में बंद हैं। परंतु कुछ महिलाएं इसका दुरुपयोग कर रही हैं, जिसका प्रमाण आप तलाक़ के बढ़ते  मुकदमों को देखकर लगा सकते हैं। आजकल जीवन लघु फिल्मों की भांति होकर रह गया है, जिसमे मध्यांतर नहीं होता, सीधा अंत हो जाता है अर्थात् समझौते अथवा विकल्प की लेशमात्र भी संभावना नहीं होती।

कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो दुआ से मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं किस्मत ही बदल देते हैं। इसलिए अच्छे दोस्तों को संभाल कर रखना चाहिए। वे हमारी अनुपस्थिति में भी हमारा पक्षधर होते हैं तथा ढाल बन कर खड़े रहते हैं। वे आप पर विश्वास करते हैं, कभी आपकी निंदा नहीं करते, न ही आपके विरुद्ध आक्षेप सुनते हैं, क्योंकि वे केवल आंखिन देखी पर विश्वास करते हैं।

चाणक्य का यह कथन ‘ रिश्ते तोड़ने नहीं चाहिएं। परंतु जहां खबर न हो, निभाने भी नहीं चाहिए ‘ बहुत सार्थक संदेश देता है। वे संबंध-निर्वहन पर बल देते हुए कहते हैं कि संबंध-विच्छेद कारग़र नहीं है। परंतु जहां संबंधों की अहमियत व स्वीकार्यता ही न हो, उन्हें ढोने का क्या लाभ… उनसे मुक्ति पाना ही हितकर है। जहां ताल्लुक़ बोझ बन जाए, उसे तोड़ना अच्छा, क्योंकि वह आपको आकस्मिक आपदा में डाल सकता है। आजकल सहनशीलता तो मानव जीवन से नदारद है। कोई भी दूसरे की भावनाओं को अहमियत नहीं देना चाहता, केवल स्वयं को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम समझता है। सो! समन्वय व सामंजस्यता की कल्पना भी कैसे की जा सकती है। जहां समझौता नहीं होगा, वहां साहचर्य व संबंध-निर्वहन कैसे संभव है? आजकल हमारा विश्वास भगवान पर रहा ही नहीं। ‘यदि भरोसा उस भगवान पर है, तो जो तक़दीर में लिखा है, वही पाओगे। यदि भरोसा खुद पर है, तो वही पाओगे, जो चाहोगे।’ आजकल मानव स्वयं को भगवान से भी ऊपर मानता है तथा मनचाहा पाना चाहता है। वह ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास कर आगे बढ़ता जाता है और जीवन में एक पल भी सुक़ून से नहीं गुज़ार पाता। सो! उसे सदैव निराशा का सामना करना पड़ता है।

असंतोष अहंनिष्ठ व्यक्ति के जीवन की पूंजी बन जाता है और भौतिक संपदा पाना वह अपने जीवन का लक्ष्य समझता है। धन से वह सुख-सुविधा की वस्तुएं तो खरीद सकता है, परंतु वे क्षणिक सुख प्रदान करती हैं। सब उसकी वाह-वाही करते हैं। परंतु वह आंतरिक सुख-शांति व सुकून से कोसों दूर रहता है। इसलिए मानव को शाश्वत संबंध-निर्वाह करने की शिक्षा दी गई है। अरस्तु के शब्दों में ‘श्रेष्ठ व्यक्ति वही बन सकता है, जो दु:ख और चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा मानकर आगे बढ़ता है।’ सो! जीवन में दु:ख व चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा स्वीकार, निरंतर आगे बढ़िए। जीवन में पराजय को कभी न स्वीकारिए। साहस व धैर्य से उनका सामना कीजिए, क्योंकि समय ठहरता नहीं, निरंतर चलता रहता है। इसलिए आप भी निरंतर आगे बढ़ते रहिए। वैसे आजकल ‘रिश्ते पहाड़ियों की तरह खामोश हैं। जब तक न पुकारें, उधर से आवाज़ ही नहीं आती’ दर्शाता है कि रिश्तों में स्वार्थ के संबंध व्याप रहे हैं और अजनबीपन के अहसास के कारण चहुं ओर मौन व सन्नाटा बढ़ रहा है। इस संवेदनहीन समाज में ‘ मैं शब्द, तुम अर्थ ‘ की कल्पना करना बेमानी है, कल्पनातीत है, हास्यास्पद है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 12 ☆ पक्ष या विपक्ष नहीं, राष्ट्र हो सर्वोपरि ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  पक्ष या विपक्ष नहीं, राष्ट्र हो सर्वोपरि. )

☆ किसलय की कलम से # 12 ☆

☆ पक्ष या विपक्ष नहीं, राष्ट्र हो सर्वोपरि ☆

मित्राणि धन धान्यानि, प्रजानां सम्मतानिव।

जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी

जनसमुदाय में मित्र, धन, धान्य आदि का बहुत सम्मान है, लेकिन माँ एवं मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी उच्च है। इसी तरह श्री राम लंका विजय के उपरांत लक्ष्मण जी के पूछने पर कहते हैं कि लक्ष्मण! लंका के स्वर्णनिर्मित होने के पश्चात भी मेरी इस में कोई रुचि नहीं है क्योंकि जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊँचा होता है।  हमारी मातृभूमि अयोध्या तो तीनों लोकों से कहीं अधिक सुंदर है। भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं-

“ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं’

महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती, मंगल पांडे, आजाद, भगत, सुखदेव जैसे नाम मातृभूमि अर्थात राष्ट्रप्रेम के पर्याय बन चुके हैं। ‘पुष्प की अभिलाषा’ नामक अमर कविता के रचयिता राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी सहित असंख्य कवियों की लेखनी ने भी राष्ट्र को सर्वोच्च माना है।

संपूर्ण विश्व के जनसमुदाय की प्रतिबद्धता अपने-अपने देश के प्रति होती ही है। हम इजरायल की ही बात करें तो देशहित व देश की सुरक्षा की दृष्टि से वहाँ के सभी महिला-पुरुषों को आर्मी का प्रशिक्षण लेना अनिवार्य होता है। हमारी सेना के जवानों का जज़्बा भी बेमिसाल है। प्रत्येक जवान देश के लिए अपनी जान तक न्योछावर करने से पीछे नहीं हटता। राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने वाले जवानों ने जो हमारे दिलों में विश्वास स्थापित किया है, उसका ही परिणाम है कि हम और हमारा देश चैन की नींद सो पाता है। युगों-युगों से वर्तमान तक ऐसे असंख्य उदाहरण हैं। इजराइल जैसे देश तथा भारतीय सेना के जवानों की बात छोड़ दें तो अब न राम, कृष्ण का युग है, न राणा-लक्ष्मी-शिवा का समय और न ही माखनलाल चतुर्वेदी जैसे कवियों का जमाना। जनमानस में स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गांधी जयंती पर ही देश भक्ति और देश प्रेम की बातें होती हैं और लाउडस्पीकरों पर देश भक्ति के गाने कार्यक्रम आयोजक बजवाते हैं। आज कब शहीदों के बलिदान दिवस और जयन्तियाँ निकल जाती हैं, अधिकांश लोगों को पता ही नहीं चलता। शालाओं में भी औपचारिकताएँ ही बची हैं। जब विद्यार्थियों में ही राष्ट्रप्रेम के बीज नहीं बोये जाएँगे तब उनके दिलों में राष्ट्रभक्ति या राष्ट्रप्रेम अंकुरित कैसे होगी। हम में से कोई अपनी संतान को नेता बनाना चाहता है, कोई इंजीनियर और कोई डॉक्टर। ज्यादा हुआ तो संतानों के लिए बड़े से उद्योग शुरू करा दिए जाते हैं। बात राष्ट्रभक्ति तक पहुँच ही नहीं पाती। वैसे आज राजनीति सबसे बड़ा व्यवसाय बन गया है। यदि आपके परिवार का कोई सदस्य अथवा आपका कोई आका राजनीति में है तो सब परेशानियों का हल चुटकी में हो जाता है। जब परेशानियाँ ही नहीं होंगी तो इंजीनियरिंग, डॉक्टरी और उद्योग निर्बाध तो चलेंगे ही। उद्योग-धंधे फलेंगे-फूलेंगे ही। सामान्य इंसान तन-मन-धन लगाने के बाद भी प्रायः सफल नहीं हो पाता और यदि सफल भी होता है तो उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है, लेकिन नेताओं का तरह-तरह से बचा हुआ धन उन्हें बड़े से और बड़ा बना देता है। एक बार फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतारते भारत आए। भारतीय संसद को संबोधित करने के उपरांत उन्होंने कुछ सांसदों से पूछा कि आप क्या करते हैं? आपकी आय के क्या साधन है? उन्हें जब बताया गया कि राजनीति में रहते हुए भत्ते, वेतन और पेंशन ही उनकी आय के साधन हैं तब उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह पैसा तो जनता से टैक्स के रूप में लिया जाता है जो इन्हें यूँ ही दिया जा रहा है, जबकि उनके द्वारा बताया गया कि उनकी आय का प्रमुख साधन खेती है, वह सुबह 5:00 बजे से 9:00 बजे तक खेतों पर रहते हैं। उसके पश्चात 10:00 से देश के राष्ट्रपति वाले कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हैं। और ये हैं हमारे देश के नेताओं के आय के स्रोत, मानसिकता और उनकी दिनचर्या, जिनसे प्रायः सभी पतिचित हैं। कुछेक सांसद, विधायक मंत्री व जनप्रतिनिधियों को देशप्रेम, देशप्रगति व जनसेवा के सही मायने भी अच्छे से ज्ञात नहीं होंगे। राष्ट्रभक्ति व राष्ट्रधर्म का निर्वहन करना उनकी प्राथमिकता होती ही नहीं। शासकीय नीतियों और अपने शीर्षस्थ नेताओं का समर्थन करना ही ये सबसे अच्छी राजनीति मानते हैं। यदि सारे नेताओं एवं सभी राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता देशहित को सर्वोपरि मानने की होती तो आज पाकिस्तान जब तब न अकड़ता। चीन हमारे ऊपर गिद्ध जैसा न मंडराता और न ही दोष देता। बांग्लादेश और नेपाल जैसे छोटे देश हमारे विरुद्ध न जाते। सबको पता है बंगाल, कर्नाटक और केरल की राजनीति। सब जानते हैं कट्टरपंथियों तथा वामपंथियों के कार्यकलापों को। यह भी सही है कि आज की सरकारें भी शतप्रतिशत सही नहीं होतीं। ये कोई लुकी-छिपी बातें नहीं हैं। सबकी अपनी ढपली और अपना राग है, जिसका फायदा हमेशा विदेशियों एवं हमारे दुश्मनों ने उठाया है और आज भी उठा रहे हैं। कैसी विडंबना है कि हम स्वदेशी उत्पादों की उपेक्षा और विदेशी उत्पादों का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। वहीं हमने पढ़ा है कि जापानियों ने एक बार अपने देशी सेवफलों से मीठे, स्वादिष्ट और सस्ते अमेरिकन सेवफलों को केवल इसलिए नहीं खरीदा कि वे विदेशी थे। आज उनके देशप्रेम ने जापान को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। इसी तरह राष्ट्रहित में किये जाने वाले कार्य और योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए सभी के द्वारा सरकार को सहयोग किया गया होता तो आज ये हालात नहीं बनते। अधिकृत कश्मीर का मसला नहीं रहता, न ही चीन द्वारा हमारी जमीन पर कब्जे की बात होती। आज ऐसी परिस्थितियाँ हैं कि चीन, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश व नेपाल जैसे पड़ोसियों के साथ हमारे दोस्ताना संबंध नहीं हैं। आखिर ऐसी क्या कमी है इस देश में, इस देश की सरकार में और विपक्षी दलों में, जो हमारे पड़ोसी देश हम से ही असहमत हैं। देश की सीमाओं पर शांति नहीं है, तनाव बना रहता है। कुछ शीर्षस्थ नेता हैं कुछ विपक्ष के लोग भी हैं जिन्हें देश की चिंता है, अमन-शांति की फिक्र है परंतु आग में घी डालने वालों की कमी नहीं है। काश! सभी भारतवासियों एवं जनप्रतियों में राष्ट्र के प्रति समर्पणभाव और आपसी एकता की सर्वोच्च प्रतिबद्धता होती तो विश्व का कोई भी देश हमारी ओर आँख उठाने का दुस्साहस नहीं करता। आज ऐसे उन सभी लोगों को समझना होगा कि उनकी छोटी अथवा बड़ी स्वार्थलिप्तता, देश के प्रति नकारात्मक सोच अथवा भ्रामक वक्तव्य हमारे देश को कमजोर बना सकते हैं। हमारे देश की एकता के लिए बाधक बन सकते हैं। वर्तमान में जब कोरोना जैसी महामारी से विश्व में त्राहि-त्राहि मची हुई है। हम कोई भी कार्य सामान्य रूप से नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में चीन का आँखें तरेरना, पाकिस्तान की ओछी हरकतें और अब नेपाल द्वारा भारत विरोधी रवैया अपनाना हमारे लिए कठिन चुनौती बन गई है। आज समय है देशहित को सर्वोपरि सिद्ध करने का। हमें अपनी एकता दिखाने का। राजनीति तो जीवन भर की जा सकती है, लेकिन देश पर नजर गड़ाने वालों को आज करारा जवाब देना अत्यावश्यक हो गया है।

आज देश के कोई भी राजनीतिक दल हों, पक्ष अथवा विपक्ष हो, किसी भी विचारधारा के अनुगामी ही क्यों न हों, हमें असत्य व भ्रामक वक्तव्य तथा प्रचार से बचना होगा। हमें विश्व को बताना होगा कि हम भारतवासियों के लिए राष्ट्रहित ही सर्वोपरि है। इन सभी बातों को हवा-हवाई कतई नहीं लिया जाना चाहिए। अब यह सुनिश्चित करना हम, आप व  देश के कर्णधारों का दायित्व बन गया है कि भले ही आपस में हमारे मतभेद हों लेकिन राष्ट्र की आन पर बगैर शर्त हम एक हैं। वर्तमान में आज यह महती आवश्यकता है कि हम पक्ष और विपक्ष के सभी एक सौ चालीस करोड़ देशवासी राष्ट्र को सर्वोपरि मानकर देशप्रेम की ज्योति जलाने का संकल्प लें।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पुनर्पाठ – एक पत्र- अनाम के नाम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

पुनर्पाठ –

☆ संजय दृष्टि  ☆ एक पत्र- अनाम के नाम ☆

(ब्लू व्हेल के बाद ‘हाईस्कूल गेम’ अपनी हिंसक वृत्ति को लेकर चर्चा में रहा। इसी गेम की लत के शिकार एक नाबालिग ने गेम खेलने से टोकने पर अपनी माँ और बहन की नृशंस हत्या कर दी थी। उस घटना के बाद लेखक की प्रतिक्रिया, उस नाबालिग को लिखे एक पत्र के रूप में मे कागज़ पर उतरी ।)

प्रिय अनाम..,

अपने से छोटे को यही संबोधन लिखने के अभ्यास के चलते लिखा गया ‘प्रिय’..पर नहीं तुम्हें ‘प्रिय’ नहीं लिख पाऊँगा। घृणित, नराधम, बर्बर जैसे शब्दों का भी प्रयोग नहीं कर पाऊँगा क्योंकि मेरे माता-पिता ने मुझे कटुता और घृणा के संस्कार नहीं दिये। वैसे एक बात बताना बेटा…!!! …, हाँ बेटा कह सकता हूँ क्योंकि बेटा श्रवणकुमार भी हो सकता है और तुम्हारे जैसा दिग्भ्रमित क्रूरकर्मा भी।….और मैंने देखा कि तुम्हारी कल्पनातीत नृशंसता के बाद भी टीवी पर तुम्हारा पिता, तुम्हें ‘मेरा बेटा’ कह कर ही संबोधित कर रहा था। …सो एक बात बताना बेटा, कटुता और घृणा के संस्कार तो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें भी नहीं दिये थे, हिंसा के तो बिलकुल ही नहीं। फिर ऐसा क्या भर गया था तुम्हारे भीतर जो तुमने अपनी ही माँ और बहन को काल के विकराल जबड़े में डाल दिया!…उफ़!

जानते हो, आज सुबह अपनी सोसायटी के कुछ बच्चों को अपने-अपने क्रिकेट बैट की तुलना करते देखा। एक बच्चा बेहतर बैट खरीदवाने के लिए अपनी माँ से उलझ रहा था। माँ उसे आश्वासन दे रही थी कि उसे अच्छा, ठोस, मज़बूत और चौड़ा बैट खरीदवा देगी। अपनी माँ की हत्या करते समय तुम्हारे हाथ में जो बैट था, वह भी ठोस, मज़बूत और चौड़ा ही था न बेटा!…याद करो, बैट माँ ने ही दिलवाया था न बेटा!

माँ के आश्वासन के बाद उलझता यह बच्चा भी खुश हो गया। मैं सोच रहा था, कौन जाने उसके मस्तिष्क में तुम रोल मॉडेल की तरह बस जाओ। कहीं वह भी अभी से अपनी माँ के माथे की चौड़ाई और बैट की चौड़ाई की तुलना कर रहा हो। बैट इतना चौड़ा तो होना ही चाहिए कि एक ही बार में माँ का काम तमाम।…सही कह रहा हूँ न बेटा!

माँ ने शायद तुम्हें ‘हाईस्कूल गेम’ खेलने से रोका था। उन्हें डर था कि इस हिंसक खेल से तुम्हारे दिलो-दिमाग में हिंसा भर सकती है। तुम कहीं किसी पर अकारण वार न कर दो। गलती से, उन्माद में किसी की हत्या न कर बैठो।…माँ का डर सही साबित हुआ न बेटा!

जानकारी मिली है कि रोकने पर भी तुम्हारे ‘हिंसक गेम’ खेलते रहने पर चिंतित माँ ने तुम्हें एक-दो तमाचे जड़ दिये थे। तुम्हारी पीढ़ी, हमारे मुकाबले अधिक गतिशील है। हमने मुहावरा पढ़ा था, ‘ईंट का जवाब, पत्थर से दो’ पर तुमने तो चिंता का जवाब चिता से दे दिया दिया। इतनी गति भी ठीक नहीं होती बेटा!

.. और माँ ही क्यों..? वह नन्ही परी जो जन्म से तुम्हें राखी बाँधती आई, जिसने तुम्हें हमेशा रक्षक की भूमिका में देखा, जो संकट में तुम्हारी ओट को सबसे सुरक्षित स्थान समझती रही, ओट में ले जाकर उसकी ही अँतड़ियाँ तुमने बाहर निकाल दीं…बेटा!

खास बात बताऊँ, मरकर भी दोनों के मन में तुम्हारे लिए कोई दुर्भावना नहीं होगी। उनकी आत्मा चाहेंगी कि मेरे बेटे, मेरे भाई को दंड न हो, वह निर्दोष छूट जाए। सब कुछ लुट जाने के बाद तुम्हारा पिता भी तो यही चाहता है बेटा!

एक बात बताओ, खून से लथपथ माँ और बहन के पेट में कैंची और पिज्जा काटने का चाकू घोंपकर उनका मरना ‘कन्फर्म’ करते समय एक बार भी मन में यह विचार नहीं उठा कि इसी पेट में नौ महीने तुम पले थे बेटा!

तुम्हें जानकारी नहीं होगी इसलिए बता देता हूँ। मादा बिच्छू जब संतानों को जन्म देती है तो  नवजात बच्चे उसकी पीठ से चिपक जाते हैं। ये भूखे नवजात धीरे-धीरे माँ का पूरा शरीर खा जाते हैं। बच्चे को पालने के लिए माँ का मर जाना! …बिच्छू समझते हो न बेटा!

बहुत भयानक दंंश होता है बिच्छू का। पंद्रह वर्ष बच्चे को बड़ा करने के बाद उसीके हाथों अपना पेट फड़वाने से बेहतर है कि आनेवाले समय में स्त्री अपना पेट फाड़कर ही बच्चे को जन्म देने लगे। संतान का आगमन, माँ का गमन! ठीक कह रहा हूँ न बेटा!

ये बात अलग है कि तब संतानें पल नहीं पायेंगी। उन्हें अपने रक्त-माँस का दूध कर पयपान कौन करवायेगा? अपनी गोद में घंटों थपकाकर सुलायेगा कौन? खानपान, पसंद-नापसंद का ध्यान रखेगा कौन? ऐसे में तो माँ के चल बसने के कुछ समय बाद संतान भी चल बसेगी। न बाँस, न बाँसुरी, न सृष्टि का मूल, न सृष्टि का फूल! यही चाहते हो न तुम बेटा!

यही चाहते हो न तुम कि सृष्टि ही थम जाये। माँ न हो, बहन न हो, बेटी न हो, कोई जीव पैदा ही न हो। लौट जायें हम शून्य की ओर!…एक बात कान खोलकर सुन लो, अपवाद से परंपराएँ नहीं डिगतीं। निरी आँख से न दिखनेवाले सूक्ष्म जंतुओं से लेकर मनुष्य और विशालकाय हाथी तक में माँ और बच्चे की स्नेह नाल समान होती है। तुम्हारे कुत्सित अपवाद से अवसाद तो है पर सब कुछ समाप्त नहीं है।

…सुनो बेटा! अपनी माँ और बहन को खो देने का दुख अनुभव कर रहे हो न! ‘नेवर एंडिंग’ मिस कर रहे हो न। एक रास्ता है। उनकी ममता और स्नेह को मन में संजोकर तुम पार्थिव रूप से न सही परोक्ष रूप से माँ और बहन को अपने साथ अनुभव कर सकते हो। तुम्हारा जीवन सुधर जाये तो वे मरकर भी जी उठेंगी।

सद्मार्ग से आगे का जीवन जीने का संकल्प लेकर अपनी माँ और बहन को पुनर्जीवित कर सकते हो।…..करोगे न बेटा..!!

 

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #59 ☆ अकाल मृत्यु हरणं ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – अकाल मृत्यु हरणं ☆

जगत सतत गतिमान है। जगत सतत परिवर्तनशील है। जो कल था, वह आज नहीं है। आज है वह कल नहीं होगा। क्षण-क्षण, हर क्षण परिवर्तन हो रहा है। यह क्षण वर्तमान है। अगले क्षण, पिछला क्षण निवर्तमान है।

उपरोक्त बिंदुओं से लगभग हर व्यक्ति शाब्दिक स्तर पर सहमत होता है। तथापि जैसे ही परिवर्तन स्वयं पर लागू करने का समय आता है वह ठिठक जाता है, ठहर जाता है। अपनी स्थिति में परिवर्तन सहजता से स्वीकार नहीं करता।

अपनी स्थिति में परिवर्तन स्वीकार न कर पाना ही जड़ता है। भौतिकविज्ञान में जड़ता का नियम है। यह नियम कहता है कि किसी वस्तु का वह गुण जो उसकी गति की अवस्था में किसी भी प्रकार के परिवर्तन का विरोध करता है, जड़त्व (इनर्शिया) कहलाता है। यदि कोई वस्तु विराम अवस्था में है तो वह विराम अवस्था में रहना चाहती है और यदि कोई वस्तु एक समान वेग से गतिशील है तो गतिशील रहना चाहती है जब तक की कोई बाह्य बल इसको अपनी अवस्था परिवर्तन के लिए विवश न कर दे।

विज्ञान, जड़त्व के तीन प्रकार प्रतिपादित करता है, 1) विराम का जड़त्व, 2) गति का जड़त्व और 3) दिशा का जड़त्व। ज्ञान अर्थात अध्यात्म जड़त्व को समग्रता से देखता है। विज्ञान नियम को स्थूल के स्तर पर लागू करता है। अध्यात्म इसे सूक्ष्म तक ले जाता है।

जड़त्व हमारे सूक्ष्म में अपनी जगह बना चुका। सास चाहती है कि कुर्सी गत बीस वर्ष से जहाँ रखी जाती है, वहाँ से इंच भर भी दायें-बायें न हिलाई जाय। बहू कुर्सी की दशा और दिशा दोनों बदलना चाहती है। समय के साथ बहू वांछित परिवर्तन कर भी लेती है। लेकिन अब उसे भी अपने कार्यकलाप और कार्यप्रक्रिया में कोई बदलाव स्वीकार नहीं। वह अब अपनी जड़ता का शिकार होने लगती है।

तन और मन में बसी जड़ता परिवर्तन नहीं चाहती। ऑफिस का समय बदल जाय तो लोग असहज होने लगते हैं। ऑफिस में उपस्थिति बायोमेट्रिक हुई तो लगे कोसने। कइयों को तो जो नया है, वह निरर्थक लगता है। कम्प्युटर आया तो मैनुअल तरीके से काम करने के पक्ष में मोर्चे निकले। मोबाइल आया तो लैंडलाइन का जमकर गुणगान करने लगे। कार्यकलाप ऑनलाइन हो चले पर परिवर्तन के विरोध ने ऑफलाइन ही बनाये रखा।

परिवर्तन का विरोध करनेवाला मनुष्य क्या सारे परिवर्तन रोक पाता है? चेहरे पर झुर्रियाँ बढ़ रही हैं। एंटी एजिंग लोशन लगा-लगाकर थक चुके। रोक लो झुर्रियाँ, रोक सकते हो तो! उम्र हाथ से सरपट फिसल रही है, थाम लो, थाम सकते हो तो! जीवन, मृत्यु की दिशा में यात्रा कर रहा है। बदल दो दिशा, बदल सकते हो तो!

वस्तुत: भीतर का भय, परिवर्तन को स्वीकार नहीं करने देता। भयभीत व्यक्ति आगे कदम नहीं उठाता। जहाँ का तहाँ खड़ा रहता है।

परिवर्तन सृष्टि का एकमात्र नियम है जो परिवर्तित नहीं होता। परिवर्तन चेतन तत्व है। चेते रहने, चैतन्य रहने के लिए परिवर्तन के साथ चलो, कालानुरूप कदमताल करो। अन्यथा काल चलता रहेगा, जड़ता का शिकार पीछे छूटता जाएगा। सृष्टि साक्षी है कि जो काल से पीछे छूटा, अकाल नाश को प्राप्त हुआ।

सनातन संस्कृति जब प्राणिमात्र के लिए ‘अकाल मृत्यु हरणं’ की कामना करती है तो जड़ता के अवसान और चैतन्य के उत्थान की बात करती है।

जड़ता को झटको। काल के अनुरूप चलो। सदा चैतन्य रहो। कालाय तस्मै नम:।

© संजय भारद्वाज

प्रात: 4:53 बजे, 23.8.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ जीवनसूत्र.. ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

ॐ गं गणपतये नम:।  सभी मित्रों को श्रीगणेश चतुर्थी की बधाई।

त्योहार सादगी से मनाएँ। कोरोनाकाल को दृष्टिगत रखते हुए सभी नियमों का पालन करें।

प्रार्थना है कि विघ्नहर्ता, वायरस के विघ्न को शीघ्रतिशीघ्र नष्ट करने में मनुष्य के प्रयासों को अपना आशीर्वाद प्रदान करें।

☆ संजय दृष्टि  ☆ जीवनसूत्र.. ☆

पानी उथला हो तो उछाल मारता है, गहरा मंद-मंद बहता है। मनुष्य के शरीर में लगभग 60 प्रतिशत जल होता है।

जो पिंड में, वही बिरमांड में। मनुष्य और पानी का अंतर्सम्बंध समझ लो तो जीवन को जीने का सूत्र मिल जाता है।

जीवन सूत्र है पानी।

 

©  संजय भारद्वाज 

14 जून 2020, प्रात: 9:13

# निठल्ला चिंतन

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 58 ☆ आईना झूठ नहीं बोलता ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख आईना झूठ नहीं बोलता।  यह आलेख पढ़ करअनायास ही काजल फिल्म का कालजयी गीत ” तोरा  मन दर्पण कहलाये ” याद आ गया । इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 58 ☆

☆ आईना झूठ नहीं बोलता

लोग आयेंगे, चले जायेंगे। मगर आईने में जो है, वही रहेगा, क्योंकि आईना कभी झूठ नहीं बोलता, सदैव सत्य अर्थात् हक़ीक़त को दर्शाता है…जीवन के स्याह व सफेद पक्ष को उजागर करता है। परंतु बावरा मन यही सोचता है कि हम सदैव ठीक हैं और दूसरों को स्वयं में सुधार लाने की आवश्यकता है। यह तो आईने की धूल साफ करने जैसा है, चेहरे को नहीं, जबकि चेहरे की धूल साफ करने पर ही आईने की धूल साफ होगी। जब तक हम आत्मावलोकन कर दोष-दर्शन नहीं करेंगे, हमारी दुष्प्रवृत्तियों का शमन कैसे संभव होगा? हम हरदम परेशान व दूसरों से अलग-थलग रहेंगे।

जीवन मेंं सदैव दूसरों का साथ अपेक्षित है। सुख बांटने से बढ़ता है तथा दु:ख बांटने से घटता है। दोनों स्थितियों में मानव को लाभ होता है। सुंदर संबंध शर्तों व वादों से नहीं जन्मते, बल्कि दो अद्भुत लोगों के मध्य संबंध स्थापित होने पर ही होते हैं। जब एक व्यक्ति अपने साथी पर अथाह, गहन अथवा अंध-विश्वास करता है और दूसरा उसे बखूबी समझता है, तो यह है संबंधों की पराकाष्ठा।

सम+बंध अर्थात् समान रूप से बंधा हुआ। दोनों में यदि अंतर भी हो, तो भी भाव-धरातल पर समता की आवश्यकता है। इसी में जाति, धर्म, रंग, वर्ण का स्थान नहीं तथा पद-प्रतिष्ठा भी महत्वहीन है। वैसे प्यार व दोस्ती तो विश्वास पर कायम रहती है, शर्तों पर नहीं। महात्मा बुद्ध का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है कि ‘जल्दी जागना सदैव लाभकारी होता है। फिर चाहे नींद से हो, अहं से, वहम से या सोए हुए ज़मीर से। ख़िताब, रिश्तेदारी सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है…बशर्ते लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग से नहीं।’ सो! संबंध तीन-चार वर्ष में समाप्त होने वाला डिप्लोमा व डिग्री नहीं, जीवन भर का कोर्स है। यह अनुभव व जीने का ढंग है। सो! आप जिससे संबंध बनाते हैं, उस पर विश्वास

कीजिए। यदि कोई उसकी निंदा भी करता है, तो भी आप उसके प्रति मन में अविश्वास का भाव न पनपने दें, बल्कि संकट की घड़ी में उसकी अनुपस्थिति में ढाल बन कर खड़े रहें। लोगों का काम तो कहना होता है। वे किसी को उन्नति के पथ पर अग्रसर होते देख, केवल ईर्ष्या ही नहीं करते, उनकी मित्रता में सेंध लगा कर ही सुक़ून पाते हैं। सो! कबीर की भांति आंख मूंद कर नहीं, आंखिन देखी पर ही विश्वास कीजिए। उन्हीं के शब्दों में ‘बुरा जो ढूंढन मैं चला, मोसों बुरा न कोय।’ इसलिए अपने अंतर्मन में झांकिए, आप स्वयं में असंख्य दोष पाएंगे। दोषारोपण की प्रवृत्ति का त्याग ही आत्मोन्नति का सुगम व सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। केवल सत्य पर विश्वास कीजिए। झूठ के आवरण को हटाने के लिए चेहरे पर लगी धूल को हटाने की आवश्यकता है अर्थात् अपने अंतस की बुराइयों पर विजय पाने की दरक़ार है।

इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि ऐसे लोगों की ओर आकर्षित मत होइए, जो ऊंचे मुक़ाम पर पहुंचे हैं,। परंतु वे तुम्हारे सच्चे हितैषी हैं, जो तुम्हें ऊंचाई से गिरते देख थाम लेते हैं। सो! लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग़ से नहीं। जहां प्रेम होता है, तमाम बुराइयां, अच्छाइयों में परिवर्तित हो जाती हैं तथा अविश्वास के दस्तक देते व अच्छाइयां लुप्तप्राय: हो जाती हैं। त्याग व समर्पण का दूसरा नाम दोस्ती है। इसमें दोनों पक्षों को अपनी हैसियत से बढ़ कर समर्पण करना चाहिए। अहं इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। ईगो अर्थात् अहं तीन शब्दों निर्मित है, जो रिलेशनशिप अर्थात् संबंधों को ग्रस लेता है। दूसरे शब्दों में एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं। संबंध तभी स्थायी अथवा शाश्वत बनते हैं, जब अहं, राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होता।

सो! जिससे बात करने में खुशी दुगुन्नी तथा दु:ख आधा रह जाए, वही अपना है, शेष तो दुनिया है, जो तमाशबीन होती है। वैसे भी अहंनिष्ठ लोग समझाते अधिक व समझते कम हैं। इसलिए अधिकतर मामले सुलझते कम, उलझते अधिक हैं। यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन हमारी सोच का साकार रूप है। जैसी सोच, वैसा जीवन। इसलिए कहा जाता है कि असंभव दुनिया में कुछ नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोचते हैं। इसलिए कहा जाता है, मानव असीम शक्तियों का पुंज है। स्वेट मार्टन के शब्दों में ‘केवल विश्वास ही एकमात्र ऐसा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचा देता है।’ सो! विश्वास के साथ-साथ लगन व्यक्ति से वह सब करवा लेती है, जो वह नहीं कर सकता। साहस व्यक्ति से वह सब कराता है, जो वह कर सकता है। किन्तु अनुभव व्यक्ति से वह कराता है, जो उसे करना चाहिए। इसलिए अनुभव की भूमिका सबसे अहम् है, जो हमें गलत दिशा की ओर जाने से रोकती है और साहस व लग्न अनुभव के सहयोगी हैं।

परंतु पथ की बाधाएं हमारे पथ की अवरोधक हैं … कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है। यहां साहस अपना चमत्कार दिखाता है। सो! संकट के समय परिवर्तन की राह को अपनाना चाहिए। तूफ़ान में कश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जाती हैं/ ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध के बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं। सो! अहंनिष्ठ मानव पल भर मेंं अर्श से फ़र्श पर आन गिरता है। इसलिए ऊंचाई पर पहुंचने के लिए मन में प्रतिशोध का भाव न पनपने दें, क्योंकि इसका जन्म ईर्ष्या व अहं से होता है। आंख बंद करने से मुसीबत टल नहीं जाती और मुसीबत आए बिना आंख नहीं खुलती। जब तक हम अन्य विकल्प के बारे में सोचते नहीं, नवीन रास्ते नहीं खुलते। इसलिए मुसीबतों का सामना करना सीखिए। यह कायरता है, पराजय है। ‘डू ऑर डाई, करो या मरो’ जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। कौन कहता है आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं। अक्सर मानव को स्वयं स्थापित मील के पत्थरों को तोड़ने में बहुत आनंद आता है। सो थक कर राह में विश्राम मत करो और न ही बीच राह से लौटने का मन बनाओ। मंज़िल बाहें पसारे आपकी राह तकेगी। स्वर्ग-नरक की सीमाएं निश्चित नहीं हैंं, हमारे कार्य-व्यवहार ही उन्हें निर्धारित करते हैं।

श्रेष्ठता संस्कारों से प्राप्त होती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। जिसने दूसरों के दु:ख में दु:खी होने का हुनर सीख लिया, वह कभी दुखी नहीं हो सकता। ‘ज़रा संभल कर चल/ तारीफ़ के पुल के नीचे से/  मतलब की नदी बहती है।’ इसलिए प्रशंसकों से सदैव दूरी बना कर रखनी चाहिए, क्योंकि ये उन्नति के पथ में अवरोधक होते हैं। इसलिए कहा जाता है, घमंड मत कर ऐ दोस्त/ अंगारे भी राख बनते हैं। इसलिए संसार में इस तरह जीओ कि कल मर जाना है। सीखो इस तरह, जैसे आपको सदैव जीवित रहना है। शायद इसलिए ही थमती नहीं ज़िंदगी किसी के बिना/  लेकिन यह गुज़रती भी नहीं/ अपनों के बिना। सो क़िरदार की अज़मत को न गिरने न दिया हमने/  धोखे बहुत खाए/ लेकिन धोखा न दिया हमने। इसलिए अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, आनंद आभास है/  जिसकी सबको तलाश है/ दु:ख अनुभव है/ जो सबके पास है। फिर भी ज़िंदगी में वही कामयाब है/ जिसे खुद पर विश्वास है। इसलिए अहं नहीं, विश्वास रखिए। आपको सदैव आनंद की प्राप्ति होगी। रास्ते अनेक होते हैं। निश्चय आपको करना है कि आपको किस ओर जाना है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 11 ☆ व्यावहारिक ज्ञान की कमी बच्चों की सबसे बड़ी कमजोरी ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  व्यावहारिक ज्ञान की कमी बच्चों की सबसे बड़ी कमजोरी)

☆ किसलय की कलम से # 11 ☆

☆ व्यावहारिक ज्ञान की कमी बच्चों की सबसे बड़ी कमजोरी ☆

जिस ज्ञान का उपयोग दैनिक जीवन में किया जाता हो, दिनचर्या का जो विशेष अंग हो। वार्तालाप और कार्य करते समय जिस ज्ञान से आपकी सकारात्मक छवि का पता चले, वही व्यावहारिक ज्ञान है। बच्चों के क्रियाकलाप, आचार-विचार, बड़ों के प्रति श्रद्धा व सम्मान इसी व्यावहारिक ज्ञान की परिणति होते हैं। दो-तीन पूर्व-पीढ़ियों से मानव समाज में व्यवहारिकता लगातार कम होती जा रही है। आदर, सम्मान, परमार्थ, सद्भाव, भाईचारा, मित्रता, दीन-दुखियों की सेवा जैसे गुणों की कमी स्पष्ट दिखाई देने लगी है। शिक्षा प्रणाली, अर्थ-महत्ता, सामाजिक व्यवस्था व हमारे बदलते दृष्टिकोण भी इसके महत्त्वपूर्ण कारक हैं। आज गुरुकुल प्रथा लुप्त हो गई है, जहाँ बच्चों को भेजकर उन्हें शिक्षा के अतिरिक्त व्यावहारिक ज्ञान, आचार-विचार, आदर-सम्मान, परिश्रम, आत्मनिर्भरता, विनम्रता, चातुर्य, अस्त्र-शस्त्र विद्या, योग-व्यायाम के साथ-साथ भावी जीवन के उच्च आदर्शों को भी सिखाया जाता था। संयुक्त परिवार में बड़े-बुजुर्ग अपने अनुभव व ज्ञान के सूत्र संतानों को बताया करते थे। बच्चों के हृदय में झूठ, घमण्ड, ईर्ष्या, अनादर, असभ्यता का कोई स्थान नहीं होता था। न ही कोई उन्हें ऐसे कृत्यों हेतु बढ़ावा दे सकता था। व्यावहारिक ज्ञान के एक उदाहरण को तुलसीदास जी प्रस्तुत करते हैं-

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा #

मात, पिता, गुरु नावहिं माथा

ऐसी एक नहीं असंख्य जीवनोपयोगी बातें हैं, जिन्हें बच्चे बचपन में ही हृदयंगम कर लेते थे। ऐसे संस्कारित बच्चों को देखकर घर आये मेहमान तक उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने से स्वयं को रोक नहीं पाते थे। ये वही सद्गुण थे जो उनके द्वारा जीवनपर्यंत व्यवहार में लाए जाते थे। बच्चों को सत्य-असत्य, घृणा-प्रेम, छल-निश्छल का अंतर बचपन में ही समझा दिया जाता था। उन्हें इस तरह से संस्कारित किया जाता था कि वे सदैव सकारात्मकता की ओर अग्रसर हों और प्रायः होता भी यही था। तभी तो उस काल के समाज में झूठ, आडंबर, छल, द्वेष, निरादर के आज जैसे उदाहरण कम दिखाई देते थे। धीरे-धीरे जब हम अधिक स्वार्थी, चतुर और चालाक होते गए तो उसी अनुपात में मानवीय आदर्श भी हमसे शनैःशनैः दूर होने लगे। हमारे द्वारा किये जा रहे निम्न स्तरीय व्यवहार व कृत्य हमारी संतानों को भी विरासत में मिल ही रहे हैं। आजकल जब हम स्वयं अपनी संतानों के मन में झूठ, अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अवसरवादिता आदि अवगुणों को सुभाषितों जैसे रटाते हैं, तब हम कल्पना तो कर ही सकते हैं कि बच्चों में किन संस्कारों अथवा कुसंस्कारों की बहुलता होगी। कुछ अपवाद छोड़ भी दिए जाएँ तो हम पाएँगे कि आजकल अधिकांश घरों में पहुँचते ही संबंधित व्यक्ति को छोड़कर परिवार के अधिकांश सदस्य किनारा कर लेते है, अभिवादन की बात तो बहुत दूर की है। उस परिवार के बच्चों को चरण स्पर्श करना, नमस्ते करना जब सिखाया ही नहीं गया होता तो वे करेंगे ही क्यों? कारण यह भी है कि ऐसा न करने पर उनके माता-पिता तक उन्हें ऐसा करने हेतु नहीं कहते। वहीं आप पिछली सदी की ओर मुड़कर देखें और स्मरण कर स्वयं से पूछें-  क्या आप घर आए मेहमान को यथोचित अभिवादन नहीं करते थे? उनके स्वागत-सत्कार में नहीं लग जाते थे? यदि पहले आप अपने से बड़ों का आदर करते थे, तो आज आप अपने बच्चों में वैसे ही श्रेष्ठ संस्कार क्यों नहीं डालते? यह भी एक चिंतन का विषय है। क्या आपको परंपराओं व संस्कारों के लाभ ज्ञात नहीं हैं, या फिर अभी तक आप भेड़-चाल ही चल रहे हैं। अपने घर या समाज में देखा कि वह किसी ऋषि-मुनियों या बुजुर्गों के पैर छूता है, तो मैं भी पैर छूने लगा। पूरे विश्व को विदित है कि हमारी भारतीय संस्कृति एवं अधिकांश परंपराओं के अनेकानेक लाभ हैं। आपके द्वारा चरणस्पर्श करने से क्या आप में विनम्रता का गुण नहीं आता? क्या अहंकार का भाव कम नहीं होता? परसेवा से आपके हृदय को जो शांति मिलती है, क्या वह आपने अनुभव नहीं की? कभी भूखे को भोजन, प्यासे को पानी, बेसहारा को सहारा, बीमार की तीमारदारी अथवा भटक रहे व्यक्ति को सकुशल गंतव्य तक पहुँचाने पर मिली आत्मशांति को पुनः स्मृत नहीं किया। आज भी आप इन हीरे-मोतियों से भी बहुमूल्य ‘गुणरत्नों’ से अपने अंतर्मन का श्रृंगार कर सकते हैं। आज जब सारे विश्व का परिदृश्य बदल रहा है, मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है। अपने बड़े-बुजुर्ग ही स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगे हैं तब हम सभी को अपनी जान से प्यारी संतानों के लिए यही सब सिखाने का बीड़ा तो उठाना ही पड़ेगा। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा कि हम स्वयं ही आज अपनी संतानों को अवगुणों की भट्टी में झोंकने पर तुले हैं।

बड़ी ग्लानि व दुख होता है आज की अधिकतर संतानों को देखकर, जो भौतिक सुख-समृद्धि व स्वार्थ की चाह में अपना दुर्लभ मानव जीवन अर्थ और स्वार्थ में व्यर्थ गँवा रहे हैं। महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि अब इन अनभिज्ञ बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान समझाने के लिए न ही कोई गुरुकुल बचे हैं और न ही उनके आजा-आजी, नाना-नानी या चाचा-चाची उनके पास होते हैं। आजकल माता-पिता की व्यस्त दिनचर्या के चलते बच्चों को शिक्षा और संस्कार देने वाले मात्र वैतनिक शिक्षक होते हैं। उनमें से बहुतायत में वे लोग शिक्षा देने का दायित्व सम्हाले हुए हैं जिन्हें स्वयं न ही व्यावहारिक, न ही शैक्षिक और न ही नैतिक ज्ञान का पूर्व अनुभव होता है। आप स्वयं पता लगा सकते हैं कि केवल आम डिग्रियों के आधार पर ही अन्य  पदों की तरह शिक्षक पद की पात्रता सुनिश्चित कर दी जाती है। क्या ‘गुरु के वास्तविक पद’ के अनुरूप आज के शिक्षक कहीं दिखाई देते हैं? समाज में ऐसी ही विसंगतियों व कमियों के चलते आज आदर्श और समर्पित शिक्षकों की महती आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। घर में भी माता-पिता और बुजुर्गों द्वारा अपने बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान और संस्कार देने की भी जरूरत है। अब भी यदि ऐसा नहीं होता, तो आगे क्या होगा आप-हम स्वयं अनुमान लगा सकते हैं।

हमें बच्चों में जीवनोपयोगी कहानियों, कविताओं, सद्ग्रंथों व अपने व्यवहार से उनमें यथासंभव सकारात्मकता के बीज रोपने होंगे, तभी हमारे बच्चे सुसंस्कारित हो पाएँगे, हमारा समाज सुधर पायेगा और तब जाकर ही वे परिस्थितियाँ निर्मित होंगी जब शिक्षकों तथा आपका दिया गया व्यावहारिक ज्ञान समाज में बदलाव लाने हेतु सक्षम हो सकेगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 39 – बापू के संस्मरण-13- मरने के लिए अकेला आया हूँ …… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मरने के लिए अकेला आया हूं ……”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 39 – बापू के संस्मरण – 13 – मरने के लिए अकेला आया हूँ  …… 

 

चम्पारन बिहार में है । वहां गांधीजी ने सत्याग्रह की एक शानदार लड़ाई लड़ी थी। गोरे वहां के लोगों को बड़ा सताते थे। नील की खेती करने के कारण वे निलहे कहलाते थे । उन्हीं की जांच करने को गांधीजी वहां गये थे । उनके इस काम से जनता जाग उठी । उसका साहस बढ़ गया, लेकिन गोरे बड़े परेशान हुए वे अब तक मनमानी करते आ रहे थे । कोई उनकी ओर उंगली उठाने वाला तक न था। अब इस एक आदमी ने तूफान खड़ा कर दिया. वे आग-बबूला हो उठे।

इसी समय एक व्यक्ति ने आकर गांधीजी से कहा,`यहां का गोरा बहुत दुष्ट है।वह आपको मार डालना चाहता है। इस काम के लिए उसने हत्यारे भी तैनात कर दिये हैं।’

गांधीजी ने बात सुन ली।

उसके बाद एक दिन, रात के समय अचानक वह उस गोरे की कोठी पर जा पहुंचे। गोरे ने उन्हें देखा तो घबरा गया। उसने पूछा,`तुम कौन हो? गांधीजी ने उत्तर दिया, मैंमोहन दास करम चंद  गांधी हूं ।’ वह गोरा और भी हैरान हो गया । बोला, `गांधी! `हां मैं गांधी ही हूं. गांधीजी ने उत्तर दिया, `सुना है तुम मुझे मार डालना चाहते हो । तुमने हत्यारे भी तैनात कर दिये हैं ।’

गोरा सन्न रह गया जैसे सपना देख रहा हो। अपने मरने की बात कोई इतने सहज भाव से कह सकता है!

वह कुछ सोच सके, इससे पहले ही गांधीजी फिर बोले, `मैंने किसी से कुछ नहीं कहा. अकेला ही आया हूं । बेचारा गोरा! उसने डर को जीतने वाले ऐसे व्यक्ति कहां देखे थे!

वह आगे कुछ भी नहीं बोल सका ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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