हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #30 ☆ विश्वास☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 30 ☆

☆ विश्वास ☆

 

भोर अंधेरे यात्रा पर निकलना है। निकलते समय घर की दीवार पर टँगे मंदिर में विराजे ठाकुर जी को माथा टेकने गया। दर्शन के लिए बिजली लगाई। बिजली लगाने भर की देर थी कि मानो ठाकुर जी हँस पड़े। मनुष्य को भी अपनी वैचारिक संकीर्णता पर स्वयं हँसी आ गई।

दिव्य प्रकाशपुंज को देखने के लिए 5-7 वॉट का बल्ब लगाना!! सूरज को दीपक दिखाने का मुहावरा संभवत: ऐसी नादानियों की ही उपज है।

नादानी का चरम है, भीतर की ठाकुरबाड़ी में बसे ठाकुर जी के दर्शन से आजीवन वंचित रहना। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि मनुष्य आँखों को खुद ढककर अंधकार-अंधकार चिल्लाता है।

खुद को प्रकाश से वंचित रखनेवाले मनुष्य रूपी प्रकाश की कथा भी निराली है। अपनी लौ से अपरिचित ऐसा ही एक प्रकाश, संत के पास गया और प्रकाश प्राप्ति का मार्ग जानना चाहा। संत ने उसे पास के तालाब में रहनेवाली एक मछली के पास भेज दिया। मछली ने कहा, अभी सोकर उठी हूँ, प्यास लगी है। कहीं से थोड़ा जल लाकर पिला दो तो शांति से तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकूँगी। प्रकाश हतप्रभ रह गया। बोला, “जल में रहकर भी जल की खोज?” मछली ने कहा, “यही तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान है। खोज सके तो खोज।”

“खोजी होये तुरत मिल जाऊँ

एक पल की ही तलाश में ।

कहत कबीर सुनो भाई साधो,

मैं तो हूँ विश्वास में ।।

भीतर के ठाकुर जी के प्रकाश का साक्षात्कार कर लोगे तो बाहर की ठाकुरबाड़ी में स्वत: उजाला दिखने लगेगा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 8.29, 7.1.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 25 – जीव विज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “जीव विज्ञान।)

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 25 ☆

☆ जीव विज्ञान 

मुझे लगता है कि आप सभी जानते होंगे कि हमारा शरीर अरबों कोशिकाओं से बना है, और शरीर की कोशिकाएँ हर पल बदलती रहती है कोशिकाओं का बदलाव ही उम्र के बढ़ने का कारण है। यदि शरीर की कोशिकाएँ नहीं बदलती हैं, तो हम बूढ़े नहीं होंगे।जीवद्रव्य, पुरस या प्रोटोप्लाज्म कोशिका की जीवित सामग्री होता है जो प्लाज्मा झिल्ली से घिरा होता है। जीवद्रव्य आयनों, एमिनो अम्लों, मोनोसैक्राइड और पानी जैसे छोटे अणुओं और नाभिकीय अम्ल, प्रोटीन, लिपिड और पॉलीसैकराइड जैसे बड़े अणुओं (macromolecules) के मिश्रण से बना होता है। सुकेंद्रिक या युकेरियोट (eukaryote) एक ऐसे जीव को कहा जाता है जिसकी कोशिकाओं (सेल) में झिल्लियों में बंद जटिल ढाँचे हों। सुकेंद्रिक और अकेंद्रिक (प्रोकेरियोट) कोशिकाओं में सबसे बड़ा अंतर यह होता है कि सुकेंद्रिक कोशिकाओं में एक झिल्ली से घिरा हुआ केन्द्रक (न्यूक्लियस) होता है जिसके अन्दर आनुवंशिक (जेनेटिक) सामान होता है।

प्रोटोप्लाज्म दो रूपों में पाया जाता था, एक तरल जैसा ठोस रूप या दूसरा लप्सी/जेली जैसी चिपचिपा घोल” कोशिकाओं (Cell) सजीवों के शरीर की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है और प्राय: स्वत: जनन की सामर्थ्य रखती है। यह विभिन्न पदार्थों का वह छोटे-से-छोटा संगठित रूप है जिसमें वे सभी क्रियाएँ होती हैं जिन्हें सामूहिक रूप से हम जीवन कहतें हैं। ‘कोशिका’ का अंग्रेजी शब्द सेल (Cell) लैटिन भाषा के ‘शेलुला’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ ‘एक छोटा कमरा’ है। कुछ सजीव जैसे जीवाणुओं के शरीर एक ही कोशिका से बने होते हैं, उन्हें एककोशकीय जीव कहते हैं जबकि कुछ सजीव जैसे मनुष्य का शरीर अनेक कोशिकाओं से मिलकर बना होता है उन्हें बहुकोशकीय सजीव कहते हैं। सजीवों की सभी जैविक क्रियाएँ कोशिकाओं के भीतर होती हैं। कोशिकाओं के भीतर ही आवश्यक आनुवांशिक सूचनाएँ होती हैं जिनसे कोशिका के कार्यों का नियंत्रण होता है तथा सूचनाएँ अगली पीढ़ी की कोशिकाओं में स्थानान्तरित होती हैं।

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 29 ☆ हाउ से हू तक ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “हाउ से हू तक”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख  हमें  साधारण मानवीय  व्यवहार से रूबरू कराता है।  यह सच है कि धन दौलत और पद प्रतिष्ठा का चोली दामन का साथ है, किन्तु मानवीय व्यवहार तो आपके  नियंत्रण में है न ।डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 29☆

☆हाउ से हू तक

‘दौलत भी क्या चीज़ है, जब आती है तो इंसान खुद को भूल जाता है, जब जाती है तो ज़माना उसे भूल जाता है।’ धन-दौलत, पैसा व पद-प्रतिष्ठा का नशा अक्सर सिर चढ़कर बोलता है, क्योंकि इन्हें प्राप्त करने के पश्चात् इंसान अपनी सुध-बुध खो बैठता है … स्वयं को भूल जाता है। तात्पर्य यह है, कि धन-सम्पदा पाने के पश्चात् इंसान अहं के नशे में चूर जो रहता है, उसे अपने सिवाय कुछ भी दिखलायी नहीं पड़ता… उस स्थिति में वह स्व-पर से ऊपर उठ जाता है… उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता… सब पराए अथवा दुश्मन ही नज़र आते हैं। वह दौलत के नशे के साथ-साथ शराब व ड्रग्स का आदी हो जाता है…सो! उसे समय, स्थान व परिस्थिति का लेशमात्र भान अथवा ख्याल भी नहीं रहता। और वह संबंध व सरोकारों का उसके जीवन में महत्व नहीं रहता। इस स्थिति में वह अहंनिष्ठ मानव अपनों अर्थात् परिवार व बच्चों से दूर…बहुत…दूर चला जाता है और वह अपने सम्मुख  किसी के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता। वह  मर्यादा की समस्त सीमाओं को लांघ जाता है और रास्ते में आने वाली बाधाओं के सिर पर पांव रख कर आगे बढ़ता चला जाता है  और उसकी यह दौड़ उसे कहीं भी थमने नहीं देती।

धन-दौलत का आकर्षण न धूमिल पड़ता है, न ही कभी समाप्त होता है। यह तो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ता चला जाता है। यह प्रसिद्ध कहावत है…’पैसा ही पैसे को खींचता है।’ दूसरे शब्दों में इंसान की पैसे  की हवस कभी समाप्त नहीं होती…सो! उसे उचित-अनुचित में भेद नज़र आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। धन कमाने का नशा उस पर इस क़दर हावी होता है कि वह राह में आने वाले  आगंतुकों-विरोधियों को कीड़े-मकोड़ों की भांति रौंदता हुआ बढ़ता चला जाता है। इस मन:स्थिति में  वह पाप-पुण्य के भेद को नकार, अपनी सोच व निर्णय को उचित स्वीकारता है।

दुनिया के लोग भी धनवान अथवा दौलतमंद  इंसान को सलाम करते हैं, अर्थात् करने को बाध्य होते हैं…  और यह उनकी नियति होती है। परंतु दौलत के खो जाने के पश्चात् ज़माना उसे भूल जाता है क्योंकि  यह तो ज़माने का चलन है। परंतु इंसान माया के कारण सांसारिक आकर्षणों व दुनियावी चकाचौंध में इस क़दर खो जाता है कि उसे अपने आत्मज भी अपने नज़र नहीं आते, दुश्मन भासते हैं। एक लंबे अंतराल के पश्चात् जब वह उन अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, तो वे भी उसे नकार देते हैं। अब उनके पास उस अहंनिष्ठ इंसान के  लिए समय का अभाव होता है। यह सृष्टि का नियम है कि जैसा आप इस संसार में करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। यह तो हुई आत्मजों अर्थात् अपने बच्चों की बात, जिन्हें अच्छी परवरिश व सुख- सुविधाएं प्रदान करने के लिए वह दिन-रात परिश्रम करता रहा, गलत-ठीक काम करता रहा…परंतु उन्हें समय व स्नेह नहीं दे पाया, जिसकी उन्हें दरक़ार थी, जो उनकी प्राथमिक आवश्यकता थी।

फिर ग़ैरों से क्या शिक़वा कीजिए… दौलत के समाप्त होते ही ज़माना अर्थात् दुनिया भर के लोग भी उसे भुला देते हैं, क्योंकि वे संबंध स्वार्थ के थे, स्नेह सौहार्द के नहीं। मैं तो संबंधों को रिवाल्विंग चेयर की भांति मानती हूं। आपने मुंह दूसरी ओर घुमाया, अवसरवादी बाशिंदों के तेवर भी बदल गए, क्योंकि आजकल संबंध सत्ता व धन-संपदा से जुड़े होते हैं… सब कुर्सी को सलाम करते हैं। जब तक आप उस पर आसीन हैं, सब ठीक चलता है, आपको झूठा मान-सम्मान मिलता है, क्योंकि लोग आपसे हर उचित-अनुचित कार्य की अपेक्षा रखते हैं। वैसे भी समय पर तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है… सो! इंसान की तो बात ही अलग है।

लक्ष्मी का तो स्वभाव ही चंचल है… एक स्थान पर ठहरती कहां है। जब तक वह मानव के पास रहती है, सब उससे पूछते हैं ‘हाउ आर यू’ और लक्ष्मी के स्थान परिवर्तन करने के पश्चात् लोग कहते हैं ‘हू आर यू।’ इस प्रकार लोगों के तेवर पलभर में बदल जाते हैं। ‘हाउ’ में स्वीकार्यता है— अस्तित्वबोध की, आपकी सलामती का भाव है… जो दर्शाता है कि लोग आपकी चिंता करते हैं… चाहे विवशता-पूर्वक या मन की गहराइयों से… यह और बात है। परंतु ‘हाउ’ को ‘हू’ में बदलने में पल भर का समय भी नहीं लगता। ‘हू’ अस्वीकार्यता बोध…आपके अस्तित्व से बेखबर अर्थात् ‘कौन हैं आप?’ ‘कैसे से कौन’ प्रतीक है स्वार्थपरता का, आपके प्रति निरपेक्ष भाव का, अस्तित्वहीनता का… यह प्रतीक है, मानव के संकीर्ण भाव का… क्योंकि उगते सूर्य को सब सलाम करते हैं और डूबते सूर्य को निहारना अपशकुन मानते हैं। आजकल तो लोग बिना काम अर्थात् स्वार्थ के नमस्ते अथवा दुआ सलाम भी नहीं करते।

इस स्थिति में चिन्ता अथवा तनाव का होना अवश्यं- भावी है, जो मानव को अवसाद की स्थिति में धकेल देता है, जिससे मानव लाख चाहने पर भी उबर नहीं पाता। वह अतीत की स्मृतियों में अवगाहन करके संतोष का अनुभव करता है। उसके सम्मुख प्रायश्चित करने के अतिरिक्त दूसरा विकल्प होता ही नहीं। सुख व्यक्ति के अहं की परीक्षा लेता है, तो दु:ख उसके धैर्य की…दोनों स्थितियों-परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाले व्यक्ति का जीवन सफल कहलाता है। यह भी अकाट्य सत्य है कि सुख में व्यक्ति फूला नहीं समाता, उस के कदम धरा पर नहीं पड़ते…वह अहंवादी हो जाता है और दु:ख के समय वह हैरान-परेशान हो जाता है तथा अपना धैर्य खो बैठता है। वह अपनी नाकामी अथवा असफलता का ठीकरा दूसरों के सिर फोड़ता है। इस उधेड़बुन में वह सोच नहीं पाता कि यह संसार दु:खालय है और सुख बिजली की कौंध की मानिंद जीवन में दस्तक देता है…परंतु बावरा मन उसे स्थायी समझ अपनी बपौती समझ बैठता है और उसके जाने के पश्चात् शोकाकुल हो जाता है।

सुख-दु:ख का चोली दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा आता है। जिस प्रकार एक  म्यान में दो तलवारों का रहना असंभव है, उसी प्रकार दोनों का एकछत्र छाया में रहना असंभव है। परंतु सुख-दु:ख में सम रहना आवश्यक है। दोनों अतिथि हैं, आए हैं, तो उनका लौटना भी निश्चित है। इसलिए न किसी के आने की खुशी, न किसी के जाने का शोक मनाना चाहिए। हर स्थिति में सम रहने का भाव सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। इसलिए सुख में अहं को शत्रु समझना आवश्यक है और दु:ख में अथवा दूसरे कार्य में धैर्य का दामन छोड़ना स्वयं को मुसीबत में डालने के समान है। जीवन में कभी भी किसी को छोटा समझ कर किसी की उपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि समय पर हर व्यक्ति व वस्तु का अपना महत्व होता है। सूई का काम तलवार नहीं कर सकती। मिट्टी, जिसे आप पांव तले रौंदते हैं, उसका एक कण भी आंख में पड़ने पर, इंसान पर की जान पर बन आती है। सो! जीवन में किसी तुच्छ वस्तु व व्यक्ति की, कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए… उसे स्वयं से अर्थात् उसकी प्रतिभा को कम नहीं आंकना चाहिए।

पैसे से सुख-सुविधाएं तो खरीदी जा सकती हैं,  मानसिक शांति नहीं। इसलिए दौलत का अभिमान कभी मत कीजिए… पैसा तो हाथ का मैल है… एक स्थान पर नहीं ठहरता। परमात्मा की कृपा से पलक झपकते रंक राजा बन सकता है…पंगु पर्वत लांघ सकता है, अंधा देखने लग जाता है। इस जन्म में इंसान को जो कुछ भी मिलता है…पूर्वजन्मों के कर्मों का फल होता है…फिर अहं कैसा? गरीब व्यक्ति भी अपने कृतकर्मों का फल भोगता है…फिर उसकी उपेक्षा व अपमान क्यों? इसलिए मानव का हर स्थिति में सम रहना सर्वश्रेष्ठ व उत्तम है…सफलता का मूल है। समन्वय सामंजस्यता का जनक है, उपादान है, जो जीवन में समरसता लाता है। यह कैवल्य अर्थात् अलौकिक आनंद की स्थिति है, जिसमें ‘हाउ व हू’ का वैषम्य भाव समाप्त हो जाता है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 11 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 11 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें)

हमारे कुछ मित्रों ने कहा कि ‘जो लिखा जा रहा है वह भी तो मशीनों के उपयोग से है।‘यह प्रश्न तो गांधीजी ने स्वयं  से भी किया था और बापू ने इसका कोई सीधा उत्तर नहीं दिया। लेकिन हर जगह जहाँ कहीं वे यंत्र का समर्थन करते हैं तब एक ही बात उनके ध्यान में रहती है वह है समय और श्रम की बचत।  मैं सोचता हूँ कि आज अगर गांधीजी से पूंछा जाता  कि कम्प्यूटर व केलकुलेटर का उपयोग करना चाहिए कि नहीं तो वे कहते हाँ करना चाहिए क्योंकि इससे समय व श्रम की बचत होगी और मानव जाति का हित होगा। गांधीजी ऐसी मशीनों के पक्षधर हैं जो श्रम की बचत तो करें पर धन का लोभ का कारण  न बने। केलकुलेटर व  कम्प्यूटर का प्रयोग ऐसा ही है, हम इनका प्रयोग कोई धन के लोभ में नहीं करते वरण इनके प्रयोग से तो जोड़ने घटाने के काम आसानी से हो जाते हैं और समय बचता है, कम्प्यूटर का प्रयोग हमें और व्यवस्थित बनाता है हमारे कार्यों को सरल बनाता है। कम्प्यूटरीकरण से रोजगार के अवसर बढे हैं, इसने रोजगार के अवसर छीने नहीं हैं बल्कि नए अवसर पैदा किये हैं।

लेकिन वे मोबाइल को लेकर जरूर दुखी होते और शायद यही कहते कि इस यंत्र ने मानव जाति का सबसे ज्यादा नुकसान किया है। वे कहते इसने तो मानवीय संवेदनाओं को व्यक्त करने का तरीका ही बदल दिया है लोग आपस में बातचीत ही नहीं करते बस सन्देश भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। स्वास्थ पर हो रहे दुष्प्रभाव को लेकर भी वे हमें डांटते। लेकिन शायद जब अनेक लोग उनकी आलोचना करते, उनके मोबाइल विरोध को गलत बताते तो वे क्या कहते तब शायद वे कपड़ा मिलों के विषय में अपने विचारों जैसा कुछ बदलाव करते या फिर कहते कि जैसे रेलगाड़ी सब मुसीबतों की जड़ है वैसे ही मोबाइल भी है पर फिर भी मैं जब जरुरत होती है तब रेलगाडी और मोटर गाडी का उपयोग करता हूँ वैसे ही आप भी जरूरत पड़ने पर मोबाइल का उपयोग करो दिन भर उससे चिपके मत रहो।

उनकी यह बात भारतीय मनीषियों के सदियों पुराने चिंतन का परिणाम है जो काम क्रोध  मद लोभ को सभी बुराइयों की जड़ मानती आई है और इस चिंतन ने सदैव धन के लोभ से बचने की सलाह दी है। गांधीजी कहते हैं कि मेरा झगड़ा यंत्रों के खिलाफ नहीं, बल्कि आज यंत्रों का जो बुरा उपयोग हो रहा है उसके खिलाफ है। अब देखिये ट्राली बैग ने कुली ख़तम कर दिए हम ट्राली बैग क्यों लेते है क्योंकि कुछ पैसे बचाना है, यह जो कुछ धन बचाने का जो लोभ है उसने एक बड़े तबके का रोजगार छीन लिया है। आज रेलवे स्टेशनों से कुली लगभग गायब हो गए हैं।

अनेक मित्रों ने गांधीजी के मशीनों के विरोध को राष्ट्र की रक्षा से जोड़ा है। यंत्रों का विरोध और राष्ट्र की सुरक्षा दो अलग अलग बातें हैं। गांधीजी ने राष्ट्र की सुरक्षा के लिए आत्म बलिदान की बातें कहीं, जब कबाइली कश्मीर में घुस आये तो तत्कालीन सरकार ने फ़ौज भेजकर मुकाबला किया। इस निर्णय से गांधीजी की भी सहमति थी। हम हथियारों का निर्माण राष्ट्र की रक्षा के लिए करें और उसकी अंधी खरीद फरोख्त के चंगुल में न फंसे यही गांधीजी के विचार आज की स्थिति में होते। आंतकवादियों, नक्सलियों, राष्ट्र विरोधी ताकतों की गोली का मुकाबला गोली से ही होगा लेकिन बोली का रास्ता भी खुला रहना चाहिए ऐसा कहते हुए मैंने अनेक विद्वान् गांधीजनों को सुना है। हमे 1962 की लड़ाई से सीख मिली और सरकारों ने देश की रक्षा प्रणाली को मजबूत करने के लिए अनेक कदम उठाये। इसके साथ ही बातचीत के रास्ते राजनीतिक व सैन्य स्तर पर भी उठाये गए हैं इससे शान्ति स्थापना में मदद मिली है और 1972 के बाद देश को कोई बड़े युद्ध का सामना नहीं करना पडा।यही गांधीजी  का रास्ता है, बातचीत करो, अपील करो, दुनिया का ध्यान समस्या की ओर खीचों समस्या का निदान भी ऐसे ही संभव है। हथियारों से हासिल सफलता स्थाई नहीं होती।

कुछ मित्रों ने जनसंख्या वृद्धि की ओर ध्यान दिलाया है। यह तो सही है की बढ़ती हुई जनसंख्या का पेट भरने में कृषि उत्पादन को बढ़ाना जरुरी है और इसमें यंत्रों/ रासायनिक खाद / कीटनाशकों  का प्रयोग न किया जाय तो फसल की पैदावार कैसे बढ़ेगी। लेकिन यह सब कुछ हद में बाँध दिया जाय तो फसल भी खूब होगी और कृषि के मजदूर बेरोजगार न होंगे। जैसे हार्वेस्टर के बढ़ते प्रयोग ने फसल कटाई में, खरपतवार नाशक दवाई ने निंदाई में मजदूरों के प्रयोग को खतम कर दिया है। हम इनके उपयोग को रोक सकते हैं।हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि औद्योगिक क्रांति ने ही जनसंख्या वृद्धि को संभव बनाया। शायद गांधीजी ने इस दुष्प्रभाव को भी 1909 में भलीभांति पहचान लिया था।

गांधीजी ने मशीनों का विरोध स्वदेशी को प्रोत्साहन देने के लिए नहीं वरन देश को गुलामी की जंजीरों का कारण मानते हुए किया था। वे तो स्वयं चाहते थे कि मेनचेस्टर से कपड़ा बुलाने के बजाय देश में ही मिलें लगाना सही कदम होगा। यंत्रीकरण और तकनीकी के बढ़ते प्रयोग ने रोज़गार के नए क्षेत्र खोले हैं। इससे पढ़े लिखे लोगों को रोजगार मिला है लेकिन उन लाखों लोगो का क्या जो किसी कारण पढ़ लिख न सके या उनका कौशल उन्नयन न हो सका। यंत्रीकरण का सोच समझ कर उपयोग करने से ऐसे अकुशल श्रमिकों की  आर्थिक हालत भी सुधरेगी। प्रजातंत्र में सबको जीने के लिए आवश्यक संसाधन और अवसर तो मिलने ही चाहिए।

यह सही है कि अब हम पुराने जमाने की ओर नहीं लौट सकते, बिजली और उससे चलने वाले उपकरणों ने हमें बहुत सुख दिया है अब दिया बाती के युग में वापिस जाना मूर्खता ही होगी। पर सोचिये इन सब संसाधनों के बढ़ते प्रयोग ने कैसा विनाश रचा है। वातानुकूलन यंत्रों के अति प्रयोग ने ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को बढ़ाया ही है।

कुछ ने कहा कि गांधीजी के रास्ते पर चलना जंगली जीवन जीने जैसा होगा। इस बात का क्या उत्तर होगा? जब आदि मानव थे तो उन्होंने ही सबसे ज्यादा आविष्कार किये, सदैव नई खोज करना मनुष्य का स्वाभाव है। गांधीजी तो पुरातनपंथी कतई न थे।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था? ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

(We present an English Version of this Hindi Poetry “समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था?”  as  ☆ Did the ocean churning happen only once? ☆  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

☆ संजय दृष्टि  – समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था? ☆

 …. फिर ये नित, निरंतर, अखण्डित रूप से मन में जो मथा जा रहा होता है, वह क्या है?… विष भी अपना, अमृत भी अपना! राक्षस भी भीतर, देवता भी भीतर!… और मोहिनी बनकर जग को भरमाये रखने की चाह भी भीतर!

… समुद्र मंथन क्या सचमुच एक बार ही हुआ था..?

मंथन शाश्वत है, सृजन शाश्वत है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #31 – नदियो में धार्मिक स्नान ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “नदियो में धार्मिक स्नान”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 31 ☆

☆ नदियो में धार्मिक स्नान

 

स्नान का महत्व निर्विवाद हैशुद्धता और पवित्रता के लिये प्रतिदिन प्रातः काल हम नहाते हैं.हमारी शरीर से निकलते पसीने व वातावरण के सूक्ष्म कण धूल इत्यादि से त्वचा पर जो  मैल व गंध का जो आवरण बन जाता है वह साफ पानी से नहाने से निकल जाता है और त्वचा को स्निग्धता तथा स्फूर्ति मिलती है इस भौतिक स्चच्छता का हमारे मन पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, शरीर की थकान मिट जाती है . हमारे रोमकूप खुल जाते हैं जिससे त्वचा का सौंदर्य भी बढ़ता है आंतरिक स्फूर्ति का संचरण होता है.  इसीलिये ठंड के दिनो में सनबाथ, स्टीमबाथ, लिया जाता है तो गर्मियों में टब बाथ का महत्व है.आयुर्वेद में भोजन के तुरंत बाद स्नान वर्जित कहा गया है.  मकर संक्रांति पर पंचकर्म और मिट्टी, उबटन, तरह तरह के साबुन बाडी वाश आदि से जल स्नान का प्रचलन हमारी संस्कृति का हिस्सा है. योग में शरीर के आंतरिक अंगों को शुद्ध करने के लिए  शंख प्रक्षालन, नेती, नौलि, धौती, कुंजल, गजकरणी, गणेश क्रिया, अंग संचालन आदि अनेक विधियां बताई जाती हैं. गर्म पानी से नहाने पर रक्त-संचार पहले कुछ उतेजित होता है किन्तु बाद में मंद पड़ जाता है, लेकिन ठंडे पानी से नहाने पर रक्त-संचार पहले मंद पड़ता है और बाद में उतेजित होता है जो कि अधिक लाभदायक है।

आज देश में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन चलाया जा रहा है. ऐसे समय  में स्नान को केंद्र में रखकर ही  कुंभ जैसा महा पर्व मनाया गया है. जो हजारो वर्षो से हमारी संस्कृति का हिस्सा है. पीढ़ीयों से जनमानस की धार्मिक भावनायें और आस्था कुंभ स्नान से जुड़ी हुई हैं.  प्रश्न है कि क्या कुंभ स्नान को मेले का स्वरूप देने के पीछे केवल नदी में डुबकी लगाना ही हमारे मनीषियो का उद्देश्य रहा होगा ? इस तरह के आयोजनो को नियमित अंतराल पर निर्ंतर स्वस्फूर्त आयोजन करने की व्यवस्था बनाने का निहितार्थ समझने की आवश्यकता है. आज तो लोकतात्रिक शासन है हमारी ही चुनी हुई सरकारें हैं पर कुंभ के मेलो ने तो पराधीनता के युग भी देखे हैं आक्रांता बादशाहों के समय में भी कुंभ संपन्न हुये हैं और इतिहास गवाह है कि तब भी तत्कालीन प्रशासनिक तंत्र को इन भव्य आयोजनो का व्यवस्था पक्ष देखना ही पड़ा.

वास्तव में नदियो में धार्मिक भावना से कुंभ स्नान शुचिता का प्रतीक है शारीरिक और मानसिक शुचिता का. जो साधुसंतो के अखाड़े इन मेलो में एकत्रित होते हैं वहां सत्संग होता है गुरु दीक्षायें दी जाती हैं. इन मेलों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जनमानस तरह तरह के व्रत संकल्प और प्रयास करता है. धार्मिक यात्रायें की होती हैं. लोगों का मिलना जुलना वैचारिक आदान प्रदान हो पाता है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #29 ☆ पिंजरा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 29 ☆

☆ पिंजरा ☆

( कल  के अंक में इस कविता का कॅप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा अंग्रेजी अनुवाद अवश्य पढ़िए )

मानवीय मनोविज्ञान के अखंडित स्वाध्याय का शाश्वत गुरुकुल है सनातन अध्यात्मवाद।

भारतीय आध्यात्मिक दर्शन कहता है-गृहस्थ यदि सौ अंत्येष्टियों में जा आए तो संन्यासी हो जाता है और यदि संन्यासी सौ विवाह समारोहों में हो आए तो गृहस्थ हो जाता है।

वस्तुतः मनुष्य अपने परिवेश के अनुरूप शनैः-शनैः ढलता है। इर्द-गिर्द जो है, उसे देखने, फिर अनुभव करने, अंततः जीने लगता है मनुष्य।

जीने से आगे की कड़ी है दासता। आदमी अपने परिवेश का दास हो जाता है, ओढ़ी हुई स्थितियों को  सुख मानने लगता है।

परिवेश की इस दासता को आधुनिक यंत्रवत जीवन जीने की पद्धति से जोड़कर देखिए। विराट अस्तित्व के बोध से परे सांसारिकता के बेतहाशा दोहन में डूबा मनुष्य अपने चारों ओर खुद कंटीले तारों का घेरा लगाता दिखेगा।

उसकी स्थिति जन्म से पिंजरा भोगनेवाले सुग्गे या तोते-सी हो गई है।

सुग्गे के पंखों में अपरिमित सामर्थ्य, आकाश मापने की अनंत संभावनाएँ हैं किंतु निष्काम कर्म बिना आध्यात्मिक संभावना उर्वरा नहीं हो पाती।

निरंतर पिंजरे में रहते-रहते एक पिंजरा मनुष्य के भीतर भी बस जाता है। परिवेश का असर इस कदर कि पिंजरा खोल दीजिए, पंछी उड़ना नहीं चाहता।

वर्षों पूर्व लिखी अपनी एक कविता स्मरण हो आई है-

पिंजरे की चारदीवारियों में

फड़फड़ाते हैं मेरे पंख

खुला आकाश देखकर

आपस में टकराते हैं मेरे पंख,

मैं चोटिल हो उठता हूँ

अपने पंख खुद नोंच बैठता हूँ

अपनी असहायता को

आक्रोश में बदल देता हूँ,

चीखता हूँ, चिल्लाता हूँ

अपलक नीलाभ निहारता हूँ,

फिर थक जाता हूँ

टूट जाता हूँ

अपनी दिनचर्या के

समझौतों तले बैठ जाता हूँ,

दुःख कैद में रहने का नहीं

खुद से हारने का है

क्योंकि

पिंजरा मैंने ही चुना है

आकाश की ऊँचाइयों से डरकर

और आकाश छूना भी मैं ही चाहता हूँ

इस कैद से ऊबकर,

एक साथ, दोनों साथ

न मुमकिन था, न है

इसी ऊहापोह में रीत जाता हूँ

खुले बादलों का आमंत्रण देख

पिंजरे से लड़ने का प्रण लेता हूँ

फिर बिन उड़े

पिंजरे में मिली रोटी देख

पंख समेट लेता हूँ,

अनुत्तरित-सा प्रश्न है

कैद किसने, किसको कर रखा है?

वास्तविक प्रश्न यही है कि कैद किसने, किसको कर रखा है?

 

प्रश्न यद्यपि समष्टिगत है किंतु व्यक्तिगत उत्तर से ही समाधान की दिशा में यात्रा आरंभ हो सकती है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य – # 24 – इतिहास का सर्वोत्तम सच ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “इतिहास का सर्वोत्तम सच।)

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 24 ☆

☆ इतिहास का सर्वोत्तम सच

 

भगवान ब्रह्मा ने अपने मस्तिष्क की सिर्फ एक इच्छा से चार कुमार (‘कु’ का अर्थ है ‘कौन’ और ‘मार’ का अर्थ है ‘मृत्यु’, तो कुमार का अर्थ है कि उसे कौन मार सकता है ? अथार्त कोई नहीं । इसलिए कुमार का अर्थ है मृत्यु से परे) मानस  (मन की इच्छा से निर्मित)पुत्रों को पैदा किया।उनके नाम सनक (अर्थ : प्राचीन), सनन्दन (अर्थ : आनंदमय), सनातन (अर्थ : अनंत, जिसकी कोई शुरुवात या अंत ना हो) और सनत (भगवान ब्रह्मा, शाश्वत, एक संरक्षक) थे।जब चार कुमार अस्तित्व में आये, तो वे सभी शुद्ध थे। उनके पास गर्व, क्रोध, लगाव, वासना, भौतिक इच्छा (अहंकर, क्रोध, मोह, कार्य , लोभ) जैसे नकारात्मक गुणों का कोई संकेत तक नहीं था। भगवान ब्रह्मा ने इन चारों को ब्रह्मांड बनाने में सहायता करने के लिए बनाया था, लेकिन कुमारों को कुछ भी बनाना नहीं आता था और उन्होंने खुद को भगवान और ब्रह्मचर्य के प्रति समर्पित कर दिया। उन्होंने ब्रह्मा जी से हमेशा पाँच वर्षीय बच्चे बने रहने के वरदान के लिए अनुरोध किया, क्योंकि पाँच वर्षीय बच्चे के मन में कोई नकारात्मक विचार नहीं आ सकता है। तो वे हमेशा पाँच साल के बच्चे की तरह ही लगते थे ।

जय (अर्थ : जीत, आम तौर पर शारीरिक जीत लेकिन हमेशा नहीं) और विजय (अर्थ: जीत, आम तौर पर मस्तिष्क  की जीत, लेकिन हमेशा नहीं) वैकुंठ के द्वारपाल थे। एक बार उन्होंने वैकुंठ के द्वार पर कुमारों को बच्चे समझ कर रोक दिया। उन्होंने कुमारों को बताया कि श्री विष्णु इस समय आराम कर रहे हैं और वे अभी उनके दर्शन नहीं कर सकते हैं।

सनातन कुमार ने उत्तर दिया, “भगवान अपने भक्तों से प्यार करते हैं और हमेशा उनके लिए उपलब्ध रहते हैं। आपको हमे हमारे प्रिय भगवान के दर्शन करने से रोकने का कोई अधिकार नहीं है” लेकिन जय और विजय उनकी बातों को समझ नहीं पाए और लंबे समय तक कुमारों से बहस करते रहे। यद्यपि कुमार बहुत शुद्ध थे, लेकिन भगवान की योजना के अनुसार अपने द्वारपालों को एक सबक सिखाने और ब्रह्मांड के विकास के लिए, उन्होंने कुमारों के शुद्ध दिल में क्रोध उत्पन्न कर दिया। गुस्से में कुमारों ने दोनों द्वारपालों जय और विजय को शाप दिया, जिससे की वह अपनी दिव्यता को छोड़ सकें और पृथ्वी पर प्राणियों के रूप में पैदा हो सकें और वहाँ रह सकें।

जब जय और विजय को वैकुंठ के प्रवेश द्वार पर कुमारों ने शाप दिया, तो भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट हुए और द्वारपालों ने विष्णु से कुमारों द्वारा दिए गए अभिशाप को हटाने का अनुरोध किया। विष्णु जी ने कहा कि कुमारों के अभिशाप को वापस नहीं किया जा सकता है। इसके बजाय, वह जय और विजय को दो विकल्प देते हैं। पहला विकल्प पृथ्वी पर सात जन्म विष्णु के भक्त के रूप में लेना है, जबकि दूसरा तीन जन्म विष्णु के दुश्मनों के रूप में लेना है।

इन वाक्यों में से किसी एक पूर्ण करने के बाद ही वे वैकुंठ में अपने पद को पुनः प्राप्त कर सकते हैं और भगवान के साथ स्थायी रूप से रह सकते हैं। जय और विजय सात जन्मों के लिए भगवान विष्णु से दूर रहने का विचार सोच भी नहीं सकते थे तो वे तीन जन्मों तक भगवान विष्णु के दुश्मन बनने के दूसरे विकल्प के लिए सहमत हो गए।

भगवान विष्णु के दुश्मन के रूप में पहले जन्म में, जय और विजय सत्य युग में हिरण्याक्ष (अर्थ : स्वर्ण की आँखों वाला, सोने की धुरी) और हिरण्यकशिपु (अर्थ : सोने में पहने हुए) के रूप में पैदा हुए ।  दैत्यों के आदिपुरुष कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सकेगा न पशु द्वारा, न दिन में मारा जा सकेगा न रात्रि  में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार से उसके प्राणों को कोई डर रहेगा। इस वरदान ने उसे अहंकारी बना दिया और वह अपने को अमर समझने लगा। उसने इंद्र का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों को प्रताड़ित करने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान मानें और उसकी पूजा करें। उसने अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना एवं प्रताड़ना के बावजूद वह विष्णु की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में चली जाय क्योंकि होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ पर होलिका जलकर राख हो गई। अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आये । वे खंभे से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेश द्वार की चौखट पर, जो न घर का बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात्रि, आधा मनुष्य, आधा पशु जो न नर था न पशु ऐसे नरसिंह के रूप में अपने लंबे तेज़ नाखूनों से जो न अस्त्र थे न शस्त्र, मार डाला। इस प्रकार हिरण्यकश्यप अनेक वरदानों के बावजूद अपने दुष्कर्मों के कारण भयानक अंत को प्राप्त हुआ। हिरण्याक्ष का वध वाराह अवतारी विष्णु ने किया था। वह हिरण्यकशिपु का छोटा भाई था। हिरण्याक्ष माता धरती को रसातल में ले गया था जिसकी रक्षा के लिए आदि नारायण भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लिया, कहते हैं वाराह अवतार का जन्म ब्रह्मा जी के नाक से हुआ था । कुछ मान्यताओं के अनुसार यह भी कहा जाता है कि हिरण्याक्ष और वाराह अवतार में कई वर्षों तक युद्ध चला । क्योंकि जो राक्षस स्वयं धरती को रसातल में ले जा सकता है आप सोचिए उसकी शक्ति कितनी होगी ? फिर वाराह अवतार के द्वारा मारे जाने वाले थप्पड़ की आवाज के द्वारा हिरण्याक्ष का वध हुआ ।

अगले त्रेता युग में, जय और विजय रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए, और भगवान विष्णु ने भगवान राम अवतार के रूप में उनका वध किया।

द्वापर युग के अंत में, जय और विजय शिशुपाल (अर्थ : बच्चे का संरक्षक) और दन्तवक्र (अर्थ : कुटिल दांत) के रूप में अपने तीसरे जन्म में उत्पन्न हुए। दन्तवक्र, शिशुपाल के मित्र जरासंध (अर्थ : थोड़ा सा संदेह) और भगवान कृष्ण के दुश्मन थे। जिनका वध भगवान विष्णु के कृष्ण अवतार ने किया ।

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 28 ☆ सोSहम् शिवोहं ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “सोSहम् शिवोहं”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख  हमें इस प्रश्न का उत्तर जानने  के लिए प्रेरित करता है कि “मैं  कौन हूँ ?”डॉ मुक्ता जी ने इस तथ्य के प्रत्येक पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की है।  डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 28☆

☆ सोSहम् शिवोहं

 

सोSहम् शिवोहं…जिस दिन आप यह समझ जाएंगे  कि ‘मैं कौन हूं’  फिर जानने के लिए  कुछ शेष नहीं रहेगा। इस मिथ्या संसार में मृगतृष्णा से ग्रसित मानव दौड़ा चला जाता है और उन इच्छाओं को पूर्ण कर लेना चाहता है, जो उससे बहुत दूर हैं। इसलिए वे मात्र स्वप्न बन कर रह जाती हैं और उसकी दशा  तृषा से आकुल उस मृग के समान हो जाती है, जो   रेत पर पड़ी सूर्य की किरणों को जल समझ दौड़ा चला जाता है और  अंत में अपने प्राण त्याग देता है।  यही दशा मानव की है, जो अधिकाधिक ख-संपदा पाने के का हर संभव प्रयास करता है…  राह में आने वाली आपदाओं की परवाह नहीं करता और संबंधों को नकारता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है । उसे दिन-रात में कोई अंतर नहीं भासता। वह अह- र्निश कर्मशील रहता है और एक अंतराल के पश्चात् वह  बच्चों के मान-मनुहार, पत्नी व परिजनों के सान्निध्य  से  वंचित रह जाता है। वह उसी भ्रम में रहता है  कि सुख-सुविधाएं- स्नेह व प्रेम का विकल्प हैं। परंतु  बच्चों को आवश्यकता होती है…माता के स्नेह, प्यार-दुलार व साहचर्य की…और पिता के सुरक्षा-दायरे की, जिसमें बच्चे स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं  और उनके सानिध्य में खुद को किसी बादशाह से कम नहीं आंकते। परंतु आजकल बच्चों  व बुज़ुर्गों को  एकांत की त्रासदी से जूझना पड़ता है, जिसके परिणाम-स्वरूप  बच्चे गलत राह पर अग्रसर हो जाते हैं  और मोबाइल व मीडिया की गिरफ़्त में रहते हुए कब अपराध-जगत् में प्रवेश कर जाते हैं,  जिसका ज्ञान उनके माता-पिता को बहुत देरी से होता है। घर के बड़े-बुज़ुर्ग भी स्वयं को असुरक्षित अनुभव करते हैं। वे आंख, कान व मुंह बंद कर के  जीने को विवश होते हैं,  क्योंकि कोई भी माता-पिता अपने व बच्चों के बारे में, एक वाक्य भी हज़म नहीं कर पाते।इतना ही नहीं,उन्हें उसी पल उनकी औक़ात का अहसास  दिला दिया जाता है। अपने अंतर्मन के उद्वेलन से जूझते हुए वे अवसाद के शिकार हो जाते हैं और बच्चों के माता-पिता भी  आत्मावलोकन करने को  विवश हो जाते हैं, जिसका ठीकरा वे एक-दूसरे पर फेंक कर अर्थात् दोषारोपण कर निज़ात पाना चाहते हैं। परंतु यह सिलसिला थमने का नाम ही नहीं लेता। अक्सर ऐसी स्थिति में वे अलगाव की राह तक पहुंच जाते हैं।

संसार में मानव के दु:खों का सबसे बड़ा कारण है… विश्व के बारे में पोथियों से ज्ञान प्राप्त करना, क्योंकि यह भौतिक ज्ञान हमें मशीन बना कर रख देता है और  हम अपनी हसरत को पूरा कर लेना चाहते हैं, चाहे हमें उसके लिए बड़े से बड़ी कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े…भले ही हमें उसके लिए बड़े से बड़ा त्याग देना पड़े। हम अंधाधुंध दौड़ते चले जाते हैं, जबकि हम अपने जीवन के लक्ष्य से भी अवगत नहीं होते। सो! यह तो अंधेरे में तीर चलाने जैसा होता है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि ‘मैं कौन हूं और मेरे जीवन का प्रयोजन क्या है?’

वास्तव में इस आपाधापी के युग में यह सब सोचने का समय ही कहां मिलता है… जब हम अपने बारे में ही नहीं जानते, तो जीव-जगत् को समझने का प्रश्न ही कहां उठता है? आदिगुरु शंकराचार्य पांच वर्ष की आयु में घर छोड़ कर चले गए थे… इस तलाश में कि ‘मैं कौन हूं’ और उन्होंने ही सबसे पहले अद्वैत दर्शन अर्थात् परमात्मा की सत्यता से अवगत कराया कि ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ है।  संसार में जो कुछ भी है…माया के कारण सत्य भासता है और ब्रह्म सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है…वह सत्य है, निराकार है, सर्वव्यापक है, अनश्वर है। परंतु समय अबाध गति से निरंतर चलता रहता है, कभी रुकता नहीं। प्रकृति के विभिन्न उपादान सूर्य, चंद्रमा,तारे व पृथ्वी आदि सभी क्रियाशील हैं। इसलिए सब कुछ निश्चित समयानुसार घटित हो रहा है और वे सब नि:स्वार्थ भाव से दूसरों  के हित के लिए  काम कर रहे हैं। वृक्ष अपने फल नहीं खाते, जल व वायु अपने तत्वों का उपयोग- उपभोग नहीं करते। श्री परमहंस योगानंद जी का यह सारगर्भित वाक्य ‘खुद के लिए जीने वाले की ओर कोई ध्यान नहीं देता, पर जब आप दूसरों के लिए जीना सीख लेते हैं, तो वे आपके लिए जीते हैं’ बहुत सार्थक संदेश देता है। आप जैसा करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। नि:स्वार्थ भाव से किया गया कर्म सर्वोत्तम होता है। गीता के  निष्काम कर्म का संदेश…फल की इच्छा न रखने व मानवता-  वादी भावों से आप्लावित है।

स्वामी विवेकानंद जी का यह वाक्य हमें ऊर्जस्वित करता है कि ‘किस्मत के भरोसे न बैठें बल्कि पुरुषार्थ यानि मेहनत के दम पर खुद की किस्मत बनाएं।’  परमात्मा में श्रद्धा, आस्था व विश्वास रखना तो ठीक है, परंतु हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाने का औचित्य नहीं। अब्दुल कलाम जी के विचार विवेकानंद जी के भाव  को पुष्ट करते हैं, कि जो लोग परिश्रम नहीं करते और भाग्य के सहारे प्रतीक्षा -रत रहते हैं,  तो उन्हें जीवन में उस बचे हुये फलों की प्राप्ति होती है, क्योंकि पुरूषार्थी व्यक्ति अपने अथक परिश्रम से यथासमय उत्तम फल प्राप्त कर ही लेता है। सो!आलसी लोगों को मनचाहा फल कभी भी प्राप्त नहीं होता।

‘अपने सपनों को साकार करने का  सर्वश्रेष्ठ तरीका यही है कि आप जाग जाएं’— पाल वैलेरी का कथन बहुत सार्थक है और अब्दुल कलाम जी मानव को यह संदेश देते हैं कि ‘खुली आंखों से सपने देखो, अर्थात् यदि आप सोते रहोगे, तो परिश्रमी व पुरूषार्थी लोग आप से आगे बढ़कर वांछित फल प्राप्त कर लेंगे और आप हाथ मलते रह जायेंगे।’ समय बहुत अनमोल है, लौट कर कभी नहीं आता। सो!क्षहर पल की कीमत समझो।’स्वयं को जानो, पहचानो।’ जिस दिन आप समय की महत्ता को अनुभव कर स्वयं को पहचान जाओगे…अपनी बलवती इच्छा से आप वैसे ही बन जाओगे… आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित सुप्त शक्तियों को पहचानने की, क्योंकि पुरुषार्थी लोगों के सम्मुख तो बाधाएं भी खड़ा  रहने का साहस नहीं जुटा पातीं…इसलिए अच्छे लोगों की संगति करने का संदेश दिया गया है, क्योंकि उस स्थिति में बुरा वक्त आएगा ही नहीं। जब आपके विचार अच्छे होंगे, तो आपकी सोच भी  सकारात्मक होगी और आप सत्य के निकट होंगे और सत्य सदैव  कल्याणकारी होता है, शुभ होता है, सुंदर होता है और सबका प्रिय होता है। दूसरी ओर सकारात्मक सोच आपको निराशा रूपी गहन अंधकार में नहीं भटकने देती। आप सदैव प्रसन्न रहते हैं और खुश-मिजाज़ लोगों की संगति सबको प्रिय होती है। इसलिए  ही रॉय गुडमैन के शब्दों में ‘हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि खुशी जीवन की यात्रा का  एक तरीका है, न कि जीवन की मंज़िल’ अर्थात् खुशी जीने की राह है, अंदाज़ है, जिसके आधार पर आप अपनी मंज़िल पर पहुंच सकते हैं।

मानव व प्रकृति का निर्माण पंचतत्वों से हुआ है…  पृथ्वी, जल, आकाश, वायु व अग्नि और मानव भी अंत में इनमें ही विलीन हो जाता है। परंतु दुर्भाग्य- वश वह आजीवन काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार  के द्वंद्व से मुक्ति  नहीं प्राप्त कर सकता तथा इसी उहापोह में उलझा रहता है। हमारे वेद-शास्त्र,  तीर्थ- स्थल व अन्य धार्मिक-ग्रंथ हमें समय-समय पर जीवन के अंतिम लक्ष्य का ध्यान दिलाते हैं…जिसका प्रभाव स्थायी होता है। कुछ समय के लिए तो मानव निर्वेद भाव से इनकी ओर आकर्षित होता है, परंतु फिर माया के वशीभूत सब कुछ भुला बैठता है। जीवन के अंतिम पड़ाव में वह प्रभु से ग़ुहार लगाता है, उसका नाम-सिमरन व ध्यान करना चाहता है, परंतु उस स्थिति में पांचों कर्मेंद्रियां आंख, कान, नाक, मुंह, त्वचा उसके नियंत्रण में नहीं होतीं। उसका शरीर शिथिल हो जाता है, बुद्धि कमज़ोर हो जाती है तथा सबसे अलग-थलग पड़ जाता है, क्योंकि वह अहंनिष्ठ  स्वयं को आजीवन सर्वश्रेष्ठ समझता रहा। आत्म-चिंतन करने पर  ही उसे अपनी गल्तियों का ज्ञान होता है और वह प्रायश्चित करना चाहता है। परंतु उसके परिवारजन भी उससे कन्नी काटने लग जाते हैं। परंतु समय गुजरने के पश्चात् उन्हें उसकी आवश्यकता अनुभव नहीं होती। सो! अब उसे अपना बोझ स्वयं ढोना पड़ता है।

बेंजामिन फ्रैंकलिन का यह कथन ‘बुद्धिमान लोगों को सलाह की आवश्यकता नहीं होती और मूर्ख लोग इसे स्वीकार नहीं करते’ अत्यंत सार्थक है, जिसके माध्यम से मानव में आत्मविश्वास किया गया है। यदि वह बुद्धिमान है, तो शेष जीवन का एक-एक पल स्वयं को जानने-पहचानने में लगा देता है… और वह प्रभु का नाम-स्मरण करने में रत रहता है। ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ अर्थात् प्रभु की सत्ता व महिमा अपरंपार है। मानव चाह कर भी उसका पार नहीं पा सकता। उस स्थिति में उसे प्रभुकथा सत्य  और शेष सब जग-व्यथा प्रतीत होती है और मानव मौन रहना अधिक पसंद करता है।ऐसा व्यक्ति निंदा-स्तुति, स्व- पर व राग-द्वेष से बहुत ऊपर उठ जाता है। उसे  किसी से कोई शिक़वा-शिकायत नहीं रहती क्योंकि उसकी भौतिक इच्छाओं का तो पहले ही शमन हो चुका होता है। इसलिए वह सदैव संतुष्ट रहता है… स्वयं में स्थित रहता है और प्रभु को प्राप्त कर लेता है। वह कबीर की भांति संसार में उस नियंता के अतिरिक्त किसी को देखना नहीं चाहता…

नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहि लेहुं

न हौं देखूं और को, न तुझ  देखन देहुं

अर्थात् वह प्रभु को देखने के पश्चात् नेत्र बंद कर लेता है, ताकि वह उसके सानिध्य में रह सके। यह है, प्रेम की पराकाष्ठा व तादात्म्य की स्थिति… जहां आत्मा-परमात्मा में भेद नहीं रह जाता। सूरदास जी की गोपियों का कृष्ण को दिया गया उपालंभ भी इसी तथ्य को दर्शाता है कि ‘भले ही तुम नेत्रों से तो ओझल हो गए हो, गोकुल से मथुरा में जाकर बस गए हो, परंतु उनके हृदय से दूर जाकर दिखाओ, तो मानें’…उनके  प्रगाढ़ प्रेम को  दर्शाता है। ‘प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय’ अर्थात् प्रेम की तंग गली में उसी प्रकार दो नहीं समा सकते, जैसे एक म्यान में दो तलवार। अत: जब तक आत्मा-परमात्मा का मिलन नहीं हो जाता, तब तक कैवल्य की स्थिति नहीं आएगी क्योंकि जब तक मानव विषय- वासनाओ…काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार का त्याग कर, मैं और तुम की स्थिति से ऊपर  नहीं उठ जाता, वह लख चौरासी अर्थात् जन्म-जन्मांतर तक आवागमन के चक्कर में फंसा रहता है।

अंततः मैं यह कहना चाहूंगी कि सोSहम् शिवोहं  ही मानव जीवन का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए। मानव जब स्वयं को जान जाता है, सांसारिक बंधन व भौतिक सुख सुविधाएं उसे त्याज्य प्रतीत होती हैं।  वह पल भर भी उस प्रभु से अलग रहना नहीं चाहता। उसकी यही कामना होती है कि एक सांस भी बिना सिमरन के व्यर्थ न जाये और आत्मा- परमात्मा का भेद समाप्त हो जाये। यही है, मानव जीवन का प्रयोजन व अंतिम लक्ष्य…सोSहम् शिवोहं जिसे प्राप्त करने में मानव को जन्म जन्मांतरों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  भोर भई

मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बाईं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाईं ओर सड़क सरपट दौड़ रही है।  महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!

अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ  नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक  ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’

इहलोक के रेले में आत्मा और देह का सम्बंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।

अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का आज से आरम्भ हुआ यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।

संतन का साथ बना रहे, मंथन का भाव जगा रहे। वर्ष 2020 सार्थक हो।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(घटना 31 दिसम्बर 2019, लगभग 11 बजे, लेखन 1.1.2020, भोर 3.55 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares
image_print