(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “टाइपराइटर…“।)
अभी अभी # 713 ⇒ टाइपराइटर श्री प्रदीप शर्मा
(23 जून International Typewriter Day पर विशेष आलेख)
राइटर और टाइपराइटर दोनों शब्दों से खेलते हैं। राइटर खुद लिखता है, टाइपराइटर जो टाइप करो, वह लिखता है। राइटर पहले पैदा हुआ, राइटर की सुविधा के लिए टाइपराइटर का आविष्कार हुआ।
जो लिखता है, वह लेखक! और जो टाइप करता है, वह टाइपिस्ट। लिखना भी सीखना पड़ता है, और टाइप करना भी। अंतर सिर्फ इतना है कि हर लिखने वाला भले ही लेखक नहीं होता, लेकिन हर टाइप करने वाला टाइपिस्ट हो सकता है।।
लेखक कई टाइप के होते हैं, टाइपिस्ट सिर्फ दो तरह के होते हैं, टाइपिस्ट और स्टेनो-टायपिस्ट! स्टेनो-टायपिस्ट को टाइपिंग के साथ द्रुत-लिपि अर्थात शॉर्ट-हैंड भी सीखना पड़ता है। टाइपराइटर और टायपिस्ट अंग्रेजों की ही देन है।
उनके समय में लड़कियां ही टाइपिस्ट होती थीं, क्योंकि उनकी उंगलियाँ नाजुक होती थी। पियानो की तरह जब की-बोर्ड पर उनकी उंगलियाँ चलती थी, तो घड़ी की टिक-टिक के साथ टाइपराइटर की भी टिप टिप की ध्वनि किसी संगीत से कम नहीं होती थी।
अंग्रेज़ चले गए, गोरी टाइपिस्ट ले गए, किस्म किस्म के टाइपराइटर छोड़ गए। रेमिंगटन टाइपराइटर से स्वर्गीय के एल सहगल की स्मृति जुड़ी हुई है। एक गायक-अभिनेता के पहले वे इस कंपनी के सेल्समेन जो थे। अंडरवुड, रॉयल, और ओलीवित्ति जैसे टाइपराइटर पर लोगों ने टाइपिंग सीखी और सरकारी दफ्तरों में धड़ल्ले से टाइपिस्ट; क्लर्क की भर्तियां होने लगीं।।
किसी संगीत-वाद्य की तरह टाइपराइटर में भी एक की-बोर्ड होता है। अंग्रेज़ी भाषा के अलावा भी विश्व की कई भाषाओं के की-बोर्ड टाइपराइटर में उपलब्ध होते हैं। हमारे देश में हिंदी, मराठी और गुजराती टाइपराइटर बहुतायत से देखे गए हैं। अंग्रेज़ी का की-बोर्ड आज भी वही है, जो मोबाइल, लैपटॉप और कंप्यूटर में उपयोग में आता है। हिंदी का की-बोर्ड बड़ी मुश्किल से याद होता था। बकमानजन, सपिवप।
नौकरशाही में, अदालत में, थाने में, पंचायत में, नगर पालिका में, अर्जियाँ देनी पड़ती थी। जो काम पहले अर्जीनवीस करते थे, वही काम बाद में टाइपिस्ट करने लग गए। लोअर कोर्ट और हाई कोर्ट में दावे पेश होते थे, पिटीशन फ़ाइल की जाती थी। वकील ड्राफ्ट बनाता था, टाइपिस्ट टाइप करता था, पिटीशन अदालत में पेश हो जाती थी।
जो छात्र कॉलेजों में स्नातकोत्तर पढ़ाई करते थे, उन्हें थीसिस प्रस्तुत करनी होती थी, अच्छे, सुंदर, सन-लिट् बॉन्ड पेपर पर करीने से टाइप करी हुई। कुछ टाइपिस्ट घिस-घिसकर इतने शालिग्राम बन चुके होते थे कि मात्रा और व्याकरण की गलतियाँ तो छोड़िए, ड्राफ्टिंग भी इतनी बेहतरीन करते थे कि देखते ही बनती थी।।
अक्षरों को काला करने के लिए रिबिन का उपयोग होता था। कागज़ की साइज फुल साइज कहलाती थी। अधिक प्रतियों के लिए कार्बन -पेपर का इस्तेमाल
किया जाता था। एक विदेशी कंपनी kores ही टाइपराइटर की समस्त स्टेशनरी सप्लाई करती थी। kores कंपनी tip-top नाम से कार्बन पेपर का निर्माण करती थी, जिसके ऊपर एक दुबली-पतली सुंदर ऑफिस-गर्ल का चित्र शोभायमान होता था।।
भारत में godrej और halda कंपनियों ने भी हिंदी-अंग्रेज़ी टाइपराइटर्स का निर्माण किया लेकिन समय के बढ़ते प्रभाव ने टाइपराइटर और टाइपिस्ट को अतीत में धकेल दिया। आज हम एक प्रिंटिंग मशीन अपने हाथों में लेकर बैठे हैं जो किसी मज़मून की कितनी भी प्रतियाँ निकालकर विश्व के किसी भी कोने में भेज सकते हैं। बुलेट ट्रेन के युग में एक टाइपराइटर पर टाइप करने में वही सुख मिल सकता है, जो कभी तांगे या टमटम पर, किसी शांत सड़क पर सवारी से महसूस किया जा सकता था।
रंग-बिरंगे छोटे-बड़े टाइपराइटर्स की छवि मनमोहक और आकर्षक तो होती ही है, जब नाजुक उँगलियों के स्पर्श से टाइपराइटर गतिमान होता है तो उसकी टप-टप की ध्वनि एक ऐसे संगीत को जन्म देती है जो शास्त्रीय न होते हुए भी कर्ण-प्रिय है, जिसकी तुलना केवल बारिश की टपकती बूँदों से की जा सकती है। हवाई जहाज की यात्रा छोड़ किसी टमटम में सैर करने की मंशा हो तो एक टाइपराइटर पर उंगलियाँ चलाइये, अतीत में खो जाइए …!!!!
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 137 ☆ देश-परदेश – हमारे सहायक: केशकर्तक ☆ श्री राकेश कुमार ☆
साधारण भाषा में हम लोग इनको नाई या नाऊ भी कहते हैं। मुंडन से जीवन के अंतिम समय तक इनकी सेवाएं ली जाती हैं।
कुछ दिन पूर्व एक केशकर्तक की सेवा के लिए वेटिंग में थे। अब तो उनकी दुकान पर ए सी की सुविधा भी है। दो तीन लोग और भी अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे।
नए ग्राहक भी प्रवेश करते हुए पूछ रहे थे, कि कितना समय लगेगा ? क्या युवा या वृद्ध कोई भी इंतजार नहीं करना चाहता है, सब को मोबाइल में आए हुए मैसेज जो पढ़ने रहते हैं।
करीब पंद्रह वर्ष का एक बच्चा जब नाई की कुर्सी पर बैठा, तो उसने मोबाइल से अपने पिता से बात करवाई। पिता ने कहा बाल एकदम छोटे कर देना। इतना ही नहीं कटिंग पूरी हो जाने पर वीडियो कॉल के बाद पिताश्री ने नाई को और छोटे बाल करने के निर्देश भी दिए। टेक्नोलॉजी का सही उपयोग इसी को कहते है।
ये सुनकर हमें अपने बचपन की याद आ गई। नाई के यहां से जब बाल कटवा कर घर जाते थे, तो हमारे पिताजी वापिस नाई की दुकान पर भेज देते थे, कि बाल और छोटे करवा कर आओ। हमारा नाई इसलिए पहले से ही एकदम छोटे बाल कर देता था, ताकि दुबारा हम उसकी दुकान पर ना आएं। आज भी भारतीय पिता इस पुरानी परंपरा को बखूबी निभा रहे हैं।
केशकर्तक पूर्व में कैंची को मुख्य औजार के रूप में उपयोग करते थे। कैंची की कतर कतर आवाज़ में भी नाई दुनिया भर के रोचक किस्से नमक मिर्च लगा कर सुना देते थे। आजकल बैटरी चलित छोटी मशीन कम आवाज़ वाली उपयोग में आ रही है। इससे नाई की उंगलियों को भी आराम मिलता है। नाई भी मुंह में गुटका दबा कर अब कम ही बोल पाते हैं।
नाई के ग्राहक भी बीच बीच में मोबाइल पर तिरछी निगाह मार लेते हैं, शायद कोई नए प्रकार का मैसेज आ गया हो। ये भी हो सकता है, आप लोगों में से हमारा ये आलेख भी कोई बाल कटवाते हुए पढ़ रहा हो।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शुद्ध घी और चित्त शुद्धि…“।)
अभी अभी # 712 ⇒ शुद्ध घी और चित्त शुद्धि श्री प्रदीप शर्मा
क्या शुद्ध घी और शुद्ध चित्त का आपस में कोई संबंध है, शुद्ध घी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है, इसमें दो मत नहीं, अधिकांश लोग बाजार का अमूल घी अथवा केबीसी ब्रांड गोवर्धन घी पर भरोसा करते हैं। कुछ भाग्यशाली गुजरात की गिर देसी गाय पालते हैं, और उसके शुद्ध सात्विक, ऑर्गेनिक देशी घी का सेवन करते हैं।
कुछ लोग होते हैं, जो अपने ही घर पर उपलब्ध दूध का घी बनाकर उसका सेवन करते हैं। घर पर बनाए जाने वाला शुद्ध घी
का तरीका हमारे चित्त शुद्धि के तरीके से बहुत मेल खाता है। गुरु को रंगरेज तो कहा गया है, लेकिन किसी हलवाई को सदगुरु नहीं कहा गया। गुरु रंगरेज की तरह हमारे चित्त को अगर रंग सकता है तो घी बनाने का तरीका हमारे चित्त को शुद्ध करने के तरीके से पूरी तरह मेल खाता है।।
काश जितनी चिंता हम शुद्ध घी की करते हैं, उतनी ही चिंता हमें अपने चित्त की शुद्धि की भी होती। घी बनाने से चित्त शुद्ध करने का नुस्खा हमने ईजाद किया है, लेकिन इस पर हमारा कोई कॉपीराइट नहीं, मैं जब घर पर घी बनाता हूं तो मुझे ऐसा लगता है, मैं अपना चित्त शुद्ध कर रहा हूं। एक पंथ दो काज।।
सबसे पहले हम दूध को गर्म करते हैं, दूध की चाय बनती है, बच्चे दूध पीते हैं और हम उसकी मलाई निकाल लेते हैं। बिना मलाई के घी नहीं बनता। अपने आपको तपाए बिना चित्त कभी शुद्ध नहीं हो सकता। जप, तप, साधन, सेवा, सत्संग सभी चित्त शुद्धि के साधन माने गए हैं।
लो जी दूध को तपाया और मलाई निकाल ली। जितना दूध है, उतने की ही मलाई निकलेगी, इसलिए रोज दूध गर्म होगा, तपेगा, और उसकी मलाई निकलेगी, जिसे एक बर्तन में एकत्रित कर लिया जाएगा। मलाई निकालने अथवा खाने से चित्त शुद्ध नहीं होता। थोड़ा धैर्य धारण करना पड़ता है। इस मलाई में चाहें तो थोड़ा दही मिलाते जाएं, और मलाई फ्रीजर में रखते जाएं। पहले तप और उसके बाद धीरज, मन ललचाता है, मलाई के लिए। मन पर कंट्रोल भी जरूरी है चित्त शुद्धि के लिए।।
चलिए कुछ दिन यही चलता रहा। अच्छी मलाई जमा हो गई। अब इसे एक बड़े बर्तन अथवा मटकी में रवई से, खूब सारा पानी डालकर मथ लिया। थोड़ा परिश्रम और ऊपर मक्खन तैरने लग गया। कृष्ण की सभी बाल लीलाएं, मटकी, माखन और गोपियों के आसपास ही घटित होती रहती हैं। माखन चोर की तरह किसी का दिल चुराएं, मक्खन नहीं।
लो जी यहां तो मक्खन देखते ही मुंह में पानी आ गया, और साथ में मलाई वाली छाछ भी। हम तो तर गए। लेकिन महाराज, अभी कहां चित्त शुद्धि हुई, घी तो अभी निकला ही नहीं। कंट्रोल कंट्रोल, नो चित्त शुद्धि विदाउट कंट्रोल।।
जी हां अब मक्खन छाछ से अलग होगा, जैसे विकार चित्त से अलग होते हैं, चित्त शुद्धि के समय। लेकिन अभी तो मक्खन की भी परीक्षा होगी, उसको भी संयम और विवेक की अग्नि में तपना होगा। बिना भाड़ में गए कभी चना सिका है, बिना भट्टी के कभी रसोई पकी है।
तेज आंच में मक्खन की तरह चित्त की परीक्षा हो रही है, कड़ी परीक्षा, तेज आंच, धैर्य की परीक्षा, और आखिर वह घड़ी आ ही जाती है, जब शुद्ध विकार युक्त घी चित्त शुद्ध की तरह कढ़ाई में तैरने लगता है।
साथ में कुछ विकार जलकर खाक नहीं होते, मावा बन जाते हैं। नर, सत्संग से क्या से क्या हो जाए। संसार में असार कुछ भी नहीं, फिर ज्ञानियों द्वारा सार सार ही ग्रहण किया जाता है, और थोथा उड़ा दिया जाता है।।
हमने घी बनाने का तरीका नहीं सीखा, चित्त शुद्धि का तरीका सीखा। सतगुरु की सीख ऐसी ही होती है, इसीलिए उसे रंगरेज कहते हैं। आप अपने गुरु स्वयं बनें, घर पर ही घी बनाएं, अपना चित्त शुद्ध करें। मैंने अपनी मां से सीखा, तेरा तुझको अर्पण, क्या लागा मेरा ..!!
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 293 ☆ समन्वय…
मेरुदण्ड या रीढ़ की हड्डी, शरीर का केंद्रीय स्तम्भ है। इस स्तम्भ का लचीलापन ही इसकी शक्ति है। शारीरिक के साथ-साथ मानसिक लचीलापन, जीवन को स्वस्थ रखता है। समन्वय जीवन में अनिवार्य है। मानसिक लचीलापन समन्वय का आधार है।
परिजनों या परिचितों से थोड़ी-सी मतभिन्नता होने पर अधिकांश लोगों को लगता है कि वे विपरीत वृत्ति के हैं। उनसे समन्वय नहीं सध सकता। साधने के लिए चाहिए साधना। साधना के अभाव में समन्वय तो अस्तित्व ही नहीं पाता। हर साधना की तरह समन्वय भी समर्पण चाहता है, उदारता चाहता है, भिन्न-भिन्न स्वभाव को समान सम्मान देना चाहता है।
दृष्टि निरपेक्ष है तो सृष्टि में हर कहीं समन्वय है। दूर न जाते हुए स्वयं को देखो। शरीर नश्वर है, आत्मा ईश्वर है। एक हर क्षण मृत्यु की ओर बढ़ता है, दूसरा हर क्षण नये अनुभव से निखरता है। फिर आता है वह क्षण, जब शरीर और आत्मा पृथक हो जाते हैं लेकिन नयी काया में फिर साथ आते हैं।
देह व देहातीत के समन्वय पर पार्थ का मार्गदर्शन करते हुए पार्थसारथी ने कहा था,
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
आत्मा का किसी भी काल में न जन्म होता है और न ही मृत्यु। यह पूर्व न होकर, पुनः न रहनेवाला भी नहीं है। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।
सांख्ययोग की मीमांसा का यह योगेश्वर उवाच भी देखिए-
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।
इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्य देही आत्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये हैं। इसलिये हे भारत ! तुम युद्ध करो।
युद्ध का एक अर्थ संघर्ष भी है। संघर्ष अपने आप से, संघर्ष अंतर्निहित समन्वय के दर्शन हेतु।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा द्वारा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को ग्रहण करने की प्रक्रिया होती है।
जैसा पहले उल्लेख किया गया है, देह का नाशवान होना, आत्मा का अजन्मा होना, फिर मर्त्यलोक में कुछ समय के लिए दोनों का साथ आना, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ना होना.., समन्वय का ऐसा अनुपम उदाहरण ब्रह्मांड में और कौनसा होगा?
सृष्टि समन्वय से जन्मी, समन्वय से चलती, समन्वय पर टिकी है। दृष्टिकोण समन्वित करो, सार्वभौमिक, सार्वकालिक, सार्वजनीन समन्वय दृष्टिगोचर होगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
हमारी अगली साधना श्री विष्णु साधना शनिवार दि. 7 जून 2025 (भागवत एकादशी) से रविवार 6 जुलाई 2025 (देवशयनी एकादशी) तक चलेगी
इस साधना का मंत्र होगा – ॐ नमो नारायणाय।
इसके साथ ही 5 या 11 बार श्री विष्णु के निम्नलिखित मंत्र का भी जाप करें। साधना के साथ ध्यान और आत्म परिष्कार तो चलेंगे ही –
संभव हो तो परिवार के अन्य सदस्यों को भी इससे जोड़ें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “निंदा-स्तुति…“।)
अभी अभी # 711 ⇒ निंदा-स्तुति श्री प्रदीप शर्मा
कल ही कबीर साहब का जन्मदिन था, जो माया को महा ठगिनी कहते थे। हम आज माया-ममता दोनों का ज़िक्र नहीं करेंगे, केवल निंदा-स्तुति की बात करेंगे। जिन्हें इन बातों में पड़कर अपनी चादर मैली नहीं करनी, वे अपने पाँव समेट लें।
निंदा लोकतंत्र का एक ऐसा हथियार है, जिसका उपयोग सत्ता-विपक्ष दोनों अपनी सुविधानुसार करते हैं।
कबीर साहब घोर लोकतांत्रिक थे, उन्होंने जो सम्मान एक निंदक को दिलाया, वह अनूठा, अद्भुत व अविस्मरणीय है। विपक्ष के नेता को जितनी भी सुविधाएँ, अधिकार और भत्ते आज मिल रहे हैं, उन सबका श्रेय कबीर साहब को जाता है।।
निंदक नियरे राखिये,
आँगन कुटी छवाय
बिन पानी साबुन बिना
निर्मल करे सुभाय।।
न जाने क्यों, शास्त्रों और ग्रंथों में निंदा को एक अवगुण माना गया है, मानसिक विकार माना गया है। कबीर साहब iconoclast थे। वे रूढ़ियों, मान्यताओं के साथ -साथ ही मूर्ति-भंजक भी थे।
सज्जन लोग निंदा सहन कर सकते हैं, लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है। शिशुपाल को योगिराज श्रीकृष्ण ने गालियों के सौ अवसर दिये। आखिर हद होती है, इंसानियत की भी ! हमारे मोदीजी को ही ले लीजिए। विपक्ष ने गालियों की झड़ी लगा दी। मोदीजी ने भी गालियाँ गिना-गिनाकर जनता से वोट माँगे। जनता ने भी बदले में वोटों की झड़ी लगा दी।।
ईश-निंदा पाप है ! लेकिन अहंकारी दक्ष कहाँ मानने वाला था। अपनी पुत्री सती के ही समक्ष अपने दामाद त्रिपुरारी भोलेशंकर की निंदा शुरू कर दी। उनका यज्ञ में अपमान किया ! सती अपने पति का यह अपमान सहन नहीं कर सकी। आगे की कथा शिव-पुराण में पढिये। निंदा से क्लेश व ग्लानि उत्पन्न होती है, जिससे व्यक्ति के जीवन में भूचाल आ जाता है। न सुन सुन, सुन बुरा। न देख देख, देख बुरा, न बोल बोल, बोल बुरा। न सुन बुरा, देख बुरा, बोल बुरा।।
गीता प्रेस का प्रकाशन है, स्तोत्र रत्नावली जिसमें समस्त देवी-देवताओं की स्तुतियों का संकलन है ! स्तोत्र ही स्तुति है, प्रार्थना है, श्लोक है। स्तुति से देवता प्रसन्न होते हैं। दानव भी अपने इष्ट की स्तुति कर मनचाहा वरदान ले उड़ते हैं। जब देवता की कमज़ोरी स्तुति है, तो क्या मानव की स्तुति उसे महा-मानव नहीं बना सकती। ज़रा सी तारीफ़ में जो इंसान चने के झाड़ पर चढ़ जाए, उसकी स्तुति उसे कहाँ से कहाँ पहुँचा सकती है। एक देवकांत बरुआ थे, जो इंदिरा इज़ इंडिया का गुणगान करते घे। आज तो सब भक्तन मिलकर सरकार का स्तुतिगान कर रहे हैं। सत्ता की स्तुति ही में देश का कल्याण है। वैसे भी शास्त्रों में राजा की निंदा को पाप और राष्ट्रद्रोह कहा गया है।
कभी कभी स्तुति से भी काम नहीं बनता। सीता माता की खोज में श्रीराम रामेश्वरम के सागर-तट पर पहुँचे ! पहले शिवजी का पूजन किया फिर उदधि की स्तुति की, रास्ता माँगा। सागर नहीं माना। मर्यादा पुरुषोत्तम को क्रोध आया। भय बिनु होय न प्रीति। सागर नतमस्तक। राम जी के नाम से पत्थर भी तैरने लगे। सागर ने राह बनाई।।
निंदा-स्तुति का साथ, गुलाब जामुन और चाशनी का साथ है। कहीं किसी की निंदा से काम निकल जाता है, तो कहीं किसी की स्तुति से। निंदा अगर चाशनी है तो स्तुति चाशनी भरा गुलाबजामुन। ऐसे लोग किस काम के, जिन्हें गुलाबजामुन ही पसंद नहीं।
जीवन में मिठास हो। थोड़ी निंदा, थोड़ी स्तुति हो। जो गलत हो, उसका प्रतिकार हो, जो सही हो, उसका सत्कार हो। विद्वतजन सत्य की स्तुति करते हैं, असत्य की निंदा करते हैं। निंदा-स्तुति ही सत्-असत् है। किसी की निंदा से बचें, अपनी स्तुति से भी बचें। जिसके कारण हमारा अस्तित्व है, केवल वह ही स्तुति-योग्य है। प्राणी-मात्र की स्तुति करें, स्वार्थवश किसी व्यक्ति की नहीं।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर एक विशेष ज्ञानवर्धक आलेख – “भारत से विश्व तक.. योग की पाँच सहस्राब्दी की अमर यात्रा ” ।)
आलेख – भारत से विश्व तक.. योग की पाँच सहस्राब्दी की अमर यात्रा श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
(अंतरराष्ट्रीय योग दिवस विशेष)
योग का इतिहास लगभग 5000 वर्ष पुराना है। योग के प्रारंभिक प्रमाण सिंधु-सरस्वती घाटी सभ्यता (2700 ईसा पूर्व) में मिलते हैं। पुरातात्विक साक्ष्य, विशेष रूप से योग मुद्राओं वाली मुहरें, इंगित करती हैं कि योग उस समय की संस्कृति का अभिन्न अंग था। हिंदू परंपरा में भगवान शिव को ‘आदि योगी’ माना जाता है, जिन्होंने सप्तऋषियों को योग का ज्ञान प्रदान किया।
वैदिक काल (1500-500 ईसा पूर्व) में योग का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है, जहाँ यह आध्यात्मिक एकता और ब्रह्मांडीय चेतना से जुड़ने का साधन था। उपनिषदों में योग को “चित्त की वृत्तियों के निरोध” के रूप में परिभाषित किया गया, जिसका उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार और अंततोगत्वा मोक्ष प्राप्त करना था।
योग साधना का शास्त्रीय काल दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है। ऋषि पतंजलि ने योग सूत्र की रचना कर योग को एक व्यवस्थित दर्शन प्रदान किया। उन्होंने अष्टांग योग की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसमें आठ चरण शामिल थे:
१। (सामाजिक अनुशासन)
नियम (व्यक्तिगत अनुशासन)
आसन (शारीरिक मुद्राएँ)
प्राणायाम (श्वास नियंत्रण)
प्रत्याहार (इंद्रिय संयम)
धारणा (एकाग्रता)
ध्यान (मेडिटेशन)
समाधि (परम चेतना)
भारतीय दर्शन में योग की प्रमुख शाखाएँ योग प्रकार, मार्ग, प्रतिपादक के आधार पर निर्धारित की गई है।
कर्म योग, निस्वार्थ कर्म की शिक्षा देता है।
भक्ति योग भक्ति और समर्पण को और ज्ञान योग बौद्धिक जागृति बताता है।
राज योग में ध्यान और मानसिक नियंत्रण पर बल दिया जाता है। मध्यकालीन परिवर्तन हुए जब भक्ति योग से हठयोग तक के साधक हुए।
मध्ययुगीन काल में योग ने विविध आध्यात्मिक परंपराओं के साथ एकीकरण किया। भगवद्गीता (200 ईसा पूर्व) ने कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग के मार्ग प्रस्तुत किए, जो व्यक्ति की प्रकृति के अनुरूप मुक्ति के विविध विकल्प प्रदान करते थे।
11वीं शताब्दी में योगी गोरखनाथ के नेतृत्व में नाथ परंपरा का उदय हुआ, जिसने हठयोग को केंद्र में रखा। इस शैली में कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए शारीरिक आसनों और श्वास तकनीकों पर विशेष जोर दिया गया। इसने योग के अभ्यास में एक भौतिक आयाम जोड़ा और आधुनिक योग शैलियों का मार्ग प्रशस्त किया।
आधुनिक पुनर्जागरण से योग समीचीन हुआ। स्वामी विवेकानंद ने योग के वैश्विक प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
औपनिवेशिक काल में स्वामी विवेकानंद ने 1893 में शिकागो की विश्व धर्म संसद में योग का परिचय पश्चिम से करवाया। उन्होंने योग के आध्यात्मिक और दार्शनिक पहलुओं पर जोर दिया, जिससे पश्चिम में पूर्वी रहस्यवाद के प्रति आकर्षण बढ़ा।
20वीं सदी में तिरुमलाई कृष्णमाचार्य और बी.के.एस. आयंगर जैसे योगाचार्यों ने योग को विज्ञान सम्मत रूप प्रदान किया। आयंगर की पुस्तक “लाइट ऑन योग”(1966) ने हठ योग को पुनर्परिभाषित किया और योग को घर-घर तक पहुँचाया। इसी काल में परमहंस योगानंद ने “ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी” के माध्यम से अमेरिका में ध्यान योग को लोकप्रिय बनाया।
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस 21 जून
2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस का प्रस्ताव रखा। 11 दिसंबर 2014 को 177 देशों के समर्थन से 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया गया। यह दिन ग्रीष्म संक्रांति (उत्तरी गोलार्ध का सबसे लंबा दिन) के रूप में चुना गया, जो भारतीय परंपरा में विशेष महत्व रखता है।
2025 में पुडुचेरी में आयोजित होने वाले कार्यक्रम की थीम “योग फॉर वन अर्थ, वन हेल्थ” रखी गई है, जो वैश्विक स्वास्थ्य और पर्यावरण के प्रति योग के योगदान को रेखांकित करती है।
समकालीन परिदृश्य में डिजिटल युग में योग का विस्तार और उपयोग सार्वभौम है।
आज योग ने पारंपरिक सीमाओं को पार कर डिजिटल मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज की है। ऑनलाइन कक्षाएँ, योग ऐप्स और सोशल मीडिया ने योग को वैश्विक ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुँचाया है। वैश्विक योग बाजार 2023 तक 66 अरब डॉलर से अधिक का हो गया है, जो इसकी व्यापक स्वीकृति को दर्शाता है।
वैश्विक स्तर पर योग के प्रभाव के प्रमुख संकेत सार्वजनिक स्वास्थ्य लाभ में परिलक्षित हो रहे हैं। अनुसंधानों ने पुष्टि की है कि योग तनाव कम करता है, हृदय गति नियंत्रित करता है, शरीर का लचीलापन बढ़ाता है और प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करता है।
योग सांस्कृतिक आदान-प्रदान का विषय बन गया है। बैंगलोर के अक्षर योग केंद्र जैसे संस्थानों ने 12 गिनीज विश्व रिकॉर्ड स्थापित किए हैं, जिसमें 50 दिव्यांग बच्चों सहित देश-विदेश के हजारों प्रतिभागी शामिल हुए।
शैक्षिक एकीकरण में भी योग की भूमिका दिख रही है। अमेरिका, यूरोप और भारत सहित कई देशों ने योग को शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल किया है।
योग साधना के सैन्य अनुप्रयोग भी हो रहे हैं। भारतीय सेना, सीआरपीएफ और पुलिस बलों में योग को अनिवार्य प्रशिक्षण का हिस्सा बनाया गया है।
योग हमारी सांस्कृतिक विरासत और भविष्य की दिशाएँ निर्धारित कर रहा है। योग भारत की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक बन गया है। यूनेस्को ने 2016 में योग को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सूची में शामिल किया, जो इसके वैश्विक महत्व को मान्यता देता है। भविष्य में योग अनुकूली प्रौद्योगिकी (वर्चुअल रियलिटी के माध्यम से) और चिकित्सा विज्ञान (योग चिकित्सा के रूप में) के साथ और अधिक एकीकृत होने की ओर अग्रसर है।
योग की यात्रा सिंधु घाटी की प्राचीन मुहरों से लेकर न्यूयॉर्क के योग स्टूडियो तक फैली चुकी है। यह केवल शारीरिक व्यायाम नहीं, बल्कि “मन, शरीर और आत्मा का मिलन” है, जैसा कि आयुष मंत्रालय ने परिभाषित किया है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि “योग भारत की प्राचीन परंपरा का एक अमूल्य उपहार है। यह दिमाग और शरीर की एकता का प्रतीक है। यह मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य का रास्ता है”। जैसे-जैसे विश्व तनाव, जलवायु परिवर्तन और सामाजिक विखंडन की चुनौतियों का सामना करता है, योग की “एक पृथ्वी, एक स्वास्थ्य” की दृष्टि हमें स्मरण कराती है कि प्राचीन भारतीय ज्ञान आधुनिक वैश्विक समस्याओं के समाधान में कितना प्रासंगिक है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्पेशल…“।)
अभी अभी # 710 ⇒ स्पेशल श्री प्रदीप शर्मा
आज का विषय कुछ स्पेशल है, इसलिए इस अभी अभी के शीर्षक के लिए असाधारण, विशेष, विशिष्ट, अथवा खास शब्दों की जगह इस अंग्रेजी शब्द का सहारा लिया गया है।
सबसे पहले, यह शब्द स्पेशल क्यों है ! जब भी बाज़ार में कहीं दोस्तों के साथ चाय पीने जाते हैं, और जब चाय वाले को कहते हैं, कि यार बढ़िया चाय पिलाओ, तो वह स्पेशल चाय ही पिलाता है। अदरक, इलायची, सौंठ, दालचीनी और न जाने क्या क्या। नमकीन की दुकान हो या मिठाई की, सबसे पहले नजर किसी स्पेशल आइटम पर ही जाती है। साड़ियों की खरीद हो या आभूषण की, कुछ खास, स्पेशल डिज़ाइन की ही फरमाइश की जाती है। अखबारों के पृष्ठ स्पेशल ऑफर के इश्तहारों से भरे रहते हैं। स्पेशल डिस्काउंट पर किसकी नजर नहीं होती।
किसी के चेहरे की मुस्कुराहट से पता चल जाता है, समथिंग स्पेशल ?
बच्चे सभी स्पेशल होते हैं। और अगर उसमें भी बच्चा हमारा होता है, तो वह स्पेशल होता ही है, लेकिन भगवान कुछ बच्चों को स्पेशल बनाता है, इतना स्पेशल, कि उन्हें स्पेशल चाइल्ड कहा जाता है। आज का अभी अभी हर उस स्पेशल चाइल्ड को समर्पित है। हम जब भी अपने आसपास के संसार से रूबरू होते हैं, तो अपने परिचितों, रिश्तेदारों और आत्मीय परिजनों में इन फरिश्तों की उपस्थिति का हमें अहसास ही नहीं, प्रत्यक्ष अनुभव भी होता है।
जिंदगी के रंग कई रे ! जिसने हमें यह खूबसूरत जिंदगी दी है, हमें जीता जागता, वन पीस बनाया है, हम कब उसके शुक्रगुजार हुए हैं। आपकी इस सुंदर काया को बनाने में उसने कोई कमी नहीं छोड़ी। अच्छे भले नाक नक्श, आंख, नाक, कान, गला, हाथ पांव, पूरी anatomy और physiology, तेज तर्रार दिमाग और एक धड़कता हुआ दिल। हमने कब उसे शुक्रिया कहा।
आपने सब कुछ अपने पुरुषार्थ से हासिल किया है। किसी ने हम पर कोई अहसान नहीं किया। अहं ब्रह्मास्मि।।
अगर वह जन्म से ही आपको दो की जगह एक आँख देता, या एक कान देता, तो आप क्या कर लेते। आपका एक सामान्य, साधारण इंसान होना ही सबसे बड़ा चमत्कार है। हमारी निगाह अक्सर अभावों पर ही जाती है, जो हमें मिला है, उस पर नहीं।
स्पेशल चाइल्ड वे होते हैं, जिन्हें वह सब नहीं मिला, जो हमें मिला है। बच्चों के शारीरिक विकास के साथ साथ ही उनका मानसिक विकास भी होता है। जब किसी कारण दोनों का विकास साथ साथ नहीं हो पाता, तब इस विसंगति का पता चलता है।।
अगर स्पेशल चाइल्ड है, तो उसकी देखभाल भी स्पेशल ही होती है। उनको अलग से ध्यान देना पड़ता है। उनके मन की भाषा को समझना पड़ता है। वे बड़े तो होते जाते हैं लेकिन उनका औसत मानसिक विकास नहीं हो पाता। उनका बाल मन उनका साथ नहीं छोड़ता। जिन बच्चों में हम ईश्वर को देखते हैं, वह ईश्वर इस स्पेशल चाइल्ड का कभी साथ नहीं छोड़ता। इन बच्चों की सेवा ही ईश्वर की सेवा बन जाती है।
दुनिया में रहते हुए भी ये स्पेशल चाइल्ड दुनिया से दूर रहते हैं। उनकी अपनी एक दुनिया होती है, जिसमें सिर्फ वे ही लोग होते हैं, जो उनके करीबी होते हैं। ये लोग बनावटी जिंदगी नहीं जी सकते। छल कपट, राग द्वेष और गला काट स्पर्था से इनका वास्ता ही नहीं पड़ता, इसलिए इनका भोलापन कायम रहता है। जो इस पाखंडी, खुदगर्ज, स्वार्थी दुनिया से जितना दूर है, वह उतना ही अपने अन्तर में स्थापित है। एक स्पेशल चाइल्ड की दुनिया में प्रवेश पाना एक ऐसे अनूठे, अद्भुत संसार में प्रवेश पाना है, जहां कोई महत्वाकांक्षा नहीं, कोई प्रतियोगी नहीं, कोई शत्रु नहीं, किसी तरह के झूठ का सहारा नहीं, कोई आडंबर नहीं, कोई दिखावा नहीं।।
ये असहज तब होते हैं, जब इनकी सहजता में विघ्न पड़ता है। विज्ञान कितनी भी प्रगति कर ले, इतने मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक भी अब तक न तो मन की थाह ही पा पाए, ना ही जन्म के समय से विकसित किसी विसंगति का इलाज ही कर पाए।
जिस तरह विज्ञान ने पोलियो पर विजय पाई है, कैंसर और पैरालिसिस का समय रहते निदान संभव हुआ है, इन बच्चों को भी स्पेशल की जगह हमारी तरह साधारण जीवन का अनुभव हो, बस इनकी अच्छाइयां हमसे दूर ना हों, हमारी बुराइयों का इनमें प्रवेश ना हो। आमीन।।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा
(वारी यात्रा आज पुणे पहुँच रही है। इस संदर्भ में विशेष आलेख)
भारत की अधिकांश परंपराएं ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है – पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है – जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।
🙏 जय हरि विठ्ठल🙏
(आलंदी और देहू से हरि दर्शन के लिए पंढरपुर की 265 किमी की पदयात्रा अर्थात महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी। यह वारी आज पुणे पहुँची। मेरे एक वरिष्ठ मित्र ने लगभग 14 वर्ष पूर्व वारी का वीडियो शूट किया था। उस आधार पर वारी की जानकारी विशेषकर हिंदीभाषी समाज को देने के लिए एक डॉक्युमेंट्री फिल्म लिखी और उसे स्वर दिया। वारी पर आधारित इस फिल्म को 26 हज़ार से अधिक दर्शक देख चुके।)
स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।
पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।
पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।
वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।
अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएं पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।
अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।
हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बांटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार।
वारी में सहभागी होने के लिए दूर-दराज के गाँवों से लाखों भक्त बिना किसी निमंत्रण के आलंदी और देहू पहुँचते हैं। चरपादुकाएँ लेकर चलने वाले रथ का घोड़ा आलंदी मंदिर के गर्भगृह में जाकर सर्वप्रथम ज्ञानेश्वर महाराज के दर्शन करता है। ज्ञानेश्वर महाराज को माउली याने चराचर की माँ भी कहा गया है। माउली को अवतार पांडुरंग अर्थात भगवान का अवतार माना जाता है। पंढरपुर की यात्रा आरंभ करने के लिए चरणपादुकाएँ दोनों मंदिरों से बाहर लाई जाती हैं। उक्ति है-‘ जब चराचर भी नहीं था, पंढरपुर यहीं था।’
चरण पादुकाएँ लिए पालकी का छत्र चंवर डुलाते एवं निरंतर पताका लहराते हुए चलते रहना कोई मामूली काम नहीं है। लगभग 260 कि.मी. की 800 घंटे की पदयात्रा में लाखों वारकरियों की भीड़ में पालकी का संतुलन बनाये रखना, छत्र-चंवर-ध्वज को टिकाये रखना अकल्पनीय है।
वारी स्वप्रेरित अनुशासन और श्रेष्ठ व्यवस्थापन का अनुष्ठान है। कुछ आंकड़े इसकी पुष्टि करने के लिए कुछ आंकड़े जानना पर्याप्त है-
– विभिन्न आरतियों में लगनेवाले नैवेद्य से लेकर रोज़मर्रा के प्रयोग की लगभग 15 हजार वस्तुओं (यहाँ तक की सुई धागा भी) का रजिस्टर तैयार किया जाता है। जिस दिन जो वस्तुएँ इस्तेमाल की जानी हैं, नियत समय पर वे बोरों में बांधकर रख दी जाती हैं।
– 15-20 हजार की जनसंख्या वाले गाँव में 10 लाख वारकरियों का समूह रात्रि का विश्राम करता है। ग्रामीण भारत में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अद्वैत भाव के बिना गागर में सागर समाना संभव नहीं।
– सुबह और शाम का भोजन मिलाकर वारी में प्रतिदिन 20 लाख लोगों के लिए भोजन तैयार होता है।
– रोज़ाना 10 लाख लोग स्नान करते हैं, कम से कम 30 लाख कपड़े रोज धोये और सुखाये जाते हैं।
– रोज़ाना 50 लाख कप चाय बनती है।
– हर दिन लगभग 3 करोड़ लीटर पानी प्रयोग होता है।
– एक वारकरी दिन भर में यदि केवल एक हजार बार भी हरिनाम का जाप करता है तो 10 लाख लोगों द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले कुल जाप की संख्या 100 करोड़ हो जाती है। शतकोटि यज्ञ भला और क्या होगा?
– वारकरी दिनभर में लगभग 20 किलोमीटर पैदल चलता है। विज्ञान की दृष्टि से यह औसतन 26 हजार कैलोरी का व्यायाम है।
– जाने एवं लौटने की 33 दिनों की यात्रा में पालकी के दर्शन 24 घंटे खुले रहते हैं। इस दौरान लगभग 25 लाख भक्त चरण पादुकाओं के दर्शन करते हैं।
– इस यात्रा में औसतन 200 करोड़ का आर्थिक व्यवहार होता है।
– हर दिंडी के साथ दो ट्रक, पानी का एक टेंकर, एक जीप, याने कम से कम चार वाहन अनिवार्य रूप से होते हैं। इस प्रकार 500 अधिकृत समूहों के साथ कम से कम 2 हजार वाहन होते हैं।
– एकत्रित होने वाली राशि प्रतिदिन बैंक में जमा कर दी जाती है।
रथ की सजावट के लिए पुणे से रोज़ाना ताज़ा फूल आते हैं।
हर रात 7 से 8 घंटे के कठोर परिश्रम से रथ को विविध रूपों में सज्जित किया जाता है।
– एक पंक्ति में दिखनेवाली भक्तों की लगभग 15 किलोमीटर लम्बी ‘मूविंग ट्रेन’ 24 घंटे में चार बार विश्रांति के लिए बिखरती है और नियत समय पर स्वयंमेव जुड़कर फिर गंतव्य की यात्रा आरंभ कर देती है।
– गोल रिंगण अर्थात अश्व द्वारा की जानेवाली वृत्ताकार परिक्रमा हो, या समाज आरती, रात्रि के विश्राम की व्यवस्था हो या प्रातः समय पर प्रस्थान की तैयारी, लाखों का समुदाय अनुशासित सैनिकों-सा व्यवहार करता है।
– नाचते-गाते-झूमते अपने में मग्न वारकरी…पर चोपदार का हो का एक स्वर और संपूर्ण नीरव …… इस नीरव में मुखर होता है-वारकरियों का अनुशासन।
वारकरी से अपेक्षित है कि वह गले में तुलसी की माला पहने। ये माला वह किसी भी वरिष्ठ वारकरी को प्रणाम कर धारण कर सकता है। वारकरी संप्रदाय के लोकाचारों में शामिल है- माथे पर गोपीचंदन,धार्मिक ग्रंथों का नियमित वाचन, शाकाहार, सदाचार, सत्य बोलना, हाथ में भगवा पताका, सिर पर तुलसी वृंदावन, और जिह्वा पर राम-कृष्ण-हरि का संकीर्तन।
राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु-अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला।
राम-कृष्ण-हरि का अनुयायी वारकरी पालकी द्वारा विश्रांति की घोषणा से पहले कहीं रुकता नहीं, अपनी दिंडी छोड़ता नहीं, माउली को नैवेद्य अर्पित होने से पहले भोजन करता नहीं।
वारकरी कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता है। आधुनिकता अपरिमित संसाधन जुटा-जुटाकर आदमी को बौना कर देती है। जबकि वारी लघुता से प्रभुता की यात्रा है। प्रभुता की यह दृष्टि है कि इस यात्रा में आपको मराठी भाषियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में अमराठी भाषी भी मिल जायेंगे। भारतीयों के साथ विदेशी भी दिखेंगे। इस अथाह जन सागर की समरसता ऐसी कि वयोवृद्ध माँ को अपने कंधे पर बिठाये आज के श्रवण कुमार इसमें हिंदुत्व देखते हैं तो संत जैनब-बी ताउम्र इसमें इस्लाम का दर्शन करती रही।
वारी, यात्री में सम्यकता का अद्भुत भाव जगाती है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है।
जे-जे पाहिले भूत, ते-ते मानिले भगवंत……हर प्राणी में, हर जीव में माउली दिखने लगे हैं। किंतु असली माउली तो विनम्रता का ऐसा शिखर है जो दिखता आगे है , चलता पीछे है। यात्रा के एक मोड़ पर संतों की पालकियाँ अवतार पांडुरंग के रथ के आगे निकल जाती हैं। आगे चलते भगवान कब पीछे आ गये ,पता ही नहीं चलता।
संत कबीर कहते हैं-
कबीरा मन ऐसा भया, जैसा गंगा नीर पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर।
भक्तों की भीड़ हरिनाम का घोष करती हैं जबकि स्वयं हरि भक्तों के नाम-संकीर्तन में डूबे होते हैं।
भक्त रूपी भगवान की सेवा में अनेक संस्थाएँ और व्यक्ति भी जुटते हैं। ये सेवाभावी लोग डॉक्टरों की टीम से लेकर कपड़े इस्तरी करने, दाढ़ी बनाने, जूते-चप्पल मरम्मत करने जैसी सेवाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं।
वारी भारत के धर्म सापेक्ष समाज का सजीव उदाहरण है। वारी असंख्य ओस कणों के एक होकर सागर बनने का जीता-जागता चित्र है। वस्तुतः ‘वा’ और ‘री’ के डेढ़-डेढ़ शब्दों से मिलकर बना वारी यात्रा प्रबंधन का वृहद शब्दकोश है।
– आनंद का असीम सागर है वारी..
– समर्पण की अथाह चाह है वारी…
– वारी-वारी, जन्म- मरणा ते वारी..
– जन्म से मरण तक की वारी…
– मरण से जन्म तक की वारी..
– जन्म-मरण की वारी से मुक्त होने के लिए भी वारी……
वारी देखने- पढ़ने या सुनने की नहीं अपितु अनुभव करने की यात्रा है। इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र की पावन धरती आपको संकेत कर रही है। विदुषी इरावती कर्वे के शब्दों में -महाराष्ट्र अर्थात वह भूमि जहाँ का निवासी पंढरपुर की यात्रा करता है। जीवन में कम से कम एक बार वारी करके महाराष्ट्रवासी होने का सुख अवश्य अनुभव करें।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
हमारी अगली साधना श्री विष्णु साधना शनिवार दि. 7 जून 2025 (भागवत एकादशी) से रविवार 6 जुलाई 2025 (देवशयनी एकादशी) तक चलेगी
इस साधना का मंत्र होगा – ॐ नमो नारायणाय।
इसके साथ ही 5 या 11 बार श्री विष्णु के निम्नलिखित मंत्र का भी जाप करें। साधना के साथ ध्यान और आत्म परिष्कार तो चलेंगे ही –
संभव हो तो परिवार के अन्य सदस्यों को भी इससे जोड़ें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख रिश्तों की तपिश। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 280 ☆
☆ रिश्तों की तपिश… ☆
‘सर्द हवा चलती रही/ रात भर बुझते हुए रिश्तों को तापा किया हमने‘– गुलज़ार की यह पंक्तियां समसामयिक हैं; आज भी शाश्वत हैं। रिश्ते कांच की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं, जिसका कारण है संबंधों में बढ़ता अजनबीपन का एहसास, जो मानसिक संत्रास व एकाकीपन के कारण पनपता है और उसका मूल कारण है…मानव का अहं, जो रिश्तों को दीमक की भांति चाट रहा है। संवादहीनता के कारण पनप रही आत्मकेंद्रितता और संवेदनहीनता मधुर संबंधों में सेंध लगाकर अपने भाग्य पर इतरा रही है। सो! आजकल रिश्तों में गर्माहट रही कहां है?
विश्व में बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता के कारण मानव हर कीमत पर एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है। उसकी प्राप्ति के लिए उसे चाहे किसी भी सीमा तक क्यों न जाना पड़े? रिश्ते आजकल बेमानी हैं; उनकी अहमियत रही नहीं। अहंनिष्ठ मानव अपने स्वार्थ-हित उनका उपयोग करता है। यह कहावत तो आपने सुनी होगी कि ‘मुसीबत में गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।’ आजकल रिश्ते स्वार्थ साधने का मात्र सोपान हैं और अपने ही, अपने बनकर अपनों को छल रहे हैं अर्थात् अपनों की पीठ में छुरा घोंपना सामान्य-सी बात हो गयी है।
प्राचीन काल में संबंधों का निर्वहन अपने प्राणों की आहुति देकर किया जाता था… कृष्ण व सुदामा की दोस्ती का उदाहरण सबके समक्ष है; अविस्मरणीय है…कौन भुला सकता है उन्हें? सावित्री का अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा के लिए यमराज से उलझ जाना; गंधारी का पति की खुशी के लिए अंधत्व को स्वीकार करना; सीता का राम के साथ वन-गमन; उर्मिला का लक्ष्मण के लिए राजमहल की सुख- सुविधाओं का त्याग करना आदि तथ्यों से सब अवगत हैं। परंतु लक्ष्मण व भरत जैसे भाई आजकल कहां मिलते हैं? आधुनिक युग में तो ‘यूज़ एण्ड थ्रो’ का प्रचलन है। सो! पति-पत्नी का संबंध भी वस्त्र-परिवर्तन की भांति है। जब तक अच्छा लगे– साथ रहो, वरना अलग हो जाओ। सो! संबंधों को ढोने का औचित्य क्या है? आजकल तो चंद घंटों पश्चात् भी पति-पत्नी में अलगाव हो जाता है। परिवार खंडित हो रहे हैं और सिंगल पेरेंट का प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा है। बच्चे इसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा भुगतने को विवश हैं। एकल परिवार व्यवस्था के कारण बुज़ुर्ग भी वृद्धाश्रमों में आश्रय पा रहे हैं। कोई भी संबंध पावन नहीं रहा, यहां तक कि खून के रिश्ते, जो परमात्मा द्वारा बनाए जाते हैं तथा उनमें इंसान का तनिक भी योगदान नहीं होता …वे भी बेतहाशा टूट रहे हैं।
परिणामत: स्नेह, सौहार्द, प्रेम व त्याग का अभाव चहुंओर परिलक्षित है। हर इंसान निपट स्वार्थी हो गया है। विवाह-व्यवस्था अस्तित्वहीन हो गई है तथा टूटने के कग़ार पर है। पति-पत्नी भले ही एक छत के नीचे रहते हैं, परंतु कहां है उनमें समर्पण व स्वीकार्यता का भाव? वे हर पल एक-दूसरे को नीचा दिखा कर सुक़ून पाते हैं। सहनशीलता जीवन से नदारद होती जा रही है। पति-पत्नी दोनों दोधारी तलवार थामे, एक-दूसरे का डट कर सामना करते हैं। आरोप-प्रत्यारोप का प्रचलन तो सामान्य हो गया है। बीस वर्ष तक साथ रहने पर भी वे पलक झपकते अलग होने में जीवन की सार्थकता स्वीकारते हैं, जिसका मुख्य कारण है…लिव-इन व विवाहेतर संबंधों को कानूनी मान्यता प्राप्त होना। जी हां! आप स्वतंत्र हैं। आप निरंकुश होकर अपनी पत्नी की भावनाओं पर कुठाराघात कर पर-स्त्री गमन कर सकते हैं। ‘लिव-इन’ ने भी हिन्दू विवाह पद्धति की सार्थकता व अनिवार्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। कैसा होगा आगामी पीढ़ी का चलन? क्या इन विषम परिस्थितियों में परिवार-व्यवस्था सुरक्षित रह पाएगी?
मैं यहां ‘मी टू’ पर भी प्रकाश डालना चाहूंगी, जिसे कानून ने मान्यता प्रदान कर दी है। आप पच्चीस वर्ष पश्चात् भी किसी पर दोषारोपण कर अपने हृदय की भड़ास निकालने को स्वतंत्र हैं। हंसते-खेलते परिवारों की खुशियों को होम करने का आपको अधिकार है। सो! इस तथ्य से तो आप सब परिचित हैं कि अपवाद हर जगह मिलते हैं। कितनी महिलाएं कहीं दहेज का इल्ज़ाम लगा व ‘मी टू’ के अंतर्गत किसी की पगड़ी उछाल कर उनकी खुशियों को मगर की भांति लील रही हैं।
इन विषम परिस्थितियों में आवश्यक है– सामाजिक विसंगतियों पर चर्चा करना। बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण जीवन- मूल्य खण्डित हो रहे हैं और उनका पतन हो रहा है। सम्मान-सत्कार की भावना विलुप्त हो रही है और मासूमों के प्रति दुष्कर्म के हादसों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। कोई भी रिश्ता विश्वसनीय नहीं रहा। नब्बे प्रतिशत बालिकाओं का बचपन में अपनों द्वारा शीलहरण हो चुका होता है और उन्हें मौन रहने को विवश किया जाता है, ताकि परिवार विखण्डन से बच सके। वैसे भी दो वर्ष की बच्ची व नब्बे वर्ष की वृद्धा को मात्र उपभोग की वस्तु व वासना-पूर्ति का साधन स्वीकारा जाता है। हर चौराहे पर दुर्योधन व दु:शासनों की भीड़ लगी रहती है, जो उनका अपहरण करने के पश्चात् दुष्कर्म कर अपनी पीठ ठोकते हैं। इतना ही नहीं, उनकी हत्या कर वे सुक़ून पाते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि वे सबूत के अभाव में छूट जायेंगे। सो! वे निकल पड़ते हैं–नये शिकार की तलाश में। हर दिन घटित हादसों को देख कर हृदय चीत्कार कर उठता है और देश के कर्णाधारों से ग़ुहार लगाता है कि हमारे देश में सऊदी अरब जैसे कठोर कानून क्यों नहीं बनाए जाते, जहां पंद्रह मिनट में आरोपी को खोज कर सरेआम गोली से उड़ा दिया जाता है; जहां राजा स्वयं पीड़िता से मिल तीस मिनट में अपराधी को उल्टा लटका कर भीड़ को सौंप देते हैं ताकि लोगों को सीख मिल सके और उनमें भय का भाव उत्पन्न हो सके। इससे दुष्कर्म के हादसों पर अंकुश लगना स्वाभाविक है।
इस भयावह वातावरण में हर इंसान मुखौटे लगा कर जी रहा है; एक-दूसरे की आंखों में धूल झोंक रहा है। आजकल महिलाएं भी सुरक्षा हित निर्मित कानूनों का खूब फायदा उठा रही हैं। वे बच्चों के लिए पति के साथ एक छत के नीचे रहती हैं, पूरी सुख-सुविधाएं भोगती हैं और हर पल पति पर निशाना साधे रहती हैं। वे दोनों दुनियादारी के निर्वहन हेतू पति-पत्नी का क़िरदार बखूबी निभाते हैं, जबकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि यह संबंध बच्चों के बड़े होने तक ही कायम रहेगा। जी हां, यही सत्य है जीवन का…समझ नहीं आता कि पुरुष इन पक्षों को अनदेखा कर कैसे अपनी ज़िंदगी गुज़ारता है और वृद्धावस्था की आगामी आपदाओं का स्मरण कर चिंतित नहीं होता। वह बच्चों की उपेक्षा व अवमानना का दंश झेलता, नशे का सहारा लेता है और अपने अहं में जीता रहता है। पत्नी सदैव उस पर हावी रहती है, क्योंकि वह जानती है कि उसे प्रदत्त अधिकार से कोई भी बेदखल नहीं कर सकता। हां! अलग होने पर मुआवज़ा, बच्चों की परवरिश का खर्च आदि मिलना उसका संवैधानिक अधिकार है। इसलिए महिलाएं अपने ढंग से जीवन-यापन करती हैं।
यह तो सर्द रातों में बुझते हुए दीयों की बात हुई।
जैसे सर्द हवा के चलने पर जलती आग के आसपास बैठ कर तापना बहुत सुक़ून देता है और इंसान उस तपिश को अंत तक महसूसना चाहता है, जबकि वह जानता है कि वे संबंध स्थायी नहीं हैं; पल भर में ओझल हो जाने वाले हैं। इंसान सदैव सुक़ून की तलाश में रहता है, परंंतु वह नहीं जानता कि आखिर सुक़ून उसे कहाँ और कैसे प्राप्त होगा? इसे आप रिश्तों को बचाने की मुहिम के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि ‘मानव खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ’ में विश्वास रखता है। वह आज को जी लेना चाहता है; कल के बारे में चिन्ता नहीं करता।
गोरखपुर, उत्तरप्रदेश से श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी एक प्रेरणादायक महिला हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें 2024 में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उनके द्वारा संवाद टीवी पर फाग प्रसारण प्रस्तुत किया गया और विभिन्न राज्यों के प्रमुख अखबारों व पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।
कोई प्रेम पे काव्य नहीं ना ही किसी दूसरे के द्वारा बल्कि मैं वह सारी बातें तुम से सुनना चाहती हूँ”
मन के अतंस में अक्सर अपने जीवन साथी से बस दो पल और दो बातें को तरस जाती स्त्रियों चुप्पी साधे निहारती रहतीं है उन्हे सांत्वना या दु:ख नहीं होता बल्कि घुटन होती है वह अपने जीवन साथी से बहुत कुछ कहना चाहती है, सुनना चाहती हैं लेकिन शायद उसके पति के पास इस सब के लिए वक़्त होता है और अगर वक़्त नहीं होता है तो केवल पत्नी के लिए नहीं होता।
ना जाने कितनी स्त्रियाँ अजीब सी जिदंगी जीने पे मजबूर हैं, जो कहती नहीं लेकिन जी रहीं हैं। इस रिश्तों में पति-पत्नी एक छत के नीचे बैठते उठते हैं लेकिन बातें बस औपचारिकतावश करते हैं। उनके लिए बच्चे एक प्राथमिकता हैं जो उन्हें जोड़कर रखे हैं समाज में सुखी कपल्स दिखते हैं, जबकि उनका रिश्ता बिलकुल उस पेड़ के जैसे होता है जो अंदर ही अंदर खोखला हो चुका होता है।
यह अलगाव ज्यादातर संयुक्त परिवार में नज़र आ रहा है। कारण है पति पत्नी को खुद के लिए वक़्त ना मिलना। पत्नी का घर के कार्य में व्यस्त और पति चाकरी में। दोनों साथ होकर भी साथ नहीं होते। परिवार में आपसी तालमेल नहीं होने के कारण दोनों के रिश्तों में तनाव उभरने लगता है। कुछ रिश्ते बच्चों के लिए बचा लेते हैं, तो कुछ तलाक़ लेकर अलग अलग हो जाते हैं।
समाज को दिखावे के लिए कुछ कपल्स जोड़ी चुपचाप साथ रहते हैं और अवसाद तनाव झेलते है, कुछ तनाव में आकर सुसाइड तक कर लेते हैं।
इस सब के पीछे बस एक ही कारण है ‘पति पत्नी के रिश्तों में वक़्त की कमी’।
मैं यह नहीं कह रही कि आप पत्नी या पति को की-रिंग बना कर घुमाये लेकिन आत्मिक सुख चैन शांति संवाद जरूर बनाकर रखें।
अपनी जीवनसंगिनी को संयुक्त परिवार के साथ सास-ससुर के घर में नहीं बल्कि अपने हृदय में रखने की कोशिश करें ताकि आप की पत्नी आपके साथ साथ आपके घर में निवास करे।
अरे पत्नी को समझने के लिए उसके पति को ज्यादा कुछ नहीं बस एक स्नेह भरा स्पर्श देते हुए एक वाक्य कहना पड़ता है ‘पगली मैं हूँ न तेरे साथ’।
बस यही एक वाक्य पति पत्नी के रिश्तों को अटूट विश्वास प्रेम में बांधकर जिंदा रहने के लिए मजबूर कर देता है।
वक्त रहते अगर संभाल सकते हैं तो संभाल लीजिए वरना तस्वीरें संभालने में देर नही लगती।