हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 40 – दस महाविद्याएँ ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  शिक्षाप्रद आलेख  “दस महाविद्याएँ । )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 40 ☆

☆ दस महाविद्याएँ

पहली महाविद्या देवी ‘काली‘ है जिसका अर्थ ‘समय’ या ‘काल’ या ‘परिवर्तन की शक्ति’ है वह निष्क्रिय गतिशीलता, विकास की संभावित ऊर्जा, ब्रह्मांड में महत्वपूर्ण या प्राणिक शक्ति अर्थात समय की गति ही काली है । ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व सर्वत्र अंधकार ही अंधकार से उत्पन्न शक्ति! अंधकार से जन्मा होने के कारण देवी काले वर्ण वाली तथा तामसी गुण सम्पन्न हैं । देवी, प्राण-शक्ति स्वरूप में शिव रूपी शव के ऊपर आरूढ़ हैं, जिसके कारण जीवित देह शक्ति सम्पन्न या प्राण युक्त हैं । देवी अपने भक्तों के विकार शून्य हृदय (जिसमें समस्त विकारों का दाह होता हैं) में निवास करती हैं, जिसका दार्शनिक अभिप्राय श्मशान से भी हैं । देवी श्मशान भूमि (जहाँ शव दाह होता हैं) वासी हैं । मुखतः देवी अपने दो स्वरूपों में विख्यात हैं, ‘दक्षिणा काली’ जो चार भुजाओं से युक्त हैं तथा ‘महा-काली’ के रूप में देवी की 20 भुजायें हैं । स्कन्द (कार्तिक) पुराण, के अनुसार ‘देवी आद्या शक्ति काली’ की उत्पत्ति आश्विन मास की कृष्णा चतुर्दशी तिथि मध्य रात्रि के घोर में अंधकार से हुई थी । परिणामस्वरूप अगले दिन कार्तिक अमावस्या को उनकी पूजा-आराधना तीनों लोकों में की जाती है, यह पर्व दीपावली या दीवाली नाम से विख्यात हैं तथा समस्त हिन्दू समाजों द्वारा मनाई जाती हैं । शक्ति तथा शैव समुदाय का अनुसरण करने वाले इस दिन देवी काली की पूजा करते हैं तथा वैष्णव समुदाय महा लक्ष्मी जी की, वास्तव में महा काली तथा महा लक्ष्मी दोनों एक ही हैं । भगवान विष्णु के अन्तः कारण की शक्ति या संहारक शक्ति ‘मायामय या आदि शक्ति’ ही हैं, महालक्ष्मी रूप में देवी उनकी पत्नी हैं तथा धन-सुख-वैभव की अधिष्ठात्री देवी हैं । दस महा-विद्याओं में देवी काली, उग्र तथा सौम्य रूप में विद्यमान हैं, देवी काली अपने अनेक अन्य नामों से प्रसिद्ध हैं, जो भिन्न-भिन्न स्वरूप तथा गुणों वाली हैं ।

देवी काली मुख्यतः आठ नामों से जानी जाती हैं और ‘अष्ट काली’, समूह का निर्माण करती हैं ।

  1.  चिंता मणि काली
  2.  स्पर्श मणि काली
  3.  संतति प्रदा काली
  4.  सिद्धि काली
  5.  दक्षिणा काली
  6.  कार्य कला काली
  7.  हंस काली
  8.  गुह्य काली

 

© आशीष कुमार 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 43 ☆ आइसोलेशन….प्रमुख ऊर्जा-स्त्रोत ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक आलेख आइसोलेशन….प्रमुख ऊर्जा-स्त्रोत जिसे चारु चिंतन की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 43 ☆

☆ आइसोलेशन….प्रमुख ऊर्जा-स्त्रोत

 

‘ज़िंदगी कितनी ही बड़ी क्यों न हो, समय की बर्बादी से छोटी बनायी जा सकती है’  जॉनसन का यह कथन आलसी लोगों के लिए रामबाण है, जो अपना समय ऊल-ज़लूल बातों में नष्ट कर देते हैं; आज का काम कल पर टाल देते हैं, जबकि कल कभी आता नहीं। ‘जो भी है, बस यही एक पल है/ कर ले पूरी आरज़ू’ वक्त की ये पंक्तियां भी आज अथवा इसी पल की सार्थकता पर प्रकाश डालते हुए, अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने अथवा जीने का संदेश देती हैं। कबीरदास जी का यह दोहा ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब/ पल में परलय होयगी,मूरख करेगा कब ‘ आज अर्थात् वर्तमान की महिमा को दर्शाते हुए सचेत करते हैं कि ‘कल कभी आने वाला नहीं और कौन जानता है, कौन सा पल आखिरी पल बन जाए और सृष्टि में प्रलय आ जाए। चारवॉक दर्शन का संदेश ‘खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ’ आज की युवा-पीढ़ी के जीवन का लक्ष्य बन गया है। इसीलिए वे आज ही अपनी हर तमन्ना पूरी कर लेना चाहते हैं। कल अनिश्चित है और किसने देखा है? इसलिए वे भविष्य की चिंता नहीं करते; हर सुख को इसी पल भोग लेना चाहते हैं। वैसे तो ठीक से पता नहीं कि अगली सांस आए या नहीं। सो! कल के बारे में सोचना, कल की प्रतीक्षा करना और सपनों के महल बनाने का औचित्य नहीं है।

ऐसी विचारधारा के लोगों का आस्तिकता से कोसों दूर का नाता होता है। वे ईश्वर की सत्ता व अस्तित्व को नहीं स्वीकारते तथा अपनी ‘मैं’ अथवा अहं में मस्त रहते हैं। उनकी यही अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता की भावना उन्हें सबसे दूर ले जाती है तथा आत्मकेंद्रित कर देती है। वास्तव में एकांतवास अथवा आइसोलेशन–कारण भले ही कोरोना ही क्यों न हो।

कोरोना वायरस ने भले ही पूरे विश्व में तहलक़ा मचा रखा है, परंतु उसने हमें अपने घर की चारदीवारी में, अपने प्रियजनों के सानिध्य में रहने और बच्चों के साथ मान-मनुहार करने का अवसर प्रदान किया …अक्सर लोगों को वह भी पसंद नहीं आया। मौन एकांत का जनक है, जो हमें आत्मावलोकन का अवसर प्रदान करता है और सृष्टि के विभिन्न रहस्यों को उजागर करता है। सो! एकांतवास की अवधि में हम आत्मचिंतन कर, ख़ुद से मुलाकात कर सकते हैं, जो जीवन में असफलता व तनाव से बचने के लिए ज़रूरी है। इतना ही नहीं, यह स्वर्णिम अवसर है; अपनों के साथ रहकर समय बिताने का, ग़िले- शिक़वे मिटाने का, ख़ुद में ख़ुद को तलाशने का, मन के भटकाव को मिटा कर, अंतर्मन में प्रभु के दर्शन पाने का। सो! एकांत वह सकारात्मक भाव है, जो हमारे अवचेतन मन को जाग्रत कर, सर्वश्रेष्ठ को बाहर लाने अथवा अभिव्यक्ति प्रदान करने में सहायक सिद्ध होता है। आपाधापी भरे आधुनिक युग में रिश्तों में खटास व अविश्वास से उपजा अजनबीपन का अहसास मानव को अलगाव की स्थिति तक पहुंचाने का एकमात्र कारक है और व्यक्ति उस मानसिक प्रदूषण अर्थात् चिंता, तनाव व अवसाद की ऊहापोह से बाहर आना चाहता है।

जब व्यक्ति एकांतवास में होता है, जीवन की विभिन्न घटनाएं मानस-पटल पर सिनेमा की रील की भांति आती-जाती रहती हैं और वह सुख-दु:ख की मन:स्थिति में डूबता-उतराता रहता है। इस मनोदशा से उबरने का साधन है एकांत, जिसका प्रमाण हैं– लेखक, गायक और प्रेरक वक्ता विली जोली, जो 1989 में न्यूज़ रूम कैफ़े में अपना कार्यक्रम पेश किया करते थे। उनकी लाजवाब प्रस्तुति के लिए उन्हें अनगिनत पुरस्कारों व सम्मानों से नवाज़ा गया था। परंतु मालिक के छंटनी के निर्णय ने उन्हें आकाश से धरा पर ला पटका और उन्होंने कुछ दिन एकांत अर्थात् आइसोलेशन में रहने का निर्णय कर लिया। एक सप्ताह तक आइसोलेशन की स्थिति में रहने के पश्चात् उनकी ऊर्जा, एकाग्रता व कार्य- क्षमता में विचित्र-सी वृद्धि हुई। सो! उन्होंने अपनी शक्तियों को संचित कर, स्कूलों में प्रेरक भाषण देने प्रारंभ कर दिए और वे बहुत प्रसिद्ध हो गये। एक दिन लुइस ब्राउन ने उन्हें अपने साथ कार्यक्रम आयोजित करने को आमंत्रित किया,जिसने उनकी ज़िंदगी को ही बदल कर रख दिया। इससे उन्हें एक नई पहचान मिली, जिसका श्रेय वे क्लब-मालिक के साथ-साथ आइसोलेशन को भी देते हैं। इस स्थिति में वे गंभीरता से अपने अवगुणों व कमियों को जानने के पश्चात्, तनाव से मुक्ति प्राप्त कर सके। सो! एकांतवास द्वारा हम अपने हृदय की पीड़ा व दर्द को…अपनी आत्मचेतना को जाग्रत करने के पश्चात्, अदम्य साहस व शक्ति से सितारों में बदल सकते हैं अर्थात् अपने सपनों को साकार कर सकते हैं।

ब्रूसली के मतानुसार ग़लतियां हमेशा क्षमा की जा सकती हैं; यदि आपके पास उन्हें स्वीकारने का साहस है। दूसरे शब्दों में यह ही प्रायश्चित है। परंतु अपनी भूल को स्वीकारना दुनिया में सबसे कठिन कार्य है, क्योंकि हमारा अहं इसकी अनुमति प्रदान नहीं करता; हमारी राह में पर्वत की भांति अड़कर खड़ा हो जाता है। अब्दुल कलाम जी के मतानुसार ‘इंसान को कठिनाइयों की भी आवश्यकता होती है। सफलता का आनंद उठाने के लिए यह ज़रूरी और अकाट्य सत्य भी है कि यदि जीवन में कठिनाइयां, बाधाएं व आपदाएं न आएं, तो आप अपनी क्षमता से अवगत नहीं हो सकते।’ कहां जान पाते हो आप कि ‘मैं यह कर सकता हूं?’ सो! कृष्ण की बुआ  कुंती ने का कृष्ण से यह वरदान मांगना इस तथ्य की पुष्टि करता है कि ‘उसके जीवन में कष्ट आते रहें, ताकि प्रभु की स्मृति बनी रहे।’ मानव का स्वभाव है कि वह सुख में उसे कभी याद नहीं करता, बल्कि स्वयं को ख़ुदा अर्थात् विधाता समझ बैठता है। ‘सुख में सुमिरन सब करें, दु:ख में करे न कोई /जो सुख में सुमिरन करे, तो दु:ख काहे को होय’ अर्थात् सुख- दु:ख में प्रभु की सुधि बनी रहे, यही सफल जीवन का राज़ है। मुझे याद आ रहा है वह प्रसंग–जब एक राजा ने भाव-विभोर होकर संत से अनुरोध किया कि वे प्रसन्नता से उनकी मुराद पूरी करना चाहते हैं। संत ने उन्हें कृतज्ञता-पूर्वक मनचाहा देने को कहा और राजा ने राज्य देने की पेशकश की, जिस पर उन्होंने कहा –राज्य तो जनता का है, तुम केवल उसके संरक्षक हो। महल व सवारी भेंट-स्वरूप देने के अनुरोध पर संत ने उन्हें भी राज-काज चलाने की मात्र सुविधाएं बताया। तीसरे विकल्प में राजा ने देह-दान की अनुमति मांगी। परंतु संत ने उसे भी पत्नी व बच्चों की अमानत कह कर ठुकरा दिया। अंत में संत ने राजा को अहं त्यागने को कहा,क्योंकि वह सबसे सख्त बंधन होता है। सो! राजा को अहं त्याग करने के पश्चात् असीम शांति व अलौकिक आनंद की अनुभूति हुई।

अंतर्मन की शुद्धता व नाम-स्मरण ही कलयुग में पाप-कर्मों से मुक्ति पाने का साधन है। अंतस शुद्ध होगा, तो केवल पुण्य कर्म होंगे और पापों से मुक्ति मिल जाएगी। विकृत मन से अधर्म व पाप होंगे। हृदय की शुद्धता, प्रेम, करुणा व ध्यान से प्राप्त होती है… उसे पूजा-पाठ, तीर्थ-यात्रा व धर्म-शास्त्र के अध्ययन से पाना संभव नहीं है। सो! जहां अहं नहीं, वहां स्नेह, प्रेम, सौहार्द, करुणा व एकाग्रता का निवास होता है। आशा, विश्वास व निष्ठा जीवन का संबल हैं। तुलसीदास जी का ‘एक भरोसो,एक बल, एक आस विश्वास/ एक राम,घनश्याम हित चातक  तुलसीदास।’ आशा ही जीवन है। डूबते को तिनके का सहारा…घोर संकट में आशा की किरण, भले ही जुगनू के रूप में हो; उसका पथ-प्रदर्शन करती है; धैर्य बंधाती है; हृदय में आस जगाती है। ‘नर हो ना निराश करो मन को/ कुछ काम करो, कुछ काम करो’ मानव को निरंतर कर्मशीलता के साथ आशा का दामन थामे रखने का संदेश देता है…यदि एक द्वार बंद हो जाता है, तो किस्मत उसके सम्मुख दस द्वार खोल देती है। सो! उम्मीद जिजीविषा की सबसे बड़ी ताकत है। राबर्ट ब्रॉउनिंग का यह कथन ‘आई ऑलवेज रिमेन ए फॉइटर/ सो वन, फॉइट नन/ बैस्ट एंड द लॉस्ट।’ सो! उम्मीद का दीपक सदैव जलाए रखें। विनाश ही सृजन का मूल है। भूख, प्यास, निद्रा –आशा व विश्वास के सम्मुख नहीं ठहर सकतीं; वे मूल्यहीन हैं।

सो! आइसोलेशन मन की वह सकारात्मक सोच है, जिसमें मानव समस्याओं को नकार कर, स्वस्थ मन से चिंतन-मनन करता है। चिंता मन को आकुल- व्याकुल व  हैरान-परेशान करती है और चिंतन सकारात्मकता प्रदान करता है। चिंतन से मानव सर्वश्रेष्ठ को पा लेता है। राबर्ट हिल्येर के शब्दों में ‘यदि आप अपना सर्वश्रेष्ठ दे रहे हैं, तो आपके पास असफलता की चिंता करने का समय ही नहीं रहेगा।’ असफलता हमें चिंतन के अथाह सागर में अवगाहन करने को विवश कर देती है, तो सफलता चिंतन करने को, ताकि वह सफलता की अंतिम सीढ़ी पर पहुंच सके। सो! एकांतवास वरदान है, अभिशाप नहीं; इसे भरपूर जीएं, क्योंकि यह विद्वतजनों की बपौती है, जो केवल भाग्यशाली लोगों के हिस्से में ही आती है। इस लिए आइसोलेशन के अनमोल समय को अपना भाग्य कोसने व दूसरों की निंदा करने में नष्ट मत करो। जीवन में जब जो, जैसा मिले, उसमें संतोष पाना सीख लें, आप दुनिया के सबसे महान् सम्राट् बन जाओगे। जीवन में चिंता नहीं, चिंतन करो…यही सर्वोत्तम मार्ग है; उस सृष्टि-नियंता को पाने का; आत्मावलोकन कर विषम परिस्थितियों का धैर्यपूर्वक सामना कर, सर्वश्रेष्ठ दिखाने का। सो! हर पल का आनंद लो, क्योंकि गुज़रा समय कभी लौट कर नहीं आता…जिसके लिए अपेक्षित है; अहम् का त्याग;  अथवा अपनी ‘मैं’  को मारना। जब ‘मैं’… ‘हम’ में परिवर्तित हो जाता है, तो तुम अदृश्य हो जाता है। यही है अलौकिक आनंद की स्थिति; राग-द्वेष व स्व-पर से ऊपर उठने की मनोदशा, जहां केवल ‘तू ही तू’ अर्थात् सृष्टि के कण-कण में प्रभु ही नज़र आता है। सो! आइसोलेशन अथवा एकांत एक बहुमूल्य तोहफ़ा है… इसे अनमोल धरोहर-सम स्वीकारिए व सहेजिए तथा जीवन को उत्सव समझ, आत्मोन्नति हेतु हर लम्हे का भरपूर सदुपयोग कर, अलौकिक आनंद प्राप्त कीजिए।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #45 ☆ लॉकडाउन और मैं ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 45 – लॉकडाउन और मैं ☆

समाचारपत्रों में कभी-कभार पढ़ता था कि फलां विभाग में  पेनडाउन आंदोलन हुआ। लेखक होने के नाते  ‘पेनडाउन’ शब्द कभी नहीं भाया। फिर नॉकडाउन से परिचय हुआ। मुक्केबाजी से सम्बंधित समाचारों ने सबसे पहले नॉकआउट शब्द से परिचय कराया।कारोबार के समाचारों ने लॉकआउट का अर्थ समझाया। फिर आया लॉकडाउन। यह शब्द अपरिचित नहीं था पर पिछले लगभग एक माह ने इससे चिरपरिचित जैसा रिश्ता जोड़ दिया है।

जब आप किसी निर्णय को मन से स्वीकार करते हैं तो भाव उसके अनुपालन के अनुकूल होने लगता है। इस अनुकूलता का विज्ञान के अनुकूलन अर्थात परिस्थिति के अनुरूप ढलने के सिद्धांत से मैत्री संबंध है।

इस संबंध को मैंने भ्रमण या पैदल चलने के अभ्यास में अनुभव किया। सामान्यत: मैं सुबह 3 से 3.5 किलोमीटर भ्रमण करता हूँ। इस भ्रमण के अनियमित हो जाने पर पूर्ति करने या लंबी दूरी तय करने का मन होने पर अथवा प्राय: अन्यमनस्क होने पर देर शाम 8 से 10 किलोमीटर की पदयात्रा करता हूँ। चलने के आदी पैर लॉकडाउन के कारण अनमने रहने लगे तो परिस्थिति के अनुरूप मार्ग भी निकल आया। एक कमरे की बालकनी के एक सिरे से दूसरे कमरे की बालकनी के सिरे के बीच तैंतीस फीट के दायरे में पैरों ने तीन किलोमीटर रोजाना की यात्रा सीख ली।

पहले विचार किया था कि लेखन में बहुत कुछ छूटा हुआ है जो इस कालावधि में पूरा करूँगा। बहुत जल्दी यह समझ में आ गया कि नई  गतिविधि का अभाव मेरे लेखन की गति को प्रभावित कर रहा है।  यद्यपि दैनिक लेखन अबाधित है तथापि अपने भीतर जानता हूँ कि जैसे कुछ कार्यालयों में पच्चीस प्रतिशत कर्मचारियों के साथ ही काम हो रहा है, मेरी कलम भी एक चौथाई क्षमता से ही चल रही है। बकौल अपनी कविता,

घर पर ही हो,

कुछ नहीं घटता

कुछ करना भी नहीं पड़ता

इन दिनों..,

बस यही अवसर है

खूब लिखा करो,

क्या बताऊँ

लेखन का सूत्र

कैसे समझाऊँ,

साँस लेना ज़रूरी है

जीने के लिए..,

घटना और कुछ करना

अनिवार्य हैं लिखने के लिए!

अलबत्ता समय का सदुपयोग करने की दृष्टि से सृजनात्मक लेखन का मन न होने पर प्रकाशनार्थ पुस्तकों का प्रूफ देखना, पुस्तकों का अलाइनमेंट या सुसंगति निर्धारित करना जैसे काम चल रहे हैं। पुस्तकों की भूमिका लिखने का काम भी हो रहा है। निजी लेखन की फाइलें भी डेस्कटॉप पर अलग सेव करता जा रहा हूँ।

लॉकडाउन के इस समय में प्रकृति को निहारने का सुखद अनुभव हो रहा है। सूर्योदय के समय खगों की चहचहाट, सूर्यास्त का गरिमामय अवसान दर्शाता स्वर्णिम दृश्य, सामने के पेड़ पर रहनेवाले तोतों और चिड़िया के समूहों का शाम को घर लौटना, कौवों का अपने घोंसले की रक्षा करना, ततैया का पानी पीने आना, पानी पीते कबूतरों का भयभीत होकर भागने के बजाय शांत मन से तृप्त होने तक जल ग्रहण करना, सब साकार होने लगा है।

संभवत: साढ़े तीन दशक बाद कोई सीरियल देखने की आदत बनी। पिछले दिनों ‘रामायण’ का प्रसारण नियमित रूप से देखा। रावण ने अपने अहंकार के चलते सम्पूर्ण असुर जाति का अस्तित्व दांव पर लगा दिया था। लॉकडाउन में अनावश्यक रूप से बाहर घूमनेवाले अति आत्मविश्वास और लापरवाही के चलते मनुष्य जाति के लिए वही भूमिका दोहरा रहे हैं।

हर क्षण जीवन बीत रहा है। इसलिए अपने  समय का बेहतर उपयोग करने के लिए सर्वदा कुछ नया और सार्थक सीखना चाहिए। ख़ासतौर पर उन विषयों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जिनसे  अबतक अनजान हों या जिनमें प्रवीणता नहीं है।

पाकशास्त्र में प्रवीणता दीर्घ कालावधि और सम्पूर्ण समर्पण से मिलती है। दोनों आवश्यकताएँ पूरी करने में अपनी असमर्थता का भलीभाँति ज्ञान होने के कारण रसोई बनाने के सामान्य ज्ञान पर ध्यान केंद्रित कर रहा हूँ। अपने काम के सिलसिले में घर से बाहर    काफी दिन रुकना पड़े तो होटल से मंगाने के बजाय अपना भोजन स्वयं सरलता से बना सकूँ, कम से कम इतना सीख लेना चाहता हूँ। मनुष्य को यों भी यथासंभव स्वावलंबी होना चाहिए।  लॉकडाउन इसका एक अवसर है।

लॉकडाउन की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका यह है कि यह रोग को फैलने से रोकने के लिए सामाजिक वैक्सिन है। मेडिकल वैक्सिन आने में लगभग आठ से दस माह की अवधि लग सकती है। ऐसे में लॉकडाउन और सामाजिक- भौतिक दूरी, रोग और वैक्सिन के बीच हमें सुरक्षित रख सकती है। अत: आप सबसे भी अनुरोध है कि घर में रहें, सुरक्षित रहें, स्वस्थ रहें।

 

©  संजय भारद्वाज

संध्या 7:50 बजे, 21.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 15 ☆ बदलता दौर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर समसामयिक रचना “बदलता दौर।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 15 ☆

☆ बदलता दौर

ऑन द वे, ऑन द स्पॉट तो सुना था अब ऑन लाइन भी बहुचर्चित हो रहा है सारे कार्य इसी तरीके से हो रहे । ई शिक्षा का बढ़ता महत्व;  आखिरकार हम लोग इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं । मंगल पर मंगल करने की योजना तो धरी की धरी रह गयी ; साथ ही साथ अंतरिक्ष में भी उसी तरह भ्रमण करना है जैसे सात समंदर पार करते रहे हैं ; इस  पर भी कुछ समय के लिए रोक लग गयी ।

चूँकि सब चीज हम लोग ब्रांडेड व इम्पोटेड चाहते हैं इसलिए अब की बार  बीमारी भी परदेश से ही आ गयी ;  सुंदर सा नाम धर के । तरक्क़ी का इससे बड़ा सबूत और क्या दिया जाए ?

हम लोग हमेशा कहते रहते अच्छा सोचो अच्छा बनो पर ये क्या…. पॉजिटिव लोगों का साथ छोड़ निगेटिव लोगों के बीच रहना ही आज की आवश्यकता है ।  खैर जब बीमारी बाहरी होगी तो  उल्टी विचारधारा तो फैलायेगी ही । ऐसा उल्टा -सीधा परिवर्तन करने का माद्दा तो कोरोना जी के पास ही है । जब से इनका आगमन हुआ तभी से *वर्क फ्रॉम होम विथ वर्क फॉर होम*  की संकल्पना उपजी । बीबी बच्चों  के साथ  पति घरेलू प्राणी बन गया । घर में रहने का सुख ,साथ ही साथ एक प्रश्न का उत्तर जो हमेशा ही अपनी धर्म पत्नी चाहता था कि आखिर तुम दिनभर करती क्या हो ;  वो भी उसे मिल गया । अब तो कान पकड़ लिए कि तौबा – तौबा  कोई प्रश्न नहीं करेंगे । वरना ऐसे उत्तर मिलेंगे इसकी कल्पना भी नहीं की थी ।

खैर जब पुराना दौर ज्यादा नहीं चल सका तो ये भी बीत जायेगा आखिर बदलाव ही तो जीवन की पहचान है इसके साथ जो जीना सीख गया समझो सफलता की सीढ़ी चढ़ गया ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – जग, सजग का है ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – जग, सजग का है  ☆

 

प्रश्न- जग सो रहा है और तुम अब तक जाग रहे हो?

 

उत्तर- जग शब्द स्वयं कहता है- जग, नेत्र खुले रख। स्थूल की निद्रा में भी सूक्ष्म को जागृत रख। जग में आगमन जगने, जगे रहने, जगाते रहने और जगाये रखने के लिए है। जग में आकर जो जगे रहने का अर्थ नहीं समझा, वह अज-सा काल का भक्ष्य है। जो जगता रहा, जगाता रहा, सजगता उसका लक्ष्य है।

 

….ध्यान रहे जग, सजग का है।

 

सजग रहें। घर में रहें। सुरक्षित और स्वस्थ रहें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

सोमवार 1 जुलाई 2018, रात्रि 1:27 बजे

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 25 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। डॉ भीमराव  आम्बेडकर जी के जन्म दिवस के अवसर पर हम आपसे इस माह महात्मा गाँधी जी एवं  डॉ भीमराव आंबेडकर जी पर आधारित आलेख की श्रंखला प्रस्तुत करने का प्रयास  कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का तृतीय आलेख  “महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 25 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 3

द्वितीय गोलमेज कांफ्रेस में भी डाक्टर आम्बेडकर ने दलितों के उद्धार हेतु अपनी तार्किक प्रस्तुति देकर विश्व भर के अखबारों में सुर्खियाँ बटोरी। भारत की जनता के बीच उनके तर्क उन्हें अंग्रेज परस्त और हिन्दुओं का दोषी बता रहे थे। जनता में यह भावना बलवती होती जा रही थी कि डाक्टर आम्बेडकर की उक्तियों से अंग्रेज सरकार की भारत को खंडित करने की कूटनीतिक चाल सफल हो रही है। डाक्टर आम्बेडकर का यह तर्क कि अगर मुसलमानों को पृथक निर्वाचन का अधिकार दे देने से भारत बंटने वाला नहीं है तो दलितों को यह अधिकार मिलने से हिन्दू समाज कैसे बंट जाएगा ? लोगों के गले नहीं उतर रहा था। लन्दन में गांधीजी और आम्बेडकर दोनों  अल्पसंख्यक समुदाय व अस्पृश्यों के लिए निर्वाचन हेतु आवंटित किये जाने वाले स्थानों हेतु बनाई गई अल्पसंख्यक समिति के सदस्य थे। गांधीजी के मतानुसार आम्बेडकर अस्पृश्यों के सर्वमान्य नेता नहीं थे। यह समिति भी किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकी।

द्वतीय गोलमेज कांफ्रेस के विफल वार्तालाप और गांधी इरविन पैक्ट की असफलता के साथ ही सविनय अवज्ञा आन्दोलन को पुन: शुरू करने की मांग तेज होने लगी और गांधीजी समेत बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए । जब गांधीजी पूना के निकट यरवदा जेल में बंद थे तभी अंग्रेज सरकार ने कम्युनल अवार्ड की घोषणा अगस्त 1932 में करते हुए राज्यों की विधानसभाओं में अल्पसंख्यक वर्ग के लिए पहले की अपेक्षा दुगने स्थान सुरक्षित कर दिए। अल्पसंख्यकों के साथ दलितों के लिए भी पृथक निर्वाचन मंडल का गठन करने और उनके लिए 71 विशेष सुरक्षित स्थानों के साथ साथ सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों से भी चुनाव लड़ने की छूट दे दी गई। ब्रिटिश प्रधानमंत्री की इस घोषणा के विरुद्ध गान्धीजी ने अपनी पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार बीस सितम्बर से आमरण अनशन प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी। गांधीजी की इस घोषणा से मानो पूरे भारत में भूचाल सा आ गया। गांधीजी के इस निर्णय से उनके समर्थक भी भौंचक्के रह गए। स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरु को गांधीजी का इस राजनीतिक समस्या को धार्मिक और भावुकतापूर्ण दृष्टि से देखना पसंद नहीं आया। गांधीजी के आमरण अनशन की घोषणा से लोग घबरा उठे। नेताओं के साथ साथ आम जनता के मन में भी यह भावना प्रबल हो उठी कि अगर गांधीजी ने अपने प्राणों की आहुति दे दी तो भारत का क्या होगा, स्वतंत्रता आन्दोलन का नेतृत्व कौन ? लोगों को देश का भविष्य सूना और अंधकारमय दिखने लगा। गांधीजी और डाक्टर आम्बेडकर के समर्थकों के बीच आरोप प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो गया तो दूसरी ओर मध्यस्थता की कोशिशें तेज हो चली। पंडित मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में 19 सितम्बर को मुंबई में हिन्दू नेताओं की बैठक हुई जिसमे डाक्टर आम्बेडकर भी शामिल हुए। यद्दपि डाक्टर आम्बेडकर का दृढ़ मत था कि वे गांधीजी के प्राण बचाने के लिए ऐसी किसी बात के लिए सहमत नहीं हो सकते जिससे दलितों का अहित हो तथापि वे वार्तालाप के लिए तत्पर रहे। इसके बाद डाक्टर सर तेज बहादुर सप्रू आदि ने यरवदा जेल जाकर गांधीजी से मुलाक़ात की और फिर डाक्टर आम्बेडकर की मुलाक़ात गांधीजी से जेल में करवाई गई। वार्ताओं के अनेक दौर चले और इसमें राजगोपालचारी, घनश्याम दास बिड़ला, राजेन्द्र प्रसाद आदि ने बड़ी भूमिका निभाई। अनशन के छठवें दिन डाक्टर आम्बेडकर ने जब चर्चा के दौरान कटुता भरे शब्दों में कहा कि ‘ये महात्मा कौन होते हैं अनशन करने वाले? उनको मेरे साथ डिनर के लिए बुलाइए।‘ उनके इस कथन पर बड़ा बवाल मचा और दक्षिण भारत के एक अन्य दलित नेता श्री एम सी राजा ने भी उन्हें समझाया व गांधीजी के अछुतोद्धार के प्रयासों की सराहना करते हुए समझौते के लिए दबाब डाला ।  इन सब दबावों व अनेक वार्ताओं के फलस्वरूप 23 सितम्बर 1932 को गांधीजी और आम्बेडकर के बीच समझौता हो गया जिस पर दलितों की ओर से डाक्टर आम्बेडकर व हिन्दू समाज की ओर से मदन मोहन मालवीय ने अगले दिन हस्ताक्षर किये और इस प्रकार गांधीजी के प्राणों की रक्षा हुई। यह समझौता पूना पेक्ट के नाम से मशहूर हुआ और इस प्रकार अछूतों को निर्वाचन में आरक्षण मिला तथा सरकारी नौकरियों में उनके साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव बिना योग्यता के अनुरूप स्थान देने के साथ साथ अस्पृश्यता ख़त्म करने और उन्हें शिक्षा में अनुदान देने की बाते भी शामिल की गई। पूना पेक्ट के तहत विधान सभा की कुल 148 सीटें अस्पृश्यों के लिए आरक्षित की गई जोकि कम्युनल अवार्ड के द्वारा आरक्षित 71 सीटों से कहीं ज्यादा थी। इस पेक्ट पर हस्ताक्षर करने के लिए डाक्टर आम्बेडकर को तैयार करने में मदन मोहन मालवीय ने महती भूमिका निभाई और वे डाक्टर आम्बेडकर को यह समझाने में सफल रहे कि राष्ट्र हित में गांधीजी के प्राणों की रक्षा होना अत्यंत आवश्यक है और इसके लिए डाक्टर आम्बेडकर को पृथक निर्वाचन संबंधी अपनी जिद्द छोड़ देनी चाहिए। समझौता हो जाने के बाद डाक्टर आम्बेडकर ने गांधीजी की भूरि-भूरि प्रसंशा की और माना कि अन्य राष्ट्रीय नेताओं की तुलना में गांधीजी दलित समाज के दुःख दर्द को बेहतर समझते हैं। यहाँ यह विचारणीय प्रश्न है कि गांधीजी द्वितीय गोलमेज कांफ्रेंस तक आम्बेडकर की बातों से सहमत न थे फिर वे पूना समझौते के लिए क्यों तैयार हो गए। वस्तुत गांधीजी के उपवास ने आम जनमानस में अस्पृश्यता  को लेकर चिंतन शुरू हुआ और इस बुराई को दूर करने  के प्रति लोगों में जागरूकता आई। अनेक संभ्रांत और प्रतिष्ठित परिवारों के सदस्यों ने दलित समाज के लोगों के साथ बैठकर भोजन किया और इसकी सार्वजनिक घोषणा की, मंदिरों के दरवाजे दलितों के लिए खोल दिए गए, सार्वजनिक कुएं से उन्हें पानी भरने दिया जाने लगा। ह्रदय परिवर्तन कर रुढियों की समाप्ति करने का यही गांधीजी का तरीका था। गांधीजी के उपवास ने एक बार पुन: यह सिद्ध कर दिया कि लोगों के ह्रदय के तारों को झंकृत कर सकने की उनमे अद्भुत कला थी। अगर गांधीजी आमरण अनशन का रास्ता न अपनाते तो हिन्दू समाज दलितों के साथ हो रहे भेदभावों को समाप्त करने में रूचि न दिखलाता और संभवत: इसका दुष्परिणाम देश की राजनीतिक पटल पर पड़े बिना न रहता। मंदिर प्रवेश जैसे मुद्दों पर दलित समाज को लम्बे आन्दोलन करने पड़े उस समस्या से गांधीजी के यरवदा जेल में किये गए अनशन से निजात दिलाने में और सवर्ण हिन्दुओं को इस हेतु मानसिक रूप से तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

……….क्रमशः  – 4

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 39 – वास्तु शास्त्र एवं गीता ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं शिखाप्रद आलेख  “ज्योतिष शास्त्र। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 39 ☆

☆ वास्तु शास्त्र एवं गीता

आप आकाश के विज्ञान के विषय में नहीं जानते जिसे वास्तु कहा जाता है ? वास्तु शास्त्र पारंपरिक वास्तुकला का पारंपरिक हिंदू तंत्र है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘वास्तुकला का विज्ञान’। संस्कृत में कहा गया है कि… गृहस्थस्य क्रियास्सर्वा न सिद्धयन्ति गृहं विना । वास्तु शास्त्र घर, प्रासाद, भवन अथवा मन्दिर निर्मान करने का प्राचीन भारतीय विज्ञान है जिसे आधुनिक समय के विज्ञान आर्किटेक्चर का प्राचीन स्वरुप माना जा सकता है । दक्षिण भारत में वास्तु की नींव के लिए परंपरागत महान साधु मायन को जिम्मेदार माना जाता है और उत्तर भारत में विश्वकर्मा को जिम्मेदार माना जाता है । उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम ये चार मूल दिशाएं हैं । वास्तु विज्ञान में इन चार दिशाओं के अतरिक्त 4 विदिशाएं हैं । आकाश और पाताल को भी इसमें दिशा स्वरूप शामिल किया गया है । इस प्रकार चार दिशा, चार विदिशा और आकाश पाताल को जोड़कर इस विज्ञान में दिशाओं की संख्या कुल दस मानी गयी है । मूल दिशाओं के मध्य की दिशा ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य को विदिशा कहा गया है ।

वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है। इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं । भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए। यह सुख और समृद्धि कारक होता है । इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं । परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं । उन्नति के मार्ग में भी बाधा आती है । पूर्व और दक्षिण के मध्य की दिशा को आग्नेश दिशा कहते हैं । अग्निदेव इस दिशा के स्वामी हैं । इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर का वातावरण अशाँत और तनावपूर्ण रहता है । धन की हानि होती है । मानसिक परेशानी और चिन्ता बनी रहती है । यह दिशा शुभ होने पर भवन में रहने वाले उर्जावान और स्वस्थ रहते हैं । इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है । अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होती है । दक्षिण दिशा के स्वामी यम देव हैं । यह दिशा वास्तुशास्त्र में सुख और समृद्धि का प्रतीक होती है । इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए । दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी एवं रोजी रोजगार में परेशानी का सामना करना पड़ता है । गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होती है । दक्षिण और पश्चिम के मध्य की दिशा को नैऋत्य दिशा कहते हैं । इस दिशा का वास्तुदोष दुर्घटना, रोग एवं मानसिक अशांति देता है । यह आचरण एवं व्यवहार को भी दूषित करता है । भवन निर्माण करते समय इस दिशा को भारी रखना चाहिए । इस दिशा का स्वामी देवी निर्ऋति है। यह दिशा वास्तु दोष से मुक्त होने पर भवन में रहने वाला व्यक्ति सेहतमंद रहता है एवं उसके मान सम्मान में भी वृद्धि होती है । इशान दिशा के स्वामी शिव होते हैं, इस दिशा में कभी भी शौचालय नहीं बनना चाहिये । नलकुप, कुआ आदि इस दिशा में बनाने से जल प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है ।

दरअसल वास्तु संरचना के विभिन्न हिस्सों में प्राण ऊर्जा के प्रवाह से खुद को जागरूक करा कर उसके साथ सामंजस्य स्थापित करने के अतरिक्त और कुछ भी नहीं है । हम आंतरिक प्राण वायुओं की पहचान कर सकते हैं क्योंकि प्राण दृष्टि की भावना के लिए जिम्मेदार है, गंध के लिए अपान, स्वाद के लिए समान, सुनने के लिए उदान और स्पर्श के लिए व्यान । इसके अतरिक्त हम सबसे सामान्य स्थिति में पर्यावरण की प्राण वायुओं को श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं उत्तर दिशा का वायु प्राण है, दक्षिण में अपान है, पूर्व में समान है, पश्चिम में यह व्यान और ऊपर की ओर उदान है ।

ब्रह्मांड में कुछ अन्य प्रकार के वायु भी हैं जो विभिन्न वायुमंडलीय गतिविधियों के लिए जिम्मेदार हैं । वे संख्या में 7 हैं :

  1. प्रवाह : यह वायु आकाश में बिजली निर्मित करता है ।
  2. अहावा : इस वायु द्वारा ही अंतरिक्ष में सितारे चमकते हैं और समुद्र का पानी जल-वाष्प के रूप में ऊपर जाता है और बारिश के रूप में नीचे आता हैं ।
  3. उधवाहा : यह वायु बादलों के बीच गति के लिए जिम्मेदार है और गर्जन पैदा करता है ।
  4. सांवाहा : यह वायु पहाड़ों को धड़काता है । सांवाहा बादलों को आकार देने और गरज का उत्पादन करने के लिए भी जिम्मेदार है ।
  5. व्यावाहा : यह वायु आकाश में पवित्र जल तैयार करने और आकाशगंगा के निर्माण के लिए जिम्मेदार है।
  6. पारिवाहा : यह वायु ध्यान में बैठने वाले व्यक्ति को ताकत देता है ।
  7. पारावहा : यह वह वायु है जिस पर आत्मा यात्रा करता है ।

© आशीष कुमार 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 24 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। डॉ भीमराव  आम्बेडकर जी के जन्म दिवस के अवसर पर हम आपसे इस माह महात्मा गाँधी जी एवं  डॉ भीमराव आंबेडकर जी पर आधारित आलेख की श्रंखला प्रस्तुत करने का प्रयास  कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का  द्वितीय  आलेख  “महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 24 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 2

महात्मा गांधी की भांति डाक्टर आम्बेडकर ने भी जनजागृति हेतु समाचार-पत्र प्रकाशन का सहारा लिया और कोल्हापुर के महाराजा शाहूजी से आर्थिक सहयोग प्राप्त कर एक पाक्षिक ‘मूकनायक’ का प्रकाशन जनवरी 1920 में शुरू किया, बाद में इसे 1927 से ‘बहिष्कृत भारत’ के नाम से प्रकाशित किया जाने लगा।  फिर लम्बे समय तक डाक्टर आम्बेडकर ने विभिन्न सम्मेलनों, और शोधपरक लेखन के माध्यम से दलित वर्ग की समस्याओं को उजागर करने का प्रयास किया। 1927 आते आते उनकी प्रतिष्ठा बढ़ गई और कार्यक्षेत्र का विस्तार भी हो गया। अपने आन्दोलनों के लिए उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा प्रतिपादित सत्याग्रह का मार्ग चुना और महाड़ के चवदार तालाब में दलितों के प्रवेश को लेकर सत्यागृह किया। सत्याग्रह के दौरान उन्होंने गांधीजी की तस्वीरें धरना प्रदर्शन स्थल पर लगवाई और प्रतीकात्मक तरीके से तालाब का जल अंजलि में लेकर पिया।  सत्याग्रह  को लेकर डाक्टर आम्बेडकर  के विचार गांधीजी से थोड़े भिन्न थे वे सत्याग्रह के तौर तरीके को लेकर गांधीजी जितने कठोर न थे और हर तरीके को अपनाकर सच्चाई उजागर करने में विश्वास रखते थे। दूसरी ओर महात्मा गांधी साधन की पवित्रता पर बहुत अधिक जोर देते और अहिंसा का रास्ता अपनाए रखने पर दृढ़ रहते।

फरवरी 1928 को जब साइमन कमीशन भारत आया तो गांधीजी के आह्वान पर कांग्रेस ने जगह जगह कमीशन के विरोध मे प्रदर्शनों का आयोजन किया और आम जनता ने सभी जगहों पर साइमन गो बैक के नारे लगाए हड़ताल की व शहर को बंद रखा। इसके उलट डाक्टर आम्बेडकर ने कमीशन की मदद के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाई गई बम्बई विधान परिषद् की समिति की न केवल सदस्यता ग्रहण की वरन अक्टूबर 1928 को पूना में कमीशन के सामने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की ओर से  उपस्थित होकर अछूतों के प्रतिनिधि के रूप में  एक स्मरण पत्र पेश किया, अछूतों के लिए संयुक्त निर्वाचन, मतदान का अधिकार  और सीटों पर  आरक्षण की मांग की।  उन्होंने कमीशन के सवालों का जबाब भी बड़ी चतुराई से दिया। गांधीजी के विपरीत आम्बेडकर अस्पृश्यता की समस्या का समाधान राजनीतिक सत्ता हासिल कर  चाहते थे। अभी  तक डाक्टर आम्बेडकर व गांधीजी की कोई मुलाक़ात नहीं हुई थी और गांधीजी भी उन्हें ब्राह्मण समझते थे। लेकिन आम जनता को, डाक्टर आम्बेडकर का साइमन कमीशन को सहयोग देना, पसंद नहीं आया।

मार्च 1930 में डाक्टर आम्बेडकर ने नाशिक के कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश को लेकर बड़ा सत्याग्रह किया। इस सत्याग्रह का तरीका गांधीमार्ग जैसा ही था और मंदिर के सभी दरवाजों की घेराबंदी की गई। इसी दौरान गांधीजी ने अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया था। गांधीजी के अनुयायी घनश्याम दास बिड़ला ने डाक्टर आम्बेडकर से मिलकर उनसे अपना सत्याग्रह वापिस लेने की सलाह दी जिससे  सविनय अवज्ञा आन्दोलन मे सभी वर्ग व समाज की एकजुटता का प्रदर्शन हो सके व उसे बल मिले। लेकिन डाक्टर आम्बेडकर ने अपना सत्याग्रह वापस लेने से मना कर दिया। इसके फलस्वरूप नाशिक कांग्रेस ने भी डाक्टर आम्बेडकर का साथ नहीं दिया और  रुढ़िवादियों ने तो शुरू से ही इस सत्याग्रह का भारी विरोध किया फलस्वरूप उनका सत्याग्रह लंबा चला                    और  पांच वर्ष तक चले इस आन्दोलन को तब सफलता मिली जब  अछूतों को मंदिर में प्रवेश का क़ानून बना। यहाँ हमें गांधीजी  और डाक्टर आम्बेडकर के सत्याग्रह आन्दोलन के तरीकों में स्पष्ट अंतर नज़र आता है। गांधीजी जहाँ आन्दोलन के दौरान मध्यस्थता की गुंजाइश बनाए रखते थे और बातचीत का रास्ता खुला रखना चाहते थे वहीं दूसरी ओर आम्बेडकर कडा रुख रखते और मध्यस्थता तथा बातचीत से दो टूक इन्कार कर देते। डाक्टर आम्बेडकर ने उस वक्त गांधीजी के अनुयायी घनश्याम दास बिड़ला की बात न मानकर एक प्रकार से अंग्रेजों की ‘बाँटों और राज करो’ नीति को समर्थन ही दे दिया। एक ओर मुस्लिम समुदाय को अंग्रेज आज़ादी के आन्दोलन से दूर रखने के प्रयास कर रहे थे और महात्मा गांधी अंग्रेजों की इस कूटनीतिक चाल को ध्वस्त करने हेतु समझौतावादी रुख अख्तियार कर रहे थे। ऐसे में डाक्टर आम्बेडकर का सत्याग्रह कांग्रेस द्वारा संचालित सविनय अवज्ञा भंग आन्दोलन को और कमजोर कर रहा था। अंग्रेजों ने गांधीजी और डाक्टर आम्बेडकर के मतभेदों को हवा देने के लिए साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित कर दी और दलित वर्ग के लिए संयुक्त निर्वाचन के साथ सीटों के आरक्षण की बात कही। इसी दौरान अक्टूबर 1930 में डाक्टर आम्बेडकर ने प्रथम गोलमेज कांफ्रेंस मे भाग लेकर विधायिका और सरकारी नौकरियों में अछूत समुदाय के लिए आरक्षण के अलावा अपनी पुरानी मांग के विपरीत दलित वर्ग के लिए प्रथक निर्वाचन  की नई मांग रखी और इसके बाद उनका कद देश के राजनीतिक गलियारों में तेजी से बढ़ने लगा । ज्ञात हो कि कांग्रेस ने प्रथम गोलमेज कांफ्रेंस मे भाग न लेने का निर्णय किया था।

डाक्टर आम्बेडकर और गांधीजी की पहली मुलाक़ात 14 अगस्त 1931 को मुंबई में गांधीजी के निमंत्रण पर हुई। इस मुलाक़ात के ठीक एक महीने बाद द्वितीय गोलमेज कांफ्रेंस लन्दन में होने वाली थी और कांग्रेस ने इस कांफ्रेंस में गांधीजी को अपने प्रतिनिधि  के रूप में भेजने का निर्णय लिया था। गांधीजी ने डाक्टर आम्बेडकर से अनुरोध किया कि कांग्रेस के अनुसार छुआछूत एक सामाजिक और धार्मिक मसला है इसे राजनीति के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। डाक्टर आम्बेडकर इस बात से तो सहमत थे कि गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने छुआछूत मिटाने के लिए अभियान चलाया है पर उन्होंने इसे नाकाफी माना। गांधीजी का यह कथन कि ‘ अछूत वर्ग को हिन्दू समाज से अलग करने का सीधा अर्थ है – आत्महत्या करना। मैं राजनीति के स्तर पर अछूतों को हिन्दू समाज से पृथक करने के विरुद्ध हूँ’ भी आम्बेडकर का विश्वास और दिल  जीतने में सफल नहीं हो सका।  दलित वर्ग के लिए प्रथक निर्वाचन  की मांग पर भी दोनों में विस्तृत चर्चा तो हुई पर सहमति न बन सकी।

द्वितीय गोलमेज कांफ्रेस शुरू होने के पहले गांधीजी और कांग्रेस अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल को ध्वस्त करना चाहते थे। मुस्लिम लीग की पृथकतावादी मांगों की काट के रूप में गांधीजी यह दावा कर रहे थे कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों एवं दलितों की साथ सारे भारतीयों का  प्रतिनिधित्व करती है और इसीलिये उन्होंने मुसलमानों के लिए अंग्रेजों द्वारा तय पृथक निर्वाचन और विशेष संरक्षण को स्वीकार कर लिया था। दूसरी ओर अंग्रेज यह चाल चल रहे थे कि अछूतों को हिन्दू धर्म से पृथक कर दिया जाय जिससे कांग्रेस का जनाधार कम हो जाय। गांधीजी की आम्बेडकर से मुलाक़ात इसी भावना को लेकर थी। डाक्टर आम्बेडकर भी अंग्रेजों की कुटिल चाल को समझ रहे थे और वे दलित समुदाय को हिन्दुओं से अलग मानने से इन्कार कर रहे थे।

……….क्रमशः  – 3

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सामानांतर / संजय उवाच – वीडियो लिंक ☆ श्री संजय भारद्वाज

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

एक विनम्र निवेदन – आज के संजय दृष्टी  को आत्मसात करने के पूर्व आप सभी से एक विनम्र निवेदन।  कृपया आदरणीय श्री संजय भारद्वाज जी का संजय उवाच के अंतर्गत 12 अप्रैल 2020 का वीडियो लिंक अवश्य आत्मसात करें। )

☆  संजय उवाच # सत्संगी मित्रो!  ☆

रविवार 12.4.2020 का दिन इस माह के सत्संग और प्रबोधन के लिए नियत था। वर्तमान स्थितियों में प्रत्यक्ष सत्संग संभव नहीं था, अत: यूट्युब के माध्यम से सत्संग को अखंड रखने का प्रयास किया है। आशा है कि आप सब महानुभाव इससे जुड़ेंगे।

वीडियो लिंक >>>>>

संजय उवाच 12 अप्रैल 2020

विनम्र निवेदन है कि विषय प्रेरक लगे तो लाइक देने के साथ-साथ अन्य मित्रों के साथ साझा भी करें।

कृपया घर में रहें। स्वास्थ्य का ध्यान रखें। ईश्वर पर आस्था रखते हुए नियमित प्रार्थना करते रहें।

सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यंतु, माकश्चिदु:खभाग्भवेत्।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

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☆ संजय दृष्टि  – *समानांतर* ☆

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…???

पढ़ सके?

फिर पढ़ो!

नहीं…,

सुनो मित्र,

साथ न सही

मेरे समानांतर चलो,

फिर मेरा लिखो पढ़ो..!

 

कृपया घर पर रहें, सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(दोपहर 3:10 बजे, 15.6.2016)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #45 ☆ दान : दर्शन और प्रदर्शन (कोरोनावायरस और हम – 7) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 45 – दान : दर्शन और प्रदर्शन  ☆

(कोरोनावायरस और हम, भाग-7)

कोरोना वायरस से उपजे कोविड-19 से भारत प्रशासनिक स्तर पर अभूतपूर्व रूप से जूझ रहा है। प्रशासन के साथ-साथ आम आदमी भी अपने स्तर पर अपना योगदान देने का प्रयास कर रहा है। योगदान शब्द के अंतिम दो वर्णो पर विचार करें। ‘दान’अर्थात देने का भाव।

भारतीय संस्कृति में दान का संस्कार आरंभ से रहा है। महर्षि दधीचि, राजा शिवि जैसे दान देने की अनन्य परंपरा के असंख्य वाहक हुए हैं।

हिंदू शास्त्रों ने दान के तीन प्रकार बताये हैं, सात्विक, राजसी और तामसी। इन्हें क्रमशः श्रेष्ठ, मध्यम और अधम भी कहा जाता है। केवल दिखावे या प्रदर्शन मात्र के लिए किया गया दान तामसी होता है। विनिमय की इच्छा से अर्थात बदले में कुछ प्राप्त करने की तृष्णा से किया गया दान राजसी कहलाता है। नि:स्वार्थ भाव से किया गया दान सात्विक होता है। सात्विक में आदान-प्रदान नहीं होता, किसी भी वस्तु या भाव के बदले में कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं होती।

हमारे पूर्वज कहते थे कि दान देना हो तो इतना गुप्त रखो कि एक हाथ का दिया, दूसरे हाथ को भी मालूम ना चले। आज स्थितियाँ इससे ठीक विपरीत हैं। हम करते हैं तिल भर, दिखाना चाहते हैं ताड़ जैसा।

सनातन दर्शन ने कहा, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’, अर्थात स्वयं में अंतर्निहित ब्रह्म को देखो ताकि सूक्ष्म में विराजमान विराट के समक्ष स्थूल की नगण्यता का भान रहे। स्थूल ने स्वार्थ और अहंकार को साथ लिया और ‘मैं’ या ‘सेल्फ’ को सर्वोच्च घोषित करने की कुचेष्टा करने लगा। ‘सेल्फ’ तक सीमित रहने का स्वार्थ ‘सेल्फी कल्चर’ तक पहुँचा और मनुष्य पूरी तरह ‘सेल्फिश’ होता गया।

लॉकडाउन के समय में प्राय: पढ़ने, सुनने और देखने में आ रहा है कि किसी असहाय को भोजन का पैकेट देते समय भी सेल्फी लेने के अहंकार, प्रदर्शन और पाखंड से व्यक्ति मुक्त  नहीं हो पाता। दानवीरों (!) की ऐसी तस्वीरों से सोशल मीडिया पटा पड़ा है। इसी परिप्रेक्ष्य में एक कथन पढ़ने को मिला,..”अपनी गरीबी के चलते मैं तो आपसे खाने का पैकेट लेने को विवश हूँ  लेकिन आप किस कारण मेरे साथ फोटो खिंचवाने को विवश हैं?”

प्रदर्शन की इस मारक विवशता की तुलना रहीम के दर्शन की अनुकरणीय विवशता से कीजिए। अब्दुलरहीम,अकबर के नवरत्नों में से एक थे। वे परम दानी थे। कहा जाता है कि दान देते समय वे अपनी आँखें सदैव नीची रखते थे। इस कारण अनेक लोग दो या तीन या उससे अधिक बार भी दान ले जाते थे। किसी ने रहीम जी के संज्ञान में इस बात को रखा और आँखें नीचे रखने का कारण भी पूछा। रहीम जी ने उत्तर दिया, “देनहार कोउ और है , भेजत सो दिन रैन।लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन॥”

विनय से झुके नैनों की जगह अब प्रदर्शन और अहंकार से उठी आँखों ने ले ली है। ये आँखें  वितृष्णा उत्पन्न करती हैं। इनकी दृष्टि दान का वास्तविक अर्थ समझने की क्षमता ही नहीं रखतीं।

दान का अर्थ केवल वित्त का दान नहीं होता। जिसके पास जो हो, वह दे सकता है। दान ज्ञान का, दान सेवा का, दान संपदा का, दान रोटी का, दान धन का, दान परामर्श का, दान मार्गदर्शन का।

दान, मनुष्य जाति का दर्शन है, प्रदर्शन नहीं। मनुष्य को लौटना होगा दान के मूल भाव और सहयोग के स्वभाव पर। वापसी की इस यात्रा में उसे प्रकृति को अपना गुरु बनाना चाहिए।

प्रकृति अपना सब कुछ लुटा रही है, नि:स्वार्थ दान कर रही है। मनुष्य देह प्रकृति के पंचतत्वों से बनी है। यदि प्रकृति ने इन पंचतत्वों का दान नहीं किया होता तो तुम प्रकृति का घटक कैसे बनते?

और वैसे भी है क्या तुम्हारे पास देने जैसा? जो उससे मिला, उसको अर्पित। था भी उसका, है भी उसका। तुम दानदाता कैसे हुए? सत्य तो यह है कि तुम दान के निमित्त हो।

नीति कहती है, जब आपदा हो तो अपना सर्वस्व अर्पित करो। कलयुग में सर्वस्व नहीं, यथाशक्ति तो अर्पित करो। देने के अपने कर्तव्य की पूर्ति करो। कर्तव्य की पूर्ति करना ही धर्म है।

स्मरण रहे, संसार में तुम्हारा जन्म धर्मार्थ हुआ है।… और यह भी स्मरण रहे कि ‘धर्मो रक्षति रक्षित:।’

*’पीएम केअर्स’ में यथाशक्ति दान करें। कोविड-19 से संघर्ष में सहायक बनें।*

 

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 11.09 बजे, 11.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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