हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – भारतीय ज्योतिष  क्या है? ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  जनसामान्य  के  ज्ञानवर्धन के लिए भारतीय ज्योतिष विषय पर एक शोधपरक आलेख  भारतीय ज्योतिष  क्या है?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  भारतीय ज्योतिष  क्या है? ☆

भारतीय ज्योतिष शास्त्र विद्या को वेद का एक अंग माना गया है, इस विधा के द्वारा  मानव जीवन पर ग्रह-नक्षत्रों की छाया उच्च निम्न तथा वक्रीय दृष्टि के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है, जिसके द्वारा जातक के जीवन में भूत, भविष्य और वर्तमान का अध्ययन कर भविष्य वाणी की जाती है।

जब कोई जातक जन्म लेता है तो उस समय खगोलीय अनंत अंतरिक्ष के परिक्रमा पथ में भ्रमण कर रहे ग्रहों नक्षत्रों के स्वभाव तथा प्रभाव का अदृश्य किंतु स्थायी प्रभाव जातक के जीवन में अंकित हो जाता है, जो आजीवन काल क्रम के रूप में जातक को प्रभावित करता रहता है, इसका अध्ययन हमारे मनीषियों के शोध-पत्र के रूप में सामने आता है। इन प्रभावों के चलते ही मानव की आर्थिक स्थिति, स्वास्थ्य, बुद्धिमत्ता, दारिद्र, दुःख आदि का सटीक वर्णन संभव हो पाता है, जैसे गणना के आधार पर हमारा पंचांग, सूर्य के उदय अस्त तथा सूर्य ग्रहण चंद्रग्रहण की सालों पूर्व की सटीक जानकारी देता है। जिस प्रकार ज्ञान चक्षु से अंधेरे अथवा प्रकाश का ज्ञान हो पाता है, उसी प्रकार ज्योतिष विद्या भी गणितीय ज्ञानचक्षु है, जो मानव के भूत भविष्य वर्तमान का ज्ञान प्राप्त कर, भविष्य वाणी करने में सक्षम है, वैसे तो भारतीय ज्योतिष शास्त्र की महिमा अगम अपार है, लेकिन वर्तमान समय में हमारे देश में  जो मुख्य विधायें प्रचलित है, उसमें गणित ज्योतिष, तथा फलित ज्योतिष मूलस्तंभ के रूप में स्थापित हैं।

गणित ज्योतिष शास्त्र जहां सूक्ष्म गणितीय गणना पर आधारित है, इनके द्वारा ही किसी जातक की जन्म कुंडली का निर्माण किया जाता है। इसका मूल आधार भारतीय ज्योतिष गणना की सबसे छोटी इकाई निमिष, पल, विपल, प्रतिपल, पलापल  आदि से निर्धारित की जाती है।  जन्मकुंडली के निर्माण के मूल आधार के लिए हमें भारतीय पंचांग का सहारा लेना पड़ता है।

जिनमें पांच ज्योतिष काल खंड की गणनाएं है जिन्हें क्रम से तिथि, वार, नक्षत्र, तथा योग और करण के रूप में जाना जाता है। पंचांग ही यह तय करता है कि आज की  तिथि वार नक्षत्र योग में कौन सी राशि का अनंत अंतरिक्ष में संचरण काल है। अन्य ग्रहो की युति किस राशि में किस रूप में कितने समय के लिए है, वहीं स्थिति जन्मकुंडली का आधार पुष्टि करती भूत भविष्य वर्तमान की आधारशिला रखती है, परंतु इस विषय में इस समय विषय  के विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है।

हमारे मनीषियों ने भारतीय ज्योतिष पद्धति की कालखंड की गणना विधा का रूपांतरण पाश्चात्य कालखंड की गणना से किया है, इसीलिए निमिष पल विपल प्रतिपल को घंटों मिनटों में परिभाषित किया जा सका है। उनके अनुसार चौबीस मिनटों की एक घंटी, ढ़ाई घंटी का एक घंटा, तथा एक दिन, यानी चौबीस घंटे में साठ घटियां होती है।

फलित ज्योतिष क्या है? 

जब गणित ज्योतिष के आधार पर जातक के ग्रह, नक्षत्र, तिथि आदि का ठीक ठीक ज्ञान हो जाता है, तब उसे ही आधार मानकर जातकों के जीवन काल के परिणाम पर विचार किया जा सकता है, जो नवग्रहों के सर्वभाव तथा प्रभाव से पूरी तरह प्रभावित होते हैं। जैसे सूर्य की गर्मी तथा चंद्रमा की शीतलता लाखों करोड़ों मील दूर से मानव जीवन तथा मन को प्रभावित करती है, उसी प्रकार अन्य ग्रहों की युति परिस्थिति भी मानव जीवन को प्रभावित करती है। ऐसी ज्योतिष शास्त्रियों की मान्यता है, जो जटिल गणितीय संरचना पर आधारित है। एक कुशल गणितीय समझ वाला ही ज्योतिष विद्या का सही उपयोग कर सटीक भविष्यवाणी कर सकता है। जो पूर्वानुमान पर आधारित है, जिससे जीवन के भावों प्रभावों राशि फल, सफल, वर्षफल, के अलावा भावेश फल ग्रह युति मेलापक, मुहुर्त विचार आदि के द्वारा भविष्य वाणी संभव है।

भारतीय ज्योतिष का अंतरिक्ष तथा भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार मानव जीवन से संबंध तथा प्रभाव का अध्ययन

हमारे मनीषियों ने, अपनी भौगोलिक स्थितियों का स्थापन सीमा विस्तार अक्षांस , देशांतर तथा कर्क मकर जैसी रेखाओं के द्वारा रेखांकित कर क्षेत्रों का विभाजन किया हैं।  वहीं पर खगोलीय अनंत अंतरिक्ष को भी तीन सौ साठ अंश की वृत्तीय सीमा रेखा खींच कर अनंत को भी सीमा रेखा में बांध दिया है, जिसमें सौरमंडल, तारा मंडल आकाशगंगाओं, ग्रहों नक्षत्रों आदि का अध्ययन समाहित है, जिसका ज्योतिष शास्त्र से सीधा संबंध है।  हमारे ज्योतिषविद् सूर्योदय सूर्यास्त का सटीक मान  ऋतु परिवर्तन, तिथि परिवर्तन त्योहारों पर्वों का ज्ञान होता है, जो इस विधा की सटीकता का केंद्र ‌बिंदु है।

इसे कपोल-कल्पित अथवा गल्पविद्या कतई नहीं समझा जाना चाहिए। यह भारतीय शास्त्रों का एक अंग है।  पौराणिक, ज्योतिषीय, तथा बैज्ञानिक आधार पर भी सूर्य को अक्षय उर्जा स्रोत शक्ति तथा तेज का प्रतीक, तथा देवताओं में भी प्रमुख स्थान प्राप्त है।  पौराणिक कथाओं के अनुसार सूर्य का जन्म माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि माना जाता है, पौराणिक श्रुति के अनुसार इन्हें हनुमान जी के गुरु तथा शनि के पिता के रूप में माना जाता है, खगोलीय भौगोलिक गणना सिद्धांत के अनुसार भारतीय ज्योतिष शास्त्र के मूलभूत केन्द्र में सूर्य ही है। हमारी ज्योतिष विधा में जातकों के भूत भविष्य वर्तमान में चलने वाला घटना क्रम ग्रहों नक्षत्रों तथा राशियों के प्रभाव से प्रभावित माना जाता है। जो सूर्य चंद्रमा तथा पृथ्वी की गति पर आधारित है। जातक के जन्म समय में खगोल अंतरिक्ष में स्थित ग्रह नक्षत्रों की स्थिति पर निर्भर है, करोड़ों मील दूर स्थित सूर्य किस प्रकार पृथ्वी पर प्रकृति तथा जीव-जगत को प्रभावित करता है, वह साक्षात् दीखता है। हमारे ग्रहों का मुखिया भी सूर्य ही है सारे ग्रह नक्षत्र सूर्य के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। अनंत अंतरिक्ष में ना जाने कितने सौरमंडल है जिसका ज्ञान विधाता के अलावा किसी को भी नहीं है।

गहन अध्ययन के आधार पर ज्योतिष मान्यता के ये मुख्य बिंदु नजर आते हैं

1–पौरणिक मान्यताओं का आधार।

2–गणितिय सिद्धांतों का आधार।

3–खगोलिय ग्रहों नक्षत्रों की गति विधियों का आधार तथा प्रभाव।

4–भौगोलिक परिस्थितियों का आधार।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 

विशेष – प्रस्तुत आलेख  के तथ्यात्मक आधार ज्योतिष शास्त्र की पुस्तकों पंचागों के तथ्य आधारित है भाषा शैली शब्द प्रवाह तथा विचार लेखक के अपने है, तथ्यो तथा शब्दों की त्रुटि संभव है, लेखक किसी भी प्रकार का दावा प्रतिदावा स्वीकार नहीं करता। पाठक स्वविवेक से इस विषय के समर्थन अथवा विरोध के लिए स्वतंत्र हैं, जो उनकी अपनी मान्यताओं तथा समझ पर निर्भर है।

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 50 – मोह भंग ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “मोह भंग । )

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 49 ☆

☆ मोह भंग

 

बुद्ध के प्रारंभिक उपदेश, आगम सूत्रों में से एक में, इस कथन के पीछे एक बहुत ही रोचक कहानी है। यह कहानी कुछ इस तरह से है :

एक बार एक आदमी था जिसकी चार पत्नियाँ थीं। प्राचीन भारत की सामाजिक प्रणाली और परिस्थितियों के अनुसार, एक आदमी के लिए कई पत्नियाँ हो सकती थीं। इसके अतिरिक्त, लगभग एक हजार साल पहले जापान में हेनियन काल के दौरान, एक स्त्री के लिए कई पति होना भी असामान्य नहीं था। एक बार वह व्यक्ति बीमार हो गया और मरने वाला था। अपने जीवन के अंत में, वह बहुत अकेला अनुभव कर रहा था और इसलिए उसने अपनी पहली पत्नी को अपने साथ दूसरी दुनिया में जाने के लिए कहा। उसने कहा, ‘मेरी प्रिय पत्नी,’ मैंने आपको दिन और रात्रि प्रेम किया, मैंने पूरे जीवन में तुम्हारा ख्याल रखा। अब मैं मरने वाला हूँ, क्या आप मेरी मृत्यु के बाद मेरे साथ चलेंगी? ”

उसे अपनी पत्नी द्वारा हाँ कहने की उम्मीद थी। लेकिन उसने उत्तर दिया, “मेरे प्यारे पति, मुझे पता है कि आप हमेशा से मुझसे प्यार करते हो। और अब आप मरने जा रहे हैं। अब मेरा आपसे अलग होने का समय है। अलविदा मेरे प्रिय”

उसने अपनी दूसरी पत्नी को अपने अंतिम समय में अपने पास बुलाया और उसे मृत्यु में उसके पीछे आने के लिए आग्रह किया। उसने कहा, ‘मेरी प्यारी दूसरी पत्नी, आप जानती हो कि मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूँ कभी-कभी मुझे डर लगा कि तुम मुझे छोड़ सकती हो, लेकिन मैं दृढ़ता से आपके पास रहा। मेरे प्रिय, कृपया मेरे साथ आओ”

दूसरी पत्नी ने शाँत रूप से व्यक्त किया और कहा, “प्रिय पति, आपकी पहली पत्नी ने आपकी मृत्यु के बाद आपसे जुड़ने से इनकार कर दिया। मैं आपका अनुसरण कैसे कर सकती हूँ? अपने तो मुझे केवल अपने स्वार्थ की खातिर ही प्रेम किया है”

अपनी मृत्यु के समय झूठ बोलते हुए, उसने अपनी तीसरी पत्नी को बुलाया, और उससे पूछा कि क्या वह उसका अनुसरण करेगी? तीसरी पत्नी ने उसकी आँखों में आँसू के साथ उत्तर  दिया, “मेरे प्यारे, मुझे आपके ऊपर दया आ रही है और मैं आपके लिए उदास अनुभव कर रही हूँ। इसलिए मैं आपके साथ शमशान तक जाऊंगी। यह आपके लिए मेरा आखिरी कर्तव्य है” इस प्रकार तीसरी पत्नी ने भी अपने पति की मृत्यु के साथ जाने से इनकार कर दिया।

उसकी तीन पत्नियों के इनकार करने के बाद अब उसने याद किया कि उसकी एक और चौथी पत्नी भी है, जिसके लिए उसने कभी भी बहुत ज्यादा परवाह नहीं की थी। उसने हमेशा उसके साथ दासी की तरह व्यवहार किया था और हमेशा उससे बहुत नाराज रहता था। उसने अब सोचा कि अगर उसने उसे मृत्यु के लिए उसका पालन करने के लिए कहा, तो वह निश्चित रूप से मना ही कर देगी। लेकिन उस व्यक्ति का अकेलापन और भय इतने गंभीर थे कि उसने अपनी उस चौथी पत्नी को भी मृत्यु के बाद अन्य दुनिया में अपने साथ जाने के लिए कहा। चौथी पत्नी ने खुशी से अपने पति के अनुरोध को स्वीकार कर लिया।

उसने कहा, ‘मेरे प्रिय पति,’ मैं आपके साथ अवश्य जाऊंगी। जो कुछ भी होगा मैं हमेशा आपके साथ रहने के लिए दृढ़ संकल्पित हूँ। मैं आपसे अलग नहीं हो सकती हूँ। तो यह एक आदमी और उसकी चार पत्नियों की कहानी है।

ये पत्नियाँ क्या संकेत करती है?

गौतम बुद्ध ने इस कहानी का निम्नानुसार निष्कर्ष निकाला: प्रत्येक पुरुष और स्त्री  की चार पत्नियां या पति हैं। ये पत्नियाँ कौन है?

पहली ‘पत्नी’ हमारा शरीर है। हम दिन और रात्रि हमारे शरीर से प्यार करते हैं। सुबह में, हम अपने चेहरे को धोते हैं, अच्छे कपड़े और जूते पहनते हैं।

हम अपने शरीर को भोजन देते हैं। हम इस कहानी में पहली पत्नी की तरह हमारे शरीर का ख्याल रखते हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश, हमारे जीवन के अंत में, शरीर या हमारी पहली ‘पत्नी’ अगली दुनिया में हमारा अनुसरण नहीं करती है।

जैसा कि एक टिप्पणी में कहा गया है, ‘जब आखिरी साँस हमारे शरीर को छोड़ देती है तो हमारे चेहरे का रंग बदल जाता है और हम चमकदार जीवन की उपस्थिति खो देते हैं हमारे प्रियजन चारों ओर इकट्ठा हो जाते हैं और विलाप करते हैं, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं होता है। जब ऐसी कोई घटना होती है, तो शरीर को खुले मैदान में जला दिया जाता है और हमारा शरीर केवल श्वेत राख बनकर रह जाता है। यह ही हमारे शरीर का गंतव्य है।

दूसरी पत्नी का क्या अर्थ है? दूसरी ‘पत्नी’ हमारे भाग्य, हमारी भौतिक चीजें, धन, संपत्ति, प्रसिद्धि, स्थिति और नौकरी है जिसे हमने हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत की है। हम इन भौतिक संपत्तियों से जुड़े हुए हैं। हम इन भौतिक चीजों को खोने से डरते हैं और अधिक होने की इच्छा रखते हैं। हमारी इच्छाओं की कोई सीमा नहीं है। हमारे जीवन के अंत में ये चीजें हमारी मृत्यु के साथ हमारे साथ नहीं जा सकती हैं। जो भी हमने कमाया है, हमें उसे छोड़ना होगा। हम खाली हाथ इस दुनिया में आये थे। इस दुनिया में हमारे जीवन के दौरान, हमें भ्रम है कि हमने एक भाग्य प्राप्त किया है। मृत्यु पर, हमारे हाथ खाली होते हैं। हम अपनी मृत्यु के बाद अपना भाग्य नहीं पकड़ सकते, जैसे कि दूसरी पत्नी ने अपने पति से कहा: ‘तुमने मुझे अहंकार केंद्रित स्वार्थीता के साथ पकड़ रखा था। अब अलविदा कहने का समय है’

तीसरी पत्नी का क्या अर्थ है? हर किसी की तीसरी ‘पत्नी’ होती है। यह हमारे माता-पिता, बहन और भाई, सभी रिश्तेदारों, दोस्तों और समाज का रिश्ता है। वे शमशान तक उनकी आँखों में आँसू के साथ हमारे मृत शरीर के साथ चलते हैं वहाँ तक वे सहानुभूतिपूर्ण और दुखी रहते हैं।

इस प्रकार, हम अपने भौतिक शरीर, हमारे भाग्य और हमारे समाज पर निर्भर नहीं हो सकते हैं। हम अकेले पैदा हुए हैं और हम अकेले मर जाते हैं। हमारी मृत्यु के बाद कोई भी हमारे साथ नहीं होगा। बुद्ध ने चौथी पत्नी का उल्लेख किया है, जो मृत्यु के बाद अपने पति के साथ जाती है। इसका क्या अर्थ है? चौथी ‘पत्नी’ हमारा मस्तिष्क है। जब हम गहराई से निरीक्षण करते हैं और पहचानते हैं कि हमारे मस्तिष्क क्रोध, लालच और असंतोष से भरे हुए हैं, अगर हम अपने जीवन पर नज़र डाले तो देखेंगे की क्रोध, लालच, और असंतोष ही हमारे कर्मों को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। हम अपने कर्म से अलग नहीं हो सकते हैं। चौथी पत्नी ने अपने मरने वाले पति से कहा, ‘जहाँ भी तुम जाओगे मैं तुम्हारा पीछा करूंगी”

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 54 ☆ मोहे चिन्ता न होय ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख मोहे चिन्ता न होय।  दुखों को सहर्ष स्वीकारना एवं  उस पर विजय पाना ही जीवन की सार्थकता है। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 54 ☆

☆ मोहे चिन्ता न होय

 उम्र भर ग़ालिब, यही भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर थी, आईना साफ करता रहा’– ‘इंसान घर बदलता है,  लिबास बदलता है, रिश्ते बदलता है, दोस्त बदलता है– फिर भी परेशान रहता है, क्योंकि वह खुद को नहीं बदलता।’ यही है ज़िंदगी का सत्य व हमारे दु:खों का मूल कारण, जहां तक पहुंचने का इंसान प्रयास ही नहीं करता। वह सदैव इसी भ्रम में रहता है कि वह जो भी सोचता व करता है, केवल वही ठीक है और उसके अतिरिक्त सब गलत है और वे लोग भी दोषी हैं, अपराधी हैं, जो आत्मकेंद्रितता के कारण अपने से इतर कुछ देख ही नहीं पाते। वह चेहरे पर लगी धूल को तो साफ करना चाहता है, परंतु आईने पर दिखाई पड़ती धूल को साफ करने में व्यस्त रहता है… ग़ालिब का यह शेयर हमें हक़ीक़त से रूबरू कराता है। जब तक हम आत्मावलोकन कर, अपनी गलती को स्वीकार नहीं करते, हमारी भटकन पर विराम नहीं लगता। वास्तव में हम ऐसा करना ही नहीं चाहते। हमारा अहम् हम पर अंकुश लगाता है, जिसके कारण हमारी सोच पर ज़ंग लग जाता है। हम कूपमंडूक बनकर रह जाते हैं और अपने जीवन में अपनी इच्छाओं की पूर्ति तो करना चाहते हैं, परंतु उचित राह का ज्ञान न होने के कारण अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच पाते। हम चेहरे की धूल को आईना साफ करके मिटाना चाहते हैं। सो! हम आजीवन आशंकाओं से घिरे रहते हैं और उसी चक्रव्यूह में फंसे, चीखते-चिल्लाते रहते हैं, क्योंकि हममें आत्मविश्वास का अभाव होता है। सत्य ही है कि जिन्हें खुद पर भरोसा होता है, वे शांत रहते हैं तथा उनके हृदय में संदेह, शक़ व दुविधा का स्थान नहीं होता। वे अंतर्मन की शक्तियों को पहचान कर निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं, कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते। वास्तव में उनका व्यवहार युद्धक्षेत्र में तैनात सैनिक के समान होता है, जो सीने पर गोली खाकर शहीद होने में विश्वास रखता है और आधे रास्ते से लौट आने में भी उसकी आस्था नहीं होती।

परंतु संदेहग्रस्त इंसान सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है, सपनों के महल तोड़ता व बनाता रहता है। वह गलत दिशा में तीर चलाता रहता है। इसके निमित्त वह घर को वास्तु की दृष्टि से शुभ न मानकर, उस घर को बदलता है; नये-नये लोगों से संपर्क साधता है; रिश्तों व परिवारजनों को  नकार देता है,; मित्रों से दूरी बना लेता है… परंतु उसकी समस्याओं का अंत नहीं होता। वास्तव में हमारी समस्याओं का समाधान दूसरों के पास नहीं, हमारे ही पास होता है। दूसरा व्यक्ति आपकी परेशानियों को समझ तो सकता है; आपकी मन:स्थिति को अनुभव कर सकता है, परंतु उस द्वारा उचित व सही मार्गदर्शन करना कैसे करना व समस्याओं का समाधान करना कैसे संभव होगा?

रिश्ते, दोस्त, घर आदि बदलने से आपके व्यवहार व दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं आता; न ही लिबास बदलने से आपकी चाल-ढाल व व्यक्तित्व में परिवर्तन होता है। सो! आवश्यकता है, सोच बदलने की; नकारात्मकता को त्याग सकारात्मकता अपनाने की;  हक़ीक़त से रू-ब-रू होने की; सत्य को स्वीकारने की। जब तक हम इन्हें दिल से स्वीकार नहीं करते; हमारे कार्य-व्यवहार व जीवन-शैली में लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं आता।

‘कुछ हंसकर बोल दो/ कुछ हंस कर टाल दो/ परेशानियां बहुत हैं/  कुछ वक्त पर डाल दो’ में सुंदर व उपयोगी संदेश निहित है। जीवन में सुख-दु:ख आते-जाते रहते हैं। सो! निराशा का दामन थाम कर बैठने से उनका समाधान नहीं हो सकता। इस प्रकार वे समय के अनुसार विलुप्त तो हो सकते हैं, परंतु समाप्त नहीं हो सकते। इस संदर्भ में महात्मा बुद्ध के विचार बहुत सार्थक प्रतीत होते हैं। जीवन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि हम सब से हंस कर बात करें और अपनी परेशानियों को हंस कर टाल दें, क्योंकि समय निरंतर परिवर्तन- शील है। समय आने पर दिन-रात व ऋतु- परिवर्तन अवश्यंभावी है। कबीरदास जी के अनुसार ‘ऋतु आय फल होय’ अर्थात् समय आने पर ही फल की प्राप्ति होती है। लगातार भूमि में सौ घड़े जल उंडेलने का कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि समय से पहले व भाग्य से अधिक किसी को संसार में कुछ नहीं प्राप्त होता। इसी संदरभ में मुझे याद आ रही हैं स्वरचित मुक्तक संग्रह ‘अहसास चंद लम्हों का’ की पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं।’ इसी के साथ मैं कहना चाहूंगी, ‘ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात बदलते हैं।’ अर्थात् समय व स्थान परिवर्तन से मन:स्थिति व मनोभाव भी बदल जाते हैं; जीवन में नई उमंग-तरंग का पदार्पण हो जाता है और ज़िंदगी से उसी रफ़्तार से पुन: दौड़ने लगती है।

चेहरा मन का आईना है, दर्पण है। जब हमारा मन प्रसन्न होता है, तो ओस की बूंदे भी हमें मोतियों सम भासती हैं और मन रूपी अश्व तीव्र गति से भागने लगते हैं। वैसे भी चंचल मन तो पल भर में तीन लोगों की यात्रा कर लौट आता है। परंतु इससे विपरीत स्थिति में हमें प्रकृति आंसू बहाते प्रतीत होती है; समुद्र की लहरें चीत्कार करने लगती हैं और मंदिर की घंटियों के अनहद स्वर के स्थान पर चिंघाड़ें सुनाई पड़ती हैं। इतना ही नहीं, गुलाब की महक के स्थान पर कांटो का ख्याल मन में आता है और अंतर्मन में सदैव यही प्रश्न उठता है, ‘यह सब कुछ मेरे हिस्से में क्यों? क्या है मेरा कसूर और मैंने तो कभी बुरे कर्म किए ही नहीं।’ परंतु बावरा मन भूल जाता है  कि इंसान को पूर्व-जन्मों के कर्मों का फल भी भुगतना पड़ता है। आखिर कौन बच पाया है…कालचक्र की गति से? भगवान राम व कृष्ण को आजीवन आपदाओं का सामना करना पड़ा। कृष्ण का जन्म जेल में हुआ, पालन ब्रज में हुआ और वे बचपन से ही जीवन-भर मुसीबतों का सामना करते रहे। राम को देखिए, विवाह के पश्चात् चौदह वर्ष का वनवास; सीता-हरण; रावण को मारने के पश्चात् अयोध्या में राम का राजतिलक, धोबी के आक्षेप करने पर सीता का त्याग; विश्वामित्र के आश्रम में आश्रय ग्रहण,; अपने बेटों को अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ने पर सत्य से अवगत कराना; राम की सीता से मुलाकात; अग्नि-परीक्षा और अयोध्या में पुनरागमन। पुनः अग्नि परीक्षा हेतु अनुरोध करने पर सीता का धरती में समा जाना’ क्या उन्होंने कभी अपने भाग्य को कोसा? क्या वे आजीवन आंसू बहाते रहे? नहीं, वे तो आपदाओं को खुशी से गले से लगाते रहे। यदि आप भी खुशी से कठिनाइयों का सामना करते हो, तो ज़िंदगी कैसे गुज़र जाती है, पता ही नहीं चलता, अन्यथा हर पल जानलेवा हो जाता है।

इन विषम परिस्थितियों में दूसरों के दु:ख को सदैव महसूसना चाहिए, क्योंकि यह इंसान होने का प्रमाण है। अपने दर्द का अनुभव तो हर इंसान करता है और वह जीवित कहलाता है। आइए! समस्त ऊर्जा को दु:ख निवारण में लगाएं। खुद भी हंसें और संसार के प्राणी-मात्र के प्रति संवेदनशील बनें; आत्मावलोकन कर अपने दोषों को स्वीकारें। समस्याओं में उलझें नहीं, समाधान निकालें। अहम् का त्याग कर अपनी दुष्प्रवृत्तियों को सद्प्रवृत्तियों में परिवर्तित करने की चेष्टा करें। गलत लोगों की संगति से बचें। केवल दु:ख में ही सिमरन न करें, सुख में भी उस सृष्टि- नियंता को भूलें नहीं… यही है दु:खों से मुक्ति पाने का मार्ग, जहां मानव अनहद-नाद में अपनी सुधबुध खोकर, अलौकिक आनंद में अवगाहन कर राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है। इस स्थिति में वह प्राणी-मात्र में परमात्मा-सत्ता की झलक पाता है और बड़ी से बड़ी मुसीबत में परेशानियां उसका बाल भी बांका नहीं कर पातीं। अंत में कबीरदास जी की पंक्तियों को उद्धृत कर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी, ‘कबिरा चिंता क्या करे, चिंता से क्या होय/ मेरी चिंता हरि करे, मोहे चिंता ना होय।’ चिंता किसी रोग का निदान नहीं है। इसलिए चिंता करना व्यर्थ है। परमात्मा हमारे हित के बारे में हम से अधिक जानता है, तो हम चिंता क्यों करें? सो! हमें उस पर अटूट विश्वास करना चाहिए, क्योंकि वह हमारे हित में हमसे बेहतर निर्णय लेगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 7 ☆ पर्यावरण और हमारे दायित्व ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

`डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक समसामयिक एवं सकारात्मक आलेख  पर्यावरण और हमारे दायित्व।)

☆ किसलय की कलम से # 7 ☆

☆ पर्यावरण और हमारे दायित्व ☆

(जैव विविधता के हानि-लाभ)

पर्यावरण अर्थात वह आवरण अथवा घेरा जो हमारे चारों ओर विद्यमान हो, जिसके आँचल में रहकर हम जीवन जी रहे हैं। इसके असंतुलन से जीवजगत संकटग्रस्त होता जा रहा है। मानव जीवन का पर्यावरण से सबसे निकट का संबंध है। इसके विकास, संवर्धन व संरक्षण की महती आवश्यकता है। पर्यावरण के प्रति जनजागृति व इसके क्षरण को रोकने संबंधी प्रयासों को मूर्तरूप देना पर्यावरण दिवस का प्रमुख उद्देश्य है। आज का जीवन पृथ्वी पर लगभग चार अरब साल के जैव विविधता का परिणाम है। लगभग दस करोड़ साल पूर्व से जीवन की विकास यात्रा कुछ तेज हुई लेकिन अब मनुष्यों के कारण पर्यावरण का इतना अधिक क्षरण हो रहा है कि अगले सौ वर्ष के भीतर इस पृथ्वी ग्रह की प्रजातियाँ सबसे अधिक संख्या में विलुप्त हो जाएँगी।

पर्यावरण के अंतर्गत जल, वायु, भूमि एवं इनसे संबंधित चीजें, जीव-जंतु, सूक्ष्म जीव व पेड़-पौधे आते हैं। मनुष्य एवं पर्यावरण के बीच पारस्परिक संबंधों के अध्ययन से जीव परस्पर तथा पर्यावरण के साथ किस तरह व्यवहार करते हैं। वह सब कुछ ज्ञात करने हेतु जीव विज्ञान की पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) शाखा का सहारा लिया जाता है।

पर्यावरण में असंतुलन का सीधा प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है। इसमें प्रकृति तथा मानव दोनों ही उत्तरदायी होते हैं। मानव द्वारा धरा पर किए जा रहे सतत निर्माणों से वनस्पतियों पर प्रभाव पड़ रहा है, जिनसे लाभकारी वनस्पतियों की कमी हो रही है। वहीं हमने यह भी पाया है कि हम जिन वनस्पतियों को पूर्णरूपेण अनुपयोगी मानकर छोड़ देते हैं, वे वनस्पतियाँ या पौधे लगातार अपना फैलाव करते रहते हैं। यही बात जीव-जंतुओं के फैलाव अथवा कमी आने पर भी होती है। यह वृद्धि अथवा ह्रास मानव के हितकारी वह हानिकारक दोनों हो सकते हैं। मानव की अनेक गतिविधियों से विषाक्त औद्योगिक कचरा नदियों को प्रदूषित करता है। जंगलों के कटने से वन्य प्राणियों के रहने के स्थान कम हो रहे हैं। जल, हवा व अनेक खाद्य पदार्थों की कमी होने लगी है। हम सभी जानते हैं कि हमें प्रकृति से भोजन, औद्योगिक कच्चा माल, औषधियाँ, प्रकाश संश्लेषण द्वारा उत्पन्न ऑक्सीजन, जल संरक्षण, मृदा संरक्षण आदि का लाभ पूर्व से ही मिल रहा है। प्राकृतिक आवासों के नष्ट होने से पशु-पक्षी और जंगली जीवों का पलायन होता है अथवा वे मर जाते हैं। अनेक घातक जानवर आवासीय क्षेत्रों में जन-धन की हानि पहुँचाते हैं। गाजर घास की अधिकता फसलों को नुकसान पहुँचाती है। खरगोश, चूहे, टिड्डी, दीमक, मच्छर आदि की बेपनाह वृद्धि भी हमें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हानि पहुँचाती है।

बढ़ती जनसंख्या, ध्वनि प्रदूषण, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण आदि का भी वनस्पतियों और जीवों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। पशु-पक्षियों में रुचि रखने वाले लोग, जैव विविधता से प्रेरित गीत, संगीत, चित्रकारी, लेखन सांस्कृतिक दृश्य, बागवानी जैसे कार्य भी पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। पिछली शताब्दी से हो रहे जैव विविधता के दुष्परिणामों को देखते हुए हम कह सकते हैं कि मानव पर्यावरण क्षरण हेतु स्वयं उत्तरदायी है। राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बतलाई जा रहीं जानकारियाँ, लाभ-हानि व जागरूकता हेतु किए  जा रहे प्रयासों को अधिकांश लोग बिल्कुल भी अहमियत नहीं देते, न ही अपना उत्तरदायित्व समझते। हमें यह भी दिखाई दे रहा है कि हम उनसे उत्पन्न कठिनाईयों का सामना भी करने लगे हैं, परंतु अपेक्षानुरूप पर्यावरण संरक्षण के वे सारे कार्य अभी भी नजर नहीं आते जो वर्तमान में किये जाना चाहिए।

आज हमें आवश्यकता है वृक्षारोपण की। खास तौर पर शहरी क्षेत्रों में आवासीय मकानों के मध्य खाली स्थानों में वृक्षारोपण की। होना तो यह चाहिए कि दोनों आवासों के बीच कम से कम 10 से 20% स्थानों में वृक्षारोपण के शासकीय निर्देश हों। नदियों व जलाशयों में प्रदूषण फैलाना पूर्णतः वर्जित हो। औद्योगिक विषैले अपशिष्ट तथा जहरीले धुएँ से बचने के पुख्ता इंतजाम हों। प्रकृति की वनस्पतियों व जीवों में आदर्श संतुलन हेतु अंतरराष्ट्रीय प्रयासों का अनुकरण किया जाए। मानव को प्रकृति के निकट रहने के बहुआयामी स्रोत ढूँढे व बनाये जाएँ। बिना रासायनिक व कृत्रिमता वाले खाद्य पदार्थों को बढ़ावा दिया जाए।

यदि हम उपरोक्त कार्यों से स्वस्फूर्त भाव से आगे आएँगे तो निश्चित रूप से हम पारिस्थितिकी तथा पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकेंगे। यही आज इक्कीसवीं सदी की चुनौती है, जो बिना संकल्प के संभव नहीं है। इसीलिए आईये, आज से ही हम संकल्पित होकर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में प्रयास करना शुरू कर दें।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 35 – बापू के संस्मरण-9 लेकिन सिर्फ नाक ही क्यों… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – लेकिन सिर्फ नाक ही क्यों…”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 35 – बापू के संस्मरण – 9 – लेकिन सिर्फ नाक ही क्यों… ☆ 

एक बार गांधीजी बारडोली में ठहरे हुए थे।  किसी ने उनके साथियों को सूचना दी कि एक हट्टा-कट्टा पहाड़ जैसा काबुली मस्जिद में आकर ठहरा है। क्योंकि वह गांधीजी के बारे में पूछता रहता है, कही वह गांधीजी पर हमला न कर दे , इसलिए उनके साथियों ने मकान के आस-पास कंटीले तारों की जो आड़ लगी हुई थी।  दिन  उसका दरवाजा बंद करके ताला लगा दिया। उसी वह काबुली उस दरवाजे के पास देखा गया।  उसने अंदर आने का प्रयत्न भी किया।  लेकिन वहां पहरेदार थे, इसलिए सफल नहीं हो सका। दूसरे दिन कुछ मुसलमान भाइयों ने आकर बताया, “वह काबुली पागल मालूम होता है, कहता है कि मैं गांधीजी की नाक काटूंगा।

यह सुनकर सब लोग और भी घबराये, लेकिन गांधीजी से किसी ने कुछ नहीं कहा। वे उसी तरह अपना काम करते रहे। रात होने पर वह अपने स्वभाव के अनुसार खुले आकाश के नीचे सोने के लिए अपने बिस्तर पर पहुंचे। उन्होंने देखा कि उनको घेरकर चारों ओर कुछ लोग सोये हुए हैं। उन्हें आश्चर्य हुआ. पूछा, ” आप सब लोग तो बाहर नहीं सोते थे। आज यह क्या बात है?”

उन लोगों ने उस काबुली की कहानी कह सुनाई। सुनकर गांधीजी हंस पड़े और बोले, “आप मुझे बचाने वाले कौन हैं? भगवान ने मुझे यदि इसी तरह मारने का निश्चय किया है तो उसे कौन रोक सकेगा? जाइये आप लोग अपने रोज के स्थान पर जाइये।” गांधीजी के आदेश की उपेक्षा भला कौन कर सकता था! सब लोग चले गये, परंतु सोया कोई नहीं।

वह काबुली पहली रात की तरह आज भी आया, लेकिन अंदर नहीं आ सका। फिर सवेरा हुआ, प्रार्थना आदि कार्यों से निबटकर गांधीजी कातने बैठे। देखा, वह काबुली फिर वहां आकर खड़ा हो गया है। एक व्यक्ति ने गांधीजी से कहा, “बापू, देखिये, यह वही काबुली है ।”

गांधीजी बोले, “उसे रोको नहीं, मेरे पास आने दो।” वह गांधीजी के पास आया। उन्होंने पूछा, “भाई, तुम यहां क्यों खड़े थे?” काबुली ने उत्तर दिया, “आप अहिंसा का उपदेश देते हैं। मैं आपकी नाक काटकर यह देखना चाहता हूं कि उस समय आप कहां तक अहिंसक रह सकते हैं।”

गांधीजी हंस पड़े और बोले, “बस, यही देखना है, लेकिन सिर्फ नाक ही क्यों, अपना यह धड़ और यह सिर भी मैं तुम्हें सौंपे देता हूं। तुम जो भी प्रयोग करना चाहो, बिना झिझक के कर सकते हो।” वह काबुली गांधीजी के प्रेम भीने शब्द सुनकर चकित रह गया। उसने ऐसा निडर व्यक्ति कहां देखा था! एक क्षण वह खड़ा रहा। फिर बोला, “मुझे यकीन हो गया है कि आप सत्य और अहिंसा के पुजारी हैं. मुझे माफ कर दीजिये.”

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 34 ☆ लॉक डाउन ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  समसामयिक एवं प्रेरक आलेख  लाॅकडाऊन । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 34 ☆

☆ लाॅकडाऊन ☆

आज हम बड़ी विपत्ति में फंसे हुए हैं। हम क्या पूरा संसार दुनिया इटली, अमेरिका जो एक पावर फुल देश है फ्रांस, जर्मनी, युगांडा सब अपने-आप में एक सम्पूर्णता को बनाए रखे हुए हैं, पर एक  छोटे से वाइरस ने सबको जड़ से हिलाकर रख दिया है हम उससे हार गए हैं। डर कर लाॅकडाऊन हो  गए हैं। हाहाकार मचा हुआ है हर तरफ  अब हमारा बैंक बैलेंस सोना, चांदी, हीरे, बड़ी – बड़ी बिल्डिंग, रेस्टोरेंट, फाईव  स्टार होटल में खाना, एक से एक मंहगे कपड़े, जूते, चैन, फोरव्हीलर सब जहाँ का तहाँ रखा हुआ है हमारे किसी काम का नहीं है। हम एक जोड़ी कपड़ों में अपना समय निकाल रहे हैं। सारी चीजें अलमारी में पड़ी हुई हैं ।क्यों हुआ ऐसा कभी सोचा नहीं – कभी नहीं।

अब जब हमने सोचा ही नहीं तो प्रकृति को सोचना पड़ा है।

देखिए नदियाँ अपने आप साफ स्वच्छ हो चली हैं और झीलों का क्या कहना- सुंदर अठखेलियां कर रही हैं। सड़क – मार्ग, नालियाँ,  गांव,  शहर सभी अपना बेलेंस बना चुके हैं।समाज के सभी ठेकेदारों ने खूब कोशिश की स्वच्छता को बनाए रखने की पर नहीं हो सका प्रकृति ने रास्ता निकाल लिया । सब कुछ अपने आप हो रहा। पशु-पक्षी जो साँस लेने मैं भी अचकचा रहे थे सभी बेहतर उड़ान भरने  लगे हैं। गहरी साँस के साथ ऊँचे – ऊँचे उड़ने लगे हैं एक मानव ही है जो एक छोटे से वाईरस के कारण घर में दबा बैठा है। हम तो बहुत पीछे आते हैं।  बड़े बड़े शहर भी कुछ कर पाए नहीं यहाँ तो नाना पाटेकर का डायलॉग काम कर रहा है “एक मच्छर वाला ” न कर सका वह  वाइरस  ने क्र दिखाया। यह कह सकते हैं  कि हमारे कर्मो का ही फल है जो प्रकृति ने हमें दिया है।

अरे अब तक जो हुआ सो हुआ।  अब भी कुछ अच्छे कर्मों से सभी कुछ सुधारा जा सकता है।

धन नहीं, सम्पति नहीं, सभी का सामंजस्य  प्रकृति बना रही है। अच्छा बोलिए, मदद करिए, नियम से रहिए यह आदत जब अपने इस लाॅकडाऊन मे पड़ जाऐगी तो सच मानिए कि फिर कोई भी वायरस हमें छू ही नहीं सकेगा अपनी सुरक्षा हम स्वयं कर सकेंगे।

यदि इस लाॅकडाऊन मे निर्मल मन मदद करने की प्रवृत्ति और नियम को आजमा लिया तो मानकर चलिए हम भी उन बड़े देशों जैसे हो जाएँगे जो आज एक उच्च स्तरीय  के माने – जाने जाते हैं।

कोरोना का डर घर में ही नहीं बल्कि पूरे देश में गांव में भी है गाँव का आदमी बाहर से किसी को अपने गाँव में पहुंचने नहीं देता एकदम रास्ता रोक देता है।

आज प्रकृति मुस्कुरा रही है क्योंकि उसने  सामंजस्य स्थापित कर लिया है और यह मानकर चलिए जब हम लाॅकडाऊन से बाहर होंगे तो हमें भी नियम पालने मे चलने मे असुविधा न होगी

अच्छा सोचिए, अच्छा करिए तब देखिये आप क्या  से क्या  होंगे और हमारा भारत कहाँ से कहाँ पहुँच जाएगा।

हम एक बेहतर पड़ोसी, बेहतर बेटा, बेहतर पिता बनकर तैयार हो जायेगे। और आगे आने वाले सभी समस्याओं का सामना और समाधान निश्चित रूप से कर पाएंगे।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #53 ☆ मन्त्र ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – मंत्र ☆

‘सुबह हुई’ या ‘एक और सुबह हुई?’…’शाम हुई’ या ‘एक और शाम हुई?’…कितनी सुबहें आ चुकीं जीवन में…. कितनी शामें बीत चुकीं जीवन की ?…सुबह- शाम करते कितने जीवन रीत चुके?

रीतने की रीति से मुक्त होने का एक सरल उपाय कहता हूँ। ‘सुबह हुई, शाम हुई’ के स्थान पर  ‘एक और सुबह हुई, एक और शाम हुई’ कहना शुरू करो। ‘एक और’ का मंत्र भौतिक तत्व को परमसत्य की ओर मोड़ देगा।

प्रयोग करके देखो। यात्रा की दिशा और दशा बदल जाएगी।

© संजय भारद्वाज

(रात्रि 2.10 बजे, 4 जून 2019)

# परमसत्य की यात्रा मंगलमय हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – यही बाकी निशां होगा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है महान स्वतंत्रता सेनानी स्व मंगल पांडे एवं उनकी वर्तमान पीढ़ी की जानकारी देता एक देशभक्ति से ओतप्रोत  ओजस्वी आलेख  –yahi बाकी निशान होगा। भारत सरकार ने स्व मंगल पण्डे जी के सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  यही बाकी निशां होगा ☆

स्व जगदम्बा प्रसाद मिश्रा जी द्वारा 1916 में रचित कालजयी रचना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है – –

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का‌ यही बाकी निशां होगा ।।

इस कथन को सत्य साबित होते देखना वास्तव में हृदय को सुखद अनुभूति कराता है। घाघरा और गंगा की पावन गोद में बसे बलिया जिले के माटी की तासीर ही ऐसी है, जहां की मातायें सिंह शावकों को जन्म देती है जिनकी घनगर्जना से दुश्मनों की छाती फटती है। वतन की आन बान शान के लिए अपनी आत्माहुति देना यहां के रणबांकुरों का शौक तो है ही, यहां की मिट्टी के इतिहास में हमारी सांस्कृतिक सभ्यताओं के ध्वजवाहक ऋषि मुनियों की गौरवगाथा भी समाहित है।

यहीं की मिट्टी से जन्म लेता है, मंगल पाण्डेय नामक रणबांकुरा फौजी  जिसका जन्म  १९ जुलाई सन १८२७ में बलिया जिले के नगवां में हुआ था।  जिन्होंने अपने युवा काल में ३४वी बटालियन नेटिव इन्फैंट्री बैरकपुर बंगाल की पैदल सेना में सैनिक नं १४४६ के रूप में नौकरी की।  अंग्रेज गोरों के खिलाफ  स्वतंत्रता आंदोलन के बगावत  का इतिहास रचने का श्रेय इनके हिस्से जाता है।  जिन्होंने बगावत का इतिहास लिखते हुए अंग्रेज अफसरों पर धावा बोल दिया।  जिसके चलते सारे भारत में  स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी धधक कर जल उठी।

अंग्रेज सरकार घबरा गई औरउन्हें आनन फानन में ८अप्रैल १८५७ को फांसी दे दी गई , लेकिन वह जवान मरते मरते अपनी शहादत के  बल पर अपने पदचिन्हों के बाकी निशान छोड़ गया तथा अपने कर्मों से स्वतंत्रता आंदोलन का प्रथम अध्याय स्वर्ण अक्षरों में लिख गया।  उसी कुल में स्व० पदुमदेव पाण्डेय जी का जन्म  हुआ , जिन्हें अदम्य शौर्य साहस कर्मनिष्ठा  वंशानुगत विरासत में मिली थी।  अपने कुल की उसी अक्षुण्ण परंपराको कायम रखते हुए  उन्होंने  सन् १९६४ स्पोर्ट्स कोटे से फौज की नौकरी की  और सन् १९६५ में पाकिस्तान भारत के युद्ध में अद्म्य शौर्य  साहस तथा विपरित परिस्थितियों में  युद्ध लड़ कर  शत्रु का संहार ही नहीं किया, बारूद खत्म होने पर भी रण नहीं छोड़ा, बल्कि अदम्य साहस का परिचय देते हुए दुश्मन की निगाहें बचा अपने अनेक घायल साथियों को पीठ पर लाद उन्हेंअस्पताल तक ला उनकी प्राण रक्षा की।  जिसके बदले उन्हें भारत सरकार द्वारा  स्वर्ण पदक दे सम्मानित किया गया।

उसके ठीक  छह साल बाद सन् १९७१ में फिर एक बार शत्रुओं ने युद्ध थोपा ।  इस बार फिर उस वीर जवान  ने अपनी टुकड़ी के साथ अदम्य साहस का परिचय देते हुए रण में दुश्मन का मानमर्दन करते हुए  विजय श्री का वरण कर विजेता बन रण से लौटे। सन् १९७३ में उन्हें एक बार फिर ‌उत्कृष्ट  सेवा के बदले कांस्य पदक हेतु चुना गया,जो उनके समर्पण कर्तव्यपरायणता  का सम्मान है और अंत में अपना सेवा काल  सकुशल  पूरा कर  सन् १९८० में सेवा  निवृत्त हो गये । सकुशल जीवन यापन करते हुए २६ अगस्त सन् २०१७ को परलोक गमन करते हुए  अपने त्याग तपस्या  मानव सेवा की उत्कृष्ट मिसाल पेश कर अपने पदचिन्हों का निशान बाकी छोड़ गये जो सदियों सदियों तक लोगों की ज़ेहन में बसा रहेगा, अपनी लेखनी के माध्यम से हम मां भारती के उस लाल को भावभीनी विनम्र श्रद्धांजली अर्पित करते हैं।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 49 – अंतिम ज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “अंतिम ज्ञान। )

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 49 ☆

☆ अंतिम ज्ञान 

मनुष्यों में, उम्र का बढ़ना मानव शरीर में परिवर्तन का प्रतिनिधित्व होता है, जिसमें शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक परिवर्तन शामिल होता है । लेकिन अभी भी उम्र बढ़ने का कारण वैज्ञानिकों के लिए अज्ञात है । उम्र बढ़ने का सबसे करीबी सिद्धांत बाहरी रूप से DNA विभाजन या ऑक्सीकरण होता है, जो जैविक प्रणाली को विफल कर सकता है या आंतरिक प्रक्रिया जैसे DNA टेलीमीटर के छोटे होने का कारण बन सकता है । कुछ प्रजातियों को अमर माना जा सकता है, उदाहरण बैक्टीरिया जो पुत्री कोशिकाओं के उत्पादन करने के लिए जिम्मेदार है या जानवरों में जीनस हाइड्रा, जिनकी पुनर्जागरण क्षमता होती है जिससे वे बुढ़ापे से बचते हैं ।

संक्षेप में, बस इतना समझें ले कि सामान्य मानव कोशिका लगभग 50 कोशिका विभाजन के बाद मर जाती है । अगर किसी भी तरह से हम इसे अनंत बना सके या क्षतिग्रस्त कोशिका की मरम्मत करके इसे जैसी थी वैसी ही बना सके, तो व्यक्ति की उम्र रुक जाएगी ।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 53 ☆ अन्याय सहना : भीषण अपराध ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख अन्याय सहना : भीषण अपराध।  यह सत्य है कि अन्याय करने से, अन्याय सहने वाला अधिक दोषी होता है। किन्तु, अन्याय करने वाले के विरोध में कितने लोग खड़े हो पाते हैं, यह अलग प्रश्न है। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 53 ☆

☆ अन्याय सहना : भीषण अपराध

‘याद रखिए सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और ग़लत के साथ समझौता करना है।’ सुभाष चंद्र बोस की यह पंक्तियां हमें स्मरण कराती हैं, गीता में भगवान कृष्ण के मुख से नि:सृत वाणी का…’अन्याय करने से, अन्याय सहने वाला अधिक दोषी होता है’ –यह कथन ध्यातव्य है, अनुकरणीय है, जो मानव में ऊर्जा संचरित करता है; आत्मबल का अहसास दिलाता है; अंतर्मन में छिपी दैवीय शक्तियों के अवलोकन का संदेश देता है व स्वयं को पहचानने की प्रेरणा देता है। इतना ही नहीं, यह हमें अपने पूर्वजों का स्मरण कराता है तथा स्वर्णिम अतीत में झांकने का दम भरता है… हमें अपनी संस्कृति की ओर लौटने को प्रवृत्त करता है और विश्वास व अहसास दिलाता है कि ‘अपनी संस्कृति से विमुख होना, हमें पतन के गर्त में धकेल देता है।’

पाश्चात्य की ‘हैलो-हाय’ की मूल्यहीन संस्कृति हमें सुसंस्कारित नहीं कर रही, बल्कि पथ-भ्रष्ट कर रही है। हम मर्यादा की सभी सीमाओं का अतिक्रमण कर, स्वयं को आधुनिक समझ रहे हैं। यह हमें अपने देश की मिट्टी व अपनों से बहुत दूर ले जा रही है … जिसके परिणाम-स्वरूप हम अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं और निपट स्वार्थी बन रहे हैं। हम केवल अपने व अपने परिवार के दायरे में सिमट कर रह गये हैं। दूसरे शब्दों में हम आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं, जो सामाजिक विषमता के रूप में हमारे समक्ष हैं।

आत्मकेंद्रितता का भयावह परिणाम, सामाजिक विश्रृंखलता के रूप में हमारे हृदय में वैमनस्य का भाव उत्पन्न करता है। अहं द्वन्द्व का जनक है व संघर्ष का प्रतिरूप है। वह मानव का सबसे बड़ा शत्रु है; जिसके भंवर में फंसा मानव चाह कर भी मुक्त नहीं हो सकता। जैसे सुनामी की लहरों में डूबती- उतराती नौका में बैठे नाविक व अन्य यात्रियों की मन:स्थिति होती है, वे स्वयं को नियति के समक्ष असहाय, विवश व बेबस अनुभव कर, सृष्टि-नियंता से भीषण आपदा से रक्षा करने की ग़ुहार लगाते हैं; अनुनय-विनय करते हैं… उस विषम परिस्थिति में उनका अहं विगलित हो जाता है। परंतु इस मन: स्थिति में हर इंसान स्वयं को दयनीय दशा में पाता है और भविष्य में शुभ कर्म व सत्कर्म करने की ग़ुहार लगाता है। परंतु भंवर से उबरने के पश्चात् चंद लोग तो प्रायश्चित-स्वरूप जीवन को सृष्टि-नियंता की बख्शीश समझ, स्वयं तो शुभ कर्मों की ओर प्रवृत्त होते हैं; दूसरों को भी शुभ कर्म कर अच्छा व सज्जन बनने की प्रेरणा देते हैं। ऐसा व्यक्ति सत्य की अडिग राह पर चलने लगता है और अन्याय करने या गलत पक्ष के लोगों के साथ समझौता न करने का अटल निश्चय करता है। सो! उसका जीवन के प्रति सोच व दृष्टिकोण ही बदल जाता है। वह प्रकृति के कण- कण व प्राणी-मात्र में परमात्म-सत्ता का अनुभव करता है…सबसे प्रेम-व्यवहार करता है… करुणा की वर्षा करता है तथा समाज द्वारा बहिष्कृत दुर्बल, असहाय लोगों की सहायता कर सुक़ून पाता है। फलत: वह गलत के साथ कभी भी समझौता नहीं करता। यह सर्वविदित है कि यदि एक बार कदम गलत राह की ओर बढ़ जाते हैं, तो वह उस दल-दल मेंं धंसता चला जाता है… बुराइयों के जंजाल से कभी मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता, क्योंकि अंधी गलियों से लौट पाना कठिन ही नहीं, असंभव होता है।

आत्मकेंद्रित व्यक्ति के हृदय में उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ व अच्छे-बुरे का भेद नहीं रहता। वह उसी कार्य को अंजाम देता है, जिसमें केवल उसका हित होता है और वह जीवन का सबसे भयावह दौर होता है। ऐसा व्यक्ति मज़लूमों पर ज़ुल्म ढाता है; उनकी भावनाओं को रौंद कर; उनके जज़्बातों की परवाह न करते हुए सुख-शांति व आनन्द की प्राप्त करता है। उनके आंसू व चीत्कार भी उसके हृदय को द्रवित नहीं कर पाते। वह इंसान से जल्लाद बन जाता है और मासूमों पर ज़ुल्म ढाना उसका पेशा।

आइए! हम दृष्टिपात करते हैं, प्रति-पक्ष की मन: स्थिति पर, जो उसे नियति स्वीकार लेते हैं। उनके हृदय में यह भावना घर कर जाती है कि उन्हें अपने पूर्व-जन्म के कृत-कर्मों का फल मिल रहा है और भाग्य के लेखे-जोखे को कोई नहीं बदल सकता। काश! वे पहचान पाते…अंतर्निहित अलौकिक शक्तियों को… तो वे भी ज़ुल्म ढाने वाले का प्रतिरोध कर पाते और अन्याय सहने के पाप से बच पाते। इंसान की सहनशक्ति ही प्रति-पक्ष को और अधिक ज़ुल्म करने को प्रेरित करती है; न्यौता देती है। यदि वह साहस जुटा कर उस परिस्थिति का सामना करता है, तो विरोधियों के हौसले पस्त हो जाते हैं और वह उन्हें समान दृष्टि से देखने लगता है।

गलत व्यक्ति की अहमियत स्वीकार, स्वार्थ-वश उसके साथ समझौता करना अपराध है, पाप है, हेय है, त्याज्य है, निंदनीय है; जो आपको कभी भी सुक़ून नहीं प्रदान कर सकता। हितोपदेश व गीता का सारगर्भित संदेश इस तथ्य को उजागर करता है कि ‘न तो कोई किसी का मित्र है, न ही शत्रु, बल्कि व्यवहार से ही मित्र व शत्रु बनते हैं अर्थात् परमात्मा ने सबको समान रूप प्रदान किया है, परंतु व्यक्ति का व्यवहार ही मित्र व शत्रु का रूप प्रदान करते हैं। व्यवहार हमारी सोच व स्वार्थ-वृत्ति पर आश्रित होता है। स्वार्थ-परता शत्रुता के भाव की जननी है; जो जीवन में नकारात्मकता को जाग्रत करती है।’ परंतु सकारात्मक सोच मानव में मैत्री भाव को संचरित करती है, जिसमें प्राणी-मात्र के हित की भावना निहित रहती है। ऐसे लोगों के केवल मित्र होते हैं, शत्रु नहीं; वे सर्वहिताय की भावना से ओत-प्रोत रहते हैं…सबके मंगल की कामना करते हैं। इसलिए नकारात्मक सोच के व्यक्ति की संगति करना कारग़र नहीं है। सो! वह आपको सदैव गलत दिशा की ओर प्रवृत्त करेगा, क्योंकि जो उसके पास होगा, उसकी धरोहर होगी और उसी संपदा को वह दूसरों को देगा।

मुझे स्मरण हो रही हैं, योगवशिष्ट की पंक्तियां, ‘जिस वस्तु का, जिस भाव से चिंतन किया जाता है, वह उसी प्रकार से अनुभव में आने लगती है’– उक्त भाव को पोषित करती हैं। हमारी सोच ही हमारे व्यक्तित्व की निर्धारक है, निर्माता है। इसका सशक्त उदाहरण है ‘रेकी’…यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम दूर बैठे अपनी भावनाएं, दूसरे व्यक्ति तक प्रेषित कर सकते हैं। यदि भावनाएं शुभ हैं, तो वहां के वातावरण में शांति, उल्लास व आनंद वर्षा होने लगेगी। यदि वहां ईर्ष्या, द्वेष व प्रतिशोध का भाव होगा; तो दु:ख, पीड़ा व क्लेश के भाव उन तक पहुंचेंगे। इस प्रकार हम अनुभव कर सकते हैं कि मानव की सोच ही उसके व्यवहार की जन्मदाता है, निर्माता है, पोषक है। इस संसार में जो भी आप दूसरे को देते हैं; वही लौटकर आपके पास आता है। तो क्यों ना अच्छा ही अच्छा किया जाए, ताकि सब का मंगल हो। सो! हम स्वयं अपने भाग्य-निर्माता हैं  तथा हमें अपने कर्मों का फल जन्म-जन्मांतर तक भुगतना पड़ता है।

सो! हमें अन्याय का सामना करते हुए अपने दायित्व का वहन करना चाहिए और ग़लत के साथ समझौता कदापि नहीं करना चाहिए तथा अपनी आंतरिक शक्तियों को संचित कर, पूर्ण साहस व उत्साह से उन विषम परिस्थितियों का सामना करना चाहिए। जो व्यक्ति इन दैवीय गुणों को जीवन में संचित कर लेता है; आत्मसात् कर लेता है; पथ की बाधाओं व आपदाओं को रौंदता हुआ निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है और आकाश की बुलंदियों को भी छू सकता है। इसलिए मानव को अच्छे भावों-विचारों को धरोहर रूप में संजोकर रखना चाहिए तथा उसे आगामी पीढ़ी को सौंपने के पश्चात् ही अपने कर्त्तव्यों व दायित्वों की इतिश्री समझनी चाहिए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares