हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 5. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

☆ संजय दृष्टि  –  5.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

 

एक आख्यान के अनुसार व्यास जी जब संन्यास के लिए वन जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे, उस समय जल में स्नान करने वाली स्त्रियों ने नग्न शुकदेव को देखकर वस्त्र धारण नही किया, परन्तु वस्त्र पहने हुए व्यासजी को देखकर लज्जा से कपड़े पहन लिए। व्यास जी ने आश्चर्य करते हुए जब पूछा तो उन स्त्रियों ने जवाब दिया कि आपकी दृष्टि में तो अभी स्त्री पुरुष का भेद बना हुआ है, पर आपके पुत्र की दृष्टि में यह भेद नही है। आपमें वासना शेष है, आपके पुत्र में उपासना अशेष है।
वासना द्वैत का प्रतीक है, उपासना अद्वैत जगाती है। लोक जैसा होने के लिए मनसा वाचा कर्मणा निर्वसन होना होगा। लोक में कुछ भी कृत्रिम नहीं है।

लोक सहजता से जीवन जीता है। लोकसंस्कृति में श्लील-अश्लील की रेखा विभाजक और विघातक रूप में नहीं है। यहाँ किसी कथित अश्लील चुटकुले पर एक स्त्री भी उतने ही खिलखिलाकर हँस लेती है जितना एक पुरुष। लोक स्त्री विमर्श के ढोल नहीं बजाता पर युवतियों को स्वयंवर का अवसर देता है, अपना साथी चुनने के लिए युवक-युवतियों के लिए ‘घोटुल’ बनाता है। 1600 ईस्वी में गोस्वामी जी के दोहे ‘ ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारि, सकल ताड़ना के अधिकारी’ में ‘ध्यान देने योग्य’ के बजाय ‘ताड़ना’ का अर्थ प्रताड़ना बताने वाले भूल गये कि द्वापरनरेश श्रीकृष्ण ने अपनी बहन सुभद्रा को अर्जुन के साथ भाग जाने की सलाह दी थी। पनघट पर महिलाओं का साथ जाना प्रचलन में रहा। सुरक्षा के साथ-साथ, साथ बतियाने, संवाद करने,  मन की गाँठें खोलने वाला घाट याने पनघट। पनघट याने स्त्रियों के भीतर जमे को तरल कर प्रवाहित होने, उन्हें हल्का करने का स्पेस। आज आधुनिकता में भी अपने ‘स्पेस’ के लिए संघर्ष करती स्त्री को लोक ‘गारियों’ के माध्यम से हर किसी पर टिप्पणी कर विरेचन का अवसर प्रदान करता है।

लोक के उदात्त भाव को विदेशी लेखकों ने भी रेखांकित किया। कुछ कथन द्रष्टव्य हैं-

“भारत मानव जाति का पालना है, मानवीय वाणी का जन्म स्थान है, इतिहास की जननी है और विभूतियों की दादी है और इन सब के ऊपर परम्पराओं की परदादी है। मानव इतिहास में हमारी सबसे कीमती और सबसे अधिक अनुदेशात्मक सामग्री का भण्डार केवल भारत में है!’

– मार्क ट्वेन (लेखक, अमेरिका)

‘यदि पृथ्वी के मुख पर कोई ऐसा स्थान है जहां जीवित मानव जाति के सभी सपनों को बेहद शुरुआती समय से आश्रय मिलता है, और जहां मनुष्य ने अपने अस्तित्व का सपना देखा, वह भारत है।!‘

– रोम्या रोलां (फ्रांसीसी विद्वान) 

‘हम सभी भारतीयों का अभिवादन करते हैं, जिन्होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना विज्ञान की कोई भी खोज संभव नहीं थी।!‘

– एल्बर्ट आइनस्टाइन (सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी, जर्मनी) 

‘यदि हम से पूछा जाता कि आकाश तले कौन सा मानव मन सबसे अधिक विकसित है, इसके कुछ मनचाहे उपहार क्या हैं, जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर सबसे अधिक गहराई से किसने विचार किया है और इसकी समाधान पाए हैं तो मैं कहूंगा इसका उत्तर है भारत।‘

– मेक्स मुलर (जर्मन विद्वान)

‘भारत ने शताब्दियों से एक लम्बे आरोहण के दौरान मानव जाति के एक चौथाई भाग पर अमिट छाप छोड़ी है। भारत के पास उसका स्थान मानवीयता की भावना को सांकेतिक रूप से दर्शाने और महान राष्ट्रों के बीच अपना स्थान बनाने का दावा करने का अधिकार है। पर्शिया से चीनी समुद्र तक साइबेरिया के बर्फीलें क्षेत्रों से जावा और बोरनियो के द्वीप समूहों तक भारत में अपनी मान्यता, अपनी कहानियां और अपनी सभ्यता का प्रचार प्रसार किया है।‘

– सिल्विया लेवी (फ्रांसीसी विद्वान) 

‘भारत ने चीन की सीमापार अपना एक भी सैनिक न भेजते हुए बीस शताब्दियों के लिए चीन को सांस्कृतिक रूप से जीता और उस पर अपना प्रभुत्व बनाया है।‘

– हु शिह (अमेरिका में चीन के पूर्व राजदूत)

दुनिया के कुछ हिस्से ऐसे हैं जहां एक बार जाने के बाद वे आपके मन में बस जाते हैं और उनकी याद कभी नहीं मिटती। मेरे लिए भारत एक ऐसा ही स्थान है। जब मैंने यहां पहली बार कदम रखा तो मैं यहां की भूमि की समृद्धि, यहां की चटक हरियाली और भव्य वास्तुकला से, यहां के रंगों, खुशबुओं, स्वादों और ध्वनियों की शुद्ध, संघन तीव्रता से अपने अनुभूतियों को भर लेने की क्षमता से अभिभूत हो गई। यह अनुभव कुछ ऐसा ही था जब मैंने दुनिया को उसके स्याह और सफेद रंग में देखा, जब मैंने भारत के जनजीवन को देखा और पाया कि यहां सभी कुछ चमकदार बहुरंगी है।

– किथ बेलोज़ (मुख्य संपादक, नेशनल जियोग्राफिक सोसाइटी)

‘ मैं भारत के अनेक राज्यों में घूमा. वहाँ मैंने एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं देखा जो भिखारी हो, चोर हो. ऐसी विलक्षण सम्पदा देखी है मैंने इस देश में, ऐसे उच्चतम मौलिक विचार, इतने काबिल/गुणी व्यक्ति देखे हैं कि मुझे नहीं लगता कि हम कभी इस देश को गुलाम बना पाएँगे, जब तक कि हम इस देश की अध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत को नष्ट ना कर दें, जो इस देश की वास्तव में रीढ़ है।

और इसलिए मेरा प्रस्ताव है कि इस देश की वर्षों पुरानी ‘शिक्षा प्रणाली‘ और यहाँ की ‘संस्कृति‘ को बदल दिया जाए, क्यूंकि जब भारतीय ये सोचेंगे कि जो कुछ भी विदेशी है और ब्रिटेन का है, वह अच्छा और बेहतर है उनके स्वयं से, तब ये भारतीय अपना अपनी पौराणिक संस्कृति और स्वाभिमान को खो बैठेंगे और तब ये लोग वो बन जाएंगे जो हम उन्हें बनाना चाहते हैं, एक वास्तविक गुलाम भारत !‘

 – भारत का दौरा करने के बाद 1835 में ब्रिटिश संसद में दिए गये अँग्रेज मैकाले के भाषण के अंश। ( ये दस्तावेज संग्रहित हैं ) 

भारत में बीस लाख देवी-देवता हैं और वे सभी की पूजा करते हैं। धर्म के मामले में बाकी सभी देश कंगाल हैं, भारत ही करोड़पति है।

 – मार्क ट्वेन

कोई भी अध्याय जिसका आरम्भ पश्चिमी है, यदि उसे मानव जाति के विनाश में समाप्त नहीं होना है तो उसका अंत भारतीय होना ही चाहिए। इतिहास के इस बेहद खतरनाक क्षण में मानव जाति की मुक्ति का एकमात्र तरीका भरतीय तरीक है।

– डॉ. अर्नॉल्ड टोयनबी

इसी संदर्भ में महान दार्शनिक स्वामी विवेकानंद का यह कथन भी भी ज्योतिपुँज-सा है-

भारत में हजारों वर्षों से शांति पूर्वक अपना अस्तित्व बनाए रखा। यहां जीवन तब भी था जब ग्रीस अस्तित्व में नहीं आया था . . . इससे भी पहले जब इतिहास का कोई अभिलेख नहीं मिलता, और परम्पराओं ने उस अंधियारे भूतकाल में जाने की हिम्मत नहीं की। तब से लेकर अब तक विचारों के बाद नए विचार यहां से उभर कर आते रहे और प्रत्येक बोले गए शब्द के साथ आशीर्वाद और इसके पूर्व शांति का संदेश जुड़ा रहा। हम दुनिया के किसी भी राष्ट्र पर विजेता नहीं रहे हैं और यह आशीर्वाद हमारे सिर पर है और इसलिए हम जीवित हैं. . .!‘

क्रमशः…….6

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 4. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

☆ संजय दृष्टि  –  4.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

 

सहभागिता और साहचर्य का आरंभ बच्चे के जन्म से ही होता है। संतान को लेकर प्रसूता सबसे पहले कुआँ पूजन के लिए घर से निकलती है। पहला पूजा जलदेवता के स्रोत की। शरीर का पचहत्तर प्रतिशत जल से ही बना है। वह अपने दूध की धार कुएँ में छोड़ती है। प्रकृति से प्रार्थना करती है कि जैसे मेरा दूध पीकर मेरा बेटा/ बेटी स्वस्थ रहें, उसी भाव से मैं अपना दूध कुएँ के जल में डालती हूँ जिससे मेरा गाँव स्वस्थ रहे।

जन्म से आरंभ ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ का यह भाव, आजन्म चलता है। सधवा स्त्रियों द्वारा किया जानेवाला करवा चौथ का व्रत अकेली स्त्रियों द्वारा भी बड़ी संख्या में घर-परिवार- समाज  के लिए भी किया जाता है। यह व्रत करनेवाली ऐसी ही एक निराधार वृद्धा से एक सर्वेक्षक ने जब कारण जानना चाहा तो उसने कहा कि गाँवराम मेरा पालन-पोषण करता है, सो उसके लिए करती हूँ। मैं न रहूँ तब भी मेरा गाँवराम खुश रहे। अद्भुत दर्शन है ये।

इस घटना में गाँवराम को किसी व्यक्ति का नाम समझने वालों को पता हो कि गाँव से अर्थात पूरे समाज में ईश्वरीय तत्व देखने-जोड़ने की भावना के चलते गाँव को गाँवराम कहा गया। इसी श्रद्धाभाव के चलते बच्चे का नाम भी भी ‘राम’ नहीं अपितु ‘सियाराम’, ‘श्रीराम’, ‘रामजी’ रखा जाता है। ईश्वर के पर्यायवाची या देवी-देवताओं के नाम पर बच्चों का नामकरण लोक में पहली पसंद रहा।

इसी अनुक्रम में व्रत-त्योहारों की कहानियाँ लोकजीवन की अभिन्न कड़ी हैं। हर व्रत त्यौहार की कथा के अंत में एक वाक्य कहा जाता है, ‘ जैसे उसका अच्छा हुआ, सबका अच्छा हो।’ इस भाव का मूल है, ’ सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद्दुखभाग्भवेत।’ लोक उदात्तता पर चर्चा नहीं करता अपितु उदात्तता को जीता है।

भारत की लोकसंस्कृति की आँख में अद्वैत है। इसके रोम-रोम में समत्व बसता है। समय साक्षी है कि अनेक संस्कृतियाँ आक्रमणकारियों के रूप में यहाँ आईं और यहीं की होकर रह गईं। बुद्ध का धम्म, महावीर स्वामी का अस्तेय, गुरु नानक का ‘एक ओंकार’ हों या पारसी, यहूदी, ईसाईयत या इस्लाम या चारवाक का नास्तिकता का सिद्धांत, सब यहीं पनपे या पले-बढ़े या आत्मसात हुए। अथर्ववेद के ‘ माता भूमि पुत्रोअहम् पृथिव्या’ के साथ लोक का एकाकार है।

भारतीय लोक की इस गज़ब की एकात्मता को समझने के लिए सुदूर के कुछ गाँवों में चले जाइए। एक ही कच्चे मकान में अलग-अलग चूल्हा करते दो भाइयों का परिवार रहता है। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि इनमें से एक परिवार हिंदू है और दूसरा मुसलमान। एक के पास रामायण-पुराण हैं, दूसरे के पास कुरान है। विविधता में एकात्मता देखने वाले सनातान भारतीय दर्शन का उद्घोष है-‘आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्/ सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रतिगच्छति।’ अर्थात जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदियों के माध्यम से अंतिमत: सागर में जा मिलता है, उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को मिलता है। इसी अर्थ में यह भी कहा गया है, ‘एक वर्णं यथा दुग्धं भिन्नवर्णासु धनुषु/ तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मृतम्।’ अर्थात जिस प्रकार विविध रंग की गायें एक ही- सफेद रंग का दूध देती हैं, उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एक ही तत्व की सीख देते हैं।’ एक ही मकान में रहते दो भिन्न धर्मावलंबी भाइयों का यह रूप ही भारतीय लोकसंस्कृति है। देश को धर्म की विभाजन की विभाजन रेखाओं में बाँटकर देखने वाले, असहिष्णुता का नारा बोने में असफल रहने पर उसे थोपने की कोशिश करने वाले इन कच्चे मकानों तक पहुँचने की राह अपनी सुविधा से भूल जाते हैं।

वस्तुत: इस्लाम के अनुयायी आक्रमणकारियों के देश में पैर जमाने के बाद भय, प्राणरक्षा और सत्तालिप्सा के चलते धर्म परिवर्तन बड़ी संख्या में हुआ। स्वाभाविक था कि इस्लाम के धार्मिक प्रतीक जैसे धर्मस्थान, दरगाह और मकबरे बने। आज भारत में स्थित दरगाहों पर आने वालों का डेटा तैयार कीजिए। यहाँ श्रद्धाभाव से माथा टेकने आने वालों में अधिक संख्या हिंदुओं की मिलेगी। जिन भागों में मुस्लिम बहुलता है, स्थानीय लोक-परंपरा के चलते वहाँ के इतर धर्मावलंबी, विशेषकर हिंदू बड़ी संख्या में रोज़े रखते हैं, ताज़िये सिलाते हैं। भारत के गाँव-गाँव में ताज़ियों के नीचे से निकलने और उन्हें सिलाने में मुस्लिमेतर समाज कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहता है। लोक से प्राणवान रहती इसी संस्कृति की छटा है कि अयोध्या हो या कोई हिंदुओं का कोई अन्य प्रसिद्ध मंदिर, वहाँ पूजन सामग्री बेचने वालों में बड़ी संख्या में मुस्लिम मिलेंगे। हर घट में राम देखने वाली संस्कृति श्रावण मास में कई मुस्लिमों से शिव जी का जलाभिषेक कराती है। अमरनाथ जी की पवित्र गुफा में दो पुजारियों में से एक हिंदू और दूसरा मुस्लिम रखवाती है। गैर हिंदू घरों की अनेक महिलाएँ पारिवारिक समस्याओं के निदान के लिए हिंदू तीज त्यौहार प्रत्यक्ष या छिपे तरीके से मनाती हैं और मंत्र, श्लोक, सूक्त का पाठ करती हैं। भारत में दीपावली कमोबेश हर धर्मावलंबी मनाता है। यहाँ खचाखच भरी बस में भी नये यात्री के लिए जगह निकल ही आती है। ‘ यह जलेबी दूध में डुबोकर खानेवालों का समाज है जनाब, मिर्चा खाकर मथुरा पेड़े जमाने वालों का समाज है जनाब।’

इतिहास गवाह है कि धर्म-प्रचार का चोगा पहन कर आईं मिशनरियाँ, कालांतर में दुनिया भर में धर्म-परिवर्तन का ‘हिडन’ एजेंडा क्रियान्वित करने लगीं। प्रसिद्ध अफ्रीकी विचारक डेसमंड टूटू ने लिखा है, When the missionaries came to Africa, they had the Bible and we had the land. They said “let us close our eyes and pray.” When we opened them, we had the Bible, and they had the land.     भारत भी मिशनरियों के इसी एजेंडा का शिकार हुआ। अलबत्ता शिकारी को भी वत्सल्य प्रदान करने वाली भारतीय लोकसंस्कृति की सस्टेनिबिलिटी गज़ब की है। इतिहास डॉ. निर्मलकुमार लिखते हैं, ‘.इसके चलते जिस किसी आक्रमणकारी आँख ने इसे वासना की दृष्टि से देखा, उसे भी इसनी माँ जैसा वात्सल्य प्रदान किया। यही कारण था कि धार्मिक तौर पर जो पराया कर दिये गये, वे  भी  आत्मिक रूप से इसी नाल से जुड़े रहे। इसे बेहतर समझने के लिए झारखंड या बिहार के आदिवासी बहुल गाँव में चले जाइए। नवरात्र में देवी का विसर्जन ‘मेढ़ भसावन‘ कहलाता है। विसर्जन से घर लौटने के बाद बच्चों को घर के बुजुर्ग द्वारा मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देेने की परंपरा है। अगले दिन गाँव भर के घर जाकर बड़ों के चरणस्पर्श किए जाते हैं। आशीर्वाद स्वरूप बड़े उसी तरह मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देते हैं। उल्लेखनीय है कि यह प्रथा हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या आदिवासी हरेक पालता है। चरण छूकर आशीर्वाद पाती लोकसंस्कृति धार्मिक संस्कृति को गौण कर देती है। बुद्धिजीवियों(!) के स्पाँसर्ड टोटकों से देश नहीं चलता। प्रगतिशीलता के ढोल पीटने भर से दकियानूस, पक्षपाती एकांगी मानसिकता, लोक की समदर्शिता ग्रहण नहीं कर पाती। लोक को समझने के लिए चोले उतारकर फेंकना होता है।

क्रमशः…….5

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #22 – भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 22 ☆

 

☆ भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई 

 

नये नये विकास मंत्री विकास के गुर सीखने  अमेरिका गये, स्वाभाविक था कि वहां के विकास मंत्री ने उनका स्वागत सत्कार किया,मंत्री जी ने उनसे कहा कि वे उन्हें विकास के गुर सिखा दें, उन्होंने अमेरिकन मंत्री को आश्वस्त किया कि जो भी वे सिखायेंगे, उसे शत प्रतिशत तरीके से क्रियान्वित करके दिखायेंगे. अमेरिकन मंत्री  आग्रह पूर्वक उन्हें अपने घर ले गये,नदी के तट पर बने उनके शानदार बंगले की  शानशौकत देखकर  मंत्री जी ने इस सबका राज जानना चाहा, तो अमेरिकन मंत्री  उन्हें नदी की ओर खुलने वाली खिड़की की तरफ ले गये, खिड़की से बाहर नदी दिखाते हुये उन्होंने पूछा , वह पुल देख रहे हैं ? जबाब मिला जी हाँ ! तो अमेरिकन मंत्री जी ने शानदार बंगले का राज बताया बस २ प्रतिशत एडजस्टमेंट.

कोई दो बरस बाद अमेरिकन मंत्री भारत यात्रा पर आये इस बार हमारे मंत्री जी उन्हें अपनी कोठी पर ले गये, कोठी की लाजबाब रौनक देखकर अमेरिकन मंत्री जी ने इसका राज पूछा, तो हमारे मंत्री जी ने यमुना के तट पर बनी अपनी कोठी की यमुना की ओर खुलने वाली खिड़की खोली, पूछा वह पुल देख रहे हैं ? अमेरिकन मंत्री जी ने आंखें मली, चश्मा साफ किया, पर फिर भी जब उन्हें कुछ नही दिखा तो उन्होंने कहा कि पुल तो कहीं नही दिख रहा है ! मंत्री जी ने मुस्करा कर जबाब देते हुये कोठी का राज बताया १०० प्रतिशत एडजस्टमेंट…

देश में व्याप्त भ्रष्टाचार शायद इस चुटकुले से स्पष्ट हो.

भ्रष्ट व्यवस्था के पोषक बड़े विशेष अंदाज में कहते हैं अरे, काम हम तुम कहां करते हैं ? सारा काम तो गांधी जी ही करवाते हैं, उनका आशय नोट पर मुद्रित गांधी जी की तस्वीर से होता है.

१८० देशो के बीच ट्रास्परेसी इंटरनेशनल ने जो रैंकिग की है उसके अनुसार भारत को १० में से ३.४ अंक देते हुये भ्रष्टाचार में ८४ वें स्थान पर रखा गया है  ..सेवानिवृत  केंद्रीय विजिलेंस कमिश्नर प्रत्यूश सिंहा ने कहा है कि लगभग ३० प्रतिशत भारतीय भ्रष्ट हैं, किंतु  आज भी  २० प्रतिशत लोग भ्रष्टाचार से मुक्त हैं. शेष ५० प्रतिशत अधबीच में हैं.

राजीव गांधी ने कहा था कि विकास हेतु केंद्र से दिया गया मात्र १५ प्रतिशत धन ही वास्तविक विकास कार्यों में लग पाता है शेष भ्रष्ट राजनैतिज्ञों, अफसरशाही , पत्रकारों, ठेकेदारो, व भ्रष्ट व्यवस्था में गुम हो जाता है.स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी ” भ्रष्टाचार को स्वीकार करते हुये कहा था ” घी कहां गया खिचड़ी में “.

अनेक विदेशी कंपनियां भारत में उद्योग खोलने आती हैं पर हमारी राजनैतिक भ्रष्ट व्यवस्था, तथा ब्युरोक्रेसी, मल्टिपल विंडो चैकिंग उन्हें ऐसा पाठ पढ़ाती हैं कि वे अपने साजो सामान समेट कर भाग खड़ी होती हैं. महाराष्ट्र की दाभौल नेप्था विद्युत उत्पादन परियोजना सहित अनेक विदेशी कंपनियो व निवेशको का यही हश्र हुआ है. सैनिक साजो सामान की खरीदी में विदेशी कंपनियों से लेनदेन के अनेक प्रकरण सुर्खियों में रहे हैं.

आज बढ़ती आबादी और भ्रष्टाचार,दोनों ही तो देश की सबसे बड़ी समस्यायें हैं. हमेशा से ही समाज किसी न किसी के डर से ही नियम कायदो का परिपालन करता रहा है तुलसीदास ने लिखा भी है ” भय बिन होई न प्रीति “.  एक समय था जब लोग “उपर पहुंचकर परमात्मा को मुंह दिखाना है” इस तरह ईश्वर के डर से,  या राजा के कठोर दण्ड के डर से, या समाज से निकाल दिये जाने के डर से, या सत्य की राह पर चलते हुये स्वयं अपने आप से डरकर नियमानुसार काम करते थे, पर अब जितनी ज्यादा नैतिक शिक्षा पढ़ाई जा रही है नैतिकता का उतना ही ह्रास हो रहा है.धर्म अब लड़ने मारने और सामूहिक प्रतिष्ठा का विषय बन चुका है. राजा का डर रहा नही, लोग जान गये हैं कि कम या ज्यादा कीमत हो सकती है पर वर्तमान भौतिकवादी संग्रह के युग में शासन का हर प्रतिनिधि  बिकाऊ है, स्वयं अपने आप से अब आदमी डरता नही है वह वर्तमान का भौतिक सुख भोगना चाहता है, उसे मरकर अल्लाताला के कब्र  खोलने तक का इंतजार मंजूर नही है.

जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी पाठशाला हमारे पुलिसथाने, पटवारी से प्रारंभ  विभिन्न सरकारी कार्यालय  हैं.हमारे टूरिस्ट विदेशी भाईयों के लिये दर्शनीय स्थानो की सिक्यूरटी, उनकी यात्रा के दौरान, उनके रुकने, खाने पीने की व्यवस्थाओ के स्थानो के प्रभारी, विदेशियों की खरीददारी के दौरान उन्हें लूट लेने के अंदाज में बैठे हमारे शाप कीपर्स आदि सभी शार्ट कट का थोड़ा थोड़ा पाठ सिखा कर भ्रष्ट व्यवस्था और “सब चलता है” की शिक्षा उन्हें दे ही देते हैं.   उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार राजधानियों में मंत्रालयों, सचिवालयों, विभाग प्रमुखों जैसे सफेद झक लोगों द्वारा वातानुकूलित कमरों में खादी के पर्दो के भीतर होता है.इस तरह खाकी और खादी की वर्दी वाले भ्रष्टाचार की द्विस्तरीय शालाओ के शिक्षक हैं. अब हमारे विदेशी मेहमानो को यदि भ्रष्टाचार का क्रैश  कोर्स कराना हो उन्हें इन दफ्तरों का कोई  काम एक निश्चित समय सीमा के साथ सौंप दिया जावे, यदि वे काम करके आ जाते हैं तो समझ लें कि वे भ्रष्टाचार के क्रैश कोर्स में उत्तीर्ण हैं. क्योंकि इन कार्यालयों से काम निकालने का और कोई तरीका अब तक खोजा नही जा सका है.

इन दुरूह सामाजिक स्थितियो में जब सबने भ्र्ष्टाचार के सम्मुख घुटने टेक दिये हैं, युवा ही  रोशनी की किरण हैं. देश हित में हमें यह लड़ाई जीतनी ही होगी.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 3. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

इस लेख की पठनीयता में किसी प्रकार का प्रतिरोध न हो इस दृष्टि से आप इस सप्ताह के “साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच” अगले रविवार से पूर्ववत पढ़ सकेंगे।  

– हेमन्त बावनकर

☆ संजय दृष्टि  –  3.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

 

ऐसा नहीं है कि लोक निर्विकार या निराकार है। वह सर्वसाधारण मनुष्य है। वह लड़ता, अकड़ता, झगड़ता है। वह रूठता, मानता है। वह पड़ोसी पर मुकदमा ठोंकता है पर मुकदमा लड़ने अदालत जाते समय उसी अग्रज पड़ोसी से आशीर्वाद भी लेता है। इतना ही नहीं, पड़ोसी उसे ‘विजयी भव’ का आशीर्वाद भी देता है। विगत तीन दशकों से भारतीय राजनीति के केंद्र में रहे ‘श्रीरामजन्मभूमि विवाद’ के दोनों पैरोकार महंत परमानंद जी महाराज और स्व. अंसारी एक ही कार में बैठकर कोर्ट जाते रहे। बकौल भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी, ‘ मतभेद तो हों पर मनभेद न हो’ का जीता-जागता चैतन्य उदाहरण है लोक।

बलुतेदार हो या अबलूतेदार, अगड़ा हो या पिछड़ा, धनवान हो निर्धन, सम्मानित हो या उपेक्षित, हरेक को मान देता है लोक। बंगाल में विधवाओं को वृंदावन भेजने की कुरीति रही पर यही बंगाल दुर्गापूजा में हर स्त्री का हाथ लगवाता है। यही कारण है कि माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों के घर से मिट्टी ली जाती है। इनमें वेश्या भी सम्मिलित है। अद्वैत या एकात्म भाव का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा? यह बात अलग है कि भारतीय समाज की कथित विषमता को अपनी दुकानदारी बनानेवालों की मिट्टी, ऐसे उदाहरणों से पलीद हो जाती है।

लोक में मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों की भी प्रतिष्ठा है। महाराष्ट्र में बैलों की पूजा का पर्व ‘बैल पोळा’ मनाया जाता है। वर्ष भर किसान के साथ खेत में काम करनेवाले बैलों के प्रति यह कृतज्ञता का भाव है। पंजाब में बैसाखी में बैलों की पूजा, दक्षिण में हाथी की पूजा इसी कृतज्ञता की कथा कहते हैं। नागपंचमी पर साक्षत काल याने नाग की पूजा भी पूरी श्रद्धा से की जाती है।

पीपल, बरगद, आँवला, तुलसी जैसे पेड़-पौधों की पूजा वसुधा पर हर घटक को परिवार मानने के दर्शन को प्रकट करती है, हर घट में राम देखती है। हर घट में राम देखने की दृष्टि रखनेवालों को अंधविश्वासी, मूर्ख, रिलीजियस फूल, स्टुपिड ब्लैक कहकर उपहास उड़ाने वाले आज पर्यावरण विनाश पर टेसू बहाते हैं। आँख की क्षुद्रता ऐसी कि बरगद को मन्नत के धागे बांधकर कटने से उसका बचाव नहीं दिखा। धागों में अंधविश्वास देखने वाले पर्यावरण संरक्षण का आत्मविश्वास नहीं पढ़ पाए। जिसका दूध पीकर पुष्ट हुए, उस गौ को माँ के तुल्य ‘गौमाता’ का स्थान देना अनन्य लोकसंस्कृति है। पेड़ों के पत्ते न तोड़ना, चींटियों को आटा डालना, पहली रोटी दूध देनेवाली गाय के लिए, अंतिम रोटी रक्षा करने वाले श्वान के लिए इसी अनन्यता का विस्तार है। गाय का दूध दुहकर अपना घर चलाने वाले ग्वालों द्वारा गाय के थनों में बछड़े के पीने के लिए पर्याप्त दूध छोड़ देना, शहरों की यांत्रिकता में बछड़ों को निरुपयोगी मानकर वधगृह भेजने के हिमायतियों की समझ के परे है। वस्तुत: लोकजीवन में सहभागिता और साहचर्य है। लोकजीवन आदमी का एकाधिकार नकारता है। यहाँ आदमी घटक है, स्वामी नहीं है। चौरासी लाख योनियों का दर्शन भी इसे ही प्रतिपादित करता है।

क्रमशः…….4

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 2. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

 ☆ संजय दृष्टि  –  2.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

एकता शब्द व्यक्तिगत रूप से मुझे अँग्रेजी के ‘यूनिटी’ के अनुवाद से अधिक कुछ नहीं लगता। अनेक बार राजनीतिक दल, गठबंधन की विवशता के चलते अपनी एकता की घोषणा करते हैं। इस एकता का छिपा एजेंडा हर मतदाता जानता है। हाउसिंग सोसायटी के चुनाव हों या विभिन्न देशों के बीच समझौते, राग एकता अलापा जाता है।

लोक, एकता के नारों और सेमिनारों में नहीं उलझता। वह शब्दों को समझने और समझाने, जानने और पहचानने, बरगलाने और उकसावे से कोसों दूर खड़ा रहता है पर लोक शब्दों को जीता है। जो शब्दों को जीता है, समय साक्षी है कि उसीने मानवता का मन जीता है। यही कारण है कि ‘एकता’ शब्द की मीमांसा और अर्थ में न पड़ते हुए लोक उसकी आत्मा में प्रवेश करता है।  इस यात्रा में एकता झंडी-सी टँगी रह जाती है और लोक ‘एकात्मता’ का मंदिर बन जाता है। वह एकात्म होकर कार्य करता है। एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हुए भी ‘एकता’ बहुत छोटा शब्द है ‘एकात्मता’ के आगे। अत: इन पंक्तियों के लेखक ने शीर्षक में एकात्मता का प्रयोग किया है। कहा भी गया है,

‘प्रकृति पंचभूतानि ग्रहा लोका: स्वरास्तथा/ दिश: कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वन्तु मंगलम्।’

एकात्मता के दर्शन से लोक का विशेषकर ग्राम्य जीवन ओतप्रोत है। आज तो संचार और परिवहन के अनेक साधन हैं।  लगभग पाँच दशक पहले तक भी राजस्थान के मरुस्थली भागों में एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के लिए ऊँट या ऊँटगाड़ी (स्थानीय भाषा में इसे लड्ढा कहा जाता था) ही साधन थे। समाज की आर्थिक दशा देखते हुए उन दिनों ये साधन भी एक तरह से लक्जरी थे और समाज के बेहद छोटे वर्ग की जद में थे। आम आदमी कड़ी धूप में सिर पर टोपी लगाये पैदल चलता था। यह आम आदमी दो-चार गाँव तक पैदल ही यात्रा कर लेता था। रास्ते के गाँव में जो कुएँ पड़ते वहाँ बाल्टी और लेजु (रस्सी) पड़ी रहती। सार्वजनिक प्याऊ के गिलास या शौचालय के मग को चेन से बांध कर रखने की आज जैसी स्थिति नहीं थी। कुएँ पर महिला या पुरुष भर रहा होता तो पथिक को सप्रेम पानी पिलाया जाता। उन दिनों कन्यादान में पूरे गाँव द्वारा अंशदान देने की परंपरा थी। अत: सामाजिक चलन के कारण पानी पीने से पहले पथिक पता करता कि इस गाँव में उसके गाँव की कोई कन्या तो नहीं ब्याही है। मान लीजिये कि पथिक ब्राह्मण है तो उसे पता होता था कि उसके गाँव के किस ब्राह्मण परिवार की कन्या इस गाँव में ब्याही है। इसी क्रम में वह अपने गाँव का हवाला देकर पता करता कि उसके गाँव की कोई वैश्य, क्षत्रिय या हरिजन कन्या तो इस गाँव  में नहीं ब्याही। जातियों और विशेषकर धर्मों में ‘डिफॉल्ट’ वैमनस्य देखनेवालों को पता हो कि पथिक यह भी तहकीकात करता कि किसी ‘खाँजी’ (मुस्लिम धर्मावलंबियों के लिए तत्कालीन संबोधन) की बेटी का ससुराल तो इस गाँव में नहीं है। यदि दूसरे धर्म की कोई बेटी, उसके गाँव की कोई भी बेटी, इस गाँव में ब्याही होती तो वहाँ का पानी न पीते हुए 44-45 डिग्री तापमान की आग उगलती रेत पर प्यासा पथिक आगे की यात्रा शुरू कर देता। ऐसा नहीं कि इस प्रथा का पालन जाति विशेष के लोग ही करते। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, हरिजन, खाँजी, सभी करते। एक आत्मा, एकात्म, एकात्मता के इस भाव का व्यास, कागज़ों की परिधि में नहीं समा सकता।

इसी अनुक्रम में एक और परंपरा देखें। बरात जिस गाँव में जाती, दूल्हे के पिता के पास इस गाँव में ससुराल कर चुकी अपने गाँव की ब्याहताओं की सूची होती। ये लड़कियाँ किसी भी जाति या धर्म की हों, दूल्हे का पिता हरेक के घर एक रुपया और यथाशक्ति ‘लावणा’ (मंगलकार्यों में दी जानी वाली मिठाई) लेकर जाता। लड़की प्रतीक्षा करती कि उसके गाँव से   से कोई ताऊ जी, काका जी, बाबा जी आये हैं। मायके से (यहाँ गाँव ही मायका है) किसीका आना, ब्याहता को जिस आनंद से भर देता है, वह किसी से छुपा नहीं है। मंगलकार्यों (और अशुभ प्रसंगों में भी) बहु-बेटियों को मान देने का यह अमृत, लोक-परम्परा को चिरंजीव कर देता है। विष को गले में रोककर नीलकंठ महादेव कालातीत हैं, लोक की नीलकंठी परम्परा भी महादेव की अनुचर है।

वस्तुत: लोक में किसी के लिए दुत्कार नहीं है, अपितु सभी के लिए सत्कार है। जाति प्रथा का अस्तित्व होने पर भी सभी जातियों के साथ आने पर ही ब्याह-शादी, उत्सव-त्यौहार संपन्न हो सकते थे। महाराष्ट्र में 12 बलूतेदार परंपरा रही। कृषक समाज के केंद्र में था। उसके बाद बलूतेदारों का क्रम था। बलूतेदार को ‘कारू’ या कार्यकारी अर्थात जिनके सहारे काम चलता हो, भी माना गया। इनमें कुंभार (कुम्हार), कोळी (कोली या मछुआरा), गुरव, चांभार(चर्मकार), मातंग, तेली, न्हावी ( नाभिक), भट, परीट, महार, लोहार ( लुहार), सुतार को प्रमुखता से स्थान दिया गया। क्षेत्रवार इनमें न्यूनाधिक अंतर भी मिलता है। 12 बलूतेदारों के साथ 18 नारू अर्थात जिनकी आवश्यकता यदा-कदा पड़ती है, का उल्लेख भी है। इनमें कलावंत, कोरव, गोंधळी, गोसावी, घडसी, ठाकर, डवरया, तराळ, तांबोली, तेली, भट, माली, जंगम, वाजंत्री. शिंपी, सनगर, साळी, खटीक, मुलाणा का संदर्भ सामान्यत: मिलता है। इनके सिवा बनजारा और अन्यान्य घुमंतू जनजातियों और उपरोक्त उल्लेख में छूट गई सभी जातियों का योगदान रहा है।

जैसाकि कहा जा चुका है, समाज के केंद्र में किसान था। कोई माने न माने पर शरीर के केंद्र में जैसे पेट था, है और रहेगा, वैसे ही खेती सदा जीवन के केंद्र में रहेगी। किसान के सिवा कारू और नारू की आवश्यकता पड़ती थी। भारतीय समाज को विभाजन रेखा खींचकर देखनेवाली आँखें, अपने रेटीना के इलाज की गुहार करती हैं।  सत्य कहा जाये तो ग्राम्य जीवन लोक को पढ़ने, समझने और अपनी समझ को मथने का श्रेष्ठ उदाहरण है।

क्रमशः…….3

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 15 – आघात ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “आघात।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 15 ☆

 

☆ आघात

 

भगवान राम ने गरुड़ को वरदान दिया कि “आपने मेरी जिंदगी बचाई है, और आज से लोग जो अपने रिश्तेदारों और दोस्तों की मृत्यु होने के बाद डरते और उदास अनुभव करते है, मृत्यु के विषय में गुप्त ज्ञान सुनने के बाद निडर और शाँत अनुभव करेंगे और आज से इस ज्ञान को ‘गरुड़ पुराण’ के नाम से जाना जायेगा जो जीवों को भौतिक दुनिया से दिव्य दुनिया तक ले जायेगा”

भगवान राम को प्रणाम करने के बाद गरुड़ वैकुण्ठ वापस चले गए। तब भगवान हनुमान ने सभी को बताया कि नागपाश से भगवान राम और लक्ष्मण को बचाने के लिए भगवान गरुड़ को बुलाने के लिए यह सुझाव जाम्बवन्त जी ने दिया था।

सुग्रीव ने भगवान राम से पूछा, “मेरे भगवान कैसे यह संभव है? आप अचेत कैसे हो सकते हो?, और कौन आपको बंधी बना सकता है?”

तब जाम्बवन्त ने कहा, “ऋषि कश्यप की दो पत्नियां कद्रू और विनीता (अर्थ : ज्ञान, लज्जावान) थीं। कद्रू ने हजारों नागो को जन्म दिया जिन्हें पृथ्वी पर साँपो केपूर्वजमाना जाता है। विनीता ने शक्तिशाली गरुड़ को जन्म दिया।

एक बार कद्रू और विनीता घोड़े उच्चैहश्र्वास (अर्थ : लंबे कान या जोर का झुकाव) की पूंछ के रंग पर एक शर्त लगाती है । उच्चैहश्र्वास सात सिरों वाला, उड़ने वाला एक समुद्री घोड़ा था जो महासागर मंथन के या समुद्र मंथन के दौरान प्रकट हुआ था।

कद्रू ने दावा किया कि उच्चैहश्र्वास की पूंछ का रंग काला है और विनीता ने दावा किया कि यह सफेद है।तो यह शर्त रखी गई की जिसकी बात झूठी निकलेगी वह दूसरे की सेवा करेगी।कद्रू ने अपने पुत्रोंनागोंको उच्चैहश्र्वास की पूंछ पर लटक कर छल से उसे काला दिखाने का आदेश दिया । इस प्रकार, दैवीय घोड़े की सफेद पूंछ काली प्रतीत होने लगी क्योंकि उस पर कद्रू के पुत्र नाग लटक गए थे । इस प्रकार विनीता और गरुड़ को कद्रू की सेवा करने के लिए मजबूर किया गया । उनके साथ कद्रू और उनके पुत्रो ने बहुत बुरी तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया।

बाद में नाग, गरुड़ और उनकी माँ को मुक्त करने को इस शर्त पर सहमत हुए, यदि गरुड़ देवताओं के राजा इंद्र के कब्जे में स्थित अमृत, को लाकर उन्हें देगा।गरुड़ ने स्वर्ग से अमृत प्राप्त किया और स्वयं और अपनी माँ को कद्रू और उनके पुत्र नागों की दासता से मुक्त करा दिया। लेकिन धोखाधड़ी और अपमान ने गरुड़ को नागों/सांपों का प्रतिद्वंद्वी बना दिया।

जब गरुड़ ने इंद्र से अमृत के बर्तन को चुराया, तो इंद्र शक्तिशाली पक्षी गरुड़ की ताकत से ईर्ष्यावान था, परन्तु भगवान विष्णु गरुड़ की अखंडता से प्रभावित थे क्योंकि गरुड़ ने खुद के लिए अमृत की एक बूंद भी नहीं ली थी तो भगवान विष्णु ने गरुड़ से वरदान माँगने को कहा।

गरुड़ ने तुरंत कहा कि वह भगवान विष्णु सेउच्चपद चाहते हैं। भगवान विष्णु, जो सभी चालकियों के स्वामीहैं, उन्होंने गरुड़ से अपने ध्वज को सजाने के लिए ध्वज पर हमेशा बने रहने को कहा क्योंकि ध्वज हमेशा जीव से ऊपर ही होता है।

इसके अतरिक्त भगवान विष्णु ने मुस्कुराते हुए कहा, “भविष्य में जब मैं राम के रूप में पृथ्वी पर अवतार लूँगा तो आप एक बार मेरा जीवन बचायेंगे, और उस दिन आप निश्चित रूप से मेरे से उच्च पद पर होंगे क्योंकि जीवन बचाने वाला व्यक्ति हमेशा उससे ऊपर रहता है जिसका जीवन उसने बचाया है”

गरुड़ की भक्ति से भगवान विष्णु इतने प्रभावित हुए की उन्होंने गरुड़ को अपना स्थायी वाहन बना लिया।

गरुड़ की शादी उन्नति (अर्थ : प्रगति की भावना) से हुई, उनके दो बेटे हुए सम्पती जिनसे हम देवी सीता की खोज के समय समुद्र तट पर मिले थे, और दूसरे जटायु थे जिन्होंने रावण से देवी सीता को बचाने के लिए अपना जीवन खो दिया”

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 22 ☆ संगति का असर होता है ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “संगति का असर होता है”‘आज तक न कांटों को महकने का सलीका आया और न फूलों को चुभना आया’, इस कथन में जो विरोधाभास है उस के इर्द गिर्द यह विमर्श अत्यंत विचारणीय है एवं आपको निश्चित ही विचार करने के लिए बाध्य कर देगा। आलेख के मूल में हम पाते हैं  कि हमें अच्छी या बुरी संगति की पहचान  होनी चाहिए एवं अपने स्वभाव को बदलने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। इस महत्वपूर्ण  एवं सकारात्मक तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 22 ☆

 

☆ संगति का असर होता है 

झूठ कहते हैं, संगति का असर होता है। ‘आज तक न कांटों को महकने का सलीका आया और न फूलों को चुभना आया’ कितना विरोधाभास निहित है इस कथन में…यह सोचने पर विवश करता है, क्या वास्तव में संगति का प्रभाव नहीं होता? हम बरसों से यही सुनते आए हैं कि अच्छी संगति का असर अच्छा होता है।सो! बुरी संगति से बचना ही श्रेयस्कर है। जैसी संगति में आप रहेंगे, लोग आप को वैसा ही समझेंगे। बुरी संगति मानव को अंधी गलियों में धकेल देती है, जहां से लौटना नामुमक़िन होता है। वैसे ही उसे दलदल-कीचड़ की संज्ञा दी गयी है। यदि आप कीचड़  में कंकड़ फेंकेंगे, तो छींटे अवश्य ही आपके दामन को मैला कर देगे। सो! इनसे सदैव दूर रहना चाहिए। इतना ही क्यों ‘Better alone than a bad company.’ अर्थात् ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ हां! पुस्तकों को सबसे अच्छा मित्र स्वीकारा गया है जो हमें सत्मार्ग की ओर ले जाती हैं।
परंतु इस दलील का क्या… ‘आज तक न कांटों को महकने का सलीका आया, न फूलों को चुभना रास आया’ अंतर्मन में ऊहापोह की स्थिति उत्पन्न करता है और मस्तिष्क को उद्वेलित ही नहीं करता, झिंझोड़ कर रख देता है। हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि आखिर सत्य क्या है? इसके बारे में जानकारी प्राप्त करना उसी प्रकार असम्भव है, जैसे परमात्मा की सत्ता व गुणों का बखान करना। हम समझ नहीं पाते …आखिर सत्य क्या है? इसे भी परमात्मा के असीम  -अलौकिक गुणों को शब्दबद्ध करने की भांति असंभव है। शायद! इसीलिए उस नियंता के बारे में लोग नेति-नेति कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं।
परमात्मा निर्गुण, निराकार, अनश्वर व सर्वव्यापक है। उसकी महिमा अपरम्पार है। वह सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है और उसकी महिमा का बखान करना मानव के वश से बाहर है। यहां भी विरोधाभास स्पष्ट झलकता है कि जो निराकार है…जिसका रूप- आकार नहीं, जो निर्गुण है.. सत्, रज,तम तीनों गुणों से परे है, जो निर्विकार अर्थात् दोषों से रहित है तथा जिसमें शील, शक्ति व सौंदर्य का  समन्वय है…वह श्रद्धेय है, आराध्य है, वंदनीय है।
प्रश्न उठता है, जो शब्द ब्रह्म हमारे अंतर्मन में बसता है, उसे बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं, उसे मन की एकाग्रता द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। एकाग्रता ध्यान की वह स्थिति है, जिस में मानव क्षुद्र व तुच्छ वासनाओं से ऊपर उठ जाता है। परन्तु सांसारिक प्रलोभनों व मायाजाल में लिप्त बावरा मन, मृग की भांति उस कस्तूरी को पाने के निमित्त इत-उत भटकता रहता है और अंत में भूखा-प्यासा, सूर्य की किरणों में जल का आभास  पाकर अपने प्राण त्याग देता है। वही दशा मानव की है, जो नश्वर भौतिक संसार व मंदिर-मस्जिदों में उसे तलाशता रहता है, परंतु निष्फल। मृग-तृष्णाएं उसे पग-पग पर आजीवन भटकाती हैं। वह बावरा इस मायाजाल से  आजीवन मुक्त नहीं हो पाता और लख चौरासी के बंधनों में उलझा रहता है। उसे कहीं भी सुक़ून व आनंद की प्राप्ति नहीं होती।
जहां तक  कांटों को महकने का सलीका न आने का प्रश्न है, यह प्रकाश डालता है, मानव की आदतों पर, जो लाख प्रयास करने पर भी नहीं बदलतीं, क्योंकि यह हमें पूर्वजन्म  के संस्कारों के रूप में प्राप्त होती हैं। कुछ संस्कार हमें  पूर्वजों द्वारा प्रदत्त होते हैं। यह विभिन्न संबंधों के रूप में  हमें प्राप्त होते हैं, जिन्हें  प्राप्त करने में  हमारा कोई योगदान नहीं होता। परंतु कुछ संस्कार हमें माता-पिता, गुरुजनों व हमारी संस्कृति द्वारा प्राप्त होते हैं, जो हमारे चारित्रिक गुणों को विकसित करते हैं।अच्छे संस्कार हमें आदर्शवादी बनाते हैं और बुरे संस्कार हमें पथ-विचलित करते हैं  … हमें  संसार में अपयश दिलाते हैं। इन कुसंस्कारों के कारण समाज में हमारी निंदा होती है और लोग हमसे घृणा करना प्रारंभ कर देते हैं। बुरे लोगों का साथ देने से, हम पर उंगलियां उठना  स्वाभाविक है। क्योंकि ‘यह मथुरा काजर की कोठरी,  जे आवहिं ते कारे’ अर्थात् ‘जैसा संग वैसा रंग’। संगति का रंग अपना प्रभाव अवश्य छोड़ता है। कबीर दास जी की यह पंक्ति’ कोयला होई ना उजरा,सौ मन साबुन लाय’  कोयला सौ मन साबुन से धोने पर भी कभी उजला नहीं हो सकता अर्थात् मानव की जैसी प्रकृति-प्रवृत्ति होती है, सोच होती है, आदतें होती हैं, उनसे वह आजीवन वैसा ही व्यवहार करता है।
इंसान अपनी आदतों का गुलाम होता है और सदैव उनके अंकुश में रहता है तथा उनसे मुक्ति पाने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए कहा जाता है कि इंसान की आदतें, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। सो! प्रकृति के विभिन्न उपादान फूल, कांटे आदि अपना स्वभाव कैसे परिवर्तित कर सकते हैं? फूलों की प्रकृति है हंसना, मुस्कराना, बगिया के वातावरण को महकाना, आगंतुकों के हृदय को आह्लादित व उन्मादित करना। सो! वे कांटो के चुभने के दायित्व का वहन कैसे कर सकते हैं? इसी प्रकार शीतल, मंद, सुगंधित वायु याद दिलाती है प्रिय की, जिसके ज़ेहन में आने के परिणाम-स्वरूप समस्त वातावरण आंदोलित हो उठता है तथा मानव अपनी सुधबुध खो बैठता है।
यह तो हुआ स्वभाव, प्रकृति व आदतों के न बदलने का चिंतन, जो सार्वभौमिक सत्य है।  परंतु अच्छी आदतें सुसंस्कृत व अच्छे लोगों की संगति द्वारा बदली जा सकती है। हां! हमारे शास्त्र व अच्छी पुस्तकें इसमें बेहतर योगदान दे सकती हैं…उचित मार्गदर्शन कर जीवन की दिशा  बदल सकती हैं। जो मनुष्य नियमित रूप से ध्यान-मग्न रहता है…केवल अध्ययन नहीं, चिंतन-मनन करता है,आत्मावलोकन करता है, चित्तवृत्तियों पर अंकुश लगाता है, इच्छाओं की दास्तान स्वीकार नहीं करता। वह दुष्प्रवृत्तियों के इस मायाजाल से स्वत: मुक्ति प्राप्त कर सकता है… संस्कारों को धत्ता बता सकता है और अपने स्वभाव को बदलने में समर्थ हो सकता है।
सो! हम उक्त कथन को मिथ्या सिद्ध कर सकते हैं कि सत्संगति प्रभावहीन होती है क्योंकि फूल और कांटे अपना सहज स्वभाव-प्रभाव हरगिज़ नहीं छोड़ते। कांटे अवरोधक होते हैं, सहज विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं, सदैव चुभते हैं, पीड़ा पहुंचाते हैं, दूसरे को कष्ट में देखकर आनंदित होते हैं। दूसरी ओर फूल इस तथ्य से अवगत होते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है, फिर भी वे निराशा का दामन कभी नहीं थामते… अपना महकने व मुस्कुराने का स्वभाव नहीं त्यागते। इसलिए मानव को इनसे संदेश लेना चाहिए तथा जीवन में सदैव हंसना-मुस्कुराना चाहिए,क्योंकि खुश रहना जीवन की अनमोल कुंजी है, जीवन जीने का सलीका है।इसलिए हमें सदैव प्रसन्न रहना चाहिए ताकि दूसरे लोग भी हमें देखकर उल्लसित रह सकें और अपने कष्टों के चंगुल से मुक्ति प्राप्त कर सकें।
अंतत: मैं कहना चाहूंगी कि परमात्मा ने सबको समान बनाया है।इंसान कभी अच्छा-बुरा नहीं हो सकता…उसके कर्म-दुष्कर्म ही उसे अच्छा व बुरा बनाते हैं…उसकी सोच को सकारात्मक व नकारात्मक बनाते हैं। अपने सुकर्मों से ही प्राणी सब का प्रिय बन सकता है। जैसे प्रकृति अपना स्वभाव नहीं बदलती, धरा, सूर्य, चंद्र, नदियां, पर्वत, वृक्ष आदि निरंतर कर्मशील रहते हैं, नियत समय पर अपने कार्य को अंजाम देते हैं, अपने स्वभाव को विषम परिस्थितियों में भी नहीं त्यागते…सो! हमें इनसे प्रेरणा प्राप्त कर सत्य की राह का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि इनमें परार्थ की भावना निहित रहती है…ये किसी को आघात नहीं पहुंचाते, किसी का बुरा नहीं चाहते। हमारा स्वभाव भी वृक्षों की भांति होना चाहिए। वे धूप, आतप, वर्षा, आंधी आदि के प्रहार सहन करने के पश्चात् भी तपस्वी की भांति खड़े रहते हैं, जबकि वे जानते हैं कि उन्हें अपने फलों का स्वाद नहीं चखना है। परंतु वे परोपकार हित सबको शीतल छाया व मीठे फल देते हैं, भले ही कोई  इन्हें कितनी भी हानि पहुंचाए। इसी प्रकार सूर्य की स्वर्णिम रश्मियां सम्पूर्ण विश्व को आलोकित करती हैं, चंद्रमा व तारे अपने निश्चित समय पर दस्तक देते हैं तथा थके-हारे मानव को निद्रा देवी की आग़ोश में सुला देते हैं ताकि वे ताज़गी का अनुभव कर सकें तथा पुन:कार्य में तल्लीन हो सकें। इसी प्रकार वर्षा से होने से धरा पर हरीतिमा छा जाती है, जीवनदायिनी फसलें लहलहा उठती हैं सबसे बढ़कर ऋतु-परिवर्तन जीवन की एकरसता को मिटाता है।
मानव का स्वभाव चंचल है। वह एक-सी मन:स्थिति में रहना पसंद नहीं करता। परंतु जब हम प्रकृति से छेड़छाड़ करते हैं, तो उसका संतुलन बिगड़ जाता है, जो भूकंप, सुनामी, भयंकर बाढ़, पर्वत दरकने आदि के रूप में समय-समय पर प्रकट होते हैं।यह कोटिशः सत्य है कि जब प्रकृति के विभिन्न उपादान अपना स्वभाव नहीं बदलते,तो मानव क्यों अपना स्वभाव बदले…जीवन में बुरी राहों का अनुसरण करे तथा दूसरों को व्यर्थ हानि पहुंचाए? सो! जैसा व्यवहार आप दूसरों से करते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिये सदैव अच्छा सोचिए,अच्छा बोलिए, अच्छा कीजिए, अच्छा दीजिए व अच्छा लीजिए। यदि दूसरा व्यक्ति आपके प्रति दुर्भावना रखता है, दुष्कर्म करता है, तो कबीर दास जी के दोहे का स्मरण कीजिए ‘जो ताको  कांटा  बुवै, ते बूवै ताको फूल अर्थात् आपको फूल के बदले फूल मिलेंगे और कांटे बोने वाले को शूल ही प्राप्त होंगे। इसलिए इस सिद्धांत को जीवन में धारण कर लीजिए कि शुभ का फल शुभ अथवा कल्याणकारी होता है। यह भी शाश्वत सत्य है कि कुटिल मनुष्य कभी भी अपनी कुटिलता का त्याग नहीं करता,जैसे सांप को जितना भी दूध पिलाओ, वह काटने का स्वभाव नहीं त्यागता। इसलिए ऐसे दुष्ट लोगों से सदैव सावधान रहना चाहिए… उनकी फ़ितरत पर विश्वास करना स्वयं को संकट में डालना है तथा उनका साथ देना अपने चरित्र पर लांछन लगाना है, कालिख़ पोतना है। सो! मानव के लिए, दूसरों के व्यवहार के प्रतिक्रिया-स्वरूप अपना स्वभाव न बदलने में ही अपना व सबका हित है, सबका मंगल है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 1.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  कल स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

 ☆ संजय दृष्टि  –  1.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका

लोक अर्थात समाज की इकाई। समाज अर्थात लोक का विस्तार। यही कारण है कि ‘इहलोक’, ‘परलोक’ ‘देवलोक’, ‘पाताललोक’, ‘त्रिलोक’ जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ। गणित में इकाई के बिना दहाई का अस्तित्व नहीं होता। लोक की प्रकृति भिन्न है। लोक-गणित में इकाई अपने होने का श्रेय दहाई कोे देती है। दहाई पर आश्रित इकाई का अनन्य उदाहरण है, ‘उबूंटू!’

दक्षिण अफ्रीका के जुलू  आदिवासियों की बोली का एक शब्द है ‘उबूंटू।’ सहकारिता और प्रबंधन के क्षेत्र में ‘उबूंटू’ आदर्श बन चुका है। अपनी संस्था ‘हिंदी आंदोलन परिवार’ में अभिवादन के लिए हम ‘उबूंटू’ का ही उपयोग करते हैं। हमारे सदस्य विभिन्न आयोजनों में मिलने पर परस्पर ‘उबूंटू’ ही कहते हैं।

इस संबंध में एक लोककथा है। एक यूरोपियन मनोविज्ञानी अफ्रीका के आदिवासियों के एक टोले में गया। बच्चों में प्रतिद्वंदिता बढ़ाने के भाव से उसने एक टोकरी में मिठाइयाँ भर कर पेड़ के नीचे रख दी। उसने टोले के बच्चों के बीच दौड़ का आयोजन किया और घोषणा की कि जो बच्चा दौड़कर सबसे पहले टोकरी तक जायेगा, सारी मिठाई उसकी होगी। जैसे ही मनोविज्ञानी ने दौड़ आरम्भ करने की घोषणा की, बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा, एक साथ टोकरे के पास पहुँचे और सबने मिठाइयाँ आपस में समान रूप से वितरित कर लीं। आश्चर्यचकित मनोविज्ञानी ने जानना चाहा कि यह सब क्या है तो बच्चों ने एक साथ उत्तर दिया,‘उबूंटू!’ उसे बताया गया कि ‘उबूंटू’ का अर्थ है,‘हम हैं, इसलिए ‘मैं’ हूँ। उसे पता चला कि आदिवासियों की संस्कृति सामूहिक जीवन में विश्वास रखता है, सामूहिकता ही उसका जीवनदर्शन है।

‘हम हैं, इसलिए मैं हूँ’ अनन्य होते हुए भी सहज दर्शन है। सामूहिकता में व्यक्ति के अस्तित्व का बोध तलाशने की यह वृत्ति पाथेय है। मछलियों की अनेक प्रजातियाँ समूह में रहती हैं। हमला होने पर एक साथ मुकाबला करती हैं। छितरती नहीं और आवश्यकता पड़ने पर सामूहिक रूप से काल के विकराल में समा जाती हैं।

लोक इसी भूमिका का निर्वाह करता है। वहाँ ‘मैं’ होता ही नहीं। जो कुछ हैे, ‘हम’ है। राष्ट्र भी ‘मैं’ से नहीं बनता। ‘हम’ का विस्तार है राष्ट्र। ‘देश’ या ‘राष्ट्र’ शब्द की मीमांसा इस लेख का उद्देश्य नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मानकों ने राष्ट्र (देश के अर्थ में) को सत्ता विशेष द्वारा शासित भूभाग  माना है। इस रूप में भी देखें तो लगभग 32, 87, 263 वर्ग किमी क्षेत्रफल का भारत राष्ट्र्र है। सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो इस भूमि की लोकसंस्कृति कम या अधिक मात्रा में अनेक एशियाई देशों यथा नेपाल, थाइलैंड, भूटान, मालदीव, मारीशस, बाँग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, तिब्बत, चीन तक फैली हुई है। इस रूप में देश भले अलग हों, एक लोकराष्ट्र है। लोकराष्ट्र भूभाग की वर्जना को स्वीकार नहीं करता। लोकराष्ट्र को परिभाषित करते हुए विष्णुपुराण के दूसरे स्कंध का तीसरा श्लोक  कहता है-

उत्तरं यत समुद्रस्य हिमद्रेश्चैव दक्षिणं
वर्ष तात भारतं नाम भारती यत्र संतति।

अर्थात उत्तर में हिमालय और दक्षिण में सागर से आबद्ध भूभाग का नाम भारत है। इसकी संतति या निवासी ‘भारती’ (कालांतर में ‘भारतीय’) कहलाते हैं।

……….क्रमशः

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ सरदार वल्लभ भाई पटेल जन्मदिवस विशेष ☆ विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति ‘स्टैचू ऑफ़ यूनिटी’ ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(आज प्रस्तुत है प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी  द्वारा रचित स्व वल्लभ भाई पटेल के जन्मदिवस पर विशेष आलेख  “विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति ‘स्टैचू ऑफ़ यूनिटी'”।)

 

☆ विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति ‘स्टैचू ऑफ़ यूनिटी’☆

 

पंद्रह अगस्त 1947 को जब देश अंग्रेजो से आजाद हुआ तो, भारत की राजनैतिक व सामाजिक स्थिति अत्यंत छिन्न भिन्न थी. देश का धर्म के आधार पर बंटवारा हो चुका था, पाकिस्तान का निर्माण मुस्लिम देश के रूप में हुआ था. किन्तु, सारे भारत में छोटे बड़े शहरो, कस्बों व गांवो में बसी हुई मुसलमान आबादी न तो इतनी सुशिक्षित थी और न ही इतनी सक्षम कि वह इस विभाजन को समझ सके और स्वयं के पूर्वी या पश्चिमी पाकिस्तान में विस्थापन के संबंध में कोई निर्णय ले सके. तब  संचार व आवागमन के पर्याप्त संसाधन भी नही थे. पीढ़ियों से  बसे हुये परिवार भी नेताओ के इशारो पर, घबराहट में पलायन कर रहे थे. सारे देश में आपाधापी का वातावरण बन गया था.

अंग्रेजी सरकार के पास जो भूभाग था उसका सत्ता हस्तांतरण तो हो गया किन्तु, भारतीय भूभाग में तब लगभग 565 छोटी-बड़ी रियासतें भी थी जिनमें राजा राज्य कर रहे थे. यहाँ रहने वाली बड़ी आबादी मानसिक रूप से अंग्रेजो के विरुद्ध भारत के साथ आजादी के आंदोलन में साथ थी और देश की आजादी के बाद लोकतांत्रिक सपने देख रही थी किन्तु क्षेत्रीय राजा महाराजा अपने व्यैक्तिक हितों के चलते जनता की आवाज को अनसुना करने के यत्न भी कर रहे थे.

देश आजाद तो हो गया था पर न तो कोई संविधान था न विधि सम्मत समुचित शासन व्यवस्था बन पाई थी. ऐसे दुरूह राजनैतिक, सामाजिक संधिकाल में आपाधापी और अराजकता के वातावरण में शासन के सीमित संसाधनो के बीच भारत के पहले उप प्रधान मंत्री के रूप में गृह, रियासत व सूचना मंत्री की कौशलपूर्ण जबाबदारी सरदार पटेल ने संभाली. और उन्होने जो करिश्मा कर दिखाया वह आज तो नितांत अविश्वसनीय ही लगता है. सरदार पटेल ने छोटी बड़ी सारी रियासतो का भारत के गणतांत्रिक राज्य में संविलयन कर दिखाया. राजाओ से प्रिविपर्स की शर्ते तय करना जटिल चुनौती भरा कार्य था. देश के धार्मिक आधार पर विभाजन के चलते हिन्दू मुस्लिम  कटुता भी वातावरण में थी, जिन रियासतो के शासक मुस्लिम थे, विशेष रूप से  भोपाल के नवाब, जूनागढ़ या हैदराबाद के निजाम उन्हें भारत में मिलाना किसी भी अन्य नेता के बस में नही था. इतिहास के जानकार बताते हैं कि काश्मीर के राजा यद्यपि हिन्दू थे  व वहां बहुत बड़ी आबादी हिदुओ की ही थी किन्तु फिर भी चूंकि पंडित नेहरू ने सरदार पटेल को वहां हस्तक्षेप नही करने दिया इसीलिये काश्मीर आज तक समस्या बना हुआ था.

सरदार पटेल ने न केवल भारत के संघीय नक्शे को अपनी कार्य कुशलता से एकीकृत रूप दिया वरन देश के धार्मिक आधार पर विभाजन से उपजी हिन्दू मुस्लिम वैमनस्यता को समाप्त कर सामाजिक समरसता का वातावरण पुनर्स्थापित करने के ऐसे महत्वपूर्ण कार्य किये हैं कि उन कार्यो के स्मरण स्वरूप कृतज्ञ राष्ट्र का “स्टेच्यू आफ यूनिटी” के रूप में उनकी विश्व की सबसे उंची मूर्ति स्थापना का कार्य  उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली है. युगो युगो तक हर नई पीढ़ी इस भव्य विशाल मूर्ति के माध्यम से उनके राष्ट्र के एकीकरण के असाधारण कार्य का स्मरण करेगी और उनसे राष्ट्रीय एकता व अखण्डता की प्रेरणा लेती रहेगी.

वर्तमान में विश्व की सबसे ऊँची स्टैच्यू या मूर्ती 152 मीटर की चीन में स्प्रिंग टैम्पल बुद्ध की मूर्ति है. मूर्ति की ऊँचाई की दृष्टि से दूसरे स्थान पर सन् 2008 में म्याँमार सरकार की बनवाई गई 120 मीटर ऊंची बुद्ध के तथागत रूप की प्रतिमा  और विश्व की तीसरी सबसे ऊँची मूर्ती भी  भगवान बुद्ध की ही है,जो जापान में है इसकी ऊँचाई 116 मीटर हैं. अमेरिका की सुप्रसिद्ध स्टेच्यू आफ लिबर्टी की ऊँचाई 93 मीटर है. रूस की सुप्रसिद्ध ऊंची प्रतिमा मदर लैंड काल्स की ऊंचाई 85 मीटर तथा ब्राजील की प्रसिद्ध प्रतिमा क्राइस्ट द रिडीमर की ऊँचाई 39.6 मीटर है. इस तरह 182  मीटर ऊँची यह स्टेच्यू आफ यूनिटी अर्थात एकता की प्रतिमा भारत में दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति है.

इस मूर्ति स्थापना का कार्य नर्मदा नदी पर बने विशालकाय सरदार सरोवर बांध के जलाशय में बांध से लगभग 3.5 किलोमीटर दूर साधु बेट नाम के टापू पर अंतिम स्थिति में है. इसकी नींव 31 अक्तूबर 2013 को राखी गई थी एवं 31 अक्टूबर 2018 को सरदार पटेल के जन्मदिन पर इस गौरवशाली स्मारक का उद्घाटन प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया।

होना है.  स्मारक की कुल ऊँचाई आधार से लेकर शीर्ष तक 240 मीटर है, जिसमें आधार तल की ऊँचाई 58 मीटर  और सरदार पटेल की प्रतिमा 182 मीटर ऊँची है. प्रतिमा का निर्माण इस्पात के फ्रेम, प्रबलित सीमेण्ट कंक्रीट और इस तरह निर्मित मूर्ति के ढ़ांचे पर काँसे की परत चढ़ाकर किया गया. तकनीकी निर्माण की दृष्टि से इस मूर्ति का निर्माण जलाशय के बीच एक ऊँची इमारत के निर्माण की तरह ही तकनीकी चुनौती का कार्य है. यही नही चुंकि इस प्रतिमा के साथ विश्व पटल पर  देश का सम्मान भी जुड़ा है अतः यह निर्माण  इंजीनियर्स के लिये और भी चुनौती भरा कार्य था. समय बद्ध निर्माण, वैश्विक परियोजना के रूप में  पूरा किया गया. व्हेदरिंग के बीच स्टेच्यू की आयु अनंत समय की होगी अतः निर्माण की गुणवत्ता के समस्त मापदण्डो के परिपालन व संरक्षण व अनुरक्षण की समुचित सुरक्षात्मक व्यवस्थायें वैश्विक स्तर पर सुनिश्चित की गई हैं. ऐसी परियोजनाओ में तड़ित के निस्तारण,तीव्र गामी हवाओ, तूफान, आंधी, चक्रवात, बादल फटने जैसी प्राकृतिक आपदाओ के बीच मूर्ति को निरापद बनाये रखने हेतु समुचित उपाय किये जाना अति आवश्यक होता है, जिस हेतु अतिरिक्त फैक्टर आफ सेफ्टी का विशेष प्रावधान रखा गया है.

स्टेच्यू आफ यूनिटी सही अर्थो में एकता की प्रतिमूर्ति है क्योकि इसका निर्माण शासन के साथ जन भागीदारी से किया गया है.  न केवल आर्थिक सहयोग वरन मूर्ति हेतु उपयोग किये जाने वाला लोहा भी आम किसानो से उनके कृषि उपकरणो से जन आंदोलन के रूप में एकत्रित किया गया, इसके पीछे भावना यह थी कि आम किसानो व नागरिको का भावनात्मक लगाव मूर्ति के साथ सुनिश्चित हो सके,  चूंकि सरदार पटेल एक किसान पुत्र थे अतः गांवो से एकत्रित लोहे के रूप में उस लौह पुरुष के प्रति सम्मान व्यक्त करने का भी यह एक अभियान था. जन अभियान के रूप में “रन फार यूनिटी” तथा “डिजिटल कैंपेन” चलाकर भी जन सामान्य को दुनियाभर में इस एकता के अभियान में जोड़ा गया है. परियोजना पूरी होने पर श्रेष्ठ भारत भवन, म्यूजियम व ध्वनि संगीत गैलरी, लेजर शो, व अनुसंधान केंद्र के रूप में पर्यटको के बहुमुखी आकर्षण केन्द्र के रूप में स्थल विकास किया गया है. फेरी के द्वारा सरदार सरोवर में पर्यटको के भ्रमण की नियमित व्यवस्थायें की गई हैं. यह परियोजना देश के सम्मान, एकता, फ्रीडम का संयुक्त व बहुआयामी केंद्र है जहाँ पहुंचना प्रत्येक भारतवासी के लिये गौरवशाली क्षण बन चुका है.

 

इंजी विवेक रंजन श्रीवास्तव

फैलो आफ इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स

ए 1, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर 482008

मो 7000375798

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 3. दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

गतवर्ष दीपावली के समय लिखे तीन संस्मरण आज से एक लघु शृंखला के रूप में साझा कर रहा हूँ। आशा है कि ये संस्मरण हम सबकी भावनाओं के  प्रतिनिधि सिद्ध होंगे।  – संजय भरद्वाज

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप 

☆ आज तीसरा शब्ददीप ☆

आज भाईदूज है। प्रातःभ्रमण पर हूँ। हर तरफ सुनसान, हर तरफ सब कुछ चुप। दीपावली के बाद शहर अलसाया हुआ है। सोसायटी का चौकीदार भी जगह पर नहीं है। इतनी सुबह दुकानें अमूमन बंद रहती हैं पर अख़बार वालों, मंडी की ओर जाते सब्जीवालों, कुछ फलवालों, जल्दी नौकरी पर जाने वालों और स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों से सड़क ठसाठस भरी रहती है। आज सार्वजनिक छुट्टी है। नौकरीपेशा, विद्यार्थी सब अपने-अपने घर पर हैं। सब्जी मंडी भी आज बंद है। अख़बारों को कल प्रतिपदा की छुट्टी थी। सो आज अख़बार विक्रेता भी नहीं हैं। वातावरण हलचल की दृष्टि से इतना शांत जैसे साइबेरिया में हिमपात के बाद का समय हो।

वातावरण का असर कुछ ऐसा कि लम्बे डग भरने वाला मैं भी कुछ सुस्ता गया हूँ। डग छोटे हो गये हैं और कदमों की गति कम। देह मंथर हो तो विचारों की गति तीव्र होती है। एकाएक इस सुनसान में एक स्थान पर भीड़ देखकर ठिठक जाता हूँ। यह एक प्रसिद्ध पैथालॉजी लैब का सैम्पल कलेक्शन सेंटर है। अलसुबह सैम्पल देने के लिए लोग कतार में खड़े हैं। उल्लेखनीय है कि इनमें वृद्धों के साथ-साथ मध्यम आयु के लोग काफी हैं। मुझे स्मरण हो आता है, ‘ शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं धनसम्पदा।’

सबसे बड़ी सम्पदा स्वास्थ्य है। हम में से अधिकांश  अपनी जीवन शैली और लापरवाही के चलते प्रकृति प्रदत्त इस सम्पदा की भलीभाँति रक्षा नहीं कर पाते हैं। चंचल धन और पार्थिव अधिकार के मद ने आँखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि हम त्योहार या उत्सव की मूल परम्परा ही भुला बैठे हैं। आद्य चिकित्सक धन्वंतरी की त्रयोदशी को हमने धन की तेरस तक सीमित कर लिया। रूप की चतुर्दशी, स्वरूप को समर्पित कर दी। दीपावली, प्रभु श्रीराम के अयोध्या लौटने, मूल्यों की विजय एवं अर्चना का प्रतीक न होकर केवल द्रव्यपूजन का साधन हो गई।

उत्सव और त्योहारों को उनमें अंतर्निहित उदात्तता के साथ मनाने का पुनर्स्मरण हमें कब होगा? कब हम अपने जीवन के अंधकार के विरुद्ध एक दीप प्रज्ज्वलित करेंगे?  अपनी सुविधा के अर्थ ग्रहण करने की अंधेरी मानसिकता के आगे जिस दिन एक भी दीपक सीना ठोंक कर खड़ा हो गया, यकीन मानिए, अमावस्या को दीपावली होने में समय नहीं लगेगा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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