हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ पानी कहीं कहानी ना बन जाए ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।  आज प्रस्तुत है जल की महत्ता पर आधारित श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  का आलेख  पानी कहीं कहानी ना बन जाए.)

 

पानी कहीं कहानी ना बन जाए ☆

 

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून

पानी बिना ना ऊबरे मोती मानुष चून।।

 

बचपन से पढते आए हैं और पानी के महत्व को समझकर भी नासमझी का ढोंग करते आए हैं। मगर आज ग्लोबल वार्मिंग की विभीषिका और उससे होने वाले दुष्प्रभावों ने  सोचने पर मजबूर कर दिया है कि “पानी कहीं कहानी ना बन जाए”कुछ उसी तरह जिस तरह आज वह ” पानी” भी लुप्तप्राय है – – भारत से ही नहीं पूरी पृथ्वी पर से – – – वह है इंसानियत का पानी, सद्भाव का पानी, निःस्वार्थ भाव- विभाव – अनुभाव का पानी, एक दूसरे के लिए मर मिटने की लगन का पानी, मानवता के नाम निष्ठा का पानी, सृष्टि के प्रति नैतिक जिम्मेदारी का पानी- – – और जिस दिन उपरोक्त सारे आब उर्फ पानी को हम बचा लेंगे निःसंदेह गले की प्यास बुझाने वाला पानी स्वयंमेव हमारे आंगनों, हमारे घरों और हमारे होठों की पहुंच में होगा।

भौतिकता की दौड़ में मानव-जाति जिस तरह कांक्रीट के जंगल निर्माण कर रही है – -पेड़ों की अंधाधुंध कटाई चल रही है कि–

कटी हुई हर शाख से, चीखा एक कबीर!

मूरख आज इस आरी से, अपना कल मत चीर।!

कबीर की सीखों पर चलते हुए समाज में बहुत सकारात्मक बदलाव आए हैं अतः आज कबीर के नाम पर पुनः इस ईश सीख को अपना लें तो इस धरती पर  पानी कहानी नहीं जीवन की रवानी बन कर प्रवाहित रहेगा— हमेशा हमेशा हमेशा– आदि से अनादि तक, शून्य से अनंत तक, अणु से विराट तक, कण से ब्रम्हांड तक – और जल है तो जीवन है  की कहानी चलती रहेगी, चलती रहेगी अनवरत मानव जाति के साथ क्योंकि पंचभूतात्मक सत्य है – – कि क्षिति जल पावक गगन समीरा पंचतत्व विधि रची सरीरा!!—“और पानी कभी कहानी नहीं बनेगा “

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 18 ☆ मन ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  का  एक अतिसुन्दर आलेख  “मन”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 18  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ मन

 

“मन” क्या है?

मन का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है. जैसे भी विचार हमारे मन में विचरण करते है उसी प्रकार का हमारा शरीर भी ढल जाता है. मन शब्द में इतना प्रवाह है की वो किसी प्रभाव को नहीं रोक सकता. मन के पंख इतने फड़फड़ाते हैं कि वो जब भी जहाँ चाहे उड़ सकता है.

मन नहीं है, तो किसी से नहीं मिलो. मन है तो मिलते ही रहो. मन में यदि कुछ पाने की तमन्ना है और आशावादी विचार हैं, तो मन के मुताबिक कार्य भी संभव हो जाता है.

सब कुछ मन पर निर्भर है जैसे कहा गया है… “मन के हारे हार है मन के जीते जीत “ यानि मन रूपी चक्की में शुद्ध विचार रूपी गेहूं डालो तो परिणाम अच्छा ही मिलेगा.

जैसे सूरदास जी लिख गये … उधौ मन न भय दस बीस ….मन तो एक ही है.  एक ही को दिया जा सकता है …और जो लोग मन को भटकाते फिरते हैं, उनकी चिंतन शक्ति में कुछ कमी है.

कहा भी गया है… “नर हो न निराश करो मन को ….जब मनुष्य का मन मर जाता है तो उसके लिए सब कुछ व्यर्थ है, अर्थरहित है और जब मन क्रियाशील रहता है तब हम मन से कुछ भी कर सकते है.

कबीरदास जी  का यह कथन याद आता है  .. “मन निर्मल होने पर आचरण निर्मल होगा और आचरण निर्मल होने से ही आदर्श मनुष्य का निर्माण हो सकेगा। किन्तु, आज के इस परिवेश में मन निर्मल तो बहुत दूर की बात है.

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधीजी के सिद्धांत और आज की युवा पीढी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों के अध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है. हम प्रयास करेंगे कि आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें. )

 

☆ गांधीजी के सिद्धांत और आज की युवा पीढी ☆

 

मध्य प्रदेश राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, भोपाल प्रतिवर्ष हिंदी भवन के माध्यम से प्रतिभा प्रोत्साहन राज्य स्तरीय वाद विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करता है और श्री सुशील कुमार केडिया अपने माता पिता स्व. श्री महावीर प्रसाद केडिया व स्व. श्रीमती पन्ना देवी केडिया की स्मृति में पुरस्कार देते हैं। इस वर्ष भी यह आयोजन दिनांक 12.10.2019 को हिंदी भवन में हुआ और महात्मा गांधी के 150वें जन्मोत्सव के सन्दर्भ में  वाद विवाद का विषय था  ‘जीवन की सार्थकता के लिए गांधीजी के सिद्धांतों का अनुकरण आवश्यक है’।

वाद-विवाद में 26 जिलों के स्कूलों से पचास छात्र आये, 25 पक्ष में और 25 विपक्ष में। इन्होने  अपने विचार जोशीले युवा अंदाज में लेकिन मर्यादित भाषा में प्रस्तुत किए। विपक्ष ने भी कहीं भी महामानव के प्रति अशोभनीय भाषा का प्रयोग नहीं किया और अपनी बात पूरी शालीनता से रखी । विषय गंभीर था, विषय वस्तु व्यापक थी, चर्चा के केंद्र बिंदु में ऐसा व्यक्तित्व था जिसे देश विदेश सम्मान की दृष्टी से देखता है और भारत की जनता उन्हें  राष्ट्र पिता कहकर संबोधित करती है। गांधीजी के सिद्धांत भारतीय मनस्वियों के चिंतन पर आधारित हैं, समाज में नैतिक मूल्यों की वकालत करते हैं, विभिन्न धर्मों के सार से सुसज्जित हैं  और इन विचारों पर अनेक पुस्तकें भी उपलब्ध हैं, आये दिन पत्र-पत्रिकाओं में कुछ न कुछ  छपता रहता है। अत: पक्ष के पास बोलने को बहुत कुछ था और उनके तर्क भी जोरदार होने ही थे । दूसरी ओर विपक्ष के पास ऐसे नैतिक मूल्यों, जिनकी शिक्षा का  भारतीय समाज में व्यापक प्रभाव है, के विरोध में तर्क देना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य था, फिर उन्हें लेखों व पुस्तकों से ज्यादा सहयोग नहीं मिलना था अत: उन्हें  अपने तर्क स्वज्ञान व बुद्धि से प्रस्तुत करने थे।

हिन्दी भवन के मंत्री और संचालक श्री कैलाश चन्द्र पन्त ने मुझे, श्री विभांशु जोशी तथा श्री अनिल बिहारी श्रीवास्तव के साथ  निर्णायक मंडल में शामिल किया लेकिन जब  वाद विवाद की विषयवस्तु  मुझे पता चली तो मैं थोड़ा दुविधागृस्त भी हुआ क्योंकि गांधीजी के प्रति मेरी भक्तिपूर्ण आस्था है।  जब हमने छात्रों को सुना तो निर्णय लेने में काफी मशक्कत करनी पडी। विशेषकर कई विपक्षी  छात्रों के तर्कों  ने मुझे आकर्षित किया। आयशा कशिश ने रामचरित मानस से अनेक उद्धरण देकर गांधीजी के सिद्धांत सत्य व अहिंसा को अनुकरणीय मानने से नकारा तो बुरहानपुर की मेघना के तर्क अहिंसा को लेकर गांधीजी की बातों की पुष्टि करते नज़र आये। विपक्ष ने मुख्यत: गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत को आज के परिप्रेक्ष्य में आतंकवाद से लड़ने व सीमाओं की सुरक्षा के लिए अनुकरणीय नहीं माना और पक्ष के लोग इस तर्क का कोई ख़ास खंडन करते न दिखे। कुछ विपक्षी वक्ताओं ने तो तो 1942 में गांधीजी के आह्वान ‘करो या मरो’ को एक प्रकार से  हिंसा की श्रेणी में रखा। अनेक विपक्षी वक्ता  तो इस मत के थे कि हमें आज़ादी दिलाने  में हिंसक गतिविधियों का सर्वाधिक योगदान है।   ऐसे वक्ता कवि की इन पक्तियों  ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल´ से सहमत नहीं दिखे । उनके मतानुसार आज़ाद हिन्द फ़ौज के 26000 शहीद सैनिकों   और सरदार भगत सिंह जैसे अनेक  क्रांतिकारियों का बलिदान युक्त  योगदान देश को आज़ादी दिलाने में है जिसे नकारा नहीं जा सकता। विपक्ष ने गांधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत को भी अनुकरणीय नहीं माना, वक्ताओं के अनुसार इस सिद्धांत के परिपालन से लोगों में धन न कमाने की भावना बलवती होगी और यदि अमीरों के द्वारा कमाया गया धन गरीबों में बांटा जाएगा तो वे और आलसी बनेंगे। विपक्षी वक्ताओं को गांधीजी का ब्रह्मचर्य का सिद्धांत भी पसंद नहीं आया उन्होंने इसे स्त्री पुरुष के आपसी सम्बन्ध व उपस्थित श्रोताओं के इसके अनुपालन न करने से जोड़ते हुए अनुकरणीय नहीं माना। उनके अनुसार यह सब कुछ गांधीजी की कुंठा का नतीजा भी हो सकता है।  पक्ष ने गांधीजी के इस सिद्धांत के आध्यात्मिक पहलू पर जोर दिया और बताने की कोशिश की कि गांधीजी के ब्रह्मचर्य संबंधी प्रयोग हमें इन्द्रीय तुष्टिकरण से आगे सोचते हुए काम, क्रोध, मद व लोभ पर नियंत्रण रखने हेतु प्रेरित करते हैं।  अपरिग्रह को लेकर भी विपक्षी वक्ता मुखर थे वे वर्तमान युग में भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु संम्पति के अधिकतम संग्रहण को बुरा मानते नहीं दिखे। विपक्ष के कुछ वक्ताओं ने गांधीजी की आत्मकथा से उद्धरण देते हुए कहा कि वे कस्तुरबा के प्रति सहिष्णु नहीं थे और न ही उन्होंने अपने पुत्रों की ओर खास ध्यान दिया। हरिलाल का उदाहरण  देते हुए एक वक्ता ने तो यहाँ तक कह दिया कि गजब गांधीजी अपने पुत्र से ही अपने विचारों का अनुसरण नहीं करवा सके तो हम उनके विचारों को अनुकरणीय कैसे मान सकते हैं। औद्योगीकरण को लेकर भी विपक्ष मुखर था। आज उन्हें गांधीजी का चरखा आकर्षित करता नहीं दिखा। छात्र सोचते हैं कि चरखा चला कर सबका तन नहीं ढका जा सकता। वे मानते हैं की कुटीर उद्योग को बढ़ावा देने से अच्छी आमदनी देने वाला रोजगार नहीं मिलेगा, स्वदेशी को बढ़ावा देने से हम विश्व के अन्य देशों का मुकाबला नहीं कर सकेंगे  और न ही हमें नई नई वस्तुओं के उपभोग का मौक़ा मिलेगा।

वादविवाद प्रतियोगिता में गांधीजी के सरदार भगत सिंह को फांसी से न बचा पाने, त्रिपुरी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए नेताजी सुभाषचंद्र बोस के साथ सहयोगात्मक  रुख न अपनाने  व अपना उत्तराधिकारी चुनने में सरदार पटेल की उपेक्षा कर  जवाहरलाल नेहरु का पक्ष लेने को लेकर भी विपक्ष के वक्ताओं ने मर्यादित भाषा में टिप्पणियां की।

पूरे वाद विवाद में पक्ष या विपक्ष ने गांधीजी के सर्वधर्म समभाव, साम्प्रदायिक एकता, गौरक्षा, आदि को लेकर कोई विचार  कोई चर्चा नहीं की शायद यह सब विवादास्पद मुद्दे हैं और छात्र तथा उनके शिक्षकों ने उन्हें इस प्रतियोगिता हेतु मार्गदर्शन दिया होगा इस पर न बोलने की सलाह दी होगी।

वाद विवाद से एक तथ्य सामने आया कि प्रतियोगी सोशल मीडिया में लिखी जा रही निर्मूल बातों से ज्यादा प्रभावित नहीं है। एकाध त्रुटि को अनदेखा कर दिया जाय तो अधिकाँश बाते तथ्यों व संदर्भों पर आधारित थी । पक्ष ने जो कुछ बोला उसे तो हम सब सुनते आये हैं लेकिन विपक्ष की बातों का समुचित समाधान देना आवश्यक है और यह कार्य तो गांधीजी के सिद्धांतों के अध्येताओं को करना ही होगा अन्यथा नई पीढी अपनी शंकाओं को लिए दिग्भ्रमित रही आयेगी। मैंने भी इन प्रश्नों का उत्तर खोजने की कोशिश अपने अल्प अध्ययन से की है ।

यह सत्य है कि गान्धीजी के सिद्धांतों में अहिंसा पर बहुत जोर है। उनकी अहिंसा कायरों का हथियार नहीं है और न ही डरपोक बनने हेतु प्रेरित करती है। गांधीजी की अहिंसा सत्याग्रह और हृदय परिवर्तन के अमोघ अस्त्र से सुसज्जित है। दक्षिण अफ्रीका में तो गांधीजी पर मुस्लिम व ईसाई समुदाय के लोगों ने अनेक बार  प्राणघातक हमले किये पर हर बार गान्धीजी ने ऐसे क्रूर मनुष्यों का ह्रदय परिवर्तन कर अपना मित्र बनाया। भारत की आजादी के बाद जब कोलकाता में साम्प्रदायिक दंगे हुए और अनेक हिन्दुओं के दंगों मे मारे जाने की खबरों में सुहरावर्दी का नाम लिया गया तो गांधीजी ने सबसे पहले उन्हें ही चर्चा के लिए बुला भेजा। दोनों के बीच जो बातचीत हुई उसने सुहरावर्दी को हिन्दू मुस्लिम एकता का सबसे बड़ा पैरोकार बना दिया। गांधीजी ने राष्ट्र की सुरक्षा के लिए आत्म बलिदान की बातें कहीं, जब कबाइली कश्मीर में घुस आये तो तत्कालीन सरकार ने फ़ौज भेजकर मुकाबला किया। इस निर्णय से गांधीजी की भी सहमति थी। हम हथियारों का उत्पादन  राष्ट्र की रक्षा के लिए करें और उसकी अंधी खरीद फरोख्त के चंगुल में न फंसे यही गांधीजी के विचार आज की स्थिति में होते। आंतकवादियों, नक्सलियों, राष्ट्र विरोधी ताकतों की गोली का मुकाबला गोली से ही करना होगा लेकिन बोली का रास्ता भी खुला रहना चाहिए ऐसा कहते हुए मैंने अनेक विद्वान् गांधीजनों को सुना है। हमे 1962 की लड़ाई से सीख मिली और सरकारों ने देश की रक्षा प्रणाली को मजबूत करने के लिए अनेक कदम उठाये। इसके साथ ही बातचीत के रास्ते राजनीतिक व सैन्य स्तर पर भी उठाये गए हैं इससे शान्ति स्थापना में मदद मिली है और 1971 के बाद देश को किसी  बड़े युद्ध का सामना नहीं करना पडा। सभी मतभेद बातचीत से सुलझाए जाएँ यही गांधीजी  का रास्ता है।  बातचीत करो, अपील करो, दुनिया का ध्यान समस्या की ओर खीचों। समस्या का निदान भी ऐसे ही संभव है। हथियारों से हासिल सफलता स्थाई नहीं होती। विश्व में आज तमाम रासायनिक व परमाणु हथियारों को खतम करने की दिशा में प्रगति हो रही है यह सब गांधीजी के शिक्षा का ही नतीजा है। भारत और चीन के बीच अक्सर सीमाओं पर सैनिक आपस में भिड़ते रहते हैं और यदा कदा  तो चीनी सैनिक हमारी भूमि में घुस आते हैं, पर इन सब घटनाओं को  आपसी बातचीत और समझबूझ से ही निपटाया गया है। युद्ध तो अंतिम विकल्प है।

देश की आज़ादी का आन्दोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में लम्बे समय तक चला। इस दौरान गरम दल , नरम दल, हिंसा पर भरोसा रखने वाले अमर शहीद भगत सिंह व आज़ाद सरीखे  क्रांतिकारी और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज ने अपने अपने तरीके से देश की आज़ादी के लिए संघर्ष किया। लगभग सभी विचारों के नेताओं ने  आज़ादी के  आन्दोलन में  महात्मा गांधी के नेतृत्व को स्वीकार किया। स्वयं महात्मा गांधी ने भी समय समय पर  इन सब क्रांतिवीरों के आत्मोत्सर्ग व सर्वोच्च बलदान की भावना की प्रसंशा की थी ।गांधीजी केवल यही चाहते थे कि युवा जोश में आकर हिंसक रास्ता न अपनाएँ। इस दिशा में उन्होंने अनथक प्रयास भी किये, वे स्वयं भी अनेक क्रांतिकारियों से मिले और उन्हें अहिंसा के रास्ते पर लाने में सफल हुए। वस्तुत: सरदार भगत सिंह की फांसी के बाद युवा वर्ग गांधीजी के रास्ते की ओर मुड़ गया इसके पीछे अंग्रेजों का जुल्म नहीं वरन गांधीजी की अहिंसा का व्यापक प्रभाव है।

गांधीजी ने देश के उद्योगपतियों के लिए ट्रस्टीशिप का  सिद्धांत प्रतिपादित किया था। जमना लाल बजाज, घनश्याम दास बिरला आदि ऐसे कुछ देशभक्त उद्योगपति हो गए जिन्होने  गांधीजी के निर्देशों को अक्षरक्ष अपने व्यापार में उतारा। गांधीजी  से प्रभावित इन उद्योगपतियोँ का उद्देश्य  केवल और केवल मुनाफा कमाना नहीं था। गांधीजी चाहते थे कि व्यापारी अनीति से धन न कमायें, नियम कानूनों का उल्लघन न करें, मुनाफाखोरी से बचें और समाज सेवा आदि की भावना के साथ कमाए हुए धन को जनता जनार्दन की भलाई के लिए खर्च करें। गांधीजी का यह सिद्धांत सुविधा-प्राप्त धनाड्य वर्ग को समाप्त करने के समाजवादी विचारों के उलट है। गांधीजी अमीरों के संरक्षण के पक्षधर हैं और मानते थे कि मजदूर और मालिक के बीच का भेद ट्रस्टीशिप के अनुपालन से मिट जाएगा और इससे पूंजीपतियों के विरुद्ध घृणा का भावना समाप्त हो जायेगी और यह सब अहिंसा के मार्ग को प्रशस्त करेगा। गांधीजी मानते थे कि ट्रस्टीशिप की भावना का विस्तार होने से शासन के हाथों शक्ति के केन्द्रीकरण रुक सकता है। आज अजीम प्रेमजी, रतन टाटा, आदि गोदरेज  या बिल गेट्स सरीखे अनेक उद्योगपति हैं जिन्होंने अपने जीवन में अर्जित सम्पति को  समाज सेवा और जनता जनार्दन की भलाई के लिए खर्च करने हेतु ट्रस्ट बनाए हैं।

गांधीजी के बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने अपने पुत्रों की ओर ध्यान नहीं दिया। हरिलाल जो गांधीजी के ज्येष्ठ पुत्र थे उनका आचरण गांधीजी के विचारों के उलट था लेकिन गांधीजी के अनेक आन्दोलनों में, जोकि दक्षिण अफ्रीका में हुए, वे सहभागी थे। भारत में भी यद्दपि हरिलाल यायावर की जिन्दगी जीते थे पर अक्सर बा और बापू से भेंट करने पहुँच जाते। ऐसा ही एक संस्मरण कटनी रेलवे स्टेशन का है जहाँ उन्हें बा को संतरा भेंट करते हुए व बापू से यह कहते हुए दर्शाया गया है कि उनके महान बनने में बा का त्याग है। अपने ज्येष्ठ पुत्र के इस कथन से गांधीजी भी कभी असहमत नहीं दिखे ।  गांधीजी के अन्य तीन पुत्रों सर्वश्री मणिलाल, रामदास व देवदास ने तो बापू के सिद्धांतों के अनुरूप ही जीवन जिया। मणि लाल दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के आश्रमों की देखरेख करते रहे तो राम दास ने अपना जीवन यापन वर्धा में रहकर किया, देवदास गांधी तो हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक रहे। आज गांधीजी के पौत्र प्रपौत्र चमक धमक से दूर रहते हुए सादगी पूर्ण जीवन बिता रहे हैं और उनमे से कई तो अपने अपने क्षेत्र में विख्यात हैं। इन सबका विस्तृत विवरण गांधीजी की प्रपौत्री सुमित्रा कुलकर्णी ( रामदास गांधी की पुत्री ) ने अपनी पुस्तक ‘महात्मा गांधी मेरे पितामह’ में बड़े विस्तार से दिया है।

अपनी पत्नी कस्तूरबा को लेकर गांधीजी के विचारों में समय समय के साथ परिवर्तन आया है। कस्तूरबा तो त्यागमयी भारतीय पत्नी की छवि वाली अशिक्षित महिला थीं। विवाह के आरम्भिक दिनों से लेकर दक्षिण अफ्रीका के घर में पंचम कुल के अतिथि का पाखाना साफ़ करने को लेकर गांधीजी अपनी पत्नी के प्रति दुराग्रही दीखते हैं।  लेकिन पाखाना साफ़ करने के विवाद ने दोनों के मध्य जो सामंजस्य स्थापित किया उसकी मिसाल तो केवल कुछ ऋषियों के गृहस्त जीवन में ही दिखाई देती है। कस्तूरबा, बापू के प्रति पूरी तरह समर्पित थी। गांधीजी ने अपने जीवन काल में जो भी प्रयोग किये उनको कसौटी पर कसे जाने के लिए कस्तूरबा ने स्वयं को प्रस्तुत किया। गांधीजी के ईश्वर अगर सत्य हैं तो कस्तूरबा की भक्ति हिन्दू देवी देवताओं के प्रति भी थी। गांधीजी ने कभी भी उनके वृत, वार-त्यौहार में रोड़े नहीं अटकाए।  जब कभी कस्तूरबा बीमार पडी गांधीजी ने उनकी परिचर्या स्वयं की। चंपारण के सत्याग्रह के दौरान महिलाओं को शिक्षित करने का दायित्व गांधीजी ने अनपढ कस्तूरबा को ही दिया था। गांधीजी ने कस्तूरबा के योगदान को सदैव स्वीकार किया है।

छात्रों के मन में गांधीजी के यंत्रों व औद्योगीकरण को लेकर विचारों के प्रति भी अनेक आशंकाएं हैं।  कुटीर व लघु उद्योग धंधों के हिमायती गांधीजी को युवा पीढी  यंत्रों व बड़े उद्योगों का घोर विरोधी मानती है।  वास्तव मैं ऐसा है नहीं, हिन्द स्वराज में गांधीजी ने यंत्रों को लेकर जो विचार व्यक्त किये हैं और बाद में विभिन्न लेखों, पत्राचारों व साक्षात्कार  के माध्यम से अपनी बात कही है वह सिद्ध करती है कि गांधीजी ऐसी मशीनों के हिमायती थे जो मानव के श्रम व समय की बचत करे व रोजगार को बढ़ावा देने में सक्षम हो। वे चाहते थे कि मजदूर से उसकी ताकत व क्षमता से अधिक कार्य न करवाया जाय।

गांधीजी ने मशीनों का विरोध स्वदेशी को प्रोत्साहन देने के लिए नहीं वरन देश को गुलामी की जंजीरों का कारण मानते हुए किया था। वे तो स्वयं चाहते थे कि मेनचेस्टर से कपड़ा बुलाने के बजाय देश में ही मिलें लगाना सही कदम होगा। यंत्रीकरण और तकनीकी के बढ़ते प्रयोग ने रोज़गार के नए क्षेत्र खोले हैं। इससे पढ़े लिखे लोगों को रोजगार मिला है लेकिन उन लाखों लोगो का क्या जो किसी कारण उचित शिक्षा न प्राप्त कर सके या उनका कौशल उन्नयन नहीं हो सका। यंत्रीकरण का सोच समझ कर उपयोग करने से ऐसे अकुशल श्रमिकों की  आर्थिक हालत भी सुधरेगी। प्रजातंत्र में सबको जीने के लिए आवश्यक संसाधन और अवसर तो मिलने ही चाहिए।

अमर शहीद भगत सिंह की फांसी को लेकर हमें एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि स्वयं भगत सिंह अपने बचाव के लिए किसी भी आवेदन/अपील/पैरवी के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने अपने पिता किशन सिंह जी को भी दिनांक 04.10.1930 को कडा पत्र लिखकर अपनी पैरवी हेतु उनके द्वारा ब्रिटिश सरकार को दी गयी याचिका का विरोध किया था।दूसरी तरफ अंग्रेजों ने यह अफवाह फैलाई कि गांधीजी अगर वाइसराय से अपील करेंगे तो क्रांतिकारियों की फांसी की सजा माफ़ हो जायेगी। ऐसा कर अंग्रेज राष्ट्रीय आन्दोलन को कमजोर करना चाहते थे। गांधीजी ने लार्ड इरविन से व्यक्तिगत मुलाक़ात कर फांसी की सजा को स्थगित करने की अपील भी की थी और वाइसराय ने उन्हें आश्वासन भी दिया था  पर उनके इन प्रयासों को अंग्रेजों की कुटिलता के कारण सफलता नहीं मिली। नेताजी सुभाष बोस व गांधीजी के बीच बहुत प्रेम व सद्भाव था। नेताजी का झुकाव फ़ौजी अनुशासन की ओर शुरू से था। कांग्रेस के 1928 के कोलकाता अधिवेशन में स्वयंसेवकों को फ़ौजी ड्रेस में सुसज्जित कर नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष को सलामी दिलवाई थी, जिसे गांधीजी ने पसंद नहीं किया। त्रिपुरी कांग्रेस के बाद तो मतभेद बहुत गहरे हुए और नेताजी ने अपना रास्ता बदल लिया तथापि गांधीजी के प्रति उनकी श्रद्धा और भक्ति में कोई कमी न आई। महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहने वाले प्रथम भारतीय सुभाष बोस ही थे तो 23 जनवरी 1948 गांधीजी ने नेताजी के जन्मदिन पर उनकी राष्ट्रभक्ति व त्याग और बलिदान की भावना की भूरि भूरि प्रशंसा की थी।  पंडित जवाहरलाल नेहरु व सरदार वल्लभ भाई पटेल स्वाधीनता के अनेक पुजारियों में से ऐसे दो दैदीप्यमान नक्षत्र हैं जिन पर गांधीजी का असीम स्नेह व विश्वास था। जब अपना उत्तराधिकारी चुनने की बात आयी होगी तो गांधीजी भी दुविधागृस्त रहे होंगे। सरदार पटेल गांधीजी के कट्टर अनुयाई थे और शायद ही कभी उन्होंने गांधीजी की बातों का विरोध किया हो। सरदार पटेल कड़क स्वभाव के साथ साथ रुढ़िवादी परम्पराओं के भी विरोधी न थे। उनकी ख्याति अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भी कम ही थी। दूसरी ओर नेहरूजी मिजाज से पाश्चात्य संस्कृति में पले  बढे ऐसे नेता थे जिनकी लोकप्रियता आम जनमानस में सर्वाधिक थी।उनके परिवार के सभी सदस्य वैभवपूर्ण जीवन का त्याग कर स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े थे और अनेक बार जेल भी गए थे ।  वे स्वभाव से कोमल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते थे। उनका  अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के नेताओं से अच्छा परिचय था और स्वतंत्र भारत को, जिसकी छवि पश्चिम में सपेरों के देश के रूप में अधिक थी, ऐसे ही नेतृत्व की आवश्यकता थी । अपनी कतिपय असफलताओं के बावजूद पंडित नेहरु ने देश को न केवल कुशल नेतृत्व दिया, अनेक समस्याओं से बाहर निकाला और देश के विकास में दूरदृष्टि युक्त महती योगदान दिया। इसलिए उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता भी कहा जाता है।

मैंने छात्रों और युवाओं के मनोमस्तिष्क में गांधीजी को लेकर घुमड़ते  कुछ प्रश्नों का उत्तर खोजने  की  कोशिश की है। गांधीजी ने अपने विचारों को सबसे पहले हिन्द स्वराज और फिर सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा में लिखा। बाद के वर्षों में वे यंग इंडिया और हरिजन में भी लिखते रहे अथवा अपने भाषणों और पत्राचार के द्वारा स्वयं  के विचारों की व्याख्या करते रहे। गांधीजी के विचार, उनके प्रयोगों का नतीजा थे और अपने  विचारों तथा मान्यताओं पर वे आजीवन  दृढ़ रहे। गांधीजी पर अनेक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय विद्वानों ने आलोचनात्मक पुस्तकें लिखी हैं। इन सबको पढ़ पाना फिर उनका यथोचित विश्लेषण करना  सामान्य मानवी के बस में नहीं है। हमें आज भी गांधीजी के विचारों को बारम्बार पढने, उनका मनन और चिंतन करने की आवश्यकता है। विश्व की अनेक परेशानियों का हल आखिर गांधीजी सरीखे महामानव ही दिखा सकते हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – भाग्यं फलति सर्वत्र ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – भाग्यं फलति सर्वत्र

 

“कर्म मैं करता हूँ, श्रेय तुम्हें मिलता है। आख़िर भाग्य के स्वामी हो न”, श्रम ने शिकायती लहज़े में कहा। प्रारब्ध मुस्कराया, बोला, ” भाग्य के स्वामी का भी अपना भाग्य होता है जो वांछित-अवांछित सब अपने माथे ढोता है।”

हाथ पकड़कर प्रारब्ध, श्रम को वहाँ ले आया जहाँ आलीशान बंगला और फटेहाल झोपड़ी विपरीत ध्रुवों की तरह आमने-सामने खड़े थे। दोनों में एक-एक जोड़ा रहता था। झोपड़ीवाला जोड़ा रोटी को मोहताज़ था, बंगलेवाले के यहाँ ऐश्वर्य का राज था।

ध्रुवीय विपरीतता का एक लक्षणीय पहलू और था। झोपड़ी को संतोष, सहयोग और शांति का वरदान था। बंगला राग, द्वेष और कलह से अभिशप्त और हैरान था।

झोपड़ीवाले जोड़े ने कमर कसी। कठोर परिश्रम को अस्त्र बनाया। लक्ष्य स्पष्ट था, आलीशान होना। कदम और लक्ष्य के बीच अंतर घटता गया। उधर बंगलेवाला जोड़ा लक्ष्यहीन था। कदम ठिठके रहे। अभिशाप बढ़ता गया।

काल चलता गया, समय भी बदलता गया। अब बंगला फटेहाल है, झोपड़ी आलीशान है।

झोपड़ी और बंगले का इतिहास जाननेवाले एक बुजुर्ग ने कहा, “अपना-अपना प्रारब्ध है।” फीकी हँसी के साथ प्रारब्ध ने श्रम को देखा। श्रम ने सहानुभूति से गरदन हिलाई।

आजका दिन संकल्पवान हो।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(रात्रि 1: 38 बजे, 13.10.2019)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – ☆ जन्म दिवस विशेष ☆ एक लेखक के रूप में डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जन्म दिवस विशेष 
विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं, जिन्होने  डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जी के जन्मदिवस  के विशेष अवसर पर इस  ज्ञानवर्धक आलेख की रचना की है जिसमें उन्होंने उनके लेखकीय पक्ष की विस्तृत चर्चा की है। 

 

☆ एक लेखक के रूप में…..डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम 

 

शाश्वत सत्य है शब्द मरते नहीं. इसीलिये शब्द को हमारी संस्कृति में ब्रम्ह कहा गया है. यही कारण है कि स्वयं अपने जीवन में विपन्नता से संघर्ष करते हुये भी जो मनीषी  निरंतर रचनात्मक शब्द साधना में लगे रहे, उनके कार्यो को जब साहित्य जगत ने समझा तो  वे आज लब्ध प्रतिष्ठित हस्ताक्षर के रूप में स्थापित हैं. लेखकीय गुण, वैचारिक अभिव्यक्ति का ऐसा संसाधन है जिससे लेखक के अनुभवो का जब संप्रेषण होता है, तो वह हर पाठक के हृदय को स्पर्श करता है. उसे प्रेरित करता है, उसका दिशादर्शन करता है. इसीलिये पुस्तकें सर्व श्रेष्ठ मित्र कही जाती हैं.केवल किताबें ही हैं जिनका मूल्य निर्धारण बाजारवाद के प्रचलित सिद्धांतो से भिन्न होता है. क्योकि किताबो में सुलभ किया गया ज्ञान अनमोल होता है.  आभासी डिजिटल दुनिया के इस समय में भी किताबो की हार्ड कापी का महत्व इसीलिये निर्विवाद है, भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम स्वयं एक शीर्ष वैज्ञानिक थे, उनसे अधिक डिजिटल दुनिया को कौन समझता पर फिर भी अपनी पुस्तकें उन्होने  साफ्ट कापी के साथ ही प्रिंट माध्यम से भी  सुलभ करवाईं हैं.उनकी किताबो का अनुवाद अनेक भाषाओ में हुआ है. दुनिया के सबसे बड़े डिजिटल बुक स्टोर अमेजन पर कलाम साहब की किताबें विभिन्न भाषाओ में सुलभ हैं.  कलाम युवा शक्ति के प्रेरक लेखक के रूप में सुस्थापित हैं.

अवुल पकिर जैनुलअबिदीन अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर 1931 को तमिलनाडु के रामेश्वरम में एक साधारण परिवार में हुआ। उनके पिता जैनुलअबिदीन एक नाविक थे और उनकी माता अशिअम्मा एक गृहणी थीं। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थे इसलिए उन्हें छोटी उम्र से ही काम करना पड़ा। अपने पिता की आर्थिक मदद के लिए बालक कलाम स्कूल के बाद समाचार पत्र वितरण का कार्य करते थे। अपने स्कूल के दिनों में कलाम पढाई-लिखाई में सामान्य थे पर नयी चीज़ सीखने के लिए हमेशा तत्पर और तैयार रहते थे। उनके अन्दर सीखने की भूख थी और वो पढाई पर घंटो ध्यान देते थे। उन्होंने अपनी स्कूल की पढाई रामनाथपुरम स्च्वार्त्ज़ मैट्रिकुलेशन स्कूल से पूरी की और उसके बाद तिरूचिरापल्ली के सेंट जोसेफ्स कॉलेज में दाखिला लिया, जहाँ से उन्होंने सन 1954 में भौतिक विज्ञान में स्नातक किया। उसके बाद वर्ष 1955 में वो मद्रास चले गए जहाँ से उन्होंने एयरोस्पेस इंजीनियरिंग की शिक्षा ग्रहण की। वर्ष 1960 में कलाम ने मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी से इंजीनियरिंग की पढाई पूरी की। उन्होंने देश के कुछ सबसे महत्वपूर्ण संगठनों (डीआरडीओ और इसरो) में वैज्ञानिक के रूप में कार्य किया।  वर्ष 1998 के पोखरण द्वितीय परमाणु परिक्षण में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ कलाम भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम और मिसाइल विकास कार्यक्रम के साथ भी जुड़े थे। इसी कारण उन्हें ‘मिसाइल मैन’  कहा गया.  वर्ष 2002 में  कलाम भारत के ११ वें राष्ट्रपति चुने गए और 5 वर्ष की अवधि की सेवा के बाद, वह शिक्षण, लेखन, और सार्वजनिक सेवा में लौट आए। उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

राष्ट्रपति रहते हुये वे बच्चो से तथा समाज से जुड़ते गये, उन्हें जनता का राष्ट्रपति कहा गया. राष्ट्रपति पद से सेवामुक्त होने के बाद डॉ कलाम अपने मन की मूल धारा शिक्षण, लेखन, मार्गदर्शन और शोध जैसे कार्यों में व्यस्त रहे और भारतीय प्रबंधन संस्थान, शिल्लांग, भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद, भारतीय प्रबंधन संस्थान, इंदौर, जैसे संस्थानों से विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर जुड़े रहे।  प्रायः विश्वविद्यालयो के दीक्षांत समारोहों में वे सहजता से पहुंचते तथा नव युवाओ को प्रेरक वक्तव्य देते.  वे भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलोर के फेलो, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ स्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी, थिरुवनन्थपुरम के चांसलर, अन्ना यूनिवर्सिटी, चेन्नई, में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग के प्रोफेसर भी रहे।

उन्होंने आई. आई. आई. टी. हैदराबाद, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी और अन्ना यूनिवर्सिटी में सूचना प्रौद्योगिकी भी पढाया. वर्ष 2011 में प्रदर्शित हुई हिंदी फिल्म ‘आई ऍम कलाम’ उनके जीवन पर बनाई गई.

एक लेखक के रूप में अपनी पुस्तको “अदम्य साहस” जो जनवरी २००८ में प्रकाशित हुई, इस किताब में देश के प्रथम नागरिक के दिल से निकली वह आवाज है, जो गहराई के साथ देश और देशवासियों के सुनहरे भविष्य के बारे में सोचती है। अदम्य साहस जीवन के अनुभवों से जुड़े संस्मरणों, रोचक प्रसंगों, मौलिक विचारों और कार्य-योजनाओं का प्रेरणाप्रद चित्रण है।    उनकी एक और किताब “छुआ आसमान” २००९ में छपी जिसमें उनकी आत्मकथा है जो उनके अद्भुत जीवन का वर्णन करती है. अंग्रेजी में इंडोमिटेबल स्पिरिट शीर्षक से उनकी किताब २००७ में छपी थी जिसे विस्व स्तर पर सराहा गया. गुजराती में २००९ में “प्रज्वलित मानस” नाम से इसका अनुवाद छपा. “प्रेरणात्मक विचार” नाम से प्रकाशित कृति में वे लिखते हैं,  आप किस रूप में याद रखे जाना चाहेंगे ? आपको अपने जीवन को कैसा स्वरूप देना है, उसे एक कागज़ पर लिख डालिए, वह मानव इतिहास का महत्त्वपूर्ण पृष्ठ हो सकता है.

मैने कलाम साहब को अपनी बड़ी बिटिया अनुव्रता के एम बी ए के दीक्षान्त समारोह में मनीपाल के तापमी इंस्टीट्यूट में बहुत पास से सुना था, तब उन्होने नव डिग्रीधारी युवाओ को यही कहते हुये सम्बोधित किया था तथा उनहें देश प्रेम की शपथ दिलवाई थी.

भारत की आवाज़, हम होंगे कामयाब, आदि शीर्षको से उनकी मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई किताबें ‘इंडिया 2020: ए विज़न फॉर द न्यू मिलेनियम’, ‘विंग्स ऑफ़ फायर: ऐन ऑटोबायोग्राफी’, ‘इग्नाइटेड माइंडस: अनलीशिंग द पॉवर विदिन इंडिया’, ‘मिशन इंडिया’, आदि किताबें विभिन्न प्रकाशको ने प्रकाशित की हैं. ये सभी किताबें सहज  शैली, पाठक से सीधा संवाद करती भाषा और उसके मर्म को छूती संवेदना के चलते बहुपठित हैं. बहु चर्चित तथा प्रेरणा की स्त्रोत हैं.

न केवल कलाम साहब स्वयं एक अच्छे लेखक के रूप में सुप्रतिष्ठित हुये हें बल्कि उन पर, उनकी कार्य शैली, उनके सादगी भरे जीवन पर ढ़ेरो किताबें अनेको विद्वानो तथा उनके सहकर्मियो ने लिखी हैं.

27 जुलाई, 2015, को शिलोंग, मेघालय में आई आई एम के युवाओ को संबोधित करते हुये ही, देश की संसद न चल पाने की चिंता और अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का समाधान खोजते हुये उनका देहाचवसान हो गया पर एक लेखक के रूप में अपने विचारो के माध्यम से वे सदा सदा के लिये अमर हो गये हैं.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि –मानस प्रश्नोत्तरी – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – मानस प्रश्नोत्तरी

*प्रश्न*- श्रेष्ठ मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- पहले मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए।
*प्रश्न*- मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करना चाहिए।
*प्रश्न*- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- परकाया प्रवेश आना चाहिए।
*प्रश्न*- परकाया प्रवेश के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- अद्वैत भाव जगाना चाहिए।
*प्रश्न*- अद्वैत भाव जगाने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- जो खुद के लिए चाहते हो, वही दूसरों को देना आना चाहिए क्योंकि तुम और वह अलग नहीं हो।
*प्रश्न*- ‘मैं’ और ‘वह’ की अवधारणा से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- सत्संग करना चाहिए। सत्संग ‘मैं’ की वासना को ‘वह’ की उपासना में बदलने का चमत्कार करता है।
*प्रश्न*- सत्संग के लिए क्या करना चाहिए?
*उत्तर*- अपने आप से संवाद करना चाहिए। हरेक का भीतर ऐसा दर्पण है जिसमें स्थूल और सूक्ष्म दोनों दिखते हैं। भीतर के सच्चिदानंद स्वरूप से ईमानदार संवाद पारस का स्पर्श है जो लौह को स्वर्ण में बदल सकता है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – शरद पूर्णिमा विशेष – ☆ शरद पूर्णिमा – एक तथ्यात्मक विवेचना ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “शरद पूर्णिमा  – एक तथ्यात्मक विवेचना”।  यह आलेख उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक  का एक महत्वपूर्ण  अंश है। इस आलेख में आप  नवरात्रि के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।  आप पाएंगे  कि  कई जानकारियां ऐसी भी हैं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं।  श्री आशीष कुमार जी ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक रूप से शोध कर इस आलेख एवं पुस्तक की रचना की है तथा हमारे पाठको से  जानकारी साझा  जिसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। )

 

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☆ “शरद पूर्णिमा   – एक तथ्यात्मक विवेचना”।

 

आज शरद पूर्णिमा है मेरी पुस्तक पूर्ण विनाशक में से शरद पूर्णिमा पर एक लेख :

क्या आप जानते हैं कि एक पूर्णिमा या पूर्णिमा की रात्रि है जो दशहरा और दिवाली के बीच आती है, जिसमें चंद्रमा पुरे वर्ष में पृथ्वी के सबसे नज़दीक और सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। इस दिन लोग चंद्रमा की रोशनी की पूर्णता प्राप्त करने के लिए कई अनुष्ठान करते हैं क्योंकि इसमें उपचार गुण होते हैं । इसे शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरी पूर्णिमा (शब्द ‘ कोजागरी’ का अर्थ है ‘जागृत कौन है’ अर्थात ‘कौन जाग रहा है?’) या रास पूर्णिमा भी कहते हैं। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। मान्यता है इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात्रि भर चाँदनी में रखने का विधान है । कुछ लोग मानते हैं कि इस रात्रि देवी लक्ष्मी लोगों के घर का दौरा करने के लिए जाती है, और उन लोगों पर खुशी दिखाती है जो उन्हें इस रात्रि जाग कर देवी लक्ष्मी की पूजा करते हुए मिलते हैं । इसके पीछे एक लोकप्रिय कथा भी है। एक बार एक राजा एक महान वित्तीय संकट में था। तो रानी, अपने पति की सहायता करने के लिए, पूरी रात्रि जागकर देवी लक्ष्मी की पूजा करती है ।जिससे देवी लक्ष्मी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और राजा फिर से धन धन्य से पूर्ण हो जाता है ।

इसे कौमुदी (अर्थ : चन्द्रमा का प्रकाश) उत्सव भी कहा जाता है और इसे दैवीय रास लीला की रात्रि माना जाता है । शब्द, रास का अर्थ “सौंदर्यशास्त्र” और लीला का अर्थ “अधिनियम” या “खेल” या “नृत्य” है । यह हिंदू धर्म की एक अवधारणा है, जिसके अनुसार गोपियों के साथ भगवान कृष्ण के “दिव्य प्रेम” का खेल दर्शया जाता है ।

गोपी शब्द गोपाला शब्द से उत्पन्न एक शब्द है जो गायों के झुंड के प्रभारी व्यक्ति को निरूपित करता है । हिंदू धर्म में भगवत पुराण और अन्य पुराणिक कहानियों में वर्णित विशेष रूप से नाम गोपीका (गोपी का स्त्री रूप) का प्रयोग आमतौर पर भगवान कृष्ण की बिना शर्त भक्ति (भक्ति) अपनाने वाली गाय चराने वाली लड़कियों के समूह के संदर्भ में किया जाता है । इस समूह की एक गोपी को हम सभी राधा (या राधिका) के रूप में जानते हैं। वृंदावन में भगवान कृष्ण के साथ रास करने वाली 108 गोपीका बताई गयी हैं । भगवान कृष्ण ने राधा और वृंदावन की अन्य गोपियों के साथ दिव्य रास लीला इस शरद पूर्णिमा की रात्रि ही की थी । भगवान कृष्ण ने खुद को उनमें से प्रत्येक गोपी के साथ नृत्य करने के लिए अपनी प्रतिलिपियाँ बनायीं और इसी रात्रि भगवान कृष्ण ने अपने भक्ति रस का प्रदर्शन राधा और अन्य गोपियों के साथ रास-लीला करके किया । यह दिन प्रेमियों द्वारा भी मनाया जाता है। प्रेमी जोड़े पूर्णिमा की इस रात्रि को एक-दूसरे के लिए अपना प्यार व्यक्त करते हैं । आज भी अगर कोई वृंदावन के निधिवन जाता है, और शरद पूर्णिमा की रात्रि वहाँ पर रहता है, तो प्रेम का विशेष रस निधिवन के अंदर उपस्थित वृक्षों से बहने लगता हैं जो किसी भी व्यक्ति के भाव को तुरंत प्रेम के दिव्य रस में बदल देता है। यदि वह व्यक्ति शुद्ध है और खुद को दूसरे के लिए समर्पित करता है। एवं वह जीवन में दूसरों के प्रति घृणा नहीं करता है। तो निधिवन में रात्रि को प्यार की एक सकारात्मक ऊर्जा उसके शरीर से चारों ओर बहने लगती है। लेकिन अगर कोई रात्रि में बुरे इरादे से जो शारीरिक रूप से या मानसिक रूप से शुद्ध नहीं है, वह निधिवन में जाता है तो वह मर जाता है या पागल हो जाता है”

‘निधि’ का अर्थ है खजाना और ‘वन’ का अर्थ ‘वन या जंगल’ है, इसलिए ‘निधिवन’ का अर्थ है वन का खजाना ऐसे ही ‘वृंदा’ का अर्थ फूलों का समूह है, इसलिए ‘वृंदावन’ का अर्थ कई प्रकार के फूलों से भरा वन है”.

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #19 – घरेलू बजट ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “ घरेलू बजट” ।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 19 ☆

 

☆  घरेलू बजट 

 

हिन्दू कलैण्डर के हिसाब से दीपावली से दीपावली तक बही खाता रखा जाता है, प्रायः आय व्यय की नई बही बनाकर, उसकी पूजा करके दूकानदार दीपावली के बाद से नया खाता सुरू करते हैं। अंग्रेजी कैलेण्डर के हिसाब से शासकीय रूप से १ अप्रैल से ३१ मार्च का समय वित्त वर्ष के रूप में माना जाता है। यही कारण है कि राज्य व केंद्र सरकार फरवरी के महीने में सदन में नये वित्तीय वर्ष के लिये बजट प्रस्तुत करती हैं।

बजट का मतलब होता है आमदनी व खर्च का अनुमान.इन दिनो अखबारो, व समाचारो में प्रायः बजट की चर्चा पढ़ने सुनने को मिल जाती है। क्या आपने कभी अपने घर का बजट बनाया है ? आपकी मासिक आमदनी कहां खर्च होती है? क्या आपने कभी इस बात का हिसाब लगाया है कि आपके घरेलू खर्चो पर आपकी आय का कितना हिस्सा खर्च हो रहा है? भविष्य के लिये आप कितनी बचत कर रही हैं? आप ही अपने घर की गृह मंत्री और वित्त मंत्री भी हैं अतः घर के बजट बनाने और उसे क्रियांवित करने की जबाबदारी भी आपकी ही है।

घरेलू बजट बनाने का अर्थ घर के सभी खर्चों का हिसाब लगाने से कहीं बढ़कर है। इसके जरिए आप हिसाब लगा सकती हैं कि आपकी आय में से कितना खर्च होता है और कितना इसमें से बचाया जा सकता है। समय पर बच्चो की फीस, बिजली, पानी, अखबार, दूध किराने के बिलों का भुगतान करना, कर्जों का सही समय पर निपटारा करना और अपने बचत, निवेश लक्ष्यों को हासिल करना भी घरेलू बजट के अंतर्गत आता है।

घर का बजट बनाने का सबसे सही उपाय है कि आप खर्चों के लिए अलग-अलग लिफाफे बनाएं (किराए, बिजली बिल, कार ईएमआई इत्यादि) इसके जरिए आप बिल्कुल सही तरीके से जान पाएंगे कि कि कितना पैसा किस मद पर खर्च हो रहा है। और अगर कुछ बचता है तो आप बची हुई राशि को अगले महीने के लिए बचाकर रख सकते हैं या फिर अपनी बचत के रूप में अलग भी रख सकते हैं।

योजना बनाने से शुरूआत करें

शुरूआत के लिए अपनी छोटी से बड़ी जरूरतों और इच्छाओं की लिस्ट बनाकर देखें। खर्चों को जरूरतों और चाहतों के बीच बांटने से आपको ज्ञात होगा कि जीने के लिए किन चीजों की जरूरत है और कौन-कौन से खर्चे सिर्फ आपकी जीवन-शैली को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक हैं।

बजट का एक उपयुक्त फॉर्मेट बनाएं

आपको अपनी मासिक आय के हिसाब से चलना होगा और इसके आधार पर ही लागत निकालनी होगी। तो सारी अंकगणना और हिसाब-किताब इस तरह से करें कि आपके साल भर का बजट तैयार हो जाए। आमदनी के रूप में वेतन, बच्चो को मिलने वाली स्कालरशिप, मकान किराया, अन्य संभावित इनकम, आदि को एक ओर लिखें। दूसरी ओर की लिस्ट बड़ी होगी, घर के सभी सदस्यो के साथ बैठकर नियमित व आकस्मिक खर्चो को सूची बद्ध करें पिछले साल हुये खर्चो को संभावित मंहगाई के कारण थोड़ा बढ़ाकर जोड़ें। इसके बाद देखें कि आपकी सालाना आमदनी में ये फिट हो रहा है या नहीं।

सिर्फ बजट बनाना ही काफी नहीं है, इसे देखें कि आपका बजट केवल कागजों पर ही नहीं बल्कि असली जिंदगी में भी सही चल रहा है या नहीं। एक सही बजट वही है जो देखने में भले ही साधारण हो लेकिन आपकी आवश्यकताओं को पूरा करने में सफल साबित हो।हर थोड़े दिनों बाद बजट का विश्लेषण भी कर सकते हैं।

आकस्मिक खर्चों के लिए तैयार रहें…

कार मरम्मत, चिकित्सा खर्च, शादी और जन्मदिन, घरेलू उपकरणों का रख-रखाव, आकस्मिक यात्राएं ऐसे खर्च हैं जिनके लिए आपके बजट में कुछ स्थान जरूर होना चाहिए।

जिम्मेदारियां बांटे-

अगर आपके परिवार में वयस्क और युवा लोग हैं तो बेहतर होगा कि उन्हें भी इस बात की जानकारी हो कि एक पूरे महीने मासिक आमदनी को कैसे चलाया जाता है। इसके अलावा अगर आपके घर में बच्चे हैं तो उन्हें भी इसकी जानकारी दें और सिखाएं कि बजट कैसे बनाया जाता है। आप निश्चित ही ये देखकर हैरान होंगे कि आपके बच्चों के पास कितने नए और उपयोगी सुझाव हैं।

लक्ष्य निर्धारित करें

हर महीने कुछ पैसे बचाने का लक्ष्य बनाएं और इसके जरिए कुछ हासिल करने पर खुशी महसूस करें। चाहे वो कोई मोबाइल हो, या छुट्टी पर बाहर जाने का प्रोग्राम हो। इसके लिए एक तरीका है कि आप छोटी-छोटी चीजों के लिए क्रेडिट कार्ड के इस्तेमाल से बचें और ईएमआई पर वस्तुएं खरीदनें से बचें।

बजट बनाने का मतलब ये नहीं है कि आप किसी फंदे में फंस गए हैं। ये आपकी आर्थिक स्वतंत्रता और सहूलियत के लिए होना चाहिए ना कि कोई बंधन। एक अच्छा बजट आपको पैसे पर नियंत्रण के रूप में बड़ी ताकत देता है। इसके जरिए आप अपने खर्चों को अधिक तर्कसंगत बनाते हैं।

आपने सुना होगा कि केंद्र सरकार के खर्चे बढ़ गए हैं। सरकार इन खर्चो को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है। इसी तरह आप भी अपने खर्चो को नियंत्रित करें।

प्राथमिकताएं तय करें

सरकार अपने बजट में प्राथमिकता के क्षेत्र तय करती है। वो स्वास्थ्य, शिक्षा आदि को इस क्षेत्र में रखती है। आपको भी अपने खर्चे की प्राथमिकताएं जरूर तय कर लेनी चाहिए। मसलन अगर आपकी प्राथमिकता ये है कि बच्चो को अच्छी शिक्षा मिले  तो फिर उस पर खर्च करना जरूरी है। अगर आपने कर्ज ले रखा है, तो उसके भुगतान को भी नहीं भूलना चाहिए।

हर साल बजट बनाएं

बजटिंग को आदत में शामिल करें। अगर इसमें कुछ वक्त भी लगे और कुछ झंझट समझ में आए, तो भी इस काम को करें। अगर आपको इसमें कुछ दिक्कत समझ में आती है, तो इसे आसान बनाएं। खर्चो को लिखें। अगर आप ऐसा नहीं करते हैं, तो आप इसके लिए गंभीर नहीं हैं। इसके लिए आप विशेषज्ञ की सलाह भी ले सकते हैं। जब भी आपको बोनस या अतिरिक्त मुनाफा हो, तो बड़े खर्चो के लिए पैसा बचाएं। मसलन छुट्टियां बिताने के लिए या फिर त्यौहारो पर होने वाले खर्चे के लिए पैसा बचाएं। बचत भी आमदनी ही है।

कहावत है कि जितनी चादर हो पैर उतने ही फैलाने चाहिये, बजट बनाने से आपको अपनी चादर का आकार स्पष्ट रूप से मालूम होता है फिर आप यह तय कर सकती हैं कि आपको चादर बड़ी करनी जरूरी है या पैर सिकोड़कर काम चलाया जा सकता है।

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #16 – संजय दिव्यकर्ण है ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 16☆

 

☆ संजय दिव्यकर्ण है ☆

एक मणिकर्णिका घाट है जहाँ शवों का अहर्निश दाह है। निरंतर दहकती है चिता। एक माधवी की कोख है जो हर प्रसव के बाद अक्षता है। कोख का हत्यारा एक अश्वत्थामा है जो चिरंजीव होने का शाप ढोता है। एक ययाति है जो चिरयुवा होने की तृष्णा में अपनी ही संतानों के हिस्से का यौवन भी भोगता है।….जन्म अक्षय है, मृत्यु अनादि है। हरियाली का विस्तृत भाल है, सूखा विकराल है। बाढ़ है, पानी है, कभी अतिवृष्टि कभी अनावृष्टि की कहानी है। बंजर पत्थर हैं, उपजाऊ मिट्टी है। जमे रंग, उड़े ढंग हैं। बाल्यावस्था है, यौवनावस्था है, जरावस्था है। हँसना है, रोना है, काटना है, बोना है। मिलन है, विरह है, प्रेम है, घृणा है। मिठास है, कटुता है, मित्रता है, शत्रुता है। आदमी है, आदमियों का मेला है, आदमी अकेला है। चर है, अचर है, चराचर है। अर्जुन का याचक स्वरूप है, योगेश्वर का विराट रूप है। चौरासी की परिक्रमा है, चौरासी का ही फेरा है। सागर यहाँ, गागर यहाँ। अर्पण यहाँ, तर्पण यहाँ। ब्रह्मांड यहीं  दिखता है, हर आँख में एक ‘संजय’ बसता है।

संजय दिव्यकर्ण है, विषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, ज्ञानसंन्यासयोग, अठारह योग सुनता है, अठारह अक्षौहिणी की विनाशकथा सुनाता है। संजय दिव्यदृष्टा है, अच्युत के मुख से जन्म पाती सृष्टि को देखता है, अनिरुद्ध के मुख में समाती सृष्टि को दिखाता है। हरेक सुनता है, हरेक देखता है, कोई-कोई ही समझता है, नासमझी से महाभारत घटता है।

सुन सको, देख सको, समझ सको, बात कर सको अपने संजय से तो अवश्य करो। हो सकता है कि युधिष्ठिर न हुआ जा सके पर दुर्योधन होने से अवश्य बचा जा सकता है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना-‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विश्वास बनाम बर्दाश्त ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं. आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  का रिश्तों को लेकर एक बेहद संवेदनात्मक एवं शिक्षाप्रद आलेख “विश्वास बनाम बर्दाश्त”.  रिश्तों की बुनियाद ही विश्वास पर टिकी होती है.  रिश्तों में एक बार भी शक की दीमक लग गई तो रिश्तों की दीवार ढहने में कोई समय नहीं लगता.   कहते हैं कि – शक की बीमारी का इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं था।  डॉ मुक्ता जी  ने वर्तमान समय में  रिश्तों की अहमियत, उन्हें निभाने की कला एवं रिश्तों में कड़वाहट आने से टूटने तक की प्रक्रिया की बेहद बेबाक एवं बारीकी से  विवेचना की  है.  इस बेहद संवेदनशील आलेख के लिए उनकी कलम को नमन. )

 

☆ आलेख –  विश्वास बनाम बर्दाश्त ☆

 

‘रिश्ते बनते तो विश्वास से हैं, परंतु चलते बर्दाश्त से हैं‘ इस वाक्य में इतनी बड़ी सीख छिपी है… जैसे सीप में अनमोल मोती। विश्वास ज़िन्दगी की अनमोल दौलत है। विश्वास द्वारा आप किसी का हृदय ही नहीं जीत सकते, उसमें स्थायी बसेरा भी स्थापित कर सकते हैं। विश्वास से बड़े-बड़े देशों में संधि हो सकती है, युद्ध-विराम की कसौटी पर भी  विश्वास सदा खरा उतरता है। विश्वास द्वारा आप गिरते को थाम कर, उसमें धैर्य, साहस व उत्साह का संचार कर सकते हैं, जिसे जीवन में धारण कर वह कठिन से कठिन आपदाओं का सामना कर सकता है। हिमालय पर्वत की चोटी पर परचम लहरा सकता है, सागर के अथाह जल में थाह पा सकता है…यह है विश्वास की महिमा।

‘रिश्ते विश्वास से बनते हैं’और जब तक विश्वास कायम रहता है, रिश्ते मज़बूत रहते हैं, पनपते हैं, विकसित होते हैं…परंतु जब हृदय रूपी आकाश पर संदेह रूपी बादल मंडराने लगते हैं, शक़ हदय में स्थान बना लेता है…तब थम जाता है यह दोस्ती का सिलसिला और एक-दूसरे को बर्दाश्त करना कठिन हो जाता है।  ह्रदय का स्वभाव बन जाता है… हर पल दोषारोपण करने का, कमियां ढूंढने का, अवगुणों को उजागर करने का, अहं-प्रदर्शन करने का और ज़िन्दगी उस पड़ाव पर आकर थम जाती है, जहां वह स्वयं को एकांत से जूझता हुआ अनुभव करता है। लाख चाहने पर भी वह शंका रूपी व्यूह से मुक्त नहीं हो पाता

शायद! इसीलिए हमारे ऋषि मुनि सहनशीलता का संदेश बखानते हैं, क्योंकि यह वह संजीवनी है जो बड़े-बड़े दिग्गजों के हौंसले पस्त कर देती है। दूसरे शब्दों में  ‘सहना है, कहना नहीं ‘ इसी का प्रतिरूप है, मानो ये सिक्के के दो पहलू हैं। नारी को  बचपन से ही मौन रहने व ऊंचा न बोलने की हिदायत दी जाती है और बचपन में ही यह अहसास दिला दिया जाता है कि उसे दूसरे घर में जाना है।सो! उसे मौन रूपी गुणों को आत्मसात् कर प्रत्युत्तर नहीं देना है। यही दो घरों की इज़्ज़त बचाने का मात्र साधन है,उपादान है, कुंजी है। इसी के आधार पर ही वह दो कुलों की मान-मर्यादा की रक्षा कर सकती है।

परंतु आजकल इससे उलट होता है। संसार का कोई भी प्राणी किसी के अंकुश में नहीं रहना चाहता। हर इंसान अहर्निश अहं में डूबा रहता है, स्वयं को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम स्वीकारता है जिसके सम्मुख दूसरों का अस्तित्व नगण्य होता है। वास्तव में रिश्ते बर्दाश्त से चलते हैं अर्थात् उनका निर्वाह दूसरे को उसकी कमियों के साथ स्वीकारने से होता है। जैसा कि सर्वविदित है कि इंसान गलतियों का पुतला है, अवगुणों की खान है, स्व-पर व राग-द्वेष की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ इंसान मोह-माया के जंजाल से मुक्त नहीं हो पाता। संसार के आकर्षण उसे हर पल आकर्षित कर पथ-भ्रष्ट करते हैं और वह स्वार्थ के आधीन होकर,अपने जीवन के मूल लक्ष्य से भटक जाता है

रिश्ते बनाना बहुत आसान है। मानव पल भर में रूप-सौंदर्य व वस्तुओं-संसाधनों की ओर आकर्षित हो जाता है, जो देखने में सुंदर-मनभावन होते हैं। परंतु कुछ समय बाद उसका भ्रम टूट जाता है और विश्वास के स्थान पर जन्म लेता है…अविश्वास, संदेह,  भ्रम व आशंका, जिसके कारण संबंध अनायास टूट जाते हैं।

सत्य ही तो है, ‘आजकल संबंध व स्वप्न ऐसे टूट जाते हैं, जैसे भुने हुए पापड़।’  एक-दूसरे को बर्दाश्त न करने के कारण संबंध-विच्छेद होने में पल भर भी नहीं लगता। उसके पश्चात् मानव ‘तू नहीं, और सही’ की राह पर चल निकलता है और ‘लिव इन’ में रहना पसंद करता है… जहां कोई बंधन नहीं, सरोकार नहीं, दायित्व नहीं…. और एक दिन यह उन्मुक्तता जी का जंजाल बन जाती है, जिसके परिणाम- स्वरूप वह रह जाता है, नितांत अकेला, खुद से बेखबर, अपनों की भीड़ में अपनों को तलाशता, सुक़ून पाने को लालायित, इत-उत झांकता,परिवार- जनों से ग़ुहार लगाता… परंतु सब निष्फल।

ऐसी विसंगतियों से उपजे रिश्ते कभी स्थायी नहीं होते। आजकल तो रिश्तों को ग्रहण लग गया है।कोई भी रिश्ता पाक़-साफ़ नहीं रहा। गुरु-शिष्य व पिता- पुत्री का संबंध, जिसे सबसे अधिक पावन स्वीकारा जाता था, उस पर भी कालिख पुत गई है। अन्य संबंधों  की चर्चा करना तो व्यर्थ है। आजकल बहन- बेटी का रिश्ता भी अस्तित्वहीन हो गया है और शेष बचा है, एक ही रिश्ता… औरत का, जिसे वासना पूर्ति का मात्र साधन समझा जाता है। समाज में गिरते मूल्यों के कारण चंद दिनों की मासूम कन्या हो या नब्बे वर्ष की वृद्धा…दबंग लोग उससे दुष्कर्म करने में भी संकोच नहीं करते क्योंकि उन्हें तो पल भर में अपनी हवस को शांत करना होता है। उस स्थिति में वे जाति-पाति व उम्र के बंधनों से ऊपर उठ जाते हैं।

रिश्तों की दास्तान बड़ी अजब है। खून आजकल पानी होता जा रहा है और इंसान मानवता के नाम पर कलंक है, जिसका उदाहरण है…गली-गली,चप्पे- चप्पे पर दुर्योधन और दु:शासन का द्रौपदी का चीर- हरण कर, मर्यादा की सीमाओं को लांघ जाना… जिसके उदाहरण हर शहर में निर्भया, आसिफ़ा व अन्य पीड़िता के रूप में मिल जाते हैं, जो लंबे समय तक ज़िन्दगी व मौत के झूले में झूलती संघर्षरत देखी जा सकती हैं। उन्हें हरपल सामाजिक अवमानना, शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है। तनिक स्वयं को उसके स्थान पर रख कर देखिए …क्या मन:स्थिति होगी उन मासूम बालिकाओं की, जिन्होंने इतने दंश झेले होंगे। आजकल तो सबूत मिटा डालने के लिए, निर्मम हत्या कर डालने का प्रचलन बदस्तूर जारी है।

यह है समाज का घिनौना सत्य….यहां ऐसिड अटैक का ज़िक्र करना आवश्यक है। एकतरफ़ा प्यार या प्रेम का प्रतिदान न मिलने की स्थिति में सरे-आम तेज़ाब डालकर उस मासूम को जला डालने को सामान्य-सी घटना समझा जाता है। क्या कहेंगे आप इसे… अहंनिष्ठता, विकृत मानसिकता या दबंग प्रवृत्ति, जिसके वश में हो कर इंसान ऐसे कुकृत्य को अंजाम देता है, जिसका मूल कारण है… संस्कार- हीनता, जीवन-मूल्यों का विघटन व समाज में बढ़ गई संवेदनशून्यता, जिसके कारण रिश्ते रेत होते जा रहे हैं।

संदेह, शक़ व अविश्वास के वातावरण में व्यक्ति एकांत की त्रासदी झेलने को विवश है और मानव स्वयं को इन रिश्तों के बोझ तले दबा हुआ असहाय-सा पाता है और उन्हें निर्भयता से तोड़ कर स्वतंत्रता-पूर्वक अपना जीवन-यापन करना चाहता है। संबंधों को गले में लिपटे हुए मृत्त सर्प की भांति अनुभव करता है, जिनसे वह शीघ्रता से मुक्ति प्राप्त कर लेना चाहता है। इसलिए रिश्तों में ताज़गी,माधुर्य व संजीदगी के न रहने के कारण, वह उसे बंधन समझ कुलबुलाता है और ठीक-गलत में भेद नहीं कर पाता। आजकल मानव रिश्तों को ढोने में विश्वास नहीं करता और उन्हें सांप की केंचुली की भांति उतार फेंकने के पश्चात् ही सुकून पाता है… जिसका मुख्य कारण है, सहनशीलता का अभाव। मानव अपनी मनोनुकूल स्थिति में  जीना चाहता है। ‘खाओ पीओ, मौज उड़ाओ’ और ‘जो गुज़र गया, उसे भूल जाओ’ तथा स्मृतियों में व उसके साथ ज़िन्दगी मत बसर करो और जो तुम्हारे गले की फांस बन जाए, उसे अनुपयोगी समझ अपनी ज़िन्दगी से बेदखल कर, नये जीवन साथी की तलाश करो।’यही ज़िन्दगी का सार है और आज की संस्कारहीन युवा पीढ़ी इन सिद्धांतों में विश्वास रखती है, जो ज़िन्दगी को नरक बना कर रख देते हैं। ऐसे लोग, जिनमें सहनशीलता का अभाव होता है..जो दूसरों पर विश्वास नहीं करते, कभी भी उस भटकन से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते। सो! सहनशीलता मानव का सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च व सर्वोत्तम आभूषण है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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