हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 46 ☆ व्यंग्य – फेक न्यूज ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक  समसामयिक सार्थक व्यंग्य  “फेक न्यूज।  वास्तव में  मीडिया में उपस्थिति का क्रेज़ इतना कि रचना के साथ मानदेय के चेक की कॉपी भी  सोशल मीडिया में चिपकाना नहीं भूलते । श्री विवेक जी  का यह व्यंग्य समाज को आइना दिखता है, किन्तु समाज है कि देखने को तैयार ही नहीं है । उसे तो फेक न्यूज़ ही रियल न्यूज़ लगती है ।  श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 46 ☆ 

☆ व्यंग्य – फेक न्यूज 

आज का समय स्व संपादित सोशल मीडीया का समय है. वो जमाने लद गये जब हाथ से कलम घिसकर सोच समझ कागज के एक ओर लिखा जाता था. रचना के साथ ही स्वयं का पता लिखा लिफाफा रचना की अस्वीकृति पर वापसी के लिये रखकर, संपादक जी को डाक से  रचना भेजी जाती थी. संपादक जी रचना प्रकाशित करते थे तो पहले स्वीकृति, फिर प्रकाशित प्रति और फिर मानदेय भी भेजते थे. या फिर अस्वीकृति की सूचना के खेद सहित रचना वापस लौटा दी जाती थी. अब सुपर फास्ट इंटरनेट वाला युग है, रचना भेजो तो फटाफट पोर्टल का लिंक चला आता है, कि ये लीजीये छप गई आपकी रचना. हां, अधिकांश अखबार अब प्रकाशित प्रति नही भेजते,उनके पास कथित बुद्धिजीवी लेखक के लिये  मतलब ई मेल से रचना भेजो, फिर खुद ही छपने का इंतजार करो और रोज अखबार पढ़ते हुये अपनी रचना तलाशते रहो. छप जाये तो फट उसकी इमेज फाईल, अपने फेसबुक और व्हाट्सअप पर चिपका दो, और जमाने को सोशल मीडीया नाद से जता दो कि लो हम भी छप गये. अब फेसबुक, इंस्टाग्राम, टिकटाक, ट्वीटर और व्हाट्सअप में सुर्खियो में बने रहने का अलग ही नशा है.  इसके लिये लोग गलत सही कुछ भी पोस्ट करने को उद्यत हैं. आत्म अनुशासन की कमी ही फेक न्यूज की जन्मदाता है. हडबडी में गडबड़ी से उपजे फेक न्यूज सोशल मीडीया में वैसे ही फैल जाते हैं, जैसे कोरोना का वायरस.सस्ता डाटा फेकन्यूज प्रसारण के लिये रक्तबीज है. लिंक  फारवर्ड, रिपोस्ट ढ़ूंढ़ते हुये सर्च एंजिन को भी पसीने आ जाते हैं. हर हाथ में मोबाईल के चक्कर में फेकन्यूज देश विदेश, समुंदर पार का सफर भी मिनटों में कर लेती है, वह भी बिल्कुल हाथों हाथ, मोबाईल पर सवार.

किसी के धर्म पर कोई अच्छी बुरी टिप्पणी कहीं मिल भर जाये, सोते हुये लोग जाग जाते हैं, जो धर्म का ध तक नहीं समझते, वे सबसे बड़े धार्मिक अनुयायी बन कर अपने संवैधानिक अधिकारो तक पहुंच जाते हैं. इन महान लोगों को लगता है कि इस तरह के फेक न्यूज को भी फारवर्ड कर के वे कोई महान पूजा कर रहे हैं. उन्हें प्रतीत होता है कि यदि उन्होंने इसे फारवर्ड नही किया तो उसके परिचित को शायद वह पुण्य लाभ नहीं मिल पायेगा जो उन्हें मिल रहा है. जबकि सचाई यह होती है कि जिसके पास यह फारवर्डेड  न्यूज पहुंचता  है वह बहुत पहले ही उसे फारवर्ड कर अपना कर्तव्य निभा चुका होता है. सचाई यह होती है कि यदि  आप का मित्र थोड़ा भी सोशल है तो उसके मोबाईल की मेमोरी चार छै अन्य ग्रुप्स से भी वह फेक न्यूज पाकर धन्य हो चुकी होती है, और डिलीट का आप्शन ही आपके फारवर्डेड मैसेज का हश्र होता है.

फेक न्यूज ने अपना बाजार इतनी तेजी से फैलाया है कि हर चैनल वायरल टेस्ट का कार्यक्रम ही करने लगा है, जिसमें वायरल खबरो के सच या झूठ होने का प्रमाण ढ़ूंढ़ कर एंकर दर्शको को वास्तविकता से परिचित करवाता है. और इसी बहाने चैनल की टी आर पी का टारगेट पूरा करता है. फेक न्यूज के भारी दुष्परिणाम भी समाज को अनेक बार दंगो, कटुता, वैमनस्य के रूप में भोगने पड़े हैं. विदेशी ताकतें भी हमारी इस कमजोरी का लाभ उठाने से बाज नही आतीं. इसलिये जरूरी है कि मौलिक लिखें, मौलिक रचें, न कि फारवर्ड करें. सोशल मीडिया संवाद संजीवनी है, यदि इसका सदुपयोग किया जावे तो बहुत अच्छा है, किन्तु यदि इसका दुरुपयोग हुआ तो यह वह अस्त्र है जो हमारे समाज के स्थापित मूल्यो का विनाश कर सकता है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 27 – बापू के संस्मरण-1 महात्मा गांधी और सरला देवी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज से  हम बापू के संस्मरण श्रृंखला  प्रारम्भ करने जा रहे हैं । आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – महात्मा गांधी और सरला देवी”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 27 – बापू के संस्मरण – 1 महात्मा गांधी और सरला देवी ☆ 

लन्दन में 1901 में जन्मी  कैथरीन को जब भारत के स्वाधीनता आन्दोलन और महात्मा गांधी के संघर्ष के विषय में पता चला तो वे 1932 में भारत आकर गांधीजी की शिष्या बनी तथा आठ साल तक सेवाग्राम में गांधी जी के सानिध्य में रही और अपना नाम सरला देवी रखा। बाद में  गांधीजी के निर्देश पर सरला देवी ने 1940 से अल्मोडा में स्वाधीनता संग्राम पर  काफी काम किया और इस दौरान दो बार जेल भी गई। उन्होंने  कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की स्थापना उसी स्थान के निकट की जहां बैठकर गांधी जी ने गीता पर अपनी पुस्तक अनासक्ति योग लिखी थी।  अपने आश्रम के माध्यम से उन्होंने बालिका शिक्षा और महिला सशक्तिकरण का कार्य किया। सरला देवी भी 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में गिरफ्तार हुई और बाद को जब उन्हें रिहा किया गया तो वे गांधी जी से मिलने पूना गई, उसी वक्त के दो संस्मरण उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘व्यावहारिक वेदांत’ में लिखे हैं।

‘बापू अब सेवाग्राम वापस जा रहे थे, तो तय हुआ कि मैं पहले अहमदाबाद में एक विकासगृह देखने जाऊं और फिर उनके साथ बम्बई से वर्धा।

मैं जब विक्टोरिया टर्मिनस पहुँची तो कलकत्ता मेल पहले से प्लेटफार्म पर खडी थी I मैंने बतलाया कि मुझे बापू के साथ जाना है। लोगों ने मुझे वैसे ही प्लेटफार्म में चले जाने दिया।  कुछ लोग एक छोटे से आरक्षित डिब्बे में सामान संभाल रहे थेI साधारण डिब्बे से इस डिब्बे में ज्यादा लोग थे, सफ़र में शांति नहीं मिली।  हर स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ बापू के दर्शन के लिए इक्कठी मिलती थी।  हरिजन कोष के लिए बापू अपना हाथ फैलाते थे। लोग जो कुछ दे सकते थे, देते थे , एक पाई से लेकर बड़ी-बड़ी रकमें और कीमती जेवर तक। स्टेशन से गाडी छूटने पर एक-एक पाई की गिनती की जाते थी और हिसाब लिखा जाता था।

सेवाग्राम में जब मैं बापू से विदा लेने गई तो मैंने उनके सामने बा और बापू की एक फोटो रखी।  इरादा उस पर उनके हस्ताक्षर लेने का था।  बापू बनिया तो थे ही और वे हर एक चीज का नैतिक ही नहीं भौतिक दाम भी जानते थे।  वे अपने दस्तखत की कीमत भी जानते थे और इसलिए अपना हस्ताक्षर देने के लिए हरिजन कोष के लिए कम से कम पांच रुपये मांगते थे। पांच रुपये से कम तो वे स्वीकार ही नहीं करते थे। उन्होंने आखों में शरारत भरकर मुझे देखा। मैंने कहा,” क्यों ? क्या आप मुझे भी लूटेंगे ?”

उन्होंने गंभीरता से उत्तर दिया, “ नहीं मैं तुझे नहीं लूट सकता। तेरे पैसे मेरे हैं, इसलिए मैं तुझसे पैसे नहीं ले सकता।”

मैंने कहा “बहुत अच्छी बात है। तो आप इस पर दस्तखत करेंगे न ?”

“क्या करूँ , मैं बगैर पैसों के दस्तखत भी नहीं कर सकता।” बापू ने कहा और फिर उन्होंने सोच-समझकर पूछा “ तुम मेरे दस्तखत के लिए इतनी उत्सुक क्यों हो ?”

मैंने कहा “ यदि मेरी लडकिया लापरवाही करेंगी, पढ़ाई या काम की ओर ठीक से ध्यान नहीं देंगी तो मैं उन्हें आपकी फोटो दिखाकर कहूंगी कि यदि तुम बापू की तरह महान बनना चाहती हो तो तुम्हें आपकी तरह ठीक ढंग से काम करना चाहिए।”

बापू ने जबाब दिया “ मैंने लिखना-पढ़ना सीखा, परीक्षा पास करके बैरिस्टर बना, इन सबमे कोई विशेषता नहीं है।  इससे तुम्हारी लडकियाँ मुझसे कुछ नहीं सीख पाएंगी।   यदि ये मुझसे कुछ सीख सकती हैं तो यह सीख सकती हैं कि जब मैं छोटा था तब मैंने खूब गलतियां की लेकिन जब मैंने अपनी गलती समझी तो मैंने पूरे दिल से उन्हें स्वीकार किया। हम सब लोग गलतियां करते हैं, लेकिन जब हम उनको स्वीकार करते हैं तो वे धुल जाती हैं, और  हम फिर दुबारा वही गलती नहीं करते।”

उन्होंने मुझे याद दिलाई कि बचपन में वे खराब संगत में पड़ गए थे, उन्होंने सिगरेट पीना और गोश्त खाना शुरू कर दिया था और फिर अपना कर्ज चुकाने के लिए रूपए और सोने की चोरी की थी।  जब उन्होंने अपनी  गलती समझी तब उसे पूरी तरह खोल कर अपने पिताजी को लिखा।  पिताजी पर इसका अच्छा असर हुआ और उन्होंने मोहन को माफ़ कर दिया।‘

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बदला घर का माहौल ☆ – डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

 

( आज प्रस्तुत है डॉ. ज्योत्सना सिंह रजावत जी का विशेष समसामयिक आलेख “बदला घर का माहौल. यह सत्य है कि जो हम नहीं कर पाते वह समय कर देता है या सिखा देता है। डॉ ज्योत्सना जी ने इस तथ्य को बेहद सहज तरीके से प्रस्तुत किया है। इसके लिए उनके लेखनी को सदर नमन। )

☆ बदला घर का माहौल ☆

हमारे धर्म ग्रन्थों में ‘जीवेत शरद: शतम् …’ कहकर ईश्वर से सौ वर्ष आयु की कामना की गई है। व्यवस्थित दिनचर्या के साथ यम नियम आसन धैर्य और संयम द्वारा ही 100 वर्ष की गिनती तक पहुंचने की कोशिश की जा सकती है जरा से कष्ट से हिम्मत हार कर हम अपने अन्तिम पड़ाव पर कैसे पहुँच पायेंगे, सुख का चरम सुख, आनन्दायी सुखमय अन्तिम पड़ाव ही है। मनुष्य की वास्तविक शक्ति दृढ़  इच्छा शक्ति है। यह शक्ति ही कर्म करने की प्रेरणा देती है आपसी सहयोग सद्भाव की भावना, मैत्रेयी भाव, नाकारात्मकता को कम कर देती है, भले ही दूरी हो पर वैचारिक तालमेल सदैव जीने की प्रेरणा देता है।संक्रमित सोच, हमेशा महासंकट उत्पन्न करती है, घर परिवार समाज और देश के लिए। कुछ लोग आज घरों में कैद है फिर भी वैश्विक महामारी की ऊटपटांग अफवाहें फैलाकर,लोगों को भ्रमित कर समस्याओं को जटिल कर रहे हैं, कुछ दूसरे प्रकार के लोग इस संकट की घड़ी में संकट को बढ़ावा दे रहे हैं यह मूर्खता पूर्ण आचरण कर जान लेवा खिलवाड़ कर आंकड़े बढ़ाकर सरकार के लिए मुसीबत बने हुए हैं। बीमारी और मौत के अट्टहास के मध्य मानवता के हजारो हाथ लोगों की दिन रात मदद कर रहे हैं…सर्वे भवन्तु सुखिनः बस यही कामना करते हैं।

जहां एक ओर  लोग  गांवों से शहरों की ओर  आए थे  आज  शहरों से पलायन कर गांव की ओर जा रहे हैं  अपनी फिर उसी मातृ भूमि पर जिसे बरसों पहले छोड़ गए थे यही बदला हुआ स्वरूप उनकी दिनचर्या में देखने को मिला । जो हमारी नयी पीढ़ी जिन संस्कारों से दूर हो गयी थी ,लाख कोशिशों के बाद भी हम उन्हें वह सब नहीं सिखा पा रहे थे वह हमें  इस वक्त ने सिखाया ।हम वह सब बच्चों नहीं दे पा रहे थे जो हमें यह वक्त दे गया। घर का बना हुआ खाना ,पिज़्ज़ा बर्गर पावभाजी नूडल्स इन सब की जगह घर की दाल रोटी सब्जी चावल बच्चों को भाने लगे हैं। बुरे वक्त में लोगों का सहारा बनना, घर परिवार के साथ समय बिताना ,इन सबसे बढ़कर एक बात और रामायण, महाभारत आदि धर्म ग्रंथों को जानने की जिज्ञासा यह सब संस्कार मिले । रुपया, पैसा, दोस्ती यारी ही सब कुछ नहीं है परिवार और परिवार के सदस्य महत्वपूर्ण है आपका अपना स्वस्थ जीवन महत्वपूर्ण है। इसी पर एक छोटा संस्मरण सुना रही हूँ।

“बदला घर का माहौल” जहां घरों में बच्चे हैं उनके घरों में प्रायः इस तरह की घटनाएं होना आम है पर हमारे यहां चार बच्चे है सब बड़े हैं सबकी दिनचर्या और स्वभाव अलग-अलग है कोई मोबाइल में गेम खेलता है तो कोई लैपटॉप लिए बैठा है तो कोई दोस्तों के साथ बाहर मॉल जा रहा है।  बेटे कॉलेज में बेटियाँ स्कूल में । मतलब हाथ पकड़ कर घर में नहीं बिठाया जा सकता है सिर्फ कह सकते है ,वो भी बड़े प्यार से, अब पहले जैसा समय नहीं है बच्चों को डाँट फटकार कर रोक लो । बस प्यार से उनके हमदर्द बनकर ही उन्हे समझाया जा सकता है…बेटा कुछ बाहर का उल्टा सीधा मत खाना, जल्दी घर आ जाना । गाड़ी धीरे चलाना । हाँ हाँ ठीक है माँ मैं कोई छोटा बच्चा नहीं हूँ। अपने हिसाब से आ जाऊँगा। अरे माँ आप भी न फालतू की टेन्सन करती हो अपनी पसंद का दोस्तों के साथ खा लूँगा। आप पैट्रोल के लिए पैसे दो अभी तो कुछ दिन पहले दिये थे अरे माँ आप भी न जल्दी दो अच्छा यह लो दो हजार अब अगले सप्ताह दूँगीं बस इतना ही कह सके, कि उसने हाँ की और चला गया ।पैसे की बढ़ती फिजूलखर्ची और खाने की टेबल की खिट खिट को आये दिन होना ही था। जिस दिन सब घर पर है उस दिन….शाम होते ही क्या बना रही हो मां मुझे यह नहीं खाना यह क्या बनाकर रख दिया आपने… मुझे पैसे दो बाहर से कुछ अपनी पसंद का ऑर्डर करना है । अरे मां अपने फिर दाल बना दी यह क्या तोरई  उफ्फ यह तोरई तो मैं खाता नहीं हूं कद्दू मुझे शक्ल से  पसंद नहीं है, लौकी देखकर चिढ़ आती है मुझे एक भी सब्जियां नहीं खानी है। प्लीज मुझे पैसे दो रेस्टोरेंट से अपनी पसंद का ऑर्डर कर देता हूँ।

क्यूँ बेटा घर पर ही आपके लिए कुछ अच्छा सा बना देती हूं ।   अरे मां आप भी ना , वह बाजार वाला स्वाद नहीं आता है फिर अगली शाम सुनो मां, आज हमें पिज़्ज़ा खाना है पैसे दो बहुत बार समझाने के बाद आखिरकार पैसे देने ही पड़ते हैं। बस इतना जरूर चेतावनी दे देते  आज खा लो फिर दो दिन तक मत माँगना और सुनो अपनी बहन से भी पूछ लो वह क्या खाएगी उसके लिए भी मंगवा लो…. क्या है मां मैं उसके लिए नहीं मंगवा सकता अपना ऑर्डर वह खुद करें । बच्चे ने कहा अच्छा कहकर हमें भी अपनी सहमति देनी पड़ी और रुपये भी ।अगले दिन फिर नया मैन्यु…।यह सिलसिला लगातार बढ़ ही रहा था ।कभी कभार से सप्ताह, फिर सप्ताह से दैनिक चर्या में ,सम्मलित हो गया था। इसका दूसरा पहलू कहे तो हमें भी आराम था ज्यादा झंझट नहीं करने पड़ते थे बच्चों के लिए कुछ ज्यादा बनाना नहीं पड़ता था चलो बच्चे भी खुश मम्मी भी खुश। पर आज स्थिति बिल्कुल बदल गई है बच्चे बिना नाक सिकोड़े ,मुँह बनाए प्रेम से सभी मिलकर एक साथ खाना खाते हैं और खाने से पहले बड़े प्रेम से पूछते माते आज आपने भोजन में क्या बनाया,  चारों भाई बहन एक साथ खाना खाते ।

सुबह शाम दोनों नियम से रामायण देखते ,दादाजी और दादी जी के साथ प्रतिदिन चर्चाएं करते बैठते और न कोई मॉल जा रहा है न ही दोस्तों से मिल रहा है ना पार्टियां न पेट्रोल का खर्चा सब कुछ बदल गया है। संध्या आरती में सब साथ में आते कोई शंख बजाता तो कोई घंटी बजाकर भगवान की आरती करता । सच ही कहा गया है संसार एक चक्रीय परिवर्तन है यहाँ सब कुछ बदलता है। जो हम नहीं बदल सकते हैं वह समय बदल देता है।

डॉ ज्योत्स्ना सिंह राजावत

सहायक प्राध्यापक, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर मध्य प्रदेश

सी 111 गोविन्दपुरी ग्वालियर, मध्यप्रदेश

९४२५३३९११६,

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एक आसमानी संवेदना : कोरोना योद्धाओं को जल थल नभ की हौसला अफजाई!! ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक सामायिक  रचना  एक आसमानी संवेदना : कोरोना योद्धाओं को जल थल नभ की हौसला अफजाई!!। इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

 ☆  मेरी भारतीय वायु सेना ☆ 

– एक आसमानी संवेदना : कोरोना योद्धाओं को जल थल नभ की हौसला अफजाई!!☆

“शौर्य जीत के ताने-बाने युग ने स्वयं लपेटे हैं

उसे पता है कोटि कोटि उसके जोशीले बेटे हैं

शौर्य जीत के साथ किया है वायुसेना ने भी तर्पण

हर नभ प्रहरी बने हिमालय किस किस  को लांघेगा दुश्मन।।

देश की आसमानी सरहदों की प्रहरी वायुसेना में कोरोना के संहार की शुभकामना और अंतर्वेध की बात लेकर उपस्थित हुई हूँ आप सुधि पाठकों के सम्मुख ।

शौर्य और जीत के तर्पणों से सज्जित वायुसेना का 8 अक्तूबर 1932 का वह चिरस्मरणीय दिवस भारतीय वायुसेना के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है क्योंकि इसी दिन रायल एयरफोर्स के छः अफसर और उन्नीस सिपाहियों के एक छोटे से स्कवाड्रन और महज एक वापिती से शुरु हुई, छोटी सी उड़ान आज विश्व की चौथे नंबर की सबसे सबल, सफल, सक्षम, सतर्क एवं सजग वायुसेना बन गई है।

वैसे भारत का वैमानिक विज्ञान बहुत प्राचीन और उन्नत था। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों के साथ साथ अनेक संस्कृत ग्रंथों, हर्ष चरित, पंचतंत्र, समरांगण सूत्रधार एवं युक्ति कल्प तरु जैसे ग्रंथों में विमानों एवं वैमानिक युद्धों का वर्णन मिलता है। निःसंदेह उनकी भाषा संस्कृति की भाषा संस्कृत रही है। आचार्य भारद्वाज के वृहत विमान शास्त्र के अनुसार विमानों का उपयोग वाहन के रूप में वाहक और युद्ध वाहन के रूप में होता था। ये कार्य तीन तरह से चलते थे – – मांत्रिक, तांत्रिक और यांत्रिक। “त्रिपुर “तो ऐसा विमान था जो जल- थल- नभ तीनों ही स्थानों पर विचरण कर सकता था। – – – – और गर्व है मुझे कि आधुनिक भारतीय वायुसेना भी अपने प्राचीन वैमानिक ज्ञान की धरोहरों के साथ ब्रह्मांड की खोज और अंतरिक्ष की उड़ानों की ओर पर तौल रही है।

– – – – और यह कहने में मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं है कि आज वायुसेना में मेरे भारत महान की सम्यक दृष्टि और सामासिक मानसिकता के चलते आज भारतीय वायुसेना “मिनी इंडिया ” की प्रतीक है।

विविध भाषाओं वाले देश के कोने कोने से देश सेवा का जज्बा अपने भीतर समेटे वायुयोद्धा अनेकता मे एकता की मिसाल हैं और आज वायुसेना ने अपना एक और अभिनंदनीय स्वरूप दिखाया है कोरोना  वारियर्स का सम्मान करके।           आसमान से हो रही पुष्प वर्षा के द्वारा वायुसेना ने देश की संस्कृति का प्रसार किया।

कोरोना वीरों को सलाम करते हुए – – यह सकारात्मक सोच देते हुए कि–

जाने कितनी उड़ान बाकी है

इस सोन चिरैया में अभी बहुत जान बाकी है

बांटनी थी जितनी जमीन बाँट ली तुमने

मेरे पास मेरा आसमान बाकी है –

जोखिम मोल लेकर फर्ज की राह पर डटे कोरोना वीरों को सेना का सम्मान भरा पैगाम। सबको देश का नमन। देश का शुक्रिया। फूलों की बारिश संग धुनों की सरगम – – तालियाँ थालियाँ बजवा कर– दिये जलवा कर जो सम्मान दिया था उसी श्रृंखला में देश का एक और प्रणाम – – – – कोरोना के खौफ पर एक प्रहार।सेनाओं के द्वारा स्तुतिगान – – चेतना का प्रणाम – – देश के अलग अलग हिस्सों को एक सूत्र में – – एक मनोदशा से जोड़ा – – – – सुबह नौ बजे पुलिस मेमोरियल से लेकर देश के कोने-कोने के अस्पतालों में और एम्स दिल्ली तक पुष्प वर्षा एक  सामूहिक शक्ति का संचार— आध्यात्मिक शक्ति का ऐलान युद्ध जीतने का नहीं युद्ध के लिए संजीवनी संचार का सार्थक प्रयास है।

कुल 500 मीटर की ऊंचाई पर यान को उड़ाना और पुष्प वर्षा बहुत हौसलों का काम। भावुक सा पल – – –

कहने वाले कहेंगे कि इससे क्या होगा क्या कोरोना भाग जाएगा – आज उन्हें भी प्रणाम!

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 45 ☆ परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू के अंतिम प्रश्न का उत्तर। । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 45

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – – – –  ☆ 

(साक्षात्कार का अन्तिम सवाल और परसाई जी का जबाब) 

जय प्रकाश पाण्डेय – अनेक महत्वपूर्ण आलोचकों के मतानुसार व्यंग्य किसी भी भाषा, समाज या समय के श्रेष्ठ लेखन का अनिवार्य गुण है जबकि एक वर्ग ऐसे लोगों का भी है जिनका मानना है कि चूंकि व्यंग्य लेखन में जीवन की संपूर्णता में चित्रित करने की क्षमता नहीं होती अत: श्रेष्ठतम व्यंग्य लेखन भी महान साहित्य की श्रेणी में परिगणित नहीं हो सकता। इस संबंध में आप क्या कहना चाहेंगे ?

हरिशंकर परसाई – सम्पूर्ण जीवन से क्या अर्थ है, सम्पूर्ण सामाजिक जीवन तो किसी महाकाव्य या किसी एक उपन्यास तक में भी नहीं आ सकता है। कई उपन्यास हों तो शायद आ भी जावे या भी पूरा न आ पाये। जीवनी उपन्यास हो तो किसी एक व्यक्ति के जीवन, नायक के जीवन का सम्पूर्ण चित्र आ जाता है। मैंने जो व्यंग्य लिखे हैं सिलसिलेवार नहीं, खण्ड खण्ड लिखा है, निबंध, कहानी, लघु उपन्यास, कालम इत्यादि और इन सब में समाज का एक तरह से सर्वेक्षण हो गया है, एक पूरे समाज का सर्वेक्षण कर लेना भी मेरा ख्याल है कि उस समाज को एक टोटलिटी में संपूर्णता से व्यंग्य के द्वारा चित्रित करना ही है, जैसे रवीन्द्रनाथ ने कोई महाकाव्य नहीं लिखा लेकिन उनकी फुटकर कविताओं में लगभग वह सभी आ गया जो किसी एक महाकाव्य में आता है, ऐसा मेरा ख्याल है और ऐसा ही मेरे लेखन में है। तो ये दावा तो नहीं कर सकता, न दोस्तोवेयस्की कर सकते हैं न बालजाक कर सकते हैं कि उनकी रचना में संपूर्ण जीवन आ गया है पर बहुत अधिक अंशों तक आ गया है। ये हम मान लेते हैं। मैंने सम्पूर्ण जीवन में लिखने के लिए कोई उपन्यास दो-चार – छह नहीं लिखे। मैंने खण्ड – खण्ड में जीवन को जहां जैसा देखा, उसको वैसा चित्रित किया,उस पर वैसा व्यंग्य किया। अब कालम के द्वारा समसामयिक घटनाओं पर वैसा कर रहा हूं। इस प्रकार समाज का पूरा सर्वेक्षण मेरे लेखन में आ जाता है, लेकिन मैं ये दावा नहीं कर सकता हूं कि जीवन की सम्पूर्णता या सामाजिक जीवन की सम्पूर्णता मेरे लेखन में आ गई है, वो नहीं आई है, और इतना पर्याप्त नहीं है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #46 ☆ निश्चय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # निश्चय ☆

उसे ऊँची कूद में भाग लेना था पर परिस्थितियों ने लम्बी छलांग की कतार में लगा दिया। लम्बी छलांग का इच्छुक भाला फेंक रहा था। भालाफेंक को जीवन माननेवाला सौ मीटर की दौड़ में हिस्सा ले रहा था। सौ मीटर का धावक, तीरंदाजी में हाथ आजमा रहा था। आँखों में तीरंदाजी के स्वप्न संजोने वाला तैराकी में उतरा हुआ था। तैरने में मछली-सा निपुण मैराथन दौड़ रहा था।

जीवन के ओलिम्पिक में खिलाड़ियों की भरमार है पर उत्कर्ष तक पहुँचने वालों की संख्या नगण्य है। मैदान यहीं, खेल यहीं, खिलाड़ी यहीं  दर्शक यहीं पर मैदान मानो निष्प्राण है।

एकाएक मैराथन वाला सारे बंधन तोड़कर तैरने लगा। तैराक की आँंख में अर्जुन उतर आया, तीर साधने लगा। तीरंदाज के पैर हवा से बातें करने लगे। धावक अब तक जितना दौड़ा नहीं था उससे अधिक दूरी तक भाला फेंकने‌ लगा। भालाफेंक का मारा भाला को पटक कर लम्बी छलांग लगाने लगा। लम्बी छलांग‌ वाला बुलंद हौसले से ऊँचा और ऊँचा, बहुत ऊँचा कूदने लगा।

दर्शकों के उत्साह से मैदान गुंजायमान हो उठा। उदासीनता की जगह उत्साह का सागर उमड़ने लगा। वही मैदान, वही खेल, वे ही दर्शक पर खिलाड़ी क्या बदले, मैदान में प्राण लौट आए।

# वैश्विक महामारी से लड़ने में सरकार का साथ दें। घर में रहें।

©  संजय भारद्वाज

अपराह्न 12:55 बजे, 30.4.2020

(आगामी लघुकथा संग्रह से।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 44 ☆ सत्य की महिमा अपरम्पार ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  जीवन में सत्य की महत्ता को उजागर करता एकआलेख सत्य की महिमा अपरम्पार ।   इस आलेख का  सार उनके वाक्य  “सत्य आपकी सकारात्मक सोच व सत्कर्मों से स्वयं प्रकट हो जाता है”में ही निहित है। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 44 ☆

☆ सत्य की महिमा अपरम्पार

 

‘जीवन में कभी भी अपनी ईमानदारी व दूसरे के दोषों का बखान मत करो, क्योंकि समय के साथ सत्य सात परदों के पीछे से भी उजागर हो जाता है’… कितना गहन सत्य अथवा रहस्य छिपा है, इस तथ्य में… पूर्ण जीवन-दर्शन उजागर करता है यह वाक्य कि सत्य कठोर होता है, जिस पर कोई भी आसानी से विश्वास नहीं करता। सत्य, शिव व कल्याणकारी होता है, भले ही उसे सब के समक्ष प्रकट होने में समय लग जाए, परंतु एक दिन उस रहस्य की खबर सबको लग जाती है और वह किस्सा आम हो जाता है। इस स्थिति में वह लोगों को भ्रमित होने से बचा लेता है।

‘इसीलिए यह कहा जाता है कि जीवन में अपनी ईमानदारी व दूसरे के दोषों का बखान मत करो’ क्योंकि यदि मानव अपने कृत-कर्म, भले ही वे सत्य हों, यथार्थ से पूर्ण हों, मंगलकारी हों…से दूसरों को अवगत कराता है, तो वह आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा व स्वयं का गुणगान कहलाता है। अक्सर ऐसे लोगों की आलोचना तो होती ही है और वे उपहास के पात्र भी बन जाते हैं। इस से भी अधिक घातक है, दूसरों की हक़ीक़त को बयान करना, जिसे लोग अहंनिष्ठता अथवा आलोचना की संज्ञा देते हैं। शायद इसीलिए शास्त्रों में पर-निंदा से बचने का सार्थक संदेश दिया गया है, जो बहुत ही उपयोगी है, कारग़र है। कबीरदास जी ने निंदक की महिमा को इस प्रकार शब्दबद्ध किया है, ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटि छुवाय/ बिनु साबुन,पानी बिनु, निर्मल करे सुभाय।’ अर्थात् निंदक वह निर्भय व नि:स्वार्थ प्राणी है, जो अपना सारा सारा समय व शक्ति लगा कर, आपको आपके व्यक्तित्व का दिग्दर्शन कराता है…आईना दिखाता है…दोषों से अवगत कराता है और उसके सद्प्रयासों से मानव का स्वभाव साबुन व पानी के बिना ही निर्मल हो जाता है। धन्य हैं ऐसे लोग, जो अपनी उपेक्षा तथा दूसरों के मंगल की सर्वाधिक कामना करते हैं। उनका सारा ध्यान अपने हित पर नहीं, आपके दोषों पर केंद्रित होता है और वे आपको गलतियों व अवगुणों से अवगत करा, उचित राह पर बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। इसलिए ऐसे लोगों को सदैव निकट रखना चाहिए, क्योंकि वे  सदैव पर-हितार्थ, निष्काम सेवा में रत रहते  हैं।

कितना विरोधाभास है…दूसरे के दोषों का बखान करने का संदेश, जहां हमें चिंतन-मनन की प्रेरणा देता है; आत्मावलोकन करने का संदेश देता है, क्योंकि पर-निंदा को मानव का सबसे बड़ा दोष व अवगुण स्वीकारा गया है। इससे मानव की संचित शक्ति व ऊर्जा का ह्रास होता है। सो! इस संदर्भ में हमें सिक्के के दोनों पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होगा। प्रथम है…अपनी ईमानदारी व कृत-कर्मों का बखान करना…यह आत्म-प्रवंचना रूपी दोष कहलाता है। अक्सर लोग ऐसे पात्रों को उपहासास्पद समझ उनकी आलोचना करते हैं। परंतु यह कथन सर्वथा सत्य है कि यदि आपने कुछ ग़लत किया ही नहीं, फिर स्पष्टीकरण कैसा? सत्य तो देर-सवेर सामने आ ही जाता है। हां! इसकी समय- सीमा निर्धारित नहीं होती है।

सो! सत्य कभी भी उपेक्षित नहीं होता। उदाहरणतया स्नेह, प्रेम, करुणा, सौहार्द, सहनशीलता, सहानुभूति आदि दैवीय भाव शाश्वत हैं… जो कल भी सत्य थे, उपास्य थे, मांगलिक थे, सर्वमान्य थे… आज भी हैं और कल भी रहेंगे। ये काल-सीमा से परे हैं। इसी प्रकार झूठ, हिंसा, मार-पीट, लूट-खसोट, फ़िरौती, पर-निंदा आदि भाव कल भी त्याज्य व निंदनीय थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे। इससे सिद्ध होता है कि सत्य कालातीत है; सत्य की महिमा अपरंपार है और सत्य सदैव शक्तिशाली है। इसलिए हम कहते हैं, ‘सत्यमेव जयते’ कि ‘सत्य शिव है, सुंदर है, मंगलकारी है और संसार में सदैव विजयी होता है। वह कभी भी उपेक्षित नहीं होता और सात परदों के पीछे से भी उजागर हो जाता है।’ इसे स्वीकारने- साधने की शक्तियां, जिस शख्स में भी होती हैं, वह सदैव अप्रत्याशित बाधाओं, विपत्तियों व आपदाओं के सिर पर पांव रख कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता प्राप्त करता है और सहजता से आकाश की बुलंदियों को छू सकता है।

समय परिवर्तनशील है, कभी ठहरता नहीं। सृष्टि का क्रम निरंतर, निर्बाध चलता रहता है, जिसे देख कर मानव अवाक् अथवा अचम्भित रह जाता है। ‘दिन- रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ- साथ/ फूल और पात बदलते हैं/ यादों से महज़ दिल को मिलता नहीं सुकून/ ग़र साथ हो सुरों का/नग़मात बदलते हैं।’ जिस प्रकार दिन के पश्चात् रात, अमावस के पश्चात् पूनम व समयानुसार ऋतु-परिवर्तन होना निश्चित है, उसी प्रकार समय के साथ मानव की मन:स्थिति में परिवर्तन भी अवश्यंभावी है। सो! मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। सो! जीवन में ऐसे पल भी अवश्य आते हैं, जब मानव हताश-निराश होकर औचित्य-अनौचित्य का भेद त्याग व परमात्म-शक्ति के अस्तित्व को नकार, निराशा रूपी अंधकार के गर्त में धंसता चला जाता है और एक अंतराल के पश्चात् अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है, जहां उसे सब अपने भी पराए नज़र आते हैं। इस मन:स्थिति में एक दिन वह उन तथाकथित अपनों से  किनारा कर, अपना अलग – थलग जहान बसा लेता है। कई बार परिस्थितियां इतनी भीषण व भयंकर हो जाती हैं कि उधेड़बुन में खोया इंसान, ज़माने भर की रुसवाइयों को झेलता, व्यंग्य-बाण सहन करने में स्वयं को असमर्थ पाकर सुधबुध खो बैठता है और अपने जीवन का अंत कर लेना चाहता है। उसे यह संसार व भौतिक संबंध मिथ्या भासते हैं और वह माया के इस जंजाल से स्वयं को  मुक्त नहीं कर पाता कि ‘जब उसने कुछ गलत किया ही नहीं, तो उस पर दोषारोपण क्यों?’

यदि हम सिक्के के दूसरे पक्ष का अवलोकन करें, तो यह सत्य प्रतीत होता है…फिर निरपराधी को सज़ा क्यों? उस ऊहापोह की स्थिति में वह भूल जाता है कि सत्य शक्तिशाली होता है; प्रभावी होता है; सात परदों को भेद सबके सम्मुख अवश्य प्रकट हो ही जाता है। हां! इसकी एकमात्र शर्त है– सृष्टि-नियंता व मानवता में अटूट-अथाह व असीम-बेपनाह विश्वास …क्योंकि उसकी अदालत में देर है, अंधेर नहीं तथा वह सबको उनके कर्मों के अनुसार ही फल देता है। यह विधि का विधान है कि मानव को समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कभी भी, कुछ भी नहीं मिल सकता। सब्र व संतोष का फल सदैव मीठा होता है और उतावलेपन में कृत-कर्म कभी फलदायी नहीं होता। सो! सबसे बड़ा दोष…मानव की संशय,   अनिर्णय व असमंजस की स्थिति है, जहां उसे सावन के अंधे की भांति सर्वत्र हरा ही हरा दिखाई पड़ता है

सो! मानव को परमात्म-सत्ता पर विश्वास रखते हुए सदैव आशावादी होना चाहिए, क्योंकि आशा जीवन में साहस, उत्साह व धैर्य संचरित करती है;  जिसका दारोमदार सकारात्मक सोच पर है। आइए! व्यर्थ की सोच व नकारात्मकता को अपने जीवन से बाहर निकाल फेंकें। अपनी आंतरिक शक्तियों व ऊर्जा को अनुभव कर जीवन का निष्पक्ष व निरपेक्ष भाव से आकलन करें तथा उसे निष्कंटक समझ, सहज रूप से स्वीकारें। परनिंदा से कभी भी विचलित हो कर अपना जीवन नरक न बनाएं, बल्कि उसे स्वर्ग बनाने का हर संभव प्रयास करें…क्योंकि निराश व अवसाद -ग्रस्त व्यक्ति के साथ कोई पल-भर का समय भी व्यतीत करना पसंद नहीं करता …सब उससे ग़ुरेज़ करते हैं, दूरी बनाए रखना चाहते हैं। दूसरी ओर प्रसन्न-चित्त व्यक्ति सदैव मुस्कुराता रहता है; महफ़िलों की शोभा होता है, सब उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते तथा उसका सान्निध्य पाकर स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं।

अन्त मैं यही कहना चाहूंगी कि सत्य आपकी सकारात्मक सोच व सत्कर्मों से स्वयं प्रकट हो जाता है। प्रारंभ में भले ही लोग उस पर विश्वास न करें, परंतु एक अंतराल के पश्चात् सच्चाई सबके सम्मुख प्रकट हो जाती है और विरोधी पक्ष के लोग भी उसके मुरीद हो जाते हैं। सब यही कहते हैं ‘बेचारा समय की मार झेल रहा था, जबकि वह निर्दोष था… व्यवस्था का शिकार था। कितना धैर्य दिखाया था, उसने आपदा-विपदा के समय में…उसने न तो किसी पर अंगुली नहीं उठाई और न ही स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए किसी दूसरे पर इल्ज़ाम लगाया व दोषारोपण किया।’ ऐसे लोग वास्तव में महान् होते हैं, जिनकी महात्मा बुद्ध, महावीर वर्द्धमान व अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के रूप में श्रद्धा-पूर्वक उपासना-आराधना होती है और वे युग-पुरुष बन जाते हैं; विश्व-विख्यात व विश्व-वंदनीय बन जाते हैं। आइए! हम भी उपरोक्त गुणों को आत्मसात् कर सर्वांगीण विकास करें तथा अपने व्यक्तित्व को सर्व-स्वीकार्य व चिर-स्मरणीय बनाएं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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मराठी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – सौंदर्याचा  आरसा ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपका एक मराठी आलेख “सौंदर्याचा  आरसा” )

☆  सौंदर्याचा  आरसा ☆

गाव बदललं, गावातली माणसं बदलली, पण मनातल गाव, गावातलं घर, ते मात्र जसंच्या तसं राहिलं. आठवण झाली  . . . कुठं काहीही कार्यक्रम नसताना, कविसंमेलनाच कारण सांगून घराबाहेर पडलो, नीट तडक गावची एसटी धरली.

जवळ जवळ दहा वर्षांनंतर गावी येत होतो. गावच्या घरापर्यंत  आता टमटम जात होत्या. मला गाव पहायचा होता. गावातले बदल जवळून पहायचे होते. तेली आळीतला लाकडी घाणा. वेशीवरचा मारूती, शाळेजवळचा पिंपळाचा पार, दत्त मंदिर, राम मंदिर, बाजारपेठ, लालू शेठची पतपढी,कासार आउट, मोमीन  आउट, पोस्ट ऑफीस, ग्रामपंचायत कार्यालय, सार सार नजरेखालून घालायचं होत. गावात उतरलो अन् टवाळ पोरागत भिरभिरत्या नजरेने गाव बघू लागलो.

माणस भेटत होती. ओळखीचं हसत होती. जुजबी चौकश्या करीत  आपापल्या कामाला लागत होती. पारावरचे म्हातारेही हातची तंबाखू,  अन तोंडचा विषय सोडायला तयार नव्हते. .

”एकलाच आलासा जणू? पोराबाळांना तरी  आणायचं,  आरं, आंबे, फणसाचा सिझन हाय. . . गावचा रानमेवा तुमची पोरं खाणार कवा ?घेऊन यायचं त्यानला बी , म्होरल्या बारीला ध्यानी ठेव बर. ” असा जिव्हाळ्याचा संवाद करीत ,गावच्या मातीचा सुगंध मनात भरून घेत गावच्या घरात शिरलो.

गावाकडं एक बरं असत. . .  अचानक जाऊन भेटण्याची मजा काही औरच  असते. थोडी गडबड, धावपळ, धांदल  उडते. काहिंची थोडक्यात चुकामूक होते, त्यांना भेटण्या साठी मुक्काम वाढवण्याचा  आग्रह होतो. मी ही मुक्काम वाढवला. कार्यक्रम  उशीरा संपणार असल्याची  आणखी  एक लोणकढी थाप पचवली. अन गावी जाण अपरिहार्य  असल्याचं पटवून दिलं. अन् गावच्या माणसात हरवून गेलो. मनातल्या गावातनं ,प्रत्यक्ष वास्तवात जाताना थोड  अवघड जातं. पण जुन्या आठवणी न भेटलेल्या माणसांची  आठवण भरून काढतात.

गावातल्या घरान गावकी, भावकी जीवापाड जपली होती. वाटण्या झाल्या होत्या. वेळप्रसंगी  मन दुखावली तरी  माणस दुरावली नव्हती. माझ जाण नसल तरी भाऊ , पत्नी,  आई , वहिनी, काका, काकी, आज्जी, यांनी घरोबा जपला होता. वाडवडिलांनी राखलेली वाडी,  फुलवलेलं परसदार, आजही  सणावाराला वानवळ्याच्या रूपात भरभरून प्रतिसाद देत होतं.

भावकीतले चार हात शेतीत, फुलमळ्यात, फळबागेत, परसात, राबायचे, त्यांच्या कष्टान काळ्या मातीचं सोनं व्हायचं. ज्या मातीत लहानपणी खेळत लहानाचे मोठे झालो ती माती राबणारा हातांना भरभरून यश देत होती. माझं गावाकडं प्रत्यक्ष येणं नसलं तरी गावची भावकी संपर्कात होती. घरातले कुणी ना कुणी तरी गावाकडे फेरफटका टाकायचे. त्यामुळे ख्याली खुशाली कळायची. पण रानवारा प्रत्यक्ष श्वासात भरून घेण्याचा  आनंद काही औरच  असतो. त्याचा आनंद मी घेत होतो.  जमेल तितके गाव नजरेत साठवून ठेवण्याचा प्रयत्न करीत होतो.

शहरातील बरीचशी खरेदी माझ्याच सल्ल्याने व्हायची. कथा, कविता, जशी माणसाला जगायला शिकवते ना तसा हा निसर्ग, गावच घर जोडून ठेवण्यात यशस्वी ठरला होता. कुणी फुले, फळे, दूध, दही, ताक, लोणी, तूप, खवा, खरवस,  अंडी ,नारळ ,सुपार्माया मागायला यायचं. बाहेर पेक्षा निम्मा किमतीन परसबागेत फुलवलेलं विकलं जायचं. धार्मिक कार्यात तर सढळ हाताने हा दानधर्म व्हायचा.

साहित्यिक जसा साहित्यात रमतो ना, तसं गावच घर या निसर्गरम्य परिसरात व्यस्त झालं होत. लेखकाने कागदावर लेखणी टेकवावी अन  (मोबाईलची बटणे दाबावीत..) अन प्रतिभा शक्तीने भरभरून दान पदरात घालाव तशी गावच्या घरी चारदोन जण मशागत करायची. घरातली जुनी जाणती परसबाग फुलवायची. कुणाला रोजगार मिळाला होता. कुणाला आधार मिळाला होता. गावचा निसर्ग माझ्या आठवणींशी स्पर्धा करीत मला  एकट पाडीत होता. निसर्ग त्याच काम चोख करीत होता.  करवंद , आंबा, काजू, फणस, केळी, पेरू, नारळ, पोफळी यांची वर्णन मी जितक्या उत्स्फूर्ततेने करायचो, तितक्याच  उत्कटतेने निसर्ग त्या त्या ऋतूत भरभरून फुलायचा.

दोन दिवसांनी जेव्हा भरभरून रानमेवा घेऊन घराकडे निघालो ना, तेव्हा त्या जडावलेल्या पिशव्यांसारखच मनही भरून  आलेलं. दहा वर्षानंतर अचानक मला पाहिल्यावर आजीच डोळही असंच भरलेलं.  या गावान शब्दा शब्दातून जीवन जगायला शिकवले. माझ्यातला कवी, लेखक,कलाकार जिवंत ठेवला तो याच निसर्ग सौंदर्याने.  ह्रदयाच्या दाराला  अक्षरलेण्यांच तोरण बांधल ते इथल्याच अनुभूतीनी . निसर्गाच हे देणं , मांगल्याचं समृद्धीचं लेण अजमावून घेण्यासाठी मी ठरवल.  आता जास्तीत जास्त वेळा, वेळ काढून गावाकडे यायचंच. गावाकचं हे घर  म्हणजे  आमच्या वाडवडिलांच्या पूर्वसंचिताचा वारसा  आणि  …आणि या घरात राहणा-या माणसांच्या अंतरंगातील आणि भोवतालच्या निसर्गातील सोंदर्याचा आरसा

(श्री विजय यशवंत सातपुते जी के फेसबुक से साभार)

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 26 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। डॉ भीमराव  आम्बेडकर जी के जन्म दिवस के अवसर पर हम आपसे इस माह महात्मा गाँधी जी एवं  डॉ भीमराव आंबेडकर जी पर आधारित आलेख की श्रंखला प्रस्तुत करने का प्रयास  कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का चतुर्थ एवं अंतिम आलेख  “महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 26 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 4

जब डाक्टर आम्बेडकर दलितों के लिए संघर्ष कर रहे थे तब उनका प्रभाव क्षेत्र वर्तमान  महाराष्ट्र व मध्यप्रदेश का कुछ भू-भाग था। महाराष्ट्र की राजनीति में ब्राह्मणों का अच्छा वर्चस्व था और तब तक नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना भी हो चुकी थी। लेकिन डाक्टर आम्बेडकर को किसी भी रुढीवादी हिन्दू संगठन या बड़े  नेतृत्व का साथ उनके सत्यागृह व अछुतोद्दार आन्दोलन मे नहीं मिला। कतिपय ब्राह्मण मित्रों के अलावा, जिन्होंने डाक्टर आम्बेडकर के आह्वान पर दलितों का यज्ञोपवीत संस्कार किया, रत्नागिरी में नजरबन्द विनायक दामोदर उर्फ़ वीर  सावरकर ने उनका भरपूर साथ दिया। यद्दपि वीर सावरकर रत्नागिरी से बाहर नहीं जा सकते थे तथापि उन्होंने वहां अछूतों के लिए पतितपावन मंदिर की स्थापना की और एक पृथक स्कूल खोलने का प्रस्ताव दिया जहाँ अछूतों के बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकें। उन्होंने समय समय पर पत्राचार द्वारा डाक्टर आम्बेडकर के प्रयासों को पूर्ण समर्थन दिया तथा सनातनी हिन्दुओं को भी सामाजिक भेदभाव के लिए लताड़ा। वीर सावरकर की सहमति डाक्टर आम्बेडकर रोटी बेटी सम्बन्ध से भी थी। यद्दपि हिन्दू महासभा के अन्य नेता तथा घनश्यामदास बिडला सरीखे सनातनी हिन्दू अस्पृश्यता  को तो दूर करना चाहते थे पर दलितों के साथ रोटी बेटी सम्बन्ध को लेकर उन्हें आपत्ति थी। गांधीजी उस समय अंग्रेजों की अनेक कूटनीतिक चालों का अपने राजनीतिक अस्त्र सत्य और अहिंसा से जबाब दे रहे थे। मुसलमानों को राष्ट्रीय  आन्दोलन से जोड़ने के उनके प्रयासों की आलोचना की जा रही थी और उसे मुस्लिम तुष्टिकरण का नाम दिया जा रहा था, दूसरी ओर युवा वर्ग, क्रांतिकारियों के विचारों की ओर आकर्षित होकर, हिंसा का रास्ता अपनाने उत्सुक हो रहा था। ऐसे समय में गांधीजी के सामने बड़ी विकट स्थिति थी वे हिन्दू समाज में संतुलन बनाए रखना चाहते थे साथ ही दलित समुदाय को अलग-थलग भी नहीं होने देना चाहते थे। गांधीजी की सौम्यता भरी नीतियों ने उस वक्त समाज को विघटन से बचाने में बड़ी मदद की।

जब 1937 में गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट के तहत राज्य विधान मंडल के चुनाव हुए तो डाक्टर आम्बेडकर ने महाराष्ट्र में कांग्रेस के विरुद्ध अपने प्रत्याक्षी खड़े किये फलस्वरूप कांग्रेस वहाँ सबसे बड़े दल के रूप में तो चुनाव जीती पर उसे सरकार बनाने के लिए निर्दलीय विधायकों का साथ लेना पडा क्योंकि डाक्टर आम्बेडकर ने कांग्रेस के साथ सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया था। इसी समय मोहमद अली जिन्ना ने मुसलमानों की पृथकतावादी मांगों को जोरशोर से उठाना शुरू कर दिया और उनके लिए अलग राष्ट्र की मांग की। इधर डाक्टर आम्बेडकर भी यदाकदा दलितों से हिन्दू धर्म त्यागने की बात करने लगे और मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि धर्मों के लोग उनपर डोरे डालने लगे। इस दौरान डाक्टर आम्बेडकर को एक दो अवसर पर मुस्लिम लीग ने अपने कार्यक्रमों मे बुलाया और जब कांग्रेस ने आठ राज्यों के अपने मंत्रिमंडल को इस्तीफा देने का निर्देश नवम्बर 1939 में दिया तो मुस्लिम लीग ने इसे मुक्ति दिवस के रूप में मनाया। लीग के इस आयोजन में डाक्टर आम्बेडकर भी भाषण देने पहुंचे। आम जनता में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। उस दौरान जब गांधीजी और कांग्रेस लीग की पृथक राष्ट्र पाकिस्तान बनाने की मांग का विरोध करते हुए अखंड भारत पर जोर दे रहे थे तब डाक्टर आम्बेडकर ने 1940 में ‘थाट्स ऑन पाकिस्तान’ नामक पुस्तक लिखकर मुसलमानों की पृथक राष्ट्र संबंधी मांग का समर्थन कर दिया। जब देश में भारत छोड़ो आन्दोलन जोरों पर था तब भी डाक्टर आम्बेडकर ने इसमें अपनी भागीदारी न दिखाते हुए फ़ौज में दलितों की भर्ती का अभियान चलाया। इस प्रकार हम पाते हैं कि गांधीजी और डाक्टर आम्बेडकर की नीतियों और तरीकों में गंभीर मतभेद थे पर वे दोनों एक बात पर तो सहमत थे वह था अछूतोद्धार।

स्वराज प्राप्ति के बाद गांधीजी के अनुरोध पर ही संविधान सभा में डाक्टर आम्बेडकर को शामिल किया गया और इस प्रकार एक समता मूलक एवं लोकतांत्रिक  संविधान की रचना संभव हो सकी जिसका सपना महात्मा गांधी ने आज़ादी के पहले देखा था और जिसका वायदा उन्होंने डाक्टर आम्बेडकर से पूना पेक्ट के जरिये किया था। डाक्टर आम्बेडकर ने देश को उदार  राजनीतिक लोकतंत्र का संविधान दिया । उनके मतानुसार आर्थिक लोकतंत्र हांसिल करने के अनेक मार्ग यथा व्यक्तिवादी, समाजवादी, साम्यवादी हो सकते हैं, और किसी एक मार्ग का चयन समूह विशेष की तानाशाही का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, इसीलिए उन्होंने  अर्थनीति के निर्धारण का दायित्व चुनी हुई सरकार पर छोड़ा गया और प्राकृतिक संसाधनों के राष्ट्रीयकरण का विरोध किया।   आम्बेडकर  संविधान निर्माण में भी कतिपय विषयों पर आम्बेडकर का गांधीवादियों से टकराव हुआ। आम्बेडकर एक शक्तिशाली केंद्र पर आश्रित व्यवस्था के समर्थक थे । डाक्टर आम्बेडकर मानते थे कि आवश्यकता से अधिक संघवाद पूरे देश में संविधान के समान रूप से क्रियान्वयन को अवरुद्ध करेगा और अस्पृश्यता समाप्ति  जैसे विषयों को अनेक राज्य लागू करने से मना कर देंगे। गांधीजी के समर्थक गाँव के स्तर तक सत्ता के विकेंद्रीकरण के पक्षधर थे वे नए संविधान में प्राचीन भारत के राजनय की झलक देखना चाहते थे और पश्चिमी लोकतांत्रिक व्यवस्था की जगह नए संविधान को ग्राम पंचायतों और जिला पंचायतों की आधारशिला पर खडा करना चाहते थे। अंततः डाक्टर आम्बेडकर ने अपने तर्कों से आवश्यकता से अधिक संघवाद के प्रस्तावों को खारिज करवा दिया और इस प्रकार संविधान निर्माण में गांधीजी के ग्राम स्वराज संबंधी चिंतन की उपेक्षा हुई। आगे चलकर  प्राकृतिक संसाधनों के राष्ट्रीयकरण व पंचायती राज्य संबंधी संविधान संशोधन विभिन्न स्वरूपों में इंदिरा गांधी ,राजीव गांधी व नरसिम्हा राव  के प्रधानमंत्रित्व में पारित हुए। त्रिस्तरीय पंचायती राज्य व्यवस्था लागू करने  के प्रयास तो 1956 से ही शुरू हो गए थे पर इसे गति प्रदान की राजीव गांधी ने और अंततः 73वें संविधान संशोधन के माध्यम से गांधीजी का पंचायती राज का सपना 1993 में लागू हुआ। डाक्टर आम्बेडकर ने गांधीवादियों के द्वारा दिए गए अन्य सुझाव जैसे शराब बंदी, ग्रामीण क्षेत्रों कुटीर उद्योगों की स्थापना, सहकारिता को प्रोत्साहन, गौवध  आदि विषयों को भी संविधान के मौलिक विषयों / अधिकारों की बजाय  नीति निर्देशक सिद्धांतों संबंधी अनुछेद में शामिल करवाया।इसके फलस्वरूप यह सभी बातें जो  गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम का हिस्सा रही हैं वे समान रूप से सारे देश में लागू नही की जा सकीं एवं इन्हें संघ के राज्यों पर उचित कदम लेने हेतु अधिकृत कर दिया गया। चूँकि यह सभी बातें संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत वर्गीकृत की गई अत: नागरिकों के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं रहा जिससे वे संघ या राज्य पर इसे लागू करने हेतु संवैधानिक अधिकारों के तहत दावा कर सकें। कतिपय राज्यों ने इन नीति निर्देशक सिद्धांतों संबंधी अनुछेद का सहारा लेकर अपने अपने राज्यों में कुटीर उद्योग, सहकारिता, शराब बंदी आदि को सफलतापूर्वक लागू कर गांधीजी के सपनों को साकार किया। लघु एवं ग्रामोंद्योग को लेकर भी सरकारों ने अपने स्तर पर आधे अधूरे प्रयास किये और आपसी तालमेल के अभाव में वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हो सके।

इस प्रकार हम देखते हैं कि इन दोनों महापुरुषों में अस्पृश्यता को लेकर गहन मतभेद तो थे पर दोनों के प्रयास एक दूसरे के पूरक थे और उनके प्रयासों ने इन समस्या के निदान में महती भूमिका का निर्वहन किया।  यद्दपि डाक्टर आम्बेडकर ने अनेक बार कठोर रुख अपनाया और अपनी बात पर अडिग रहे तथापि उनके मन में महात्मा गांधी के प्रति श्रद्धा का भाव था और वे यह भलीभांति जानते थे कि देश हित में महात्मा गांधी का स्थान महत्वपूर्ण है। इसी भावना के वशीभूत होकर उन्होंने पूना पैक्ट को स्वीकार किया और इस प्रकार गांधीजी के प्राणों की रक्षा हो सकी। डाक्टर आम्बेडकर ने गांधीजी की, अस्पृश्यता के संबंधी विचारों का दोनों स्तर पर विरोध किया। डाक्टर आम्बेडकर  अस्पृश्यता को सामाजिक बुराई ही नहीं वरन अभिशाप भी मानते थे। वे गांधीजी की दलील से सहमत नहीं थे कि     अस्पृश्यता वर्ण व्यवस्था या जाति प्रथा के कारण नहीं है। उन्होंने गांधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत का भी इसी आधार पर विरोध किया और कहा कि जैसे सवर्ण अछूतों को उनके सामजिक अधिकारों से वंचित रखना चाहते हैं उसी प्रकार अमीर भी गरीबों को अपना धन कैसे दे सकते हैं। वे गांधीजी की इस बात से भी असहमत थे कि जाति प्रथा भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत करती है और यह रोजगार की गारंटी भी देती है। महात्मा गांधी से उनके मतभेद संविधान निर्माण में भी परिलक्षित हुए हैं।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विश्व पृथ्वी दिवस , विश्व पुस्तक दिवस और रमज़ान मुबारक ☆ श्री राकेश कुमार पालीवाल

श्री राकेश कुमार पालीवाल

 

(सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक श्री राकेश कुमार पालीवाल जी  वर्तमान में महानिदेशक (आयकर), हैदराबाद के पद पर पदासीन हैं। गांधीवादी चिंतन के अतिरिक्त कई सुदूरवर्ती आदिवासी ग्रामों को आदर्श गांधीग्राम बनाने में आपका महत्वपूर्ण योगदान है। आपने कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें  ‘कस्तूरबा और गाँधी की चार्जशीट’ तथा ‘गांधी : जीवन और विचार’ प्रमुख हैं।

लॉक डाउन के इस सप्ताह में कोरोना के आंकड़ों के बीच कुछ दिन विशेष थे जो आये और चले गए।  हम आदरणीय श्री राकेश कुमार पालीवाल जी की  फेसबुक वाल से ऐसे ही तीन दिनों की स्मृतियाँ सजीव करने का प्रयास कर रहे हैं  – विश्व पृथ्वी दिवस , विश्व पुस्तक दिवस और  रमज़ान मुबारक )

☆ अर्थ डे (धरती दिवस) पर : दो पंक्ति मेरी भी ☆

सबसे पहले यह वैज्ञानिक सच कि हमारे सौर मंडल में कोई और ग्रह या किसी ग्रह का कोई ऐसा उपग्रह नहीं है जहां विविध जीवन रूपों के लिए इतनी अच्छा वातावरण है। अभी तक तो सौर मंडल के बाहर भी और कहीं जीवन के निशान नहीं मिले हैं इसलिए धरती ही इकलौती ऐसी जगह है जहां प्राकृतिक सौंदर्य का अद्भुत खजाना होने।

हमने इस प्राकृतिक सौंदर्य को पिछले सौ साल में बहुत नष्ट भ्रष्ट किया है। इस सदी के महानतम वैज्ञानिक स्टीफेन हाकिंस धरती को अलविदा कहने से पहले हमें चेता कर गए हैं कि प्रकृति का विनाश करने की यही रफ्तार रही तो यह धरती मनुष्य का बोझ अगले पचास साल भी नहीं झेल पाएगी और मनुष्य के अस्तित्व पर ही खतरा खड़ा हो जाएगा।

सौ साल पहले गांधी ने हमें चेताया था कि यह धरती सारे मनुष्यों और जानवरों की आवश्यकता की पूर्ति करने में सक्षम है लेकिन एक व्यक्ति के लालच के लिए कम है। आज कितने लोगों के कितने लालच धरती की सतह से जंगल मिटा रहे हैं और गर्भ को खोद कर तेल खनिज और गैस आदि निकाल रहे हैं। इसका खामियाजा बढ़ता प्रदूषण, गिरता स्वास्थ और महामारी का खतरा हमारे सामने सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ा है।

कम शब्दों में अपनी बात समाप्त करते हुए धरती की तरफ से आप सबको अपना यह अशआर अर्ज करता हूं –

अपनी कामना और स्वार्थ की चादर निचोड़ दो

कुछ  दिन को मेरे हाल पर मुझको भी छोड़ दो

–  राकेश क़मर (आर के पालीवाल)

☆ विश्व पुस्तक दिवस पर : गांधी पर गांधी के पौत्र की पुस्तक ☆

इधर हाल ही में राजमोहन गांधी की गांधी पर लिखी शोध पुस्तक A Good Boatman पढ़ी है। पुस्तक का शीर्षक भारत की आजादी के आंदोलन की नाव को गांधी द्वारा ठीक से खेने की तरफ इंगित करता है।

सामान्यत: जब कोई परिजन या नजदीकी रिश्तेदार अपने किसी आत्मीय के बारे में लिखता है तो तो वह जरूरत से ज्यादा तारीफ करने लगता है और अच्छी अच्छी बातों का अतिश्योक्तिपूर्ण तरीके से वर्णन करता है और उसके कमजोर पक्ष को या तो पूरी तरह दरकिनार कर देता है या उसे कुतर्क से उचित ठहराने के कोशिश करता है।

कभी कभी इसका उल्टा भी होता है। लेखक अपनी निष्पक्षता और पारदर्शिता दिखाने के चक्कर में जरूरत से ज्यादा आलोचनात्मक दृष्टिकोण अख्तियार कर लेता है। गांधी में खुद यह गुण या अवगुण था कि वे अपनी अच्छाइयों से ज्यादा अपनी कमियों को बड़ा करके देखते थे।

इस कृति के लेखक के रूप में राजमोहन गांधी की तारीफ बनती है कि उन्होंने पूरी कोशिश की है कि पाठकों को गांधी को जस का तस दिखाने की कोशिश करें। इसीलिए शायद उन्होंने किताब का नाम Excellent Boatman आदि नहीं रखा।

इस किताब को लिखने के लिए लेखक ने जबरदस्त शोध किया है इसलिए इसमें कुछ ऐसी चीजें भी आ सकी हैं जो गांधी वांग्मय में नहीं हैं। ज्यादातर तथ्यों के साथ उनके रेफरेंस देने से किताब की विश्वसनीयता बढ़ी है।

गांधी के जीवन और विचार को समग्रता से समझने के लिए इस किताब को जरूर पढ़ा जाना चाहिए।

विश्व पुस्तक दिवस पर सभी लेखकों और पाठकों को हार्दिक शुभकामनाएं।

 ☆ रमजान मुबारक

इस बार रमजान में दोहरी परेशानी है। एक तो गर्मी का मौसम है दूसरे कोरोना की वैश्विक महामारी ने भय का माहौल बनाया हुआ है और खाने की चीज़ों की किल्लत हो रही है। ऐसे माहौल में त्योहार को सामूहिक रूप में भी नहीं मना सकते।

चाहे रमजान हो या नव दुर्गों का साप्ताहिक उपवास, वह तन और मन दोनों की शुद्धि और जन कल्याण की सदभावना के लिए होता है। उम्मीद है इस रमजान में भी ऊपर वाले के करम से सब खैरियत रहेगी और रमजान के खत्म होने के पहले महामारी भी खत्म हो जाएगी और हम सब मिलकर अच्छे से ईद मना सकेंगे।

रमजान मुबारक 

© श्री राकेश कुमार पालीवाल

हैदराबाद

(आदरणीय श्री राकेश कुमार पालीवाल जी की फेसबुक वाल से साभार) 

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