हिन्दी साहित्य – आलेख – आम हिन्दी पाठकों को हिंग्लिश परोसते कुछ अखबार – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

आम हिन्दी पाठकों को हिंग्लिश परोसते कुछ अखबार
(आजकल हिन्दी के समाचार पत्रों में हिंगलिश के उपयोग पर डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी का तथ्यात्मक एवं विचारणीय आलेख)
भूमंडलीकरण या सार्वभौमिकता की बात कोई नई नहीं है। हमारे प्राचीन ग्रंथ ‘वसुधैव कुटुंबकम्” की बात लिख कर इसकी आवश्यकता पहले ही प्रतिपादित कर चुके हैं, लेकिन इसका आशय यह कदापि नहीं है कि आवश्यकता न होते हुए भी हम अपनी संस्कृति ,रीति-रिवाज, परंपराओं, धर्म एवं भाषा तक को दरकिनार कर दूसरों की गोद में बैठ जाएँ। बेहतर तो यह है कि हम स्वयं को ही इतना सक्षम बनाने का प्रयास करें कि हमें छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों का मुँह न ताकना पड़े। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि हम केवल और केवल नकलची बनकर नकल न उतारते फिरें।  परिस्थितियों एवं परिवेश की आवश्यकतानुरूप स्वयं को ढालना अच्छी बात है, परंतु बिना सोचे-समझे अंधानुकरण को बेवकूफी भी कहा जाता है। एक छोटा सा उदाहरण है ‘नेक टाई’ का। इसे गले में बाँधने का सिर्फ और सिर्फ यही उद्देश्य है कि ठंडे देशों में गले और गले के आसपास ठंड से बचा जा सके परंतु हमारे यहाँ मई-जून की गर्मी में भी मोटे कोट-पेंट के साथ नेक टाई पहन कर लोग अपनी तथाकथित प्रतिष्ठा बताने से नहीं चूकते। आंग्ल भाषा की उपयोगिता अथवा आवश्यकता हो या न हो कुछ पढ़ेलिखे नासमझ अंग्रेजी झाड़े बिना नहीं रह पाते। हम केवल परस्पर वार्तालाप की बात करें तब क्या दो विभिन्न भाषी एक दूसरे की बात समझ पाएँगे? कदापि नहीं। बस, मैं यही कहना चाहता हूँ कि आजकल हमारे कुछ हिंदी अखबार वालों का मानना है कि वे देवनागरी में इंग्लिश लिखकर अपनी ज्यादा लोकप्रियता अथवा पहुँच बना लेंगे। ऐसा करना क्या, सोचना भी गलत होगा। एक हिंदी के आम पाठक को उसकी अपनी भाषा के अतिरिक्त चीनी, रूसी, जापानी या अंग्रेजी के शब्दों को देवनागरी में लिखकर पढ़ाओगे तो क्या वह आपके द्वारा लिखी बात पूर्णरूपेण समझ सकेगा? नहीं समझेगा न। आप सोचते हैं जो लोग अंग्रेजी समझते हैं उनके लिए आसानी है, तो जिसे अंग्रेजी आती है फिर आपके हिन्दी अखबार क्यों पढ़ेगा। दूसरी बात जिसे हिंदी कम आती है अथवा अहिंदी भाषी है, तब तो ऐसे लोग हिंदी के बजाय अपनी भाषा को ज्यादा पसंद करेंगे, अथवा अंग्रेजी को रोमन में न पढ़कर पूरा अंग्रेजी अखबार ही न खरीदेंगे।
यह मात्र सांकेतिक चित्र है।

मेरे मत से इन तथाकथित अखबार वालों की भाषा से यदि हिंग्लिश तबका जुड़ता है, जिसे ये हिंग्लिश पाठकों की अतिरिक्त वृद्धि मानते हैं तो उन्हें स्वीकारना पड़ेगा कि उससे कहीं ज्यादा इनके हिन्दी पाठकों में कमी हो रही है। उनके पास अन्य पसंदीदा  अखबारों के विकल्प भी होते हैं। आज के अंतरजालीय युग में जब हर सूचना हमारे पास आप से पहले पहुँच रही है, तब इन तथाकथित अखबारों की प्राथमिकताएँ बची कहाँ हैं। आज के तकनीकी युग एवं खोजी पत्रकारिता के चलते छोटे से छोटा अखबार भी पिछड़ा नहीं है। अब तो ग्रामीण अंचल तक अद्यतन रहते हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी की मर्यादा, सम्मान एवं संवर्धन हमारा कर्तव्य है। हिन्दी के पावन आँचल में किसी गैर भाषा के इस तरह थिगड़े लगाने का प्रयास राष्ट्रभाषा का अपमान और मेरे अनुसार राष्ट्रद्रोह जैसा है। विश्व की किसी भी भाषा, संस्कृति अथवा परंपराओं से घृणा अथवा अनादर हमारी संस्कृति में नहीं है। हमारे नीति शास्त्रों में ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ भी लिखा है। आज हिन्दी की विकृति पर तुले हुए लोग हठधर्मिता की पराकाष्ठा पार करते नजर आ रहे हैं। इनकी अपने देश, अपनी संस्कृति एवं अपनी राष्ट्रभाषा संबंधी प्रतिबद्धता भी संशय के कटघरे में खड़ी प्रतीत होने लगी है। आज आप किसी भी पाठक से पूछ लीजिए, वह आज लिखी जा रही विकृत भाषा एवं अव्यवहारिक संस्कृति से स्वयं को क्षुब्ध बतलायेगा। अब तो सुबह-सुबह अखबार पढ़ कर मन में कड़वाहट सी भर जाती है। अप्रिय भाषा एवं अवांछित समाचारों की बाढ़ सी दिखाई देती है, वहीं अखबारों की यह भी मनमानी चलती है कि हम अपने घर, अपने समूह या विज्ञापन का चाहे जितना बड़ा भाग प्रकाशित करें, मेरी मर्जी। पाठक के दर्द की किसी को चिंता नहीं रहती। सरकार भी इनकी नकेल नहीं कस पाती। सरकारी, बड़े व्यवसायियों एवं नेताओं के विज्ञापनों की बड़ी कमाई से अखबार बड़े उद्योगों में तब्दील हो गए हैं। हम चाहे जब अखबार के मुख्य अथवा नगर पृष्ठ तक में एक अदद पूरी खबर के लिए तरस जाते हैं, फिर नगर, देश-प्रदेश एवं समाज की बात तो बहुत दूर है। समाचार पत्रों से स्थानीय साहित्य भी जैसे लुप्त होता जा रहा है। आज दरकार है आदर्श भाषा की, आदर्श सोच की और आदर्श अखबारों की। साथ ही देश तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व की। मैं मानता हूँ कि समाज सुधार का ठेका अखबारों ने नहीं ले रखा है,  किंतु यह भी सत्य है कि, ये तथाकथित अखबार क्या मानक गरिमा का ध्यान रख पाते हैं।

अंत में पुनः मेरा मानना है कि आज जब हर छोटे-बड़े शहरों में पहले जैसे एक-दो नहीं पचासों अखबार निकलते हैं, तब ऐसे में अपनी व्यावसायिक तथा निजी सोच पर नियंत्रण कर ये विशिष्ट अखबार हम असंगठित पाठकों को मनमाना परोसने से परहेज करें। राष्ट्रभाषा हिंदी को हिंग्लिश बनने से बचाने के प्रयास करना हम सभी का नैतिक कर्त्तव्य है, इसे अमल में लाने का विनम्र अनुरोध है।
© विजय तिवारी ‘किसलय’ 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – आत्मनिर्भरता ही आत्मविश्वास की पहली सीढ़ी – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

आत्मनिर्भरता ही आत्मविश्वास की पहली सीढ़ी

(सुश्री ऋतु गुप्ता जी के लेख ,कहानी व कविताएँ विभिन्न समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं।दैनिक ट्रिब्यून में जनसंसद में आपको लेख लिखने के लिए कई बार प्रथम पुरस्कार मिला है। आपका एक काव्य संग्रह ‘आईना’ प्रकाशित हो चुका है। दो किताबें प्रकाशन के लिए तैयार हैं। प्रस्तुत है सुश्री ऋतु जी का यह प्रेरणास्पद लेख।)

मैनें अपनी जिंदगी से चाहे कुछ सीखा हो या न पर एक बात जरूर सीखी है कि- अगर आत्मविश्वास प्रबल है तो जीत निश्चित है।आत्मविश्वास का अर्थ यही है कि अपने ऊपर विश्वास या फिर यह भी कह सकते हैं कि अपने द्वारा किये जाने वाले कार्यों पर पूर्ण विश्वास। इंसान को जब तक यह लगता है कि वह हर कार्य करने में सक्षम व समर्थ है तब उसका अपने ऊपर विश्वास बना रहता है और यह जीवनरूपी गाड़ी सरपट दौड़ती रहती है,जैसे ही अपने ऊपर से भरोसा डगमगाता है तो उसकी स्थिति पंक्चर टायर वाली गाड़ी के समान हो जाती है।और उसके साथ खत्म होने लगता है उत्साह भरे जीवन का नेतृत्व।यह बात सही कही गई है “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”। 

आत्मविश्वास खोने के जिम्मेदार बहुत से हालात व परिवेश, जगह और समाज हो सकते हैं।बहुत बार इंसान मानसिक कुंठाओं से व हीन भावनाओं से ग्रस्त हो इसका कारण बन बैठता है। बच्चे बहुत कोमल दिल वाले होते हैं । वे जल्द ही इन कुंठाओं के शिकार हो बैठते हैं। अपने आसपास ही ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाते हैं जैसे- एक घर में दो बहनों और भाइयों की सुंदरता या गुणों में अंतर है तो यह तुलना उनके बीच बचपन  से ही चल पड़ती है। तुलना करने वालों का मकसद चाहे कुछ भी हो पर वे मासूम इस बात को दिल पर ले बैठते हैं। यहाँ तक माँ-बाप व सभी यह बात भूल जाते हैं कि अपनी पाँचों उंगलियां भी कभी बराबर नहीं होती।

एक उदाहरण और ले सकते हैं कि कोई बच्चा जो जन्म से ही शारिरिक विकलांगता लिए पैदा हुआ है या फिर किसी दुर्घटना वश विकलांग हो गया है तो उसका दिल बेहद कोमल हो जाता है वह इस बात को स्वीकार करने को तैयार होता भी है तो सामाजिक माहौल ऐसा होता है कि उसको यह बात भूलने ही नहीं दी जाती। हर जगह चाहे नौकरी हो, शादी का सवाल हो या फिर शिक्षा हर जगह  यह कमी आड़े आने लगती है।उसका विश्वास टूटने लगता है, ऊपर से सामाजिक ताने और आहत कर जाते हैं।

कोई इंसान किस परिवार या जगह पर जन्म लेता है सफलता सिर्फ उसी पर निर्भर नहीं करती कई बार गरीब परिवार के बच्चों ने वो मुकाम हासिल किये हैं जो अमीर भी नहीं सोच सकते। उदाहरण के लिए हम अब्राहम लिंकन, डॉक्टर ए. पी. जे. अब्दुल कलाम  और अल्बर्ट आइंस्टीन आदि अनेक ऐसे उदाहरण है जिन्होंने अपने दृढ़ निश्चय व आत्मविश्वास के साथ हर कामयाबी हासिल की है।थॉमस अल्वा एडीसन ने 1000 बार बल्ब के बनाने के बाद सफलता प्राप्त की थी पर हौंसले बुलंद रहे उनके।

“हौंसले हों गर बुलन्द कामयाबी भी पैर चूम जाती है

इरादे हों दृढ़ तो वक्त की सुई पक्ष में ही घूम जाती है।

चाहे आप छोटी या बड़ी जगह से हो, पर आपकी सफलता आपके आत्मविश्वास और दृढ़ता से निर्धारित होती है।” -मिशेल ओबामा

अच्छा भला इंसान भी कई बार आत्मविश्वास खोने लगता है जैसे – अच्छी शिक्षा के बाद भी मन लायक नौकरी का न मिलना, मन लायक जीवनसाथी का न मिलना और व्यवसाय आदि में घाटा। इन सब घटनाओं से जीवन असंतुलित हो जाता है। जीवन की डोर हाथ से छूटने लगती है। बहुत कोशिश के बाद भी संभलना मुश्किल हो जाता है। जीवन नैया जब तक आत्मविश्वास रहता है बिना किसी भंवर के आगे बढ़ती रहती है, लेकिन जब अविश्वास रूपी भंवर में फंसने लगती है डूबने के पूरे-पूरे आसार नजर आते हैं।

स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार- “पुराने धर्मों में कहा गया है कि नास्तिक वह है,जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता। नया धर्म कहता है कि नास्तिक वह है,जो अपने ऊपर विश्वास नहीं करता।”

किसी का खोया आत्मविश्वास कैसे लौटे इसमे इंसान खुद अपनी सबसे ज्यादा मदद कर सकता है।सबसे पहले तो उसे खुद चाहिए कि कितने ही बुरे हालात क्यूँ न हो अपने ऊपर से भरोसा कतई न खोये। उसके बाद उसे समझना चाहिए कि अगर राह सही है तो भटकने के बाद भी वह अपनी मंजिल तक ही पहुंचेगा। समाज में भी दूसरे लोगों से अपेक्षा की जाती है कि ऐसे व्यक्ति का मनोबल बढ़ायें ना कि हतोत्साहित करें।

कुछ ऐसे उपाय हैं जिनके चिंतन से हर चिंता दूर हो सकती है जैसे- हर कार्य के लिए दृढ़ इच्छा रखें, लगन से ही कार्य सिद्ध हुआ करते हैं, न कि सोच से।  एक निश्चित लक्ष्य साध कर चलें, नाकामी से मनोबल न गिरने दें, चिंतन करे चिंता नहीं ,सफल हस्तियों की जीवनी पढ़ें व साकारात्मक सोच रखें। एक बार असफलता से जिंदगी पूरी नहीं हो जाती सफलता के लिए तो अभी पूरा जीवन पड़ा है। अगर बार-बार असफलता मिलती है तो भी घबराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह अकेला ऐसा इंसान नहीं है। उसके पड़ाव में ऐसे अनगिनत लोग मिल जायेंगे जो उसका हाथ पकड़ चलने को तैयार हैं और जिनको हालातों ने वैसा ही बना दिया है। वे मिलजुल  कर अपनी समस्याओं का सामाधान निकाल सकते हैं व एक-दूसरे का सहारा बन सकते हैं।

ऐसे ही बच्चों के मामले में तो बहुत एहतियात बरतने की जरूरत है क्योंकि बच्चे कच्ची मिट्टी से बने बर्तनों के समान है जैसे ढालें ढल जाते हैं। बच्चों के ऊपर कभी अपने सपनों का बोझ नहीं लादना चाहिए। उनकी अपनी अलग सपनों की दुनिया हो सकती है। हमेशा उनका मनोबल उंचा कर उनके काम की तारीफ करनी चाहिए। किसी के साथ तुलना न कर उसकी योग्यता को बढ़ावा देना चाहिए। सबके सामने उसकी काबिलियत की तारीफ करनी चाहिए। ऐसा करने से बच्चों में दृढ़ सकंल्प की भावना पैदा होगी व मनोबल बढ़ेगा।

आवेग में आकर कभी गलत कदम नहीं उठाने चाहिए क्योंकि यह बुजदिलों का काम है। जीवन अनमोल है इसका एक-एक क्षण महत्वपूर्ण है अगर हम अपने को महत्त्व देते हैं और प्यार करते है तो यह समाज व दुनिया भी हमें प्यार करेगें। अपने को किसी से कम आंकना खुद के साथ नाइंसाफी है।

आत्मविश्वास से आत्मसम्मान मिलता है और वह आत्मनिर्भरता की पहली सीढ़ी है। यह सफलता व कामयाब जीवन की कुंजी है। बुरा वक्त कभी कह कर नहीं आता।उससे लड़कर आगे बढ़ना ही बाहदुरी है। अपने ऊपर विश्वास रखने वाले कमजोर से कमजोर इंसान कामयाब हो जाते हैं व आत्मविश्वास खोने वाले कामयाब से कामयाब इंसान नाकाम। आत्मविश्वास ही हर सफलता की सीढ़ी है।

© ऋतु गुप्ता

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