हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 2. दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

गतवर्ष दीपावली के समय लिखे तीन संस्मरण आज से एक लघु शृंखला के रूप में साझा कर रहा हूँ। आशा है कि ये संस्मरण हम सबकी भावनाओं के  प्रतिनिधि सिद्ध होंगे।  – संजय भरद्वाज

 

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप 

☆ आज दूसरा शब्ददीप ☆

आज बलि प्रतिपदा है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि। देश के अनेक भागों में बोलचाल की भाषा में इसे पाडवा कहते हैं।

शाम के समय फिर बाज़ार में हूँ। बाज़ार के लिए घर से अमूमन पैदल निकलता हूँ। दो-ढाई किलोमीटर चलना हो जाता है, साथ ही पात्र-परिस्थिति का अवलोकन और खुद से संवाद भी।

दीपावली यानी पकी रसोई के दिन। सोचता हूँ फल कुछ अधिक ले लूँ ताकि पेट का संतुलन बना रहे। मंडी से फल लेकर मेडिकल स्टोर की ओर आता हूँ। एक आयु के बाद फलों से अधिक बजट दवाइयों का होता है।

सड़क खचाखच भरी है। दोनों ओर की दुकानों ने सड़क को अपने आगोश में ले लिया है या सड़क दुकानों में प्रवेश कर गई है, पता ही नहीं चलता। दुकानदार मुहूर्त की बिक्री करने में और ग्राहक उनकी बिक्री करवाने में व्यस्त हैं। जहाँ पाँव धरना भी मुश्किल हो उस भीड़ में एक बाइक पर विराजे ट्रिप्सी ( ट्रिपल सीट का यह संक्षिप्त रूप आजकल खूब चलन में है)  मतलब तीन नौजवान गाड़ी आगे ले जाने की नादानी करना चाहते हैं। कोलाहल में हॉर्न की आवाज़ खो जाने से कामयाबी कोसों दूर है और वे बुरी तरह झल्ला रहे हैं। भीड़ मंथर गति से आगे बढ़ रही है। देह की भीड़ में मन का एकांत मुझे प्रिय है। मन खुद से बातें करने में तल्लीन है और देह भीड़ के साथ कदमताल।

किर्रररर .. किसी प्राणी के एकाएक आगे आ जाने से कोई बस ड्राइवर जैसे ब्रेक लगाता है, वैसे ही भीड़ की गति पर विराम लग गया। कौतुहलवश आँखें उस स्थान पर गईं जहाँ से गति शून्य हुई थी। देखता हूँ कि दो फर्लांग आगे चल रही लगभग अस्सी वर्ष की एक बूढ़ी अम्मा एकाएक ठहर गई थीं। अत्यंत साधारण साड़ी, पैरों में स्लीपर, हाथ में कपड़े की छोटी थैली। बेहद निर्धन परिवार से सम्बंध रखने वाली, सरकारी भाषा में ‘बीपीएल’ महिला। हुआ यों कि विपरीत दिशा से आती उन्हीं की आयु की, उन्हीं के आर्थिक वर्ग की दूसरी अम्मा उनके ठीक सामने आकर ठहर गई थीं। दोनों ओर का जनसैलाब भुनभुना पाता उससे पहले ही विपरीत दिशा से आ रही अम्मा भरी भीड़ में भी जगह बनाकर पहली के पैरों में झुक गईं। पूरी श्रद्धा से चरण स्पर्श किये।

पहली अम्मा के चेहरे पर मान पाने का नूर था।  स्मितहास्य दोनों गालों पर फैल गया था। हाथ उठाकर पूरे मन से आशीर्वाद दिया। प्रणाम करने वाली ने विनय से ग्रहण किया। दोनों अपने-अपने रास्ते बढ़ीं, भीड़ भी चल पड़ी।

दीपावली की धोक देना, प्रतिपदा को मिलने जाना, प्रणाम करने की परम्पराएँ जाने कहाँ लुप्त हो गईं! पश्चिम के अंधानुकरण ने सामासिकता की चूलें ही हिलाकर रख दीं। ‘कौवा चला हंस की चाल’.., कौवा हो या हंस हो, हरेक की दृष्टि में दोनों का संदर्भ भिन्न-भिन्न हो सकता है पर संदर्भ से अधिक महत्वपूर्ण है  दोनों का होना।

वर्तमान में सर्वाधिक युवाओं का देश, भविष्य में सर्वाधिक वृद्धों का होगा। परम्पराओं की तरह उपेक्षित वृद्ध या वृद्धों की तरह उपेक्षित परम्पराएँ!  हम अपनी परम्पराओं को धोक देंगे, उनका चरणस्पर्श करेंगे, उनसे आशीर्वाद ग्रहण करेंगे या ‘हाय’ कहकर ‘बाय’ करते रहेंगे?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #21 – महिलायें समाज की धुरी ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “महिलायें समाज की धुरी”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 21 ☆

 

☆ महिलायें समाज की धुरी 

 

एक अदृश्य शक्ति, जिसे आध्यात्मिक दृष्टि से हम परमात्मा कहते हैं, इस सृष्टि का निर्माण कर्ता, नियंत्रक व संचालक है. स्थूल वैज्ञानिक दृष्टि से इसी अद्भुत शक्ति को प्रकृति के रूप में स्वीकार किया जाता है. स्वयं इसी ईश्वरीय शक्ति या प्रकृति ने अपने अतिरिक्त यदि किसी को नैसर्गिक रूप से जीवन देने तथा पालन पोषण करने की शक्ति दी है तो वह महिला ही है. अतः समाज के विकास में महिलाओ की महति भूमिका निर्विवाद एवं अति महत्वपूर्ण है. समाज, राष्ट्र की इकाई होता है और समाज की इकाई परिवार, तथा हर परिवार की आधारभूत अनिवार्य इकाई एक महिला ही होती है. परिवार में पत्नी के रूप में, महिला पुरुष की प्रेरणा होती है. वह माँ के रूप में बच्चों की जीवन दायिनी,ममता की प्रतिमूर्ति बनकर उनकी परिपोषिका तथा पहली शिक्षिका की भूमिका का निर्वाह करती है. इस तरह परिवार के सदस्यों के चरित्र निर्माण व बच्चों को सुसंस्कार देने में घर की महिलाओ का प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष योगदान स्वप्रमाणित है.

विधाता के साकार प्रतिनिधि के रूप में महिला सृष्टि की संचालिका है, सामाजिक दायित्वों की निर्वाहिका है, समाज का गौरव है। महिलाओं ने अपने इस गौरव को त्याग से सजाया और तप से निखारा है, समर्पण से उभारा और श्रद्धा से संवारा है. विश्व इतिहास साक्षी है कि महिलाओं ने सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विभिन्न क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास किया है, एवं निरंतर योगदान कर रहीं हैं. बहुमुखी गुणों से अलंकृत नारी पर ही समाज का महाप्रासाद अविचल खड़ा है. नारी चरित्र, शील, दया और करूणा का समग्र सवरूप है.

कन्या भ्रूण हत्या, स्तनपान को बढ़ावा देना, दहेज की समस्या, अश्लील विज्ञापनों में नारी अंग प्रदर्शन, स्त्री शिक्षा को बढ़ावा, घर परिवार समाज में महिलाओ को पुरुषों की बराबरी का दर्जा दिया जाने का संघर्ष, सरकार में स्त्रियों की अनिवार्य भागीदारी सुनिश्चित करना आदि वर्तमान समय की नारी विमर्श से सीधी जुड़ी वे ज्वलंत सामाजिक समस्यायें हैं, जो यक्ष प्रश्न बनकर हमारे सामने खड़ी हैं. इनके सकारात्मक उत्तर में आज की पीढ़ी की महिलाओ की विशिष्ट भूमिका ही उस नव समाज का निर्माण कर सकती है, जहां पुरुष व नारी दो बराबरी के घटक तथा परस्पर पूरक की भूमिका में हों.

पौराणिक संदर्भो को देखें तो दुर्गा, शक्ति का रूप हैं. उनमें संहार की क्षमता है तो सृजन की असीमित संभावना भी निहित है. जब देवता, महिषासुर से संग्राम में हार गये और उनका ऐश्वर्य, श्री और स्वर्ग सब छिन गया तब वे दीन-हीन दशा में भगवान के पास पहुँचे। भगवान के सुझाव पर सबने अपनी सभी शक्तियॉं (शस्त्र) एक स्थान पर रखे. शक्ति के सामूहिक एकीकरण से दुर्गा उत्पन्न हुई. पुराणों में दुर्गा के वर्णन के अनुसार, उनके अनेक सिर हैं, अनेक हाथ हैं. प्रत्येक हाथ में वे अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुये हैं. सिंह, जो साहस का प्रतीक है, उनका वाहन है. ऐसी शक्ति की देवी ने महिषासुर का वध किया. वे महिषासुर मर्दनी कहलायीं. यह कथा संगठन की एकता का महत्व प्रतिपादित करती है. शक्ति, संगठन की एकता में ही है. संगठन के सदस्यों के सहस्त्रों सिर और असंख्य हाथ हैं. साथ चलेंगे तो हमेशा जीत का सेहरा बंधेगा. देवताओं को जीत तभी मिली जब उन्होने अपनी शक्ति एकजुट की. दुर्गा, शक्तिमयी हैं, लेकिन क्या आज की महिला शक्तिमयी है ? क्या उसका सशक्तिकरण हो चुका है? शायद समाज के सर्वांगिणी विकास में सशक्त महिला और भी बेहतर भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं. वर्तमान सरकारें इस दिशा में कानूनी प्रावधान बनाने हेतु प्रयत्नशील हैं, यह शुभ लक्षण है. प्रतिवर्ष ८ मार्च को समूचा विश्व महिला दिवस मनाता है, यह समाज के विकास में महिलाओं की भूमिका के प्रति समाज की कृतज्ञता का ज्ञापन ही है.

कवि ने कहा है….

ममता है माँ की, साधना, श्रद्धा का रूप है

लक्ष्मी, कभी सरस्वती, दुर्गा अनूप है

नव सृजन की संवृद्धि की एक शक्ति है नारी

परमात्मा औ” प्रकृति की अभिव्यक्ति है नारी

नारी है धरा, चाँदनी, अभिसार, प्यार भी

पर वस्तु नही, एक पूर्ण व्यक्ति है नारी

आवश्यकता यही है कि नारी को समाज के अनिवार्य घटक के रूप में बराबरी और सम्मान के साथ स्वीकार किया जावे. समाज के विकास में महिलाओ का योगदान स्वतः ही निर्धारित होता आया है,रणभुमि पर विश्व की पहली महिला योद्धा रानी दुर्गावती हो, रानी लक्ष्मी बाई का पहले स्वतंत्रता संग्राम में योगदान हो, इंदिरा गांधी का राजनैतिक नेतृत्व हो या विकास का अन्य कोई भी क्षेत्र अनेकानेक उदाहरण हमारे सामने हैं. आगे भी समाज के विकास की इस भूमिका का निर्वाह महिलायें स्वयं ही करती रहेंगी……

“कल्पना” हो या “सुनीता” गगन में, “सोनिया” या “सुष्मिता”

रच रही वे पाठ, खुद जो, पढ़ रही हैं ये किशोरी लड़कियां

बस समाज को नारी सशक्तिकरण की दिशा में प्रयत्नशील रहने, और महिलाओ के सतत योगदान को कृतज्ञता व सम्मान के साथ अंगीकार करने की जरूरत है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #18 – उपदेशक और समुपदेशक ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 18☆

☆ उपदेशक और समुपदेशक ☆

 

अपने दैनिक पूजा-पाठ में या जब कभी मंदिर जाते हो,  सामान्यतः याचक बनकर ईश्वर के आगे खड़ा होते हो। कभी धन, कभी स्वास्थ्य, कभी परिवार में सुख-शांति, कभी बच्चों का विकास तो कभी…, कभी की सूची लंबी है, बहुत लंबी।

लेकिन कभी विचार किया कि दाता ने सारा कुछ, सब कुछ पहले ही दे रखा है। ‘जो पिंड में, सोई बिरमांड में।’ उससे अलग क्या मांग लोगे? स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ब्रह्मांड की सारी शक्तियाँ पहले से हमारे भीतर है। अपनी आँखों को अपने ही हाथों से ढककर हम ‘अंधकार, अंधकार’ चिल्लाते हैं। कितना गहन पर कितना सरल वक्तव्य है। ‘एवरीथिंग इज इनबिल्ट।’…तुम रोज मांगते हो, वह रोज मुस्कराता है।

एक भोला भंडारी भगवान से रोज लॉटरी खुलवाने की गुहार लगाता था। एक दिन भगवान ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा,’बावरे! पहले लॉटरी का टिकट तो खरीद।’

तुम्हारा कर्म, तुम्हारा परिश्रम, तुम्हारा टिकट है। ये लॉटरी नहीं जो किसी को लगे, किसी को न लगे। इसमें परिणाम मिलना निश्चित है। हाँ, परिणाम कभी जल्दी, कभी कुछ देर से आ सकता है।

उपदेशक से समस्या का समाधान पाने के लिए उसके पीछे या उसके बताये मार्ग पर चलना होता है। उपदेशक के पास समस्या का सर्वसाधारण हल है।  राजा और रंक के लिए, कुटिल और संत के लिए, बुद्धिमान और नादान के लिए, मरियल और पहलवान के लिए एक ही हल है।

समुपदेशक की स्थिति भिन्न है। समुपदेशक तुम्हारी अंतस प्रेरणा को जागृत करता है कि अपनी समस्या का हल तलाशने का सामर्थ्य तुम्हारे भीतर है। तुम्हें अपने तरीके से अपना प्रमेय हल करना है। प्रमेय भले एक हो, हल करने का तरीका प्रत्येक की अपनी दैहिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है।

समुपदेशक तुम्हारे इनबिल्ट को एक्टिवेट करने में सहायता करता है। ईश्वर से मत कहो कि मुझे फलां दे। कहो कि फलां हासिल करने की मेरी शक्ति को जागृत करने में सहायक हो। जिसने ईश्वर को समुपदेशक बना लिया, उसने भीतर के ब्रह्म को जगा लिया….और ब्रह्मांड में ब्रह्म से बड़ा क्या है?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 14 – एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 14 ☆

 

☆ एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती 

 

विरुपक्ष (अर्थ : एक महीने के एक पक्ष अथार्त 15 दिनों के लिए वीर) को भगवान ब्रह्मा से वरदान मिला हुआ था कि वह ‘चंद्रमा’ का एक ‘पक्ष’ या चंद्रमा का पृथ्वी के चारो और पूरे चक्कर का आधा समय जो की करीब 15 दिन होते है को चुन सकता है या तो कृष्ण पक्ष (काला या अँधेरा आधा मार्ग) या शुक्ल पक्ष (उज्ज्वल आधा मार्ग), अपने चुने हुए आधे चक्र के दौरान, वह कभी भी किसी के भी द्वारा पराजित नहीं होगा, और यदि उसने अपनी पसंद के एक महीने का एक आधा भाग चुना, जिसमें वह पराजित नहीं हो सका, तो वह उस माह के अगले या दूसरे आधे भाग या 15 दिनों में पराजित हो सकता है। इसका अर्थ है कि अगर उसने किसी के साथ लड़ने के लिए चंदमा के चक्र का उज्जवल आधा भाग या शुक्ल पक्ष चुना है, तो वह कभी भी पूरे 15 दिनों के इस उज्ज्वल आधे भाग में किसी से पराजित नहीं होगा। लेकिन जब चंद्रमा का अगला चरण अर्थात अँधेरा आधे भाग या कृष्ण पक्ष आयेगा तो वह उसमे पराजित हो सकता है। इसी तरह अगर वह अँधेरा भाग या कृष्ण पक्ष चुनता है तो 15 दिनों तक पराजित नहीं होगा और 15 दिनों बाद जब उज्जवल भाग या शुक्ल पक्ष शुरू होगा तो उसमे पराजित हो सकता है ।

विरुपक्ष अपने चुने हुए अंधेरे आधे भाग में युद्ध भूमि में आया, इसलिए वह उस आधे भाग में पराजित नहीं हो सकता था। उसने वानरों को बुरी तरह से मारना शुरू कर दिया।जल्द ही भगवान हनुमान विरुपक्ष के रास्ते में आ गए। भगवान हनुमान ने बहुत कोशिश की और विरुपक्ष के साथ लगातार लड़ते रहे,लेकिन भगवान ब्रह्मा जी से मिले वरदान की वजह से वह उसे हराने में असमर्थ थे।

भगवान राम के समूह में हर कोई चिंतित था। तब विभीषण ने भगवान राम को सुझाव दिया कि, “हम विरुपक्ष को तब तक पराजित नहीं कर सकते जब तक चंद्रमा अपने आधे अंधेरे चक्र को आधे उज्ज्वल चक्र में बदलकर हमारी सहायता नहीं करेंगे”

उसी समय भगवान इंद्र आकाश में दिखाई दिए और कहा, “हे राम, आपका युद्ध मानवता के लिए है। मैं चंद्रमा को आदेश देता हूँ, ताकि वह अपने चरणों को बदल दे और दूसरे आधे चक्र में चला जाए”

कुछ देर बाद चंद्रमा ने अपने मासिक चक्र के आधे अंधेरे भाग, कृष्ण पक्ष को आधे चमकीले या उज्जवल, शुक्ल पक्ष भाग में बदल दिया, और जल्द ही विरुपक्ष का शरीर घटना शुरू हो गया। चूंकि अब विरुपक्ष का शरीर कमजोर हो गया, तो भगवान हनुमान ने उसे पकड़ लिया और फिर उसे मार डाला।ऐसा कहा जाता है कि तब से चंद्रमा पृथ्वी के इर्दगिर्द अपने सामान्य आधे चक्र से आधे चक्र के अंतराल से अपना मासिक क्रम दोहरा रहा है।

भगवान राम ने अपने हाथों को आकाश में चंद्रमा की ओर बढ़ा कर चंद्रमा को प्रणाम एवं धन्यवाद किया।

जल्द ही चंद्रमा के देवता भगवान राम के सामने प्रकट हुए और उनसे अनुरोध में कहा, “हे भगवान! आप मुझे धन्यवाद क्यों दे रहे है? मेरी चमक शक्ति और शीतलता, आपका ही प्रताप है।यदि आप वास्तव में मुझे धन्यवाद देना चाहते हैं, तो मुझे वचन दीजिये कि जैसे आप अपने इस युग के अवतार में सूर्य वंश में जन्मे है, वैसे ही अगले युग के अवतार में आप मेरे वंश अथार्त चंद्र वंश में जन्म लेंगे”

भगवान राम मुस्कुराये और चाँद से कहा, “यह मेरे लिए खुशी होगी। मैं आपको वचन देता हूँ कि मेरे अगले अवतार में मैं चंद्र वंश (चंद्रवंशी) में जन्म लूँगा ।

हम सभी जानते हैं कि अगले अवतार में, भगवान विष्णु का जन्म चंद्र वंश में भगवान कृष्ण के रूप में हुआ था ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 21 ☆ मूर्खों के पांच लक्षण ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख  मूर्खों के पांच लक्षण . मूर्खों के पांच लक्षण हैं:–गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ  और दूसरों की बात का अनादर..। डॉ मुक्ता  जी  ने व्हाट्सएप्प  पर प्राप्त एक  सन्देश से प्रेरित  इस आलेख की रचना की है। यह निश्चित ही  सोशल मीडिया पर प्राप्त संदेशों  पर  सार्थक साहित्य  की रचना एक सकारात्मक  कदम है  इस महत्वपूर्ण तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 21 ☆

 

☆ मूर्खों के पांच लक्षण

 

मूर्खों के पांच लक्षण हैं:–गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ  और दूसरों की बात का अनादर..। व्हाट्सएप के इस संदेश ने मुझे इस विषय पर लिखने को विवश कर दिया, क्योंकि सत्य व यथार्थ सदैव मन के क़रीब होता है.भावनाओं को झकझोरता है और चिंतन-  मनन करने को विवश करता है। सामान्यत: यदि कोई भी अटपटी बात करता है, अपना पक्ष रखने के लिए व्यर्थ की दलीलें देता है, अपनी विद्वत्ता का अकारण बखान करता है, बात-बात पर क्रोधित  होता है, दूसरों की पगड़ी उछालने में पल भर भी नहीं लगाता..उसे अक्सर मूर्ख की संज्ञा दी जाती है, क्योंकि कि वह दूसरों की बातों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देता…सदैव अपनी-अपनी हांकता है। नास्तिक व्यक्ति परमात्म-सत्ता में विश्वास नहीं करता और वह स्वयं को सर्वज्ञानी व सर्वश्रेष्ठ समझता है। वास्तव में ऐसा प्राणी करुणा का पात्र होता है। आइए! विचार करें, मूर्खों के पांचों लक्षणों पर…परंतु जो इन दोषों से मुक्त हैं, ज्ञानी हैं, विद्वान हैं, उपास्य है।

गर्व, घमण्ड, अभिमान मानव के सर्वांगीण विकास में बाधक हैं और अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो परमात्म-प्राप्ति में बाधक है। वास्तव में गर्व-सूचक है … आत्म-प्रवंचना व आत्म-श्लाघा का,जो मानव की नस-नस में व्याप्त है अर्थात् वह परमात्मा द्वारा प्रदत्त नहीं है। दूसरे शब्दों में आप उन सब गुणों-खूबियों का बखान करते हैं, जो आप में नहीं हैं और जिसके आप योग्य नहीं है। इसका दूसरा भयावह पक्ष भी है, जो आपके पास है, उसके कारण आप स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, दूसरों को नीचा दिखलाते हैं, उन पर आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं, जो सर्वथा अनुचित है। अहंभाव मानव को सबसे अलग-थलग कर देता है और वह एकांत की त्रासदी झेलता रहता है। सब उसे शत्रु-सम भासते हैं और जो भी उसको सही राह दिखलाने की चेष्टा करता है, जीवन के कटु यथार्थ अर्थात् उसकी कारस्तानियों से अवगत कराना चाहता है, वह उस पर ज़ुल्म ढाने से तनिक भी गुरेज़ नहीं करता। जब इस पर भी उसे संतोष नहीं होता, वह उसके प्राण लेकर ही अहंतुष्टि करता है। अपने अहंभाव के कारण वह आजीवन सत्मार्ग पर नहीं चल पाता।

अपशब्द अर्थात् बुरे शब्द अहंनिष्ठता का परिणाम हैं, क्योंकि क्रोध व आवेश में वह मर्यादा को ताक पर रख व सीमाओं को लांघ कर, अपनी धुन में ऊल- ज़लूल बोलता है…सबको अपशब्द कहता है। जब उसे इससे भी संतोष नहीं होता, वह गाली-गलौच पर उतर आता है। वह भरी सभा में किसी पर भी झूठे आक्षेप-आरोप लगाने व वह नीचा दिखाने के लिए, हिंसा पर उतारू हो जाता है। जैसा कि सर्वविदित है कि बाणों के घाव तो कुछ समय पश्चात् भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव नासूर बन आजीवन रिसते हैं। द्रौपदी का ‘अंधे की औलाद अंधी’ वाक्य महाभारत के युद्ध का कारण बना। ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है इतिहास… सो! ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ को सिद्धांत रूप में अपने जीवन में उतार लेना ही श्रेयस्कर है। आप किसी को अपशब्द बोलने से पूर्व स्वयं को उसके स्थान पर तराजू में रखकर तौलिए और यदि वह उस कसौटी पर खरा उतरता है, तो उचित है, वरना उन शब्दों का प्रयोग कदाचित् मत कीजिए। वह आपके गले की फांस बन सकता है।

प्रश्न उठता है कि अपशब्द का मूल क्या है? किन परिस्थितियों व कारणों से, ये उत्पन्न होते हैं, अस्तित्व में आते हैं। इनका जनक है क्रोध और क्रोध चांडाल है, जो बड़ी से बड़ी  आपदा का आह्वान करता है। वह सबको एक नज़र से देखता है, सबको एक लाठी से लांघता है, सभी सीमाओं का अतिक्रमण करता है। मर्यादा शब्द तो उसके शब्द कोश के दायरे बाहर रहता है। परशुराम का क्रोध सर्वविदित है। क्रोध के परिणाम सदैव भयंकर होते हैं। सो! मानव को इसके चंगुल से बाहर रहने का सदैव प्रयास करना चाहिए।

हठ…हठ का प्रणेता है क्रोध। बालहठ से तो आप सब अवगत होंगे। बच्चे  किसी पल, कुछ भी करने  का हठ कर लेते हैं, जो असंभव होता है। परंतु उन्हें बहलाया जा सकता है। इससे किसी की भी हानि नहीं होती, क्योंकि बालमन कोमल होता है …राग-द्वेष से परे होता है। परंतु  यदि कोई मूर्ख व्यक्ति हठ करता है, तो वह उसे विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। उसे समझाने की किसी में सामर्थ्य नहीं होती क्योंकि हठी व्यक्ति जो ठान लेता है,उससे कभी भी टस-से-मस नहीं होता। अंत में वह उस मुक़ाम पर पहुंच जाता है, जहां वह अपनी सल्तनत को जला कर तमाशा देखता है और स्वयं को हरदम नितांत अकेला अनुभव करता है। उसके सपने जलकर राख हो जाते हैं।

मूर्ख व्यक्ति दूसरों का अनादर करने में पल भर भी नहीं लगाता, क्योंकि वह अहं व क्रोध के शिकंजे में इस क़दर जकड़ा होता है कि उससे मुक्ति पाना उस के वश में नहीं होता। वह सृष्टि-नियंता के अस्तित्व को नकार, स्वयं को बुद्धिमान व सर्वशक्तिमान स्वी- कारता है और उसके मन में यह प्रबल भावना घर कर जाती है कि उससे अधिक ज्ञानवान इस संसार में कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। सो! वह अपनी अहं- पुष्टि हेतु क्रोध  के आवेश में हठपूर्वक अपनी बात मनवाना चाहता है, जिसके लिए वह अमानवीय कृत्यों का सहारा भी लेता है। ‘बॉस इज़ ऑलवेज़ राइट ‘ अर्थात् बॉस/ मालिक सदैव ठीक कर्म करता है। गलत शब्द उसके शब्द कोश की सीमा से बाहर रहता है।वह निष्ठुर प्राणी कभी भी, कुछ भी कर गुज़रता है, क्योंकि उसे अंजाम की परवाह नहीं होती।

यह थे मूर्खों के पांच लक्षण…वैसे तो इंसान गलतियों का पुतला है। परंतु यह वे संचारी भाव हैं जो स्थायी भावों के साथ-साथ,समय-समय पर उठते हैं, परंतु शीघ्र ही इनका शमन हो जाता है। यह कटु सत्य है कि जो भी इन्हें धारण कर लेता है, उसे मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। वह घर-परिवार के लोगों का जीना भी दूभर कर देता है। वह विपरीत  पक्ष के व्यक्ति को अपना पक्ष रखने का अधिकार देता ही कहां है। अपने पूर्वजों की धरोहर के रूप में रटे हुए, चंद वाक्यों का प्रयोग-उपयोग वह हिटलर की भांति धड़ल्ले से करता है। हां! घर से बाहर वह प्रसन्नचित्त रहता है, सदैव अपनी-अपनी हांकता है और चंद लम्हों में  लोग उसके चारित्रिक गुणों से वाक़िफ़ हो जाते हैं और उससे  निज़ात पाना चाहते हैं ताकि कोई अप्रत्याशित हादसा घटित न हो जाए। वैसे परिवारजनों को सदैव यह आशंका बनी रहती है कि उस द्वारा बोला गया कोई वाक्य उनके लिए भविष्य में संकट व जी का जंजाल न बन जाये। वैसे ‘बुद्धिमान को इशारा काफी’ अर्थात् जो लोग उसके साथ  रहने को विवश होते हैं, उनकी ज़िंदगी नरक बन जाती है। परंतु गले पड़ा ढोल बजाना उनकी विवशता होती है… नियति बन जाती है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – जीवाश्म ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – जीवाश्म

 

‘उनके शरीर का खून गाढ़ा होगा। मुश्किल से थोड़ा बहुत बह पाएगा। फलत: जीवन बहुत कम दिनों का होगा। स्वेद, पसीना जैसे शब्दों से अपरिचित होंगे वे। देह में बमुश्किल दस प्रतिशत पानी होगा। चमड़ी खुरदरी होगी। चेहरे चिपके और पिचके होंगे। आँखें बटन जैसी और पथरीली होंगी। आँसू आएँगे ही नहीं। धनवान दिन में तीन बार एक-एक गिलास पानी पी सकेंगे। निर्धन को तीन दिन में एक बार पानी का एक गिलास मिलेगा। यह समाज रस शब्द से अपरिचित होगा। गला तर नहीं होगा, आकंठ कोई नहीं डूबेगा। डूबकर कभी कोई मृत्यु नहीं होगी। पेड़ का जीवाश्म मिलना शुभ माना जाएगा।’

..पर हम हमेशा ऐसे नहीं थे। हमारे पूर्वजों की ये तस्वीरें देखो। सुनते हैं उनके समय में हर घर में दो बाल्टी पानी होता था।

..हाँ तभी तो उनकी आँखों में गीलापन दिखता है।

…ये सबसे ज्यादा पनीली आँखोंवाला कौन है?

…यही वह लेखक है जिसने हमारा आज का सच दो हजार साल पहले ही लिख दिया था।

…ओह! स्कूल की घंटी बजी और 42वीं सदी के बच्चों की बातें रुक गईं।

आँख में पानी बचा रहे।…आमीन!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 2:17 बजे, 30.8.2019

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 1 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि  पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का प्रथम आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 1  – हिन्द स्वराज से  ☆ 

यह वर्ष गांधीजी के 150वें जन्मोत्सव का वर्ष है। शासकीय और अशासकीय स्तरों पर अनेक कार्यक्रम हो रहे हैं और देश विदेश में लोग  अपनी अपनी तरह से महामानव का जन्मोत्सव मना रहे हैं, उन्हें याद कर रहे हैं, श्रद्धांजली दे रहें है, उनके विचारों पर अमल करने की प्रतिज्ञा ले रहे हैं। मेरे स्टेट बैंक के साथी श्री जय प्रकाश पांडे ने मेरा परिचय श्री हेमन्त बावनकर के रचनात्मक कार्य, उनके ‘साहित्यिक ब्लॉग  ई- अभिव्यक्ति’ से अभी सितम्बर माह में ही करवाया और गांधीजी पर एक लेख इस पत्रिका को देने का आग्रह किया। मुझे प्रसन्नता हुयी कि श्री बावनकर ने मेरे लेख ‘चंपारण सत्याग्रह : एक शिकायत की जाँच’ को ‘ई- अभिव्यक्ति’ के गांधी विशेषांक में स्थान दिया । कुछ ही दिनों बाद उनका प्रेम भरा  आग्रह था कि इस पूरे वर्ष  ‘साहित्यिक ब्लॉग  ई- अभिव्यक्ति’ में गांधी चर्चा का स्थायी कालम शुरू करने हेतु मैं कुछ लिख कर भेजूं। नेकी और पूंछ-पूंछ, मुझे उनका यह कहना तो मानना ही था अत: मैं वर्ष पर्यंत, हर बुधवार कुछ न कुछ गांधीजी पर लिखकर प्रकाशन हेतु भेजूंगा और यह सिलसिला 02 अक्टूबर 2020 तक सतत चलता रहेगा।

महात्मा गांधी का चिंतन उनके लिखे अनेक लेखों, संपादकीयों, पत्राचारों, पुस्तकों में वर्णित है। इन्हें पढ़ पाना एक सामान्य जन के लिए असंभव है। मैंने भी इस दिशा में कुछ किताबे पढने का प्रयास कर गांधीजी को समझने की कोशिश की है। फिर मैं कोई बड़ा लेखक या चिन्तक भी नहीं हूँ जो यह दावा कर सके कि गांधीजी के विचारों को पूर्णत: समझ लिया है। फिर भी मैं कोशिश कर रहा  हूँ कि आगामी कुछ सप्ताहों तक मैं गांधीजी द्वारा लिखित कुछ पुस्तकों ‘हिंद स्वराज’, ‘सत्य के प्रयोग अथवा आत्म कथा’, ‘मेरे सपनो का भारत’, ‘ग्राम स्वराज’, ‘अनासक्ति योग’, ‘आश्रम भजनावली’ आदि   के माध्यम से गांधीजी द्वारा व्यक्त विचारों से ‘साहित्यिक ब्लॉग  ई- अभिव्यक्ति’ के पाठकों को परिचित कराने का प्रयास करूं। यह भी सत्य है कि ‘हिंद स्वराज’ में लिखी कई बातें मुझे आसानी से समझ में नहीं आती और कई विचार मेरे गले भी नहीं उतरते  हैं। मुझे गांधी जी की लिखी दूसरी पुस्तक मेरे “सपनों का भारत” पढ़ना ज्यादा पसंद है। समय समय पर मुझे गांधीजी से जुड़े अनेक संस्मरण पढने का अवसर मिलता रहता है, मैंने उन्हें भी संकलित करने का प्रयास किया है। मैं इनसे भी गांधी चर्चा के दौरान अपने मित्रों को ‘ई- अभिव्यक्ति’ के माध्यम से परचित कराने का प्रयास करूंगा।

हिंद स्वराज जिसे 1909 में लिखा गया था, जिसके अनेक संस्करण समय-समय पर प्रकाशित हुये, उनकी प्रस्तावना लिखते समय बापू ने अनेक रहस्योद्घाटन किये हैं।

प्रथम बार जब उन्होंने  22.11.2009 को किलडोनन कैसल समुद्री जहाज में  बैठकर  इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी तब उन्होंने  सबसे पहले कहा कि “इस विषय पर मैंने जो बीस अध्याय लिखे हैं, उन्हें मैं पाठकों के सामने रखने की हिम्मत करता हूँ ।”

आगे वे लिखते हैं कि “उद्देश्य सिर्फ देश की सेवा करने का और सत्य की खोज करने का और उसके मुताबिक बरतने का है। इसलिए अगर मेरे विचार गलत साबित हों तो उन्हें पकड़ रखने का मेरा आग्रह नहीं है। अगर वे सच साबित हों तो दूसरे लोग भी उनके मुताबिक़ बरतें, ऐसी देश के भले के लिए साधारण तौर पर मेरी भावना रहेगी।”

जनवरी 1921 यंग इंडिया में वे लिखते हैं कि –

“इस किताब में ‘आधुनिक सभ्यता’ की सख्त टीका की गई है। यह 1909 में लिखी गई थी। इसमें मेरी जो मान्यता प्रकट की गई है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है। मुझे लगता है कि अगर हिंदुस्तान ‘आधुनिक सभ्यता’ का त्याग करेगा तो उससे उसे लाभ ही होगा।”

सेवाग्राम से 14.07.1938 को उन्होंने संदेश दिया कि ” पाठक इतना ख्याल रखें कि कुछ कार्यकर्ताओं के साथ, जिनमें एक कट्टर अराजकतावादी थे, मेरी जो बातें हुई थी, वे जैसी की तैसी मैंने इस पुस्तक में दे दी हैं। पाठक इतना भी जान लें कि दक्षिण अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों में जो सड़न दाखिल होने ही वाली थी, उसे इस पुस्तक ने रोका था”।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #20 – कैमरो की निगरानी ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “ घरेलू बजट” ।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 20 ☆

 

☆ कैमरो की निगरानी 

 

हर क्राइम का अपराधी अंततोगत्वा पकड़ ही लिया जाता है. पोलिस के हाथ बहुत लम्बे होतें हैं. बढ़ती आबादी, बढ़ते अपराध पोलिस के प्रति खत्म होता डर, अपराध की बदलती स्टाइल अनेक ऐसे कारण हैं जिनके चलते अब इलेक्ट्रानिक संसाधनो का उपयोग करके पोलिस को भी अपराधियो को खोजने तथा अपराधो के विश्लेषण में मदद लेना समय की जरूरत बनता जा रहा है.

वीडियो कैमरे की रिकार्डिंग इस दिशा में बहुत बड़ा कदम है. यही कारण है कि चुनाव आदि में वीडियो कवरेज किया जाने लगा है.  उन्नत पाश्चात्य देशो में जहाँ बड़े बड़े माल, सड़के आदि सतत वीडियो कैमरो की निगरानी में होते हैं, अपराध बहुत कम होते हैं क्योकि सबको पता होता है कि वे वीडियो सर्विलेंस में हैं. अति न्यून मानवीय शक्ति का उपयोग करते हुये भी इलेक्ट्रानिक कैमरो की मदद से बड़ी भीड़ पर नजर रखी जा सकती है. आवश्यक है कि अब पोलिस इस बात को बहु प्रचारित करे कि हम सब अधिकांशतः वीडियो कवरेज के साये में हैं. इस भय से किंचित अपराध कम हों. हमारे जैसे देश में यदि सरकार ही सारी आबादी पर वीडियो कवरेज करने की व्यवस्था करे तो चौबीसों घंटे वीडीयो निगरानी की रिकार्डिंग पर भारी व्यय होगा. अभी सरकार की प्राथमिकता में यह नही है.

निजी तौर पर प्रायः मध्यम वर्गीय लोग भी घरो व अपने कार्यस्थलो पर वीडीयो कैमरे स्थापित कर रहे हैं, जिनकी मदद से वे अपने घरो की सुरक्षा, अपने व्यापारिक प्रतिष्ठानो में कामगारो पर नजर, तथा अपनी दूकान आदि में ग्राहको को कवर कर रहे हैं. गाहे बगाहे पोलिस भी इन्ही रिकार्डिंग्स की मदद से अपराधियो को पकड़ पाती है. पर अब तक आधिकारिक रूप से इन आम लोगो के द्वारा करवाई गई रिकार्डिंग पर सरकार का कोई नियंत्रण या अधिकार नही है.

अपराध नियंत्रण हेतु पोलिस द्वारा निजी सी सी कैमरो की वीडियो फुटिंग्स का उपयोग आधिकारिक रूप से कभी भी कर सकने हेतु कानून बनाया जाना चाहिये. जिससे पोलिस सौजन्य नही, अधिकारिक रूप से किसी भी सी सी टीवी की फुटिंग प्राप्त कर सके. सार्वजनिक स्थलो सड़को, चौराहों, नगर प्रवेश द्वारो, पार्कों, बस स्टेंड, आदि स्थलो पर नगर संस्थाओ द्वारा सी सी टी वी बढ़ाये जाने चाहिये. किसी भी अपराध में पोलिस को दिग्भ्रमित करने वाले अपराधियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही तथा अर्थदण्ड लगाये जाने के कानून भी जरूरी हैं.  पोलिस की सक्रिय भूमिका, मोबाइल व वीडीयो कैमरो की मदद से ही सही पर अपराध मुक्त वातावरण एक आदर्श समाज के लिये आवश्यक है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #17 – देहरी, चौखट और स्रष्टा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 17☆

 

☆ देहरी, चौखट और स्रष्टा ☆

 

घर की देहरी पर खड़े होकर बात करना महिलाओं का प्रिय शगल है। कभी आपने ध्यान दिया कि इस दौरान अधिकांश मामलों में संबंधित महिला का एक पैर देहरी के भीतर होता है, दूसरा आधा देहरी पर, आधा बाहर।  अपनी दुनिया के विस्तार की इच्छा को दर्शाता चौखट से बाहर का रुख करता पैर और घर पर अपने आधिपत्य की सतत पुष्टि करता चौखट के अंदर ठहरा पैर। मनोविज्ञान में रुचि रखनेवालों के लिए यह गहन अध्ययन का विषय हो सकता है।

अलबत्ता वे चौखट का सहारा लेकर या उस पर हाथ टिकाकर खड़ी होती हैं। फ्रायड कहता है कि जो मन में, उसीद की प्रचिति जीवन में। एक पक्ष हो सकता है कि घर की चौखट से बँधा होना उनकी रुचि या नियति है तो दूसरा पक्ष है कि चौखट का अस्तित्व उनसे ही है।

इस आँखों दिखती ऊहापोह को नश्वर और ईश्वर तक ले जाएँ। हम पार्थिव हैं पर अमरत्व की चाह भी रखते हैं। ‘पुनर्जन्म न भवेत्’ का उद्घोष कर मृत्यु के बाद भी मर्त्यलोक में दोबारा और प्रायः दोबारा कहते-कहते कम से कम चौरासी लाख बार लौटना चाहते हैं।

स्त्रियों ने तमाम विसंगत स्थितियों, विरोध और हिंसा के बीच अपनी जगह बनाते हुए मनुष्य जाति को नये मार्गों से परिचित कराया है। नश्वर और ईश्वर के  द्वंद्व से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें पहल करनी चाहिए। इस पहल पर उनका अधिकार इसलिए भी बनता है क्योंकि वे जननी अर्थात स्रष्टा हैं। स्रष्टा होने के कारण स्थूल में सूक्ष्म के प्रकटन की अनुभूति और प्रक्रिया से भली भाँति परिचित हैं। नये मार्ग की तलाश में खड़ी मनुष्यता का सारथ्य महिलाओं को मिलेगा तो यकीन मानिए, मार्ग भी सधेगा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना-‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 13 – महासंग्राम ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “महासंग्राम ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 13 ☆

 

☆ महासंग्राम 

 

रावण की ओर से एक के बाद एक, महान राक्षस योद्धा युद्ध के मैदान में आ रहे थे। किमकारा राक्षस के अंत के बाद, सेना का संचालन रावण के पुत्र ‘देवान्तक’ के हाथ में दिया गया, कुछ लोगों का कहना था कि उसके नाम का अर्थ ‘देव’ ‘अंत’ ‘तक’ या देवो के अंत तक वह पराजित नहीं होगा है ।

लेकिन वास्तव में देवान्तक का अर्थ है, कि वह देवताओं के आने तक नहीं मरेगा । भगवान राम की सेना भगवानों और देवताओं के अवतारों से भरी थी। भगवान राम स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे, भगवान हनुमान भगवान शिव के अवतार थे, सुग्रीव सूर्य देवता के और अन्य कई अन्य देवताओं के।

देवान्तक अपने रथ में भगवान राम की ओर जा रहा था लेकिन भगवान हनुमान रास्ते में उनके रथ के आगे आ गए और उनका रथ रोक दिया। तब देवान्तक ने कहा, “हे ताकतवर हनुमान ! तुम मुझे नहीं जानते, मैं देवान्तक हूँ – रावण का पुत्र, और मुझे यह नाम भगवान ब्रह्मा से तब मिला जब मैंने तुम्हारे पिता, वायु के देवता को हराया था।तो ब्रह्मा ने मुझे यह नाम दिया है, इसका अर्थ है कि मैं सभी देवताओं के अंत तक जीवित रहूँगा। तो मेरे रास्ते से दूर जाओ अन्यथा मैं तुम्हें मार दूँगा”

भगवान हनुमान मुस्कुराते हैं और रावण के पुत्र देवान्तक को संस्कृत भाषा के कुछ बुनियादी सिद्धांत सिखाते है। भगवान हनुमान ने कहा, “हे रावण के महान योद्धा! क्या तुम अपने नाम का अर्थ भी नहीं जानते हो। यहाँ तक ​​कि तुम्हारे पिता रावण, जो स्वयं को संस्कृत भाषा का ज्ञानी बोलता है, उसने भी तुम्हें यह नहीं बताया है कि संस्कृत भाषा के नियम के अनुसार तुम्हारा नाम देवान्तक है, इसमें ‘ना’ धातु शामिल है, जो कुछ समय अवधि को परिभाषित करता है, और तुम्हारी स्थिति में वह समय की अवधि तब तक है जब तक देवता तुम्हारे साथ लड़ने नहीं आते हैं और तुम्हें शायद नहीं पता की हमारी सेना देवताओं के अवतारों से भरी है। तुमने कभी मेरे पिता को हराया होगा, तो अब यह मेरा समय की मैं तुमसे अपने पिता की हार का बदला लूँ तो अब मैं तुम्हें मारने जा रहा हूँ।”

भगवान हनुमान पूर्ण गति से देवान्तक के रथ की ओर दौड़ते हैं और उसके रथ को अपने शरीर की मजबूत टक्कर से नष्ट कर देते हैं। फिर देवान्तक को अपनी बाहों में उठाते हैं और पृथ्वी पर वापस पटक देते हैं। और इस तरह देवान्तक के जीवन का अंत हो जाता है ।

 

© आशीष कुमार  

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