हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ देवों के देव महादेव, महायोगी की महिमा: सर्वविदित है ☆ – डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

 

(डॉ. ज्योत्सना सिंह रजावत जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आप जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं । आज प्रस्तुत है श्रावण माह के पवित्र अवसर पर आपका  आलेख “देवों के देव महादेव, महायोगी की महिमा: सर्वविदित है”

 

संक्षिप्त साहित्यिक परिचय

  • दो काव्य संग्रह प्रकाशित हाइकू छटा एवं अन्तहीन पथ (मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद हिन्दी अकादमी के सहयोग से …)
  • कहानीं संग्रह प्रकाशाधीन
  • स्थानीय विभिन्न समाचार पत्रों में नियमित प्रकाशन,आकाशवाणी एवं दूरदर्शन एवं अन्य चैनल पर प्रस्तुति एवं साक्षात्कार।
  • 15 राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय शोध आलेख

 

☆ देवों के देव महादेव, महायोगी की महिमा: सर्वविदित है

 

या सृष्टिः स्त्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री,
ये द्वे कालं विधत्तः श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति  यया प्राणिनः प्राणवन्तः,
प्रत्यक्षाभिः प्रपत्रस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः1

कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् के मंगलाचरण में शिव की आराधना इस प्रकार की है’ जो विधाता की प्रथम सृष्टि जल स्वरूपा है एवं विधिपूर्वक हवन की गई सामग्री को वहन करने वाली अग्निरूपाा मूर्ति है, जो हवन करने वाली अर्थात् यजमानरूपा मूर्ति है, दो कालों का विधान करने वाली अर्थात् सूर्य एवं चन्द्र रूपा मूर्ति है, श्रवणेन्द्रिय का विषय अर्थात् शब्द ही है गुण जिसका, ऐसी जो संसार को व्याप्त करके स्थित है अर्थात् आकाश रूपा मूर्ति, जिसे सम्पूर्ण बीजों की प्रकृति कहा गया है अर्थात् पृथ्वी रूपा मूर्ति तथा जिससे सभी प्राणी प्राणों से युक्त होते हैं अर्थात् वायुरूपा मूर्ति-इन प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगत होने वाली मूर्तियों से युक्त ‘शिव’ आप इन आठों मूर्तियों को धारण करने वाले शिव एक हैं और शिव के इस स्वरूप का सबसे महत्वपूर्ण तत्व यह है कि इनका प्रत्येक रूप प्रत्यक्ष का विषय है। कालिदास ने स्वयं माना है कि हम जो कुछ देख सकते हैं, जो कुछ जान सकते हैं वह सब शिवस्वरूप ही हैं। अर्थात एक मात्र शिव की ही सत्ता है, शिव से अतिरिक्त  कुछ भी नहीं है। समस्त सृष्टि शिवमयहै। सृष्टि से पूर्व शिव हैं और सृष्टि के विनाश के बाद केवल शिव ही शेष रहते हैं।

शिव स्त्रोत में शिव की प्रार्थना के साथ शिव के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया गया है

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नम: शिवाय।।

संसार का कल्याण करने वाले शिव नागराज वासुकि का हार धारण किये हुए हैं, तीन नेत्रों वाले हैं, भस्म की राख को सारे शरीर में लगाये हुए हैं, इस प्रकार महान् ऐश्वर्य सम्पन्न वे शिव नित्य अविनाशी तथा शुभ हैं। दिशायें जिनके लिए वस्त्रों का कार्य करती हैं, ऐसे नकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।

वेद वेदांग ब्राह्मण ग्रंथ,तैत्तरीय संहिता, मैत्रायणी संहिता वाजसनेयी संहिता इन संहिताओं में शिव के विराट स्वरूप का शिव शक्ति का, मंत्रों में वर्णन पढ़ने को आज भी सर्वसुलभ है..

नमः शिवाय च शिवतराय च (वाजसनेयी सं. १६/४१,
यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः। (वाजसनेयी सं. ११/५१)

शिव की महत्ता सृष्टि रचना से पूर्व भी रही होगी शिव ही संसार के नियन्ता है पोषक हैं संघारक है शिव यानि कल्याण, मंगल, शुभ, के देवता। संसार के कण-कण में शिव है। ऐसे निराकारी  शिव की साधना के लिए शिव रात्रि में व्रत पूजापाठ का बहुत विधान है निम्न मंत्र में व्रत की महिमा का वर्णन प्रत्यक्ष है…

देवदेव महादेव नीलकंठ नमोस्तु ते।
कुर्तमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तव।।
तव प्रभावाद्धेवेश निर्विघ्नेन भवेदिति।
कामाद्या: शत्रवो मां वै पीडां कुर्वन्तु नैव हि।।

देव को देव महादेव नीलकंठ आपको नमस्कार है। हे देव  मैं आपके शिवरात्रि-व्रत का अनुष्ठान करना चाहता हूं। देव आपके प्रभाव से मेरा यह व्रत बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण हो और काम आदि शत्रु मुझे पीड़ा न दें। इस भांति पूजन करने से आदिदेव शिव प्रसन्न होते हैं।

सावन में शिव पूजा का विशेष महत्व है शिव मंदिरों में सोमवार के दिन बड़ी भक्ति भाव के साथ कांवड़िए दूर दराज से गंगाजल लाकर भगवान भोले का अभिषेक करते हैं। वेदों में शिवलिंग पर चढ़ने वाले बिल्वपत्र के वृक्ष की महिमा असाधारण मानी गई है । प्रार्थना करते हैं कि बिल्वपत्र अपने तपो-फल से आध्यात्मिक शक्ति से  दरिद्रता को मिटाए और शिव उपासक को ‘श्री’कल्याण का मार्ग प्रशस्त करे। इस वृक्ष की डालियाँ फल और पत्ते सभी की महिमा वर्णित है।

…पतरैर्वेदस्वरूपिण स्कंधे वेदांतरुपया तरुराजया ते नमः।

आदित्यवर्णे तपसोऽध्जिातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाहया अलक्ष्मीः।।

महाशिवरात्रि पूजा में शिवलिंग पर चढाने के लिए धतूरे का फल, बेलपत्र, भांग, बेल, आंक का फूल, धतूरे का फूल, गंगा जल, दूध शहद, बेर, सिंदूर फल, धूप, दीप को आवश्यक माना गया है।

परम कल्याणकारी शिव की महिमा अनंत है। शिव अनन्त, शिव कृपा अनन्ता ….भगवान शिव की स्तुति रामचरित मानस के अयोध्याकांड में तुलसीदास ने इस प्रकार की है…

सुमिरि महेसहि कहई निहोरी,

बिनती सुनहु सदाशिव मोरी’।

‘आशुतोष तुम औघड़ दानी,

आरति हरहु दीन जनु जानी।।’

भारत के कोने-कोने में आज भी प्राचीन जीर्ण-शीर्ण अवस्था में शिव मंदिरों की भव्यता को एवं उस मन्दिर की मान्यता को शिव रात्रि के पर्व पर बड़ी संख्या में स्थानीय निवासियों के द्वारा श्रद्धा एवं भक्ति भाव के साथ शिव का पूजन करते हुए देखा जाता है। ग्रामीण इलाकों में छोटे छोटे पत्थरों को शिव का प्रतीक मान कर महिलाएं  बच्चे बच्चियां शिव रात्रि पर व्रत करते, पूजन करते हैं जल चढ़ाते शिव के भजन कीर्तन करते हुए शिवमय हो जाते हैं। हिमालय गाथा के उत्सव पर्व में लेखक सुदर्शन जी ने लिखा है कि महाशिवरात्रि का उत्सव कृष्ण चतुर्दशी के फागुन माह में मनाया जाता है यह पर्व महाशिवरात्रि से आरंभ होकर 1 सप्ताह तक चलता है। यह उत्सव पर्व कुल्लू, के रघुनाथ जी मंडी के माधवराव जी की शोभायात्रा निकाली जाती है।

महाशिवरात्रि के पर्व पर राजा चित्रभानु की कथा का प्रसंग पुराणों में पढ़ने को मिलता है, भले ही आज के लोग इस कथा को कपोल कल्पित कल्पना माने पर यह हमारे ऋषि-मुनियों के आत्मज्ञान और साधना का निचोड़ है। जिन्होंने कथाओं के माध्यम से सृष्टि की प्रत्येक रचना की महत्ता को किसी न किसी रूप में प्रकट की है।
पौराणिक कथाओं में नीलकंठ की कहानी सबसे ज्यादा चर्चित है। ऐसी मान्यता है कि महाशिवरात्रि के दिन ही समुद्र मंथन के दौरान कालकेतु विष निकला था। भगवान शिव ने संपूर्ण ब्राह्मांड की रक्षा के लिए स्वंय ही सारा विष पी लिया और नीलकंठ महादेव कहलाये।

शिव ही हैं, जो बंधन, मोक्ष और सुख-दुख के नियामक हैं। समस्त चराचर के स्वामी संसार के कारण स्वरूप रूद्र रूप में संसार के सृजनकर्ता, पालक और संहारक सबका कल्याण करें। श्रीशिवमहापुराण रुद्र संहिता के दशमें अध्याय में ब्रह्मा विष्णु संवाद में विष्णु कहते है कि हे ब्रह्मन वेदों में वर्णित शिव ही समस्त सृष्टि के कर्ता-धर्ता भर्ता, हर्ता,  परात्पर परम ब्रम्ह परेश निर्गुण नित्य, निर्विकार परमात्मा अद्वैत अच्युत अनंत सब का अंत करने वाले स्वामी व्यापक परमेश्वर सृष्टि पालक सत रज तम तीनों गुणों से युक्त सर्वव्यापी माया रचने में प्रवीण,ब्रह्मा विष्णु महेश्वर नाम धारण करने वाले, अपने में रमण करने वाले, द्वन्द्व से रहित, उत्तम शरीर वाले, योगी,गर्व को दूर करने वाले दीनों पर दया करने वाले, सामान्य देव नहीं, देवों के देव हैं, महायोगी हैं।

 

© डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत
असिस्टेंट प्रोफेसर, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर, मध्य प्रदेश
9425339116

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #10 – कन्या भ्रूण हत्या रोकने में आस्थाओ का महत्व ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  दसवीं कड़ी में प्रस्तुत है “कन्या भ्रूण हत्या रोकने में आस्थाओ का महत्व”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 10 ☆

 

☆ कन्या भ्रूण हत्या रोकने में आस्थाओ का महत्व ☆

 

पुरुषो की तुलना में निरंतर गिरते स्त्री अनुपात के चलते इन दिनो देश में “बेटी बचाओ अभियान”  की आवश्यकता आन पड़ी है.  नारी-अपमान, अत्याचार एवं शोषण के अनेकानेक निन्दनीय कृत्यों से समाज ग्रस्त है. सबसे दुखद ‘कन्या भ्रूण-हत्या’ से संबंधित अमानवीयता, अनैतिकता और क्रूरता की वर्तमान स्थिति हमें आत्ममंथन व चिंतन के लिये विवश कर रही है. एक ओर नारी स्वातंत्र्य की लहर चल रही है तो दूसरी ओर स्त्री के प्रति निरंतर बढ़ते अपराध दुखद हैं.  साहित्य की एक सर्वथा नई धारा के रूप में स्त्री विमर्श, पर चर्चा और रचनायें हो रही हैं, “नारी के अधिकार “, “नारी वस्तु नही व्यक्ति है”, वह केवल “भोग्या नही समाज में बराबरी की भागीदार है”, जैसे वैचारिक मुद्दो पर लेखन और सृजन हो रहा है, पर फिर भी नारी के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में वांछित सकारात्मक बदलाव का अभाव है.

हमारे देश की पहचान एक धर्म प्रधान, अहिंसा व आध्यात्मिकता के प्रेमी  और नारी गौरव-गरिमा का देश होने की है,  फिर क्या कारण है कि इस शिक्षित युग में भी बेटियो की यह स्थिति हुई है कि उन्हें बचाने के लिये सरकारी अभियान की जरूरत महसूस की जा रही है. एक ओर कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स जैसी बेटियां अंतरिक्ष में भी हमारा नाम रोशन कर रही हैं, महिलायें राजनीति के सर्वोच्च पदो पर हैं, पर्वतारोहण, खेल, कला,संस्कृति, व्यापार,जीवन के हर क्षेत्र में लड़कियो ने सफलता की कहानियां गढ़कर सिद्ध कर दिखाया है कि ” का नहिं अबला करि सकै का नहि समुद्र समाय ”  तो दूसरी और माता पिता उन्हें जन्म से पहले ही मार देना चाहते हैं. ये विरोधाभासी स्थिति मौलिक मानवाधिकारो का हनन तथा समाज की मानसिक विकृति की सूचक है.

बेटियों की निर्मम हत्या की  कुप्रथा को जन्म देने में अल्ट्रा साउन्ड से कन्या भ्रूण की पहचान की वैज्ञानिक खोज का दुरुपयोग जिम्मेदार है. केवल सरकारी कानूनो से कन्या भ्रूण हत्या रोकने के स्थाई प्रयास संभव नही हैं. दरअसल इस समस्या का हल क़ानून या प्रशासनिक व्यवस्था से कहीं अधिक स्वयं ‘मनुष्य’ के अंतःकरण, उसकी आत्मा, प्रकृति व मनोवृत्ति, मानवीय स्वभाव, उसकी चेतना,  मान्यताओ व धारणाओ और उसकी सोच में बदलाव तथा नारी सशक्तिकरण ही इस समस्या का स्थाई हल है.  समाज की  मानसिकता व मनोप्रकृति  में यह स्थाई बदलाव आध्यात्मिक चिंतन तथा ईश्वरीय सत्ता में विश्वास और पारलौकिक जीवन में आज के अच्छे या बुरे कर्मों का तद्नुसार फल मिलने के कथित धार्मिक सिद्धान्तों की मान्यता पर ढ़ृड़ता से संभव है. विज्ञान  धार्मिक आस्थाओ पर प्रश्नचिन्ह लगाता है, किन्तु सच यह है कि आध्यात्म, विज्ञान का ही विस्तारित स्वरुप है.  विभिन्न धर्मो के आडम्बर रहित धार्मिक विधिविधान वे सैद्धांतिक सूत्र हैं जो हमें ध्येय लक्ष्यो तक पहु्चाते हैं.

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” अर्थात जहाँ नारियो की पूजा होती है वहां देवताओ का वास होता है यह उद्घोष, हिन्दू समाज से कन्या भ्रूण हत्या ही नही, नारी के प्रति समस्त अपराधो को समूल समाप्त करने की क्षमता रखता है, जरूरत है कि इस उद्घोष में व्यापक आस्था पैदा हो. नौ दुर्गा उत्सवो पर कन्या पूजन, हवन हेतु अग्नि प्रदान करने वाली कन्या का पूजन हमारी संस्कृति में कन्या के महत्व को रेखांकित करता है, आज पुनः इस भावना को बलवती बनाने की आवश्यकता है.

पैग़म्बर मुहम्मद  ने कन्या हत्या रोकने के लिये  भाषण देने, आन्दोलन चलाने, और ‘क़ानून अदालत या जेल’ का प्रकरण बनाने के बजाय केवल इतना कहा है कि ‘जिस व्यक्ति के बेटियां हों, वह उन्हें ज़िन्दा गाड़कर उनकी हत्या न कर दे, उन्हें सप्रेम व स्नेहपूर्वक पाले-पोसे, उन्हें नेकी, शालीनता, सदाचरण व ईशपरायणता की उत्तम शिक्षा-दीक्षा दे, बेटों को उनसे बढ़कर न माने, नेक रिश्ता ढूंढ़कर बेटियो का घर बसा दे, तो वह स्वर्ग में मेरे साथ रहेगा’. मुस्लिम समाज कुरानशरीफ की इस प्रलोभन भरी शिक्षा को अपनाकर, बेटी की अच्छी परवरिश से स्वर्ग-प्राप्ति का  अवसर मानकर प्रसन्न हो सकता है और लालच में ही सही पर लड़कियो के प्रति अपराध रुक सकते हैं. जरूरत है इस विश्वास में भरपूर आस्था की.  कुरान में कहा गया है कि परलोक में हिसाब-किताब वाले दिन, ज़िन्दा गाड़ी गई बच्ची से ईश्वर पूछेगा, कि वह किस जुर्म में क़त्ल की गई थी ? इस तरह कन्या-वध करने वालों को अल्लाह ने चेतावनी भी दी है.

ईसाई समाज में भी पत्नी को “बैटर हाफ” का दर्जा तथा लेडीज फर्स्ट की संकल्पना नारी के प्रति सम्मान की सूचक है. जैन संप्रदाय में तो छोटे से छोटे कीटाणुओ की हिंसा तक वर्जित है. इसी तरह अन्य धर्मो में भी मातृ शक्ति को महत्व के अनेकानेक उदाहरण मिलते हैं. किन्तु इन धार्मिक आख्यानो को किताबो से बाहर समाज में व्यवहारिक रूप में अपनाये जाने की जरूरत है.

मनुष्य  कभी कुछ काम लाभ की चाहत में करता है और कभी  भय से, और नुक़सान से बचने के लिए करता है। इन्सान के रचयिता ईश्वर से अच्छा, भला इस मानवीय कमजोरी  को और कौन जान सकता है ? अतः इस पहलू से भी धार्मिक मान्यताओ में रुढ़िवादी आस्था ही सही किन्तु ईश्वरीय सत्ता में विश्वास, पाप पुण्य के लेखाजोखा की संकल्पना, कन्या भ्रूण हत्या के अनैतिक सामाजिक दुराचरण पर स्थाई रोक लगाने में मदद कर सकता है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #7 – मिट्टी – जमीन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  सातवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 7 ☆

 

☆ मिट्टी – जमीन ☆

 

आदमी मिट्टी के घर में रहता था, खेती करता था। अनाज खुद उगाता, शाक-भाजी उगाता, पेड़-पौधे लगाता। कुआँ खोदता, कुएँ की गाद खुद निकालता। गाय-बैल पालता, हल जोता करता, बैल को अपने बच्चों-सा प्यार देता। घास काटकर लाता, गाय को खिलाता, गाय का दूध खुद निकालता, गाय को माँ-सा मान देता। माटी की खूबियाँ समझता, माटी से अपना घर खुद बनाता-बाँधता। सूरज उगने से लेकर सूरज डूबने तक प्रकृति के अनुरूप आदमी की चर्या चलती।

आदमी प्रकृति से जुड़ा था। सृष्टि के हर जीव की तरह अपना हर क्रिया-कलाप खुद करता। उसके रोम-रोम में प्रकृति अंतर्निहित थी। वह फूल, खुशबू, काँटे, पत्ते, चूहे, बिच्छू, साँप, गर्मी, सर्दी, बारिश सबसे परिचित था, सबसे सीधे रू-ब-रू होता । प्राणियों के सह अस्तित्व का उसे भान था। साथ ही वह साहसी था, ज़रूरत पड़ने पर हिंसक प्राणियों से दो-दो हाथ भी करता।

उसने उस जमाने में अंकुर का उगना, धरती से बाहर आना देखा था और स्त्रियों का जापा, गर्भस्थ शिशु का जन्म उसी प्राकृतिक सहजता से होता था।

आदमी ने चरण उटाए। वह फ्लैटों में रहने लगा। फ्लैट यानी न ज़मीन पर रहा न आसमान का हो सका।

अब अधिकांश आदमियों की बड़ी आबादी एक बीज भी उगाना नहीं जानती। प्रसव अस्पतालों के हवाले है। ज्यादातर आबादी ने सूरज उगने के विहंगम दृश्य से खुद को वंचित कर लिया है। बूढ़ी गाय और जवान बैल बूचड़खाने के रॉ मटेरियल हो चले, माटी एलर्जी का सबसे बड़ा कारण घोषित हो चुकी।

अपना घर खुद बनाना-थापना तो अकल्पनीय, एक कील टांगने के लिए भी कथित विशेषज्ञ  बुलाये जाने लगे हैं। अपने इनर सोर्स को भूलकर आदमी आउटसोर्स का ज़रिया बन गया है। शरीर का पसीना बहाना पिछड़ेपन की निशानी बन चुका। एअर कंडिशंड आदमी नेचर की कंडिशनिंग करने लगा है।

श्रम को शर्म ने विस्थापित कर दिया है। कुछ घंटे यंत्रवत चाकरी से शुरू करनेवाला आदमी शनैः-शनैः यंत्र की ही चाकरी करने लगा है।

आदमी डरपोक हो चला है। अब वह तिलचट्टे से भी डरता है। मेंढ़क देखकर उसकी चीख निकल आती है। आदमी से आतंकित चूहा यहाँ-वहाँ जितना बेतहाशा भागता है, उससे अधिक चूहे से घबराया भयभीत आदमी उछलकूद करता है। साँप का दिख जाना अब आदमी के जीवन की सबसे खतरनाक दुर्घटना है।

लम्बा होना, ऊँचा होना नहीं होता। यात्रा आकाश की ओर है, केवल इस आधार पर उर्ध्वगामी नहीं कही जा सकती। त्रिशंकु आदमी आसमान को उम्मीद से ताक रहा है। आदमी ऊपर उठेगा या औंधे मुँह गिरेगा, अपने इस प्रश्न पर खुद हँसी आ रही है। आकाश का आकर्षण मिथक हो सकता है पर गुरुत्वाकर्षण तो इत्त्थमभूत है। सेब हो, पत्ता, नारियल या तारा, टूटकर गिरना तो ज़मीन पर ही पड़ता है।

 

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©  संजय भारद्वाज , पुणे

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ व्यक्तित्व ही हमारी पहचान ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी का  व्यक्तित्वपर  विशेष  लेख।  )

 

☆ व्यक्तित्व ही हमारी पहचान

 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा उसका स्वभाव ही उसका भविष्य है।  समाज का दर्पण साहित्य को कहा गया है, क्योंकि समाज की अच्छाइयां और बुराइयां, सामाजिक गतिविधियों की जानकारी साहित्य में ही परिलक्षित होती हैं।

कुदरत की रची इस सुंदर एवं हसीन दुनिया में हर इंसान समाज में रहते अपने लिए एक सुंदर, अपना कह सकने वाला, घर हो इसकी कल्पना करता है और बनाता भी है। अपने श्रम से निरंतर उसे सिंचित कर एक समय ऐसा आता है जब वह बगिया हरी-भरी हो जाती है। इस बगिया को हरी-भरी बनाए रखने के लिए और हमारे व्यक्तित्व निर्माण में वाणी (बोलचाल) का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। व्यक्ति के बाहरी रूप को देखने के बाद वाणी से ही उसकी पहचान होती है, और मीठा- मधुर बोलने वाला व्यक्ति अपना चिर – स्थाई जगह बना लेता है। मीठी वाणी व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करती है।

व्यक्ति का बोलना संसार में सबसे बड़ा आभूषण माना जाता है। अच्छी बोली, अच्छा व्यवहार एक असाधारण इंसान बनने की ओर पहला कदम है। क्या बोलना है ये लगभग सभी जानते हैं। लेकिन व्यक्तित्व की सही पहचान, तभी बनती है जब यह ज्ञान आ जाए कि कब और कहां बोलना है। इसी से वाणी की पहचान भी होती है। सज्जनता और शालीनता हमारी जीभ में ही रहती है।

“ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय।”

आप जीभ से मिठास बांटना शुरू कीजिए, यकीनन आपके मुंह से निकले हुए शब्द वरदान बनेंगे। हमारी वाणी सूर्य की किरणों के समान बलशाली होती हैं । लेजर किरणों के हिसाब से इस वाणी की सामर्थ भी बहुत अधिक होती है। वाणी का दिया हुआ श्राप भी काम का हो सकता है। वाणी में नुकसान करने की क्षमता अधिक होती है। इसीलिए जीभ पर नियंत्रण होना भी बहुत जरूरी है।

दूसरों से वार्तालाप करते समय शालीनता का ध्यान रखना, सज्जनता का ध्यान रखना, सेवा का ध्यान रखना और वाणी का विश्राम होना बहुत ही आवश्यक है। आपने देखा होगा कि मरते समय आदमी में क्या परिवर्तन होता है। आंखें काम करती हैं, हाथ पैर काम करते हैं पर वाणी का चलना बंद हो जाता है। जीभ में आफत आ जाती है। होठं चल रहे हैं, आंख काम करती हैं, आंसू आ रहे हैं पर मृत्यु के समय आवाज नहीं निकलती है। यह वोकल साउंड साधारण चीज नहीं हैं, इसीलिए शब्दों का उच्चारण हमेशा रोकथाम कर, सोच – विचार कर करने की आदत होना चाहिए।

हम अच्छा काम करें, अपने पीछे ऐसी छाप छोड़ दें कि समय भी उसे मिटा न सके। आप और हम जो जीवन जी रहे हैं उस पर असर करने वाले शब्दों का चयन अक्लमंदी से करना चाहिए। कबीर दास जी एक संत, ज्ञानी, भक्त, कवि व समाज सुधारक के रूप में याद किए जाते हैं और जाने जाते रहेंगे। उनके व्यक्तित्व अनोखा था, उन्होंने झूठ का सहारा कहीं और कभी भी नहीं लिया। उनके जीवन की सबसे बड़ी सौगात उनकी वाणी और सर्वजयी व्यक्तित्व रहा। जो सदैव अमर रहेगा। बहुत ही सरल शब्दों में उन्होंने जीवन की चार बातें कह दी हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने वाणी के संदर्भ में बहुत ही सुंदर पंक्तियां लिखी हैं।

“तुलसी मीठे बचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर।

बसीकरन इक मंत्र है, परिहरू बचन कठोर॥”

महात्मा विदुर जी ने महाभारत में सुंदर वर्णन किया है की वाणी से विधा हुआ घाव भी भर जाता है, कुल्हाड़ी से काटा गया वृक्ष भी समय पश्चात हरा- भरा हो जाता है, परंतु कटु वाणी द्वारा बोले गए शब्दों के घाव कभी भी नहीं भरते हैं। हर युग में वही महाभारत का कारण बनता है। अपने व्यक्तित्व निर्माण में मधुर भाषण, नम्रता, विनयशीलता, हमेशा हंसते मुस्कुराते और यथासंभव सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत को अपनाना चाहिए।

सिर्फ वही आदमी अच्छे और बुरे का निर्माता हो सकता है जो आदमी की मंजिल की रचना कर सके और दुनिया को उसका अर्थ और भविष्य दे सके। शब्द उनके लिए होते हैं जो वजन सह सकते हैं। हल्के लोगों के लिए शब्द व्यर्थ हैं।

वाणी एक पर रूप अनेक हैं, शब्द एक पर अर्थ अनेक हैं। कभी शब्द सी मीठी वाणी, कभी कोयले – सी कड़वी वाणी, कभी प्रशंसा का पात्र बनाती, कभी तिरस्कृत करती वाणी सारे संयम ओं में वाणी, सारे संयम अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारे शरीर में जीभ खुद तो बात कह कर मुंह के अंदर चली जाती है, परंतु उसका परिणाम कहने वाले को भुगतना पड़ता है।

 “रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग पाताल

आपु तो कही भीतर रही जूती सहत कपाल।”

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – डायलर-रिसीवर ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )

 

☆ संजय दृष्टि  – डायलर-रिसीवर

यात्रा पर हूँ और गाड़ी की प्रतीक्षा है। देख रहा हूँ कि कुछ दूर चहलकदमी कर रही चार- पाँच साल की एक बिटिया अपनी माँ से मोबाइल लेकर जाने किससे क्या-क्या बातें कर रही है। चपर-चपर बोल रही है। बीच-बीच में जोरों से हँसती है। ध्यान देने पर समझ में आया कि मोबाइल के दोनों छोर पर वही है। जो डायल कर रहा है, वही रिसीव भी कर रहा है। माँ के आवाज़ देने पर बोली, ‘अरे मम्मा, फोन पर बात कर रही हूँ, झूठी-मूठी की बात…’ और खिलखिला पड़ी। अलबत्ता उसके झूठमूठ में दुनिया भर की सच्चाई भरी हुई है। सच्चे मोबाइल पर सच्ची सहेली से बातें। सब कुछ इतना सुथरा, इतना पारदर्शी, इतना सच्चा कि मोबाइल  सैटेलाइट की जगह मन के तारों से कनेक्ट हो रहा है।

बच्चों के चेहरे तपाक से कनेक्ट कर लेते हैं। निष्पाप, सदा हँसते, ऊर्जा से भरपूर। उनकी सच्चाई का कारण स्पष्ट है, जो डायल कर रहा है, वही रिसीव कर रहा है। भीतर-बाहर कोई भेद नहीं। भीतर-बाहर एक। द्वैत भीड़ में अद्वैत।

इस एकात्म ‘डायलर-रिसीवर’ फॉर्मूले को क्या हम नहीं अपना सकते? याद करो पिछली बार अपने आप से कब बातचीत की थी? अपने आप से बात करना याने अपने सर्वश्रेष्ठ मित्र से बात करना, ऐसी आत्मा से बात करना जिससे अपना भीतर या बाहर कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता। अपने आप से वार्तालाप याने परमात्मा से संवाद।

एकाएक बिना कोई नम्बर फिराये अपने आप से बात कर रहा हूँ। अनुभव कर रहा हूँ कि यों चपर- चपर बोलना और खिलखिलाना ज़रा भी कठिन नहीं। भीतर नई ऊर्जा प्रवाहित हो रही है।

अब तुम्हारा मेरी ओर खिंचा आना स्वाभाविक है पर सुनो, सदा लौह बने रहने के बजाय चुंबक बनने का प्रयास करो। खुद को डायल करो, खुद रिसीव करो, चुंबकत्व खुद तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाएगा।

आइए, आज खुद से बतियाएँ।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 2 – असत्य की रात्रि ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “असत्य की रात्रि।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – #2 ☆

 

☆ असत्य की रात्रि  

 

भारद्वाज (अर्थ : जिसके पास ताकत है)ऋषि, विश्रवा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें अपनी बेटी इलाविडा (अर्थ :भूमि से ग्रहण करना) कोपत्नी के रूप में दे दिया था ।इलाविडा से विश्रवा को एक पुत्र हुआ जिसका नाम कुबेर रखा गया। कुबेर का अर्थ है विकृत संरचना/आकृति या राक्षसी या बीमार आकार वाला ।एक अन्य सिद्धांत के अनुसार कुबेर का अर्थ मूल क्रिया ‘कुम्बा’ से लिया जा सकता है, जिसका अर्थ है ‘छुपाएं’ तो कुबेर में कु अर्थ ‘पृथ्वी के अंदर छुपा हुआ’ और ‘वीरा’ का अर्थ नायक है तो कुबेर का अर्थ हुआ पृथ्वी के अंदर छिपे हुए ख़जाने का नायक । कुबेर छिपे हुए धन के भगवान है और अर्द्ध दिव्य यक्षों के राजा हैं । कुबेर को उत्तर दिशा का ‘दिकपाल’ भी माना जाता है (दिक का अर्थ है ‘दिशा’ और पाल का अर्थ है ‘पोषण’) अर्थात उत्तर दिशा का पालन करने वाला । कुछ लोग कुबेर को लोकपाल भी मानते है (लोक अर्थ ‘दुनिया’ और पाल का अर्थ है ‘पोषण’ तो कुबेर हुए दुनिया का पोषण करने वाले) । कई ग्रंथों ने कुबेर को कई अर्ध-दैवीय प्रजातियों के अधिग्रहण के रूप में और दुनिया के खजानों के मालिक के रूप में उजागर किया है । कुबेर को अक्सर एक मोटे शरीर के साथ चित्रित किया जाता है, जो गहनों से सजे हुए होते हैं, हाथों में धन-बर्तन और एक गदा लिए हुए होते हैं, कुबेर ही लंका के मूल शासक थे । भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए कुबेर ने हिमालय पर्वत पर तप किया। तप के अंतराल में शिव तथा पार्वती दिखायी पड़े। कुबेर ने अत्यंत सात्त्विक भाव से पार्वती की ओर बायें नेत्र से देखा। पार्वती के दिव्य तेज से वह नेत्र भस्म होकर पीला पड़ गया। कुबेर वहाँ से उठकर दूसरे स्थान पर चले गये। वह घोर तप या तो भगवान शिव ने किया था या फिर कुबेर ने किया, अन्य कोई भी देवता उसे पूर्ण रूप से संपन्न नहीं कर पाया था। कुबेर से प्रसन्न होकर शिव ने कहा-‘तुमने मुझे तपस्या से जीत लिया है। तुम्हारा एक नेत्र पार्वती के तेज से नष्ट हो गया, अत: तुम एकाक्षीपिंगल कहलाओंगे। देवी भद्रा (अर्थ : कल्याणकारिणी शक्ति) ,हिन्दू धर्म में भद्रा शिकार की देवी है कुबेर की पत्नी है ।

यक्ष का शाब्दिक अर्थ होता है ‘जादू की शक्ति’, येप्रकृति-आत्माओं की एक श्रेणी है आमतौर पर उदार, जो पृथ्वी और वृक्ष की जड़ों में छिपे प्राकृतिक खजाने की देखभाल करते हैं । दूसरी ओर, यक्षों को वन और पहाड़ों से जुड़े अपमानजनक, प्रकृति का सन्देशवाहक भी माना जाता है । लेकिन यक्ष का एक नकारात्मक संस्करण भी है, जो एक प्रकार के भूतहैं और जो जंगलों मेंशिकार करते हैं ।ये वे यक्ष हैंजो राक्षसों के समान जंगलों से गुजरने वाले यात्रियों को भस्म करके खा लेते हैं ।

स्वर्ग के निवासियों के तीन वर्ग हैं :

  1. देवता (वातावरण और प्राकृतिक चक्र के देव)
  2. गणदेव (देवताओं की विभिन्न श्रेणियाँ)
  3. उपदेव (देवताओंकेसहायक देव)

इंद्र, सूर्य, सोम, वायु आदि देवता हैं ।

गणदेव में हैं :

12 आदित्य (12 महीनो के 12 सूरज देवता),

10 विश्वदेव (10 सार्वभौमिक सिद्धांतो के देव),

8 वासु (8 प्रकार के निवास स्थानों के देव),

36 देवी,

64 अभास्वर (64 प्रकार की चमक के देव),

49 अनिल (हवाओं की देवताओं),

220 महाराजिका (220 प्रकार की रियासतो के देव),

12 साध्य (12 सिद्धि प्राप्ति के तरीकों के देव) और

11 रुद्र (11 विनाश के देव)

उपदेवों के 10 उपभाग हैं :

विद्याधर (ज्ञान के धारक),

अप्सरा (सार),

यक्ष,

राक्षस,

गंधर्व (गंध के मालिक),

किन्नर (आंशिक आदमी एवं आंशिक जानवर या कुछ और),

पिशाच (कच्चा माँस खाने वाले),

गुह्यक (रहस्यो को छिपाकर रखने वाले),

सिद्ध (महान ज्ञान रखने वाले) और

भूत (पृथ्वी से जन्मी भटकती आत्माएँ)

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 7 ☆ आत्मसम्मान ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक  सार्थक लघुकथा  “आत्मसम्मान”। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 7  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ आत्मसम्मान 

 

शादी के आठ माह बाद भी दीप्ति को पति से वो सम्मान नहीं मिला जी मिला जो उसे मिलना चाहिये। कभी-कभी जेठ जिठानी से मिलने जाते थे पर पति ने कदर नहीं की तो उनकी नजरों में भी कोई स्थान नहीं था। पढ़ी लिखी दीप्ति ने कभी भी अपनी माँ के यहाँ कोई काम नहीं किया था बस नौकरी कर घर की जिम्मेदारी उठाई थी ।

अब शादी दूसरे शहर में होने से नौकरी छोड़नी पड़ी सोचा कुछ समय सेटल होकर कर लेंगे। पति के ताने से यह प्रकट होता था –“बड़ी आई पढ़ने वाली अब जॉब करेगी घर पर बैठ घर संभाल यही पत्नी की डयूटी होती है”। धीरे-धीरे समय बीतता रहा ।एक दिन पति की अपने बॉस से कहा सुनी हो गई खुद को ही बॉस समझने लगा और नौकरी से हाथ धोना पड़ा। अब फिर ताने तुम्हारा इतना पढ़ना किस काम का जो तुम घर पर बैठी हो।

दीप्ति ने बोला –“जब हम जॉब करना चाहते तो तुमने करने ही नहीं दिया।” उसका जबाव था—“तुम्हारी यही सोच तुम्हारे पढ़ने लिखने का क्या फायदा?” दीप्ति ने  नेट का फॉर्म भरा मन लगाकर पढ़ाई की और परीक्षा पास की। बड़े परिश्रम के बाद किसी की सिफारिश से वहीं पास के ही कॉलेज में एडॉक पर नौकरी मिल गई।

जिस दिन नौकरी ज्वाइन की उस दिन घर लौटते समय लगा पता नहीं पतिदेव क्या रियेक्ट करेंगे कहीं फिर ताना सुनना पड़ेगा। लेकिन अब मन बना लिया चाहे कुछ हो जाये अब नौकरी नहीं छोड़ेंगे। यहीं सोचते -सोचते घर आ गया घर का दरवाजा खुला था । अदंर प्रवेश करने के साथ ही जोर की आवाज आई – “मेरी दीप्ति तुमने मेरे जीवन को दीप्त कर दिया बहुत -बहुत बधाई”। फिर मिठाई खिलाई पतिदेव ने चाय बनाई और कहा “आज तुम खाना नहीं बनाओगी आज बाहर ही खायेंगे। तुम्हारी सफलता से हम बहुत खुश हैं।”

दीप्ति ने मन ही मन कहा –“आज तुझे नौकरी मिलने से पति की नजरों में आत्मसम्मान मिला है अर्थात ये सब पैसों के पुजारी है।”

 

© डॉ भावना शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि  – हरापन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम  आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )

 

संजय दृष्टि  – हरापन

जी डी पी का बढ़ना
और वृक्ष का कटना
समानुपाती होता है;
“जी डी पी एंड ट्री कटिंग आर
डायरेक्टली प्रपोर्शिएनेट
टू ईच अदर-”
वर्तमान अर्थशास्त्र पढ़ा रहा था..,
‘संजय दृष्टि’ देख रही थी-
सेंसेक्स के साँड़
का डुंकारना,
काँक्रीट के गुबार से दबी
निर्वसन धरा का सिसकना,
हवा, पानी, छाँव के लिए
प्राणियों का तरसना-भटकना
और भूख से बिलबिलाता
जी डी पी का
आरोही आलेख लिए बैठा
अर्थशास्त्रियों का समूह..!

हताशा के इन क्षणों में
कवि के भीतर का हरापन
सुझाता है एक हल-
जी डी पी और वृक्ष की हत्या
विरोधानुपाती होते हैं;
“जी डी पी एंड ट्री कटिंग आर
इनवरसली प्रपोर्शिएनेट
टू ईच अदर-”
भविष्य का मनुष्य
गढ़ रहा है..!

 

आपका दिन हरा रहे । 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #9 – बहू की नौकरी ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  नौवीं कड़ी में प्रस्तुत है “बहू की नौकरी ”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 9 ☆

 

☆ बहू की नौकरी ☆

 

विवाह के बाद बहू को नौकरी करना चाहिये या नही यह वर्तमान युवा पीढ़ी की एक बड़ी समस्या है. बहू नौकरी करेगी या नहीं, निश्चित ही यह बहू को स्वयं ही तय करना चाहिये. प्रश्न है,विचारणीय मुद्दे क्या हों ? इन दिनो समाज में लड़कियों की शिक्षा का एक पूरी तरह गलत उद्देश्य धनोपार्जन ही लगाया जाने लगा है, विवाह के बाद यदि घर की सुढ़ृड़ आर्थिक स्थिति के चलते ससुराल के लोग बहू को नौकरी न करने की सलाह देते हैं तो स्वयं बहू और उसके परिवार के लोग इसे दकियानूसी मानते है व बहू की आत्मनिर्भरता पर कुठाराघात समझते हैं, यह सोच पूरी तरह सही नही है.

शिक्षा का उद्देश्य केवल अर्थोपार्जन नही होता. शिक्षा संस्कार देती है. विशेष रूप से लड़कियो की शिक्षा से समूची आगामी पीढ़ी संस्कारवान बनती है. बहू की शिक्षा उसे आत्मनिर्भरता की क्षमता देती है, पर इसका उपयोग उसे तभी करना चाहिये जब परिवार को उसकी जरूरत हो. अन्यथा बहुओ की नौकरी से स्वयं वे ही प्रकृति प्रदत्त अपने प्रेम, वात्सल्य, नारी सुलभ गुणो से समझौते कर व्यर्थ ही थोड़ा सा अर्थोपार्जन करती हैं. साथ ही इस तरह अनजाने में ही वे किसी एक पुरुष की नौकरी पर कब्जा कर उसे नौकरी से वंचित कर देती हैं. इसके समाज में दीर्घगामी दुष्परिणाम हो रहे हैं, रोजगार की समस्या उनमें से एक है दम्पतियो की नौकरी से परिवारो का बिखराव, पति पत्नी में ईगो क्लैश, विवाहेतर संबंध जैसी कठिनाईयां पनप रही हैं. नौकरी के साथ साथ पत्नी पर घर की ज्यादातर जिम्मेवारी, जो एक गृहणी की होती है, वह भी महिला को उठानी ही पड़ती है इससे परिवार में तनाव, बच्चो पर पूरा ध्यान न दे पाने की समस्या, दोहरी मेहनत से स्त्री की सेहत पर बुरा असर आदि मुश्किलो से नई पीढ़ी गुजर रही है. अतः बहुओ की नौकरी के मामले में मायके व ससुराल दोनो पक्षों के बड़े बुजुर्गो को व पति को सही सलाह देना चाहिये व किसी तरह की जोर जबरदस्ती नही की जानी चाहिये पर निर्णय स्वयं बहू को बहुत सोच समझ कर लेना चाहिये.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #6 – पड़ाव के बाद का मौन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  चौथी  कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 6 ☆

 

☆ पड़ाव के बाद का मौन ☆

 

एक परिचित के घर बैठा हूँ। उनकी नन्हीं पोती रो रही है। उसे भूख लगी है, पेटदर्द है, घर से बाहर जाना चाहती है या कुछ और कहना चाह रही है, इसे समझने के प्रयास चल रहे हैं।

अद्भुत है मनुष्य का जीवन। गर्भ से निकलते ही रोना सीख जाता है। बोलना, डेढ़ से दो वर्ष में आरंभ होता है। शब्द से परिचित होने और तुतलाने से आरंभ कर सही उच्चारण तक पहुँचने में कई बार जीवन ही कम पड़ जाता है।

महत्वपूर्ण है अवस्था का चक्र, महत्वपूर्ण है अवस्था का मौन..। मौन से संकेत, संकेतों से कुछ शब्द, भाषा से परिचित होते जाना और आगे की यात्रा।

मौन से आरंभ जीवन, मौन की पूर्णाहुति तक पहुँचता है। नवजात की भाँति ही बुजुर्ग भी मौन रहना अधिक पसंद करता है। दिखने में दोनों समान पर दर्शन में जमीन-आसमान।

शिशु अवस्था के मौन को समझने के लिए माता-पिता, दादी-दादा, नानी,-नाना, चाचा-चाची, मौसी, बुआ, मामा-मामी, तमाम रिश्तेदार, परिचित और अपरिचित भी प्रयास करते हैं। वृद्धावस्था के मौन को कोई समझना नहीं चाहता। कुछ थोड़ा-बहुत समझते भी हैं तो सुनी-अनसुनी कर देते हैं।

एक तार्किक पक्ष यह भी है कि जो मौन, एक निश्चित पड़ाव के बाद जीवन के अनुभव से उपजा है, उसे सुनने के लिए लगभग उतने ही पड़ाव तय करने पड़ते हैं। क्या अच्छा हो कि अपने-अपने सामर्थ्य में उस मौन को सुनने का प्रयास समाज का हर घटक करने लगे। यदि ऐसा हो सका तो ख़ासतौर पर बुजुर्गों के जीवन में आनंद का उजियारा फैल सकेगा।

इस संभावित उजियारे की एक किरण आपके हाथ में है। इस रश्मि के प्रकाश में क्या आप सुनेंगे और पढ़ेंगे बुजुर्गों का मौन..?

 

(माँ सरस्वती की अनुकम्पा से 19.7.19 को प्रातः 9.45 पर प्रस्फुटित।)

आज सुनें और पढ़ें किसी बुजुर्ग का मौन।

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©  संजय भारद्वाज , पुणे

[email protected]

विशेष: श्री संजय भारद्वाज जी के व्हाट्सएप पर भेजी गई 19 जुलाई 2019 की  पोस्ट को स्वयं तक सीमित न रख कर अक्षरशः आपसे साझा कर रहा हूँ।  संभवतः आप भी पढ़ सकें किसी बुजुर्ग का मौन? आपके आसपास अथवा अपने घर के ही सही!

 

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