(प्रस्तुत है प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा पर एक सार्थक आलेख वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य।कल आपने इस आलेख का प्रथम भाग पढ़ा। आज के अंक में प्रस्तुत कर रहे हैं एवं इसकी अंतिम कड़ी । )
☆ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य – भाग 2 (अंतिम भाग) ☆
कल के अंक से आगे ….
ओम व्यास सफल मंचीय कवि थे. ओम व्यास की रचना
“मज़ा ही कुछ और है”…….
दांतों से नाखून काटने का
छोटों को जबरदस्ती डांटने का
पैसे वालों को गाली बकने का
मूंगफली के ठेले से मूंगफली चखने का
कुर्सी पे बैठ कर कान में पैन डालने का
और डीटीसी की बस की सीट में से स्पंज निकालने का
मज़ा ही कुछ और है
एक ही खूंटी पर ढेर सारे कपड़े टांगने का
नये साल पर दुकानदार से कलैंडर मांगने का
चलती ट्रेन पर चढ़ने का
दूसरे की चिट्ठी पढ़ने का
मांगे हुए स्कूटर को तेज भगाने का
और नींद न आने पर पत्नी को जगाने का
मज़ा ही कुछ और है
चोरी से फल फूल तोड़ने का
खराब ट्यूब लाइट और मटके फोड़ने का
पड़ोसिन को घूर घूर कर देखने का
अपना कचरा दूसरों के घर के सामने फेंकने का
बथरूम में बेसुरा गाने का
और थूक से टिकट चिपकाने का
मज़ा ही कुछ और है
आफिस से देर से आने का
फाइल को जबरदस्ती दबाने का
चाट वाले से फोकट में चटनी डलवाने का
बारात में प्रैस किये हुए कपड़ों को फिर से प्रैस करवाने का
ससुराल में साले से पान मंगवाने का
और साली की पीठ पर धौल जमाने का
मज़ा ही कुछ और है
बलबीर सिंग कुरुक्षेत्र से हैं उनकी एक हास्य रचना…
परीक्षा-हाल में अक्सर मेरा, अंतर्रात्मा से मिलन होता है ।
पेपर तो छात्र देते हैं, परन्तु मूल्यांकन हमारा भी होता है ।
एक दिन गणित के पेपर में, डयूटी मेरी आन लगी थी
समय जैसे ही शुरु हुआ, घण्टी मोबाईल की बोलने लगी थी
मोबाईल को देख सिर मेरा चकराया, क्योंकि फोन था अर्धांगिनी ने लगाया
दहाड़ती हुई शेरनी सी बोली, दूध खत्म हो गया है
जल्दी से घर आ जाओ, मुन्ना भूखा ही सो गया है
काका हाथरसी छंद बद्ध हास्य रचनाओ के सुस्थापित नाम हैं उनकी किताबें काका की फुलझड़ियाँ, काका के प्रहसन, लूटनीति मंथन करि, खिलखिलाहट, काका तरंग,जय बोलो बेईमान की, यार सप्तक, काका के व्यंग्य बाण आदि सभी किताबें मूलतः हास्य से भरपूर रचनायें हैं. प्रायः काका हाथरसी की कुण्डलियां बहुत चर्चित रही हैं.
कभी मस्तिष्क में उठते प्रश्न विचित्र।
पानदान में पान है, इत्रदान में इत्र।।
इत्रदान में इत्र सुनें भाषा विज्ञानी।
चूहों के पिंजड़े को, कहते चूहेदानी।
कह ‘काका’ इनसान रात-भर सोते रहते।
उस परदे को मच्छरदानी क्योकर कहते।।
…….
कुत्ता बैठा कार में, मानव मांगे भीख।
मिस्टर दुर्जन दे रहे, सज्जनमल को सीख।।
सज्जनमल को सीख, दिल्लगी अच्छी खासी।
बगुला के बंगले पर, हंसराज चपरासी।।
हिंदी को प्रोत्साहन दे, किसका बलबुत्ता।
भौंक रहा इंगलिश में, मन्त्री जी का कुत्ता।।
हुल्लड़ मुरादाबादी देश के विभाजन पर पाकिस्तान से विस्थापित होकर मुरादाबाद आये. उनका मूल नाम सुशील कुमार चड्ढा है. उनके लिए हास्य व्यंग्य की यह कला बड़ी सहज है. भाषा ऐसी है कि हिन्दी उर्दू में भेदभाव नहीं, भाव ऐसा है कि हृदय को छू जाए. समय के साथ हुये तकनीकी परिवर्तनो को हास्य रचनाकारो द्वारा बड़ी सहजता से अपनाया गया. हुल्लड़ जी ने किताबें या मंचीय प्रस्तुतियां ही नही एच एम वी के माध्यम से ई पी, एल पी, कैसेट के माध्यम से भी उनकी हास्य रचनायें प्रस्तुत की और देश के सुदूर ग्रामीण अंचलो तक सुने व सराहे गये. हुल्लड़ जी पहले हास्य कवि हैं जिनका (L.P) रेकार्ड एच.एम.वी.कम्पनी ने तैयार किया.
एच.एम.वी.द्वारा रिलीज किए गए हुल्लड़ जी के रिकार्ड हँसी का खजाना, हुल्लड़ का हंगामा, कहकहे आदि फेमस हैं.
स्वयं काका हाथरसी के कैसेट के साथ सुरेन्द्र शर्मा के चार लाइणा कैसेट में भी प्रथम स्वर हुल्लड़ जी का ही है।
श्रोताओं को हँसाते खुद रहते गंभीर
कैसेट इनका बज रहा, वहाँ लग रही भीड़
वहाँ लग रही भीड़, खींचते ऐसे खाके
सम्मेलन हिल जाए, इस कदर लगे ठहाके
हुल्लड़ की एक रचना है
चार बच्चों को बुलाते तो दुआएँ मिलतीं,
साँप को दूध पिलाने की जरूरत क्या थी ?
कविता का मूल उद्देश्य केवल हँसी या मनोरंजन ही नहीं होना चाहिए। यदि श्रोता या पाठक को हँसी के अतिरिक्त कुछ संदेश नहीं मिलता तो वह कविता बेमानी है.
अल्हड़ बीकानेरी भी उनके समकालीन हास्य व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं. छंद, गीत, गजल और ढ़ेरों पैरोडियों के रचयिता अल्हड़ जी ऐसे अनूठे कवि थे, जिन्होंने हास्य को गेय बनाने की परंपरा की भी शुरुआत की. अल्हड़ जी एक ऐसे छंद शिल्पी थे, जिन्हें छंद शास्त्र का व्यापक ज्ञान था। अपनी पुस्तक ‘घाट-घाट घूमे’ में अल्हड़ जी लिखते हैं, ”नई कविता के इस युग में भी छंद का मोह मैं नहीं छोड़ पाया हूं, छंद के बिना कविता की गति, मेरे विचार से ऐसी ही है, जैसे घुंघरुओं के बिना किसी नृत्यांगना का नृत्य….. ” वे अपनी हर कविता को छंद में लिखते थे और कवि सम्मेलनों के मंचों पर उसे गाकर प्रस्तुत करते थे. यही नहीं गज़ल लिखने वाले कवियों और शायरों के लिए उन्होंने गज़ल का पिंगल शास्त्र भी लिखा, जो उनकी पुस्तक ‘ठाठ गज़ल के’ में प्रकाशित हुआ।
अल्हड़ जी की प्रतिभा और लगन का ही करिश्मा था कि सन् 1970 आते-आते वे देश में एक लोकप्रिय हास्य कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। काव्य गुरू श्री गोपाल प्रसाद व्यास जी के मार्गदर्शन में अल्हड़ जी ने अनूठी हास्य कवितायें लिख कर उनकी अपेक्षाओं पर अपने को खरा साबित किया। अल्हड़ जी ने हिन्दी हास्य कविता के क्षेत्र में जो विशिष्ट उपलब्धियां प्राप्त कीं, उनमें ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के सम्पादक श्री मनोहर श्याम जोशी, ‘धर्मयुग’ के सम्पादक श्री धर्मवीर भारती और ‘कादम्बिनी’ के संपादक श्री राजेन्द्र अवस्थी की विशेष भूमिका रही। अल्हड़ जी अपनी हास्य कविताओं में सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों पर तीखा प्रहार किया। अपनी बात को कविता के माध्यम से वे बहुत ही सहज रूप से अभिव्यक्त करते थे। अल्हड़ बीकानेरी ने हास्य- व्यंग्य कवितायें न सिर्फ हिन्दी बल्कि ऊर्दू, हरियाणवी संस्कृत भाषाओं में भी लिखीं और ये रचनायें कवि-सम्मेलनों में अत्यंत लोकप्रिय हुईं। उनके पास कमाल का बिंब विधान था। राजनीतिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में उनकी यह टिप्पणी देखिए :
”उल्लू ने बढ़ के हंस की थामी नकेल है
कुदरत का है कमाल मुकद़्दर का खेल है”
इसी तरह महंगाई पर पौराणिक संदर्भों का सहारा लेकर वे खूबसूरती से अपनी बात कहते हैं:
”बूढ़े विश्वामित्रों की हो सफल तपस्या कैसे
चपल मेनका-सी महंगाई फिरे फुदकती ऐसे
माणिक वर्मा का जन्म मध्यप्रदेश के खंडवा में हुआ था। वे हास्य व्यंग्य की गद्य कविता के लिए जाने जाते हैं।
सब्जी वाला हमें मास्टर समझता है
चाहे जब ताने कसता है
‘आप और खरीदोगे सब्जियां!
अपनी औकात देखी है मियां!
ओम प्रकाश आदित्य की गजल है….
छंद को बिगाड़ो मत, गंध को उजाड़ो मत
कविता-लता के ये सुमन झर जाएंगे।
शब्द को उघाड़ो मत, अर्थ को पछाड़ो मत,
भाषण-सा झाड़ो मत गीत मर जाएंगे।
शैल चतुर्वेदी की अनेक किताबें छपीं. वे अपने डील डौल से ही मंचो पर हास्य का माहौल बना देते हैं. उनकी एक रचना
जिन दिनों हम पढ़ते थे
एक लड़की हमारे कॉलेज में थी
खूबसूरत थी, इसलिए
सबकी नॉलेज में थी
मराठी में मुस्कुराती थी
उर्दू में शर्माती थी
हिन्दी में गाती थी
और दोस्ती के नाम पर
अंग्रेज़ी में अँगूठा दिखाती थी
इसी तरह प्रदीप चौबे की एक रचना
हर तरफ गोलमाल है साहब
आपका क्या खयाल है साहब
लोग मरते रहें तो अच्छा है
अपनी लकड़ी की टाल है साहब
आपसे भी अधिक फले फूले
देश की क्या मजाल है साहब
मुल्क मरता नहीं तो क्या करता
आपकी देखभाल है साहब
रिश्वतें खाके जी रहे हैं लोग
रोटियों का अकाल है साहब
प्रदीप चौबे की यह रचना हिन्दी गजल या हजल के सांचे में है.
हास्य कविता की धार को व्यंग्य से पैना करने वाले, शब्दों के खिलाड़ी अशोक चक्रधर की एक कविता
नदी में डूबते आदमी ने
पुल पर चलते आदमी को
आवाज लगाई- ‘बचाओ!’
पुल पर चलते आदमी ने
रस्सी नीचे गिराई
और कहा- ‘आओ!’
नीचे वाला आदमी
रस्सी पकड़ नहीं पा रहा था
और रह-रह कर चिल्ला रहा था-
‘मैं मरना नहीं चाहता
बड़ी महंगी ये जिंदगी है
कल ही तो एबीसी कंपनी में
मेरी नौकरी लगी है।’
इतना सुनते ही
पुल वाले आदमी ने
रस्सी ऊपर खींच ली
और उसे मरता देख
अपनी आंखें मींच ली
दौड़ता-दौड़ता
एबीसी कंपनी पहुंचा
और हांफते-हांफते बोला-
‘अभी-अभी आपका एक आदमी
डूब के मर गया है
इस तरह वो
आपकी कंपनी में
एक जगह खाली कर गया है
ये मेरी डिग्रियां संभालें
बेरोजगार हूं
उसकी जगह मुझे लगा लें।’
ऑफिसर ने हंसते हुए कहा-
‘भाई, तुमने आने में
तनिक देर कर दी
ये जगह तो हमने
अभी दस मिनिट पहले ही
भर दी
और इस जगह पर हमने
उस आदमी को लगाया है
जो उसे धक्का देकर
तुमसे दस मिनिट पहले
यहां आया है।’
बेरोजगारी पर यह तंज जहाँ हंसाता है वहीं झकझोरता भी है. अशोक चक्रधर की हास्य कवितायें कई फ्रेम में कसी गई हैं, पर अधिकांश मुक्त छंद ही हैं.
पद्मश्री सुरेंद्र शर्मा हिंदी की मंचीय कविता में स्वनाम धन्य हैं, वे हरियाणवी बोली में चार लाईणा सुनाकर और अधिकांशतः अपनी पत्नी को व्यंग्य का माध्यम बनाकर कविता करते हैं.
हमने अपनी पत्नी से कहा-
‘तुलसीदास जी ने कहा है-
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी
-इसका अर्थ समझती हो
या समझाएं?’
पत्नी बोली-
‘इसका अर्थ तो बिल्कुल ही साफ है
इसमें एक जगह मैं हूं
चार जगह आप हैं।’
मण्डला के प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध जी की पहचान मूलतः संस्कृत ग्रंथो के हिन्दी काव्यअनुवाद तथा समसामयिक विषयो पर देश प्रेम की भावना वाली कविताओ को लेकर है, उनकी एक संदेश पूर्ण व्यंग्य कविता है…
हो रहा आचरण का निरंतर पतन,राम जाने कि क्यो राम आते नहीं
हैं जहां भी कहीं हैं दुखी साधुजन देके उनको शरण क्यों बचाते नहीं
मेरे हास्य व्यंग्य सारे देश के अखबारो में संपादकीय पृष्ठ पर छप रहे हैं. व्यंग्य लेखो व व्यंग्य नाटको की मेरी कई किताबें छप चुकी हैं. मेरी व्यंग्य कविता की ये पंक्तियां उद्धृत हैं…
फील गुड
सड़क हो न हो मंजिलें तो हैं फील गुड
अपराधी को सजा मिले न मिले
अदालत है, पोलिस भी है सो फील गुड
उद्घाटन हो पाये न हो पाये
शिलान्यास तो हो रहे हैं लो फील गुड
किसी भी कवि लेखक या व्यंग्यकार की रचनाओ में उसके अनुभवो की अभिव्यक्ति होती ही है. रचनाकार का अनुभव संसार जितना विशद होता है, उसकी रचनाओ में उतनी अधिक विविधता और परिपक्वता देखने को मिलती है. जितने ज्यादा संघर्ष रचनाकार ने जीवन में किये होते हैं उतनी व्यापक करुणा उसकी कविता में परिलक्षित होती है , कहानी और आलेखो में दृश्य वर्णन की वास्तविकता भी रचनाकार की स्वयं या अपने परिवेश के जीवन से तादात्म्य की क्षमता पर निर्भर होते हैं. रोजमर्रा की दिल को चोटिल कर देने वाली घटनायें व्यंग्यकार के तंज को जन्म देती हैं.
आज के एक स्थापित व्यंग्यकार स्व सुशील सिद्धार्थ एक प्राध्यापक के पुत्र थे. अध्ययन में अव्वल. हिन्दी में उन्होने पी एच डी की उपाधि गोल्ड मेडल के साथ अर्जित की. स्वाभाविक था कि विश्वविद्यालय में ही वे शिक्षण कार्य से जुड़ जाते. पर नियति को उन्हें अनुभव के विविध संसार से गुजारना था. सुप्रतिष्ठित नामो के आवरण के अंदर के यथार्थ चेहरो से सुपरिचित करवाकर उनके व्यंग्यकार को मुखर करना था. आज तो अंतरजातीय विवाह बहुत आम हो चुके हैं किन्तु पिछली सदी के अतिम दशक में जब सिद्धार्थ जी युवा थे यह बहुत आसान नही होता था. सुशील जी को विविध अनुभवो से सराबोर लेखक संपादक समीक्षक बनाने में उनके अंतरजातीय प्रेम विवाह का बहुत बड़ा हाथ रहा. इसके चलते उन्होने विवाह के एक ऐसे प्रस्ताव को मना कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें विश्वविद्यालयीन शिक्षण कार्य की नौकरी नही मिल सकी, और वे फ्रीलांसर लेखक बन गये. स्थायित्व के अभाव में वे लखनऊ, मुम्बई, वर्धा, दिल्ली में कई संस्थाओ और कई व्यक्तियो के लिये अखबार, पत्रिकाओ, शिक्षण संस्थाओ, प्रकाशन संस्थानो के लिये लेखन कर्म से जुड़े तरह तरह के कार्य करते रहे. उन्होने व्यंग्यकारो के बचपन के संस्मरण किताब के रूप में सहेजे.
आज पत्रिकाओ की आम पाठक तक पहुंच कम हो गई है, अखबार ही पाठक की साहित्यिक भूख शांत करने की जबाबदारी उठा रहे हैं, दूसरा पक्ष यह भी है कि पत्रिका में व्यंग्य छपने में समय लगता है, तब तक समसामयिक रचना पुरानी हो जाती है, इसके विपरीत अखबार फटाफट रचना प्रकाशित कर देते हैं. प्रकाशन की सुविधायें बढ़ी हैं, परिणामतः शाश्वत रचनाओ के अभाव में भी व्यंग्य लेखो की पुस्तकें लगातार बड़ी संख्या में छप रही हैं. सोशल मीडीया पर व्यंग्यकार फेसबुक, व्हाट्सअप ग्रुप बनाकर जुड़े हुये हैं, जुगलबंदी के जरिये व्यंग्य लेखन को प्रोत्साहन मिल रहा है. अपनी तमाम साहित्यिक, समाज की व्यापारिक सीमाओ के बाद भी व्यंग्य विधा और जागरूक व्यंग्यकार अपने साहित्यिक सामाजिक दायित्व निभाने में जुटे हुये हैं. वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में यह व्यंग्य का सकारात्मक पहलू है.
© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९