हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ शब्द सामर्थ्य ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  शब्दों के सामर्थ्य पर आधारित आलेख  “शब्द सामर्थ्य ”।)

 

☆ शब्द सामर्थ्य ☆

भाषा व्याकरण की दृष्टि से देखा जाये तो ज्ञात होताहै, कि अक्षरों के समूह से शब्द बनते हैं। पहला सार्थक, दूसरा निरर्थक निरर्थक शब्दों का प्रयोग भाषा लिपि की आवश्यकता के अनुसार किया जाता है। वाक्य रचना, तथा काव्य रचना में उद्देश्य की आवश्यकता के अनुसार एकही शब्द अनेक अर्थो में प्रयुक्त होते हैं। नीचे उदाहरण से लेखक के मन्तव्यों को समझें।

दोहा—-

चरण धरत चिंता करत, चितवत चारिउ ओर।
सुबरन  को खोजत  फिरत, कवि, ब्यभिचारी, चोर।।

यहां सुबरन का अर्थ कवि के लिए सुन्दर वर्ण, व्याभिचारी के लिए सुन्दर स्त्री, तथा चोर के अर्थ में सोना है।

अथवा

रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गये न उबरे, मोती मानुष चून।

यहां पानी शब्द का प्रयोग, मोती मानुष चून (पक्षी) के लिए  किया गया है जो अलग अलग परिपेक्ष में है। इस प्रकार परिस्थिति जन्य परिपेक्ष की आवश्यकता अनुसार शब्दों के अर्थ तथा। भाव बदलते ही रहते हैं। शब्द ही साहित्य विधा के लेखन की  प्राण चेतना है।

शब्द ही हृदय के भावों  एवं मन के विचारों का प्रस्तोता (प्रस्तुत ) करने वाला है। साहित्यिक विधा में शब्दों से अलंकारिक भाषा का  सौन्दर्य बोध, रस छंद अलंकार के सुन्दर भावों की उत्पत्ति होती है। शब्दों में ही मंत्रो की शक्ति बसती है। जिनके विधि पूर्वक अनवरत जाप के बड़े चमत्कृत कर देने वाले परिणाम देखे  गये हैं। और निर्धारित उद्देश्यो की सफलता  भी।

शब्दों का प्रभाव सीधे सीधे मन मस्तिष्क तथा हृदय पर होता है। शब्दों से ही दुख के समय संवेदना, सुख के समय प्रसन्नता, तथा आक्रोश के समय में क्रोध प्रकट होताहै। जो हजारों किलोमीटर बैठे। मानव के मन को सुख दुःख पीड़ा का एहसास करा जाता है, इसका अनुभव मुझे आपको तथा सभी को होगा। तथा वे शब्द ही तो है जो सामनेवाले के आचार विचार तथा व्यवहार पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। कहा भी गया है कि गोली के घाव तो भर जाते हैं, बोली के घाव जो शब्दों से मिलते हैं वो जल्दी नहीं भरते।

शब्दों से ही स्तुति गान प्रशस्तिगान है क्योंकि उसमें बहुत जान है। शब्द ही बोलचाल भाषा तथा अभिव्यक्ति के माध्यम के मूलाधार है। वाणी से शब्द प्राकट्य तथा लेखन से उसका स्वरूप बनता है।

तभी तो श्री कबीर साहेब कहते हैं—–

ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।

और इन्हीं भावों के समर्थन में वाणी की महत्ता बताते हुए श्री तुलसी दास जी कह उठते हैं—–

तुलसी मीठे बचन ते, सुख उपजै चंहुओर।
मधुर बचन इक मंत्र है, तजि दे बचन कठोर।।

इस प्रकार मधुर शब्दों से सराबोर वाणी जो मंत्र सा चमत्कारिक प्रभाव छोड़ती है। और सामने वाले को अपने प्रभाव मे ले लेती है।

ऐसे अनुभव आप सभी के पास होंगे जहां कठोर वाणी। अपनो से भी दूर कर देती है, वही मृदु वाणी सबको ही अपना बना लेती है।

शब्दों में समाये भावों का बड़ा ही सकारात्मक अथवा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मेरे अपने विचारों से शब्द ही भाषा ,भाव व वाणी के मूल श्रोत है तो साहित्य सृजन के सौन्दर्य बोध भी।  जहाँ अक्षर शब्दो के जनक है, तो शब्द ही गीत संगीत विधा के माधुर्य भी, जिसके सम्मोहन से आदमी तो क्या जानवर भी नहीं  बचते। ऐसा पौराणिक कथाओं में मिलता है जब कृष्ण की बांसुरी ने सबके मन को मोहा था।

अपनी गरिमा मय प्रभाव एवं स्वभाव से शब्द प्रतिपल मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। शब्दकोश  बढ़ने से ही मानव कवि, लेखक, रचनाकार, पत्रकार बन जाता है। तथा आदर्श अभिव्यक्ति कर भावों का चितेरा बन जाता है।

बिना अक्षरों के ज्ञान के भी शब्द ज्ञान संभव है, तभी तो बिना पढ़े लिखे छोटे बच्चे भी तो अपनी भाषा में बात कर पाते हैं। अक्षर ज्ञान शब्द ज्ञान प्राथमिक पाठशाला के प्रथम कक्षा के छात्रों की नींव की ईंट है। प्रत्येक शब्द में असीम सामर्थ्य है।

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 24 ☆ पुरुष वर्चस्व और नारी ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “पुरुष वर्चस्व और नारी”.  इस महत्वपूर्ण तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने  अपनी बेबाक राय बड़े ही सहज तरीके से रखी है।  यह एक ऐसा विषय है जिसके विभिन्न  पहलुओं पर  किसी भी प्रकार की विवेचना कोई स्त्री ही कर सकती हैऔर इस दायित्व को उन्होंने बड़ी बखूबी निभाया है। इस सशक्त रचना में  धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक, आपराधिक और ऐसा शायद ही कोई  तथ्य छूटा हो जिसकी विवेचना उन्होंने सोदाहरण प्रस्तुत न की हो।  डॉ मुक्त जी की कलम को सदर नमन।  ) . 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 24 ☆

☆ पुरुष वर्चस्व और नारी 

पितृसत्तात्मक युग के पुराने कायदे-कानून आज भी धरोहर की भांति सुरक्षित हैं और उनका प्रचलन बदस्तूर जारी है। हमारे पूर्वजों ने पुरूष को सर्वश्रेष्ठ समझ सारे अधिकार प्रदान किए और नारी के हिस्से में शेष बचे… मात्र कर्त्तव्य, जिन्हें गले में पड़े ढोल की भांति उसे आज तक बजाना पड़ रहा है। उसे घर की चारदीवारी में कैद कर लिया गया कि वह गृहस्थ के सारे दायित्वों का वहन करेगी…यथा प्रजनन से लेकर पूरे परिवारजनों की हर इच्छा, खुशी व मनोरथ को पूर्ण करेगी,उनके इशारों पर कठपुतली की भांति ताउम्र नाचेगी, उनके हर आदेश की सहर्ष अनुपालना करेगी और पति के समक्ष सदैव नतमस्तक रहेगी… जहां उसकी इच्छा का कोई मूल्य नहीं होगा। नारी के लिए निर्मित आदर्श-संहिता में ‘क्यों’ शब्द नदारद है, क्योंकि उसे तो हुक्म बजाना है दासी की तरह और गुलाम की भांति ‘जी हां ‘कहना है। इसके लिए सीता का उदाहरण हमारे समक्ष है। वह पतिव्रता नारी थी, जिसने पति के साथ बनवास झेला और लक्ष्मण-रेखा पार करने पर क्या हुआ उसका अंजाम..सीता-हरण हुआ और आगे की कथा से तो आप परिचित हैं। ज़रा स्मरण कीजिए…शापित अहिल्या का, जिसे पति के श्राप स्वरूप वर्षों तक शिला रूप में स्थित रहना पड़ा, क्योंकि इंद्र ने उसकी अस्मत पर हाथ डाला था। महाभारत की पात्रा द्रौपदी के इस वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ ने बवाल मचा दिया और उस रज:स्वला नारी को केशों से खींच कर भरी सभा में लाया गया, जहां उसका चीर-हरण हुआ। प्रश्न उठता है, किसने दुर्योधन व दु:शासन को दुष्कृत्य करने से रोका, उनकी निंदा की। सब बंधे थे मर्यादा से, समर्पित थे राज्य के प्रति..अंधा केवल धृतराष्ट्र नहीं, राज सभा  में उपस्थित हर शख्स अंधा था। गुरू द्रौण, भीष्म व विदुर जैसे वरिष्ठ-जन, पुत्रवधु की अस्मत लुटते हुए देखते रहे…आखिर क्यों? क्या उनका अपराध क्षम्य था?

आइए! लौट चलते हैं सीता की ओर, जिसे रावण की अशोक-वाटिका में प्रवास झेलना पड़ा और लंका- दहन के पश्चात् अयोध्या लौटने पर, सीता को एक धोबी के कहने पर विश्वामित्र के आश्रम में धोखे से छुड़वाया गया… वहां लव कुश का जन्म होना और अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर, राम से भेंट होना…राम को उसकी संतति सौंप पुन: धरती में समा जाना.. क्या  संदेश देता है मानव समाज को? नारी को कटघरे में खड़ा कर इल्ज़ाम लगाने के पश्चात्, उसे अपना पक्ष रखने का अधिकार न देना क्या न्यायोचित है? यही सब हुआ था, अहिल्या के साथ… गौतम ऋषि ने कहां हक़ीक़त जानने का प्रयास किया? उसे अकारण अपराधिनी समझ शिला बनने का श्राप दे डालना क्या अनुचित नहीं था?  इसमें आश्चर्य क्या है… आज भी यही प्रचलन जारी है। नारी पर इल्ज़ाम लगाकर उसे बेवजह सज़ा दी जाती है, जबकि कोर्ट-कचहरी में भी मुजरिम को अपना पक्ष रखने का अवसर प्रदान किया जाता है। परंतु नारी को जिरह करने का अधि- कार कहां प्रदत है? वह हाड़-मांस की पुतली…जिसे भावहीन व संवेदनविहीन समझा जाता है, फिर उसमें हृदय व मस्तिष्क होने का प्रश्न ही कहां उठता है? वह तो सदियों से दोयम दर्जे की प्राणी स्वीकारी जाती है, जिसे संविधान द्वारा मौलिक अधिकारों की एवज़ में एक ही अधिकार प्राप्त है ‘सहना’ और ‘कुछ नहीं कहना।’  यदि अपना पक्ष रखने का साहस जुटाती है तो उसे ज़लील किया जाता है अर्थात् सबके सम्मुख प्रताड़ित कर कुलटा, कलंकिनी, कुलनाशिनी आदि विशेषणों द्वारा अलंकृत कर, घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है। और उसके साथ ही हमारे समाज में पग-पग पर जाल बिछाए बैठे दरिंदे, उसकी अस्मत लूट किस नरक में धकेल देते हैं… यह सब तो आप जानते हैं। जुर्म के बढ़ते ग्रॉफ़ से तो आप सब परिचित हैं। सो! आप अनुमान लगा सकते हैं कि कितनी शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ता होगा उस मासूम, बेकसूर, निर्दोष महिला को .. कितने ज़ुल्म सहने पड़ते होंगे उसे…कारण दहेज हो या पति के आदेशों की अवहेलना,उसके असीमित दायरों की कारस्तानियों की कल्पना तो आप कर ही सकते हैं।

आइए! चर्चा करते हैं पुरूष-वर्चस्व की…जन्म लेने से पूर्व कन्या-भ्रूण को नष्ट करने के निमित्त ज़ोर- ज़बर्दस्ती करना, जन्म के पश्चात् प्रसव पीड़ा का संज्ञान न लेते हुए पत्नी पर ज़ुल्म करना और दूसरे ही दिन प्रसूता को घर के कामों में झोंक देना या घर से बाहर का रास्ता दिखला देना, दूसरे विवाह के स्वप्न संजोना… सामान्य-सी बात है, घर-घर की कहानी है। बेटे-बेटी में आज भी अंतर समझा जाता है। पुत्र को कुल-दीपक समझ उसके सभी दोष अक्षम्य अपराध स्वीकारे जाते हैं और पुत्री की अवहेलना, पुत्र की उतरन व जूठन पर उसका पालन-पोषण, हर पल मासूम पर दोषारोपण, व्यंग्य-बाणों की बौछार व उसे दूसरे घर जाना है… न जाने किस जन्म का बदला लेने आई है… ऐसे जुमलों का सामना उसे आजीवन करना पड़ता है।

विवाह के पश्चात् पति हर पल उस निरीह पर निशाना  साधता है। वैसे भी हर कसूर के लिए अपराधिनी तो औरत ही कहलाती है, भले ही वह अपराध उसने किया हो, या नहीं…क्योंकि उसे तो विदाई की वेला में समझा दिया जाता है कि अब उसे अपने ससुराल में ही रहना है, कभी अकेले इस चौखट पर पांव नहीं रखना है… आजीवन एकपक्षीय समझौता करना है, बापू के तीन बंदरों के समान आंख, कान, मुंह बंद करके अपना जीवन बसर करना है। इसलिए वह नादान सब ज़ुल्म सहन करती है, कभी कोई शिकवा -शिकायत नहीं करती। अक्सर सभी हादसों का मूल कारण होता है… गैस के खुला रह जाने पर उसका जल जाना, कभी नदी किनारे पांव फिसल जाना, तो कभी बिजली की नंगी तारों को छू जाना, मिट्टी के तेल, पेट्रोल या तेज़ाब से ज़िंदा जलने की यातना से कौन अपरिचित है? प्रश्न उठता है कि यह सब हादसे उनकी पुत्रवधु के साथ ही क्यों होते हैं? उस घर की बेटी इन हादसों का शिकार क्यों नहीं होतीं? यदि वह इन सबके चलते ज़िंदा बच निकलती है, तो ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव पर, पिता के दायित्वों का वहन बखूबी करती है। केवल चेहरा बदल जाता है, क़िरदार नहीं और यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।

आधुनिक युग में नारी को प्राप्त हुए हैं समानाधिकार … उसे स्वतंत्रता प्राप्त तो हुई है और वह मनचाहा भी कर सकती है, अपने ढंग से जी सकती है तथा कोई भी ज़ुल्म व अनहोनी होने पर, उसकी शिकायत कर सकती है। मन में यह प्रश्न कुलबुलाता है … आखिर कहां हैं वे कायदे-कानून, जो महिलाओं के हित में बनाए गए हैं?  शायद! वे फाइलों के नीचे दबे पड़े हैं। कल्पना कीजिए, जब एक मासूम बच्ची के साथ दुष्कर्म होने के पश्चात्, उस के माता-पिता रिपोर्ट दर्ज कराने जाते हैं…तो वहां कैसा व्यवहार होता है उनके साथ…’ जब संभाल नहीं सकते, तो पैदा क्यों करते हो? क्यों छोड़ देते हो उन्हें, किसी का निवाला बनने हित ? शक्ल देखी है इसकी… कौन इसका अपहरण कर, दुष्कर्म करने को ले जायेगा… कितना चाहिए …इससे कमाई करना चाहते हो न… ले जाओ! इस मनहूस को… अपने घर संभाल कर रखो ‘ और न जाने कैसे-कैसे घिनौने प्रश्न पूछे जाते हैं… पहले पुलिस स्टेशन और उसके पश्चात् कचहरी में… यह सब सुनकर वे ठगे-से रह जाते हैं और लंबे समय तक इस सदमे से उबर नहीं पाते।यह सुनकर कलेजा मुंह को आता है… उस मासूम के माता-पिता को बोलने का अवसर कहां दिया जाता है और वे निरीह प्राणी लौट आते हैं … प्रायश्चित भाव के साथ…क्यों उन्होंने वहां का रूख किया। उम्रभर वह मासूम कहां उबर पाती है उस हादसे से।वे दुष्कर्मी, सफेदपोश रात के अंधेरे में अपनी हवस शांत कर, सूर्योदय से पूर्व लौट जाते हैं और दिन के उजाले में पाक़-साफ़ व दूध के धुले कहलाते हैं।

कार्यस्थल पर यौन हिंसा की शिकायत करने वाली महिलाओं को जो कुछ झेलना पड़ता है, कल्पनातीत है। सब उसे हेय दृष्टि से देखते हैं, कुलटा-कुलनाशिनी समझ उसकी निंदा करते हैं… यहां तक कि उसके लिए नौकरी करना भी दुष्कर हो जाता है।15अक्टूबर 2019 के ट्रिब्यून को पढ़कर आप हक़ीक़त से रू-ब -रू हो सकते हैं। तमिलनाडु की महिला पुलिस अधीक्षक द्वारा महानिरीक्षक-स्तरीय अधिकारी पर कार्यस्थल पर उत्पीड़न के आरोपों की जांच को उच्च न्यायालय द्वारा दूसरे राज्य में भेजने का मामला प्रश्नों के घेरे में है, जिनके उत्तर सुप्रीम कोर्ट तलाश रहा है। परंतु इससे क्या होने वाला है? उच्च न्यायालय अपनी अधीनस्थ अदालतों में लंबित किसी मामले या अपील को निष्पक्ष व स्वतंत्र जांच तथा सुनवाई के लिए मुकदमे या प्रकरण अपने अधिकार-क्षेत्र में आने वाले किसी भी अन्य ज़िले में स्थानांतरित कर सकता है। और स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच के लिए उसे तमिलनाडु से तेलंगाना स्थानांतरित कर दिया गया।

अक्सर कार्यस्थल पर यौन हिंसा के मामलों में महिला व उसके परिवार को हानि पहुंचाने की बात कही जाती है। उस पीड़िता पर समझौता करने का दबाव बनाया जाता है और उसे तुरंत कार्यालय से बर्खास्त कर दिया जाता है तथा हर पहलू से उसे बदनाम करने की कोशिश की जाती है। क्या यह पुरूष वर्चस्व नहीं है,जो समाज में कुकुरमुत्तों की भांति अपनी पकड़ बनाता जा रहा है।

आइए! इसके दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात करें … आजकल ‘लिव-इन व मी-टू’ का बोलबाला है। चंद  स्वतंत्र प्रकृति की उछृंखल महिलाएं सब बंधनों को तोड़, विवाह की पावन व्यवस्था को नकार, ‘लिव-इन’   को अपना रही हैं। अक्सर इसका खामियाज़ा भी महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है, जब पुरूष साथी  उसे यह कहकर छोड़ देता है… ‘तुम्हारा क्या भरोसा …जब तुम अपने माता-पिता की नहीं हुई, कल किसी ओर के साथ रहने लगोगी ? ‘इल्ज़ाम फिर उसी महिला के सर’…वैसे भी चंद महीनों बाद महिला को दिन में तारे दिखाई देने लगते हैं और वह धरती पर लौट आती है। कोर्ट का ‘लिव-इन’ के साथ, पुरुष को पर-स्त्री के साथ, संबंध बनाने की स्वतंत्रता ने हंसते- खेलते परिवारों की खुशियों में सेंध लगा दी है। इसके साथ ही ‘मी-टू’ अर्थात् पच्चीस वर्ष में अपने साथ घटित किसी हादसे को उजागर कर, पुरूष को सीखचों के पीछे पहुंचाने का औचित्य समझ से बाहर है। इसके परिणाम-स्वरूप हंसते-खेलते परिवार उजड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, महिलाओं की  साख पर भी तो आंच आती है, परंतु वे ऐसा सोचती कब हैं… कि इसका अंजाम उन्हें भविष्य में अवश्य भुगतना पड़ेगा। परंतु पुरूष महिला पर पूर्ण अधिकार चाहता है… उसका अहं फुंकारने पर, वह उसे घर-परिवार व ज़िन्दगी से बेदखल करने में तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करता। अंततः मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि वह पहले भी गुलाम थी और सदा रहेगी।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 3 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 3 – हिन्द स्वराज से  ☆ 

 

प्रश्न :- अब तो मुसलामानों,पारसियों, ईसाईयों की हिन्दुस्तान में बड़ी संख्या है। वे एक राष्ट्र नहीं हो सकते। कहा जाता है कि हिन्दू-मुसलमानों में कट्टर वैर है। हमारी कहावते भी ऐसी हैं । ‘मियां और महादेव की नहीं बनेगी’। हिन्दू पूर्व में ईश्वर को पूजता है तो मुस्लिम पश्चिम में पूजता है।  मुसलमान हिन्दू को बुतपरस्त – मूर्तिपूजक- मानकर उससे नफरत करता है। हिन्दू मूर्तिपूजक है, मुसलमान मूर्ति को तोडनेवाला है। हिन्दू गाय को पूजता है, मुसलमान उसे मारता है। हिन्दू अहिंसक है मुसलमान हिंसक है। यो पग-पगपर जो विरोध है, वह कैसे मिटे और हिन्दुस्तान एक कैसे हो?

उत्तर :- हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी लिखते हैं : “आपका आखरी सवाल बड़ा गंभीर मालुम होता है। लेकिन सोचने पर वह सरल मालुम होगा।  हिन्दुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं; उससे वह एक राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। जो नए लोग उसमे दाखिल होते हैं वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुल मिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक-राष्ट्र माना जायेगा। ऐसे मुल्क में दूसरे लोगो का समावेश करने का गुण होना चाहिए। हिन्दुस्तान ऐसा था और आज भी है। यों तो जितने आदमी उतने धर्म मान सकते हैं। एक राष्ट्र होकर रहने वाले लोग एक दुसरे के धर्म में दखल नहीं देते; अगर देते हैं तो समझना चाहिए कि वे एक राष्ट्र होने के लायक नहीं हैं। अगर हिन्दू माने कि सारा हिन्दुस्तान सिर्फ हिन्दुओं से भरा होना चाहिए, तो यह निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा माने कि उसमे सिर्फ मुसलमान रहें, तो उसे भी सपना ही समझिये। फिर भी हिन्दू, मुसलामान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक मुल्की हैं; वे देशी-भाई हैं; और उन्हें  एक दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पडेगा।“

“दुनिया के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं किया गया है; हिन्दुस्तान तो ऐसा था ही नहीं।“

दोनों कौमों के कट्टर वैर पर महात्मा गांधी कहते हैं कि; ”कट्टर वैर दोनों के दुश्मन ने खोज निकाला है। जब हिन्दू मुसलमान झगड़ते थे तब वे ऐसी बातें भी करते थे। झगडा तो हमारा कब का बंद हो गया है। फिर कट्टर वैर काहे का? और इतना याद रखिये कि अंग्रेजों के आने के बाद ही हमारा झगडा बंद हुआ ऐसा नहीं है। हिन्दू लोग मुसलमान बादशाहों के मातहत और मुसलमान हिन्दू राजाओं के मातहत रहते आयें हैं। दोनों को बाद में समझ में आ गया कि झगड़ने से कोई फ़ायदा नहीं; लड़ाई से कोई अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे और कोई अपनी जिद भी नहीं छोड़ेंगे। इसलिए दोनों ने मिलकर रहने का फैसला किया। झगडे तो फिर अंग्रेजों ने शुरू करवाए।“

“मियां और महादेव की नहीं बनती इस कहावत का भी ऐसा ही समझिये। कुछ कहावतें हमेशा के लिए रह जाती हैं और नुकसान करती ही रहती हैं। हम कहावतों की धुन में इतना भी याद नहीं रखते कि बहुतेरे हिन्दुओं और मुसलामानों के बाप-दादे एक ही थे, हमारे अन्दर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए? धर्म तो एक ही जगह पहुचने के अलग-अलग रास्ते हैं। हम दोनों अलग-अलग रास्ते लें, इससे क्या हो गया उसमे लड़ाई काहे की” ?

“और ऐसी कहावते तो शैव और वैष्णवों में भी चलती हैं; पर इससे कोई यह नहीं कहेगा कि वे एक राष्ट्र नहीं है। वेद्धर्मियों और जैनों के बीच बहुत फर्क माना जाता है; फिर भी इससे वे अलग राष्ट्र नहीं बन जाते। हम गुलाम हो गए इसलिए अपने झगड़े हम तीसरे के पास ले जाते हैं।“

“जैसे मुसलमान मूर्ति का खंडन करने वाले हैं, वैसे हिन्दुओं में भी मूर्ति का खंडन करने वाला एक वर्ग देखने में आता है। ज्यों-ज्यों सही ज्ञान बढेगा त्यों-त्यों हम समझते जायेंगे कि हमें पसंद न आने वाला धर्म दूसरा आदमी पालता हो, तो भी उससे वैर भाव रखना हमारे लिए ठीक नहीं; हम उस पर जबरदस्ती न करें।”

टिप्पणी : मैं इतना योग्य नहीं हूँ कि बापू के इस कथन पर कुछ कहूं। शुरुआत का वह हिस्सा जिसमे बापू हिन्दू मुसलमान की इस फसाद का दोष रेल वकील और डाक्टर को देते हैं। इसे मैंने नहीं लिखा और न इसे मैं समझ पाया हूँ। मैं नहीं मानता कि रेलगाड़ी आने से हिन्दू मुस्लिम के बीच या इंसान इंसान के बीच खाई पैदा हुई, वरन आवागमन के साधनों ने तो मेलजोल बढाने में मदद की है। कोई गांधी दर्शन का ज्ञानी इस पर अपने विचार विश्लेषण के साथ रखे, तो हमें बापू की यह बात समझने में मदद मिलेगी। महात्मा गांधी कई महत्वपूर्ण बातें हमें बताते हैं, कुछ तो मैंने रेखांकित की हैं। महात्माजी जो बातें ११० वर्ष पहले कह गए हैं और वही बातें हम आज भी हिन्दू संगठनों के नेतृत्व से भी सुनते हैं, दोनों में अंतर नहीं है। प्रश्न यह है कि फिर गांधीजी की बात मुसलमान क्यों मानते हैं उसका प्रतिवाद वे क्यों नहीं करते जबकि हिन्दू संगठनों की यही बाते उन्हें इतनी बुरी लगती हैं कि आज भे टीव्ही डिबेट के दौरान मरने मारने की बातें होने लगती हैं। ऐसा क्यों होता है कि सड़क पर कुछ लोग किसी धर्म विशेष के व्यक्ति को घेर लेते हैं और फिर दोनों पक्षों में फसाद शुरू हो जाता है। क्यों महात्मा गांधी नोआखाली में कोलकाता में शान्ति स्थापित करने में सफल हो जाते हैं और उधर पश्चिमी भारत में पुलिस की पर्याप्त व्यवस्था भी हिन्दू-मुसलमानों का कत्ले आम नहीं रोक पाती। यह बड़े प्रश्न हैं और इसका उत्तर यही है कि गांधीजी के हावभाव (body language)  सरल व सामान्य थे, वे धमकी की भाषा के जगह प्रेम की वाणी बोलते थे, उन्होंने लोगों का दिल जीता जहाँ कहीं लगा ह्रदय परिवर्तन का मार्ग अपनाया और कभी किसी पर जबरदस्ती नहीं की, अपनी बात थोपने का प्रयास नहीं किया। लोगों को उन्होंने समझाने का प्रयास किया, लोग अगर सत्य को समझ गए और मान गए तो ठीक अन्यथा उन्होंने सत्याग्रह का मार्ग अपनाया, अनशन कर लोगों से सत्य को स्वीकार करने प्रेरित किया। हमेशा वे सफल हुए ऐसा भी नहीं है पर असफलताएँ उन्हें उनके मार्ग से डिगा नहीं सकी।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सृजन और धन्यवाद ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  सृजन और धन्यवाद

 

सृजन तुम्हारा नहीं होता। दूसरे का सृजन परोसते हो। किसीका रचा फॉरवर्ड करते हो और फिर अपने लिए ‘लाइक्स’ की प्रतीक्षा करते हो। सुबह, दोपहर, शाम, अनवरत प्रतीक्षा ‘लाइक्स’ की।

सुबह, दोपहर, शाम अनवरत, आजीवन तुम्हारे लिए विविध प्रकार का भोजन, कई तरह के व्यंजन बनाती हैं माँ, बहन या पत्नी। सृजन भी उनका, परिश्रम भी उनका। कभी ‘लाइक’ देते हो उन्हें, कहते हो कभी धन्यवाद?

जैसे तुम्हें ‘लाइक’ अच्छा लगता है, उन्हें भी अच्छा लगता है।

….याद रहेगा न?

आपका दिन सार्थक बीते।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(भोर 5.09 बजे, 4.8.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभिभावक और अध्यापक ☆ डॉ सलिल समधिया

डॉ सलिल समधिया

( ई- अभिव्यक्ति में युवा विचारक एवं योगाचार्य डॉ सलिल समधिया जी का हार्दिक स्वागत है। संयोगवश डॉ सलिल जी के फेसबुक पेज पर आलेख “अभिभावक और अध्यापक” पढ़कर  स्तब्ध रह गया। डॉ सलिल जी ने  सहर्ष ई – अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ अपने इस आलेख को साझा करने  के आग्रह को स्वीकार कर लिया । इसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। यह आलेख मात्र अभिभावकों और अध्यापकों के लिए ही नहीं अपितु, उस प्रत्येक  मनुष्य के लिए है जो जीवन में अपने बच्चों के प्रति कई स्तर पर कई प्रकार के भ्रम पाल कर जी रहे हैं। एक बार पुनः डॉ सलिल जी का आभार एवं भविष्य में उनसे ऐसे ही और आलेखों की अपेक्षा रहेगी।)

 

☆ अभिभावक और अध्यापक ☆

 

“हमारे स्कूल में आईए और बच्चों को एक मोटिवेशनल लेक्चर दीजिए !”

बहुत से टीचर्स/प्रिंसिपल अक्सर ये आमंत्रण देते हैं !

मैं उनसे कहता हूँ कि बात करने की ज़रूरत बच्चों से नही, बल्कि अभिभावकों से  है !

और वो ये कि- बच्चों को लेक्चर देना बंद कीजिए !

आपके लेक्चर, आदेश और कमांड की ओवरडोज से बीमार हुए जा रहे हैं बच्चे !!

आपके ..उपदेशों का अतिरेक मितली पैदा कर रहा है उनमें  !

यह अति उपदेश,  विष बन कर  उनकी चेतना को निस्पंद किए दे रहा है !!

हर शिक्षक बच्चे को ज्ञान बांट रहा है !

प्रत्येक रिलेटिव, माता-पिता,  परिचित,  मित्र ..जिसे देखो ..बच्चों को प्रवचन सुना  रहा है !

..वो तॊ अच्छा है कि बच्चे हमें ध्यान से सुनते  नही, और हमारे कहे  को अनसुना  कर देते  है !

वर्ना अगर वह हमारे  हर उपदेश पर विचार करने लगें, तॊ गंभीर मस्तिष्क रोग से पीड़ित हो सकते हैं !

हम  जानते ही क्या हैं, जो बच्चे को बता रहे हैं ??

ज़्यादातर पिता और शिक्षक बच्चों के सामने सख़्ती से पेश आते हैं !

उन्हें डर होता है कि कहीं बच्चा मुँह न लग जाए !

अपना नकली रूआब क़ायम रखने की वज़ह से वे ,  ज़िंदगी भर उन बच्चों के मित्र नही बन पाते !

वे सदैव एक उपदेशक और गुरु की तरह पेश आते हैं !

अच्छे-बुरे की स्ट्रॉन्ग कमांड, ब्लैक एंड व्हाईट की तरह उसके अवचेतन में ठूंस देते हैं !

यही कारण है कि थोड़ा बड़ा होने पर बच्चा ..अगर शराब पीता है ..तॊ उन्हें नही बताता !

वह सिगरेट पी ले,  या किसी लड़की के प्रेम में पड़ जाए ..या अन्य किसी नए अनुभव से गुज़रा हो तॊ उनसे शेयर नही करता  !

इस तरह बच्चे में एक दोहरा व्यक्तिव पैदा होता है !

हम इतना भय और दिखावा उसमें कूट-कूट कर भर देते हैं कि वयस्क होते-होते बच्चा अपना  स्वतंत्र व्यक्तित्व खो बैठता है !

उसका  कैरियर तॊ बन जाता है मगर  व्यक्तित्व नही बन पाता !

हम सिर्फ उसके  शरीर और सामाजिक व्यवहार को पोषित करते  हैं , लेकिन आत्मिक स्तर पर उसके स्वतंत्र विकास की सारी संभावनाओं को मसल कर  ख़त्म कर देते हैं !

दरअसल, हम सब असुरक्षित और डरे हुए लोग हैं !

हम उनके बाल मन पर अपनी मान्यताओं, परंपराओं और नियम क़ानून का ऐसा पक्का लेप लगा देते हैं कि बच्चे की सारी मौलिकता ही ख़त्म हो जाती है !

और वो जीवनभर अपनी आत्मा का मूल स्वर नही पकड़ पाता !!

हम निपट स्वार्थी मां-बाप , अपने बच्चों को अपने आहत अहं , अतृप्त कामनाओं और अधूरी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का माध्यम बना लेते हैं !

और अंततः हमारा बच्चा एक आत्महीन किंतु मार्कशीट और डिग्रियों से सुसज्जित प्रोडक्ट बन जाता है ..जिसे सरकारी/प्राईवेट  संस्थान ऊंची से ऊंची क़ीमत पर खरीद लेते हैं !!

नही , डरें नही !!

बच्चे को इतना बांधकर न रखें !

उसका अपना अलग जीवन है, उसे अपने अनुभव लेने दें !

उसे अपने जीवन की एक्सटेंशन कॉर्ड नही बनाएं !

उसे ,  उसकी निजता में खिलने दें !

उसे तेज धूप, आंधी, बारिश, सूखा …हर मौसम की मार से जूझने दें !

वर्ना उसका दाना पिलपिला और पोचा रह जाएगा !

उसमें प्रखरता और ओज का आविर्भाव नही होगा !

बच्चे को बुढ़ापे की लाठी ना समझें  !

बुढ़ापे की लाठी अगर बनाना है तॊ  “बोध” और  “जागरण” को बनाएं !

क्योंकि पुत्र वाली लाठी तॊ आपसे पहले भी टूट सकती है !

और आप भी बूढ़े हुए बिना विदा हो सकते हैं !

इसलिए अपने बुढ़ापे की फ़िक्र न करें ,

अपने जागरण की फ़िक्र करें !!

अपने बच्चे पर बोझ न डालें बल्कि अपने “बोध” पर ज़ोर डालें !

बच्चे को समझाईश देने से पहले अपनी ‘अकड़’ और  ‘पकड़’ को समझाइश दें !

सिर्फ बच्चा पैदा करने से आप ‘अभिभावक’ नही हो जाते ….और सिर्फ पढ़ाने से आप ‘अध्यापक’ नही हो जाते !

आपका निर्माण ही बच्चे का निर्माण है ..और आपका निदिध्यासन ही बच्चे का अध्यापन है !

समझाइश की ज़रूरत बच्चों को नही, अभिभावकों को है !

 

© डॉ सलिल समधिया

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #23 – तोड़ फोड़ राष्ट्रीय अपव्यय ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “तोड़ फोड़ राष्ट्रीय अपव्यय”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 23 ☆

 

☆ तोड़ फोड़ राष्ट्रीय अपव्यय 

 

जब तब देखने में आता है कि कथित रूप से निकयम विरुद्ध बना कोई बड़ा व्यापारिक माल, तो कही कोई भव्य बहुमंजिला ईमारत ढ़हा कर सरकार बेहद खुश होती है, सरकारी कर्मचारी जो कुछ समय पहले तक ऐसे निर्माण करने की अनुमति देने के लिये बिल्डरों से गठजोड़ करके काला धन बटोर रहे थे, ऐसी सम्पत्तियो को नियम विरुद्ध होने से बचाने के लिये चिन्हित न करने के एवज में मोटी रकम बटोरते हैं.

लोगों की गाढ़ी कमाई, उनकी आजीविका, अनुमति देने वाली एजेंसियो, प्रापर्टी सही है या नही इसकी सचाई की जानकारी के बिना, मोटी फीस वसूल कर वास्तविक कीमत से कम कीमत की रजिस्ट्री करने वाले  रजिस्ट्रार कार्यालय के अमले, बिना किसी जिम्मेदारी के सर्च रिपोर्ट बनवाकर फाइनेंस करने वाले बैंको की कार्य प्रणाली, और व्यक्तिगत रंजिश के चलते, राजनैतिक प्रभाव का उपयोग कर आहें बटोरने वाले मंत्रियो पर काफी कुछ लिखा जाता रहा है. नियम विरुद्ध बताकर तोड़ फोड़, न्यायालयों के स्टे, फिर कथित कड़े निर्णयो और सरकार की  अचानक कार्यवाही के पक्ष विपक्ष में बहुत कुछ लिखा जाता रहा है. जिनका व्यक्तिगत कुछ बिगड़ता नही, वे ऐसी तोड़ फोड़ से प्रसन्न होते है, व ऐसे कदमो को सरकार का सही कदम बताने से नही चूकते. निरीह आम जनता को उजाड़ने में सरकारी अमले को पैशाचिक सुख  मिलता है.

मै एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत के “रामभरोसे ” जी रहे आम नागरिक होने के नाते इस समूचे घटनाक्रम को एक दूसरे दृष्टिकोण से देखना चाहती हूँ. एक आम आदमी जिसे मकान लेना है उसके पास खरीदी जा रही प्रापर्टी की कानूनी वैद्यता जानने के लिये बिल्डर द्वारा दिखाये जा रहे सरकारी विभागों से  पास नक्शे एवं बाजू में किसी अन्य के द्वारा खरीदे गये वैसे ही मकान की रजिस्ट्री,बैंक की सर्च रिपोर्ट  तथा बिल्डर के निर्माण की गुणवत्ता के सिवाये और क्या होता है ? इस सबके बाद जब वह मकान खरीद कर दसो वर्षों से निश्चिंत वहां रह रहा होता है, नगर निगम उससे प्रसन्नता पूर्वक सालाना टेक्स वसूल रही होती है, टैक्स जमा करने में किंचित विलंब पर पैनाल्टी भी लगा रही होती है, उसे बिजली, पानी के कनेक्शन आदि जैसी प्राथमिक नागरिक सुविधायें मिल रही होती हैं तब अचानक एक सुबह कोई पटवारी उसके घर को अवैध  निर्माण चिंहित कर दे, इतना ही नही सरकार अपनी वाहवाही और रुतबा बनाने के लिये उसे वह दुकान या मकान खाली करने के लिये एक घंटे की मोहलत तक न दे तो इसे क्या कहा जाना चाहिये ? क्या इतने पर भी यह मानना चाहिये कि हम लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं ?

अवैध निर्माण को प्रोत्साहित भी सरकारो ने ही किया, कभी राजनैतिक संरक्षण देकर तो कभी पट्टे बांटकर, किसी के साथ कुछ तो कभी किसी और के साथ कुछ अन्य नीति आखिर क्या बताती है ? अक्सर देखा जाता है कि अमुक शहर  में अतिक्रमण विरोधी कार्यवाही में हजारो गरीबों के झोपड़े उजाड़ दिये गये, इस कार्यवाही में कुछ लोगो की मौत भी हो जाती है. क्या यह सही नही है कि ये अतिक्रमण करवाते समय नेताजी ने, तहसीलदार जी ने और लोकल गुंडो ने इन गरीबों का भरपूर दोहन किया था ?

जो लोग इस आनन फानन में की गई तोड़फोड़ की प्रशंसा करते हैं मैं उन्हें बताना चाहती हूं कि मेरे घर में एक चिड़िया ने एक फोटो फ्रेम के पीछे घोंसला बना लिया था, मैं छोटी था, घोंसले के तिनके चिड़िया की आवाजाही से गिरते थे, उस कचरे से बचने के लिये जब मैने वह घोसला हटाना चाहा तो उस घोंसले तक को हटाने के लिये, चिड़िया के बच्चो को बड़ा होकर उड़ जाने तक का समय देने की हिदायत मेरे पिताजी ने मुझे दी थी. संवेदनशीलता के इस स्तर पर जी रहे मुझ जैसो को सरकार की इस कार्यवाही की आलोचना का नैतिक आधिकार है ना ? चिड़िया के घोसले से फैल रहे कचरे से तो हमारा घर सीधे तौर पर प्रभावित हो रहा था, पर मेरा प्रश्न है कि किसी माल या इस जैसी अन्य तोड़ फोड़ से खाली जमीन का सरकार ने उससे बेहतर क्या उपयोग करके दिखाया  है ? पर्यावरण की रक्षा में बड़े बड़े कानून बनाने वाले क्या मुझे यह बतायेंगे कि तोड़े गये निर्माण में लगा श्रम, सीमेंट, लोहा, अन्य निर्माण सामग्री नेशनल वेस्ट नही है ? उस सीमेंट, कांच व अन्य सामग्री के निर्माण से हुये प्रदूषण के एवज में समाज को क्या मिला ? इस क्रिमिनल वेस्ट का जबाबदार आखिर कौन है ? इगोइस्ट मंत्री जी ? नाम कमाने की इच्छा से प्रेरित आई ए एस अधिकारी ? क्या ऐसी कार्यवाहियो की अनुमति देने के लिये एक डिप्टी कलेक्टर स्तर के अधिकारी के हस्ताक्षर पर्याप्त हैं ? यह सब चिंतन और मनन के मुद्दे हैं.

मैं नही कहती कि अवैध निर्माण को प्रोत्साहन दिया जावे. सरकार ने यदि उन लोगो पर कड़ी कार्यवाही की होती, जिन्होने ऐसे निर्माणो की अनुमति दी थी तो भी भविष्य में ऐसे निर्माण रुक सकते थे. रजिस्ट्रार कार्यालय बहुत बड़े बड़े विज्ञापन छापता है जिनमें सम्पत्ति के मालिकाना हक के लिये वैध रजिस्ट्री होना जरूरी बताया जाता है, रजिस्ट्री से प्राप्त फीस सरकारी राजस्व का बहुत बड़ा अंश होता है, तो क्या इस विभाग को इतना सक्षम बनाना जरूरी नही है कि गलत संपत्तियो की रजिस्ट्री न हो सके, और यदि एक बार रजिस्ट्री हो जावे तो उसे कानूनी वैधता हासिल हो. आखिर हम सरकार क्यो चुनते हैं, सरकार से सुरक्षा पाने के लिये या हमारे ही घरो को तोड़ने के लिये ?

मैं न तो कोई कानूनविद् हूं और न ही किसी राजनैतिक पार्टी की प्रतिनिधि. मैं नैसर्गिक न्याय के लिये इनोसेंट नागरिको की ओर से पूरी जबाबदारी से लिखना चाहती हूं कि यदि किसी माल एवं उस जैसी अन्य तोड़फोड़ की जगह उससे बेहतर कोई प्रोजेक्ट सरकार जनता के सामने नही ला पाती है तो यह तोड़फोड़ शर्मनाक है. क्रिमिनल वेस्ट है. यदि देश की सर्वोत्तम कालोनियो में इस तरह की कार्यवाही हो सकती है तो भला कौन इंटरप्रेनर प्रदेश में निवेश करने आयेगा ? यह कार्यवाही निवेशको को प्रदेश में बुलाने के लुभावने सरकारी वादो के नितांत विपरीत है. आम आदमी से धोखा है, इसका जो खामियाजा सरकार अगले चुनावो में भुगतती वह तो बाद की बात है, पर आज कानून क्या कर रहा है ? क्या हम इतने नपुंसक समाज के निवासी है कि एक मंत्री अपने व्यक्तिगत वैमनस्य के लिये आम लोगो को घंटे भर में उजाड़ सकता है, और सब मूक दर्शक बने रहेंगे ? क्या इन असहाय लोगो के साथ अन्याय होता रहने दिया जावे क्योकि वे संख्या में कम हैं, मजबूर हैं और व्यवस्था न होने के चलते अज्ञानता से वे इन मकानो के मालिक हैं. ऐसे इंनोसेंट लोगो पर कार्यवाही करके सरकार कौन सी मर्दानगी दिखा रही है, और क्या इससे यह प्रमाणित नही होता है कि यह सब दुर्भावना पूर्ण है, जब बिल्डर से सौदा नही बना तो तोड़फोड़ शुरू, अधिकारो के ऐसे दुष्प्रयोग जनतांत्रिक देश में असहनीय हैं. एक ओर आतंकवादियो और नक्सलवादियो तक को क्षमा दी जा रही है तो दूसरी ओर लोगो को बिना वजह बेघर  किया जा रहा है, क्योकि बिल्डर की गलती थी. बेहतर हो कि कानूनी कार्यवाही व सजा बिल्डर और निर्माण की अनुमति देने वाले अधिकारियो पर की जावे. बिल्डर पर बड़ा आर्थिक दण्ड लगाकर सरकारी खजाना भरा जावे.

दुष्यंत कुमार की पंक्तियां हैं

लोग जिंदगी लगा देते हैं एक घर बसाने में

उन्हें पल भर भी नही लगता बस्तियां जलाने में

यद्यपि इन पंक्तियो का संदर्भ भिन्न है, पर फिर भी यह ऐसी सरकारी नादिरशाही की दृष्टि से प्रासंगिक ही हैं. व्यापक लोकहित तथा राष्ट्र हित में उदारता से विचार कर लोगो को बेघर न करें, बिल्डर पर जो भी पेनाल्टी लगानी हो वह लगाकर यदि कोई अच्छा निर्माण कतिपय रूप से अवैधानिक भी है तो उसका नियमतीकरण करने की जरूरत है. हर तरह की तोड़ फोड़ राष्ट्रीय अपव्यय है, जिसका परोक्ष प्रभाव आम आदमी की जेब पर जरूर पड़ता है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 23 ☆ तारीफ़ सुनना : मानसिक प्रदूषण ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “तारीफ़ सुनना : मानसिक प्रदूषण ”इस महत्वपूर्ण  एवं सकारात्मक तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है। ) . 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 23 ☆

 

☆ तारीफ़ सुनना : मानसिक प्रदूषण 

 

खुश होना है, तो तारीफ़ सुनिए। और बेहतर होना है तो निंदा। क्योंकि लोग आपस में नहीं,आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं…यह जीवन का कटु सत्य है। मानव का स्वभाव है…अपनी तारीफ़ सुनकर प्रसन्न रहना। यदि प्रशंसा को मीठा ज़हर कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह क्षणिक सुख व आनंद तो प्रदान करता है और अंततः हमें गहन अंधकार रूपी सागर में छोड़ तमाशा देखता है। ऐसे चाटुकार लोगों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए क्योंकि वे कभी आपके मित्र नहीं हो सकते, न ही वे आपकी उन्नति देख कर, प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। वे मुखौटाधारी मुंह देखकर तिलक करते हैं। वास्तव में वे आस्तीन के सांप, आपके सम्मुख तो आपकी प्रशंसा के पुल बांधते हैं तथा आपके पीछे भरपूर निंदा कर सुक़ून पाते हैं। आश्चर्य होता है, यह देख कर कि वे कितनी आसानी से दूसरों को मूर्ख बना लेते हैं। ऐसे लोग निंदा रस में अवगाहन कर फूले नहीं समाते, क्योंकि उन्हें भ्रम होता है अपनी विद्वत्ता, योग्यता व कार्य- क्षमता पर…परंतु वे उस स्थिति में भूल जाते हैं कि अन्य लोग आपके गुण-दोषों से वाक़िफ हैं…आपको बखूबी समझते हैं।

सो! मानव को सदैव ऐसे लोगों से दूरी बना कर रखनी चाहिए। वे घातक होते हैं, आपकी उन्नति रूपी सीढ़ी को किसी पल भी खींचने का उपक्रम कर सकते हैं, अर्श से फर्श पर लाकर पटक सकते हैं, आप के पथ में अवरोधक उत्पन्न कर सकते हैं, जिसे देख कर आपका हृदय विचलित हो उठता है। इसके फल- स्वरूप आपका ध्यान इन शोहदों की कारस्तानियों की ओर स्वतः केंद्रित हो जाता है। इस मन:स्थिति में आप अपना आपा खो बैठते हैं और उन्हें सबक सिखलाने के निमित्त निम्नतर स्तर पर उतर आते हैं तथा दांवपेंच लड़ाने में इतने मशग़ूल हो जाते हैं कि आपमें लक्ष्य के प्रति उदासीनता घर कर लेती है। सो! आप प्रतिपक्ष को नीचा दिखलाने के उपाय खोजने में मग्न हो जाते हैं। परंतु सफलता प्राप्त होने के पर मिलने वाली यह खुशी अस्थायी होती है और उसके परिणाम भयंकर।

‘निंदा सुनना बेहतर क्यों व कैसे होता है’…मननीय है, विचारणीय है।वास्तव में निंदक स्वार्थी न होकर परहितकारी होता है। वह नि:स्वार्थ भाव से आपके दोषों का दिग्दर्शन कराता है, आपको गलत राह पर चलने के प्रति आग़ाह करता है। वह स्वयं से अधिक आपके हित के बारे में सोचता है,चिंतन करता है। सचमुच महान् हैं वे व्यक्ति,जो संतजनों की भांति प्राणी-मात्र को सत्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। वे अपना सारा ज्ञान व दर्शन परार्थ उंडेल देते हैं।शायद इसीलिए कबीर दास जी ने निंदक के स्वभाव से प्रेरित होकर अपने निकट उसकी कुटिया बना कर रहने का सुझाव दिया है। धन्य हैं, वे महापुरुष जो उम्र भर कष्ट सहन कर दूसरों का जीवन आलोकित करते हैं। परिणामत: निंदा सुनना, प्रशंसा सुनने से बेहतर है, जिसके परिणाम शुभ हैं, मंगलमय हैं।

‘लोग आपसे नहीं, आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं’…यह कटु सत्य है,जिससे अक्सर लोग अवगत नहीं होते।मानव निपट स्वार्थी है,जिसके कारण वह प्रतिपक्षी को अधिकाधिक हानि पहुंचाने में भी संकोच नहीं करता, बल्कि सुख व आनंद प्राप्त करता है। परंतु मूर्ख इंसान उन उपलब्धियों को कृपा-प्रसाद समझ फूला नहीं समाता..सबसे बड़ा हितैषी मानता है।वह इस तथ्य से अवगत नहीं होता, कि लोग आप की स्थिति, पद व ओहदे को महत्व देते हैं, सलाम करते हैं, सम्मान करते हैं। वे भूल जाते हैं कि पद-प्रतिष्ठा, ओहदा, मान-सम्मान आदि तो रिवोल्विंग चेयर  की भांति हैं, जो उसके रुख बदलते ही पेंतरा बदल लेते हैं।’ नज़र हटी, दुर्घटना घटी’ अर्थात् पदमुक्त होते ही उनका वास्तविक रूप उजागर हो जाता है।वे अब दूर से नज़रें फेर लेते हैं,जैसे वे पहचानते ही नहीं। शायद वे विश्व की सबसे शानदार प्रजाति के वाशिंदे होते हैं, जो व्यर्थ में किसी को दाना नहीं डालते, न ही किसी से संपर्क रखते हैं। बदलते परिवेश में वे उसके लिए पल भर भी नष्ट करना पसंद नहीं करते।

सो! ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखने में ही सबका मंगल है, क्योंकि वे किसी के हितैषी हो ही नहीं सकते।प्रश्न  उठता है कि ऐसे लोगों के चंगुल से कैसे बचा जाए? सो!हमें स्वयं को आत्मकेंद्रित करना होगा। जब हम स्व में केंद्रित हो जाते हैं,तो हम किसी का चिंतन नहीं करते। उस स्थिति में हमारा सरोकार केवल उस ब्रह्म से रह जाता है,जो सृष्टि-नियंता है,अनश्वर है,निराकार है, निर्विकार है, प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है… स्व-पर,राग-द्वेष व मान-सम्मान से बहुत ऊपर है, जिसे पाने के लिए मानव को अपने अंतर्मन में झांकने की आवश्यकता है।जब मानव स्व में स्थित हो जाता है, उसे किसी दूसरे के साथ-सहयोग की दरक़ार नहीं रहती, न ही उसे किसी से कोई अपेक्षा रहती है। अंत में वह उस स्थिति में पहुंच जाता है… जहां किसी को देखने की तमन्ना ही कहां महसूस होती है?’ नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहि लेहुं। न हौं देखौं और को,न तुझ देखन देहुं।’ कबीर दास जी आत्मा-परमात्मा के तादात्म्य की स्थिति को सर्वोत्तम मानते हैं, जहां पहुंच कर सब तमन्नाओं व क्षुद्र वासनाओं का स्वत: अंत हो जाता है, मैं और तुम का भेद समाप्त हो जाता है। यह अनहद नाद की वह स्थिति है, जहां पहुंचने के पश्चात् मानव असीम सुख अलौकिक आनंद को प्राप्त होता है।

सो!मानव को निंदा व आलोचना सुनकर हताश- निराश नहीं होना चाहिए… यह तो आत्मोन्नति का सोपान है…आत्म-प्रक्षालन का माध्यम है।यह हमें दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा,आत्मावलोकन का मार्ग दर्शाता है, जिसके द्वारा हम साक्षात्कार कर सकते हैं। निंदकों द्वारा की गई आलोचनाएं इस संदर्भ में सार्थक दायित्व का वहन करती हैं…हमारा पथ- प्रशस्त कर निर्वाण-मोक्ष प्रदान करती हैं। दूसरी ओर हमें ऐसे लोगों से सचेत रहना चाहिए क्योंकि सुख के साथी अक्सर दु:ख में, अर्थात् स्थिति परिवर्तन होने के साथ मुंह फेर लेते हैं और दूसरा मोहरा तलाशने में रत हो जाते हैं। इतना ही नहीं,वे आगंतुक को आपकी गतिविधियों से परिचित करवा कर, उसके विश्वास- पात्र बनने के निमित्त एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं। इन विषम परिस्थितियों में हमें आलोचनाओं से विचलित होकर, अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए, बल्कि ऐसे लोगों से सचेत रहना चाहिए और भविष्य में उन की परवाह नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सकारात्मक सोच के लोगों को ढूंढना अत्यंत कठिन होता है। परंतु जिसे जीवन में ऐसे मित्र मिल जाते हैं, उनका जीवन सार्थक हो जाता है, क्योंकि वे आपकी अनपस्थिति में भी ढाल बन कर आपकी सुरक्षा के निमित्त तैनात रहते हैं, सदैव आपका पक्ष लेते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 16 – संजीवनी ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “संजीवनी।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 16 ☆

 

☆ संजीवनी

 

रावण ने उत्तर दिया, “एक राक्षस है जो यह कर सकता है और वह है मेरा चाचा कालनेमि (अर्थ : काल का अर्थ है समय और नेमि का अर्थ नियम है, इसलिए कालनेमि का अर्थ हुआ काल का शासक या जो काल या समय के नियमों को बदल सकता है)

रावण स्वयं ही कालनेमि के महल की ओर गया, और पहुँचने के बाद, उसने कालनेमि से कहा, “चाचा कालनेमि, आप बहुत विशेष प्रकार के राक्षस हैं। समय के नियम आपको बांध नहीं सकते हैं। आप समय से परे जाने के लिए अपने नियम स्वयं बना सकते हैं। आप वायुमंडल की समानांतर परतों के बीच उड़ान भर सकते हैं। आप दूर स्थानों पर खुद को परिवहन कर सकते हैं । संक्षेप में, आप समय को पूर्ण रूप से नियंत्रण कर सकते है क्योंकि आपके नाम ‘कालनेमि’ का अर्थ ही है वह जो अपने लिए समय के अलग नियम बना सके? आज लंका को आपकी सहायता की आवश्यकता है। आप जानते हैं कि हमने आज तक आपको परेशान नहीं किया है, और अब हमारे और राम के बीच युद्ध बहुत ही महत्वपूर्ण चरण में है । लंका के लगभग सभी योद्धा मर चुके हैं, और अब केवल मेघनाथ और मैं ही जीवित हैं । मेघनाथ ने राम के भाई लक्ष्मण को मार दिया है। लेकिन उस दोषपूर्ण विभीषण और सुषेण वैद्य ने हनुमान को कुछ सुझाव दिया है जो लक्ष्मण के जीवन को बचा सकता है और वापस ला सकता है। हनुमान पहले ही सुषेण वैद्य द्वारा बतायी हुई जड़ी बूटी लेने के लिए हिमालय की ओर कूच कर चूका है। समय के नियमों को बदलने के लिए विशेष गुणों के कारण आप हनुमान से तेज़ी से आगे बढ़ सकते हैं। तो यह हमारा आदेश है आप सूर्योदय तक वहीं कहीं हनुमान को रोक कर रखें। आपको उसके साथ लड़ने की आवश्यकता नहीं है। आपको बस उसे कुछ समय के लिए रोकना होगा”

कालनेमि ने उत्तर दिया, “हवा के प्रवाह अर्थात हनुमान को कौन रोक सकता है? लेकिन मैं विभीषण की तरह आपको और लंका को धोखा नहीं दे सकता, मैं जाऊँगा और हनुमान को रोकने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करूँगा”

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 7. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख की यह अंतिम कड़ी है ।  हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

☆ संजय दृष्टि  –  7.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

लोकसंस्कृति, सृष्टि को युग्मराग मानती है। सृष्टि, प्रकृति और पुरुष के युग्म का परिणाम है। स्त्री प्रकृति है। स्त्री एकात्मता की दूत है। मायके से ससुराल आती है, माँ से, मायके से स्वाभाविक रूप से एकात्म होती है। इसी एकात्म भाव से ससुराल से एकरूप हो जाती है। स्त्रियाँ केवल समझती नहीं अपितु माँ बनकर विस्तार करती हैं एकात्मता का। लोक में वस्तुओं के विनिमय की पद्धति का विकास महिलाओं ने बहुतायत से किया। आवश्यकता पड़ने पर पुरुषों से छिपकर ही सही, कथित निचले वर्ग  या विजातीय स्त्रियों के साथ लेन-देन किया। त्योहारों में मिठाई के आदान-प्रदान में विधर्मियों के साथ व्यवहार की वर्जना को स्त्रियों ने सूखे अनाज के बल पर कुंद किया। तर्क यह कि अनाज, धरती की उपज है और धरती तो सबके लिए समान है। यह अद्वैत दृष्टि, यह एकात्मता अनन्य है।

मनुष्य विकारों से मुक्त नहीं हो सकता। स्वाभाविक है कि लोक भी इसका अपवाद नहीं हो सकता लेकिन वह गाँठ नहीं बांधता। किसी कारण से किसी से द्वेष हो भी गया तो उसकी नींव पक्की होने से पहले विरोधी से होली पर गले मिल लेता है, दिवाली पर धोक देने चला जाता है। जैन दर्शन का क्षमापना पर्व भी इसी लोकसंस्कृति का एक गरिमापूर्ण अध्याय है।

लोक और प्रकृति में समरसता है, एकात्म है। लोक ‘क्षिति, जल, पावक, गगन, सरीरा, पंचतत्व से बना सरीरा’ के अनुसार इन्हीं तत्वों को सृष्टि के विराट में देखता है। सूक्ष्म को विराट में देखना, आत्मा को परमात्मा का अंश मानना, एकात्मता की इससे बेहतर कोई परिभाषा हो सकती है क्या?

प्रकृति के साथ की इसी एकात्मता के चलते महाराष्ट्र में ‘देवराई’ अर्थात संरक्षित वनों की परंपरा बनी। कोंकण और अन्य भागों में देवराई के वृक्षों को हाथ नहीं लगाया जाता। देश के पहाड़ी अंचलों में भी ‘देव-वन’ हैं, जिनमें रसोईघर की तरह चप्पल पहन कर आना वर्जित है।

राजस्थान का बिश्नोई समाज काले मृग के रूप में अपने पूर्वज का पुनर्जन्म देखता है। प्राणी को हत्या से बचाने का यह विश्वास प्रकृति के घटकों के संरक्षण में अद्भुत भूमिका निभाते हैं।

आदिवासियों की अनेक जनजातियाँ, पेड़ की नीचे गिरी सूखी लकड़ी और टपके फल के सिवा पेड़ से कुछ नहीं लेतीं।  कैम्प फायर में पेड़ की हरी डाली तोड़कर डालने वाले और शौकिया शिकार कर किसी भी प्राणी को भूनकर खाने के शौकीन ‘आदिवासी बचाओ’ के कथित प्रणेता इस लोक-संस्कृति की सतह तक भी नहीं पहुँचते, तल तो बहुत दूर की बात है।

मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य के मानसपटल पर जमेे चित्र उसके व्यवहार में दीखते हैं। जैसे लेखक अपने शब्दों या चित्रकार अपने मन के चित्रोेंं को कैनवास पर उतारता है। इसे सीधे लोकवास में देखिए। छोटे-बड़े हर घर के आगे गेरू-चूने से प्रकृति के पात्रों के चित्र बने हैं। जो पिंड में, वही बिरमांड में।
इसी की अगली प्रचिती है कि लोक के व्यवहार में  सकारात्मकता दिखती है। लोकसंवाद में कुछ वाक्यांशों/ वाक्यों का प्रयोग देखिये- दीपक के अस्त होने को ‘दीया बड़ा होना’ कहना, दुकान बंद करने को ‘दुकान बढ़ाना’ कहना, प्रस्थान के समय जाने का उल्लेख न करते हुए ‘ आता हूँ’ कहना आदि।

संस्कृति अंतर्चेतना है, सभ्यता वाह्य व्यवहार। वस्त्र, खानपान, नृत्य, गीत, सब अलग पर भीतर से जुड़ा हुआ है। लोकसभ्यता, संस्कृति से अनुप्रेरित होती है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि सभ्य आदमी चम्मच से भोजन तो करने लग गया पर स्वाद से वंचित हो गया। संस्कृति को सभ्य/असभ्य नहीं किया जा सकता। संस्कृति स्थिर मूल्य है। परंपराएँ परिवर्तित होती रहती हैं। सतयुग से सत्य बोलना आदर्श या स्थिर मूल्य है। आज भी मूल्य वही है। हाँ कालानुसार नैतिकता बदलती रहती है। जैसे द्वापर में युधिष्ठिर ने ‘अश्वत्थामा मारा गया किंतु हाथी’ कहते समय ‘किंतु हाथी’इतना धीमा कहा कि द्रोणाचार्य तक उनका स्वर न पहुँच सके। यह नैतिकता का अवमूल्यन था, अलबत्ता सत्य कहना तब भी स्थिर मूल्य था। यही कारण रहा कि युधिष्ठिर के भय ने उन्हें प्रत्यक्ष असत्य वचन न कहलाते हुए चालाकी बरतने को विवश किया। यह परोक्ष असत्य परिवर्तित नैतिकता का द्योतक था।

वस्तुत: लोकसाहित्य उतना ही पुराना है, जितना कि मनुष्य। साहित्य पर समाज का प्रभाव होता है, फलत: साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। लोक को जहाँ से जो उदात्त मिलता है, वह उसे ग्रहण कर लेता है। साहित्य, संस्कृति से उपजता है। अध्ययन और अनुसंधान के केंद्र में संस्कृति होनी चाहिए न कि सभ्यता।

शिक्षा और सभ्यता के विकास का प्रत्यक्ष अनुपात का सम्बंध सामान्यत: स्वीकृत है जिसके चलते स्थूल रूप में शिक्षा को अक्षरज्ञान का विकल्प समझ लिया गया है। अक्षर की समझ साक्षर भले ही करे, शिक्षित बनाये, यह आवश्यक नहीं। दीक्षित तो कागज़ी ज्ञान से हुआ ही नहीं जा सकता। हर आदमी का जीवन एक उपन्यास है। इस संदर्भ में देखें तो साक्षर हो या निरक्षर, हर क्षण कुछ नया रच रहा होता है। अत: मात्र अक्षर ज्ञान किसीको सभ्य, असभ्य, शिक्षित जैसे विशेषणों से जोड़े तो यह बेमानी होगा। पढ़ना, बाँचना भी दो तरह का होता है। एक आदमी पर लिखी किताबों को, दूसरा आदमी को। इस सम्बंध में इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता प्रासंगिक है-

उसने पढ़ी
आदमी पर लिखी किताबें
मैं आदमी को पढ़ता रहा,
होना ही था
उसके पास लग गया ढेर
कागज़ी डिग्रियों का
मैं रहा खाली हाथ,
पर राज़ की बात बताऊँ
उसे जब कुछ
नया जानना हो
वह, मुझसे मिलने
आता ज़रूर है!

शिक्षा, केवल अक्षरज्ञान तक सीमित रहे तो व्यर्थ है। ‘साक्षरा’ शब्द के वर्ण उल्टे क्रम में लगाएँ तो ‘राक्षसा’ बनता है। शिक्षा को दीक्षा का साथ न मिले तो साक्षरा और राक्षसा में अंतर नहीं होता। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि न्यूक्लिअर तकनीक सीखना साक्षरता है। इस तकनीक से बम बनाकर निर्दोषों का रक्त बहाना दीक्षा का अभाव है।

शिक्षा और दीक्षा का विरोधाभास ‘ग’ से ‘गणेश’ को  हटाने की सोच में ही दृष्टिगोचर होती है। ‘श्री गणेश’ सांस्कृतिक प्रतीक हैं। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म से दूर जाना नहीं अपितु अध्यात्म सापेक्षता है। दुनिया का सबसे बड़ा सच विज्ञान है और विज्ञान का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत सापेक्षता का है। हर मत-संप्रदाय के प्रति समभाव, धर्मनिरपेक्षता है। धर्मनिरपेक्षता नास्तिक होना नहीं है, धर्मनिरपेक्षता हरेक के लिए आस्तिक होना है। बेहतर होता कि ‘ग’ से ‘गणेश’ के साथ बारहखड़ी में ‘खु’ से ‘खुदा’, ‘बु’ से ‘बुद्ध’, ‘म’ से महावीर, ‘न’ से ‘नानक’, ‘जी’ से ‘जीजस’ भी पढ़ाये जाते। विडंबना है कि छोटी त्रिज्या वाली आँखों की परिधि, शिक्षा को और छोटी करती चली गई।  अलबत्ता ताल ठोंककर खड़ा लोक अनंत त्रिज्या वाली अपनी आँखों की परिधि से दीक्षा का निरंतर विस्तार करता रहा। किसी पाखंड में पड़े बिना वह आज भी बच्चे की शिक्षा का ‘श्रीगणेश’, ‘श्री गणेश’ से ही करता है। यही लोक की दृढ़ता  है, यही लोकत्व का विस्तार है। लोक का बखान पारावार है, लोक की महिमा अपरम्पार है।

प्रकृति ही लोक है, लोक ही प्रकृति है। प्रकृति का अपना लोक है, लोक की अपनी प्रकृति है। प्रकृति की प्रकृति ही मनुज की संस्कृति है। संस्कृति और मनुज का सम्बंध आत्मा और परमात्मा का सम्बंध है, एकात्मता का सम्बंध है।  यह एकात्मता ही लोक का जीवन है, लोकजीवन है। लोकजीवन अथाह सिंधु है। इसे समझने के लिए दूर से देखने या बाहर खड़े रहने से काम नहीं चलेगा। सिंधु में उतरना होगा, इसके साथ एकात्म होना होगा।

समाप्त

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 6. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

☆ संजय दृष्टि  –  6.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका 

 

जैसा पहले कहा जा चुका है कि भारतीय लोक में दहाई के बिना इकाई का मान नहीं है। समूह के बिना व्यक्ति का अस्तित्व यहाँ अग्राह्य है। यही कारण है कि लोक का क्रियाकलाप सामूहिक है। लोक में नृत्य सामूहिक है। लोक में गायन सामूहिक है। समूह में हर किसी का निबाह हो जाता है। समूह हर किसी को प्रतिभा प्रदर्शन  हेतु मंच देता है तो हरेक के विरेचन के लिए सेतु भी बनता है। सामूहिकता ऐसी कि भोजन भी पंगत में बैठकर सबके साथ ही होगा। भोजन के समय किसी अतिथि के घर आ जाने पर मानसिक विचलन का शिकार हो जाने वाली आधुनिकता की किसी शायर ने लोक से सटीक तुलना करते हुए लिखा है,

एक वो दौर था, सोचता था मेहमान आये तो खाना खाऊँ
लानत है इस दौर पर, सोचता हूँ मेहमान जाये तो खाना खाऊँ

शादी-ब्याह में गाँव जुटता था। जातिप्रथा को लेकर आज जो अरण्यरुदान है, सामूहिकता में हर जाति समाविष्ट है। हरेक अपना दायित्व निर्वहन करता है। ब्याह बेटी का है तो बेटी सबकी है। आज चलन कुछ कम हो गया है पर पहले मोहल्ले के हर घर में विवाह पूर्व बेटी को भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता, हर घर बेटी के साथ यथाशक्ति कुछ बाँध देता।

लोकगीत का अपना सनातन इतिहास है। सत्य तो यह है कि लोकगीतों ने इतिहास बचाया। घर-घर बाप-दादा का नाम याद  रखा, घर-घर श्रुत वंशावलियाँ बनाईं और बचाईं। केवल वंशावली ही नहीं, कुल, गोत्र, शासन, गाँव, खेत, खलिहान, कुलदेवता, कुलदेवी, ग्रामदेवता, आचार, संस्कार, परंपरा, राग, विराग, वैराग्य, मोह, धर्म, कर्म, भाषा, अपभ्रंश, वैराग्य की गाथा, रोमांस के किस्से, सब बचाया। इतना ही नहीं 1857 के स्वाधीनता संग्राम के में कमल और रोटी के चिह्न को अँग्रेजों ने दस्तावेज़ों के रूप में भले जला दिया पर लोकगीतों के मुँह पर ताला नहीं जड़ सका। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रणबाँकुरों के बलिदान को लोकगीतों ने ही जीवित रखा। इसी तरह अनादि काल से चले आ रहे सोलह संस्कारों को धर्मशास्त्रों के बाद  प्रथा में लोगों की ज़ुबान पर लोकगीतों ने ही टिकाये रखा।

त्योहार सामूहिक हैं, एकात्म हैं। व्रत-पर्व, धार्मिक अनुष्ठान, भजन-कीर्तन सब सामूहिक हैं। एकात्मता ऐसी कि त्योहारों में मिठाई का आदान-प्रदान हर छोटा-बड़ा करता है। महिलाएँ व्रत का उद्यापन करें, त्यौहार या अनुष्ठान हरेक में यथाशक्ति एक से लेकर इक्यावन महिलाओं के भोजन/ जलपान का प्रावधान है। लोक-परम्परा भागीदारी का व्रत, त्यौहार  और भागीदारी का अनुष्ठान है। धार्मिक ग्रंथों का पाठ और पारायण भी इसी संस्कृति की पुष्टि करते हैं। श्रीरामचरितमानस का पाठ तो जोड़ने का माध्यम है ही अपितु जो पढ़ना नहीं जानते उन्हें भी साथ लेने के लिए संपुट तो अनिवार्यत: सामूहिक है।

लोकपरंपराओं, लोकविधाओं- गीत, नृत्य, नाट्य, आदि का जन्मदाता कोई एक नहीं है। प्रेरणास्रोत भी एक नहीं है। इनका स्रोत, जन्मदाता, शिक्षक, प्रशिक्षक, सब लोक ही है। गरबा हो, भंगड़ा हो,  बिहू हो या होरी, लोक खुद इसे गढ़ता है, खुद इसे परिष्कृत करता है। यहाँ जो है, समूह का है। जैसे ॠषि परंपरा में सुभाषित किसने कहे, किसने लिखे का कोई रेकॉर्ड नहीं है, उसी तरह लोकोक्तियों, सीखें किसी एक की नहीं हैं। परंपरा की चर्चा अतीतजीवी होना नहीं होता। सनद रहे कि अतीत के बिना वर्तमान नहीं जन्मता और भविष्य तो कोरी कल्पना ही है। जो समुदाय अपने अतीत से, वह भी ऐसे गौरवशाली अतीत से अपरिचित रखा जाये. उसके आगे का प्रवसन सुकर कैसे होगा? विदेशी शक्तियों ने अपने एजेंडा के अनुकूल हमारे अतीत को असभ्य और ग्लानि भरा बताया। लज्जित करने वाला विरोधाभास यह है कि निरक्षरों का ‘समूह’, प्राय: पढ़े-लिखों तक आते-आतेे ‘गिरोह’ में बदल जाता है। गिरोह निहित स्वार्थ के अंतर्गत कृत्रिम एकता का नारा उछालकर उसकी आँच में अपनी रोटी सेंकता है जबकि समूह एकात्मता को आत्मसात कर, उसे जीता हुआ एक साथ भूखा सो जाता है।

लोक का जीवन सरल, सहज और अनौपचारिक है। यहाँ छिपा हुआ कुछ भी नहीं है। यहाँ घरों के दरवाज़े सदा खुले रहते हैं। महाराष्ट्र के शिर्डी के पास शनैश्वर के प्रसिद्ध धाम शनि शिंगणापुर में लोगों के घर में सदियों से दरवाज़े नहीं रखने की लोकपरंपरा है। कैमरे के फ्लैश में चमकने के कुछ शौकीन ‘चोरी करो’(!) आंदोलन के लिए वहाँ पहुँचे भी थे। लोक के विश्वास से कुछ सार्थक घट रहा हो तो उस पर ‘अंधविश्वास’ का ठप्पा लगाकर विष बोने की आवश्यकता नहीं। खुले दरवाज़ों की संस्कृति में पास-पड़ोस में, मोहल्ले में रहने वाले सभी मामा, काका, मामी, बुआ हैं। इनमें से कोई भी किसीके भी बच्चे को अधिकार से डाँट सकता है, अन्यथा मानने का कोई प्रश्न ही नहीं। इन आत्मीय संबोधनों का परिणाम यह कि सम्बंधितों के बीच  अपनेपन का रिश्ता विकसित होता है। गाँव के ही संरक्षक हो जाने से अनैतिक कर्मों और दुराचार की आशंका कम हो जाती है। विशेषकर बढ़ते यौन अपराधों के आँकड़ों पर काम करने वाले संबोधन द्वारा उत्पन्न होने वाले नेह और दायित्व का भी अध्ययन करें तो तो यह उनके शोध और समाज दोनों के लिए हितकर होगा।

क्रमशः…….7

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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