हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 532 ⇒ ||| संस्पर्श ||| ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|||संस्पर्श|||।)

?अभी अभी # 532 ⇒ |||संस्पर्श||| ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(Contiguity)

किसी से इतना सामिप्य, कि स्पर्श का अहसास होने लगे, संस्पर्श कहलाता है। यह आकस्मिक भी हो सकता है और प्रयत्न स्वरूप भी। भीड़ में ऐसा स्पर्श स्वाभाविक है, क्योंकि वहां तो धक्का मुक्की भी होती है और इरादतन चेष्टा भी। कुछ लोगों के लिए यह स्वाभाविक और अपरिहार्य भी हो सकता है तो कुछ के लिए असुविधाजनक और तकलीफदायक। बच्चे, वृद्ध और बीमार अक्सर जहां भीड़ और भगदड़ के शिकार होते हैं, वहीं महिलाओं के लिए तो यह स्थिति और भी बदतर हो सकती है, जिसमें कुचेष्टा के साथ साथ अभद्र व्यवहार की भी आशंका बनी रहती है।

स्पर्श में सुख है, अगर वह आपकी मर्जी और सहमति से हो रहा है। बच्चों का कोमल स्पर्श कितना रोमांचित कर देता है। प्रेम और रिश्तों की गर्माहट है जहां, संस्पर्श की संभावना है वहां। एक विज्ञापन में तो युवा मां और उसकी अति सुंदर और नाजुक बिटिया की कोमल त्वचा की देखभाल पारदर्शी पियर्स pears साबुन ही करता है।।

मुझे जड़ और चेतन दोनों में इस स्पर्श का अहसास होता है। स्पर्श को छूना भी कहते हैं, कोई भी चीज आपके मन को छू सकती है। फूल से कोमल बच्चे भी होते हैं और रात को हमारे सिरहाने लगा तकिया भी। टेडी बियर में ऐसा क्या है, आखिर है तो वह भी निर्जीव ही।

गुलाबी ठंड और सुबह सवा पांव बजे का वक्त ! सुबह का टहलना और सांची प्वाइंट के बूथ से दूध लाना, यानी एक पंथ दो काज, मेरी दिनचर्या का अंग है। दूध के इंतजार में चौराहे पर अकेले खड़े रहने का भी एक अलग ही आनंद है। इक्के दुक्के इंसान और मोहल्ले के आवारा कुत्ते चौराहे को व्यस्त बनाए रखते हैं। जो इन कुत्तों से डरते हैं, वे सुबह टहलने नहीं जाते अथवा किसी लाठी का सहारा अवश्य ले लेते हैं।।

मुझमें कुछ ऐसा खास है कि कुत्ते मेरे पास नहीं फटकते और अगर कोई गलती से पास आ गया, तो वह और अधिक पास आने की कोशिश करता है। उसे पास बुलाने में कुछ योगदान मेरी चेष्टाओं का भी होता है।

आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। दूध के इंतजार में मैं चौराहे का निरीक्षण कर रहा था। अचानक एक काले सफेद रंग का कुत्ता मेरे सामने से गुजरा। वह जब तेज चलने की कोशिश करता था, तो उसका एक पांव लंगड़ाने लगता था। एक स्वाभाविक दया अथवा करुणा का संचार मेरे मन में हुआ होगा, मुझे नहीं पता।।

एकाएक घूमते घूमते वह मेरे पास आकर ठिठक गया। कुत्ते सूंघकर निरीक्षण करते हैं। एक दो चक्कर लगाकर, वह थोड़ा और पास आकर मेरे पास खड़ा हो गया। न जाने क्यों, बेजुबान प्राणियों की आँखें मुझे लगता है, बहुत कुछ कह जाती हैं। उसने मुझसे लगभग सटकर, मुंह ऊंचा कर दिया। अब वह मेरी कमजोरी का फायदा उठा रहा था।

मुझे गाय को सहलाने की आदत है। हमारे छूने का इन प्राणियों को अहसास होता है। इनके कहां हमारी तरह हाथ होते हैं। ये प्राणी अक्सर किसी दीवार अथवा पेड़ से अपना शरीर रगड़ लेते हैं।

गाय हो या कुत्ता बिल्ली, अधिक लाड़ में ये अपना मुंह ऊपर कर देते हैं ताकि आप इनको आसानी से सहला सकें।।

हमारे अजनबी श्वान महाशय ने भी यही किया। और हमने भी, आदत से मजबूर, उसे सहला भी दिया। बस कुत्ते में इंसान जाग उठा। वह तो हमारे गले ही पड़ गया। इतने में मेरे पास एक दो कुत्ते और आ गए, और मेरे वाले कुत्ते पर भौंकने लगे। शायद मैं उनके इलाके का था, और जिस कुत्ते को मैने मुंह लगाया था, वह किसी और इलाके का होगा।

उनके लगातार भौंकने से मेरा वाला कुत्ता विचलित हो गया, और उसे मजबूरन मुझे छोड़कर जाना पड़ा। मुझे अब केवल इन कुत्तों से छुटकारा पाना था। क्योंकि उनकी मुझमें कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। उनका उद्देश्य शायद केवल उस कुत्ते को खदेड़ना ही रहा होगा।।

गुलजार अप्रत्यक्ष रूप से शायद इन शब्दों में यही कहना चाहते होंगे ;

हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू।

हाथ से छू के इसे

रिश्तों का इल्जाम ना दो।।

जब गुलजार की ये पंक्तियां हमें इतना छू जाती हैं, तो रिश्तों की तो बात ही कुछ और है। मजबूर हम, मजबूर तुम। प्रेम के वशीभूत हमने तो जानवर में इंसान जागते देखा है, कभी तो यह इंसान भी जागेगा।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “रोबोट ले रहे हैं मानव का स्थान” ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ आलेख – “रोबोट ले रहे हैं मानव का स्थान” ☆ डॉ निशा अग्रवाल

आधुनिक युग में, तकनीकी विकास ने मानव जीवन के हर क्षेत्र को बदल दिया है। इस प्रगति में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) और रोबोटिक्स का योगदान प्रमुख है। आज रोबोट्स केवल फ़ैक्टरियों में सीमित नहीं रहे; बल्कि डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर, साइंटिस्ट, वकील, और क्लीनर मेन जैसे विविध क्षेत्रों में मानव की जगह ले रहे हैं। ये परिवर्तन समाज पर दूरगामी प्रभाव डाल रहे हैं, जो सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं में देखे जा सकते हैं।

तकनीकी प्रगति और रोबोट का उदय

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के माध्यम से निर्मित रोबोट्स में तेजी से सुधार हुआ है। ये रोबोट्स न केवल जटिल गणनाएँ करने में सक्षम हैं, बल्कि मानवीय निर्णय लेने और सीखने की क्षमता भी रखते हैं। मेडिकल क्षेत्र में रोबोट सर्जरी करते हैं, इंजीनियरिंग में जटिल डिजाइनों पर काम करते हैं, और शिक्षण के क्षेत्र में छात्र-छात्राओं को ज्ञान प्रदान करते हैं। यहां तक कि कंसल्टिंग और कानूनी मामलों में भी रोबोट्स के माध्यम से समस्या-समाधान किए जा रहे हैं। इन रोबोट्स ने बहुत हद तक यह साबित कर दिया है कि वे अनेक कार्यों में मानवीय गलती की संभावनाओं को कम कर सकते हैं और कुशलता को बढ़ा सकते हैं।

रोजगार पर संकट

हालांकि रोबोटिक्स और AI ने कई कार्यों को आसान और तेज़ कर दिया है, परंतु इसके कारण मानव रोजगार पर खतरा उत्पन्न हो गया है। जहाँ एक ओर रोबोट्स 24/7 बिना रुके कार्य कर सकते हैं, वहीं दूसरी ओर वे मानवीय कार्यशक्ति की आवश्यकता को कम करते जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, कारखानों में रोबोटिक आर्म्स के आने से मजदूरों की नौकरी में कमी आई है। विभिन्न क्षेत्रों में, रोबोट्स के उपयोग से श्रम लागत में कटौती होती है, जिससे कंपनियाँ अधिक मुनाफा कमा सकती हैं, परंतु यह स्थिति मानव श्रमिकों के भविष्य को धुंधला कर रही है।

मानव कार्यशैली पर प्रभाव

रोबोट्स के कार्यक्षेत्र में आने से मानव कार्यशैली भी बदली है। इंसान के पास अब ऐसे कई कार्य रह गए हैं, जिनमें रचनात्मकता, भावनात्मक बुद्धिमता, और निर्णय क्षमता की अधिक आवश्यकता है। AI और रोबोट्स जहाँ तकनीकी कार्यों को सँभालते हैं, वहीं मानवीय गुण जैसे सहानुभूति, रचनात्मक सोच और नैतिकता केवल मानव में ही पाए जाते हैं। इस बदलाव ने लोगों को अपनी कार्यशैली में बदलाव लाने और खुद को नई भूमिकाओं के लिए तैयार करने के लिए प्रेरित किया है।

सामाजिक प्रभाव और चुनौतियाँ

रोबोट्स के बढ़ते उपयोग से समाज में कई नैतिक और सामाजिक प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। क्या रोबोट्स मानवीय संबंधों और संवेदनाओं को पूरी तरह से समझ सकते हैं? क्या वे सही और गलत का अंतर कर सकते हैं? इनके कारण समाज में आर्थिक विषमता और असमानता भी बढ़ी है, क्योंकि केवल वही लोग सफल हो पा रहे हैं, जो तकनीकी विकास के साथ कदम मिला पा रहे हैं। साथ ही, इससे मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ रहा है, क्योंकि कई लोग नौकरी खोने की चिंता में तनाव का शिकार हो रहे हैं।

समाधान और भविष्य की दिशा

रोबोटिक्स और AI के विस्तार को पूरी तरह रोकना संभव नहीं है, परंतु हमें इस तकनीकी युग में मानवता का संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। इसके लिए नई पीढ़ी को टेक्नोलॉजी से संबंधित शिक्षा और कौशल में प्रशिक्षित करना होगा, ताकि वे रोबोट्स के साथ काम करने में सक्षम बन सकें। इसके अतिरिक्त, सरकारों को ऐसे नीतिगत कदम उठाने चाहिए जो रोजगार के नए अवसर सृजित कर सकें, और समाज में बेरोजगारी की समस्या का समाधान कर सकें।

अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि रोबोट्स ने कई क्षेत्रों में मानव का स्थान लिया है और भविष्य में यह प्रवृत्ति और भी तेजी से बढ़ सकती है। लेकिन, तकनीकी विकास और मानवता के बीच संतुलन बनाए रखना ही समाज के स्वस्थ और संतुलित विकास की कुंजी है। हमें एक ऐसे भविष्य की ओर देखना चाहिए, जहाँ मानव और रोबोट्स मिलकर कार्य करें, और इंसान का जीवन और भी समृद्ध और सुरक्षित बने।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

शिक्षाविद, पाठयपुस्तक लेखिका जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 221 ☆ व्यवहार की भाषा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना व्यवहार की भाषा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 221 ☆ व्यवहार की भाषा

हमारा व्यवहार लोगों के साथ, खासकर जो हम पर आश्रित होते हैं उनके साथ कैसा है ?इससे निर्धारित होता है आपका व्यक्तित्व। विनम्रता के बिना सब कुछ व्यर्थ है। मीठी वाणी, आत्मविश्वास, धैर्य, साहस ये सब आपको निखारते हैं। समय- समय पर अपना  मूल्यांकन स्वयं करते रहना चाहिए।

यदि  कोई कुछ कहता है तो अवश्य ये सोचे कि अप्रिय वचन कहने कि आवश्यकता उसे क्यों पड़ी, जहाँ तक संभव हो उस गलती को सुधारने का प्रयास करें जो जाने अनजाने हो जाती है। जैसे- जैसे स्वयं को सुधारते जायेंगे वैसे- वैसे आपके करीबी लोगों की संख्या बढ़ेगी साथ ही वैचारिक समर्थक भी तैयार होने लगेंगे।

*

भावनाएँ भाव संग, मन  में  भरे  उमंग

पग- पग चलकर, लक्ष्य पूर्ण कीजिए।

*

इधर- उधर मत, नहीं व्यर्थ कार्यरत

समय अनमोल होता, ये संकल्प लीजिए। ।

*

पल- पल प्रीत धारे, खड़े खुशियों के द्वारे

राह को निहारते जो, उन्हें साथ दीजिए।

*

कार्य उनके ही होते, जागकर जो न सोते

जीवन के अमृत को, घूँट- घूँट पीजिए। ।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 531 ⇒ स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति ।)

?अभी अभी # 531 ⇒ स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(Voluntary acceptance)

ऐसा लग रहा है, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की बात हो रही है। जी बिल्कुल सही, बिना सेवानिवृत्ति के वैसे भी कौन स्वीकारोक्ति की सोच भी पाता है। स्वीकारोक्ति स्वैच्छिक हो सकती है, लेकिन सेवानिवृत्ति इतनी आसान नहीं।

एक सेवानिवृत्ति तो स्वाभाविक होती है, ६०-६५ वर्ष तक खून पसीना एक करने के बाद जो हासिल होती है। चलो, गंगा नहा लिए ! होती है, सेवानिवृत्ति स्वैच्छिक भी होती है, हाय रे इंसान की मजबूरियां ! एक सेवानिवृत्ति अनिवार्य भी होती है, जिसे बर्खास्तगी (टर्मिनेशन) कहते हैं।

वे पहले सस्पेंड हुए, फिर टर्मिनेट। पहले सत्यानाश, फिर सवा सत्यानाश।।

जीवन के बही खाते का, नफे नुकसान का, लाभ हानि और पाप पुण्य का मूल्यांकन सेवानिवृत्ति के पश्चात् ही संभव होता है।

सफलताओं और उपलब्धियों को गिनाया और भुनाया जाता है। असफलताओं और कमजोरियों को छुपाया जाता है। जीवन का सुख भी सत्ता के सुख से कम नहीं होता।

क्या कभी किसी के मन में सेवानिवृत्ति के पश्चात् यह भाव आया है कि, इसके पहले कि चित्रगुप्त हमारे कर्म के बही खाते की जांच हमारे वहां ऊपर जाने पर करे, एक बार हम भी तो हमारे कर्मों का लेखा जोखा जांच परख लें। अगर कुछ डिक्लेयर करना है तो क्यों न यहीं इस दुनिया में ही कर दें। सोचो, छुपाकर क्या साथ ले जाया जाएगा, सच झूठ, सब यहीं धरा रह जाएगा।।

स्वैच्छिक का मतलब होता है जो अपनी इच्छा या पसंद पर निर्भर हो. वहीं, स्वीकारोक्ति का मतलब होता है वह कथन या बयान जिसमें अपना अपराध स्वीकार किया जाय। बड़ा दुख है स्वीकारोक्ति में ! लोग क्या कहेंगे। इस आदमी को तो हम ईमानदार समझते थे, यह तो इतना भ्रष्ट निकला, राम राम। बड़ा धर्मप्रेमी और सिद्धांतवादी बना फिरता था।

डालो सब पर मिट्टी, कुछ दिनों बाद ही जीवन के अस्सी वसंत पूरे हो जाएंगे, नेकी ही साथ जाएगी, क्यों मुफ्त में बदनामी का ठीकरा फोड़, अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली जाए।

जरा यहां आपकी अदालत तो देखिए, सबूत के अभाव में गुनहगार छूट जाता है, और झूठी गवाही के आधार पर बेचारा ईमानदार फंस जाता है। जिसे यहां न्याय नहीं मिलता, उसे ईश्वर की अदालत का इंतजार रहता है।।

जो समझदार होते हैं, उनका तो अक्सर यही कहना होता है, यह हमारा और ईश्वर का मामला है। उससे कुछ भी छुपा नहीं है। समाज को तो जो हमने दिया है, वही उसने लौटाया है। ईश्वर तो बड़ा दयालु है, सूरदास तो कह भी गए हैं ;

प्रभु मोरे अवगुन चित ना धरो।

समदरसि है नाम तिहारो

चाहे तो पार करो।।

किसी ने कहा भी है, एक अदालत ऊपर भी है, जब उसको ही फैसला करना है तो कहां बार बार जगह जगह फाइल दिखाते फिरें। फिर अगर एक बार भगवान से सेटिंग कर ली तो इस नश्वर संसार से क्या डरना। कितनी अटूट आस्था होती होगी ऐसे लोगों की ईश्वर में।

और एक हम हैं, सच झूठ, पाप पुण्य, और अच्छे बुरे का ठीकरा सर पर लिए, अपराध बोध में जिए चले जा रहे हैं। तेरा क्या होगा कालिया! जिसका खुद पर ही भरोसा नहीं, वह क्या भगवान पर भरोसा करेगा। गोस्वामी जी ने कहा भी है ;

एक भरोसो एक बल

एक आस विश्वास।

स्वाति-सलिल रघुनाथ

जस चातक तुलसीदास।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – शून्य आदि…शून्य इति ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – शून्य आदि…शून्य इति ? ?

?

शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य में आशंका देखते हो, सो आतंकित होते हो। शून्य में संभावना देखोगे तो  प्रफुल्लित होगे। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। वैसे प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी सब चक्राकार हैं। प्रकृति भी वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता है। प्रसव की यह क्षमता हर बिंदु के केंद्र बन सकने की संभावना है।

यों गणित में भी शून्य अंतिम नहीं होता। वह संख्याशास्त्र का संतुलन है। शून्य से पहले माइनस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल,पात्र,परिस्थिति अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक हद तक के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।

शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी।  शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ।

…मैं अपने  शून्य का रसपान कर रहा हूँ। शून्य में शून्य उँड़ेल रहा हूँ , शून्य से शून्य उलीच रहा हूँ,।….शून्य आदि है, शून्य इति है।

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी💥

 🕉️ इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

  इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 530 ⇒ ईमानदारी की पाठशाला ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ईमानदारी की पाठशाला।)

?अभी अभी # 530 ⇒ ईमानदारी की पाठशाला ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ईमानदार होने का मतलब सत्यनिष्ठ होना है। पाठशाला में हम शिक्षा ग्रहण करते हैं, शिक्षा ही सीख है, सबक है। अंग्रेजी में हमने पढ़ा था, honesty is the best policy. हमें तो जीवन में एलआईसी से बढ़िया कोई पॉलिसी नज़र नहीं आई। हम ईमानदारी से पढ़ लिख लिए, लेकिन फिर भी हमारे पास ईमानदारी की कोई डिग्री अथवा डिप्लोमा उपलब्ध नहीं है। लेकिन हां, नौकरी के वक्त हमें हमारी डिग्रियां ही काम आई थी, और उसके साथ एक चरित्र प्रमाण पत्र। He bears a good moral character.

हिंदी में इसे मेहनती और ईमानदार व्यक्ति कहा जाता है।

परसाई की भाषा में ईमानदारी का कोई तावीज नहीं होता। बालक को सभी तरह के अनिष्ट से सुरक्षा के लिए माएं उनके गले में गंडा और तावीज अवश्य बांधती थी। काश आधार कार्ड, पैनकार्ड अथवा बीपीएल कार्ड की तरह कोई ईमानदारी का कार्ड भी होता, तो हमारा देश कितना खुशहाल हो जाता।।

ईमानदारी को आप गरीबी और अमीरी अथवा धर्म और जाति की तरह अलग नहीं कर सकते। गरीब इसीलिए गरीब है, क्योंकि वह ईमानदार है, और अमीर इसलिए अमीर है, क्योंकि वह बेइमान है, इस राय से हम इत्तेफाक नहीं रखते। वैसे होने को तो इसका उल्टा भी हो सकता है। लेकिन यह सब कोरी बकवास है।

हम कितने ईमानदार हैं, यह केवल हम जानते हैं। जिसने आपको ठगा वह बेईमान, और आपने जिसको ठगा वह सिर्फ बेचारा। अमीर पर हमें भरोसा रहता है, क्योंकि वह इज्जतदार होता है, बेचारा गरीब क्या नहाए और निचोड़े, उस पर कौन भरोसा करता है।।

हमारे घरों में नौकर चाकर और काम वाली बाई होती है। कुछ घरों में भरोसेमंद बाइयां होती हैं, जिनके भरोसे लोग घर खुला भी छोड़ जाते हैं और कहीं कहीं इन पर निगरानी रखनी पड़ती है।

मेरी काम वाली बाई भी एक औसत काम वाली बाई है। पैसा अगर उधार लेती है, तो समय पर लौटा भी देती है। फिलहाल उस पर एक हजार रुपए उधार थे, जो वह लौटा नहीं पाई।।

एक दिन सुबह वह मेरी पत्नी को पांच सौ रुपए देकर चली गई, लेकिन कुछ बोली नहीं, क्योंकि पत्नी फोन पर व्यस्त थी। पत्नी ने मुझे कहा, देखो उसने पांच सौ आज लौटा दिए, अब केवल पांच सौ ही बाकी रहे। बात की धनी और सच्ची है अनिता।

अनिता उसका नाम है। वह दिन में दूसरी बार आई तब उसने बताया, ये पांच सौ रुपए आपके भगवान के कमरे में अलमारी के नीचे पड़े थे। झाड़ते वक्त मुझे नजर आए तो मैने उठा लिए। उस समय आप फोन पर व्यस्त थी, और मुझे जल्दी थी, इसलिए आपको बता नहीं पाई। जरा सावधानी रखा करो, पैसे कौड़ी का मामला है।।

मैं समझ गया, गलती मेरी थी। कमरे में पंखा चल रहा था, कुछ नोट नीचे गिरे थे, कब हवा में एक नोट अलमारी के नीचे चला गया। उसने घटना का उपसंहार यह कहकर किया कि, आपके हजार रुपए मुझे अभी आपको लौटाने हैं, जल्द ही लौटा दूंगी। ये पैसे तो आपके ही थे।

मैं शायद उसकी जगह उस परिस्थिति में होता, तो मेरा ईमान डौल जाता। ‌मुझे इस परिस्थिति में वह मुझसे अधिक ईमानदार लगी।

मुझे अपने आपको बेईमान कहने में कोई शर्म नहीं, लेकिन सच्चा ईमानदारी का ताबीज तो मैने उस कम वाली अनिता के गले में लटका पाया।

फिर भी कुछ लोग यही कहेंगे, आपकी बात सही है, लेकिन इन लोगों पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता। अब मैं किस पर भरोसा करूं, मेरी अनिता पर अथवा लोगों की राय पर।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 529 ⇒ वात और बात ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “वात और बात।)

?अभी अभी # 529 ⇒ वात और बात ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

शरीर का अपना गुण धर्म होता है। आरोग्य हेतु त्रिदोष अर्थात् कफ, पित्त और वात के निवारण हेतु औषधियों का सेवन भी किया जाता है। वात को एक प्रमुख विकार माना गया है। त्रिफला इसमें बड़ा गुणकारी सिद्ध हुआ है।

सुबह सुबह विकार की चर्चा करना और कुछ नहीं आपका हाजमा ठीक रहे, बस इतनी ही कामना करना है। हम जानते हैं कुछ लोगों का हाजमा इतना अच्छा है कि उन्हें कंकर पत्थर तो क्या, बड़े बड़े पुल और अस्पताल भी खिलाओ तो भी उनके पेट में दर्द नहीं होता। आसान शब्दावली में इसे रिश्वत खाना कहते हैं। ।

लेकिन हम आज भ्रष्टाचार नहीं, सामान्य शिष्टाचार की बात कर रहे हैं। जो लोग इतने शरीफ हैं कि एक मूली का परांठा तक खाते हैं तो लोग या तो नाक पर हाथ रख लेते हैं अथवा रूमाल तलाशने लग जाते हैं। एकाएक ओज़ोन की परत कांप जाती है और पर्यावरण अशुद्ध हो जाता है। बस यही, वात दोष अथवा वायु विकार है।

वात विकार की ही तरह कुछ लोगों के पेट में बात भी नहीं पचती। कल रात सहेली ने एक बात बताई और संतोषी माता की कसम दिलवाई कि यह बात किसी को बताना मत, बस, तब से ही पेट में गुड़गुड़ हो रही है। उधर रेडियो पर लता का यह गीत बज रहा है ;

तुझे दिल की बात बता दूं

नहीं नहीं,

किसी को बता देगी तू

कहानी बना देगी तू।।

पहले कसम खाना और उसके बाद किसी बात को पचाना क्या यह अपने आप पर दोहरा अत्याचार नहीं हुआ। वात और बात दोनों ही ऐसे विकार हैं, जिनका निदान होना अत्यंत आवश्यक है। यह शारीरिक और मानसिक रोगों की जड़ है। यह एक गंभीर सामाजिक समस्या है। इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता।

किसी आवश्यक बात को छुपाना, दर्द को छुपाने से कम नहीं होता। भगवान ने भी हमें कान तो दो दिए हैं और मुंह केवल एक। हमारे कान हमेशा चौकन्ने रहते हैं, सब कुछ सुन लेते हैं। ईश्वर ने पेट भोजन पचाने के लिए दिया है, बातों को पचाने के लिए नहीं। क्या यह हमारे पाचन तंत्र पर अत्याचार नहीं। वात और बात दोनों का बाहर निकलना तन और मन दोनों के लिए स्वास्थ्यवर्धक है। ।

ईश्वर बड़ा दयालु है। उसने अगर सुनने के लिए दो द्वार दिए हैं, दांया और बांया कान तो खाने और बात करने के लिए मुख भी बनाया है। जो खाया उसे पचाएं, जो ज्ञान की बातें सुनी, उन्हें भी गुनें, हजम करें। इंसान केवल खाना ही नहीं खाता। और भी बहुत कुछ खाता पीता है। कभी गम भी खाता है, कड़वी बातें भी पचा जाता है, अपमान के घूंट भी पानी समझकर पी लेता है। सावन के महीने में, जब आग सी सीने में, लगती है तो पी भी लेता है, दो चार घड़ी जी लेता है।

वही खाएं, जो हजम हो। वही बात मन में रखें, जिसमें सबका हित हो। पेट और मन को हल्का रखना बहुत जरूरी है। वात और बात के भी दो अलग अलग रास्ते हैं। लेकिन यह संसार मीठा ही पसंद करता है। इसे न तो कड़वे लोग पसंद हैं और न ही वात रोगी। आप मीठा बोल तो सकते हैं लेकिन वात तो वात है, सबकी वाट लगा देता है। आप कितने भी स्मार्ट हों, एक फार्ट सारा खेल बिगाड़ देता है। ।

कुछ तो लोग कहेंगे। लोगों का काम है कहना। हम तो कह के रहेंगे जो हमें कहना। कल रात ही त्रिफला खाया है। जरा दूर ही रहना। फिर मत कहना, बताया नहीं, जताया नहीं, आगाह नहीं किया। सुप्रभात..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 108 – देश-परदेश – भोजन की बर्बादी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 108 ☆ देश-परदेश – भोजन की बर्बादी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

भोजन की बर्बादी को तो हमारे धर्म में पाप तक माना जाता है। कृषक कितनी मेहनत से अपनी फसल की पैदावार कर अनाज की उपज लेकर हमारी भूख को मिटाता है।

आप सोच रहे होंगे, विवाह का मौसम अभी आरंभ हुआ नहीं और भोजन की बर्बादी का ज्ञान देना आरंभ हो गया है। आज चर्चा ऑनलाइन भोजन उपलब्ध करवाने वाली बड़ी कंपनियां एक नई सुविधा आरंभ कर रहे हैं, उस को लेकर है।

ऑर्डर कर देने के बाद भी ग्राहक ऑनलाइन ऑर्डर रद्द भी कर सकता हैं। ऐसे मौके पर इस भोजन सामग्री का क्या हश्र होता होगा? इन खाद्य दूत कंपनियों को आज इस विषय पर चिंता होने लगी है। घर पहुंच सेवा देकर देश के लोगों और विशेषकर युवा पीढ़ी को आलसी बनाने में इनका योगदान सर्वविदित है।

अब इन रद्द हुए भोजन को सस्ते दाम में ये कंपनियां जनता को उपलब्ध करवा कर अपना श्रेय लेना चाहती हैं। कुछ नियम बन चुके हैं। युवा वर्ग या बाहरी भोजन के चटोरे इस को अधिक समझते हैं।

कल हमारे युवा पड़ोसी ने हमारे फोन से ज़ोमत्तों से भोजन ऑर्डर कर कुछ देर में कैंसिल कर दिया। उसके पांच मिनट बाद उसी भोजन को पच्चीस प्रतिशत दाम में अपने मोबाईल से ऑर्डर कर दिया।

हमारे फोन के इस्तेमाल करने की एवज में पड़ोसी ने हमको भी बाजार का घटिया भोजन अपने साथ करवाया। उसने तो भोजन की खरीदी मात्र 25% में करी। बाज़ार का भोजन दिखने और खाने में अच्छा लगता है। हमें तो और भी स्वादिष्ट लगा, बिल्कुल घर बैठे मुफ्त में जो मिला था। पाठक भी अपने रिस्क पर इस का लाभ ले सकते हैं, इससे पूर्व ऑनलाइन वाले इस योजना की कोई काट निकाल देवें।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 528 ⇒ आओ एन्जॉय करें ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आओ एन्जॉय करें।)

?अभी अभी # 528 ⇒ आओ एन्जॉय करें ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(Joy & enjoy)

खेलना कूदना, मौज मस्ती करना, सब एन्जॉय करना ही तो है आज की पीढ़ी के लिए। क्या खुशी और आनंद भी कभी अलग हुए हैं। लगता है अंग्रेजी के शब्द एन्जॉय में जॉय शब्द भी इनबिल्ट ही है।

जरा John Keats की जॉय की परिभाषा तो देखिए ;

A thing of beauty is a joy forever… 

एक सुंदर चीज अंतहीन खुशी का स्रोत है। इसमें शाश्वत सुंदरता है जो कभी फीकी नहीं पड़ती। खुशी को तो महसूस किया जा सकता है, लेकिन एन्जॉय का अर्थ तो मौज मस्ती होता है, जो बाहरी होती है।

एक बच्चा जॉय और एन्जॉय में फर्क नहीं समझता। उसके लिए तो उसका टॉय ही जॉय और एंजॉयमेंट का साधन है। उम्र के साथ साथ उसके खिलौने भी बदलते रहते हैं, क्योंकि वह तो खुद ही एक कच्ची मिट्टी का घड़ा होता है। जिसे हम teens कहते हैं, यानी तेरह से उन्नीस वर्ष के बीच की उम्र, उसमें वह जैसा ढल गया, सो ढल गया। बाद में तो सिर्फ उसे तराशा ही जा सकता है। ।

युवा पीढ़ी की उम्र खाने पीने और मौज करने की होती है, जैसे अंग्रेजी में Eat, drink and be merry कहा जाता है। वे जॉय और एन्जॉय में फर्क नहीं करते क्योंकि उनके जीवन में के एल सहगल नहीं बाबा सहगल, हनी सिंह और अरिजीत सिंह होते हैं। वे तबला हारमोनियम के नहीं, डीजे और zaaz के शौकीन होते हैं। हमारी उम्र में हमने भी अंग्रेजी धुनों पर डांस किया है, एन्जॉय किया है।

शायद यही फर्क है जॉय और एन्जॉय में। आज की शादियों में जब स्टेज पर डांस होता है, तब जरा अपने आसपास की युवा पीढ़ी पर नजर डालकर देखिए, उनके पांव संगीत की धुन पर ऐसे थिरकने लगते हैं, मानो वे अभी नाचने लगेंगे। उनकी खुशी कब की आनंद में ढल चुकी है, जॉय एन्जॉय का भेद कबका मिट चुका है। उनके लिए वही समाधि अवस्था है, परमानंद है। ।

वह सर्वेश्वर नटवर नागर, रासबिहारी कृष्ण कन्हैया भी तो सोलह कलाओं से परिपूर्ण है।

संगीत, साहित्य और नृत्य की साधना भी तो ईश्वर की आराधना ही है। उसकी कलाओं में आकंठ डूब जाना ही वास्तविक आनंद है। जॉय एन्जॉय से ऊपर भी एक अवस्था है, जिसे परमानंद सहोदर कहा गया है, एक अतीन्द्रिय अनुभूति जिसे अंग्रेजी में ecstasy कहते हैं।

अनुभूति की सभी अवस्थाओं से गुजरने के पश्चात् ही तो ईश्वर की अनुभूति संभव है। हर अवस्था एक पड़ाव है, बाहर अगर मौज मस्ती है तो अंदर आंतरिक आनंद। कब आपकी मौज मस्ती में बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता, अतः… 

हर पल को एंज्वॉय करें, मन की मौज और मस्ती आपका इंतजार कर रहे हैं। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 265 – वासुदेव: सर्वम् ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆   संजय उवाच # 265 ☆ वासुदेव: सर्वम्… ?

अपौरूषेय आदिग्रंथ ऋग्वेद का उद्घोष है-

॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥

(10.181.2)

अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें।

ऋग्वेद द्वारा प्रतिपादित सामूहिकता का मंत्र मानुषिकता एवं एकात्मता का प्रथम अधिकृत संस्करण है।

अथर्ववेद एकात्मता के इसी तत्व के मूलबिंदु तक जाता है-

॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥2॥

(3.30.3)

अर्थात भाई, भाई से द्वेष न करे, बहन, बहन से द्वेष न करे, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।

आधुनिक विज्ञान जब मनुष्य के क्रमिक विकास की बात करता है तो शनै:-शनै: एक से अनेक होने की प्रक्रिया और सिद्धांत प्रतिपादित करता है। उससे हजारों वर्ष पूर्व भारतीय दर्शन और ज्ञान के पुंज भारतीय महर्षि एकात्मता का विराट भारतीय दर्शन लेकर आ चुके थे। महोपनिषद का यह श्लोक सारे सिद्धांतों और सारी थिअरीज की तुलना में विराट की पराकाष्ठा है।

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

(अध्याय 4, श्लोक 71)

अर्थात यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।

मनुष्य की सामाजिकता और सामासिकता का विराट दर्शन है भारतीय संस्कृति।  ’ॐ सह नाववतु’ गुरु- शिष्य द्वारा एक साथ की जाती प्रार्थना में एकात्मता का जो आविर्भाव है वह विश्व की अन्य किसी भी सभ्यता में देखने को नहीं मिलेगा। कठोपनिषद में तत्सम्बंधी श्लोक देखिये-

॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥

अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।

इस तरह की सदाशयी भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है। उदय और अस्त का परम अद्वैत दर्शन है श्रीमद्भागवत गीता। गीता में स्वयं योगेश्वर कहते हैं-

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥

(गीता 10।39)

अर्थात, हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥

(11/ 7)

अर्थात, हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हे भी देख।

एकात्म भाव का विस्तृत विवेचन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥

(6।30)

अर्थात् जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।’

इस अदृश्य का यह सारगर्भित दृश्य समझिये इस उवाच से-

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥

अर्थात जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।

संपृक्त श्रीमद्भागवत के इस अनहद नाद को सुनिए-

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।

पश्चादहं यदेतच्च योडवशिष्येत सोडस्म्यहम

 (2।9।32)

अर्थात सृष्टि के पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह दिखायी दे रहा है, वह मैं ही हूँ। जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जाने पर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ। 

सांगोपांग सार है, ‘वासुदेव: सर्वम्।’ चर हो या अचर, वासुदेव के सिवा जगत में दूसरा कोई नहीं है। अत: कहा गया, चराचर में एक ही आत्मा देख, एकात्म हो।…इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी💥

 🕉️ इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

  इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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