हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ‘अंदाज़-ए-बयां करें आप और बेहाल हों हम’ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ आलेख ☆ ‘अंदाज़-ए-बयां करें आप और बेहाल हों हम’ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव

मौसम विभाग के सभी विशेषज्ञों को एवं उनके पूर्वानुमानों को अति उत्साह से सुनने वाले आप सबको मेरे शत-शत नमन!

मौसम का हाल-ए-दिल आजमाने वाले मौसम विभाग से हमने पूछा, “हाल कैसा है मौसम का?” तो आज उन्होंने कुछ अलग तरह से ही बात की, “क्या ख़याल है आपका?” कारण? सुनिए (मेरा मतलब है पढ़िए!) हमारे समय में ऐसा नहीं था! एक पपीहा ही था, जो रटता रहता था कि अब आवेगी बारिश। यदि आप अधिक काव्यात्मक मूड में हैं तो पेश है आकाश की ओर देख कहीं हल्की सी गरज और लरज सुनकर अद्भुत रीति से नाचता हुआ मोर! उस वक्त उसका मनमोहक नृत्य फोटू में कैप्चर करने को लालायित दर्शक गण उसे चाहे कितनी भी बार ‘वन्स मोअर’ दें, वह किसी मूडी कलाकार की तरह फोटो देने के लिए साफ़ मना कर देता था। मित्रों, इन पुरानी धारणाओं को तोड़ते हुए विश्व के मौसम विज्ञानियों ने ऐसी तकनीक विकसित की है कि, हर मिनट की गणना पर आधारित हवा की नमीं, उनकी दिशा, दशा और गति आदि का सूक्ष्म मूल्यांकन करके प्रति घंटा बारिश का पूर्वानुमान व्यक्त किया जाता है। और तो और, एक नहीं बल्कि कई निजी एजेंसियां इसमें कूद पड़ी हैं और उनकी वेधशालाएं सक्रिय मोड में आ गईं हैं। कुछ ने सोचा कि अगर इन सबका औसत निकाला जाए तो सटीक अनुमान मिल जाएगा, लेकिन उनका अंदाज एकदम गलत साबित हुआ।

कृषि कार्य, दुकानें, फेरीवालों का कारोबार तो ऐसे अनुमानों से भ्रमित, चकित और अवाक् रहा| नुकसान के आंकड़े भांपते हुए लोगों की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा और नौबत यहाँ तक आ गई कि, दिन में तारे नजर आने लगे| अब कल की ही कहानी सुनिए मुंबई की! सरकार, नगर निगम आदि प्रतिष्ठित संस्थाओं ने वेधशाला की नवीनतम रिपोर्ट पर आधारित वायु गति से आदेश दे दिये| वे उससे अधिक गतिमान होकर स्कूल-कॉलेजों में पहुंच गए| दोपहर में बच्चों के पार्सल घर लाते-लाते अभिभावक और बसवालों को थकान आ गई| इन नन्हे मुन्ने चूजों को घोंसले में रखते रखते, बारिश की धारा कम हो गई।        

इस बीच पुणे (पुणे में स्थित) की वेधशाला ने सटीक अवलोकन के साथ हल्की से मध्यम बारिश की भविष्यवाणी की थी। लेकिन ये मुई बारिश बड़ी ही चालाक निकली| पुणे में रहकर पुणे की संस्था का घोर अपमान करने का ऐसा दुस्साहस! ऐसी बरस पड़ी कि, ३२ सालों का रिकॉर्ड तोड़कर ही मानी! बांध जल से लबालब थे, पानी एकता का सन्देश कन्धों पर लिए हर घर में घुस गया| बेचारी जनता ने कौन सा अपराध किया? बस बारिश का पूर्वानुमान सुना और उसपर विश्वास जताया | आज की तारीख में हर कोई बाउंड्री पर उत्तीर्ण होना चाहता है| तभी तो ये बारिश एक शरारती छात्र की भांति व्यवहार कर रही है| पता नहीं क्यों वेधशाला के अध्यापकों का कहना बिलकुल मानती नहीं है!

कल को (बीते हुए) जाने दो, क्योंकि (किसीने कहा है), उसके बारे में सोचना समय की बर्बादी है! कल (बीते हुए) हर जगह बारिश का जोरदार डिस्को डांस देखकर सभी प्रमुख सरकारी संस्थानों ने कड़ी मेहनत की और सबक सीखा। हमारे ठाणे और पुणे (मुंबई नहीं) और अन्य इलाकों में कल शाम अति तत्परता दिखाते हुए एहतियात के तौर पर आज के लिए स्कूल और कॉलेज बंद रखने के आदेश दे दिए गए। लेकिन इस ढीठ बारिश की शरारतों का जवाब नहीं| आज बड़े सवेरे से गायब ही हो गई है, न जाने कहाँ छिपी बैठी है। शायद वह भी आराम करना चाहती हो| लेकिन हमारी फिर से शिकायत है, इसमें संदेह की गुंजाइश है कि, क्या उसने सम्मानित संस्थाओं के आदेशों की अवहेलना करने की शपथ ली थी, क्योंकि यह सब कांड सुबह के शुरुआती घंटों में हुआ| बच्चों की आज की विभिन्न परीक्षाएं स्थगित होने से वे नाराज हैं सो अलग! इस बारिश के कारण उनके वीक एन्ड के प्लान पानी में बह गए!

मुझे तो लगता है कि यह बारिश ‘टीन एज सिंड्रोम’ से संक्रमित है! वे कैसे अपने बड़ों के कहने पर बिल्कुल उलटा करते हैं। अब एक प्रयोग करने की मेरी अंतरिम सलाह। वेधशालाओं को उनका आकलन कर ठीक उसके विपरीत रिपोर्ट सरकार और जनता को सौंपनी चाहिए। लेकिन एक संदेह है, वर्षारानी को इस साजिश की खबर हुई और वह अपनी ‘नीली छतरी’ को उल्टा कर गई तो? उसकी बजाय मौसम विभाग की तमाम वेधशालाओं के अनुमान को दिल में संजोये हुए, वर्षा के आगमन और निकास का स्वागत करें| अबोध बच्चों से सीखने के लिए बहुत कुछ है। चाहे बारिश हो या न हो, ‘नो स्कूल’ का आनंद लेने वाले इन निरीह आत्माओंके के खेलों में कोई खलल नहीं होती।

प्रिय पाठकगण, अब हास परिहास का सत्र ख़त्म करें|                 

आलेख के अंत में, कई तूफानों की गहन और सटीक भविष्यवाणी करके लाखों लोगों की जान बचाने के लिए सभी मौसम विज्ञानियों को बहुत-बहुत धन्यवाद! साथ ही, भारी बारिश में नालियों, सड़कों और सीवरों की अनवरत सफाई करने वाले नगर निगम के कर्मचारियों और बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में हजारों नागरिकों की जान बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालने वाले एनडीआरएफ के बहादुर जवानों को भी विशेष धन्यवाद!

दिनांक २६ जुलाई २०२४ (समय प्रातः ११ बजे)

© डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 435 ⇒ सितमगर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सितमगर।)

?अभी अभी # 435 ⇒ सितमगर? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सितमगर कोई स्मगलर अथवा बर्गलर नहीं होता। सितमगर अन्याय करने वाले अथवा अत्याचारी को कहते हैं !

सिकदर भी आये कलदार भी आये

न कोई रहा है न कोई रहेगा

है तेरे जाने की बारी विदेशी

ये देश आज़ाद हो के रहेगा

मेरा देश आज़ाद हो के रहेगा। इन विदेशियों में आप बाबर अकबर के समूचे मुगल वंश और फिरंगी आततायियों को भी शामिल कर सकते हैं।

आई हैं बहारें मिटे ज़ुल्म-ओ-सितम

प्यार का ज़माना आया

दूर हुए ग़म।

राम की लीला रंग लाई

श्याम ने बंसी बजाई। ।

तो क्या ज़ुल्मो सितम इतनी आसानी से खतम ?

जी नहीं जनाब, सितम तो अब शुरू होने वाले हैं ;

तीर आँखों के जिगर के

पार कर दो यार तुम

जान ले लो या तो जान को

निसार कर दो यार तुम।

सिर्फ तीर ही नहीं, अभी तो बिजलियां भी गिरेंगी, देखते जाइए ;

शोख़ नज़र की बिजलियाँ,

दिल पे मेरे गिराए जा

मेरा ना कुछ ख़याल कर,

तू यूँ ही मुस्कराए जा।।

जी हां, यही सब सितम ढाने के तरीके हैं। लेकिन अगर जुल्मी जब अपना सांवरिया ही हो, तो बस यही कहा जा सकता है ;

ज़ुल्मी हमारे सांवरिया हो राम

कैसे गुजरेगी हमरी

उमरिया हो राम ;

जब प्यार में सितम होता है, तो वह इंतकाम नहीं, एक इम्तहान होता है। अंतिम बानगी देखिए ;

सितम या करम

हुस्न वालों की मर्ज़ी

यही सोच कर

कोई शिकवा ना करना।

सितमगर सलामत

रहे हुस्न तेरा

यही उस को मिटने से पहले दुआ दे

जो उन की तमन्ना है, बरबाद हो जा ..

अगर आप भी शौक रखते हैं तो ;

इधर आ सितमगर ..

हुनर आजमाएं ….

तू तीर आजमा…..

हम जिगर आजमाएं…!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #243 ☆ सच्चे दोस्त : अनमोल धरोहर… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सच्चे दोस्त : अनमोल धरोहर… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 243 ☆

सच्चे दोस्त : अनमोल धरोहर… ☆

साझेदारी करो, तो किसी के दर्द की करो, क्योंकि खुशियों के दावेदार तो बहुत हैं। जी हां! ज़माने में हंसते हुए व्यक्ति का साथ देने वाले तो बहुत होते हैं, परंतु दु:खी इंसान का साथ देना कोई पसंद नहीं करता। ‘सुख के सब साथी दु:ख में न कोई/ मेरे राम! एक तेरा नाम सांचा/ दूजा न कोय’ गीत की पंक्तियां उक्त भाव को पुष्ट करती हैं। सो! सच्चा दोस्त वही है, जो दु:ख व ग़म के समय उसका दामन थाम ले। परंतु ऐसे दोस्त बड़ी कठिनाई से मिलते हैं और ऐसा साथी जिसे मिल जाता है; पथ की बाधाएं-आपदाएं उसका बाल भी बांका नहीं कर सकतीं। सागर व सुनामी की लहरें उसे अपना निवाला नहीं बना सकतीं; आंधियां बहा कर नहीं ले जा सकतीं, क्योंकि सच्चा मित्र अमावस के अंधकार में जुगनू की भांति उसका पथ आलोकित करता है। जी• रेण्डोल्फ का यह कथन ‘सच्चे दोस्त मुश्किल से मिलते हैं; कठिनाई से छूटते हैं और भुलाए से नहीं भूलते। किसी दुश्मन की गाली भी इतनी तकलीफ़ नहीं देती, जितनी एक दोस्त की खामोशी।’ सच्चा दोस्त आपका साथ कभी नहीं छोड़ता और आप उसकी स्मृतियों से भी कभी निज़ात नहीं पा सकते।’ इसलिए कहा जाता है कि आप दुश्मन की उन ग़लतियों को तो आसानी से सहन कर सकते हो, परंतु दोस्त की खामोशी को नहीं। यदि किसी कारणवश वह आपसे गुफ़्तगू नहीं करता, तो आप परेशान हो उठते हैं और तब तक सुकून नहीं पाते; जब तक उसके मूल कारण को नहीं जान पाते। शायद! इसीलिए इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि ‘खामोशियां बोलती हैं। वे अहसास हैं, जज़्बात हैं, हृदय की पीड़ा हैं, मुखर मौन हैं, जो सबके बीच अकेलेपन का अहसास कराती हैं।’

वैसे तो आजकल हर इंसान भीड़ में अकेला है… अपने-अपने द्वीप में कैद है, क्योंकि उसे किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं रहता। वह केवल मैंं, मैं के राग अलापता है; स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है और ऐसे लोगों के संगति से भी डरता है, क्योंकि उनके साये में वह कभी भी पनप नहीं सकता। जैसे एक पौधे को विकसित होने के लिए अच्छी आबो-हवा, रोशनी व खाद की आवश्यकता होती है; वैसे ही एक इंसान के सर्वांगीण विकास के लिए अच्छे, स्वच्छ व स्वस्थ वातावरण, सच्चे दोस्त व सुसंस्कारों की दरक़ार होती है, जो हमें माता-पिता व गुरुजनों द्वारा प्राप्त हो सकते हैं। वैसे भी कहा गया है कि दुनिया में माता-पिता से बड़ा हितैषी, तो कोई हो ही नहीं सकता। सो! हमें सदैव उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए; उनके संदेशों को ग्रहण कर जीवन में धारण करना चाहिए, क्योंकि वे वेद-पुराण के समान हैं; जो हमें सुसंस्कारों से पल्लवित करते हैं। इसी भांति सच्चे दोस्त भी हमें ग़लत राह पर चलने से बचाते हैं और हमारा पथ-प्रदर्शन करते हैं। यदि हम पर दु:खों व ग़मों का पर्वत भी टूट पड़ता है, तो भी वे हमारी रक्षा करते हैं; धैर्य बंधाते हैं और अच्छे डॉक्टर की भांति रोग की नब्ज़ पकड़ते हैं। इसलिए मानव को दु:खी व्यक्ति के दर्द को अवश्य बांटना चाहिए, क्योंकि दु:ख बांटने से घटता है और खुशी बांटने से बढ़ती है। वैसे भी मानव की यह प्रवृत्ति है कि वह सुख अकेले में भोगना चाहता है और दु:खों को बांट कर अपनी पीड़ा कम करना चाहता है।

परमात्मा भाग्य नहीं लिखता, परंतु जीवन के हर कदम पर आपकी सोच, दोस्त व कर्म आपका भाग्य लिखते हैं। जीवन में बहुत से सौदे होते हैं।  अधिकांश लोग सुख बेचने वाले होते हैं, परंतु दु:ख खरीदने वाले नहीं मिलते– यही है जीवन का सार व सत्य है। सो! हमें सदैव अच्छे दोस्त बनाने चाहिएं। सकारात्मक सोच के अनुकूल श्रेष्ठ कर्म करने चाहिएं, क्योंकि जहां सत्संगति होगी;  वहां सोच तो नकारात्मक हो ही नहीं सकती। यदि सोच अच्छी है, तो कर्म भी उसके अनुकूल सबके लिए मंगलकारी होंगे। सो! ग़लत राहों पर चलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यदि आप जीवन में खुश रहना चाहते हैं, तो अपने फैसले परिस्थिति को देखकर कीजिए। इसलिए जो भी दूसरों की प्रभुसत्ता से आकर्षित होकर फैसले करते हैं; वे सदैव दु:खों के सागर में अवगाहन करते रहते हैं। इसलिए मानव को समय व परिस्थिति के अनुकूल निर्णय लेने चाहिएं; न कि लोगों की खुशी के लिए, क्योंकि ज़िंदगी में सबको खुश रखना असंभव होता है। यह तो सर्वविदित है कि ‘चिराग जलते ही अंधेरे रूठ जाते हैं।’ इसलिए जीवन में जो भी आपको उचित लगे; आत्म-संतोष हित वही करें, क्योंकि यदि सोच सकारात्मक व खूबसूरत होगी, तो सब अच्छा ही अच्छा नज़र आयेगा, अन्यथा सावन के अंधे की भांति सब हरा ही हरा दिखाई पड़ेगा।

जीवन में दोस्तों से कभी उम्मीद मत रखना, क्योंकि उम्मीद मानव को दूसरों से नहीं, ख़ुद से करनी चाहिए। यदि दूसरे साथ न दें, तो बुरा मत मानिए, क्योंकि यदि स्वप्न आपके हैं, तो कोशिश भी आपकी होनी चाहिए। अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए हानिकारक होती हैं। यदि आप किसी से अपेक्षा अर्थात् उम्मीद रखते हैं, तो उसके टूटने पर आपको अत्यंत दु:ख होता है। यदि दूसरे आपकी उपेक्षा करते हैं, तो उस स्थिति में आप ग़मों के सागर में डूबने के पश्चात् उबर नहीं पाते। सो! इनके जंजाल से सदैव ऊपर उठिए और किसी पर भी अधिक विश्वास न कीजिए, क्योंकि जब विश्वास टूटता है, तो बहुत दु:ख होता है, पीड़ा होती है। संबंध तभी क़ायम रह पाते हैं, यदि दोनों ओर से निभाए जाते हैं, क्योंकि एक तरफ से तो रोटी भी सेंक कर नहीं बनाई जा सकती।

संबंध अर्थात् सम रूप से बंधा हुआ अर्थात् जहां वैषम्य नहीं, सम्यक् भाव हो। वैसे संबंध भी बराबरी वालों के साथ निभाए जा सकते हैं। जैसे जीवन रूपी गाड़ी को सुचारू रूप से चलाने के लिए दो समान व संतुलित पहियों की अहम् आवश्यकता होती है, वैसे ही यदि दो विपरीत मन:स्थिति, सोच व स्टेट्स के लोगों के मध्य संबंध होता है, तो वह स्थायी नहीं रह पाता; जल्दी खण्डित हो जाता है। इसलिए दोस्ती भी बराबर वालों में शोभती है। वैसे भी ज़िंंदगी तभी चल सकती है; यदि मानव में यह धारणा हो कि ‘मैं भी सही और तू भी सही।’ यदि मैं सही हूं और वह गलत है, तो भी संबंध कायम रह सकते हैं। परंंतु यदि मैं ही सही हूं, तो वह ग़लत है और वह सोच जीवन में बरक़रार रहती है; तो वह सोच अनमोल रिश्तों को दीमक की भांति चाट जाती है। सो! जीवन में मनचाहा बोलने के लिए अनचाहा सुनने की ताकत भी होनी चाहिए। रिश्ते बोल से नहीं, सोच से बनते हैं। अक्सर लोग सलाह देने में विश्वास रखते हैं; सहायता देने में नहीं। रिश्तों के वज़न को तोलने के लिए कोई तराजू नहीं होता। संकट के समय सहायता व परवाह बताती है, कि रिश्तों का पलड़ा कितना भारी है। इसलिए जो इंसान आपके शब्दों का मूल्य नहीं समझता; उसके समक्ष मौन रहना ही बेहतर है, क्योंकि क्रोध हवा का वह झोंका है, जो बुद्धि रूपी दीपक को तुरंत बुझा देता है।

आपके शब्दों द्वारा आपके व्यक्तित्व का परिचय मिल जाता है। इसलिए मानव को यथा-समय व यथा-परिस्थिति बोलने का संदेश दिया गया है, क्योंकि जब तक मानव मौन रहता है, उसकी मूर्खता उजागर नहीं होती। हम एक-दूसरे के बिना कुछ भी नहीं– यही रिश्तों की खूबसूरती है। वैसे भ्रम रिश्तों को बिखेरता है और प्रेम से बेग़ाने भी अपने बन जाते हैं। बदलता वक्त व बदलते लोग किसी के नहीं हुआ करते… ऐसे लोगों से बच कर अर्थात् सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे गिरगिट की भांति रंग बदलते हैं। वे विश्वास के क़ाबिल नहीं होते, क्योंकि वे पल-भर में तोला और पल-भर में माशा हो जाते हैं। वे रिश्तों में सेंध लगाने में माहिर होते हैं अर्थात् अपने बन, अपनों को छलते हैं। उनसे वफ़ा की उम्मीद रखना वाज़िब नहीं।

आइए! मन रूपी दीपक को जलाएं। अच्छे-बुरे व सच्चे-झूठे की पहचान कर, एक-दूसरे के प्रति विश्वास बनाए रखें। सुख-दु:ख में साथ निभाएं। दूसरों पर दोषारोपण करने से पूर्व अपनी अंतरात्मा में झांकें व आत्मविश्लेषण करें। दूसरों को कटघरे में खड़ा करने से पूर्व स्वयं को उस तराज़ू में रख कर तोलें तथा उन्हें पूर्ण अहमियत दें। सदैव मधुर वाणी में बोलें और कभी कटाक्ष न करें। ज़िंदगी दोबारा नहीं मिलती। इसलिए नीर-क्षीर-विवेकी बन ‘सबका मंगल होय’ की कामना करें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 434 ⇒ हमारा संसार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हमारा संसार।)

?अभी अभी # 434 ⇒ हमारा संसार? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ये दुनिया हमने नहीं बनाई, हमने जब जन्म लेकर जिस संसार को देखा, बस उसे ही अपना संसार मान लिया। अगर एक बच्चे से पूछा जाए, उसका संसार कित्ता, तो वह भोलेपन से अपने दोनों छोटे छोटे हाथ फैलाकर कह देगा इत्ता, क्योंकि उसने अभी तक उतना ही संसार देखा है।

हमने दुनिया देख ली, इसलिए हमारा संसार बहुत बड़ा हो गया। हमें फख्र है कि हम दीन दुनिया की खबर रखते हैं। जब कि सच यह है कि हमारी अपनी बनाई हुई दुनिया भी बहुत छोटी है। हमने अपने घर बार, रिश्तेदार, यार दोस्त और जमीन जायदाद को ही अपना संसार मान लिया है। जिस घर में रहते हैं, भले ही किराए का हो, उसे अपना घर कहते हैं, जिस मोहल्ले में रहते हैं, उसे अपना मोहल्ला कहते हैं, केवल कुछ लोगों से परिचय के बल पर पहले हमारा शहर, फिर प्रदेश और तत्पश्चात् देश की सीमाओं को लांघ पूरी दुनिया को अपनी मान बैठते हैं। अगर दुनिया में सब ठीकठाक तो ये जिन्दगी कितनी हसीन है और अगर कहीं पत्ता भी खड़का, तो ये दुनिया, ये महफिल मेरे काम की नहीं।।

ये दुनिया न मेरे बाप की, न तेरे बाप की, फिर भी इस दुनिया का कोई मालिक तो होगा। कोई इस भ्रम में है कि वो दुनिया पर राज कर रहा है, और कोई अपने बनाए संसार में ही खुश होकर यह स्वीकार कर रहा है, कि ऐ मालिक तेरे बंदे हम। यानी हम एक ऐसे अज्ञात मलिक के संसार में, किराए से रह रहे हैं, जिसे हम “सबका मालिक एक” मान बैठे हैं, लेकिन आपने कभी उसे देखा नहीं।

उस कथित मालिक ने आपको अपना कथित संसार ९९ साल की लीज पर दिया है, और वह भी बिना किसी लिखा पढ़ी के। आपके कायदे कानून वहां नहीं चलते। विधि का विधान होता है, संविधान नहीं। आप चाहो तो उसे शाहों का शाह कहो, अथवा तानाशाह, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह गुंडे नहीं यमदूत पालता है। गरीबी, मुफलिसी और बीमारी से डरा धमकाकर आपको रात दिन परेशान करता रहता है।।

इसी संसार में होते हैं कुछ पहलवान, जिन पर वह कुछ विशेष ही मेहरबान होता है। वे पहलवान अपने संचित पुण्य के बल पर इतराते रहते हैं, भोग योनी होते हुए भी राजयोग लिखवाकर लाते हैं। उन्हें भी ऐसा भ्रम हो जाता है, कि अब तो वे ही इस दुनिया के मालिक हैं, लेकिन ऊपर वाला कब किसकी लीज टर्मिनेट कर दे, इसलिए मन ही मन उस मालिक से डरते रहते हैं और मालिक को भेंट पूजा चढ़ाते रहते हैं।

इसीलिए शायद कबीर कह गए हैं ;

पानी केरा बुदबुदा

अस मानुस की जात।

एक दिना छुप जाएगा

ज्यों तारा परभात।।

शैलेंद्र भी तो आखिर यही फरमाते हैं ;

तुम्हारे महल चौबारे, यहीं रह जाएंगे सारे

अकड़ किस बात की प्यारे ये सर फिर भी झुकाना है..

सजन रे, झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है।

हमारा ही बनाया संसार जब लुट जाता है, तब कैसा लगता है।

हर स्थिति और परिस्थिति में बस यही पारंपरिक प्रार्थना सूझती है ;

ऐ मालिक तेरे बन्दे हम… ऐसे हों हमारे करम… नेकी पर चलें और बदी से डरें…

ताकि हँसते हुए निकले दम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 207 ☆ या अनुरागी चित्त की… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना या अनुरागी चित्त की। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 207 ☆ या अनुरागी चित्त की

भटकता हुआ मन कैसे, कब, कहाँ, किस ओर आकर्षित हो जाए ये कहा नहीं जा सकता। आँधी- तूफान की तरह विचारों का आना- जाना, सही गलत का भेद भुलाकर बस अपने लाभ की चिंता में सारा जीवन बिता देना। अंत समय में लेखा- जोखा की फाइल देखने पर सब कुछ शून्य बटे सन्नटा।

ऐसी स्थिति सभी की होती है, जीवन के हर पहलू को ध्यान से देखें तो समझ में आता है बिना मतलब इधर से उधर चहलकदमी करते हुए वक्त बिता दिया है। सारे परिणाम अपने अनुकूल कभी नहीं रहे, मजे की बात तो ये है कि जो कुछ मिला उसमें असंतुष्टि रही। भावना और संभावना के खेल में उलझते हुए कब समय बीत गया ये पता ही नहीं चला। पसंद और नापसंद के साथ जिसे रहना आ गया समझो वो विजेता की तरह लक्ष्य को साध ले जाएगा। क्या आपने महसूस किया कि परिणाम कभी आशानुरूप नहीं होते हैं, जब ऐसा लगता है कि बस मंजिल चार कदम की दूरी पर है तो अचानक से उम्मीद टूट जाती है। जो है जैसा है उसे बदलने से कहीं ज्यादा अच्छा ये होगा कि हम स्वयं के दृष्टिकोण को बदले, हर पल कुछ नया सीखते हुए समय का सदुपयोग करें। सकारात्मक चिंतन से सब कुछ संभव है।

जो लोग निरंतर अपने कार्यों में जुटे रहते हैं उन्हें देर- सबेर सही पर योग्यता से अधिक मिल जाता है इसीलिए सपनों का पीछा करते रहिए, अपने आपको उपयोगी बनाइए तभी सफलता मिलने पर आपको सच्चा आनन्द आएगा और शिखर पर लंबे समय तक टिक पायेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 294 ☆ आलेख – व्यंग्य शैली या विधा ? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 294 ☆

? आलेख – व्यंग्य शैली या विधा ? ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मुझे गर्व है कि मैने व्यंग्य को शैली से विधा बनते हुए देखा है. हरिशंकर परसाई को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने साहित्य में कबीर के समय से अभिव्यक्ति की एक लोकप्रिय विधा पर इतना गद्य रचा कि साहित्य जगत को व्यंग्य को विधा के रूप में स्वीकार करना पड़ा. मैं अपने स्कूली जीवन से वह सब निरंतर पढ़ता रहा, और इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह पाया तथा व्यंग्य लेखन करने लगा.

व्यंग्य को समाज सुधार का अचूक अस्त्र बताते हुए कहा जाता है कि ‘‘व्यंग्य साहित्यिक अजायब घर में लुप्त डॉयनासोर या टैरोडैक्टायल की पीली पुरानी हड्डियों का ढांचा नहीं बल्कि एक जीवंत विधा है जिसे बीसवीं सदी के साहित्य में अहम् भूमिका अदा करनी है. ’’ इसी संदर्भ में वक्रोक्ति संप्रदाय के आचार्य कुंतक ने वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा घोषित करते हुए ‘‘वक्रोक्ति जीवितम्’’ ग्रंथ का प्रणयन किया. आचार्य ने वक्रोक्ति को ‘‘वैदग्ध्य भंगी भणिति’’ अर्थात् कवि कर्म-कौशल से उत्पन्न वैचिर्त्यपूर्ण कथन के रूप में स्वीकार किया है, अर्थात् जो काव्य तत्व किसी कथन में लोकोत्तर चमत्कार उत्पन्न करे उसका नाम वक्रोक्ति है. सीधे-सीधे जहां पर वक्ता कुछ कहे और श्रोता लक्षित संदर्भ बिना कहे ही समझ ले, वह वक्रोक्ति होती है. वक्रोक्ति के मुख्य दो प्रकार हैं, प्रथम श्लेष वक्रोक्ति, दूसरी काकु वक्रोक्ति. श्लेष वक्रोक्ति में शब्द प्रवंचना है और काकु में कण्ठ प्रवंचना. इन्हीं तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि व्यंग्य एक ऐसी साहित्यिक विधा है जिसमें समाज में व्याप्त विसंगतियों, कमजोरियों, कथनी-करनी के अंतर एवं समाज में व्याप्त अंधविश्वास व कुरीतियों को कुरेद कर व्यंग्यकार उजागर करता है, तथा इसके लिए जिम्मेवार व्यक्ति का साहसपूर्वक विरोध करता है. सामाजिक संरचना के विकास में निरंतर अवरोधक तत्त्वों का पर्दा गिराता है. वर्तमान संदर्भ व परिस्थितियों में साहित्य में व्यंग्य की नितांत आवश्यकता और बुद्धि चातुर्य व भाषा कौशल के साथ व्यंग्य के  अनुप्रयोग की सार्थकता ही स्वयमेव व्यंग्य शास्त्र है, और जब व्यंग्य का शास्त्र है तो स्पष्ट है कि व्यंग्य शैली नहीं विधा है. आज भी व्यंग्य को शैली कहने की भूल इसलिए की जाती है क्योंकि व्यंग्य विधा इतनी सहज है कि उसके प्रयोग किसी भी विधा के भीतर छोटे छोटे टुकड़ों में रचनाकार करते हैं, जिससे कहानी, लेख, कविता, लघु कथाएं इत्यादि जिसमे भी व्यंग्य का अनुप्रयोग अंतर्निहित हो, वह रचना जीवंत बन जाती है.

अस्तु, व्यंग्य मात्र शैली नहीं एक सुस्थापित प्रभावी पूर्ण विधा है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 433 ⇒ स्टोव्ह… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्टोव्ह ।)

?अभी अभी # 433 ⇒ π स्टोव्ह π? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Stove

आज सुबह सुबह सपने में स्टोव्ह महाराज के दर्शन हो गए। स्टोव्ह को आप ना तो चूल्हा कह सकते हैं और ना ही सिगड़ी, और गैस स्टोव तो कतई नहीं, क्योंकि यह घासलेट यानी केरोसिन से जलता था। हो सकता है, किसी घर में आज यह मौजूद हो, लेकिन शायद चालू हालत में नहीं, क्योंकि आजकल जितनी आसानी से पेट्रोल उपलब्ध है, उतनी आसानी से घासलेट नहीं। वैसे घासलेट भी एक पेट्रोल प्रॉडक्ट ही है। पहले हर किराने की दुकान पर भी यह आसानी से उपलब्ध हो जाता था। राशन की दुकान पर गेहूं चावल के साथ घासलेट का भी कोटा था।

इसे चलाना बड़ा आसान था। बस इसकी पीतल की टंकी में पेट्रोल भर दो, और बत्ती लगाकर चार पांच पंप मार दो। पहले थोड़ा भभकेगा लेकिन फिर लाइन पर आ जाएगा। अगर फिर भी नखरे दिखाए, तो इसके मुंह में स्टोव की पिन से उंगली करते ही रास्ते पर आ जाएगा।।

जब घरों में रसोई गैस नहीं पहुंची थी, तब घर घर सिगड़ी और चूल्हे का ही बोलबाला था। सिगड़ी के लिए कोयले और चूल्हे के लिए लकड़ी। चूल्हा जहां होता था, वह चौका कहलाता था। चौका चूल्हा, रोज लीपा जाता था। नो स्टैंडिंग किचन। बैठकर ही खाना बनाओ, और तमीज से बैठकर ही खाना खाओ।

सिगड़ी थोड़ी सुविधाजनक थी, आसानी से मूव हो सकती थी, लेकिन कोयले बहुत खाती कभी लकड़ी के, तो कभी पत्थर के। बस इसी बीच घरों में मिस्टर स्टोव्ह का आगमन हो गया। यह आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता था और बेचारा खुद घासलेट पी पीकर आपको चाय के साथ पकौड़े भी तलकर देता था।।

मेरी नौकरी की कुंवारी गृहस्थी इस स्टोव्ह ने ही तो जमाई थी, जब मुझे पहली बार घर छोड़कर बाहर जाना पड़ा था। एक बोरे में आवश्यक सामान के साथ मिस्टर स्टोव्ह भी लद लिए थे। शहर से चार घंटे की दूरी पर रोजाना आना जाना संभव जो नहीं था।

चार घंटे जाने के और चार घंटे आने के। हां वीकेंड और छुट्टियों में आना जाना सुविधाजनक रहता था।

छोटे से कस्बे में एक अकेले व्यक्ति को एक कमरा तब बीस रुपए में मिला था, लेकिन वह सन् १९७२ था। बोरे का मुंह खोलते ही स्टोव्ह सहित मेरी गृहस्थी का सामान बाहर निकल आया। बहन और मां का यह सम्मिलित प्रयास था। सबसे पहले तवा, चकला बेलन और चिमटा, संडसी और साथ में कढ़ाई, तपेली, परात सहित थाली, कटोरी, चम्मच और ग्लास भी। बिस्तरों का एक होल्डाल साथ में। बाकी जुगाड़ इतना मुश्किल नहीं था।।

स्टोव्ह पर आप चाय, सब्जी तो बना सकते हैं, लेकिन रोटी नहीं सेक सकते। हां मजे से तिकोने परांठे अथवा कड़ाही में पूरी भजिए भी तल सकते हैं। लेकिन हमने मध्यम मार्ग रोटी का ही चुना। रोटी को तवे पर पहले एक ओर से सेंक लिया, फिर उसे पलटकर एक सूती कपड़े से आहिस्ता आहिस्ता गुदगुदा दिया और रोटी फूलकर कुप्पा हो जाती थी। गैस कुकर के अभाव में सब्जी के साथ कभी कभी खिचड़ी भी बन जाया करती थी।

वैसे हमारी यह कुंवारी गृहस्थी केवल कुछ वर्ष ही चली, क्योंकि हमारा तबादला वापस हमारे शहर ही हो गया। आज सुबह मिस्टर स्टोव्ह ने दर्शन देकर बीते दिनों की याद दिला दी। आज स्टोव्ह की तो छोड़िए, घर में एक बूंद घासलेट भी नसीब नहीं होता। बहुत बहुएं जलकर मरी हैं इस मुए घासलेट से। आज मुझे स्टोव्ह की ना सही, लेकिन एक बोतल केरोसिन की जरूरत है, उंगली कट गई, तो थोड़ा घासलेट डाल दिया, डेटॉल का काम करता है। लोहे की जंग हो अथवा खटमल कॉकरोच की जंग, सबमें कारगर। अब तो काला हिट, lizol और हार्पिक का ही जमाना है। घासलेट की बदबू कौन सहे।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वादा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  वादा ? ?

अपनी समस्याएँ लिए प्रतीक्षा करता रहा वह। उससे समाधान का वादा किया गया था। व्यवस्था में वादा अधिकांशतः वादा ही रह जाता है। अबकी बार उसने पहले के बजाय दूसरे के वादे पर भरोसा किया। प्रतीक्षा बनी रही। तीसरे, चौथे, पाँचवें, किसीका भी वादा अपवाद नहीं बना। वह प्रतीक्षा करता रहा, समस्या का कद बढ़ता गया।

आज उसने अपने आपसे वादा किया और खड़ा हो गया समस्या के सामने सीना तानकर।…समस्या हक्की-बक्की रह गई।..चित्र पलट गया। उसका कद निरंतर बढ़ता गया, समस्या लगातार बौनी होती गई।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 432 ⇒ छाता और बरसात… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “छाता और बरसात।)

?अभी अभी # 432 ⇒ छाता और बरसात? श्री प्रदीप शर्मा  ?

उधर आसमान को पता ही नहीं कि सावन आ गया है, लोग बेसब्री से बारिश का इंतजार कर रहे हैं और इधर एक हम हैं जो पंखे के नीचे बैठकर छाते की बात कर रहे हैं। याद आते हैं वे बरसात के दिन, जब उधर आसमान से रहमत बरसती थी और इधर हम बंदूक की जगह छाता तानकर उसका सामना करते थे। आज हमने सीख लिया, जब रहमत बरसे, तो कभी छाता मत तानो, बस रहमत की बारिशों में भीग जाओ।

जब हमारा सीना भी छप्पन सेंटीमीटर था, तब हम भी बरसती बारिश में सीना तानकर सड़क पर निकल जाते थे, क्योंकि तब घर में कोई नहीं था, जो हमारे लिए बिनती करता, नदी नारे ना जाओ श्याम पैंया पड़ूं। तबीयत से भीगकर आते थे, मां अथवा बहन टॉवेल लेकर हमारा इंतजार करती थी, कपड़े बदलो, और गर्मागर्म दूध पी लो।।

तब कहां आज की तरह सड़कों पर इतनी कारें और दुपहिया वाहन थे। इंसान बड़ी दूरी के लिए साइकिल और कम दूरी के लिए ग्यारह नंबर की बस से ही काम चला लेता था। शायद ही कोई ऐसा घर हो, जिसमें तब छाता ना हो। खूंटी पर टोपी, कुर्ते के साथ आम तौर पर एक छाता भी नजर आता था, काले रंग का। जी हां हमने तो पहले पहल काले रंग का ही छाता देखा था।

एक छाते में दो आसानी से समा जाते थे, और साथ में आगे छोटा बच्चा भी। उधर बच्चा बड़ा हुआ, उसके लिए भी एक बेबी अंब्रेला, यानी छोटा छाता।

अपने छाते से बारिश का सामना करना, तब हमारे लिए बच्चों का ही तो खेल था।

छाता भी क्या चीज है, खुलते ही छा जाता है, हमारे और बरसात के बीच, और छाते से छतरी बन जाता है। एक थे गिरधारी, जिन्होंने अपनी उंगली पर इंद्रदेव को नचा दिया था, छाते की जगह पर्वत ही उठा लिया था।

कलयुग में गलियन में गिरधारी ना सही, छाताधारी ही सही।।

समय के साथ, साइकिल की तरह छाते भी लेडीज और जेंट्स होने लग गए।

रंगबिरंगे फैशनेबल छाते, जापानी गुड़िया और मैं हूं पेरिस की हसीना ब्रांड छाते। हमें अच्छी तरह याद है, छातों में ताड़ी होती थी, जिससे बटन दबाते ही छाता तन जाता था और काले मोट कपड़े पर शायद धन्टास्क लिखा रहता था।

छाता कभी आम आदमी का उपयोग साधन था। कामकाजी संभ्रांत पुरुष डकबैक की बरसाती, हेट और गमबूट पहना करते थे, जेम्स बॉन्ड टाइप। कामकाजी महिलाओं के लिए भी लेडीज रेनकोट उपलब्ध होते थे। हर स्कूल जाने वाले बच्चे के पास बारिश के दिनों में बरसाती भी होती थी।।

समाज में एक तबका ऐसा भी है, जो पन्नी(पॉलिथीन) ओढ़कर ही बारिश का सामना कर लेता है। हमने कई बूढ़ी औरतों को गेहूं की खाली बोरी ओढ़कर जाते देखा है।

आज भी छाते की उपयोगिता कम नहीं हुई है। जो पैदल चलते हैं, उनकी यह जरूरत है। जो कार में चलते हैं, उन्हें भी बरसते पानी में, कार में बैठते वक्त और उतरते वक्त छाते का सहारा लेना ही पड़ता है।।

क्या विडंबना है, नीली छतरी वाले और हमारे बीच भी एक छतरी। रहमत बरसा, लेकिन छप्पर तो मत फाड़। कुंए, नदी, तालाब, पोखर, लबालब भरे रहें, लेकिन हमारे सब्र के बांध की परीक्षा तो मत ले। अब तो हमें तेरी तारीफ के लिए बांधे पुलों पर भी भरोसा नहीं रहा, बहुत झूठी तारीफ की हमने तेरी अपने स्वार्थ और खुदगर्जी की खातिर। हमें माफ कर।।

छाते का एक मनोविज्ञान है, एक छाते में दो प्रेमी बड़ी आसानी से समा जाते हैं।

प्रेम भाई बहन का भी हो सकता है और पति पत्नी का भी। साथ में भीगना भी, और भीगने से बचना भी, तब ही तो प्रेम छाता है। किसी अनजान व्यक्ति को भीगते देख उसे अपनी छतरी में जगह भी वही देगा, जिसके दिल में जगह होगी। हर इंसान तो नेमप्लेट लगाकर नहीं घूम सकता न ;

तेरा साथ रहा बारिशों में छाते की तरह,

भीग तो पूरा गए, पर हौंसला बना रहा।

(अनूप शुक्ल से साभार)

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 431 ⇒ चिन्तामणि… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चिन्तामणि।)

?अभी अभी # 430 ⇒ चिन्तामणि? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सरकारी स्कूल में पढ़ने का एक लाभ यह भी हुआ कि सभी प्रमुख हिंदी लेखकों से परिचय हो गया। प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, महादेवी और हजारीप्रसाद द्विवेदी। सुमित्रानंदन पंत को व्यक्तित्व के आधार पर महिला समझने की भूल हम भी कर बैठे थे। लेकिन सबसे अधिक हमें जिसने प्रभावित किया, वे थे, आचार्य रामचंद्र शुक्ल।

हिंदी साहित्य का इतिहास तो हमने बाद में पढ़ा, लेकिन मनोभाव और विकारों पर चिंतामणि में संकलित उनके निबंधों ने हमें अधिक प्रभावित किया। हमने अंग्रेजी निबंधकार फ्रांसिस बेकन को भी पढ़ा, लेकिन उनमें वह बात नहीं थी, जो चिंतामणि में हमने पाई। । दूसरा हमारा उनकी ओर झुकाव उनके व्यक्तित्व के कारण था, विदेशी पहनावा, गले में टाई, घनी विशिष्ट प्रकार की मूंछ और आंखों पर मोटा चश्मा। ।

तब से आज तक, उनकी शायद एक ही तस्वीर उपलब्ध है। हमारी उनकी केवल एक ही समानता रही है, मैं भी बचपन से ही उनकी तरह मोटा चश्मा लगाता आ रहा हूं। उनका मोटा चश्मा जहां उनके ज्ञान के आगार, तीक्ष्ण बुद्धि और विद्वत्ता का प्रतीक है, वहीं मेरा मोटा चश्मा मेरी मोटी बुद्धि का प्रतीक। हाथ कंगन को आरसी क्या, आप एक तरफ चिंतामणि रख दीजिए और दूसरी ओर अभी अभी। अंतर स्पष्ट हो जाएगा।

मनोभाव हमारे विचारों का ही तो प्रकटीकरण है। अगर चित्त शुद्ध है तो विचार भी शुद्ध ही होंगे और अगर चित्त विकार युक्त है तो वे विचार मनोविकार कहलाएंगे।

चिंता और चिंतन से भी बेहतर एक मार्ग स्वाध्याय का है, जहां चिंतन, मनन, के साथ अध्यात्म चिंतन भी संभव है। चिंतामणि है तो हमारे अंदर ही, उसे बाहर नहीं खोजा जा सकता ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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