(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – रंगोत्सव
होली अर्थात विभिन्न रंगों का साथ आना। साथ आना, एकात्म होना। रंग लगाना अर्थात अपने रंग या अपनी सोच अथवा विचार में किसी को रँगना। विभिन्न रंगों से रँगा व्यक्ति जानता है कि उसका विचार ही अंतिम नहीं है। रंग लगानेवाला स्वयं भी सामासिकता और एकात्मता के रंग में रँगता चला जाता है। रँगना भी ऐसा कि रँगा सियार भी हृदय परिवर्तन के लिए विवश हो जाए। अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,
सारे विरोध उनके तिरोहित हुए,
भाव मेरे मन के पुरोहित हुए,
मतभेदों की समिधा,
संवाद के यज्ञ में,
सद्भाव के घृत से,
सत्य के पावक में होम हुई,
आर-पार अब
एक ही परिदृश्य बसता है,
मेरे मन के भावों का
उनके ह्रदय में,
उनके विचार का
मेरे मानसपटल पर
प्रतिबिंब दिखता है…!
होली या फाग हमारी सामासिकता का इंद्रधनुषी प्रतीक है। यही कारण है कि होली क्षमापना का भी पर्व है। क्षमापना अर्थात वर्षभर की ईर्ष्या मत्सर, शत्रुता को भूलकर सहयोग- समन्वय का नया पर्व आरंभ करना।
जाने-अनजाने विगत वर्षभर में किसी कृत्य से किसी का मन दुखा हो तो हृदय से क्षमायाचना। आइए, शेष जीवन में हिल-मिलकर अशेष रंगों का आनंद उठाएँ, होली मनाएँ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री शिव महापुराण का पारायण सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “फागुन मास सुहावन लागे…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
रंगों की बौछार में भींगते हुए लोग सकारात्मकता के साथ श्यामल हो जाना चाहते हैं। बरसाना, नंद गाँव, वृंदावन की बात ही क्या, यहाँ फगुआ गाते हुए भक्त लठ्ठमार होली का आनन्द भी उठाते हैं। रंगभरी ग्यारस से जो गुलाल उड़ना शुरू होता है, वो रंग पंचमी पर जाकर पूर्ण होता है …
ग्वालवाले झूम जाते, मास फागुन रंग में।
कृष्ण राधामय हुए अब, होलिका हुड़दंग में।।
धड़कनों को थाम रखते, ले गुलालन हाथ में।
रूप वृन्दावन सुहावन, गोप ग्वाले साथ में।।
संस्कारों को जीवित रखने का प्रबल माध्यम हमारे त्यौहार होते हैं जो न केवल मिलजुलकर रहना सिखाते वरन एक दूसरे का सम्मान, बड़ों का आदर, छोटों को स्नेह करना सिखाते हैं। प्राकृतिक रंगों के साथ जुड़कर अपने घरों में हरी धनिया, बथुआ,पालक, चुकंदर, गाजर, टेसू के फूल के द्वारा रंग बनाइए और उससे खेलें। आजकल तो व्यवस्थित कालोनियों में एक साथ मिलकर ,तय समय में ऐसे ही रंगो का प्रयोग हो रहा है। घर के बनें पकवान विशेषकर गुझिया, दही बड़ा, काँजी बड़ा, शक्कर पारा, सलोनी , पापड़ी, खाजा व कचौड़ियों का स्वाद इसमें चार चाँद लगा देता है।
आप सभी को होलिकोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ। रंगोत्सव में सारे भेदभाव मिटाकर एक दूसरे के अपना बनाइए तभी सच्चे मायनों में वसुधैव कुटुंबकम सार्थक होगा।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – “मुगल भारत में इसलिए स्थाई हुए क्योंकि उन्होंने भारतीय पर्वों की परवाह की…” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 341 ☆
आलेख – मुगल भारत में इसलिए स्थाई हुए क्योंकि उन्होंने भारतीय पर्वों की परवाह की… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
विवेक रंजन श्रीवास्तव
भोपाल
होली रंगों का त्योहार है। रंग खुशी के प्रतीक होते हैं। दुखद है कि आज गंगा जमनी तहजीब की बात तो होती है पर जो लोग अपने हित साधन के लिए यह बात करते हैं वे ही उस पर अमल नहीं करते। इतिहास के पन्नों में देखें तो भारत में मुसलमान केवल इसलिए यहां के निवासी बन सके क्योंकि उन्होंने हिंदुस्तान की संस्कृति को अपनाया । मुगल बादशाहों के समय में होली के त्योहार का खूब जिक्र मिलता है। इतिहास के जानकार बताते हैं कि मुगल शासन में बादशाहों को रंग से कोई परहेज नहीं था । मुगल शासन काल में मवेशी के सींगो के खोल में रंग भरकर पिचकारी के रूप में इस्तेमाल कर रंग फेंका जाता था। बादशाह जहांगीर के समय में बांस की पिचकारी बनाकर उसमें रंग भरकर वह अपने महल के दरबारी और राज्यों के साथ होली खेलते थे। यह उल्लेख साहित्य में वर्णित है। बादशाह मोहम्मद शाह के होली खेलने का जिक्र इतिहास में दर्ज है। जहांगीर काल में जहांगीर द्वारा होली खेलने की कई पेंटिंग्स आज भी मौजूद हैं। प्लास्टिक का आविष्कार मुगल शासन काल में तो नहीं हुआ था। तब बांस की पिचकारी बनाकर , या धातु की पिचकारी का उपयोग किया जाता था। ग़ुलाल और वनस्पतियों, खास कर टेसू के फूलों के रंगों को पानी में घोलकर पिचकारी में भरा जाता था। जिससे होली खेली जाती थी। यह प्रथा भारत की संस्कृति का हिस्सा है।आज भी कई ऐसे मुस्लिम परिवार हैं जो होली का त्योहार गर्व से खेलते हैं। होली को ईद e गुलाबी कहा जाता था । अकबर का जोधाबाई के साथ और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन है. पत्थर के बड़े हौद में रंग बनाया जाता था। अतः आज रंग का विरोध परम्परा या सांस्कृतिक न होकर राजनैतिक अधिक दिखता है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय एवं ज्ञानवर्धक आलेख – “हाइकु में व्यक्त भावों की अभिव्यक्ति के मूल स्वर”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 204 ☆
☆ आलेख – हाइकु में व्यक्त भावों की अभिव्यक्ति के मूल स्वर☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
हाइकु जापानी काव्य की एक संक्षिप्त किंतु प्रभावशाली विधा है, जो प्रकृति, मानवीय भावनाओं और जीवन के क्षणिक अनुभवों को 5-7-5 की वर्ण-संरचना में समेटती है। भारतीय साहित्य में हिंदी हाइकु ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है, जहाँ यह जापानी शैली से प्रेरित होकर भी भारतीय संस्कृति, संवेदनाओं और जीवन के रंगों से सरोबार है। प्रस्तुत संग्रह में विभिन्न हाइकुकारों ने अपनी रचनात्मकता और भावनात्मक गहराई से जीवन के विविध आयामों को उकेरा है। यहां हम इन सभी हाइकुओं की समीक्षा करते हुए, इनके भाव, शिल्प और संदेश को प्रस्तुत करेंगे।
हमने हाइकु का समीक्षात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कोशिश की है कि इसमें प्रत्येक हाइकु को शामिल किया जाए। इसमें हाइकु की संक्षिप्तता और गहनता को ध्यान में रखते हुए, इनके भाव, शिल्प और संदेश को संतुलित रूप से विश्लेषित किया गया है। यह समीक्षा प्रेम, प्रकृति, जीवन, दर्शन, और सामाजिक संदर्भों के विविध पहलुओं को उजागर करती है।
~ प्रेम और व्यक्तिगत संवेदना
अनिता वर्मा ‘अन्नु’: ‘दिल में बसी/ अब होती हैं बातें/ यादों से तेरी।‘
यह हाइकु प्रेम की स्मृति और उसकी शाश्वतता को दर्शाता है। प्रिय की अनुपस्थिति में यादें संवाद का आधार बनती हैं, जो एक मार्मिक उदासी को व्यक्त करता है।
अनुपमा प्रधान: ‘वो मेरा प्यार/ न बन पाया मेरा/ रूठी किस्मत।‘
प्रेम की असफलता और भाग्य की विडंबना यहाँ प्रमुख है। “रूठी किस्मत” एक सशक्त प्रतीक है जो मानव की असहायता को रेखांकित करता है।
उषा पाण्डेय ‘कनक‘: ‘आँखों ने रोपे/ बीज, प्रेम भाव के/ दिल मुस्काये।‘
प्रेम की उत्पत्ति और उसका विकास इस हाइकु में बीज और मुस्कान के रूपक से सुंदरता से चित्रित हुआ है। यह प्रेम की सकारात्मक शक्ति को दर्शाता है।
निशा नंदिनी भारतीय: ‘तुम्हीं रोशनी/ तुमसे है जीवन/ हो अर्धांगिनी।‘
यह हाइकु दांपत्य प्रेम और जीवनसाथी के महत्व को उजागर करता है। “रोशनी” और “अर्धांगिनी” भारतीय संस्कृति में नारी की केंद्रीय भूमिका को प्रतिबिंबित करते हैं।
तपेश भौमिक: ‘तन्हाई पर/ याद आई उसकी/ वो हरजाई!‘
एकाकीपन में प्रेम की स्मृति और विश्वासघात का दर्द इस हाइकु में स्पष्ट है। “हरजाई” शब्द भावनात्मक तीव्रता को बढ़ाता है।
~ प्रकृति और ऋतु चित्रण
आशा पांडेय: ‘जाड़े की रात/ गुलजार अलाव/ कहानी झरे।‘
सर्द रात में अलाव की गर्माहट और कहानियों का प्रवाह इस हाइकु में ग्रामीण जीवन की सादगी को जीवंत करता है। “कहानी झरे” एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति है।
आशीष कुमार मीणा: ‘नाच उठा है/ देखो मन मयूर/ भीग वर्षा में।‘
वर्षा में मन का आनंद और स्वतंत्रता का चित्रण इस हाइकु की विशेषता है। “मन मयूर” एक सुंदर रूपक है जो प्रकृति और भाव का संनाद दर्शाता है।
जीवन की जटिलता और उससे मुक्ति की असंभवता यहाँ व्यक्त हुई है। यह एक रोचक रूपक है।
राजपाल सिंह गुलिया: ‘पेड़ रो रहे/ धुआँ पीकर ही ये/ बड़े हो रहे।‘
प्रदूषण और पर्यावरण की पीड़ा का यह हाइकु मार्मिक है। “पेड़ रो रहे” संवेदनशील चित्रण है।
लाडो कटारिया: ‘एहतियात/ है कोरोना अभी भी/ चौकस रहें।‘
महामारी के प्रति सतर्कता का यह हाइकु समकालीन संदर्भ में प्रासंगिक है।
विभा रानी श्रीवास्तव: ‘पक्षी का गीत―/ वोमेरेहोंठोपर/ ऊँगलीरखे।‘
प्रकृति और मौन का यह हाइकु सूक्ष्म संवेदना को व्यक्त करता है।
विमला नागला: ‘उर मूरत/ सांवली है सूरत/ कष्ट हरता।‘
प्रिय या ईश्वर की छवि और उसकी कृपा यहाँ व्यक्त हुई है।
शेख़ शहज़ाद उस्मानी: ‘सुस्वागतम/ आइये व जाइये/ रोका किसने?’
जीवन की स्वतंत्रता और उसकी क्षणभंगुरता का यह हाइकु हल्के व्यंग्य के साथ प्रस्तुत हुआ है।
डा. सरोज गुप्ता: ‘आज मौसम/ बड़ा खुशगवार/ हो जाए मस्ती।‘
मौसम की खुशी और जीवन का आनंद यहाँ सरलता से व्यक्त हुआ है।
~ निष्कर्ष
यह हाइकु संग्रह हिंदी साहित्य में हाइकु की व्यापकता और गहराई को प्रदर्शित करता है। प्रेम, प्रकृति, परिवार, दर्शन, और सामाजिकता के विविध रंग इन रचनाओं में संक्षिप्त किंतु प्रभावशाली ढंग से उभरे हैं। प्रत्येक हाइकु अपने आप में एक संपूर्ण भाव-चित्र है, जो पाठक को सोचने और अनुभव करने के लिए प्रेरित करता है। ये रचनाएँ हाइकु की उस शक्ति को प्रमाणित करती हैं, जो कम शब्दों में गहन अर्थ समेट लेती है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आए गए का घर…“।)
अभी अभी # 626 ⇒ आए गए का घर श्री प्रदीप शर्मा
किसी भी घर की रौनक ही इसी में है, कि वहां मिलने जुलने वाले और रिश्तेदारों का आना जाना बना रहे। किसी घर की घंटी बजना, अथवा घर के सामने जूते चप्पलों का ढेर यह दर्शाता है कि इस घर में काफी चहल पहल है।
वैसे भी घर में खामोशी किसे पसंद है, दीवारें तक कान लगाए सुनती रहती हैं, जिस घर में हमेशा महफिल जमी रहती है।
ऐसे घर को हमारी मां, आए गए का घर कहती थी। जब तक हमारे घर में मां और पिताजी मौजूद रहे, ना तो घर कभी खाली अथवा खामोश रहा और ना ही घर में कभी ताला लगा। ।
तब कहां घरों में फोन अथवा मोबाइल थे। कभी कभी तो चिट्ठी के आने के पहले ही मेहमान टपक पड़ते थे लेकिन अधिकतर अतिथि शब्द का मान रखते हुए समय और तारीख बताए बिना ही पधार जाते थे।
पिताजी रात को जब घर आते तो भोजन के वक्त, कोई ना कोई परिचित अवश्य उनके साथ होता। बहन स्कूल से घर आती, तो एक दो सहेलियों को साथ लेकर आती। तब ना तो इतनी मोहल्लों में दूरी थी और ना ही दिलों में। तब शायद सबको प्यास भी बहुत लगती थी, वॉटर बॉटल का तब शायद आविष्कार ही नहीं हुआ था। ।
हर तरह की परिस्थिति से घर में तब मां को ही जूझना पड़ता था। अनाज, मसाले और दाल चावल का साल भर का संग्रह जरूरी होता था। मौसम के हिसाब से घरों में एक्सट्रा बिस्तर और रजाई गद्दों की भी व्यवस्था करनी पड़ती थी। टेंट हाउस की याद तो बस शादी ब्याह के वक्त ही आती थी। किराने और दूध का हिसाब महीने में एक बार करना पड़ता था।
इस तरह की सभी युद्ध स्तर की तैयारियों से सुसज्जित घर ही आए गए का घर कहलाता था। मेहमानों की पसंद का भी पूरा खयाल रखा जाता था। फूफा जी को चावल में घी और शक्कर प्रचुर मात्रा में लगता था और वे पूड़ी ही पसंद करते थे, रोटी नहीं। ।
लेकिन यह सब कल की बात है। आज तो मेहमानों के लिए नाश्ता भी बाहर से ही आता है और भोजन भी बाहर होटल में ही किया जाता है। फोन और मोबाइल की सुविधा के बावजूद ना किसी को आने की फुर्सत है और ना ही किसी को बुलाने की।
परिवार छोटे होते जा रहे हैं, घर बड़े होते जा रहे हैं।
छोटे घर में तब कितने सदस्य समा जाते थे, आज आश्चर्य होता है। तब कहां किसी का अटैच बेडरूम और बाथरूम था। घर की महिलाएं अपने कपड़े ताक में रखती थी। आज घरों में सोफ़ा, अलमारी, अपनी अपनी वॉर्डरोब और मॉड्यूलर किचन है, बस खाने वाला कोई नहीं है। ।
हंसी आती है, जब धर्मपत्नी पुराने बर्तनों और एक्सट्रा बिस्तरों को आज भी सहेजकर रखती है। वह कहती है, आप नहीं समझते, आए गए के घर में घर घृहस्थी का सभी सामान जरूरी होता है।
बड़ी भोली और घरेलू टाइप की गृहिणी है वह।
अनायास कोई मेहमान आता है तो उसकी बांछें खिल जाती हैं। घर में दावत हो जाती है। लेकिन ऐसे अवसर आजकल कम ही आते हैं। लगता है अपने परिचित कहीं बहुत दूर चले गए हैं, यह दूरी दिलों की है अथवा मजबूरी की, समझ नहीं पाते। कोई आए, जाए, कितना अच्छा लगता है। ।
होते हैं कुछ ऐसे खामोश घर, जहां कोई ज्यादा आता जाता नहीं। किसी आहट पर उम्मीद सी बंधती है लेकिन फिर खयाल आता है ;
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – चिर जन्मा..!
-कल दिन बहुत खराब बीता।
-क्यों?
-पास में एक मृत्यु हो गई थी। जल्दी सुबह वहाँ चला गया। बाद में पूरे दिन कोई काम ठीक से बना ही नहीं।
-कैसे बनता, सुबह-सुबह मृतक का चेहरा देखना अशुभ होता है।
विशेषकर अंतिम वाक्य इस अंदाज़ में कहा गया था मानो कहने वाले ने अमरपट्टा ले रखा हो।
इस वाक्य को शुभाशुभ का सूत्र न बनाते हुए विचार करो। हर सुबह दर्पण में किसे निहारते हो? स्वयं को ही न!…कितने जन्मों की, जन्म- जन्मांतरों की यात्रा के बाद यहाँ पहुँचे हो…हर जन्म का विराम कैसे हुआ..मृत्यु से ही न!
रोज चिर मृतक का चेहरा देखते हो! इसका दूसरा पहलू है कि रोज मर कर जी उठने वाले का चेहरा देखते हो। चिर मृतक या चिर जन्मा, निर्णय तुम्हें करना है।
स्मरण रहे, चेहरे देखने से नहीं, भीतर से जीने और मरने से टिकता और दिखता है जीवन। जिजीविषा और कर्मठता मिलकर साँसों में फूँकते हैं जीवन।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री शिव महापुराण का पारायण सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हम सब चोर हैं !…“।)
अभी अभी # 625 ⇒ हम सब चोर हैं ! श्री प्रदीप शर्मा
साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है ! तो फिर हमारी फिल्में किसका आईना हैं ? यथार्थ और आदर्श का मिला-जुला स्वरूप ही शायद हमारी फिल्में हैं।
हमारे शोमैन राजकपूर ही को देख लीजिए ! आवारा, श्री 420 और मेरा नाम जोकर जैसी फिल्मों के नाम क्या किसी आदर्श नायक की पसंद हो सकते हैं। इनके भाई शम्मीकपूर भी कम नहीं ! जंगली, जानवर और बदतमीज़। लोफर, चालबाज, लुटेरा, समुद्री डाकू, बनारसी ठग और शरीफ बदमाशों से फिल्मी दुनिया भरी पड़ी है। ।
यूँ तो हर इंसान के मन में चोर होता है, लेकिन दिल को चुराना चोरी नहीं कहलाता। अली बाबा चालीस चोर की कहानी किसी पंचतंत्र की कहानी से कम नहीं!
चोरी-चोरी, चोरी मेरा काम, चित चोर, चोर मचाये शोर और हम सब चोर हैं जैसी फिल्में कितनी आदर्श फिल्में होंगी। एक फ़िल्म आई थी, कामचोर ! लीजिए, अब काम की भी चोरी होने लग गई। अब ऊपर वाला कहाँ कहाँ नज़र रखे।
चोरी की आदत बचपन से ही लग जाती है। माखन चोर, माखन ही नहीं चुराते, सभी गोप-गोपियों, ग्वाल-बाल और पूरे गोकुल-वृंदावन का मन भी चुरा लेते हैं।
हमारा सभ्य समाज चोरी को बुरा मानता है, और चोर को गिरी हुई नजर से देखता है। चोर का भाई गिरहकट होता है। चोर अक्सर रात में चोरी करता है, और गिरहकट दिन-दहाड़े किसी की जेब काट लेता है। कोई भी चोरी से किया काम चोरी नहीं कहलाता। बिना हेरा-फेरी के चोरी नहीं होती। ।
चोर-सिपाही की जोड़ी अलिफ-लैला और हीर-रांझा से भी अधिक प्रसिद्ध है। यहाँ तो हथकड़ी का बंधन भी है, लॉकअप भी है और जेल की हवा भी है।
हममें से कोई छोटा चोर है, तो कोई बड़ा चोर ! दिल के अलावा रात की नींद भी चुराने वाले होते हैं। मेरी आँखों में बस गया कोई रे। हाय मैं क्या करूँ ! फिर कुछ चैन चुराने वाले भी होते हैं। नैन मिलाकर, चैन चुराना किसका है, ये काम ? सड़क पर चलती महिलाओं के गले से चेन चुराने वाले अपराधी की श्रेणी में आते हैं। ।
एक बहुत पुराना फिल्मी गीत है :
चोरी चोरी आग सी दिल में लगा के चल दिये।
हम तड़फते रह गए, वो मुस्कुरा के चल दिये। ।
बताइये ! कौन सी धारा में अपराध है ये ? किसी का हक मारना, अपनी मेहनत से अधिक राशि गलत तरीके से हथियाना, चोरी और गबन करने से कम नहीं ! तेरी गठरी में लागा चोर मुसाफ़िर जाग ज़रा ! केवल ज़मीन पर कथित चौकीदार के चुनावी डंडा बजाने, और कानून से बचने से कुछ नहीं होगा। आसमान में भी एक चित्रगुप्त, गुप्त कैमरे से आप पर नज़र रख रहा है। रिश्वत लेने देने, और बेईमानी की पाई पाई का हिसाब उसके बही-खाते में दर्ज है। हमें भी जागना होगा। हमारे मन में जो लालच और झूठ का चोर है, उसे भी पहचानना होगा।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चिर परिचित…“।)
अभी अभी # 624 ⇒ चिर परिचित श्री प्रदीप शर्मा
हमारे आसपास कई ऐसे जाने पहचाने चेहरे होते हैं, जिन्हें हम बरसों से जानते हैं, वे आपके मित्र भी हो सकते हैं, पड़ोसी भी और रिश्तेदार भी। उनमें खूबियां भी हो सकती हैं और खामियां भी।
कोई कितना भी पास हो, फिर भी जरूरी नहीं, वह आपके दिल के करीब हो, और कुछ दूर रहते हुए भी दिल के बड़े करीब लगते हैं। मेरे यह जाने पहचाने मित्र जितने मेरे करीब आते जाते हैं, मैं मानसिक रूप से उतना ही उनसे दूर होता चला जाता हूं। हमारे बीच परिचय की एक औपचारिक दीवार है, जो हमें जोड़े भी रखती है और अपने आप में स्वतंत्र भी।।
इसका सबसे बड़ा कारण है, उनका समय बेसमय अपना आपा खोना। व्यक्तिगत रूप से शायद उन्हें कुछ ऐसे मानसिक आघात लगे हैं, जिनके कारण उनका स्वभाव चिड़चिड़ा और उग्र हो चला है। समय के पाबंद, उसूलों के पक्के वे कभी कोई गलत काम नहीं करते।
उनका सबसे बड़ा गुण है कि वे कभी गलत हो ही नहीं सकते।
उनके इसी गुण के कारण उनकी लोगों से भिड़ंत हुआ करती है। लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं, वे इसकी फिक्र कभी नहीं करते। कभी कभी उनके इसी गुण के कारण बात बिगड़ भी जाती है।।
फिलहाल वे मेरे परिचित और करीबी हैं और मैं सप्ताह में एक बार उनका मेरा नियमित साथ होता है, जब वे स्कूटर पर होते हैं और मैं उनकी पिछली सीट पर विराजमान होता हूं।
कल ही हम साथ साथ स्कूटर पर जा रहे थे, कि अचानक उनको याद आया, उन्हें पेट्रोल भराना है। उनके परिचित पेट्रोल पंप पर कतारबद्ध होकर, अपना नंबर आने पर, पंप वाले कर्मचारी ने अपने अंदाज में इनसे पूछा कित्ता ? इन्होंने खीजकर जवाब दिया फुल टंकी, और उसी लपेट में पंप वाले को डांट भी दिया, तमीज से बात कर।
चिल्लाकर बोले, तुझे ग्राहक से बात करने की तमीज नहीं है, बुलाओ तुम्हारे मालिक को।
मामला बिगड़ते देख और भीड़ बढ़ते देख, काउंटर से एक कर्मचारी उठकर आया और पूछा क्या हो गया। उसे बताया गया, तुम्हारे आदमी का व्यवहार ठीक नहीं है, उसे बात करने की तमीज नहीं है। पेट्रोल भरने वाला कर्मचारी सकपकाया, उसने मेरी ओर इशारा कर बोला, बाबू जी से ही पूछ लीजिए। लेकिन हमारे मित्र ने उसे झिड़क दिया, इन्हें बीच में मत लाओ। काउंटर वाले कर्मचारी से पूछा, तुम कौन हो, बुलाओ तुम्हारे सेठ को। उसने जवाब दिया, मैं भी यहां नौकर ही हूं और सेठ जी शाम को आते हैं।।
उसने पेट्रोल भरने वाले कर्मचारी को समझाया, ठीक से बात किया करो। चलो पेट्रोल भरो साहब की गाड़ी में।
हमारे मित्र का पारा अभी भी शांत नहीं हुआ था। बोल देना तुम्हारे सेठ जी को और तमीज सिखाओ तुम्हारे आदमी को। तुम्हारे सेठ जी के पिताजी हमारे दोस्त हैं। गाड़ी में पेट्रोल भरता रहा, बाद में उन्होंने ऑनलाइन पेमेंट किया और खेल खतम पैसा हजम।
मेरे परिचित मित्र को ऐसे कहीं भी, किसी से भिड़ने में बड़ा मजा आता है, क्योंकि उनके हिसाब से, वे हमेशा सही होते हैं। शहर के सभी गुंडे बदमाश और सेलिब्रिटीज कभी उनके ही मोहल्ले में रहे हैं। आज के कई नेता और मंत्री उनके हिसाब से उनके पांव छूते हैं। अब ऐसे इंसान से क्या सहमत होना और क्या असहमत होना। बस एक ओढ़ी हुई शालीन औपचारिकता के तले ही हमारी मित्रता कायम है और फल फूल रही है। हम भी समझदार हैं, कभी ऐसे रिश्तों में छेड़छाड़ नहीं करते।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 280 ☆ छत्रछाया…
प्रातः भ्रमण के बाद पार्क में कुछ देर व्यायाम करने के लिए बैठा। व्यायाम के एक चरण में दृष्टि आकाश की ओर उठाई। जिन पेड़ों के तनों के पास बैठकर व्यायाम करता हूँ, उनकी ऊँचाई देखकर आँखें फटी की फटी रह गईं। लगभग 70 से 80 फीट ऊँचे, विशाल पेड़ एवम उनकी घनी छाया। हल्की-सी ठंड और शांत वातावरण, विचार के लिए पोषक बने। सोचा, माता-पिता भी पेड़ की तरह ही होते हैं न! हम उन्हें उतना ही देख-समझ पाते हैं जितना पेड़ के तने को। तना प्रायः हमें ठूँठ-सा ही लगता है। अनुभूत होती इस छाया को समझने के लिए आँखें फैलाकर ऊँचे, बहुत ऊँचे देखना होता है। हमें छत्रछाया देने के लिए निरंतर सूरज की ओर बढ़ते और धूप को ललकारते पत्तों का अखण्ड संघर्ष समझना होता है। दुर्भाग्य यह कि अधिकांश मामलों में छाया समाप्त हो जाने पर ही समझ आता है, माँ-बाप का साया सिर पर होने का महत्व ! …
अँग्रेज़ी की एक लघुकथा इसी सार्वकालिक सार्वभौम दर्शन का शब्दांकन है। छह वर्ष का लड़का सामान्यत: कहता है, ‘माई फादर इज़ ग्रेट।’ बारह वर्ष की आयु में आते-आते उसे अपने पिता के स्वभाव में ख़ामियाँ दिखने लगती हैं। उसे लगता है कि उसके पिता का व्यवहार विचित्र है। कभी बेटे की आवश्यकताएँ पूरी करता है, कभी नहीं। किशोर अवस्था में उसे अपने पिता में एक गुस्सैल पुरुष दिखाई देने लगता है। युवा होने पर सोचता है कि मैं अपने बच्चों को दुनिया से अलग, कुछ हटकर-सी परवरिश दूँगा।…फिर उसकी शादी होती है। जीवन को देखने की दृष्टि बदलने लगती है। वह पिता बनता है। पिता होने के बाद अपने पिता का दृष्टिकोण उसे समझ आने लगता है। दस-बारह साल के बच्चे की हर मांग पूरी करते हुए भी कुछ छूट ही जाती हैं। यह विचार भी होता है कि यदि जो मांगा, उपलब्ध करा दिया गया तो बच्चा ज़िद्दी और खर्चीले स्वभाव का हो जायेगा। बढ़ते खर्च के साथ वह विचार करने लगता है कि उसके पिता सीमित कमाई में सारे भाई-बहनों की पढ़ाई का खर्च कैसे उठाते थे! उधर उसका बेटा/ बेटी भी उसे लगभग उसी तरह देखते-समझते हैं, जैसे उसने अपने पिता को देखा था। आगे चलकर युवा बेटे से अनेक बार अवांछित टकराव होता है। फिर बेटे की शादी हो जाती है। …चक्र पूरा होते-होते बचपन का वाक्य, काल के परिवर्तन के साथ, जिह्वा पर लौटता है, वह बुदबुदा उठता है, ‘माई फादर वॉज़ ग्रेट।’
अनुभव हुआ, हम इतने बौने हैं कि पेड़ हों या माता-पिता, लंबे समय तक गरदन उठाकर उनकी ऊँचाई निहार भी नहीं सकते, गरदन दुखने लगती है। गरदन दुखना अर्थात अनुभव ग्रहण करना। यह ऊँचाई इतने अधिक अनुभव की मांग करती है कि ‘इज़’ के ‘वॉज़’ होने पर ही दिखाई देती है।
…ईश्वर सबके सिर पर यह ऊँचाई और छत्रछाया लम्बे समय तक बनाये रखें।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री शिव महापुराण का पारायण सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंचवटी…“।)
अभी अभी # 622 ⇒ माला जपना श्री प्रदीप शर्मा
क्या आपने कभी माला जपी है ? मैं नहीं जानता, आप कितने प्रतिशत आस्तिक अथवा नास्तिक हैं, आप माला जपें, ना जपें, मुझे इससे क्या। मैं तो अपनी बात कर रहा हूं। यह तो अपनी बात कहने का बस एक तरीका है।
मैं बचपन से माला जपता आ रहा हूँ, लेकिन मुझे ही यह बात अभी तक पता नहीं थी। सभी जानते हैं, माला जपना क्या होता है। क्या बिना हाथ में माला लिए, माला जपी जा सकती है। आप इसे रहस्य कहें अथवा कोई गूढ़ ज्ञान, लेकिन आपको बताए बिना कैसे रहा जा सकता है।।
हुआ यह कि रोज की तरह जब सुबह चाय समय पर नहीं आई, तो मैंने पूछने की हिम्मत कर ली, क्या बात है, आज अभी तक चाय नहीं बनी। किसका मूड सुबह सुबह कैसा है हमें क्या पता, क्योंकि हमारा खुद का मूड ही चाय से जो बनता है। कहीं से कानों में कर्कश आवाज आई, क्या यह सुबह सुबह चाय की माला जपने लगे, रात की गर्मी से दूध फट गया है, अभी चाय नहीं बनेगी।
अचानक हमारे ज्ञान चक्षु खुल गए। हमारी हिम्मत नहीं हुई आगे पूछने की, अभी अखबार वाला आया कि नहीं। नहीं तो शायद यही सुनने को मिलता, लो जी, चाय की माला खतम, तो अखबार की शुरू। इनके पास बस माला जपने के अलावा कोई काम नहीं। यह तो नहीं कि सुबह कुछ देर भगवान का नाम ही ले लें।।
हम बचपन से नाम ही तो जपते आ रहे हैं, और वह भी बिना माला के। जब भी भूख लगी, पिताजी की मार पड़ी, स्कूल में डांट पड़ी, हमने घर आकर अम्मा के नाम की ही तो माला जपी। मां मां कहते किसी बच्चे की कभी जुबां नहीं थकती। मां के नाम की माला में यहीं स्वर्ग है, यहीं वैकुंठ है, आज जब मां नहीं है, फिर भी उसी के नाम की तो माला जप रहा हूं। रब मुझे माफ करे।
माला जपना भी तो किसी का स्मरण करना ही है। मन को पहले मनकों में रमाना, फिर नाम स्मरण में। एक सौ आठ मनके मिलाकर एक माला। किसी शब्द अथवा मंत्र की पुनरावृत्ति ही जाप है। अपने इष्ट का स्मरण हो, या फिर ; जप जप जप जप जप रे जप ले प्रीत की माला।।
सदगुरु का संकल्पित बीज मंत्र और माला का बीज मिलकर ही तो साधक में आध्यात्मिक शक्ति का विकास करता है। मन को भटकने से रोकती है माला ऐसा कहा जाता है। लेकिन कहा तो ऐसा भी जाता है, राम राम जपना, पराया माल अपना।
हमें किसी के कहने से क्या ! माला का बीज मंत्र सिर्फ यही है हम लगातार जिसका नाम लेते हैं, स्मरण करते हैं, वह हमारे चित्त में निवास करने लगता है। अगर दिन भर राग द्वेष और नफरत की माला जपते रहे, तो मन को शांति कहां से मिलेगी। अगर जपना है तो प्रेम की माला ही जपें ;
बसों मेरे नैनन में नंदलाल
मोहिनी मूरत, सांवरी सूरत
उर वैजंती माल।।
हनुमान जी ने मोतियों की माला तोड़ दी, क्योंकि उनके हृदय में साक्षात प्रभु श्रीराम विराजमान थे, हमें भी किसी माला की आवश्यकता नहीं, हमारे लक्ष्मी नारायण हमारे हृदय में विराजमान हैं। सुबह सुबह हम उनका भी ध्यान करते हैं, उनकी माला जपते हैं। हमारी माला की शक्ति देखिए, अभी अभी हमारे हृदय के नारायण प्रकट होना चाहते हैं।
फेसबुक साक्षी है। आप भी किसी की माला जपें, शायद वह भी प्रकट होना चाहता है।।