हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 129 ⇒ सफेद झूठ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सफेद झूठ”।)  

? अभी अभी # 129 ⇒ सफेद झूठ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

क्या सच और झूठ को भी रंग से पहचाना जा सकता है, पानी का तो कोई रंग नहीं होता, इसीलिए दूध में पानी मिलाया जाता है। अगर झूठ भी सफेद रंग का हुआ, तो उसमें भी मिलावट की संभावना है।

अगर झूठ में भी मिलावट होने लगी तो फिर सच का तो भगवान ही मालिक है, यकीन मानिए, आपको खाने को कभी असली जहर भी नसीब नहीं होगा।

लहू का रंग एक है, अमीर क्या गरीब क्या, तो सुना था, रात के अंधेरे में भी आसानी से पहचान लिया जाए, वह सफेद झूठ ! चलो जी, यह भी मान लिया, तो फिर सच की भी तो कुछ पहचान होगी। सच सच बता, सच ! तेरा रंग कैसा ?

सच में मिलावट कोई बर्दाश्त नहीं करता। असली घी, खरा सोना, और तराशा हुआ हीरा होता है सच, सच का कोई रंग नहीं होता, सच, सोलहों आने सच होता है।।

अगर आपकी जेब में सिर्फ चार आने हैं, तो आप कितना सच खरीद पाएंगे। आने कब, दशमलव में नये पैसे हो गए, पैसा काला और सफेद धन हो गया, सबसे बड़ा रुपया हो गया और पैसा भी बाजार से गायब हो गया। जी हां, और यही सच है कि सच भी सोलहों आने सच, बाजार से आने और नये पैसे की तरह चलन से बाहर हो गया।

अब सभी ओर सफेद झूठ का कारोबार जोर शोर से चल रहा है। हम तो नहीं कहते लेकिन दुनिया तो कहती है, झूठे का बोलबाला, सच्चे का मुंह काला। इधर सच को अपनी सूरत दिखाने में भी शर्म आ रही है और उधर सफेद झूठ दिन में दस बार सर्फ से धुले साफ सफेद कपड़े पहनकर रोड शो कर रहा है।।

सच और झूठ दोनों का कारोबार चल रहा है। अब सच ने सफेद धन का चोला पहन लिया है और झूठ ने काले धन का। एक नंबर को हमने सच मान लिया है और दो नंबर को दस नंबरी। एक नंबर वाला दूध से धुला है, और दो नंबरी काला बाजारी।

चारों ओर काले धन और सफेद झूठ की जुगलबंदी चल रही है। कड़वा सच कहीं खामोश सिसकियों और आक्रोश में अपना दम तोड़ रहा है। सच की रोशनी से भी कहीं सफेद झूठ की आँखें चौंधियाई हैं ! लगता है सच को ही मोतियाबिंद हो गया है और आँखों के डॉक्टर ने भी feko सर्जरी के पश्चात् जो लैंस लगाया है, उससे भी अब सफेद झूठ ही नजर आ रहा है। सच में कहां आ गए हैं हम लोग।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #196 ☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख्वाब : बहुत लाजवाब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 196 ☆

ख्वाब : बहुत लाजवाब 

‘जो नहीं है हमारे पास/ वो ख्वाब है/ पर जो है हमारे पास/ वो लाजवाब है’ शाश्वत् सत्य है, परंतु मानव उसके पीछे भागता है, जो उसके पास नहीं है। वह उसके प्रति उपेक्षा भाव दर्शाता है, जो उसके पास है। यही है दु:खों का मूल कारण और यही त्रासदी है जीवन की। इंसान अपने दु:खों से नहीं, दूसरे के सुखों से अधिक दु:खी व परेशान रहता है।

मानव की इच्छाएं अनंत है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती चली जाती हैं और सीमित साधनों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। इसलिए वह आजीवन इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और सुक़ून भरी ज़िंदगी नहीं जी पाता। सो! उन पर अंकुश लगाना अनिवार्य है। मानव ख्वाबों की दुनिया में जीता है अर्थात् सपनों को संजोए रहता है। सपने देखना तो अच्छा है, परंतु तनावग्रस्त  रहना जीने की ललक पर ग्रहण लगा देता है। खुली आंखों से देखे गए सपने मानव को प्रेरित करते हैं करते हैं, उल्लसित करते हैं और वह उन्हें साकार रूप प्रदान करने में अपना सर्वस्व झोंक देता है। उस स्थिति में वह आशान्वित रहता है और एक अंतराल के पश्चात् अपने लक्ष्य की पूर्ति कर लेता है।

परंतु चंद लोग ऐसी स्थिति में निराशा का दामन थाम लेते हैं और अपने भाग्य को कोसते हुए अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और उन्हें यह संसार दु:खालय प्रतीत होता है। दूसरों को देखकर वे उसके प्रति भी ईर्ष्या भाव दर्शाते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अभावों से नहीं; दूसरों के सुखों को देख कर दु:ख होता है–अंतत: यही उनकी नियति बन जाती है।

अक्सर मानव भूल जाता है कि वह खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। यह संसार मिथ्या और  मानव शरीर नश्वर है और सब कुछ यहीं रह जाना है। मानव को चौरासी लाख योनियों के पश्चात् यह अनमोल जीवन प्राप्त होता है, ताकि वह भजन सिमरन करके अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सके। परंतु वह राग-द्वेष व स्व-पर में अपना जीवन नष्ट कर देता है और अंतकाल खाली हाथ जहान से रुख़्सत हो जाता है। ‘यह किराये का मकान है/ कौन कब तक रह पाएगा’ और ‘यह दुनिया है एक मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला’ स्वरचित गीतों की ये पंक्तियाँ एकांत में रहने की सीख देती हैं। जो स्व में स्थित होकर जीना सीख जाता है, भवसागर से पार उतर जाता है, अन्यथा वह आवागमन के चक्कर में उलझा रहता है।

जो हमारे पास है; लाजवाब है, परंतु बावरा इंसान इस तथ्य से सदैव अनजान रहता है, क्योंकि उसमें आत्म-संतोष का अभाव रहता है। जो भी मिला है, हमें उसमें संतोष रखना चाहिए। संतोष सबसे बड़ा धन है और असंतोष सब रोगों  का मूल है। इसलिए संतजन यही कहते हैं कि जो आपको मिला है, उसकी सूची बनाएं और सोचें कि कितने लोग ऐसे हैं, जिनके पास उन वस्तुओं का भी अभाव है; तो आपको आभास होगा कि आप कितने समृद्ध हैं। आपके शब्द-कोश  में शिकायतें कम हो जाएंगी और उसके स्थान पर शुक्रिया का भाव उपजेगा। यह जीवन जीने की कला है। हमें शिकायत स्वयं से करनी चाहिए, ना कि दूसरों से, बल्कि जो मिला है उसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। जो मानव आत्मकेंद्रित होता है, उसमें आत्म-संतोष का भाव जन्म लेता है और वह विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँध देता है।

गुलज़ार के शब्दों में ‘हालात ही सिखा देते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह होता है।’

हमारी मन:स्थितियाँ परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। यदि समय अनुकूल होता है, तो पराए भी अपने और दुश्मन दोस्त बन जाते हैं और विपरीत परिस्थितियों में अपने भी शत्रु का क़िरदारर निभाते हैं। आज के दौर में तो अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, उन्हें तक़लीफ़ पहुंचाते हैं। इसलिए उनसे सावधान रहना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए जीवन में विवाद नहीं, संवाद में विश्वास रखिए; सब आपके प्रिय बने रहेंगे। जीवन मे ं इच्छाओं की पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म में सामंजस्य रखना आवश्यक है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा।

सो! हमें जीवन में स्नेह, प्यार, त्याग व समर्पण भाव को बनाए रखना आवश्यक है, ताकि जीवन में समन्वय बना रहे अर्थात् जहाँ समर्पण होता है, रामायण होती है और जहाल इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, महाभारत होता है। हमें जीवन में चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। स्व-पर, राग-द्वेष, अपेक्षा-उपेक्षा व सुख-दु:ख के भाव से ऊपर उठना चाहिए; सबकी भावनाओं को सम्मान देना चाहिए और उस मालिक का शुक्रिया अदा करना चाहिए। उसने हमें इतनी नेमतें दी हैं। ऑक्सीजन हमें मुफ्त में मिलती है, इसकी अनुपलब्धता का मूल्य तो हमें कोरोना काल में ज्ञात हो गया था। हमारी आवश्यकताएं तो पूरी हो सकती हैं, परंतु इच्छाएं नहीं। इसलिए हमें स्वार्थ को तजकर,जो हमें मिला है, उसमें संतोष रखना चाहिए और निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। हमें फल की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो हमारे प्रारब्ध में है, अवश्य मिलकर रहता है। अंत में अपने स्वरचित गा त की पंक्तियों से समय पल-पल रंग बदलता/ सुख-दु:ख आते-जाते रहते है/ भरोसा रख अपनी ख़ुदी पर/ यह सफलता का मूलमंत्र रे। जो इंसान स्वयं पर भरोसा रखता है, वह सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। इसलिए इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि जो नहीं है, वह ख़्वाब है;  जो मिला है, लाजवाब है। परंतु जो नहीं मिला, उस सपने को साकार करने में जी-जान से जुट जाएं, निरंतर कर्मरत रहें, कभी पराजय स्वीकार न करें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 128 ⇒ बुनियाद… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बुनियाद।)  

? अभी अभी # 128 ⇒ बुनियाद? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

बुनियाद को हम नींव भी कह सकते हैं, नींव के पहले पत्थर को हम शिलान्यास कहते हैं। सबसे बड़ी नींव होती है, शुभ संकल्प ! किसी के कल्याण अथवा हित के लिए जो पहला कदम उठाया जाता है, बस वहीं से उस कार्य की नींव पड़ जाती है।

एक पक्षी भी नीड़ का निर्माण करता है, सर्दी, पानी, ठंड से बचने के लिए घोंसले का निर्माण करता है, एक चूहे को भी बिल की तलाश होती है और एक शेर को भी अपनी मांद अथवा गुफा की। और तो और जहरीले सांप भी अपनी सुरक्षा और संवर्धन के लिए पाताल तक जाने के लिए तत्पर हो जाते हैं।।

जितना बड़ा जीवन उतनी ही अधिक सुरक्षा की तैयारी। किसी देश अथवा संस्कृति का जन्म यूं ही नहीं हो जाता। सदियां लगती हैं उसको बनने और संवरने में। कई उतार चढ़ाव, उथल पुथल और उत्थान पतन के नियति चक्र से गुजरने के बाद ही उसका अस्तित्व कायम रह पाता है। Rome was not built in a day.

हमारे स्वर्णिम अतीत पर भी कई बार ग्रहण लगा, लेकिन जहां बुनियाद मजबूत होती है, वहां मुसीबतें आंधी और तूफान की तरह आती रहती हैं, हमें लगातार झकझोर और कमजोर करने की कोशिश भी करती रहती है, लेकिन हम जिस परिश्रम, पसीने और बलिदान की मिट्टी से बने हैं, उसे देखते हुए वह थक हारकर वापस चली जाती है।।

हमारी आज की सफलता, सुरक्षा और मजबूती का श्रेय भी हमारी मजबूत बुनियाद को ही जाता है, जो तब रखी गई थी, जब हम पैदा भी नहीं हुए थे। आप जीवन में कितने भी आगे बढ़ जाएं, पढ़ लिख जाएं, भले ही देश के राष्ट्रपति बन जाएं, लेकिन अपने खुद के बाप नहीं बन सकते। जबकि लोग आपके पिताजी को अवश्य कह सकते हैं, यह देखो, राष्ट्रपति का भी बाप जा रहा है।

राष्ट्र आपकी धरोहर है, बपौती नहीं, क्योंकि ऐ मां, तेरे बच्चे कई करोड़। सबका इस देश पर उतना ही अधिकार है जितना आपका और मेरा। एक संयुक्त परिवार के जिम्मेदार सदस्य की भांति आप भी परिवार की देखभाल कीजिए और अपना उत्तरदायित्व निभाइए, लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा बनिए, और नि:स्वार्थ रूप से देश की सच्ची सेवा कीजिए।।

इतनी भी सावधानी जरूरी है कि कोई अवांछित तत्व आपकी लोकतंत्र की नींव को कमजोर अथवा खोखली ना कर दे। जब तक हमारे इरादे बुलंद है, हमारी इमारत भी बुलंद है। इसके रहनुमा बनें, रहगुजर बनें, आका अथवा अधिनायक नहीं क्योंकि यह भोली भाली जनता जिसे कभी सिर पर बैठाती है, समय आने पर उसे धूल भी चटा देती है।

अगर हमारे दिलों में एक दूसरे के लिए प्यार और परवाह है, तो बांटने के लिए बहुत है। लेकिन जहां दिलों में नफरत और वैमनस्य है, वहां सिर्फ दिलों का बंटवारा ही होता है, लोकतंत्र और इंसानियत की नींव हिल जाती है, केवल कोई देश ही नहीं, पूरी मानवता भी खतरे में पड़ जाती है।

हमारी इंसानियत जड़ें बहुत गहरी हैं, इन्हीं जड़ों ने हमें पूरे विश्व से जोड़ रखा है, क्योंकि पूरी वसुधा ही हमारी कुटुंब है। जय हिंद, जय जगत।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 127 ⇒ टूथपेस्ट… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “टूथपेस्ट”।)  

? अभी अभी # 127 ⇒ टूथपेस्ट ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

अब कौन इसे दातून कहता है । बच्चों, पेस्ट किया कि नहीं,चलो चाय दूध पी लो । उधर सोते हुए पतिदेव को उठाने के लिए टूथब्रश में पेस्ट तैयार लगाकर रखना पड़ता है, उठिए, लीजिए, पेस्ट कीजिए, कुल्ला कीजिए, पानी पीजिए, आपकी चाय तैयार है, ऐसे आलसी पतिदेव कभी हुआ करते थे, आजकल तो कुछ घरों में पहली चाय पतिदेव ही बनाने लग गए हैं ।

मुझे जब खेत की बात करनी होती है, तो मैं खलिहान का जिक्र करने बैठ जाता हूं । मुझे सुबह का पेस्ट करना है, जो मैं सुबह जल्दी नहाते वक्त ही कर लिया करता हूं ।।

वह मेरा एकान्त होता है, मैं और मेरा टूथपेस्ट ! कभी वह फोरहेंस और कोलगेट हुआ करता था, आजकल दंत कांति चल रहा है । पेस्ट में कितना मंजन और कितनी हवा होती है, हम नहीं जानते । हम तो बस उसके मुंह का ढक्कन खोलते हैं, और उसकी ट्यूब को दबाकर थोड़ा सा पेस्ट, टूथब्रश पर लगा लेते हैं ।

जब यह टूथपेस्ट एकदम नया होता है, तो फूला फूला सा हृष्ट पुष्ट नजर आता है । इसे जब हम दबाते हैं,तो ट्यूब से पेस्ट बाहर आता है । तब मेरा ध्यान कहीं भी हो, मेरी नजर ट्यूब पर जाती है, जो उस जगह से थोड़ी पिचक जाती है । यह रोज दबाने और पिचकने का सिलसिला तब तक चला करता है, जब तक टूथपेस्ट अपनी अंतिम सांसें ना गिन ले ।।

मेरा नियम है कि मैं पेस्ट को बिल्कुल नीचे से पिचकाता हूं, ताकि वह ऊपर से, मुंह की ओर से पूरा फूला फूला और स्वस्थ रहे, और उसका अंतिम छोर रोजाना पिचकते पिचकते सिकुड़ता रहे,छोटा होता रहे । लेकिन मेरे बाद जिसके हाथ में भी वह पेस्ट आता है,वह उसे कहीं से भी दबाकर पेस्ट निकाल लेता है, और टूथपेस्ट की शक्ल बिगड़ जाती है ।

इसका पता मुझे दूसरे दिन सुबह चलता है, जब मैं पेस्ट करने बैठता हूं । मुझे बड़ा बुरा लगता है, किसी ने मेरे टूथपेस्ट का हुलिया बिगाड़ दिया है । मैं फिर पेस्ट को अंतिम सिरे से दबा दबाकर उसे फुलाकर आगे से मोटा करता हूं । इस तरह मुझे मेरा टूथपेस्ट, शेप में नजर आता है ।।

लेकिन दूसरे दिन वह बेचारा जिसके भी हाथ लगता है, उसका वही हश्र होता है । मैं उसे उपयोग करते हुए भी उसे एक शेप में रखना चाहता हूं, और लोग हैं, जो उसे कहीं से भी पिचकाकर उसका हुलिया बिगाड़ देते हैं । मेरी नजर में यह टूथपेस्ट का शोषण है, पेस्ट की शक्ल तो मुझे यहीं बयां करती है ।

दैनिक उपयोगी वस्तुओं के साथ भी हमारा एक रिश्ता होता है । हमें रिश्तों को सम्मान देना चाहिए । जोर जोर से बर्तनों को पटकना उन्हें आहत भी कर सकता है । उनका रखरखाव भी बच्चों की तरह ही होना चाहिए क्योंकि वे भी बेजुबान और बेजान हैं ।

वॉशबेसिन में जो लोग ब्रश करते हैं, वे लापरवाही से पूरा नल खुला छोड़कर ब्रश करते रहते हैं । कोई उन्हें नहीं देख रहा है, क्योंकि वे ही नहीं देख पा रहे हैं, वे क्या कर रहे हैं, किसका हक छीन रहे हैं ,जल का दुरुपयोग ही नहीं, अपमान भी कर रहे हैं ।।

जो लोग व्यवस्थित और सुरूचिपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं, उनमें एक एस्थेटिक सेंस होता है, जो उनके रहन सहन और व्यवहार से प्रकट हो जाता है । घर की सब चीज करीने से रखी हुई । कार हो, साइकिल हो या टू व्हीलर, साफ सुथरी, हमेशा अच्छी हालत में । जिसे बोलचाल की भाषा में टीप टॉप कहते हैं ।

अगली बार जब आप सुबह ब्रश करें, तो जरा पेस्ट पर भी नजर डाल लें । अगर वह आगे से पिचका हुआ है, तो वह बेशैप है, उसमें सिरे की ओर से थोड़ी हवा भरें, वह आगे से फूल जाएगा और पीछे से पिचक जाएगा । आपको सुकून मिले ना मिले,पेस्ट को जरूर अच्छा लगेगा ।

हमें अपने पिचके गाल कितने बुरे लगते हैं, टूथपेस्ट की नियति भी पिचकने की ही है, वह भी जानता है, वह यूज और थ्रो के लिए ही बना हुआ है, उसे अपनी छोटी सी जिंदगी सम्मान से जीने दें । उसे एक अच्छी शक्ल दें, वह वाकई मुस्कुराएगा, शायद आपको दुआ भी दे ; “आपके दांत मोतियों जैसे चमकते रहें ।।”

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ‘अ’ से अटल-☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

पुनर्पाठ-

? संजय दृष्टि – ‘अ’ से अटल- ??

(अटलबिहारी वाजपेयी जी के महाप्रयाण के बाद लिखा आलेख।) 

अंततः अटल जी महाप्रयाण पर निकल गये। अटल व्यक्तित्व, अमोघ वाणी, कलम और कर्म से मिला अमरत्व!

लगभग 15 वर्षों से सार्वजनिक जीवन से दूर, अनेक वर्षों से वाणी की अवरुद्धता, 93 वर्ष की आयु में देहावसान और  तब भी अंतिम दर्शन के लिए जुटा विशेषकर युवा जनसागर। ऋषि व्यक्तित्व का प्रभाव पीढ़ियों की सीमाओं से परे होता है।

हमारी पीढ़ी गांधीजी को देखने से वंचित रही पर हमें अटल जी का विराट व्यक्तित्व  अनुभव करने  का सौभाग्य मिला। इस विराटता के कुछ निजी अनुभव मस्तिष्क में घुमड़ रहे हैं।

संभवतः 1983 या 84 की बात है। पुणे में अटल जी की सभा थी। राष्ट्रीय परिदृश्य में रुचि के चलते इससे पूर्व विपक्ष के तत्कालीन नेताओं की एक संयुक्त सभा  सुन चुका था पर उसमें अटल जी नहीं आए थे।

अटल जी को सुनने पहुँचा तो सभा का वातावरण देखकर आश्चर्यचकित रह गया। पिछली सभा में आया वर्ग और आज का वर्ग बिल्कुल अलग था। पिछली सभा में उपस्थित जनसमूह में मेरी याद में एक भी स्त्री नहीं थी। आज लोग अटल जी को सुनने सपरिवार आए थे। हर परिवार ज़मीन पर दरी बिछाकर बैठा था।  अधिकांश परिवारों में माता, पिता, युवा बच्चे और बुजुर्ग माँ-बाप को मिलाकर दो पीढ़ियाँ  अपने प्रिय वक्ता  को सुनने आई थीं। हर दरी के बीच थोड़ी दूरी थी। उन दिनों पानी की बोतलों का प्रचलन नहीं था। अतः जार या स्टील की टीप में लोग पानी भी भरकर लाए थे। कुल जमा दृश्य ऐसा था मानो परिवार बगीचे में सैर करने आया हो। विशेष बात यह कि भीड़, पिछली सभा के मुकाबले डेढ़ गुना अधिक थी। कुछ देर में मैदान खचाखच भर चुका था। सुखद विरोधाभास यह भी  कि पिछली सभा में भाषण देने वाले नेताओं की लंबी सूची थी जबकि आज केवल अटल जी का मुख्य वक्तव्य था। अटल जी के विचार और वाणी से आम आदमी पर होने वाले सम्मोहन का यह मेरा पहला प्रत्यक्ष अनुभव था।

उनकी उदारता और अनुशासन का दूसरा अनुभव जल्दी ही मिला। महाविद्यालयीन जीवन के जोश में किसी विषय पर उन्हें एक पत्र लिखा। लिफाफे में भेजे गये पत्र का उत्तर पोस्टकार्ड पर उनके निजी सहायक से मिला। उत्तर में लिखा गया था कि पत्र अटल जी ने पढ़ा है। आपकी भावनाओं का संज्ञान लिया गया है। मेरे लिए पत्र का उत्तर पाना ही अचरज की बात थी। यह अचरज समय के साथ गहरी श्रद्धा में बदलता गया।

तीसरा प्रसंग उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद का है। बस से की गई उनकी पाकिस्तान यात्रा के बाद वहाँ की एक लेखिका अतिया शमशाद  ने प्रचार पाने की दृष्टि से कश्मीर की ऐवज़ में उनसे विवाह का एक भौंडा प्रस्ताव किया था। उपरोक्त घटना के संदर्भ में तब एक कविता लिखी थी। अटल जी के अटल  व्यक्तित्व के संदर्भ में उसकी कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं-

मोहतरमा!

इस शख्सियत को समझी नहीं

चकरा गई हैं आप,

कौवों की राजनीति में

राजहंस से टकरा गई हैं आप..।

कविता का समापन कुछ इस तरह था-

वाजपेयी जी!

सौगंध है आपको

हमें छोड़ मत जाना,

अगर आप चले जायेंगे

तो वेश्या-सी राजनीति

गिद्धों से राजनेताओं

और अमावस सी व्यवस्था में

दीप जलाने

दूसरा अटल कहाँ से लाएँगे..!

राजनीति के राजहंस, अंधेरी व्यवस्था में दीप के समान प्रज्ज्वलित रहे भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी जी का नाम अजर रहेगा, अमर रहेगा।

आज अटल जी की पुण्यतिथि है। उनकी स्मृतियों को सादर नमन।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “१५ अगस्त – स्वतन्त्रता दिवस 🇮🇳” ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ “१५ अगस्त – स्वतन्त्रता दिवस 🇮🇳” ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

मेरे प्रिय देशबंधुओं और बहनों,

आप सभी को ७६ वें स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ! 🙏🇮🇳💐

१५ अगस्त २०२३ को भारत की आजादी के ७६ साल पूरे होने पर यह कहना होगा कि, हमारा देश 76 साल का युवा बन गया है। जिन युवा स्वतंत्रता सेनानियों ने परतंत्र की बेड़ियों, उत्पीड़न और यातनाओं का अनुभव किया है और जो स्वतंत्रता संग्राम में जी-जान से लड़ रहे हैं, वे अब अधिकतर नब्बे और शतक की उम्र के होंगे। इन गिने चुने प्रत्यक्षदर्शियों को छोड़कर ज्यादातर लोग यह नहीं जानते कि जिस आजादी का हम आनंद ले रहे हैं, वह अनगिनत स्वातंत्र्यसैनिकों के बहाये खून का परिणाम है। कुछ नाम तो निश्चित रूप से नेताओं के हैं, अधिकांश गुमनाम रह गए, जिनके लिए मुझे महान मराठी कवि कुसुमाग्रज के शब्द याद आते हैं:

अनाम वीरा, जिथे जाहला तुझा जीवनान्त

स्तंभ तिथे ना कुणी बांधला, पेटली ना वात! 

अर्थात –  हे अनाम वीर, जहाँ तुम्हारे जीवन का अंत हुआ, वहाँ न किसीने विजयस्तम्भ बाँधा, न ही वहाँ कोई चिराग रोशन हुआ। 

इस स्वतंत्रता दिवस का ‘समारोह’ बाकी सभी से क्यों और कैसे अलग है? हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने १५ अगस्त १९४७ को शून्य प्रहर को तिरंगा फहराया था| उनका विश्व प्रसिद्ध भाषण हर जगह उपलब्ध है। उसका एक वाक्य मुझे हमेशा याद आता है। नेहरूजी ने कहा था, ‘आज रात १२ बजे जब पूरी दुनिया सो रही होगी, भारत एक नया स्वतंत्र जीवन शुरू करेगा।’ शुरुआती कुछ सालों में इस नवोन्मेष में प्रगति का आलेख तेजी से ऊपर चढ़ते रहा| लेकिन इस तेजी का ज्वार जल्द ही थम सा गया| इस आशावाद पर भरोसा करना कठिन था कि, स्वतंत्रता सभी समस्याओं का समाधान कर देगी। नई बहू को जब तक घर की जिम्मेदारी नहीं मिलती तब तक वह बहुत जिज्ञासु रहती है। ‘मुझे राज्य तो मिल जाने दो, फिर देखना मैं क्या करती हूं’, कभी दिल में तो कभी होठों पर ये शब्द लाने वाली यहीं बहू, जिम्मेदारी का अहसास होते ही सास के जैसे कब व्यवहार करने लगती है, इसका उसे स्वयं भी पता नहीं चलता! यहीं बात बाद में शासकों को भी समझ में आ गई। 

मित्रों, जब हम अपनी स्वतंत्रता के प्रति इतने सचेत हैं, तो कहीं हम दूसरों की स्वतंत्रता को रौंद तो नहीं रहे हैं? क्या इसका एहसास करना ज़रूरी नहीं है? एक रोजमर्रा का उदाहरण! सड़क के दोनों और जो छोटीसी जगह बनी होती है, उसे ‘फुटपाथ’ कहा जाता है, अच्छी तरह से रंग दिया हुआ वगैरा होने के कारण, पैदल चलने वालों को बहुत आसानी से इसके दूर से ही दर्शन हो जाते हैं। लेकिन भीड़-भाड़ वाले समय में इस जगह पर स्कूटर, मोटरसाइकिल आदि वाहनों का चतुराई से छिना हुआ कब्जा होता है। अफ़सोस, बेचारे कार वालों के लिए यह थोडीसी संकीर्ण सी रहती है! अब पैदल चलने वालों को कहाँ और कैसे चलना है, इसकी सीख कौन दे? संक्षेप में, ‘मेरी स्वतंत्रता तो मेरी है ही और तुम्हारी भी मेरी है’! संविधान ने मुझे जो अधिकार दिया है, वैसे ही वह दूसरों को भी दिया है, यह सामाजिक चेतना और राष्ट्रीय चेतना कैसे आएगी, इस पर गंभीरता से विचार करना होगा!

जब हम स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं तो यह एक ‘इव्हेंट’ क्यों बन जाती है? लाउडस्पीकर कुछ निहित देशभक्ति के गीत प्रसारित करता रहता है। कभी-कभी छोटे-छोटे बच्चे स्कूलों में जाकर “आज़ादी” के बारे में भाषण दे रहे होते हैं, जो उनकी उम्र से काफी ‘बढ़चढ़’ कर होते हैं| उनकी स्मृति-शक्ति एवं शिक्षकों तथा अभिभावकों की कड़ी मेहनत की सराहना करना अति स्वाभाविक होना चाहिए! लेकिन साथ ही सम्बंधित बड़े बुजुर्गों का कर्तव्य होना चाहिए कि वे इन मासूम बच्चों को उस तालियाँ कमाने वाले भाषण का पूरा मतलब समझाएं! फिर यह तोते की तरह रटने की क्रिया से ऊपर उठकर वास्तव रूप में देशभक्ति होगी| कौन जाने इन्हीं में से कोई लड़का या लड़की राष्ट्रसेवा का व्रत लेकर सेना में भर्ती होने का सपना देखने लगे!

 अंत में यहीं विचार मन में आता है, ‘इस देश ने मुझे क्या दिया?’ जिन्हें बार-बार यह सवाल परेशान करता है, वें ‘मैं देश को क्या दे रहा हूं?’ इस एक प्रश्न का उत्तर स्वयं को अत्यंत ईमानदारी से दें! बच्चे को शिक्षा देते समय माता-पिता उस पर केवल ५ से १० प्रतिशत ही खर्च करते हैं, बाकी सारा खर्च समाज वहन करता है। अगर हम याद रखें कि हमारे देश के गुमनाम नागरिक हमारी प्रगति में कितनी भागीदारी निभा रहे हैं, तो हमें कुछ हद तक इस आज़ादी की कीमत पता चल जाएगी!

 फिर एक बार आजके पावन अवसर पर सबको अनेक बधाइयाँ,

 धन्यवाद आपका! 🙏🇮🇳💐

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

दिनांक १५ ऑगस्ट २०२3

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 127 ⇒ जीवन संगीत… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जीवन संगीत।)  

? अभी अभी # 127 ⇒ जीवन संगीत? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जीवन है मधुवन ! जिस वन में मधु भी हो और मधुर संगीत भी हो, कल्पना का तो कोई अंत नहीं, जीवन में झिलमिल सितारों का आंगन भी हो, रिमझिम बरसता सावन भी हो, तो क्यों न बृज की भूमि पर ही चला जाए। वहां मधुवन में राधिका भी है और गिरधर की मुरलिया भी। बाल गोपाल और छोटी छोटी गैया जहां हो तो क्या जीवन संगीतमय नहीं हो जाए।

सुना है, सुर के बिना, जीवन सूना है, और सुर के सात स्वर होते हैं, जब कि प्रेम तो सिर्फ ढाई अक्षर का ही होता आया है। मोहन की मुरली की तान छिड़ती है

तो कानों में मानो शहनाई गूंजने लगती है। सबसे ऊंची प्रेम सगाई। मीरा लोक लाज छोड़ती है, तो राधा के तो मानो प्राण ही उस मुरलिया में बसे हों।।

लेकिन हमारे जीवन में आज कहां गंगा, जमना और वृंदावन की गलियां हैं। हमारे जीवन में भी बाल लीला होती है, रास लीला होती है, हमारे भी बचपन के साथी थे। हम भी धूप और धूल में खेले हुए हैं। लेकिन नियति हमें भी हमारी ब्रज की भूमि से दूर धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र के महासमर में प्रविष्ट करवा ही देती है।

हम इस जीवन समर में बिना सारथी के अर्जुन हैं, बिना द्रोणाचार्य के एकलव्य हैं। हममें ही कभी दुर्योधन प्रकट हो जाता है तो कभी शकुनि। हमने भी धर्मराज बन यहां कई दांव खेले हैं, कई बार द्रोपदी हारी भी है तो कई बार उस नाथों के नाथ श्रीनाथ ने हमारी द्रोपदी की लाज भी बचाई है।।

जीवन में हमें भी सांदीपनी जैसे गुरु भी मिले हैं और कई सुदामा से मित्र भी, लेकिन बस अफसोस यही, हममें सदा कृष्ण तत्व का अभाव रहा। बचपन में हो सकता है, हमने भी माखन ना सही, बिस्किट के पैकेट से बिस्किट चुराया हो, दाऊ भैया की जेब से कभी पांच का नोट भी निकाला हो, लेकिन कृष्ण की तरह हम भी आज अपनी सभी बाल लीलाएं छोड़, बीवी बच्चों के साथ सुख में जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

हमारे जीवन में आज रस भी है और संगीत भी। पंडित जसराज, भीमसेन जोशी, पंडित कुमार गंधर्व, लता रफी और जगजीत कभी तानसेन की याद ताजा कर देते हैं तो कभी स्वामी हरिदास की।

एक अदना सा भजन गायक विनोद अग्रवाल, जब आंख मूंद कृष्ण को, हे गोविन्द हे गोपाल को अंसुअन जल से अश्रु भिगोकर हमें गोविंद की गली पहुंचाता है, तो काल की मर्यादाएं समाप्त हो जाती हैं। पिया मिलन की प्यास अधूरी नहीं रह जाती, प्यास पूरी हो जाती है, जब श्री हरी कीर्तन में भाव समाधि में प्रकट हो जाते हैं। यह गूंगे का गुड़ है। न बहरे को सुनाई देता है और न अंधे को दिखाई देता है।।

जीवन में सिर्फ देखा जाता है, कुछ दिखाया नहीं जाता। अनुभव, महसूस किया जाता है, उसका बखान नहीं किया जाता। जो प्रज्ञा चक्षु हैं केवल वे ही अधिकारी होते हैं उस लीला के महिमामंडन और गुणगान के। नर सत्संग से क्या से क्या हो जाए। डोंगरे महाराज की कथा जिसने सुनी, वह तर गया। समझिए भव सागर से उतर गया।

दुख दर्द तो जीवन में होंगे ही। जरा प्राचीन संतों के कष्ट देखें, महान व्यक्ति कांटों की राह पर ही जीवन में आगे बढ़े हैं फिर भी उन्होंने दुनिया को ज्ञान का संदेश ही दिया है, सत्य ने हमेशा उनका साथ दिया है। आज इनका संदेश भी शायद कुछ इस प्रकार का ही हो ;

तुम आज मेरे संग हंस लो

तुम आज मेरे संग गा लो।

और हंसते गाते, इस जीवन की

उलझी राह संवारो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 79 – पानीपत… भाग – 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 79 – पानीपत… भाग – 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

हॉलीवुड के सुप्रसिद्ध निर्देशक जेम्स केमरून की हिट फिल्म थी टाइटैनिक. उसका एक दृश्य बहुत हृदयस्पर्शी था. जब जहाज डूब रहा होता है तब डूबते टाइटैनिक जहाज के कप्तान बजाय भागने के, जाकर अपने नियंत्रण कक्ष में बैठ जाते हैं. ये संदेश था कि कैप्टन अंत तक अपने जहाज के साथ होता है. जिम्मेदारियां, लोगों के कर्मक्षेत्र का हिस्सा होती हैं जिन्हें निभाना खुद की पसंद नहीं बल्कि अनिवार्य होता है. युद्ध चाहे कारगिल का हो या महाभारत का, युद्ध में वापस जाने का विकल्प योद्धाओं के पास होता नहीं है. जब परम वीर चक्र विजेता विक्रम बत्रा कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व शहादत की ओर बढ़ते हैं तो ये किसी मैडल के लिये नहीं होता. किन्हीं कारणों से पराजित को दिया गया अभयदान, आत्मविश्वास तोड़ने वाला दान ही होता है जिसके साथ शर्मिंदगी जीवनपर्यंत झेलनी पड़ती है. हर व्यक्ति को यह अधिकार होता है कि वह अपनी क्षमताओं का आकलन करते हुये ही बड़े उत्तरदायित्वों को स्वीकारने की प्रतिस्पर्धा का प्रत्याशी बने. अवसरवादिता से किसी व्यक्ति को कोई भी संस्था उपकृत नहीं करती. अभिमन्यु अपने अधूरे ज्ञान के बावजूद द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह में चले गये क्योंकि उनका मनोबल, युद्ध से पीछे हटने की इजाज़त नहीं दे रहा था.

मनचाहे स्थानों और मनचाहे असाइनमेंट मिलने का वचन किसी पदोन्नति में नहीं मिलता. पर अगर ये लगे कि गल्ती तो हो ही गई है और जो असाइनमेंट वहन करना पड़ रहा है उसे पूरा करना खुद के बस की बात नहीं है तो विकल्प क्या है? जुगाड़ करके वहाँ से पतली गली पकड़ के निकल जाना या फिर अक्षमता स्वीकारने का साहस दिखाकर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का रास्ता पकड़ना. एक व्यवहारिक गली और भी है कि इंतजार करना कि जिनका टाइटैनिक है वो खुद विकल्प ढूंढ ही लेंगे. अगर टाइटैनिक किसी की व्यक्तिगत संपत्ति है तो वो तो कप्तान बदलने में देर नहीं करेगा पर संस्थागत निर्णय, हमेशा देर से अवगत होने और फिर विलंब से निर्णय होने की परंपरागत प्रक्रिया में बंधे होते हैं. उनके पास भी योग्य पात्र का चयन और उपलब्धता की समस्या बनी रहती है इसलिए स्थानापन्न याने ऑफीशियेटिंग का विकल्प ज्यादा प्रयुक्त होता है.

पदोन्नति का महत्वपूर्ण घटक अंक आधारित मूल्यांकन है जो अधिकतर शतप्रतिशत या 95 से 99 अंक पाये व्यक्ति को ही सफलता का पात्र बनाता है. क्या इस प्रकरण में इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि शतप्रतिशत अंक पाना, मूल्यांकन रहित ऐसी औपचारिकता बन गई है जो सिर्फ संबंधों और सबजेक्टिव ओपीनियन के आधार पर अमल में लाई जाती है??? व्यवहारिक और वैयक्तिक आंतरिक शक्तियों और दुर्बलताओं का कोई आकलन नहीं होता. शायद संभव भी न हो जब तक कि ऐसा मौका न आये. हर जगह सब कुछ या कुछ भी धक नहीं पाता, कभी कभी कुछ प्रकरणों में ये साफ साफ दिख जाता है.

पानीपत सदृश्य शाखा के मुखिया का, सारे दरवाजे खटखटाने के बाद भी मनमाफिक अनुकंपा नहीं मिलने से, मन बदलते जा रहा था. हर सुबह “ये शाखा मेरे बस की नहीं है” के साथ शुरु होती और अपनी इस भावना को वो अपने निकटस्थ अधिकारियों से शेयर भी करते रहे. उनके पास ऐसी टीम थी जो उनका मनोबल मजबूत करने के साथ साथ संचालन में भी अतिरिक्त ऊर्जा के साथ काम करती रही. इस जटिल शाखा में काम और कस्टमर्स का दबाव, किसी को भी आराम करने की सुविधा का लाभ उठाने की अनुमति नहीं देता था. यहाँ पर कुछ बहुत ही एक्सट्रा आर्डिनरी स्टाफ थे जिनकी कार्यक्षमता और काम सीखने की ललक प्रशंसनीय थी. लोन्स एंड एडवांसेस पोर्टफोलियो बेहद प्रतिभाशाली प्राबेशनरी अधिकारियों, ट्रेनी ऑफीसर्स और मेहनती अधिकारियों से सुसज्जित था. आज प्रायः सभी सहायक महाप्रबंधक/उपमहाप्रबंधक जैसे वरिष्ठ पदों पर कार्यरत हैं. शाखा से उसी अवधि के लगभग एक वर्ष बाद ही, सात युवा अवार्ड स्टाफ, सहायक प्रबंधक के रूप में पदोन्नत हुये. शाखा स्तर पर कभी ऐसा मनमुटाव या मतभेद नहीं था जो प्रबंधन को तनावग्रस्त करे. ऐसे कर्मशील लोग होने के बावजूद, उनकी ये खूबियाँ मुखिया की उदासीनता और तनाव को दूर नहीं कर पा रही थी. उन्होंने अपनी मंजिल “स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति” की तय कर ली थी और वो इसी दिशा में शनैः शनैः बढ़ रहे थे.

पानीपत में अभी बहुत कुछ बाकी है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 225 ☆ आलेख – क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त 🇮🇳 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखक्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 225 ☆

? आलेख – क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त 🇮🇳?

क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त – जिन्होने भगत सिंह के संग संसद में बम फेंका .. 

बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 को बंगाली कायस्थ परिवार में ग्राम-औरी, जिला – नानी बेदवान (बंगाल) में हुआ था। इनका बचपन अपने जन्म स्थान के अतिरिक्त बंगाल प्रांत के वर्धमान जिला अंतर्गत खण्डा और मौसु में बीता। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। 1924 में कानपुर में इनकी भगत सिंह से भेंट हुई। इसके बाद इन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में कार्य करना प्रारंभ किया। इसी क्रम में बम बनाना भी सीखा।

बटुकेश्वर दत्त  भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी थे। बटुकेश्वर दत्त को देश ने सबसे पहले 8 अप्रैल 1929 को जाना, जब वे भगत सिंह के साथ केंद्रीय विधान सभा में बम विस्फोट के बाद गिरफ्तार किए गए। उन्होनें आगरा में स्वतंत्रता आंदोलन को संगठित करने में उल्लेखनीय कार्य किया था।

8 अप्रैल 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान में संसद भवन) में भगत सिंह के साथ बम विस्फोट कर ब्रिटिश राज्य की तानाशाही का विरोध किया। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पर्चों के माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था। उस दिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया।

इस घटना के बाद बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। 12 जून 1929 को इन दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा सुनाने के बाद इन लोगों को लाहौर फोर्ट जेल में डाल दिया गया। यहां पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर लाहौर षड़यंत्र केस चलाया गया। उल्लेखनीय है कि साइमन कमीशन के विरोध-प्रदर्शन करते हुए लाहौर में लाला लाजपत राय को अंग्रेजों के इशारे पर अंग्रेजी राज के सिपाहियों द्वारा इतना पीटा गया कि उनकी मृत्यु हो गई। इस मृत्यु का बदला अंग्रेजी राज के जिम्मेदार पुलिस अधिकारी को मारकर चुकाने का निर्णय क्रांतिकारियों द्वारा लिया गया था। इस कार्रवाई के परिणामस्वरूप लाहौर षड़यंत्र केस चला, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दी गई थी। बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना में लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए। काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए।

आजादी के बाद नवम्बर, 1947 में अंजली दत्त से शादी करने के बाद वे पटना में रहने लगे। बटुकेश्वर दत्त को अपना सदस्य बनाने का गौरव बिहार विधान परिषद ने 1963 में प्राप्त किया। श्री दत्त की मृत्यु 20 जुलाई 1965 को नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुई। मृत्यु के बाद इनका दाह संस्कार इनके अन्य क्रांतिकारी साथियों- भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव की समाधि स्थल पंजाब के हुसैनी वाला में किया गया। इनकी एक पुत्री भारती बागची हैं।

बटुकेश्वर दत्त के विधान परिषद में सहयोगी रहे इन्द्र कुमार कहते हैं कि ‘स्व. दत्त राजनैतिक महत्वाकांक्षा से दूर शांतचित एवं देश की खुशहाली के लिए हमेशा चिन्तित रहने वाले क्रांतिकारी थे।’

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मैं, मेरा गांव और स्वतंत्रता दिवस 🇮🇳 ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक प्रेरक संस्मरणात्मक प्रसंग ‘मैं, मेरा गांव और स्वतंत्रता दिवस…’।)

☆ आलेख – मैं, मेरा गांव और स्वतंत्रता दिवस 🇮🇳 ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

स्वतंत्रता दिवस समारोहपूर्वक खुशियां मनाने और शहीदों को याद करने का दिन होता है। साथ ही यह किसी राष्ट्र या समुदाय की उपलब्धियों और चुनौतियों का लेखा जोखा जुटाने का अवसर भी होता है। राष्ट्र की उपलब्धियों और चुनौतियों के बारे में इन दिनों मीडिया और गोष्ठियों में विस्तृत चर्चा हो रही है। मैं आज अपने गांव के संबंध में इसी हवाले से बातचीत करना चाहता हूं।

मेरा जन्म देश की आज़ादी से चंद महीने पहले हरियाणा में करनाल जिले के एक छोटे से गांव हरसिंहपुरा में हुआ था। गांव यमुना नदी से करीबन चार किलोमीटर की दूरी पर था और हर दूसरे तीसरे साल आने वाली बाढ़ गांव के कच्चे घरों को गिरा देती या नुकसान पहुंचाती। गांव में केवल दो घर पक्के थे। दो अन्य घरों की केवल आगे की दीवार पक्की थी, पीछे का पूरा घर कच्चा होता था।

आज मेरे गांव में कोई घर कच्चा नहीं है। शहरी तरह के अनेक मकान हैं। पहले किसी भी घर में शौचालय या बाथरूम नहीं थे, आज सभी में हैं। कुछ घरों में बिजली दो अक्टूबर 1969 गांधी जन्मशताब्दी पर आ गई थी। अब सभी घरों में बरसों से बिजली है।

लगभग सब घरों में कलर टीवी हैं। अनेकों में फ्रिज भी हैं। लगभग सभी घरों में एलपीजी गैस कनेक्शन हैं। ट्रैक्टर, कार, जीप, मोटरसाइकिल और स्मार्टफोन बड़ी संख्या में हैं।

अब मेरे गांव में बाढ़ नहीं आती। पचास के दशक में यमुना के आस पास के हर गांव से बारी बारी 20 जवान किसान रोज़ाना अपना तस्ला व कस्सी लेकर यमुना पर बांध बनाने के लिए  जाते थे।  हजारों आदमी काम करते थे। महीनों काम चला।  उन्हें किसी तरह की मजदूरी नहीं मिलती थी। कोई मांगता भी नहीं था। उन्हें बस यमुना का रुख मोड़ कर बाढ़ से बचाव की उम्मीद थी और यह पूरी भी हुई।

मेरे गांव में कोई स्कूल नहीं था। पास के गांव में मैने पढ़ाई शुरू की। तीसरी कक्षा में पहुंचा तो हमारे गांव में सरकारी प्राइमरी स्कूल खुला जो आज मिडिल स्तर का हो चुका है।  अब गांव में सीनियर सेकेंडरी स्तर का एक केंद्रीय विद्यालय और एक प्राइवेट स्कूल भी काम कर रहे हैं।

1. स्वतंत्रता दिवस पर हरियाणवी लोकनृत्य पेश करती लड़कियां। 2. हरियाणा के लोकगायक जंगम जोगी। 3. करनाल के पास कोस मीनार 4. अपने गांव के खेतों में लेखक, पत्नी व बेटी के साथ।

सुबह सवेरे अनेक पीली बसें गांव में आती हैं और बच्चों को महंगे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई के लिए ले जाती हैं। मैं गांव से पहला ग्रेजुएट था। अब बहुत हैं पर उनका स्टैंडर्ड बहुत नीचे है और अधिकतर उपयुक्त रोज़गार  योग्य नहीं हैं। सरकारी नौकरी में गांव के बहुत कम युवा हैं। एक दर्जन से भी कम। पानीपत के आसपास बड़ी संख्या में छोटे बड़े अनेक उद्योग कायम हुए हैं। वहां अधिकतर युवा कम वेतन के बावजूद काम करते हैं।

खेती की जोत बहुत छोटी हो गई है। केवल खेती से गुजारा नहीं हो सकता। पशुपालन भी करते हैं। पिछले तीन चार साल से विदेशों में जाने का रुझान बना है। गांव से 10 युवा अमरीका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जा चुके हैं। वे पचास लाख रुपए में एक एकड़ ज़मीन बेचते हैं और एजेंटों के जरिए डंकी रूट से अमेरिका पहुंच जाते हैं। घर डॉलर भेजते हैं, परिवार वाले आलीशान मकान बना लेते हैं।

मेरे गांव में शराब व नशे का चलन नहीं था, अब खूब है। कई परिवार तबाह हो चुके हैं। मेरे एक छोटा भाई और उसके दो बेटों को नशे ने लील लिया। शुक्र है कि घर की महिलाओं ने घर को संभाल लिया।

मेरे गांव में अनुसूचित जाति के स्थानीय लोग अब कम ही मजदूरी करते हैं। वे मनरेगा की दिहाड़ी जरूर करते हैं।

खेती अब बिहार, यूपी, झारखंड से आए मजदूरों पर ही आधारित है।

अक्सर मीडिया में खबर आती है कि हरियाणा में देश में सबसे अधिक बेरोजगारी है, 30% से अधिक. इस आंकड़े पर कुछ यकीन नहीं होता। अगर यहां इतनी बेरोजगारी है तो लाखों की तादाद में यहां बाहरी राज्यों के मजदूर किस लिए आते हैं। बिहार यूपी से लाखों की संख्या में मजदूर अन्य राज्यों में रोजगार के लिए जाते हैं। हरियाणा से तो इस तरह का माइग्रेशन नही होता। यहां का स्थानीय युवा मजदूरी नहीं करना चाहता, वो तो सरकारी नौकरी चाहता है जो बड़ी संख्या में नहीं हैं।

मेरे गांव में  पंचायत चुनाव जो पहले सर्वसम्मति से होते थे अब लाखों रुपए खर्च करते हैं। हर चुनाव में गांव जाति आधार पर बंट जाता है। पंचायत के पास तीस एकड़ जमीन हैं। इसकी सालाना नीलामी से अच्छी आमदनी होती है जो विकास कार्यों पर लगाई जाती है। सरकार ने गांव के सभी बड़े विकास कार्य ऑनलाइन टेंडर के जरिए कराने का फैसला किया है। इसका प्रदेश भर में विरोध हो रहा है। एक सरपंच का कहना था कि अगर उन्हें इस फैसले का पता होता तो वे चुनाव में इतना पैसा न लगाते। विरोधी पार्टी वादा कर रही है कि उसकी सरकार आने पर वह ऑनलाइन टेंडर सिस्टम समाप्त कर देगी।

गांव की आबादी एक हज़ार से बढ़ कर लगभग दो हज़ार हो चुकी है। अब ठहराव सा आ गया है। वर्तमान पीढ़ी में अधिकतर घरों  में दो से ज्यादा बच्चे नहीं हैं। लड़के ज्यादा पैदा हो रहे हैं, लड़कियां कम। युवाओं की शादी की बड़ी समस्या है। लड़कियां नहीं मिल रही।

गांव में जाता हूं तो लोग अक्सर यही कहते हैं कि उनके लड़के की नौकरी लगवा दो, उसकी शादी हो जायेगी। उनके पास अच्छी मेरिट नहीं है। मैं तैयारी करने की बात कहता हूं तो वे कुछ ले दे के सौदा कराने की बात कहने लगते हैं। वे मुझसे निराश होकर ही चले जाते हैं। भाई तो ये भी उलहाना दे देते हैं कि तूने अपने बच्चे भी तो नौकरी लगवाए हैं, हमारे क्यूं नही?

मेरिट में उनका यकीन नहीं है।

लोग मोदी के प्रशंसक हैं पर इस बार मुख्य मंत्री को हराने की बात करते हैं यह कह कर कि वह लोगों के काम नहीं करता। और काम एक ही है, बच्चों को नौकरी दिलाना।

मुख्य मंत्री करनाल से विधायक हैं और मेरा गांव निकटवर्ती विधानसभा क्षेत्र में आता है। सार्वजनिक काम काफी हुए हैं, पर लोगो की मुख्य समस्या तो पर्सनल है, रोजगार की।

मेरे गांव के सेन नाई ओबीसी वर्ग के अति गरीब परिवार के दो भाई निजी कंपनियों में मैनेजर हैं। विदेशों की यात्राएं करते हैं। काश ऐसी और कहानियां होती।

टमाटर की महंगाई का मेरे गांव में कोई जिक्र नहीं है। कहते हैं ये शहर वालों की प्रोब्लम है। वे कहते हैं इससे किसानों का फायदा ही है। अगले साल वे भी टमाटर लगाने की कह रहे हैं। दूध, अनाज, घी घर का है। घीया तोरी सब्जी भी लगा लेते हैं।

मेरा गांव बदल रहा है, बड़ी तेज़ी से।

उन्नत बीजों और ट्यूबवेल की सिंचाई के विस्तार से पैदावार कई गुना बढ़ी है पर जल स्तर गिरता जा रहा है।   रेत और मिट्टी की खदाने कृषि के भविष्य पर सवाल खड़े कर रही हैं। रसायनिक खाद और पेस्टीसाइड का उपयोग फूड चेन में आ चुका है। मेरे गांव में डायबिटीज के एक दर्जन से ज्यादा केस हैं। कैंसर के तीन मरीज़ हैं। इनमें एक मेरा अपना भाई है जिसका केस एडवांस स्टेज पर है।

आज़ादी के बाद गांव बदल गया है। समृद्धि आई है पर साथ ही बीमारी और बेरोजगारी भी बढ़ गई हैं। पहले कुछ न होते हुए भी संतोष था, आज बहुत कुछ होते हुए भी निराशा और असंतोष है। करीबन ऐसी ही स्थिति उत्तर भारत के अधिकतर गांवों की है।

पचास के दशक में मेरी याद के पहले स्वतंत्रता दिवस पर तत्कालीन सरपंच पंडित रामकिशन तिरंगा लेकर गांव की गलियों से घूमे थे और हम भारत माता की जय के नारे लगाते हुए गांव के भूमिया खेड़ा पर पहुंचे थे जहां झंडे को टांग दिया गया था। हमें कुछ पताशे मिले थे। भूमिया खेड़ा वह स्थान होता है जहां गांव बसाने के समय भूमि पूजन किया गया होता है। यह एक ग्राम देवता की तरह ही होता है। सभी शुभ कार्यों पर भूमिया खेड़े की पूजा की जाती है।

गांव में अब स्वतंत्रता दिवस तीन बड़े स्कूलों में धूमधाम से मनाया जाता है।

मेरे सभी ग्रामवासियों को स्वतंत्रता दिवस की बधाई। नए ज़माने की नई चुनौतियों का सामना अपने आप ही करना होगा। अवसरों की जानकारी लें, उनका लाभ उठाएं।  बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाएं, बुरी संगत व आदतों से खुद भी बचें और बच्चों को भी बचाएं।

आप सभी ग्रामवासियों के लिए स्वतंत्रता दिवस शुभ हो।

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647037

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार से स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print