हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #238 ☆लालसा ज़हर है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख लालसा ज़हर है… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 238 ☆

☆ लालसा ज़हर है… ☆

‘आवश्यकता से अधिक हर वस्तु का संचय व सेवन ज़हर है…सत्ता, संपत्ति, भूख, लालच, सुस्ती, प्यार, इच्छा, प्रेम, घृणा और आशा से अधिक पाने की हवस हो या जिह्वा के स्वाद के लिए अधिक खाने की इच्छा…दोनों ज़हर हैं, घातक हैं, जो इंसान के पतन का कारण बनती हैं।’ परंतु बावरा मन सब कुछ जानने के पश्चात् भी अनजान बना रहता है। जन्म से लेकर मृत्यु- पर्यंत इच्छाओं-आकांक्षाओं के मायाजाल में उलझा रहता है तथा और… और…और पाने की हवस उसे पल-भर के लिए भी चैन की सांस नहीं लेने देती। वैसे एक पथिक के लिए निरंतर चलना तो उपयोगी है, परंतु उसमें जिज्ञासा भाव सदैव बना रहना चाहिए। उसे बीच राह थककर नहीं बैठना चाहिए; न ही वापिस लौटना चाहिए, क्योंकि रास्ते तो स्थिर रहते हैं; अपने स्थान पर बने रहते हैं और चलता तो मनुष्य है।

इसलिए रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘एकला चलो रे’ का संदेश देकर मानव को प्रेरित व ऊर्जस्वित किया था, जिसके अनुसार मानव को कभी भी दूसरों से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह मानव को भ्रम में उलझाती है…पथ-विचलित करती है और उस स्थिति में उसका ध्यान अपने लक्ष्य से भटक जाता है। अक्सर वह बीच राह थक कर बैठ जाता है और उसे पथ में निविड़ अंधकार-सा भासता है। परंतु यदि वह अपने कर्तव्य-पथ पर अडिग है; अपने लक्ष्य पर उसका ध्यान केंद्रित है, तो वह निरंतर कर्मशील रहता है और अपनी मंज़िल पर पहुंच कर ही सुक़ून पाता है।

आवश्यकता से अधिक हर वस्तु की उपलब्धि व सेवन ज़हर है। यह मानव के लिए हानिकारक ही नहीं; घातक है, जानलेवा है। जैसे नमक शरीर की ज़रूरत है, परंतु स्वाद के लिए उसका आधिक्य रक्तचाप अथवा ब्लड-प्रैशर को  आह्वान देता है। उसी प्रकार चीनी भी मीठा ज़हर है; असंख्य रोगों की जन्मदाता है। परंतु सत्ता व संपत्ति की भूख व हवस मानव को अंधा व अमानुष बना देती है। उसकी लालसाओं का कभी अंत नहीं होता तथा अधिक …और अधिक पाने की उत्कट लालसा उसे एक दिन अर्श से फ़र्श पर ला पटकती है, क्योंकि आवश्यकताएं तो सबकी पूर्ण हो सकती हैं, परंतु निरंकुश आकांक्षाओं व लालसाओं का अंत संभव नहीं है।

आवश्यकता से अधिक मानव जो भी प्राप्त करता है, वह किसी दूसरे के हिस्से का होता है तथा लालच में अंधा मानव उसके अधिकारों का हनन करते हुए तनिक भी संकोच नहीं करता। अंततः वह एक दिन अपनी सल्तनत क़ायम करने में सफलता प्राप्त कर लेता है। उस स्थिति में उसका लक्ष्य अर्जुन की भांति निश्चित होता है, जिसे केवल मछली की आंख ही दिखाई पड़ती है… क्योंकि उसे उसकी आंख पर निशाना साधना होता है। उसी प्रकार मानव की भटकन कभी समाप्त नहीं होती और न ही उसे सुक़ून की प्राप्ति होती है। वास्तव में लालसाएं पेट की क्षुधा के समान हैं, जो कभी शांत नहीं होतीं और मानव आजीवन उदर-पूर्ति हेतु संसाधन जुटाने में व्यस्त रहता है।

परंतु यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगी कि नियमित रूप से मल-विसर्जन के पश्चात् ही मानव स्वयं को भोजन ग्रहण करने के योग्य पाता है। उसी प्रकार एक सांस को त्यागने के पश्चात् ही वह दूसरी सांस ले पाने में स्वयं को सक्षम पाता है। वास्तव में कुछ पाने के लिए कुछ खोना अर्थात् त्याग करना आवश्यक है। यदि मानव इस सिद्धांत को जीवन में अपनाता है, तो वह अपरिग्रह की वृत्ति को तरज़ीह देता है। वह हमारे पुरातन संत-महात्माओं की भांति परिग्रह अर्थात् संग्रह में विश्वास नहीं रखता, क्योंकि वे जानते थे कि भविष्य अनिश्चित है और गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। सो! आने वाले कल की चिंता व प्रतीक्षा करना व्यर्थ है और जो मिला है, उसे खोने का दु:ख व शोक मानव को कभी नहीं मानना चाहिए। गीता का संदेश भी यही है कि मानव जब जन्म लेता है तो उसके हाथ खाली होते हैं। वह जो कुछ भी ग्रहण करता है, इसी संसार से लेता है और अंतिम समय में सब कुछ यहीं छोड़ कर, उसे अगली यात्रा के लिए अकेले निकलना पड़ता है। यह चिंतनीय विषय है कि इस संसार में रहते हुए ‘पाने की खुशी व खोने का ग़म क्यों?’ मानव का यहां कुछ भी तो अपना नहीं…जो कुछ भी उसे मिला है– परिश्रम व भाग्य से मिला है। सो! वह उस संपत्ति का मालिक कैसे हुआ? कौन जानता है, हमसे पहले कितने लोग इस धरा पर आए और अपनी तथाकथित मिल्क़ियत को छोड़ कर रुख़्सत हो गए। कौन जानता है आज उन्हें? इसलिए कहा जाता है कि जिस स्थान की दो गज़ ज़मीन मानव को लेनी होती है; वह स्वयं वहां चलकर जाता है। यह सत्य कथन है कि जब सांसो का सिलसिला थम जाता है, तो हाथ में पकड़ा हुआ प्याला भी ओंठों तक नहीं पहुंच पाता है। सो! समस्त जगत्-व्यवहार सृष्टि-नियंता के हाथ में है और मानव उसके हाथों की कठपुतली है।

परंतु आवश्यकता से अधिक प्यार-दुलार, प्रेम-घृणा, राग-द्वेष आदि के भाव भी हमारे पथ की बाधा व अवरोधक हैं। प्यार में इंसान को अपने प्रिय के अतिरिक्त संसार में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। परंतु उस परमात्मा के प्रति श्रद्धा व प्रेम मानव को उस चिरंतन से मिला देता है; आत्म-साक्षात्कार करा देता है। इसके विपरीत किसी के प्रति घृणा भाव उसे दुनिया से अलग-थलग कर देता है। वह केवल उसी का चिंतन करता है और उसके प्रति प्रतिशोध की बलवती भावना उसके हृदय में इस क़दर घर जाती है कि वह उस स्थिति से उबरने में स्वयं को असमर्थ पाता है।

इसी प्रकार ‘लालच बुरी बला है’ यह मुहावरा हम सब बचपन से सुनते आ रहे हैं। लालच वस्तु का हो या सत्ता व धन-संपत्ति का; प्रसिद्धि पाने का हो या समाज में दबदबा कायम करने का जुनून– मानव के लिए हानिकारक है, क्योंकि ये सब उसमें अहं भाव जाग्रत करते हैं। अहं संघर्ष का जन्मदाता है, जो द्वन्द्व का परिणाम है अर्थात् स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने का भाव मानव को नीचे गिरा देता है। वह अहंनिष्ठ मानव औचित्य- अनौचित्य व विश्वास-अविश्वास के भंवर में डूबता-उतराता रहता है और सही राह का अनुसरण नहीं कर पाता, क्योंकि वह भूल जाता है कि इन इच्छाओं-वासनाओं का अंत नहीं। परिणामत: एक दिन वह अपनों से दूर हो जाता है और रह जाता है नितांत अकेला; एकांत की त्रासदी को झेलता हुआ…और वह उन अपनों को कोसता रहता है कि यदि वे अहं का त्याग कर उसका साथ देते, तो उसकी यह मन:स्थिति न होती। एक लंबे अंतराल के पश्चात् वह अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, जो संभव नहीं होता है। ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् सब कुछ लुट जाने के पश्चात् हाथ मलने अथवा प्रायश्चित करने का क्या लाभ व प्रयोजन अर्थात् उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता। जीवन की अंतिम वेला में उसे समझ आता है कि वे महल-चौबारे, ज़मीन-जायदाद, गाड़ियां व सुख-सुविधाओं के उपादान मानव को सुक़ून प्रदान नहीं कर सकते, बल्कि उसके दु:खों का कारण बनते हैं। वास्तविक सुख तो संतोष में है; परमात्मा से तादात्म्य में है; अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाकर संग्रह की प्रवृत्ति त्यागने में है; जो आपके पास है, उसे दूसरों को देने में है;  जिसकी सुधबुध उसे जीवन-भर नहीं रही। वह सदैव संशय के ताने-बाने में उलझा मृग- तृष्णाओं के पीछे दौड़ता रहा और खाली हाथ रहा। जीवन की अंतिम बेला में उसके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त खोने के लिए शेष कुछ नहीं रहता। सो! मानव को स्वयं को माया- जाल से मुक्त कर सृष्टि-नियंता का हर पल ध्यान करना चाहिए, क्योंकि वह प्रकृति के कण-कण में वह समाया हुआ है और उसे प्राप्त करना ही मानव जीवन का अभीष्ठ है।

आलस्य समस्त रोगों का जनक है और जीवन- पथ में अवरोधक है, जो मानव को अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंचने देता। इसके कारण न तो वह अपने जीवन में  मनचाहा प्राप्त कर सकता है; न ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति का स्वप्न संजो सकता है। इसके कारण मानव को सबके सम्मुख नीचा देखना पड़ता है। वह सिर उठाकर नहीं जी सकता और उसे सदैव असफलता का सामना करना पड़ता है, जो उसे भविष्य में निराशा-रूपी गहन अंधकार में भटकने को छोड़ देती है। चिंता व अवसाद की स्थिति से मानव लाख प्रयत्न करने पर भी मुक्त नहीं हो सकता। इस स्थिति से निज़ात पाने के लिए जीवन में सजग व सचेत रहना आवश्यक है। वैसे भी अज्ञानता जीवन को जड़ता प्रदान करती है और वह चाहकर भी स्वयं को उसके आधिपत्य, नियंत्रण अथवा चक्रव्यूह से मुक्त नहीं कर पाता। सो! जीवन में सजग रहते हुए अच्छे-बुरे की पहचान करने व लक्ष्य-प्राप्ति के निमित्त अनथक प्रयास करने की आवश्यकता है। आत्मविश्वास रूपी डोर को थाम कर इच्छाओं व आकांक्षाओं पर अंकुश लगाना संभव है। इस माध्यम से हम अपने श्रेय-प्रेय को प्राप्त कर सकते हैं तथा वह हमें उस मुक़ाम तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध हो सकता है।

‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ अर्थात् केवल ब्रह्म ही सत्य है और भौतिक संसार व जीव-जगत् हमें माया के कारण सत्य भासता है, परंतु वह मिथ्या है। सो! उस परमात्मा के अतिरिक्त, जो भी सुख-ऐश्वर्य आदि मानव को आकर्षित करते हैं; मिथ्या हैं, क्षणिक हैं, अस्तित्वहीन हैं और पानी के बुलबुले की मानिंद पल-भर में नष्ट हो जाने वाले हैं। इसलिए मानव को इच्छाओं का दास नहीं; मन का मालिक बन उन पर नियंत्रण रखना चाहिए, क्योंकि आवश्यकता से अधिक हर वस्तु रोगों की जननी है। सो! शारीरिक स्वस्थता के लिए जिह्वा के स्वाद पर नियंत्रण रखना श्रेयस्कर है। स्वाद का सुख मानव के लिए घातक है; सर्वांगीण विकास में अवरोधक है और हमें ग़लत कार्य करने की ओर प्रवृत्त करता है। अहंतुष्टि के लिए कृत-कर्म मानव को पथ- विचलित ही नहीं करते; अमानुष व राक्षस बनाते हैं और उन पर विजय प्राप्त कर मानव अपने जीवन को सफल व अनुकरणीय बना सकता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 403 ⇒ थप्पड़ और पत्थर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “थप्पड़ और पत्थर।)

?अभी अभी # 403 ⇒ थप्पड़ और पत्थर? श्री प्रदीप शर्मा  ?

थप्पड़ और पत्थर दोनों शब्दों में बहुत समानता है। पत्थर न केवल आकार में ठोस होता है, इस शब्द का उच्चारण भी कोमल नहीं होता। इस शब्द की तो चोट ही बहुत भारी पड़ती है। पत्थर के सनम, तुझे हमने मोहब्बत का खुदा समझा। इतना ही नहीं, किसी पत्थर की मूरत से मोहब्बत का इरादा है। इन दोनों गीतों में लगता है, शायर शायद पत्थर शब्द फेंककर मार रहा है। जरूर किसी पत्थर दिल से वास्ता पड़ा होगा।

अक्षरों का समूह ही तो शब्द है। कुछ शब्द कोमल होते हैं, तो कुछ कठोर। सरिता और कविता तो बहती ही है, जब कि थप्पड़ तो जड़ा जाता है, और पत्थर फेंका जाता है। थप्पड़ से थोबड़ा सूज जाता है और पत्थर कभी किसी का लिहाज नहीं करता।

पत्थर से सेतु भी बनाए जाते हैं, बुलंद इमारतें भी खड़ी की जाती हैं, और पत्थर को पूजा भी जाता है। अगर इरादे बुलंद हों तो एक पत्थर तबीयत से उछलकर आसमान में सूराख भी किया जा सकता है, लेकिन जिनकी अक्ल में ही पत्थर पड़े हों, वे ही हाथों में पत्थर उठाते हैं। फिर कोई कितनी भी अनुनय विनय करे, गिड़गिड़ाए, कोई पत्थर से ना मारे, मेरे दीवाने को।।

जब पत्थर, एक फेंककर चलाए जाने वाले हथियार की शक्ल ले लेता है, तो यह एक अस्त्र हो जाता है। जब कि तलवार, गदा, भाला, शस्त्र की श्रेणी में आते हैं। बेलन अस्त्र भी है और शस्त्र भी। इससे प्रहार भी किया जा सकता है, और इसे फेंककर भी मारा जा सकता है। जो काम एक कलम कर सकती हैं, उसके लिये तलवार चलाना कहां की समझदारी है।

“थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, प्यार से लगता है। “

धन्य है, आज की दबंग पीढ़ी। हमारी पीढ़ी को तो हमेशा डर लगा रहता था, कब किस बात पर पिताजी का थप्पड़ पड़ जाए। हमें याद नहीं, कभी मां ने हमें थप्पड़ मारा हो। हां गुस्सा जरूर होती थी, लेकिन मारूं एक थप्पड़ कहने के साथ ही मुस्कुरा भी देती थी।।

थप्पड़ तो इंसान का बांए हाथ का खेल है। एक पड़ेगी उल्टे हाथ की ! ईंट का जवाब तो पत्थर से दिया जा सकता है, थप्पड़ का जवाब इस पर निर्भर करता है, कि थप्पड़ मारा किसने है। बड़ों का थप्पड़ अकारण ही नहीं होता। अगर हमारी गलती पर तब हमें थप्पड़ नहीं पड़ा होता, तो शायद आज हम गलत रास्ते पर ही होते।।

जिस दबंग कन्या को कभी थप्पड़ से डर नहीं लगा, उसके माता पिता अगर समय रहते ही उसे एक थप्पड़ रसीद कर देते, तो आज वह इस तरह सभ्यता, समाज और संस्कृति का मजाक नहीं उड़ाती।

जिस पीढ़ी को समय पर थप्पड़ नहीं पड़ा, वही आगे चलकर हाथों में पत्थर उठा लेती है। थप्पड़ एक सीख है, सबक है, बच्चों को सुधारने की मनोवैज्ञानिक क्रिया है। जिस तरह समझदार को इशारा काफी होता है, बच्चों को थप्पड़ मारना जरूरी नहीं, केवल थप्पड़ का डर ही काफी है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 202 ☆ नित नूतन नवल विहान… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “नित नूतन नवल विहान…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 202 ☆ नित नूतन नवल विहान

वेदना के स्वर मुखरित होकर सम वेदना को जन्म देते हैं। हमारी सोचने समझने की क्षमता अचानक से कम हो जाती है। हम दर्द को महसूस कर परिस्थितियों के वशीभूत असहाय होकर मौन का दामन थाम लेते हैं।

संवेदना का गुण हर सजीव की विशेषता है ये बात अलग है कि परिस्थितियों वश कभी – कभी लोग कठोर व भाव शून्य हो जाते हैं। साहित्यकार विशेष कर कवि मूलतः भावुक हृदय के होते हैं। बिना भाव किसी भी विषय व विधा पर लिखा ही नहीं जा सकता। सभी रसों का मूल बिंदु करुण रस पर ही आधारित होता है। करुणा से ही संवेदना का अस्तित्व है और यही मुखर होकर शृंगार, वीर, हास्य, रौद्र, वीभत्स, वात्सल्य में परिवर्तित हो जाता है। ईश्वर प्रदत्त इस गुण को अपने मनोमस्तिष्क से कभी कम न होने दें तभी आपके इंसान होने की सार्थकता है।

जीत और हार का सिलसिला कदम- कदम पर सामने आकर परीक्षा लेता है। सच्चे लोग हर परिस्थिति में हौंसला नहीं छोड़ते एक बिंदु पर दोनों दल औपचारिकता वश एक साथ चल पड़ते हैं। अब प्रश्न ये है कि क्या व्यक्तित्व का तेज कम प्रभावी व्यक्ति झेल पायेगा। या कदम – कदम पर बस बहानेबाजी होगी कि मुझे कोई सम्मान नहीं दे रहा। कर्तव्य पथ को छोड़कर जाना कमजोर व्यक्तित्व की निशानी है। योग्यता विकसित करें, भगवान सभी को मौका देते हैं पर पद की गरिमा का निर्वाह वही करेगा जो त्याग की भावना के साथ सबको लेकर चलने की क्षमता रखता हो।

अब समय है नए सूर्योदय का, देखते हैं क्या- क्या निर्णय जनता की तरक्की हेतु एकमत से लिए जाते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 402 ⇒ निन्यानवे का फेर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “निन्यानवे का फेर ।)

?अभी अभी # 402 ⇒ निन्यानवे का फेर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह एक और एक ग्यारह होते हैं, दो नौ मिलकर निन्यानवे होते हैं। इकाई की सबसे बड़ी संख्या अगर ९ है, तो दहाई की ९९ . किशोर उम्र को अंग्रेजी में teen age कहा जाता है, जो तेरह से उन्नीस बरस की होती है। क्रिकेट के बल्लेबाज की भी एक स्थिति होती है, जिसे नर्वस नाइंटीज कहते है। चौके छक्के लगाकर नब्बे तक तो शान से पहुंच गए, इक्यानवे से शुरू होकर यह निन्यानवे पर ही खत्म होती है। कई अच्छे अच्छे बल्लेबाज इस संख्या के बीच अपनी विकेट गंवा बैठते हैं, कुछ तो निन्यानवे के फेर में केवल एक रन से शतक चूक जाते हैं। वीर और शतकवीर के बीच केवल एक रन की ही तो दूरी रहती है।

यह निन्यानवे का फेर भी अजीब है। हम तो खैर अपने समय में इतने प्रतिभाशाली छात्र थे, कि आय नेवर स्टुड सेकंड। हमने हमेशा गांधी डिविजन से ही काम चलाया। लेकिन एक आज की पीढ़ी है, डिविजन से नहीं परसेंटेज से चलती है और वह भी ९०-९५ प्रतिशत से इनका काम नहीं चलता। प्रतिस्पर्धा की दौड़ ही ९९ प्रतिशत से शुरू होती है। ९९.१ से ९९.९ तक प्रतिस्पर्धा ही प्रतिस्पर्धा।

यहां निन्यानवे के फेर में कोई नहीं, शत प्रतिशत में उनका विश्वास होता है। वाकई यह नालंदा की पीढ़ी है, इसमें कोई शक नहीं। ।

बड़ा अजीब है यह अंक ९९, जब अथ श्री महाभारत कथा में योगेश्वर श्री कृष्ण शिशुपाल को निन्यानवे गालियों तक अभयदान का आश्वासन देते हैं, लेकिन जब शिशुपाल यह ९९ की लक्ष्मण रेखा भी पार कर जाता है, तो शिशुपाल का खेल खत्म हो जाता है।

राजनीति में भी एक मुक्त और विलुप्त होने के कगार पर खड़ी पार्टी जब इस बार के लोकसभा चुनाव में ९९ सीट ले आती है, तो हमारे जैसा आम व्यक्ति अनायास ही ध्यानस्थ हो जाता है। क्या ध्यान से सांसारिक अथवा राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है। उधर एक ईश्वर का अवतार चुनाव के बीचोबीच ४५ घंटे का ध्यान करता है, और इधर उसकी घोर विरोधी पार्टी की सीट ५५ से ९९ हो जाती है। अजीब चमत्कार है ध्यान का। ध्यान कोई करे और लाभ किसी और को ही मिले। ।

आजकल सभी निन्यानवे के फेर में लगे हैं। योग से रोग भगाया जा रहा है और पैसा कमाया जा रहा है। ईश्वर से जोड़ने वाले योग को भी टुकड़ों टुकड़ों में बांट दिया है। यम नियम को ठंडे बस्ते में डाल दिया है और काक चेष्टा बको ध्यानं, के मंत्र को व्यवहार में लाते हुए, मोटिवेशनल स्पीच और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के सहारे सफलता के सोपान तय किए जा रहे हैं।

मैं भी आजकल निन्यानवे के फेर में हूं। संगीत सुनने और धारणा ध्यान में व्यर्थ समय ना गंवाते हुए संगीत और योग से बीमारियां कैसे दूर हों, इस पर पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहा हूं। अपने ज्ञान ध्यान का अगर दुनिया को लाभ ना हो, और दो पैसे अगर हम भी नहीं कमाएं, तो समझिए ;

रे मन

मूरख जनम गॅंवायौ। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 402 ⇒ तमाशबीन (Spectator)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तमाशबीन (Spectator)।)

?अभी अभी # 402 ⇒ तमाशबीन (Spectator)? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम जिसे साधारण भाषा में दर्शक कहते हैं, उसे ही अगर गाजे बाजे के साथ पेश किया जाए, तो वह तमाशबीन हो जाता है।

दूर की चीज देखने वाला उपकरण जैसे दूरबीन कहलाता है, ठीक उसी प्रकार दूर से तमाशा देखने वाला तमाशबीन कहलाता है। तमाशबीन कभी एक गंभीर दर्शक नहीं होता।

वह तो सिर्फ मनोरंजन और नाच गाने में विश्वास रखता है।

तमाशा भी देखा जाए तो एक तरह का हल्का फुल्का नाटक अथवा मनोरंजन ही है। मराठी में लोकनाट्य को तमाशा कहते हैं। रंगमंच पर संगीत और नृत्य की मिली जुली प्रस्तुति भी तमाशा ही कहलाती है।।

“तमाशा” फ़ारसी का एक उधार शब्द है, जिसने इसे अरबी से उधार लिया है, जिसका अर्थ है किसी प्रकार का शो या नाटकीय मनोरंजन। इसी तरह

तमाशागर = तमाशा करनेवाला। तमाशागाह= क्रीड़ा- स्थल। कौतुकागार। तमाशबीन = तमाशा देखनेवाला।

हम भारतीय तमाशा प्रेमी हैं। चौराहे पर दो सांडों की लड़ाई हमारे लिए तब तक तमाशा बनी रहती है, जब तक एक सांड द्वारा किसी तमाशबीन को पटक नहीं दिया जाता। जिस घर से भी पति पत्नी अथवा सास बहू के लड़ने की आवाज सुनाई देती है, पहले तो पड़ौसी दीवार में कान लगाकर सुनते हैं, लेकिन जब मामला हाथापाई और मारपीट पर आ जाता है, तो न जाने कहां से तमाशबीन घर के बाहर, बारिश बाद के केंचुए की तरह जमा हो जाते हैं।

हमारे तमाशेबाजों की एक भाषा होती है, जहां भी दो पक्षों में लड़ाई हो रही है, अपना जूता उल्टा कर दिया जाए और “उल्टा जूता चेत भवानी” मंत्र का जाप किया जाए। अगर कहीं भवानी नहीं चेतती, तो एक हारे हुए नेता की तरह, मुंह लटकाकर परास्त भाव से, वहां से पतली गली से निकल लेते हैं।।

तमाशबीन वह होता है, जो कहीं से भी तमाशा बीन निकालता है। ऐसे कई तमाशबीन आपको किसी भी नाले अथवा पुलिया के पास प्रचुर मात्रा में नजर आ जाएंगे। चार लोगों की भीड़ में हमें तमाशा नजर आने लगता है। एक जिज्ञासा, देखें क्या हो रहा है, एक राहगीर को साइकल अथवा स्कूटर रोकने को बाध्य करती है।

वह फुसफुसाहट से भांप लेता है, मामला कितना संगीन है। सबकी कल्पना में एक सांप होता है। कभी नजर आता है, कभी नहीं।

हमारे लिए सबसे बड़ा तमाशा कोई दुर्घटना है।

जहां धुंआ होगा, वहां आग भी होगी। आजकल तो गंभीर हादसों और दुर्घटनाओं को भी मोबाइल पर रेकॉर्ड कर उनका तमाशा बनाया जा रहा है। ऐसे कई टीवी पत्रकार, खोजी पत्रकारिता की आड़ में, बोरवेल में गिरे बच्चे की लाइव रेकॉर्डिंग आज तक पर प्रसारित कर देते हैं।।

जो जिंदगी कभी नाटक थी, आज तमाशा बन गई है। हर जगह सस्पेंस और रोमांच ढूंढना ही तमाशबीन होना है। यह सकारात्मकता से नकारात्मकता की तरफ बढ़ता हुआ एक खतरनाक कदम है। हमने राजनीति, पढ़ाई, साहित्य, धर्म और नैतिकता सबको तमाशा बना दिया है।

सड़कों का तमाशा आजकल घरों में भी प्रवेश कर गया है। बुद्धू बक्से का बाप यानी स्मार्ट फोन और लैपटॉप आज आपकी मुट्ठी में है। सेल्फी एक बीमारी हो गई है और सभी तमाशबीन व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के छात्र हो गए हैं। झूठ के साये में अफवाह और पाखंड पनप रहे हैं। अफसोस, तमाशा जारी है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 107 – जीवन यात्रा : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  जीवन यात्रा

☆ कथा-कहानी # 106 –  जीवन यात्रा : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

वो एक्स और वाई क्रोमोसोम से बनता है तो प्रकृति अपनी प्रचलित विधा के अनुसार उसे एक आवास अलॉट करती है, तरल द्रव्य और अंधकारमय. वो अंधेरे से, अकेलेपन से घबराकर ईश्वर से फरियाद करता है तो सांत्वना मिलती है ईश्वर और उसके बीच की ब्रम्हांडीय भाषा में  ” डरने की जरूरत नहीं है अंकुरित वत्स, ये तुम्हारी जीवनयात्रा की सबसे सुरक्षित जगह है जिसे तुम बाद में हमेशा मिस करोगे. तुम्हारी सारी जरूरतें आटोमेटिकली पूरी होती रहेंगी और तुम यहां अकेले नहीं हो. जो इंसान तुम्हारे साथ है और तुम्हें अगले कुछ महीनों carry करेगा, वो तुम्हारे जीवन का, जीवन में और जीवन के लिये सबसे ज़्यादा caring, loving, sacrificing, friendly companionship होगी. ये मेरी ही रचना है पर तुम सौभाग्यशाली हो कि मैं जिससे महरूम हूँ, वह कंपनी तुम्हें मिल रही है. इसके लिये नश्वरता आवश्यक है जो मेरे नसीब में नहीं है. मैं तो जन्म मरण के चक्र से दूर अविनाशी हूँ, अपने ब्रम्हांडीय संचालन के कर्तव्य बोध से बंधा हूं वरना कौन नहीं चाहता कि ये साथ उसे मिले. तुम अभी अंकुरित हुये हो, लगभग अचल हो, गतिशीलता के गुण  धीरे धीरे विकसित होंगे प्रकृति के नियमानुसार. पहले तुम उसके साथ और वह तुम्हारे साथ रहना समझेगी,तुम्हारे साथ तारतम्यता का प्रादुर्भाव होगा जो बाद में ममता के नाम से जानी जायेगी. तुमसे साक्षात्कार की कल्पना, उसे शारीरिक मोह, सुंदरता और दर्द सबसे विरक्त कर देगी. तुम्हें तो खैर क्या मालुम पर जब पहचानने और पोषण की प्रक्रिया से गुजरते हुये तुम ध्वनि से जुड़ी अभिव्यक्ति के द्वार तक पहुंचोगे तो वह पहला ध्वनि युक्त शब्द होगा “मां “ तो डरने की जरूरत नहीं है मेरे अंकुरित अंश, मैं तो रहूंगा ही तुम्हारे साथ पर तुम मुझे महसूस नहीं कर पाओगे पर जो पहला स्पर्श तुम जानोगे, वही मां है, ये जरूर जान लेना.तुमसे गर्भनाल द्वारा linked गर्भाशय रूपी आवास ही तुम्हें जीवन और पोषण की चिंता से मुक्त रखेगा. यही वह वक्त भी है जब हर समय वो तुम्हारे साथ रहेगी.तुम्हारी जीवनयात्रा का ये सबसे सुरक्षित और चिंतामुक्त काल है.तुम्हारे landlord को तुम्हारी चिंता रहेगी पर तुम्हें पाने का एहसास, उसके अंदर प्रकृति की वह शक्ति देगा, जिसके सामने साहस, वेदना, भय, सहनशीलता बहुत बौने हो जाते हैं.तो जो तुम्हारी हलचल से मुदित होकर तुम्हें बाहर से स्पर्श करे, वह तुम्हारी जीवनदायिनी है “मां ” है ,चाहे कुछ भी हो जाये पर इस रिश्ते को गंवाना नहीं.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 401 ⇒ घर का जोगी जोगड़ा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घर का जोगी जोगड़ा।)

?अभी अभी # 401 ⇒ घर का जोगी जोगड़ा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब तक कोई गांव का व्यक्ति ग्लोबल नहीं होता, वह प्रसिद्ध नहीं हो सकता। आज का जमाना सिद्ध होने का नहीं, प्रसिद्ध होने का है। हमारे अपने अपने कूप हैं, जिन्हें हमने गांव, तहसील, जिला, शहर, महानगर और स्मार्ट सिटी नाम दिया हुआ है। इंसान डॉक्टर, प्रोफेसर, अफसर,

वैज्ञानिक, सी एम, पी एम, और महामहिम तो दुनिया के लिए होता है, उसका भी एक घर होता है, वह किसी का बेटा, और किसी का बाप और किसी का पति भी होता है। घर में न तो नेतागीरी झाड़ी जाती है और न अफसरी।

उज्जैन से कोई मुख्यमंत्री बन गया, तब हमें इतना आश्चर्य नहीं हुआ, जितना सन् १९६८ में, विक्रम विश्वविद्यालय के एक वैज्ञानिक डाॅ हरगोविंद खुराना को संयुक्त रूप से विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिलते वक्त हुआ। ।

तब हम कहां सन् २०१४ के नोबेल पुरस्कार विजेता, विदिशा के श्री कैलाश सत्यार्थी को जानते थे। लेकिन इनका नाम होते ही हम इन्हें जान गए। यही होता है जोगड़ा से जोगी होना।

प्रतिभाओं को कहां घर में पहचाना जाता है। कहीं कहीं तो घर से पलायन के पश्चात् ही प्रतिभा में निखार आता है तो कहीं कहीं पलायन के पश्चात् ही प्रतिभा को पहचान मिलती है। ब्रेन ड्रेन होगी कभी एक गंभीर समस्या आज इसे एक उपलब्धि माना गया है। ।

आज के जोगड़े भी बड़े चालाक हैं, जोगी बनते ही अपने गांव, शहर और देश को ही भूल जाते हैं। एक जोगड़े थे राजनारायण, जो रातों रात इंदिरा गांधी को हराकर आन गांव में सिद्ध हो गए थे। उनकी पत्नी को आज तक, कभी कोई नहीं जान पाया। वाह रे जोगी। इसी तरह मां बाप और परिवार को छोड़ कई जोगड़े आज विदेशों में नाम कमा रहे हैं। आजकल बुढ़ापे की लाठी, वैसे भी बच्चे नहीं, पैसा ही तो है, भिजवा देते हैं गांव में।

जोगड़े से जोगी बनना इतना आसान भी नहीं। कभी अपनों को छोड़ना पड़ता है, तो कभी अपनों के कंधों पर पांव रखकर आगे निकलना पड़ता है। स्वार्थ, मतलब, महत्वाकांक्षा के बिना आजकल कहां प्रतिभा में निखार आता है। व्यापम घोटाले से आज NET और NEET तक का सफर तो यही कहानी कहता नजर आता है। इन घोटालों की आड़ में गांव के बेचारे कई योग्य जोगड़े, कहीं जोगड़े ही ना रह जाए, और जो जुगाड़ और राजनीतिक प्रभाव वाले हैं, कहीं वे बाजी ना मार जाएं। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 89 – देश-परदेश – सुनो सुनो और सुनो ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 89 ☆ देश-परदेश – सुनो सुनो और सुनो ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन से वृद्धावस्था तक सुनते ही तो आ रहें हैं। कब तक सुनते रहेगें,हम उनकी ? ये वाक्य यादा कदा दिन मे उपयोग हो ही जाता हैं।

पुराने समय में पत्नियां भी अपनी सहेलियों से अक्सर ये शिकायत करती रहती थी, कि “हमारे ये तो सुनते ही नहीं हैं”, वो समय कुछ और था,जब अर्धांगनियां पति को संबोधन में कहती थी “अजी सुनते हो” अब समय शट अप से गेट लॉस्ट से भी आगे जा चुका हैं।

हमारे बॉलीवुड की सफलतम और एक अच्छे व्यक्तित्व की धनी श्रीमती अलका याग्नियक जी विगत कुछ दिनों से अपनी श्रवण शक्ति खो चुकी हैं।उनकी मधुर आवाज़ ही उनकी पहचान हैं।उन्होंने सभी से अपील की है, कि कान में हेडफोन (यंत्र नुमा) के अत्याधिक उपयोग से ऐसा हुआ हैं।

आजकल विशेषकर युवा पीढ़ी के लोग इयरफोन या हेडफोन से ही संगीत सुनना या कुछ भी सुनना पसंद करती हैं।पैदल सड़क पर,रेलपटरी, भोजन खाते समय,गाड़ी चलाते हुए या कुछ भी करते हुए इसका प्रचालन बहुत अधिक बढ़ गया हैं।परिणाम सामने है,दुर्घटनाएं और सुनने की क्षमता का कम होना,इस बात का प्रमाण हैं।

ये तो अच्छा हुआ कि व्हाट्स ऐप/ मेल आदि आ गए वरना ये सब फोन से बात करके ही संभव हो पता, कानों की क्या हालत होती ?

हमारे एक मित्र की बात भी सुन लेवें,उनके परिवार ने अब इयरफोन से तौबा कर ली है।घर में कुल अलग अलग रंग/डिजाइन के दस पुराने इयरफोन को जोड़ कर उसकी कपड़े सुखाने के लिए उपयोग कर रहे हैं। आप ने इसके रीयूज के लिए क्या विचार किया हैं ?

हमारी बातें भी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देवें, इसी में मज़े हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ कुडोज़ टू कविता ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ आलेख ☆ कुडोज़ टू कविता ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

कल एक कार्यक्रम में गयी थी। अपने शहर आने के बाद एक बात अच्छी यह हुई है कि यहाँ अकादमिक कार्यक्रम होते रहते हैं और मन खुश रहता है। कल ऐसे ही एक कार्यक्रम में गयी और मन प्रसन्न हो गया। कविता और सूरों का सुंदर मिलन! कार्यक्रम था तो कविता पाठ का लेकिन जिस नाटकियता के साथ प्रस्तुत किया गया वह अपनी एक नवीनता लिए था। वैसे महाराष्ट्र में साहित्य और कला का जो मेल हमें देखने मिलता है वह बहुत ही न्यारा है। खैर, कल का जो कार्यक्रम था उसका शीर्षक ही मन को भा गया.. भाई.. एक कवितेचा शोध। अर्थात भाई मतलब पु, ल देशपांडे।  मराटी साहित्य के दिगज्ज साहित्यकार!मराठी साहित्य जगत में उनका संबोधन पु. ल ही है। इस कार्यक्रम की थीम भी अनुठी थी। इसमें पु. ल. और उनकी पत्नी सुनिताबाई,  दोनों ने मिलकर कविता की जो खोज अपने पुस्तकों के बीच करते है और उस खोज में वे दोनों किसतरह अपनी स्मृति यात्रा में खो जाते हैं उसका लेखा जोखा कविता के माध्यम से करते हैं..इसकी अप्रतिम प्रस्तुति की गई थी। कार्यक्रम की प्रस्तुति, मुक्ता बर्वे का कविता पाठ और उसकी अभिनेयता दिल को खुश कर गयी। कविता हमारे जीवन का अहम हिस्सा है यह बात कितनी सहजता से स्वाभाविकता से इन कलाकारों ने रसिकों तक पहुँचायी… इसके लिए कलाकारों को कुडोज़!! रादर कुडोज़ टू कविता!

पिछले कुछ दिनों से गुलज़ार की जीवनी पढ़ रही हूँ.. और उनके के साथ उनकी नज़्मों की दुनिया में पहुँच रही हूँ। इसलिए मन का विश्व कविता और नज़्मों से सराबोर है। कलवाले कार्यक्रम के कारण कविता मेरे दिलो दिमाग पर लहरा रही है। आज के इस आपाधापि के जीवन में अंतर्मुख करने के लिए कविता एक बहुत बड़ा माध्यम है, जिसका एक सिरा लेकर हम बहुत दूर की यात्रा कर आते है। पता ही नहीं होता कि वह हमें कहाँ कहाँ ले जाती है। पता नहीं किस क्षितिज की यात्रा करा देती है। सुबह शाम के रंग दिखा देती है और दोपहर की कड़ी धूप में हमें ठडंक भी पहुँचाती है। एक अच्छी कविता दिन बना देती है।

कल वॉटसअप पर आयी एक लंबी कविता मेरे भाई ने मुझे फॉरवर्ड की थी और बार बार पूछ रहा था कि क्या, ‘तुमने कविता सुनी’? उसके कहने पर सुनी भी। कविता अच्छी ही नहीं बेहतर भी थी। कविता-पाठ भी बढ़िया था। कविता का भाव यही था कि हमारे जीवन की किताब का पहला पन्ना और आखरी पन्ना तो पहले से लिखा गया है पर इसके मध्य के सारे पन्ने हमें लिखने होते हैं। कितना निरिह है मेरा भाई, मुझे कह रहा था तुम लिख दो वह सारे खाली पन्ने!  मैं! दरअसल हमारे जीवन के सारे खाली पन्ने हमें खुद ही लिखने होते हैं, क्रिएट करने होते हैं। कोई किसी के जीवन का खालीपन भले ही थोड़ी देर के लिए भर दे पर उसके जीवन के कोरे कागज़ पर लिखता तो वही है। खैर, जहाँ तक क्रिएशन … रचनात्मकता की बात है तो सोशल मीडिया से लोग रचनात्मकता से अवगत हो रहे हैं। युवा कलाकारों को, जिनके अंदर एक रचयिता छूपा बैठा है उनको अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का अच्छा प्लैटफॉर्म मिला है।  इक्कीसवीं सदी में तंत्रज्ञान इतना विस्तार पा गया है कि कुछ लोगों का मानना है कि अब हमारे भीतर का निर्झर सूखता चला जा रहा है। हर उठती उँगली के साथ एक रील देखना और देखते चले जाना यह प्रवृत्ति रचनात्मकता को रिप्लेस करती जा रही है। यह बात सही होने है पर भी इसके साथ ही एक और सच्चाई यह भी है कि इसी तंत्रज्ञान का उपयोग कर आज की युवा पीढ़ि अपनी रचनात्मकता को आगे भी ला रही है। उनकी ‘स्टैंडअप कविता’ मन को छू जाती है। आज युवा वर्ग अपने तईं  अपनी रचनात्मकता बनाए रख रहा है। भले ही उनके प्रतीक, बींब, शैली शिल्प अलग है.. और होने भी चाहिए… नया प्रयोग तो होता ही आया है और साहित्य का कहन तो समय के रहते बदलता ही है और बदलता आ ही रहा है… किंतु वे जुड़े तो है ना लेखन से और लेखनी से…अगर मैं खुद को करेक्ट करूँ तो की-बोर्ड पर अपने फिंगर टीप से…या उससे भी आगे जाकर कहें तो मोबाइल पर अपनी उंगलियाँ चलाकर क्रिएशन करने में। हाँ और एक बात ..अब तो वह ज़माना भी लद गया जह क़ॉपि, डायरी या पेपर लेकर कविता पढ़ी जाती थी… अब तो मोबाइल के स्क्रीन के माध्यम से कविता पाठ होता है….क्यों न हो… यंत्रों का किया जानेवाला सहज उपयोग है यह! आज पुरानी पीढ़ी भी तो उसका महत्व समझ रही है… कागज़ का उपयोग भी कम ही है…। खैर,

यहाँ एक उदीयमान युवा कवियों का मंच है, जहाँ तक मुझे पता है यह बच्चे कुल बीस पच्चीस साल के होंगे जो कविता का पाठ करते है.. खुद की… हिंदी, मराठी, कन्नड और अंग्रेजी भाषा में अपने भाव पिरो देते है… और अपना कविता की प्रस्तुति करते हैं…अच्छा है न…। मुझे खुशी इस बात की है कि कविता आज भी इस यंत्र विश्व में अपना स्थान लिए है… आखिर इन्सान को अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त तो करनी ही होती है न… उसके लिए शब्दों की आवश्यकता है ही… इसलिए चाहे कुछ भी हो जाए कविता लुप्त नहीं होगी…इसका भरोसा है। कविता हमारे हाथों से छूटती चली जा रही है यह कहना ही सही नहीं है.. भले ही हम कितने ही खिन्न, अकेले या व्यस्त क्यों न हो कविता ही हमारे भीतर उत्साह  भर देती है। आज के व्यस्ततापूर्ण जीवन में अंजुली में जुही के फूलों को लेकर सुंघने का भी समय नहीं है पर ऐसे में भी कविता हमें अंदर से संपन्न बना देती है, उसके मात्र स्पर्श से मन खिल जाता है।

गुलज़ार कहते हैं,

मुझसे एक नज्म का वादा है, मिलेगी मुझको

डूबती नब्जों में जब दर्द को नींद आने लगे।

दर्द और कविता का पता नहीं क्या रिश्ता है। कितना बड़ा सवाल है कि कविता का जन्म कैसे होता है… पंत तो कहकर गए वियोगी होगा पहला कवि…और शेले ने टी ए स्काईलार्क कविता में कहा है कि  ‘हमारे सबसे मधुर गीत वे हैं जो सबसे दुखद विचार बताते हैं।’ कितना विरोधाभास है न कि तीव्र दुख अक्सर तीव्र खुशी से पहले होता है, और हमारी सबसे गहरी भावनात्मक अभिव्यक्तियाँ अक्सर हमारे सबसे गहरे दुखों से निकलती हैं। मुझे अक्सर लगता है कि कविता के माध्यम से हम खुद से बात करते हैं..अपनी भावनाएँ उतार देते हैं.. पंक्ति दर पंक्ति… और कहीं अपनी ही  भावनाओं के बोझ से रिक्त भी होते जाते हैं… धूमिल ने एक जगह बहुत अच्छी बात कही है, …

कविता

घेराव में

किसी बौखलाए हुए आदमी का

संक्षिप्त एकालाप है।

तो रघुवीर सहाय को कविता को हलफनामा कहते हैं,

कविता शब्दों की अदालत में

मुज़रिम के कटघरे में खडें

बेकसूर आदमी का

हलफनामा है।

वास्तव में कविता एक हलफनामा ही है, जहाँ हम अपने मनन, चिंतन और  रुदन भी शब्दबद्ध कर देते हैं। कुछ पांच छह साल पहले प्रसून जोशी की एक कविता पढ़ी थी.. उसका शीर्षक ही था,.. क्या है कविता.. प्रसून लिखते हैं, “कविता एक दृष्टि देती है। जो दूसरों को नहीं दिख रहा, उसके पार देख लेना कविता है।” कविता क्या है इसको समझाते हुए उन्होंने एक बेहद उम्दा कविता लिखी है। उस कविता की अंतिम पंक्तियाँ मुझे अच्छी लगी थी… 

दो घड़ी ठहर कर 

जीवन की नदी को 

बहते देखना है 

कविता वहीं कहीं है। 

कविता क्या है के बारे में हर रचनाकार सोचता है कि क्या है वह? हर एक के लिए वह कुछ न कुछ होती है.. बहुत कुछ होती है..शायद उससे अधिक कुछ। मेरे लिए वह एक संवाद है….खुद से…उसके माध्यम से ही मैं बात करती हूँ… कभी खुद से तो कभी तुम से। इसलिए एकालाप कहूँ या फिर संवाद!  पर वह है इसलिए मन का संतुलन भी है। इसलिए प्रिय कविते! कुडोज़!!

*********                          

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 400 ⇒ सदा दिवाली संत की… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सदा दिवाली संत की।)

?अभी अभी # 400 ⇒ सदा दिवाली संत की? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या आपने कभी संतों को दीवाली मनाते देखा है, अथवा किसी भूखे को उपवास करते देखा है। आम आदमी ना तो रोज दशहरा दिवाली मना सकता है और ना ही सप्ताह में चार चार दिन व्रत उपवास रख सकता है। एक भूखे का तो यूं ही रोज उपवास रहता है, ठीक उसी तरह संतों की भी रोज दिवाली रहती है।

कबीर हमें यूं ही नहीं याद आ जाते ;

सदा दिवाली संत की, बारह मास बसंत।

प्रेम रंग जिन पर चढ़े, उनके रंग अनंत।।

आप मानें या ना मानें, जबसे हमारी मध्यप्रदेश सरकार ने लोकसभा में शत प्रतिशत सफलता 29/29 पाई है, उस पर होली और दिवाली दोनों का रंग एक साथ चढ़ गया है। हम एम पी वाले अपनी खुशी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे। कबीर की मस्ती हम पर दिन रात छाई रहती है और हमारी इसी स्थिति को देखकर हमारी सरकार ने रात को भी दिन में बदलने का निर्णय लिया है, अब एम पी के कुछ शहर 24×7 जागते रहेंगे।

वैसे तो स्मार्ट शहर कभी सोते नहीं। अब तक तो हमने केवल बंबई(मुंबई) को ही रात की बाहों में देखा था, अब हमारे इंदौर सहित कुछ प्रदेश भी आपका रात की जगमगाती रोशनी में बाहें फैलाकर आपका स्वागत करेंगे।।

हमें इंदौर के वे पुराने दिन अनायास ही याद आ गए, जब कपड़ा मिलों की चिमनियां लगातार धुंआ उगलती थी, और मिलों के सांचे कभी रुकने का नाम नहीं लेते थे। मिल मजदूरों के कारण पूरा इंदौर रात भर जागता रहता था। होटलें और चाय की दुकानें कभी बंद ही नहीं हो पाती थी।

दिवाली की रोशनी और होली और रंग पंचमी की रंगारंग हुड़दंग छोड़िए, गणेशोत्सव का दस दिन का उत्साह अपनी जगह, और अनंत चतुर्दशी के रोज तो पूरा इंदौर रात भर जागता रहता था। आसपास के शहर, गांव और कस्बों की भीड़ की भीड़ मिलों की झांकियां और अखाड़ों के प्रदर्शन के लिए दौड़ी पड़ती थी। इंदौर के छविगृह भी सुबह से देर रात तक विशेष शोज़ चलाते थे। प्रदेश का एकमात्र शहर था इंदौर जहां उस दिन रतजगा रहता था।।

घरों में तो लोग रात रात भर जाग ही रहे हैं, टीवी मोबाइल और इंटरनेट कहां किसी को आजकल सोने देता है। आज की युवा पीढ़ी रात को तीन बजे सोती है, कभी किसी का जन्मदिन तो कभी रात रात भर पढ़ाई। घर घर रात भर डीजे की आवाज सुनी जा सकती है और बेचारा जोमैटो वाला रात को बारह बजे तक होम डिलीवरी किया करता है, पिज्जा, पास्ता, केक, पेस्ट्री और मन्च्युरियन की। देशी विदेशी का अपना अपना नशा है।

अब घरों में शांति रहेगी, बाहर जाइए रात भर एन्जॉय कीजिए, जो लोग घरों में आठ घंटे चैन की नींद सीना चाहते हैं, उनके लिए यह खुशखबर है।

सरकार भी खुश आप भी खुश। संत और आज की युवा पीढ़ी अपने अपने हिसाब से दिवाली और वसंत मना रहे हैं। इधर हम भी दोनों नावों में सवार होना चाहते हैं, झूठ क्यूं बोलें ;

साक़िया, आज मुझे नींद नहीं आयेगी।

सुना है तेरी महफ़िल में

रतजगा है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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