हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 9 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 9 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

जम कुबेर दिगपाल जहां ते।

कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।

अर्थ:- यमराज, कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।

भावार्थ:- यह चौपाई श्री रामचंद्र जी द्वारा हनुमान जी की प्रशंसा में कही गई है। उन्होंने कहा है कि यम अर्थात यमराज, जो हर व्यक्ति का लेखा जोखा रखते हैं, कुबेर अर्थात विश्व के सभी ऐश्वर्य के स्वामी दसों दिगपाल अर्थात दसों दिशाओं के रक्षक  देवता गण विश्व के सभी कवि सभी विद्वान सभी पंडित मिलकर के भी आपके यश का पूर्णत वर्णन नहीं कर सकते हैं।

संदेश-

अगर आप अच्छी इच्छा शक्ति और अच्छे इरादे  के साथ कर्म करें तो आपकी प्रशंसा करने के लिए सभी बाध्य हो जाते हैं।

इस चौपाई का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-

जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।

हनुमान चालीसा की इस चौपाई के बार बार पाठ करने से यश कीर्ति की वृद्धि होती है, मान सम्मान बढ़ता है।

विवेचना:-

यह चौपाई “जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते” इसके पहले की चौपाई “सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा नारद सारद सहित अहीसा “ के साथ पढ़ी जानी चाहिए। इस चौपाई में भी श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी की प्रशंसा की है। यम से यहां पर आशय यमराज से है जो कि मृत्यु के देवता है। इनके पिताजी भगवान सूर्य कहे जाते हैं और यमुना जी इनकी बहन है। इनके अन्य भाई बहनों के नाम शनिदेव, अश्वनीकुमार, भद्रा, वैवस्वत मनु, रेवंत, सुग्रीव, श्राद्धदेव मनु और कर्ण है। इनके एक पुत्र का नाम युधिष्ठिर है जो पांच पांडवों में से एक हैं। यमराज जी जीवों के शुभाशुभ कर्मों के निर्णायक हैं। वे परम भागवत, बारह भागवताचार्यों में हैं। यमराज दक्षिण दिशा के दिक्पाल कहे जाते हैं। ये समस्त जीवो के अच्छे और बुरे कर्मों को बताते हैं। परंतु ये भी हनुमान जी द्वारा किए गए अच्छे कार्यों को  पूर्णरूपेण बताने में असफल हैं।

कुबेर जी धन के देवता माने जाते हैं पूरे ब्रह्मांड का धन इनके पास है। यक्षों के राजा कुबेर उत्तर दिशा के दिक्पाल हैं। संसार के रक्षक लोकपाल भी हैं। इनके पिता महर्षि विश्रवा थे और माता देववर्णिणी थीं। वह रावण, कुंभकर्ण और विभीषण के सौतेले भाई हैं। धन के देवता कुबेर को भगवान शिव का द्वारपाल भी बताया जाता है। श्री कुबेर जी के पास ब्रह्मांड का पूरा धन होने के उपरांत भी वे हनुमान जी की कीर्ति की व्याख्या पूर्ण करने में असमर्थ हैं।

सनातन धर्म के ग्रंथों में दिक्पालों का बड़ा महत्व है। सनातन धर्म के अनुसार 10 दिशाएं होती हैं और हर दिशा की रक्षा करने के लिए एक दिग्पाल हैं। यथा – पूर्व के इन्द्र, अग्निकोण के वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्यकोण के नैऋत, पश्चिम के वरूण, वायु कोण के मरूत्, उत्तर के कुबेर, ईशान कोण के ईश, ऊर्ध्व दिशा के ब्रह्मा और अधो दिशा के अनंत। दसों दिशाओं में होने वाली हर कार्यवाही की पर इनकी नजर होती है। परंतु श्री रामचंद्र जी के अनुसार ये भी हनुमान जी की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं।

कहा जाता है कि जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि। परंतु ये कवि गण भी हनुमान जी की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं।

अगर हम हनुमान जी के हर एक गुण का अलग-अलग वर्णन करें तो भी हम  हनुमान जी के समस्त गुणों को लिपिबद्ध नहीं कर सकते। जैसे कि उनके दूतकर्म के लिए वाल्मीकि रामायण में श्री रामचंद्र जी के मुंह से कहा गया है:-

एवम् गुण गणैर् युक्ता यस्य स्युः कार्य साधकाः।

स्य सिद्ध्यन्ति सर्वेSर्था दूत वाक्य प्रचोदिताः।।

(वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड)

अर्थात हे लक्ष्मण एक राजा के पास हनुमान जैसा दूत होना चाहिए जो अपने गुणों से सारे कार्य कर सके। ऐसे दूत के शब्दों से किसी भी राजा के सारे कार्य सफलता पूर्वक पूरे हो सकते हैं।

सीता जी का पता लगाने के लिए जामवंत जी की कसौटी पर केवल हनुमान जी ही खरे उतरते हैं। देखिए जामवंत जी ने क्या कहा :-

हनुमन् हरि राजस्य सुग्रीवस्य समो हि असि |

राम लक्ष्मणयोः च अपि तेजसा च बलेन च ||

(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड-६६-३)

अर्थात हे हनुमान आप वीरता में वानरों के राजा सुग्रीव के समान हैं। आपकी वीरता स्वयं श्री राम और लक्ष्मण के बराबर है।

रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने अवतरण का उद्देश्य भी स्पष्ट किया है –

राम काज लगि तब अवतारा।

सुनतहिं भयउ परबतकारा।।

अर्थात – महावीर हनुमान जी का जन्म ही राम काज करने के लिए हुआ था। यह सुनते ही हनुमान जी पर्वत के आकार के बराबर हो गए।

जब हनुमान जी मां जानकी का पता लगाने के अलावा लंका को जला कर वापस लौटे।  उसके उपरांत सभी बंदर, भालू श्री रामचंद्र जी के पास आए तब जामवंत जी ने हनुमान जी की प्रशंसा में श्री राम चंद्र जी से कहा:-

नाथ पवसुत कीन्हीं जो करनी।

सहसहुं मुख न जाई सो बरनी।।

पवनतनय के चरित सुहाए।

सुनत कृपानिधि मन अति भाए।।

श्रीरामचंद्र जी ने जब यह सुना कि हनुमान जी लंका जलाकर आए हैं तब उन्होंने परम वीर हनुमान जी से घटना का पूरा विवरण जानना चाहा :-

कहु कपि रावन पालित लंका।

केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।

महावीर स्वामी महावीर हनुमान जी ने इसका बड़ा छोटा सा जवाब दिया प्रभु यह सब आपकी कृपा की वजह से हुआ है। यह विनयशीलता की पराकाष्ठा है:-

 प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।

 बोला बचन बिगत हनुमाना।।

साखा मृग के बड़ी मनुसाई।

साखा ते साखा पर जाई।।

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।

निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।।

सो सब तव प्रताप रघुराई।

नाथ न मोरी कछु प्रभुताई।

ता कहूं प्रभु कछु अगम नहीं जा पर तुम्ह अनुकूल।

तव प्रभावं बड़वानलहि जारि सकल खलु तूल।।

(रामचरितमानस/सुंदरकांड)

अर्थात महावीर हनुमान जी अपने श्री राम को प्रसन्न देख कर अपने अभिमान और अहंकार का त्याग कर अपने कार्यों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि एक बंदर की क्या विशेषता हो सकती है। वो तो एक पेड़ की शाखा से दूसरी शाखा पर कूदता रहता है। इसी तरह से मैंने समुद्र पार किया और सोने की लंका जलाई। राक्षसों का वध किया और अशोक वाटिका उजाड़  दी।

हे प्रभु  ये सब आपकी प्रभुता का कमाल है। मेरी इसमें कोई शक्ति नहीं है। आप जिस पर भी अनुकूल हो जाते हैं उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं होता। आपके प्रभाव से तुरंत जल जाने वाली रुई भी एक बड़े जंगल को जला सकती है।

सूरदास जी ने सूरसागर के नवम स्कंद के 147 वें पद में लिखा है :-

कहाँ गयौ मारुत-पुत्र कुमार।

ह्वै अनाथ रघुनाथ पुकारे, संकट-मित्र हमार।।

इतनी बिपति भरत सुनि पावैं आवैं साजि बरूथ।

कर गहि धनुष जगत कौं जीतैं, कितिक निसाचर जूथ।

नाहिं न और बियौ कोउ समरथ, जाहि पठावौं दूत।

को अब है पौरुष दिखरावै, बिना पौन के पूत?

इतनौ वचन स्त्र वन सुनि हरष्यौ, फूल्यौ अंग न मात।

लै-लै चरन-रेनु निज प्रभु की, रिपु कैं स्त्रोनित न्हात।

अहो पुनीत मीत केसरि-सुत,तुम हित बंधु हमारे।

जिह्वा रोम-रोम-प्रति नाहीं, पौरुष गनौं तुम्हारे!

जहाँ-जहाँ जिहिं काल सँभारे,तहँ-तहँ त्रास निवारे।

सूर सहाइ कियौ बन बसि कै, बन-बिपदा दुख टारै॥147॥

यह पद लक्ष्मण जी को शक्ति लगने के उपरांत की प्रकृति का वर्णन करता है। उस समय श्री हनुमान जी संजीवनी बूटी ढूंढ़ने के बजाय पूरा पर्वत ही उठा कर ले आते हैं और श्री लक्ष्मण जी के प्राण बचाते हैं। हनुमान जी की सेवा के अधीन होकर प्रभु श्रीराम ने उन्हें अपने पास बुला कर कहा—

कपि-सेवा बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ।

देबेको न कछू रिनियाँ हौं, धनिक तूँ पत्र लिखाउ।।

(विनय-पत्रिका पद १००।७)

‘भैया हनुमान! तुम्हें मेरे पास देने को तो कुछ है नहीं; मैं तेरा ऋणी हूँ तथा तू मेरा धनी (साहूकार) है। बस इसी बात की तू मुझसे सनद लिखा ले।’

इसी प्रकार समय-समय पर हनुमान जी की प्रशंसा मां जानकी, भरत जी, लक्ष्मण जी, रावण एवं अन्य देवताओं ने की है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि हनुमान जी की प्रशंसा में हर किसी ने कुछ न कुछ कहा है परंतु तब भी उनकी प्रशंसा पूर्ण नहीं हो पाई है। ऐसे हनुमान जी से प्रार्थना है कि वे हमारी रक्षा करें।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #171 ☆ सब्र और ग़ुरूर ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सब्र और ग़ुरूर । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 171 ☆

☆ सब्र और ग़ुरूर

‘ज़िंदगी दो दिन की है। एक दिन आपके हक़ में और एक दिन आप के खिलाफ़ होती है। जिस दिन आपके हक़ में हो, ग़ुरूर मत करना और जिस दिन खिलाफ़ हो, थोड़ा-सा सब्र ज़रूर करना।’ सब दिन होत समान अर्थात् समय निरंतर चलता रहता है; परिवर्तनशील है; पल-पल रंग बदलता है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति सुख में कभी फूलता नहीं; अपनी मर्यादा व सीमाओं का उल्लंघन नहीं करता तथा अभिमान रूपी शत्रु को अपने निकट नहीं फटकने देता,क्योंकि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। वह दीमक की तरह बड़ी से बड़ी इमारत की जड़ों को खोखला कर देता है। उसी प्रकार अहंनिष्ठ मानव का विनाश अवश्यंभावी होता है। वह दुनिया की नज़रों में थोड़े समय के लिए तो अपना दबदबा क़ायम कर सकता है, परंतु एक अंतराल के पश्चात् वह अपनी मौत स्वयं मर जाता है। लोग उसके निकट जाने से भी गुरेज़ करने लगते हैं। इसलिए मानव को इस तथ्य को सदैव अपने ज़हन में रखना चाहिए कि ‘सुख के सब साथी दु:ख में न कोय।’ सो! मानव को सुख में अपनी औक़ात को सदैव स्मरण रखना चाहिए, क्योंकि सुख सदैव रहने वाला नहीं। वह तो बिजली की कौंध की मानिंद अपनी चकाचौंध प्रदर्शित कर चल देता है

इंसान का सर्वश्रेष्ठ साथी उसका ज़मीर होता है; जो अच्छी बातों पर शाबाशी देता है और बुरी बातों पर अंतर्मन को झकझोरता है। किसी ने सत्य ही कहा है कि ‘हाँ! बीत जाती है सदियाँ/ यह समझने में/ कि हासिल करना क्या है/ जबकि मालूम यह भी नहीं/ इतना जो मिला है/ उसका करना क्या है?’ यही है हमारे जीवन का कटु यथार्थ। हम यह नहीं जान पाते कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है; हम संसार में आए क्यों हैं और हमारे जीवन का प्रयोजन क्या है? इसलिए कहा जाता है कि अच्छे दिनों में आप दूसरों की उपेक्षा मत करें; सबसे अच्छा व्यवहार करें तथा इस बात पर ध्यान केंद्रित करें कि सीढ़ियां चढ़ते हुए बीच राह चलते लोगों की उपेक्षा न करें, क्योंकि लौटते समय वे सब आपको दोबारा अवश्य मिलेंगे। सो! अच्छे दिनों में ग़ुरूर अथवा अहं से दूर रहने का संदेश दिया गया है।

जब समय विपरीत दिशा में चल रहा हो तो मानव को थोड़ा-सा सब्र अथवा संतोष अवश्य रखना चाहिए, क्योंकि सुख वह आत्म-धन है; जो हमारी सकारात्मक सोच को दर्शाता है। इसलिए दु:ख को कभी अपना साथी मत समझिए, क्योंकि सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। एक के जाने के पश्चात्  ही दूसरा दस्तक देता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘जो सुख में साथ दें, रिश्ते होते हैं/ जो दु:ख में साथ दें, फरिश्ते होते हैं।’ विषम परिस्थितियों में कोई कितना ही क्यों न बोले; स्वयं को शांत रखें, क्योंकि धूप कितनी तेज़ हो; समुद्र को नहीं सुखा सकती। सो! अपने मन में मलिनता कभी भी न आने दें; समय जैसा भी है–अच्छा या बुरा गुज़र जाएगा।

विनोबा भावे के अनुसार ‘जब तक मन नहीं जीता जाता और राग-द्वेष शांत नहीं होते; तब तक मनुष्य इंद्रियों का गुलाम बना रहता है।’ सो! मानव को स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना होगा। इसके लिए वाशिंगटन उत्तम सुझाव देते हैं कि ‘अपने कर्त्तव्य में लगे रहना और चुप रहना बदनामी का सबसे अच्छा जवाब है।’ हमें लोगों की बातों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए,क्योंकि लोगों का काम तो दूसरों के मार्ग में कांटे बिछा कर पथ-विचलित करना है। यदि आप कुछ समय के लिए ख़ुद को नियंत्रित कर मौन का दामन थाम लेते हैं और तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देते, तो उसका परिणाम घातक नहीं होता। क्रोध तो दूध के उफ़ान की भांति आता है; जो पल भर में शांत हो जाता है। सो! मौन रह कर अपने कार्य को सदैव निष्ठा से करें और व्यस्त रहें– यही सबसे कारग़र उपाय है। इस प्रकार आप निंदा व बदनामी से बच सकते हैं। वैसे भी बोलना एक सज़ा है। इसलिए मानव को यथा-समय,यथा-स्थान उचित बात कहनी चाहिए ताकि हमारी प्रतिष्ठा व मान-सम्मान सुरक्षित रह सके। सच्ची बात यदि मर्यादा में रहकर व मधुर भाषा में बोल कर कही जाए, तो सम्मान दिलाती है; वरना कलह का कारण बन जाती है। ग़लत बोलने से मौन रहना श्रेयस्कर है और यही समय की मांग है। दूसरे शब्दों में वाणी पर नियंत्रण व मर्यादापूर्वक वाणी का प्रयोग मानव को सम्मान दिलाता है तथा इसके विपरीत आचरण निरादर का कारण बनता है।

कबीरदास के मतानुसार ‘सबद सहारे बोलि/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद करि औषधि/ एक सबद करि घाव’ अर्थात् वाणी से निकला एक कठोर शब्द भी घाव करके महाभारत करा सकता है तथा वाणी की मर्यादा में रहकर बड़े-बड़े युद्धों पर नियंत्रण किया जा सकता है। आगे चलकर वे कहते हैं कि ‘जिभ्या जिन बस में करी/ तिन बस किये जहान/ नहीं तो औगुन उपजै/ कहें सब संत सुजान।’ इस प्रकार मानव अपने अच्छे स्वभावानुसार बुरे समय को टाल सकता है। दूसरी ओर ‘जे आवहिं संतोष धन,सब धन धूरि समान।’ रहीम जी का यह दोहा भी मानव को आत्म-संतुष्ट रहने की सीख देता है। मानव को किसी से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए,बल्कि जो मिला है अर्थात् प्रभु प्रदत्त कांटों को भी पुष्प-सम मस्तक से लगाना चाहिए और प्रसाद समझ कर ग्रहण करना चाहिए।

भगवद्गीता का यह संदेश अत्यंत सार्थक है कि ‘जो हुआ है, जो हो रहा है और जो होगा निश्चित अच्छा ही होगा।’ इसमें मानव कुछ नहीं कर सकता। इसलिए उसे नतमस्तक हो स्वीकारना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि ‘होता वही है जो मंज़ूरे ख़ुदा होता है।’ सो! उस परम सत्ता की रज़ा को स्वीकारने के अतिरिक्त मानव के पास कोई विकल्प नहीं होता है।

मीठी बातों से मानव को सर्वत्र सुख प्राप्त होता है और कठोर वचन का त्याग वशीकरण मंत्र है। तुलसी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। मानव को अपनी प्रशंसा सुन कर कभी गर्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह आपकी उन्नति के मार्ग में बाधक है। इसलिए कठोर वचनों का त्याग वह  वशीकरण मंत्र है; जिसके द्वारा आप दूसरों के हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। सो! जीवन में मानव को कभी अहम् नहीं करना चाहिए तथा जो मिला है; उसी में संतोष कर अधिक की कामना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह मार्ग हमें पतन की ओर ले जाता है। दूसरे शब्दों में वह हमारे हृदय में राग-द्वेष के भाव को जन्म देता है और हम दूसरों को सुख-सुविधाओं से संपन्न देख उनसे ईर्ष्या करने लग जाते हैं तथा उन्हें नीचा दिखाने के अवसर तलाशने में लिप्त हो जाते हैं। इतना ही नहीं, हम अपने भाग्य को ही नहीं, प्रभु को भी  कोसने लगते हैं कि उसने हमारे साथ वह अन्याय अर्थात् अनर्थ क्यों किया है? दोनों स्थितियों में इंसान ऊपर उठ जाता है। उसे मनोवांछित फल प्राप्त होता है और वह जीते जी आनंद से रहता है। ग़मों व दु:खों की गर्म हवा का झोंका भी उसका स्पर्श नहीं कर पाता।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – युद्ध की विभीषिका और मानव अधिकार- भाग-1 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – युद्ध की विभीषिका और मानव अधिकार- भाग-1 ??

(आज गुरुवार 24 फरवरी को रूस-यूक्रेन युद्ध को एक वर्ष पूरा हो रहा है। इस संदर्भ में युद्ध और मानवाधिकार पर यह विशेष आलेख दो भागों में दिया जा रहा है। इस आलेख का अंतिम भाग आप कल के अंक में पढ़ सकते हैं।)

रूस-यूक्रेन युद्ध को आज एक वर्ष पूरा हो रहा है। दुखद है कि जान-माल की अपरिमित हानि के बाद भी यह लड़ाई अब तक जारी है। वस्तुत: युद्ध, मानव निर्मित सबसे बड़ी विभीषिका है। आपदा में व्यापक स्तर पर जनहानि होती है, युद्ध में जनसंहार होता है। आपदा आकस्मिक होती है जबकि युद्ध ठंडे मस्तिष्क से योजना बनाकर लड़ा जाता है। युद्ध के लक्ष्य और शत्रु के वध का प्रयास भी पूर्व निश्चित होता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो युद्ध  अपराध है। विचारपूर्वक योजना बनाकर की गई हत्या के लिए मृत्युदंड अथवा आजीवन कारावास का प्रावधान लगभग पूरी दुनिया में है। तब भी युद्ध को जिस गंभीर स्तर का अपराध माना जाना चाहिए था, वैसा न करते हुए अनेक बार सिलेक्टिव तरीके से उसे अनिवार्य समझा गया है। समस्या के हल के लिए युद्ध को अंतिम विकल्प माना जाता है, जबकि सत्य यह है कि युद्ध आज तक किसी भी समस्या का हल नहीं बन सका। युद्ध स्वयं एक समस्या है। युद्ध के बाद भी दोनों पक्षों को अंततः वार्ता के लिए आमने सामने बैठना ही होता है। ‘टू टर्न द टेबल, यू हैव टू कम टू द टेबल।’  सत्य का एक आयाम यह भी है कि ‘वॉर इज़ वॉट हैपन्स व्हेन लैंग्वेज फेल्स।’ भाषा संवाद का माध्यम है। अत: कहा जा सकता है कि जब संवाद समाप्त हो जाता है तो युद्ध आरम्भ होता है। समय साक्षी है कि विवाद का हल सदैव संवाद से ही हुआ है।

युद्ध की परिभाषा-

  1. सामान्य तौर पर माना जाता है कि ‘वॉर इज़ अ कन्टेनशन/ वायलेंस बिटवीन द आर्म्ड फोर्सेस’ अर्थात युद्ध सशस्त्र सेनाओं के बीच होनेवाला हिंसक विवाद है।
  2. युद्ध दो या अधिक राज्यों के बीच सशस्त्र सेनाओं के माध्यम की एक ऐसी प्रतिद्वंद्विता है जिसका लक्ष्य एक दूसरे को परास्त करना और विजेता की इच्छा के अनुरूप शांति की शर्तों को लादना है।

– (एल. ओपेनहीम)

  1. युद्ध दो या अधिक राज्यों के बीच प्रधानतः सशस्त्र सेनाओं के माध्यम से एक प्रतिद्वंद्विता होती है। प्रत्येक प्रतिद्वंद्वी समूह का दूसरे को परास्त करना तथा अपनी शर्तों के अनुरूप शांति को लादना अंतिम उद्देश्य होता है।

– (जे. बी. स्ट्रेक )

  1. युद्ध मनुष्य के मानवीय संघर्ष का सबसे अधिक हिंसक रूप है।

– (किबालयंग)

  1. युद्ध एक सामाजिक समूह द्वारा दूसरे सामाजिक समूह पर किया संगठित आक्रमण है। इसमें आक्रांता समूह जानबूझकर अनाक्रांता की जान-माल की बरबादी करके अपने हितों की वृद्धि करता है।

– (हॉबेल)

  1. युद्ध उन संबंधों का औपचारिक तौर पर टूटना है जो शांतिकाल मे राष्ट्रों को परस्पर एक दूसरे से बाँधे रखते हैं।

– (इलियट-मैरिल)

  1. साधारणतया युद्ध शब्द का प्रयोग ऐसे शस्त्रात्मक संघर्ष के लिए किया जाता है जो कि चेतन इकाइयों, जैसे; प्रजातियों या जनजातियों, राज्य अथवा छोटी भौगोलिक इकाइयों, धार्मिक अथवा राजनीतिक दलों, आर्थिक वर्गों से निर्मित जनसंख्यात्मक समूहों के अन्तर्गत होता है।

– (सामाजिक-विज्ञान कोश)

ध्यान देने वाली बात है कि विभिन्न परिभाषाओं में ‘शांति के लिए युद्ध’ कहा गया है। ‘पीस बाय फोर्स’ याने अंतिम लक्ष्य शांति है। संभवत: इसीलिए पीसकीपिंग फोर्स या शांतिसेना शब्द  प्रचलन में आया होगा। शांति, चर्चा द्वारा ही संभव है। चर्चा के लिए साथ आना होता है, एक-दूसरे को सुनना होता है।

साथ आना मनुष्यता का लक्षण है। एक दूसरे के अधिकारों की रक्षा मनुष्य से अपेक्षित भी है अन्यथा मनुष्य और मनुष्येतर प्राणियों में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। यही कारण है कि समयानुसार युद्ध के लिए भी कुछ नियम बनाये गए। मानव के मूलभूत अधिकारों की रक्षा का प्रावधान हुआ। समय-समय पर  इन प्रावधानों में बेहतरी होती चली गई।

मानव अधिकार-

संयुक्त राष्ट्रसंघ  ने 10 दिसम्बर 1948 को मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा अंगीकार की थी। इसमें मनुष्य के मूलभूत अधिकारों की घोषणा है‌। ये अधिकार मानव की गरिमा हैं।  ये अधिकार स्त्री-पुरुष के लिए समान हैं। इनका हरण नहीं किया जा सकता।

इसके प्रमुख अनुच्छेद और उनमें वर्णित मानव अधिकारों की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है-

अनुच्छेद 1–2 : गरिमा, स्वतंत्रता और समानता की मूलभूत अवधारणाओं की स्थापना।

अनुच्छेद 3-5 :  जीवन का अधिकार, साथ ही दासता तथा यातना का निषेध जैसे अन्य व्यक्तिगत अधिकारों की स्थापना।

अनुच्छेद 6-11 : मानवाधिकारों की मौलिक वैधता का उल्लेख। उल्लंघन होने पर उनकी रक्षा के लिए विशिष्ट उपायों की जानकारी।

अनुच्छेद 12-17 : समुदाय के प्रति व्यक्ति के अधिकारों का निर्धारण। इसके अंतर्गत प्रत्येक राज्य के भीतर आंदोलन और निवास की स्वतंत्रता, संपत्ति का अधिकार और राष्ट्रीयता के अधिकार का समावेशन।

अनुच्छेद 18-21 :  संवैधानिक स्वतंत्रता और आध्यात्मिक, सार्वजनिक और राजनीतिक स्वतंत्रता, जैसे विचार, धर्म, विवेक, व्यक्ति की शांतिपूर्ण संगति एवं जानकारी प्राप्त करने और प्रदान करने की स्वतंत्रता को अनुमति।  संचार के किसी भी माध्यम से विचाराभिव्यक्ति का अधिकार।

अनुच्छेद 22-27 :  व्यक्ति के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को अनुमति। स्वास्थ्य सम्बंधी सुश्रुषा, समुचित जीवन स्तर का अधिकार। प्रसूति काल एवं बाल्यावस्था में वांछनीय देखभाल।

अनुच्छेद 28-30 : पूर्व अनुच्छेदों में उल्लेखित अधिकारों का प्रयोग करने के साधनों की स्थापना। साथ ही अनुच्छेद 1 से 30 में उल्लेखित किसी भी बात का अपनी सुविधा से ऐसा अर्थ लगाना निषिद्ध करना, जिससे इन अनुच्छेदों में निर्दिष्ट अधिकारों और स्वतंत्रताओं में से किसी का भी हनन हो सकता हो।

युद्ध और मानवाधिकार-

संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मानवाधिकारों को न केवल सार्वभौमिक कहा है अपितु हर स्थिति में इनकी रक्षा किये जाने पर बल दिया है। युद्ध भी इसका अपवाद नहीं है। फलत: कोई कारण नहीं बनता कि युद्ध में मानव के अधिकार निरस्त हो जाएँ।

नरसंहार, शांति के खिलाफ अपराध, युद्ध नियमों का उल्लंघन और मानवता के खिलाफ अपराध, युद्ध अपराधों की प्रमुख श्रेणियाँ हैं।

मानवाधिकार उल्लंघन के इन कृत्यों में नागरिकों पर हमला, असैनिक / निवासी इमारतों पर हमला, अस्पतालों और स्कूलों जैसे संरक्षित संस्थानों पर हमला, सैनिकों के शवों से छेड़छाड़ करना, आत्मसमर्पण करने का अवसर नहीं देना, नागरिकों के शवों से छेड़छाड़ करना, युद्धकालीन यौन हिंसा, लूट, यातना, बाल सैनिकों का उपयोग आदि शामिल हैं।

तथापि कटु सत्य यह है कि नियम बनते ही तोड़े जाने के लिए हैं। युद्ध एक ऐसी विशेष परिस्थिति है जहाँ हर ओर मृत्यु का तांडव हो रहा होता है। ऐसे में युद्ध को मॉनिटर करना या संतुलित ढंग से निरीक्षण कर पाना संभव नहीं होता। यही कारण है मानव इतिहास के विभिन्न युद्धों में मानवाधिकारों का निरंतर हनन हुआ है। मानवी बर्बरता और मनुष्य के भीतर का विद्रूप और वीभत्स चेहरा अनेक बार सामने आया है।

विचार करें तो युद्ध अपने आप में मनुष्यता का उल्लंघन है। संयुक्त राष्ट्रसंघ का इस सम्बंध में स्पष्ट दिशा निर्देश है- “सभी सदस्य राष्ट्रों को अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में किसी भी राज्य की क्षेत्रीय अखंडता या राजनीतिक स्वतंत्रता के खिलाफ या संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों से असंगत किसी अन्य तरीके से बल के खतरे या प्रयोग से बचना चाहिए।” (अनुच्छेद 2/4) तथ्य यह है कि इन दिशा-निर्देशों के बाद भी विश्व में अनेक बार युद्ध हुए हैं। इन युद्धों में न्यूनाधिक मात्रा में मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाएँ हुई हैं।

प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध सहित अन्य अनेक युद्धों / युद्ध सदृश्य संघर्षों में मानवाधिकारों का सरेआम और खुलकर उल्लंघन हुआ है।

द्वितीय विश्वयुद्ध में नाज़ियों द्वारा बंदी बनाये गए सोवियत सैनिकों के साथ जो दुर्व्यवहार किया गया, वह रोंगटे खड़े कर देता है। एक अध्ययन के अनुसार लगभग 3.3 मिलियन सोवियत सैनिकों का संहार किया गया। इनमें से अनेक को गोली मार दी गई। गोली का खर्च बचाने के लिए जानबूझकर खतरनाक स्थितियाँ और भुखमरी पैदा की गई। बड़ी संख्या में सोवियत सैनिक भूख के चलते मृत्यु को प्राप्त हुए। यहाँ तक कि विवशता में कुछ सोवियत सैनिकों के नरभक्षी हो जाने की रिपोर्टें भी मिलीं।

विश्व के सबसे बड़े जनसंहार होलोकास्ट में लगभग 60 लाख यहूदियों की हत्या कर दी गई थी। यह यहूदियों की कुल आबादी का लगभग दो-तिहाई आँकड़ा माना जाता है। इनमें गैस चेंबर में डालकर मार देना, मारपीट,  सरेआम गोली मारना, ठंड में निर्वस्त्र छोड़ देना जैसे क्रूर तौर तरीके सम्मिलित थे।

1864 के सेरासियन जनसंहार में लगभग 25 लाख नागरिकों को अत्यंत वीभत्स और जघन्य तरीके से मृत्यु के हवाले कर दिया गया था। रशियन सेना ने इनमें महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा था। माना जाता है कि इसके चलते सेरासियन की 90% आबादी समाप्त हो गई थी।

1915 में तुर्की की ऑटोमन सेना ने आर्मेनिया में जबरदस्त नरसंहार किया था। इसमें लगभग 15 लाख नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी।

फिलीपींस और वियतनाम में अमेरिकी सेना द्वारा स्थानीय सैनिकों और नागरिकों के साथ दुर्व्यवहार की सारी हदें पार कर दी गईं। 1968 में वियतनाम के माई लाई गाँव में रात के समय बड़ी संख्या में महिलाओं और बच्चों सहित नागरिकों की सामूहिक हत्या कर दी गई थी।

70 के दशक में कंबोडिया में खमेर रूज के शासन में लगभग 20 लाग लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इसके कारणों में निरंतर कठोर काम करवाना, भुखमरी, मृत्युदंड शामिल थे।

90 के दशक में रवांडा के गृहयुद्ध में हुतू जनजाति द्वारा तुत्सी जनजाति के 5 लाख नागरिकों की हत्या करने का अंदेशा है। इसी दशक में बोस्निया में हुआ नरसंहार भी मानवता के चेहरे पर कालिख पोतने वाला है।

क्रमशः… 

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603 ईमेलसंजयउवाच@डाटामेल.भारत; [email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 महादेव साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जाएगी। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आलेख ☆ “हिंदी उपन्यासकार अनूपलाल मंडल, उनकी कथा यात्रा और औपन्यासिक विन्यास” – भाग -2 ☆ डॉ. सदानंद पॉल ☆

डॉ. सदानंद पॉल

परिचय

तीन विषयों में एम.ए., नेट उत्तीर्ण, जे.आर.एफ. (MoC), मानद डॉक्टरेट.

‘वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ लिए गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकार्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकार्ड्स होल्डर सहित सर्वाधिक 300+ रिकॉर्ड्स हेतु नाम दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: ‘नेशनल अवार्ड’ प्राप्तकर्त्ता.

पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित 10,000 से अधिक रचनाएँ और पत्र प्रकाशित. सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में अहर्ता  प्राप्त. पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. कई जनजागरूकता मुहिम में भागीदारी.

☆ आलेख ☆ “हिंदी उपन्यासकार अनूपलाल मंडल, उनकी कथा यात्रा और औपन्यासिक विन्यास” – भाग-1 ☆ डॉ. सदानंद पॉल ☆

(डॉ सदानंद पॉल जी के शोध आलेख का अंतिम भाग … इस आलेख में प्रकाशित तथ्य एवं विचार डॉ सदानंद पॉल जी के व्यक्तिगत विचार हैं।)

उनकी कुछ रचनाएँ मैंने ‘अनूपलाल मंडल विशेषांक’ पर प्रूफ-सहयोगार्थ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद में देखा। अपने ‘सर’ और वरिष्ठ साहित्यिक मित्र डॉ0 रामधारी सिंह ‘दिवाकर’ के सौजन्यत: इसे अवलोकन किया, पढ़ा और वहीं को वापस कर दिया। उनकी शैली, भाषाई शिष्टता संस्कृत से निःसृत हिंदी सदृश है, परन्तु ‘प्लॉट’ के दुर्बल पक्ष होने के कारण मुझे कुछ खास नहीं लगा। कहानी में विन्यास अच्छी थी, किंतु औपन्यासिक रिद्म में नहीं थी, परंतु देशभक्ति उनकी कहानियाँ में निहित है। हाँ, वे टीकापट्टी सहित भागलपुर क्षेत्र से स्वतंत्रता-आंदोलन हेतु आगाज़ किए थे। डॉ0 परमानंद पांडेय ने लिखा है- “भागलपुर में बयालीस का आंदोलन छिड़ गया था। मैं भागा-भागा रहता था। पुलिस मेरे भी पीछे थी। …. तब तक मंडल जी (अनूपलाल मंडल) भी जेल जा चुके थे।” इसपर डॉ0 छेदी पंडित ने लिखा है- “उन्होंने कई बार स्वतंत्रता-संग्राम में सम्मिलित होने एवं जेल-यातना भोगने की चर्चा की, फिर पूछने पर कि वे स्वतंत्रता-सेनानी का पेंशन पाने का प्रयास  क्यों नहीं किया, जवाब रूखा था कि ‘गुलामी की जंजीर तोड़ने में स्वल्प सहयोग कर मैंने अपना ही काम किया था, दूसरे का नहीं। मैं गुलामी के बंधन से मुक्त हूँ, इससे बढ़कर क्या लाभ हो सकता है ? मैंने पैसे के लिए कष्ट नहीं उठाया था, अपितु भारत माँ की सेवा की थी। माँ की सेवा का मूल्य थोड़े ही लिया जाता है !”

यद्यपि उन दिनों पुस्तकों का सृजन और प्रकाशन बेहद क्लिष्टतम था, तथापि तीन दर्जन से अधिक की संख्या में प्रणयन कोई सामान्य बात नहीं है। आइये, इस बारे में हम अनूप-साहित्य पर विद्वानों के मत जानते हैं…..

पं0 राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है- “उपन्यास तो आप सुंदर लिख लेते हैं…. पर मुझे एक बात आपकी बिल्कुल नापसंद लगी और वह यह कि आपके पात्र में मर्दानापन नहीं झलकता। वक्त आने पर छुई-मुई हो जाता है, उसका तेज, उसका शौर्य न जाने कहाँ चला जाता है ? यह तो ठीक लक्षण नहीं ! उपन्यासों में ऐसी कमी उन्हें दुर्बल बना देती है। प्रेम करने चलते हो, तो पाँव लड़खड़ाने से भला कहाँ, कैसे काम चलेगा ? साधु बनो तो पूरे साधु बनो, चोर बनना हो तो पक्का चोर बनो। साहित्य में अधकचरे से काम नहीं चलता, वैसे जीवन में भी ! रामखुदाई से काम नहीं चला करता। मस्त होकर लिखो। देखोगे- कमी न रह पाएगी। चीज चोखी उतरेगी।” कुछ ऐसा ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नहले पे दहला कहा है- “आपके उपन्यास ‘केंद्र और परिधि’ में नायक-पात्र की दुर्बलता उजागर हुई है, क्योंकि लिखते-लिखते आप ऐसी जगह जाकर ‘नर्वस’ हो जाते हैं, जहाँ नायक-नायिका को दिलेरी दिखानी चाहिए, उसे दुस्साहसिक होना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर पाठक वहाँ निराश हो जाता है, कथा का सौंदर्य नष्ट हो जाता है, रस-परिपाक में बाधा आ जाती है। मैं सोचता हूँ- आपका जीवन ही कुछ ऐसे साँचे में ढाला है, जहाँ संवेदनशीलता ही अधिक है, दुस्साहसिकता नहीं के बराबर। अच्छे उपन्यास के जितने गुण हैं, वे इस उपन्यास में मुझे दीख पड़े हैं, परंतु अगर ऐसी खामियाँ नहीं होती, तो यह कृति हिंदी की श्रेष्ठ कृतियों में आदर के साथ स्थान पाती।”

लेखिका सुशीला झा ने लेख ‘अनूपलाल मंडल की नारी-भावना’ में लिखती हैं- “नारी-रूप के कुशल चित्रकार हैं अनूपजी। उनके महिला पात्र अन्नपूर्णा, अरुणा, शीला, नंदिता, रेखा मित्रा, मणि, ज्योति, वसुमति, कुसुम मिश्रा, लता, प्रभावती, उषा इत्यादि कोमल तंतुओं से निर्मित कमनीय नारियाँ हैं। अभया, दुर्गा, यमुना, मल्लिका व मेनका, रज्जो, सरस, सोना, उत्पला सिन्हा, हेमंतनी शुक्ला इत्यादि नारियों में कमनीयता के साथ बुद्धिमत्ता भी है। ‘अन्नपूर्णा’ की प्रमदा, ‘समाज की वेदी पर’ की सुधामयी, ‘साकी’ की सुषमा, ‘मीमांसा’ की अरुणा, ‘अभियान पथ’ की शकुंतला, ‘बुझने न पाए’ की मृणालिनी, निर्मला, चंपा, ‘केंद्र और परिधि’ की नंदिता, ‘ज्योर्तिमयी’ की नायिका ज्योर्तिमयी, मंझली भाभी अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाली आदर्श पत्नियाँ हैं। मीना आदर्श गणिका के रूप में एकनिष्ठ होकर कुमार से अनुरक्त हो गई है और अंत में वही उसकी जमींदारी तथा उसके जीवन की रक्षा भी करती है। सविता वीरांगना जगत से निकलकर लोकहित के लिए सन्यासिनी बन गई। अनूपजी का हृदय वेश्याओं और विधवाओं के प्रति विशेष रूप से सहानुभूति लिए हैं। प्रश्न उठता है कि वेश्याओं के प्रति इतने समादर क्यों प्रदर्शित किया गया है?”

डॉ0 दुर्योधन सिंह ‘दिनेश’ ने अनूपजी के उपन्यास ‘समाज की वेदी पर’ की समीक्षा करते हुए लिखा है- “वह सम्पूर्ण नारी-जाति का सम्मान करता है और आदर की निगाह से देखता है, चाहे वह वेश्या हो या देव कन्या। नारी पात्रों में हसीना के माध्यम से उपन्यासकार एक ऊँचा आदर्श प्रस्तुत करता है। वेश्या के वासनात्मक परिवेश में पलकर भी हसीना सती-साध्वी बनी रहती है। वह हिन्दू धर्म में दीक्षित होकर प्रो0 धीरेंद्र की आदर्श पत्नी बन जाती है और समय आने पर पति के कंधा से कंधा मिलाकर चलती है  वह वेश्यावृत्ति पर कसकर कुठाराघात करती है।”

अनूपलाल मंडल इतने रचकर भी अपठित और विस्मृत क्यों हो गए हैं ? देश और बिहार की बात ही छोड़िये, उनके गृहजिला के कितने व्यक्ति उन्हें जानते हैं ? कितने साहित्य-मनीषियों ने उनकी रचनाएँ सिंहावलोकित किए हैं ? स्वीकारात्मक उत्तर में कुछ फीसदी ही होंगे ! प्रख्यात कथाकार डॉ0 रामधारी सिंह दिवाकर लिखते हैं- “अनूपलाल मंडल के विस्मृत हो जाने या अचर्चित रह जाने की एक वजह बिहार के स्कूलों और विश्वविद्यालयों के हिंदी पाठ्यक्रमों से उनको निकाल बाहर करना है। आरम्भ से ही बिहार के हिंदी पाठ्यक्रमों से अनूपलाल मंडल का नाम मिटा देने की साज़िश का नतीजा है कि विद्यार्थियों की कौन कहे, एम0 ए0 तक हिंदी पढ़ानेवाले बिहार के प्राध्यापकों तक ने ऐसे महत्वपूर्ण उपन्यासकार का नाम नहीं सुना ! किसी भी साहित्यकार का कुछ नहीं पढ़ना और साहित्यकार का नाम ही न सुनना– दो भिन्न स्थितियाँ हैं। अनेक साहित्यकार हैं, जिनका लिखा हमने-आपने नहीं पढ़ा है, लेकिन नाम सुना है, किंतु अनूपलाल मंडल बिहार के ऐसे अभिशप्त कथाकार हैं, जिनका नाम ही मिटता जा रहा है।” हालाँकि 1948 में प्रकाशित व अनूपजी द्वारा  बांग्ला से हिंदी में अनूदित रचना ‘नीतिशास्त्र’ को कुछ कालावधि के लिए टी0 एम0 भागलपुर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था और ‘मीमांसा’ के अंश को आई0 ए0 पाठ्यक्रम हेतु रांची विश्वविद्यालय ने शामिल  किया था।

उन्होंने कुर्सेला स्टेट के बड़े जमींदार व रायबहादुर बाबू रघुवंश प्रसाद सिंह की जीवनी भी लिखी, तब रघुवंश बाबू की 70वीं जन्मतिथि थी। जमीन और आमलोगों से जुड़े अनूपजी द्वारा ऐसे कृत्यकारक समझ से परे है! तब क्या कारण रहे होंगे या उनकी भूमिका ‘दरबारी’ की थी, यह सुस्पष्ट तब हुआ जा सकता है, जब उनकी आत्मकथा प्रकाशित होगी! ‘मैला आँचल’ के अमरशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु के पिता शिलानाथ मंडल (विश्वास) और अनूपलाल मंडल के बीच दोस्ताना संबंध था, इस दृष्टि से अनूपजी ‘रेणुजी’ के पितातुल्य थे। ऐसा कहा जाता है, रेणुजी को लेखक बनाने में क्षेत्र के अन्य लेखक-त्रयी का अमिट योगदान रहा है, उनके नाम हैं- अनूपलाल मंडल, सतीनाथ भादुड़ी (बांग्ला) और रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’। इतना ही नहीं, ‘मैला आँचल’ की पांडुलिपि का प्रूफरीडिंग और टंकण अनूपजी ने ही कराए थे। अनूपजी ने रेणु-प्रसंग को लिखा है- “नेशनल स्कूल, फारबिसगंज में मुझे एक व्यक्ति मिला, जिनका नाम श्री शिलानाथ विश्वास (मंडल) था, परिचय हुआ और वह परिचय हमदोनों की मित्रता का कारण बना। वे मेरे लिए घर से सौगात लाते, मुझे अपने सामने बिठाकर खिलाते और दिनभर हमदोनों की गपशप चलती। उसी गपशप के प्रसंग में उनसे ज्ञात हुआ कि उनका लड़का मिडिल अंग्रेजी पास कर कांग्रेस का वालेंटियर हो गया है, दिनभर गाँव-गाँव चक्कर लगाता है और रात को यहीं आकर विश्राम करता है। मैं (शिलानाथ) चाहता था कि कम से कम वह मैट्रिक पास कर जाता, तो अच्छा होता। वह आपके (मेरे) उपन्यासों को बड़े चाव से पढ़ गया है, जो आप मुझे बराबर भेंटस्वरूप देते रहे हैं। मैंने उन्हें आश्वस्त किया। …. और एक दिन 13-14 साल का सलोना किशोर, बड़े-बड़े केश, नाक-नक्श सुंदर, खादी के नीले हाफ पैंट और सफेद खादी की हाफ शर्ट में उसकी शक्ल खिली हुई थी, मैंने उनसे कहा- ‘जब तुम्हें मेरे उपन्यास पढ़ने का चाव है, तो तुम्हें उसके पहले हाईस्कूल में भी पढ़ लेना चाहिए, कम से कम आई0 ए0, बी0 ए0 न भी कर सको, तो कम से कम मैट्रिक तो करना चाहिए। जब कभी अपना देश स्वाधीन होगा, तब आज के जो बी0 ए0, एम0 ए0 पास लीडर हैं, वे ही मिनिस्टर होंगे, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति बनेंगे और प्रत्येक स्वाधीन देश में वे ही राजदूत बनाकर बाहर भेजे जाएंगे। जो पढ़ा-लिखा नहीं हैं, वह वालेंटियर का वालेंटियर ही धरा रह जायेगा। भगवान ने तुम्हें इतनी अच्छी आकृति दी है, बुद्धि भी तुम्हारी तीक्ष्ण है। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी बात मानो, अभी कुछ नहीं बिगड़ा, नाम लिखाकर मैट्रिक पास कर लो, फिर वालेंटियर क्या नायक होकर कांग्रेस में काम करना है।’ लड़का भला था, क्षणभर में मुझसे कहा- ‘आप बाबू जी से कह दीजिएगा कि मैं पढूँगा। वे मेरा नाम लिखा देने की व्यवस्था कर दें।’ वह लड़का फणीश्वरनाथ रेणु है, जिसने ‘मैला आँचल’ लिखकर हिंदी उपन्यास क्षेत्र में सनसनी पैदा कर दी। अब तो अकादेमी पुरस्कार से पुरस्कृत हो चुका है और रूसी भाषा में ‘मैला आँचल’ अनूदित हो चुका है। मेरे प्रति उसकी वैसी ही श्रद्धा-निष्ठा है, जैसी पहले थी।” डॉ0 लक्ष्मी नारायण ‘सुधांशु’ को आगे बढ़ाने में उनकी महती भूमिका रही। उन्होंने लिखा है- “सुधांशु जी के ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ का युगांतर से प्रकाशन हुआ, पार्ट पैमेंट के तौर पर उनका बिल चुकाना था। ‘समाज की वेदी पर’ के दूसरे संस्करण के बिल का चुकता भी नहीं हो सका था कि प्रेस के सौजन्य से दूसरी पुस्तक भी छप चुकी थी और उसका बिल सामने था, साख बनाकर रखनी थी, इसलिए उसके चुकाने की अवस्था में जाना मेरे लिए अत्यंत आवश्यक हो उठता। तब द्विजदेनी जी याद आते !” कला भवन, पूर्णिया की स्थापना में उनकी महती भूमिका रही।

अनूपजी के उपन्यास प्रेमचंदीय उपन्यासों की भाँति प्रगतिशील यथार्थ में अंतर्निहित नहीं हैं, अपितु उनकी रचनाएँ अज्ञेयजी की रचनाओं की भाँति रोमांटिक यथार्थ से जुड़े हैं, बावजूद वे व्यक्तित्व में अज्ञेय नहीं थे ! कथा-शिल्प में भी प्रेमचंद से उनकी तुलना बेमानी कही जाएगी। कथाकार मधुकर सिंह ने लिखा है- “अनूपलाल मंडल ‘जैनेन्द्र कुमार’ के भी समकालीन रहे हैं, इनकी भावुकता का प्रभाव भी स्वाभाविक है, क्योंकि प्रेमचंद के बाद अज्ञेय, जैनेन्द्र और यशपाल सशक्त कथाकार रहे हैं। इनमें यशपाल सर्वथा अलग धारा के कथाकार हैं, जो प्रेमचंद-परंपरा के ज्यादा करीब हैं। मंडल जी में जैनेन्द्र की भावधारा के होने के बावजूद इनके विषय, पात्र, परिवेश बिल्कुल अलग रहे हैं, जो जैनेन्द्र की तरह कहीं से भी आधुनिक नहीं हैं।” तभी यह बात अक्सरात मानस-पटल को कुरेदता है कि उन्हें किसने बिहार के ‘प्रेमचंद’ का तमगा दिया, यह ‘पता’ किसी को नहीं है ! सर्वविदित है, कोई भी रचनाकार न सिर्फ अपने क्षेत्र, अपितु  सीमापारीय होते हैं ! ‘बिहार का प्रेमचंद’ कहकर उनकी रचनाओं को शुरुआती दिनों से ही ‘संकुचित’ किया जाने की अघोषित साजिश चलती आई है, इसलिए इन  उपन्यासों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में पुनर्प्रकाशित कर ही अनूपलाल मंडल की पहचान को विस्तृत फलकीय, कालातीत और चिरनीत रखा जा सकता है। डॉ0 खगेन्द्र ठाकुर ने स्पष्ट लिखा है- “अनूपलाल मंडल प्रेमचंद की छाया में पले लेखक नहीं हैं। मंडल जी का औपन्यासिक धरातल प्रेमचंद से भिन्न है और सच यह भी है कि प्रेमचंद ने जो ऊँचाई प्राप्त की, वहाँ तक मंडल जी नहीं पहुँच पाए। अनूपलाल मंडल के लेखन का एक परिप्रेक्ष्य है, लेकिन वह प्रेमचंद से भिन्न है। सिर्फ समानता दोनों के उपन्यासकार होने में हैं। हाँ, मंडल जी के उपन्यास-लेखन का दृष्टिकोण विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ से मिलता-जुलता है। प्रेमचंद के ‘निर्मला’ और ‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास ही मंडल जी के उपन्यासों से मेल खाते हैं !” वहीं, प्रो0 सुरेंद्र स्निग्ध ने दृढ़ता से अनूपलाल मंडल को ‘प्रेमचंद स्कूल’ का उपन्यासकार  कहा है और स्निग्ध जी के कारण ही वह ‘बिहार के प्रेमचंद’ हो गए होंगे ! कहा जाता है, वे शांतिनिकेतन, बोलपुर जाकर गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से आशीर्वाद भी लिए थे। उन्हें ‘साहित्यरत्न’ से लेकर विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ ने ‘विद्यासागर’ की मानद उपाधि भी प्रदान किया था। तभी तो डॉ0 परमानंद पांडेय ने उन्हें लिखते हुए ‘अनूप साहित्यरत्न’ कहा है।

‘साकी’ का अंत उन्होंने उर्दू के एक शे’र से किया था और मैं भी इस शे’र के साथ हूँ, जो है-

“साकी की मुहब्बत में दिल साफ हुआ इतना,
जब सर को झुकाता हूँ, तो शीशा नज़र आता है।”

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संदर्भ-ग्रंथ:- 

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की पुस्तकें, पत्रिकाएँ, अन्य पुस्तकें, उनसे जुड़े साहित्यकारों/लोगों के साक्षात्कार और आलेखक द्वारा उपन्यासकार अनूपलाल मण्डल के गांव-घर की स्वानुभूति साहित्यिक-यात्रा।

© डॉ. सदानंद पॉल

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “हिंदी उपन्यासकार अनूपलाल मंडल, उनकी कथायात्रा और औपन्यासिक विन्यास” – भाग -1 ☆ डॉ. सदानंद पॉल ☆

डॉ. सदानंद पॉल

परिचय

तीन विषयों में एम.ए., नेट उत्तीर्ण, जे.आर.एफ. (MoC), मानद डॉक्टरेट.

‘वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ लिए गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकार्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकार्ड्स होल्डर सहित सर्वाधिक 300+ रिकॉर्ड्स हेतु नाम दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: ‘नेशनल अवार्ड’ प्राप्तकर्त्ता.

पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित 10,000 से अधिक रचनाएँ और पत्र प्रकाशित. सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में अहर्ता  प्राप्त. पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. कई जनजागरूकता मुहिम में भागीदारी.

☆ आलेख ☆ “हिंदी उपन्यासकार अनूपलाल मंडल, उनकी कथायात्रा और औपन्यासिक विन्यास” – भाग-1 ☆ डॉ. सदानंद पॉल ☆

(डॉ सदानंद पॉल जी का एक शोध आलेख दो भागों में… इस आलेख में प्रकाशित तथ्य एवं विचार डॉ सदानंद पॉल जी के व्यक्तिगत विचार हैं।)

‘मैला आँचल’ में बरारी-समेली के क्रांतिकारी नक्षत्र मालाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व को ‘चलित्तर कर्मकार’ नाम से चित्रित किया गया है और असली नाम को किसी खौफ़ के कारण बदला गया है, जबकि अनूपलाल मंडल ने अपने उपन्यास ‘तूफान और तिनके’ में नक्षत्र मालाकार के किसी छद्म नाम तक का उल्लेख नहीं किया है, किंतु उसे नामी डाकू के रूप में चित्रित किया है, जो बड़े किसानों, जमींदारों और जमींदारों को पत्र व संवाद भेज देते थे कि फलाँ गाँव में गरीबों में अनाज बाँट दो, अन्यथा अनाज लूट लिया जाएगा। सत्यश:, यह अनाज गरीबों में बंटती थी। परंतु उपन्यासकार ने नक्षत्र मालाकार व उनके छद्म नाम का भी उल्लेख न कर ‘साहस’ से साफ बचते व भागते नज़र आये हैं। जो हो, कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी ने अनूपजी की प्रशंसा में कलम तोड़ दिए हैं, “अनूप उपन्यास-लेखक हैं, किंतु उसका जीवन स्वयं एक उपन्यास है। …… संसार के असंख्य प्रहारों को हँस-हँस कर झेलनेवाले इस योद्धा की जीवनी स्वयं भी एक उत्तम उपन्यास का उपादान है। अनूप कलाकार योद्धा है, साहित्यकार साधक है। उसकी कूची में हरी, पीली, गुलाबी रंगीनियों की कमी नहीं। उसकी लेखनी में खट्टे-मीठे-तीते रसों का अभाव नहीं।”

कोई पिता के नाम से जाने जाते हैं, कोई दादा-परदादा के जमींदाराना ‘स्टेटस’ से पहचाने जाते हैं, किंतु यह पहचान पार्थिव देह की उपस्थिति तक ही संभव है। यह चरित्रानुसार व्यक्तिगत पहचान है, जिसे हम ‘व्यक्तित्व’ के दायरे में रखते हैं। किसी के स्वच्छ व्यक्तित्व हमें बेहद प्रभावित करता है, ऐसे व्यक्ति की खूबियाँ हमारे साथ ताउम्र जुड़ जाती हैं, परंतु इतिहास सबको सँजो कर नहीं रख पाते हैं। हाँ, ऐसे व्यक्ति अगर समाज व राष्ट्र को मानव कल्याणार्थ कुछ देकर जाता है, तो उसके इस ‘अवदान’ को हम ‘कृतित्व’ कहते हैं। मृत्यु के बाद यही कृतित्व ही ‘अमर’ रहता है। साहित्यकार और वैज्ञानिक अपने कृतित्व के कारण ही अमर हैं। अपने आविष्कार ‘बल्ब’ के कारण थॉमस अल्वा एडिसन जगप्रसिद्ध हैं, जगदीश चन्द्र बसु तो ‘क्रेस्कोग्राफ’ के कारण। आज गोस्वामी तुलसीदास से बड़े ‘रामचरित मानस’ है और ‘मैला आँचल’ है तो  फणीश्वरनाथ रेणु है। कुछ कृतियों के पात्र ही इस कदर अमर हो गए हैं कि लेखक ‘गौण’ हो गए हैं, जैसे- शरलॉक होम्स (लेखक- आर्थर कानन डॉयल) और कभी तो पात्र को जीनेवाले अभिनेता का मूल नाम समष्टि से बाहर हो जाता है, जैसे- गब्बर सिंह (अभिनेता- अमज़द खान)। ऐसे कृतिकारों के जन्मस्थली भी मायने रखते हैं, पोरबन्दर कहने मात्र से महात्मा गाँधी स्मरण हो आते हैं, ‘लमही’ तो उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के पर्याय हो गए हैं।

कटिहार जिला (बिहार) में ‘समेली’ कोई विकसित प्रखंड नहीं है, किंतु बौद्धिकता के मामले में अव्वल है, परंतु ‘समेली’ (मोहल्ला- चकला मोलानगर)  शब्द ‘मानस-स्क्रीन’ पर आते ही एकमात्र नाम बड़ी ईमानदारी से उभरता है, वह है- “अनूपलाल मंडल” (जन्म- माँ दुर्गा की छठी पूजा के दिन, 1896; मृत्यु- 22 सितंबर 1982)। ‘परिषद पत्रिका’ (वर्ष-35, अंक- 1-4) ने अनूपजी के जीवन-कालानुक्रम को प्रकाशित की है, इस शोध-पत्रिका के अनुसार– आरम्भिक शिक्षा चकला-मोलानागर में ही। मात्र 10 वर्ष की अवस्था में प्रथम शादी, पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी 16 वर्ष की आयु में सुधा से। तीसरी शादी 27 वर्ष की उम्र में मूर्ति देवी से। सन 1911 में गाँव के उसी विद्यालय में प्रधानाध्यापक नियुक्त, जहाँ उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण किये थे। बाद में शिक्षक-प्रशिक्षण 1914 में सब्दलपुर (पूर्णिया) से प्राप्त किये। प्राथमिक और मध्य विद्यालयों से होते हुए 1922 में बेली हाई इंग्लिश स्कूल (अब- अनुग्रह नारायण सिंह उच्च विद्यालय), बाढ़ में, 1924 में टी0 के0 घोष अकादमी, पटना में, 1928 में महानंद उच्च विद्यालय में हिंदी शिक्षक नियुक्त, तो 1929 में बीकानेर के इवनिंग कॉलेज में 100 रुपये मासिक वेतन पर हिंदी व्याख्याता नियुक्त, इसी घुमक्कड़ी जिंदगी में इसी साल चांद प्रेस, इलाहाबाद से पहला उपन्यास ‘निर्वासिता’ छपवाया, वैसे अन्य विधा में से पहली पुस्तक ‘रहिमन सुधा’ थी, जो 1928 में छपी थी। पुस्तक विक्रेता के रूप में गुलाबबाग, चंपानगर, अलमोड़ा, नैनीताल, लखनऊ, आगरा, मथुरा, काशी, रानीखेत, सीतापुर, मंसूरी, भागलपुर, कटिहार इत्यादि स्थानों में घूमते रहे। इस  यायावरी-मोह को त्यागकर 1930 में घर-वापसी और गाँव समेली में ‘सेवा-आश्रम’ की स्थापना किये तथा जीविकोपार्जन के लिए लक्ष्मीपुर ड्योढ़ी में 50 रुपये मासिक पर असिस्टेंट मैनेजर की नौकरी की, परंतु इसे छोड़ इसी साल गुरुबाज़ार, बरारी (जिला- कटिहार) में ‘युगांतर साहित्य मंदिर’ नामक प्रकाशन संस्थान खोले। वर्ष 1930 में ही स्वप्रकाशन संस्थान से उपन्यास ‘समाज की वेदी पर’ प्रकाशित हुआ, जो क्रोनोलॉजिकल क्रम में दूसरा उपन्यास है। फिर 1931 में ‘साकी’ और ‘गरीबी के दिन’ (अंग्रेजी उपन्यास ‘हंगर’ का अनुवाद),  1933 में ‘ज्योतिर्मयी’, 1934 में ‘रूप-रेखा’, 1935 में ‘सविता’ प्रकाशित हुई। इन उपन्यासों के पुनर्प्रकाशन भी हुए, तो ‘गरीबी के दिन’ उनके द्वारा अंग्रेजी से हिंदी में अनूदित उपन्यास है। ध्यातव्य है, वे हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी, बांग्ला, उर्दू और नेपाली भाषा में भी साधिकार लिखते थे, उर्दू के ‘आजकल’ में भी छपे। उपन्यासकार के तौर पर क्षेत्र, प्रदेश और नेपाल में चर्चित होने के कारण 1935 में जापानी कवि योने नोगूची के कोलकाता आगमन पर उनके अभिनंदन हेतु प्रतिनिधि-मंडल में उन्हें भी शामिल किया किया गया। तब डॉ0 माहेश्वरी सिंह ‘महेश’ कलकत्ता (कोलकाता) में पढ़ते थे। नेपाल (विराटनगर) में 25 एकड़ भूमि उन्हें रजिस्ट्री से प्राप्त हुई। वर्ष 1936 में हिंदी पुस्तक एजेंसी, कोलकाता ने ‘काव्यालंकार’ नाम से शोध-पुस्तक प्रकाशित की, तो 1937 में उनके दो उपन्यास प्रकाशित हुए, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी से ‘मीमांसा’ और श्री अजंता प्रेस, पटना से ‘वे अभागे’ नामक उपन्यास। ‘मीमांसा’ पर ‘बहुरानी’ नाम से निर्देशक किशोर साहू ने हिंदी फिल्म बनाये, परंतु इस निर्देशक के 500 रुपये प्रतिमाह पर कथा-लेखन के प्रस्ताव को ठुकराए। सन 1941 में ‘दस बीघा जमीन’ और ‘ज्वाला’ शीर्षक लिए उपन्यास प्रकाशित हुए। वर्ष 1942 से रीढ़, गर्दन, डकार इत्यादि रोगों से मृत्यु तक लड़ते रहे। स्वास्थ्य-लाभ के क्रम में ‘महर्षि रमण आश्रम’ और ‘श्री अरविंद आश्रम’ (पांडिचेरी) भी रहे तथा इन द्वय के जीवनी-लेखक के रूप में ख्याति भी अर्जित किये। अंग्रेजी और बांग्ला से अनूदित उपन्यासों को जोड़कर उनके द्वारा कुल 24 उपन्यास लिखे गए। अन्य उपन्यासों में ‘आवारों कई दुनिया’, ‘दर्द की तस्वीरें’ (दोनों 1945), ‘बुझने न पायें’ (1946), ‘रक्त और रंग’, ‘अभियान का पथ’ (दोनों 1955), ‘अन्नपूर्णा’, ‘केंद्र और परिधि’ (दोनों 1957), ‘तूफान और तिनके’ (यह नाम डॉ0 श्रीरंजन सूरिदेव ने दिया था, 1960), ‘शेष पांडुलिपि’ (1961, बांग्ला लेखक वसुमित्र वसु के उपन्यास का हिंदी अनुवाद), ‘उत्तर पुरुष’ (1970) इत्यादि शामिल हैं। ‘उत्तर पुरुष’ की वृहद समीक्षा डॉ0 चंद्रकांत बांदीवाडेकर ने किया था। अनूपजी के जीवनकाल में प्रकाशित अंतिम उपन्यास ‘नया सुरुज, नया चान’ (अंगिका भाषा में), जो 1979 में प्रकाशित हुई थी, पं0 नरेश पांडेय ‘चकोर’ के अनुसार, इस उपन्यास का विमोचन 11 नवंबर 1979 को शिक्षक संघ भवन, पटना में पूर्व मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री की अध्यक्षीय समारोह में हुई थी, तो ‘शुभा’ नामक उपन्यास संभवतः अद्यतन अप्रकाशित है, साहित्यकार रणविजय सिंह ‘सत्यकेतु’ के अनुसार, 82 पृष्ठों के फुलस्केप कागज पर हस्तांकित ‘शुभा’ की पांडुलिपि प्रख्यात समीक्षक व उनके शिष्य डॉ0 मधुकर गंगाधर के बुकशेफ़ में सुरक्षित है। वहीं 1973 में लिखकर तैयार उनकी आत्मकथा ‘और कितनी दूर है मंजिल’ 42 साल बाद (मृत्यु के 36 साल बाद ) भी अप्रकाशित है। डॉ0 श्रीरंजन सूरिदेव को उन्होंने एक पत्र (6 अगस्त 1982) लिखा था- “प्रिय श्रीरंजन, शुभाशीष! तीन महीने से रोगग्रस्त हो पड़ा हूँ। चिकित्सा चल रही है, पर कोई लाभ नहीं दिख पड़ता। शरीर से भी काफी क्षीण हो गया हूँ  अब पटना जाने का कभी साहस नहीं कर सकता! यही कारण है कि श्री जयनाथ मिश्र ने मुख्यमंत्री डॉ0 जगन्नाथ मिश्र से मिलने के लिए जिस तिथि को बुलाया था, मेरा जाना संभव नहीं हो सका। जीवन में एक ही साध थी, वह थी– आत्मकथा का प्रकाशन। क्या करूँ– भगवान की इच्छा…. !” उन्होंने बच्चों के लिए भी बाल-कहानियां, एकांकी और किताबें लिखी, यथा- उपनिषदों की कथाएँ, मुसोलिनी का बचपन आदि। उनके द्वारा रचित सभी विधा की रचनाओं का विपुल भंडार हैं, जो कि बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना के संज्ञानार्थ यह संख्या 3 दर्जन से अधिक हैं।

असली साहित्यकार के रूप में उनकी पहचान 9 अक्टूबर 1950 में ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना’ में प्रथम ‘प्रकाशनाधिकारी’ पद पर नियुक्ति के बाद ही अभिलेखित हुई। परिषद के प्रथम निदेशक आचार्य शिवपूजन सहाय थेइस पहचान के प्रसंगश: 1951 में महादेवी वर्मा और डॉ0 हज़ारी प्रसाद द्विवेदी से उनकी मुलाकात हुई, जैसा कि अनूपजी खुद भी लिखते हैं- “बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की स्थापना जिन उद्देश्यों की पूर्त्ति के लिए की गई थी, उनमें मुख्य था– राष्ट्रभाषा हिन्दी के उन्नयन और समृद्धि के लिए विशेषज्ञ विद्वानों द्वारा ग्रंथों का प्रणयन करवाकर उन्हें प्रकाशित करना। …. विशिष्ट विद्वानों से संपर्क स्थापित किया गया, पत्राचार होते ही ही रहे और अवसर आने पर उनमें से श्रीमती महादेवी वर्मा, डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल, डॉ0 मोतीचंद, आचार्य नरेंद्र देव, डॉ0 यदुवंशी, डॉ0 सत्यप्रकाश, डॉ0 गोरख प्रसाद, डॉ0 धीरेंद्र अस्थाना, पं0 राहुल सांकृत्यायन, डॉ0 विनय मोहन शर्मा, डॉ0 हेमचंद्र जोशी, डॉ0 अनंत सदाशिव अल्तेकर, पं0 गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी इत्यादि प्रख्यात विद्वानों का परिषद में पदार्पण हुआ। …. उस समय बिहार के शिक्षा मंत्री (आचार्य बद्रीनाथ वर्मा) और शिक्षा सचिव श्री जगदीशचंद्र माथुर दोनों यशस्वी लेखक थे। विचार-विमर्श के लिए निरंतर भेंट होते– कभी अकेले, तो कभी शिवभाई (आचार्य शिवपूजन सहाय) के साथ। उस समय परिषद का कार्य ‘सिन्हा लाइब्रेरी’ से होता था।” वे आचार्य शिवपूजन सहाय पर भी लिखते हैं- “शिवभाई और मेरे स्वभावों में आकाश-पाताल का अंतर था। वे शांत थे और मैं उग्र था।… उन्होंने ‘विनय पत्रिका’ की एक प्रति मुझे भेंट की थी और उन्होंने आग्रहपूर्वक कहा था कि आप नित्य नियम बांध कर विनय पत्रिका और रामचरित मानस का पाठ करते चलिए अनूप भाई। देखिएगा, आपका संकट दूर होगा और आप प्रसन्न रहेंगे। मिलने पर अवश्य पूछते- ‘क्यों अनूप भाई, ‘मानस’ और ‘पत्रिका’ का पाठ निरंतर चल रहा है न ! उस पुण्यात्मा ऋषिकल्प शिवजी भाई को मेरा शतशः प्रणाम।”  बि0 रा0 परिषद ने 1957 में उनके उपन्यास ‘रक्त और रंग’ के प्रसंगश: ‘बिहारी ग्रंथ लेखक पुरस्कार’ और 1981 में ‘वयोवृद्ध साहित्य सम्मान’ प्रदान किया। शनै: – शनै: हो रहे कमजोर शरीर और बढ़ती बीमारी के कारण उन्होंने ‘प्रकाशनाधिकारी’ पद से 1963 में त्यागपत्र दे दिए और सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए, इसी क्रम में अपने गांव (अब प्रखंड) समेली में ‘प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र’ की स्थापना में अनूपजी की अविस्मरणीय भूमिका रही, जिनमें ग्रामीण डॉ0 विहोश्वर पोद्दार जी ने चिकित्सीय सहयोग दिए थे। मृत्यु भी गाँव में हुई थी। तब ज्येष्ठ पुत्र सतीश सहित सुवोध और प्रबोध भी वहीं थे। बेटी, पोते-पोती, नाती-नतिनी के भरे-पूरे परिवार छोड़कर कि-

“बड़ी रे जतन सँ सूगा एक हो पोसलां,
सेहो सूगा उड़ी गेल आकाश।”

क्रमशः ….

संदर्भ-ग्रंथ:- 

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की पुस्तकें, पत्रिकाएँ, अन्य पुस्तकें, उनसे जुड़े साहित्यकारों/लोगों के साक्षात्कार और आलेखक द्वारा उपन्यासकार अनूपलाल मण्डल के गांव-घर की स्वानुभूति साहित्यिक-यात्रा।

© डॉ. सदानंद पॉल

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर-☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 महादेव साधना संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जाएगी  💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर-🍁??



🙏अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर देखिए विभिन्न भाषाओं की कविताओं पर आधारित हमारा आयोजन, भाषा कभी बाँधती नहीं🙏

आज अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है। विभाजन के बाद पाकिस्तान ने उर्दू को अपनी राजभाषा घोषित किया था। पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) बांग्लाभाषी था। वहाँ छात्रों ने बांग्ला को द्वितीय राजभाषा का स्थान देने के लिए मोर्चा निकाला। बदले में उन्हें गोलियाँ मिली। इस घटना ने तूल पकड़ा। बाद में 1971 में भारत की सहायता से बांग्लादेश स्वतंत्र राष्ट्र बन गया।

1952 की घटना के परिप्रेक्ष्य में 1999 में यूनेस्को ने 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस घोषित किया।

आज का दिन हर भाषा के सम्मान , बहुभाषावाद एवं बहुसांस्कृतिक समन्वय के संकल्प के प्रति स्वयं को समर्पित करने का है।

मातृभाषा मनुष्य के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मातृभाषा की जड़ों में उस भूभाग की लोकसंस्कृति होती है। इस तरह भाषा के माध्यम से संस्कृति का जतन और प्रसार भी होता है। भारतेंदु जी के शब्दों में, ‘ निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल/ बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।’

हृदय के शूल को मिटाने के लिए हम मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा की मांग और समर्थन सदैव करते रहे। आनंद की बात है कि करोड़ों भारतीयों की इस मांग और प्राकृतिक अधिकार को पहली बार भारत सरकार ने शिक्षानीति में सम्मिलित किया। नयी शिक्षानीति आम भारतीयों और भाषाविदों-भाषाप्रेमियों की इच्छा का दस्तावेज़ीकरण है। हम सबको इस नीति के क्रियान्वयन से अपरिमित आशाएँ हैं।

विश्वास है कि यह संकल्प दिवस, आनेवाले समय में सिद्धि दिवस के रूप में मनाया जाएगा। अपेक्षा है कि भारतीय भाषाओं के संवर्धन एवं प्रसार के लिए हम सब अखंड कार्य करते करें। सभी मित्रों को शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे

सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈



हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 22 – बोस्टन टी पार्टी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 22 – ☕ बोस्टन टी पार्टी ☕☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में तो चाय पार्टी साधारण सी बात है। घर,मित्र मंडली, कार्यालय, हमेशा चाय के नाम पर ही चर्चा/विचार विमर्श करते हैं। एक पुराना फिल्मी गीत” तेरी मम्मी ने चाय पर बुलाया है” वर वधु के वैवाहिक संबंध भी चाय पर ही तय होने की परंपरा विगत कुछ दशक से प्रचलित हैं। चाय तो एक बहाना है, “मित्र को कुछ देर और बैठने का” वैसे “ठंडी चाय” का सेवन करने वालों को किसी बहाने की आवश्यकता ही नहीं होती हैं।

करीब तीन सौ वर्ष पूर्व ईस्ट इंडिया कंपनी चाय को पूरे यूरोप के निवासियों को इसकी लत लगा चुकी थी। अमेरिका भी इंगलैंड का उपनिषद था। उन्होंने अमेरिका में भी चाय का प्रचार/ प्रसार कर लोगों को इसके सेवन की आदत डाल रही थी। चाय पर अतिरिक्त कर लगा कर ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी आय को दिन दोगुना रात चौगुना करने की जुगत में थी।

अढ़ाई सौ वर्ष पूर्व बोस्टन के समुद्री किनारे पर तीन जहाज़ ईस्ट इंडिया कंपनी की चाय लेकर पहुंच चुके थे। स्थानीय अमरीकी लोगों ने इसका विरोध करते हुए स्वतंत्रता की मशाल जला दी थी। इंग्लैंड के विरोध में तीनों जहाज़ पर लदी हुई चाय पत्ती को समुद्र में विसर्जित कर दिया गया था। हमारे देश में भी 1857 का विद्रोह स्वतंत्रता प्राप्ति का पहला कदम था। वैसा ही इस देश में भी हुआ और आगे चल कर अमरीका, इंग्लैंड के चंगुल से आज़ाद हो गया।

देश भक्त और पुराने अमरीकी हमेशा चाय के स्थान पर कॉफी को प्राथमिकता देते हैं। ये ही कारण है, कि यहां पर चाय का सेवन, कॉफी से बहुत कम हैं। एशियाई देश के प्रवासी जो अधिकतर चाय के शौकीन होते है, यहां आकर चाय की कमी महसूस करते हैं।

बोस्टन में इसकी याद में उसी स्थान पर “बोस्टन टी पार्टी शिप्स म्यूज़ियम” स्थापित किया  गया है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 8 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 8 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।

अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।

नारद सारद सहित अहीसा।।

अर्थ: –

हजार मुख वाले शेषनाग तुम्हारे यश का गान करें – ऐसा कहकर लक्ष्मीपति विष्णुस्वरूप भगवान श्रीरामने आपको अपने हृदयसे लगा लिया I

हे हनुमान जी आपके यशों का गान तो सनकादिक ऋषि, ब्रह्मा और अन्य मुनि गण, नारद, और सरस्वती सभी करते हैं।

भावार्थ:-

श्री रामचंद्र जी ने कहा कि हे हनुमान जी आप का यश पूरे ब्रह्मांड में फैल जाएगा। हर समय आप के यश का गान होगा। हजार मुख वाले शेषनाग जी भी आपके यश का गान करेंगे। ऐसा कहते हुए लक्ष्मण जी के मूर्छा से वापस आने पर प्रसन्न होकर लक्ष्मीपति विष्णु जी के अवतार श्री रामचंद्र जी ने श्री हनुमान जी को गले से लगाया।

गले से लगाते हुए श्री रामचंद्र जी ने पुनः कहा कि सनक आदि ऋषि गण ब्रह्मा आदि देवता गण और सभी मुनि तथा स्वयं सरस्वती देवी और नारद जी आप की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं। कोई भी आपकी पूर्ण प्रशंसा नहीं कर सकता हैं।

संदेश:-

अच्छे कर्म करने पर ईश्वर भी अपने भक्त के भक्त बन जाते हैं। इसलिए ऐसे कर्म करें, जिससे सब का भला हो।

इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा।।

हनुमान चालीसा की इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से यश,  सम्मान, प्रसिद्धि और कीर्ति बढ़ती है। अगर आपको मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करना हो तो इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करना चाहिए।

विवेचना:-

हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी के द्वारा किए गए कार्यों से प्रसन्न होकर श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी की कई बार प्रशंसा की तथा गले से भी लगाया था।

हनुमान चालीसा में इस चौपाई से पहले की चौपाई में कहा गया है:-

 “लाय सजीवन लखन जियाये”

 इसी के बाद यह चौपाई आई है कि “सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा”। अतः हम कह सकते हैं की यह प्रशंसा संजीवनी बूटी लाने के लिए है। घटना इस प्रकार है:-

लक्ष्मण जी मेघनाथ द्वारा किए गए शक्ति प्रहार से मूर्छित हो गए थे। श्री लक्ष्मण जी को शीघ्र स्वास्थ्य करने के लिए हनुमान जी विभीषण की सलाह पर श्रीलंका से सुषेण वैद्य को लेकर आए। सुषेण वैद्य ने संजीवनी बूटी की आवश्यकता बताई। यह भी बताया कि संजीवनी बूटी द्रोणागिरी पर्वत पर मिलती है। हनुमान जी संजीवनी बूटी को लाने के लिए द्रोणागिरी पर्वत पर गए। वे द्रोणागिरी से संजीवनी बूटी लेकर वापस शिविर में पहुंचे उस समय का  दृश्य विकट था। रामचरितमानस में इस प्रसंग को निम्नानुसार कहा गया है :-

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।

आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस॥61॥

हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥

तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥

( रामचरितमानस/लं कां /61 /1)

यहां पर भी यही कहा गया है रामचंद्र जी ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को भेंटा अर्थात गले लगाया। गले लगाने के उपरांत श्री रामचंद्र जी ने क्या कहा यह इस चौपाई या दोहा में नहीं आया है। हनुमान चालीसा इस बात को स्पष्ट करता है। हनुमान चालीसा में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि गले लगाने के बाद श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी के लिए क्या कहा।

श्री रामचरितमानस में हनुमान जी जब सीता जी का पता लगा कर के श्री रामचंद्र जी के पास पहुंचे तब वहां पर पूरे आख्यान को जामवंत जी ने श्री रामचंद्र जी को बताया।

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।

सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥

पवनतनय के चरित सुहाए।

जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥

जामवंत जी ने कहा कि हे नाथ! पवनपुत्र हनुमानजी ने जो काम किया है उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता हनुमानजी की प्रशंसा के वचन और कार्य जामवंत जी ने श्री रामचन्द्रजी को सुनाये।

सुनत कृपानिधि मन अति भाए।

पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥

कहहु तात केहि भाँति जानकी।

रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥

उन वचनों को सुनकर दयालु श्रीरामचंद्र जी ने उठकर हनुमानजी को अपनी छाती से लगाया और हनुमानजी से पूछा कि हे तात! कहो, सीता किस तरह रहती है? और अपने प्राणों की रक्षा वह किस तरह करती है?

यहां पर जामवंत जी ने कहा है कि हनुमान जी ने जो कुछ किया है उसकी प्रशंसा सहस्त्रों  मुख से भी नहीं की जा सकती है। जबकि हनुमान चालीसा में यही बात श्री रामचंद्र जी ने स्वयं कहा है। श्री रामचंद्र ने कहा है कि सहस्त्र मुख वाले शेषनाग जी तुम्हारे यश का वर्णन करेंगे। यहां पर सहस बदन का अर्थ है सहस्त्र बदन। बदन शब्द का अर्थ संस्कृत में मुख से होता है। अतः सहसवदन का अर्थ हुआ सहस्त्र मुख वाले अर्थात शेषनाग जी।

 यहां पर यह बताया गया है हनुमान जी की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। अगर शेषनाग जी अपने सभी सहस्त्र मुखों से भी हनुमान जी की प्रशंसा करना चाहे तो भी वह भी नहीं कर पाएंगे।।

 कबीर दास जी की तरह से तुलसीदास जी भी लिख सकते थे कि :-

 सब धरती कागद करूँ, लेखनी सब बनराय।

सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय।

 यह कबीर दास जी का दोहा है जो कि भक्ति काल के कवि थे। महात्मा तुलसीदास जी भी भक्ति काल के ही कवि थे। कबीर दास जी का समय तुलसीदास जी से थोड़ा पहले का है। अब

यहां प्रश्न यह उठता है की श्रीरामचंद्र जी ने हनुमान जी के यश के वर्णन के लिए शेषनाग जी को ही क्यों उपयुक्त माना। तुलसीदास जी ने संभवत शेषनाग जी का नाम श्री विष्णु के अवतार श्री रामचंद्र जी के संदर्भ में लिया गया है। धरती, जंगल,स मुद्र यह सब पार्थिव हैं। जबकि शेषनाग जी देवताओं की श्रेणी में आते हैं। श्री लक्ष्मण जी श्री शेषनाग जी के ही अवतार थे। एक देवता जिसके सहस्त्र मुख है वह भी जिसकी पूर्ण प्रशंसा न कर सके फिर तो उसकी पूर्ण प्रशंसा करना संभव ही नहीं है। संभवतः यही श्री रामचंद्र जी का हनुमान जी के प्रशंसा के लिए श्री शेषनाग का संदर्भ देने का कारण है।

इसी चौपाई में आगे श्री रामचंद्र जी को श्रीपति कहा गया है। हनुमान चालीसा में लिखा है “अस कहि श्रीपति कंठ लगावें “। आखिर यहां पर श्री रामचंद्र जी को श्री अर्थात लक्ष्मी जी से क्यों जोड़ा गया है। उनको श्रीपति अर्थात विष्णु जी क्यों कहा गया है। इस स्थान के अलावा हनुमान चालीसा के किसी अन्य स्थान पर भगवान श्रीराम को श्रीपति कहकर संबोधित नहीं किया गया है।

यहां पर भगवान श्रीराम को श्री रामचंद्र जी ने कह कर के श्रीपति कहने का विशेष आशय है। हम सभी जानते हैं कि श्री शब्द का अर्थ है देवी लक्ष्मी, शुभ, आलोक, समृद्धि, प्रथम, श्रेष्ठ, सौंदर्य, अनुग्रह,  प्रतिभा, गरिमा शक्ति, सरस्वती, आदि।

श्री शब्द का सबसे पहले ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है। अनेक धर्म पुस्तकों में लिखा गया है कि ‘श्री’ शक्ति है। जिस व्यक्ति में विकास करने की और खोज की शक्ति होती है, वह श्री युक्त माना जाता है। राम को जब श्रीराम कहा जाता है, तब राम शब्द में ईश्वरत्व का बोध होता है। इसी तरह श्रीकृष्ण, श्री लक्ष्मी और श्री विष्णु तथा श्री हरी के नाम में ‘श्री’ शब्द उनके व्यक्तित्व, कार्य, महानता और अलौकिकता को प्रकट करता है। श्रीपति कहने से स्पष्ट होता है की रामचंद्र जी  कोई साधारण पुरुष नहीं बल्कि अवतारी पुरुष हैं। अवतारी पुरुष द्वारा हनुमान जी को अपने गले से लगाना प्रतिष्ठा देने की उच्चतम पराकाष्ठा है। रामचंद्र जी वनवास में है परंतु अयोध्या के होने वाले राजा भी हैं। किष्किंधा के राजा सुग्रीव के मित्र भी हैं। इसके अलावा श्रीलंका के निर्वासित सरकार के मुखिया विभीषण जी को राज्य प्राप्त करने में सहायक भी हैं।

सनकादिक का अर्थ है सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार। सृष्टि के आरंभ में लोक पितामह ब्रह्मा ने अनेक लोकों की रचना करने की इच्छा से घोर तपस्या की। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने तप अर्थ वाले सन नाम से युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार नाम के चार मुनियों के रूप में अवतार लिया। ये चारों प्राकट्य काल से ही मोक्ष मार्ग परायण, ध्यान में तल्लीन रहने वाले, नित्यसिद्ध एवं नित्य विरक्त थे। ये भगवान विष्णु के सर्वप्रथम अवतार माने जाते हैं।

 यह सभी सर्वदा पांच वर्ष आयु के ही रहे। न कभी जवान हुए ना बुढ़े। चार भाई एक साथ ही रहते हैं ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं। ये चारों भाई जहां भी जाते हैं निरंतर भजन और कीर्तन में मग्न रहते हैं। एक प्रकार से हम कह सकते हैं कि यह निरंतर बोलते रहते हैं। या तो ये भजन को भजन के रूप में बोलते हैं या कीर्तन के रूप में बोलते हैं। इस चौपाई में   इनके नाम लेने का आशय यह है कि अगर यह चारों मुनि जो कि विष्णु भगवान के अवतार हैं अगर बगैर रुके हनुमानजी की प्रशंसा करते रहे तो वे चारों मिलकर भी हनुमान जी की प्रशंसा पूर्णरूपेण नहीं कर पाएंगे।

 दूसरा शब्द है ब्रह्मादि। इस शब्द का आशय बिल्कुल स्पष्ट है। ब्रह्मादि का अर्थ है देव त्रयी अर्थात ब्रह्मा जी, विष्णु जी और शिव जी। हिंदू धर्म में यह माना जाता है कि इनका स्थान सभी देवताओं से ऊपर है। परंतु उनके भक्तों में इस बात का युद्ध रहता है कि इनमें  बड़ा कौन है। विष्णु पुराण के अनुसार विष्णु जी सबसे पहले ब्रह्मांड में आए फिर उसके बाद शिव जी और ब्रह्मा जी आए। शिव पुराण के अनुसार शिवजी सबसे बड़े हैं। अगर हम इनके चित्र देखें तो ब्रह्मा जी सबसे वृद्ध दिखाई देते हैं। ब्रह्मा जी के बाद शिवजी और उसके उपरांत विष्णु जी कम आयु के दिखाई पड़ते हैं। परंतु वास्तव में यह तीनों एक ही है। केवल अलग-अलग कार्यों के लिए ये अलग-अलग हो गए हैं। सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी करते हैं। उनकी पत्नी सरस्वती जी ज्ञान की देवी हैं। वे इस कार्य में उनकी मदद करती है। इस पूरे जगत का पालनकर्ता भगवान विष्णु है। वह लक्ष्मी जी के साथ शेष शैया पर क्षीर सागर में निवास करते हैं। भगवान शिव विलीन कर्ता है। यह अपनी पत्नी और परिवार के साथ कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। यह सभी अजन्मे है। सभी शक्ति युक्त है। अलग-अलग कार्यों के लिए विभिन्न नाम से पुकारे जाते हैं। इस चौपाई के अनुसार ये सभी शक्तिशाली देवता भी अगर मिलकर हनुमानजी की प्रशंसा करना चाहे तो नहीं कर सकते।

अगला शब्द मुनीसा है जिसका आशय है सभी मुनि गण। ये ऋषि और मुनि धरती पर निवास करने वाला बौद्धिक वर्ग हैं जो कि निरंतर यज्ञ -हवन कीर्तन-भजन आदि  कर्मों में लगा रहता है। इनकी संख्या करोड़ों में है। इस चौपाई के अनुसार  ये सभी भी मिलकर अगर हनुमान जी के कार्यों की प्रशंसा करना चाहे तो नहीं कर पाएंगे।

चौपाई के अगले खंड में “नारद सारद सहित अहीसा” कहा गया है।

नारद मुनि ब्रह्मा जी के छह पुत्रों में से छठे नंबर के हैं। उन्होंने कठिन तपस्या करने के उपरांत ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त कर लिया है। नारद जी सदैव धर्म का प्रचार करते रहते हैं। वे पूरे ब्रह्मांड का भ्रमण करते रहते हैं। विष्णु जी के साथ इन का विशेष संपर्क है। ये सदा विष्णु जी की आराधना करते हैं। इनकी प्रशंसा में श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है – “देवर्षीणाम् च नारद:।

देवर्षियों में मैं नारद हूं   इनका कार्य सदैव बोलने का ही है।

मां शारदा या सरस्वती विद्या की देवी है पूरा ज्ञान इनसे ही है।

अहीसा का अर्थ है सांपों का देवता अर्थात शेषनाग जी। शेषनाग जी के एक सहस्त्र मुख हैं। यह भी माना जाता है इनसे ज्यादा मुख किसी और प्राणी के पास नहीं। इस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र कहते हैं कि यह सभी मिलकर के भी हनुमान जी द्वारा किए गए कार्यों की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं। इसका अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि हनुमान जी के कार्यों की पूर्ण प्रशंसा करना असंभव है। अगली दो चौपाइयां भी इन्हीं चौपाइयों उसके साथ जुड़ी हुई है। उन चौपाइयों का अर्थ अगले भाग में बताया जाएगा।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 176 ☆ शिवोऽहम् ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 महादेव साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जाएगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 176 शिवोऽहम् ?

।। चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।

गुरु द्वारा परिचय पूछे जाने पर बाल्यावस्था में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य द्वारा दिया गया उत्तर निर्वाण षटकम् कहलाया। वेद और वेदांतों का मानो सार है निर्वाण षटकम्। इसका पहला श्लोक कहता है,

मनोबुद्ध्यहङ्कार चित्तानि नाहं

न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।

न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥

मैं न मन हूँ, न बुद्धि, न ही अहंकार। मैं न श्रवणेंद्रिय (कान) हूँ, न स्वादेंद्रिय (जीभ), न घ्राणेंद्रिय (नाक) न ही दृश्येंद्रिय (आँखें)। मैं न आकाश हूँ, न पृथ्वी, न अग्नि, न ही वायु। मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ।

मनुष्य का अपेक्षित अस्तित्व शुद्ध आनंदमय चेतन ही है। आनंद से परमानंद की ओर जाने के लिए, चिदानंद से सच्चिदानंद की ओर जाने के लिए साधन है मनुष्य जीवन।

सर्वसामान्य मान्यता है कि यह यात्रा कठिन है। असामान्य यथार्थ यह  कि यही यात्रा सरल  है।

इस यात्रा को समझने के लिए वेदांतसार का सहारा लेते हैं जो कहता है कि अंत:करण और बहि:करण, इंद्रिय निग्रह के दो प्रकार हैं।  मन, बुद्धि और अहंकार अंत:करण में समाहित हैं। स्वाभाविक है कि अंत:करण की इंद्रियाँ देखी नहीं जा सकतीं, केवल अनुभव की जा सकती हैं। संकल्प- विकल्प की वृत्ति अर्थात मन, निश्चय-निर्णय की वृत्ति अर्थात बुद्धि एवं स्वार्थ-संकुचित भाव की वृत्ति अर्थात अंहकार। इच्छित का हठ करनेवाले मन, संशय निवारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाली बुद्धि और अपने तक सीमित रहनेवाले अहंकार की परिधि में मनुष्य के अस्तित्व को समेटने का प्रयास हास्यास्पद है।

बहि:करण की दस इंद्रियाँ हैं। इनमें से चार इंद्रियों आँख, नाक, कान, जीभ तक मनुष्य जीवन को बांध देना और अधिक हास्यास्पद है।

सनातन दर्शन में जिसे अपरा चेतना कहा गया है, उसमें निर्वाण षटकम् के पहले श्लोक में निर्दिष्ट आकाश, भूमि, अग्नि, वायु, मन, बुद्धि, अहंकार जैसे स्थूल और सूक्ष्म दोनों तत्व सम्मिलित हैं। अपरा प्रकृति केवल जड़ पदार्थ या शव ही जन सकती है। परा चेतना या परम तत्व या चेतन तत्व या आत्मा का साथ ही उसे चैतन्य कर सकता है, चित्त में आनंद उपजा सकता है, चिदानंद कर सकता है।

आनंद प्राप्ति में दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। दृष्टिकोण में थोड़ा-सा परिवर्तन, जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन लाता है। मनुष्य का अहंकार जब उसे भास कराने लगता है कि उसमें सब हैं, तो यह भास, उसे घमंड से चूर कर देता है। दृष्टिकोण में परिवर्तन हो जाए तो वह धन, पद, कीर्ति पाता तो है पर उसके अहंकार से बचा रहता है। वह सबमें खुद को देखने लगता है। सबका दुख, उसका दुख होता है। सबका सुख, उसका सुख होता है। वह ‘मैं’ से ऊपर उठ जाता है।

यूँ विचार करें करें कि जब कोई कहता है ‘मैं’ तो किसे सम्बोधित कर रहा होता है? स्वाभाविक है कि यह यह ‘मैं’ स्थूल रूप से दिखती देह है। तथापि यदि आत्मा न हो, चेतन स्वरूप न हो तो देह तो शव है। शव तो स्वयं को सम्बोधित नहीं कर सकता। चिदानंद चैतन्य, शव को शिव करता है  और जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के शब्द सृष्टि में चेतनस्वरूप की उपस्थिति का सत्य, सनातन प्रमाण बन जाते हैं।

इसीलिए कहा गया है, ‘शिवोहम्’,..मैं शिव हूँ..’मैं’ से शव का नहीं शिव का बोध होना चाहिए। यह बोध मानसपटल पर उतर आए तो यात्रा बहुत सरल हो जाती है।

यात्रा सरल हो या जटिल, इसमें अभ्यास की बड़ी भूमिका है। अभ्यास के पहले चरण में निरंतर बोलते, सुनते, गुनते रहिए, ‘शिवोऽहम्।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈



हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सदाशिव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज महादेव साधना महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी को सम्पन्न होगी।

💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – सदाशिव ??

🕉️ ई-अभिव्यक्ति के सभी पाठकों को महाशिवरात्रि की हृदय से मंगलकामनाएँ। इस निमित्त आज प्रस्तुत है, ‘संजय उवाच’ के एक आलेख का पुनर्पाठ। 🙏

एक बुजुर्ग परिचित का फोन आया। बड़े दुखी थे। उनके दोनों शादीशुदा बेटे अलग रहना चाहते थे। बुजुर्ग ने जीवनभर की पूँजी लगाकर रिटायरमेंट से कुछ पहले तीन बेडरूम का फ्लैट लिया था ताकि परिवार एक जगह रह सके और वे एवं उनकी पत्नी भी बुढ़ापे में सानंद जी सकें। अब हताश थे, कहने लगे, क्या करें, परिवार में सबकी प्रवृत्ति अलग-अलग है। एक दूसरे के शत्रु हो रहे हैं। शत्रु साथ कैसे रह सकते हैं?

बुजुर्ग की बातें सुनते हुए मेरी आँखों में शिव परिवार का चित्र घूम गया। महादेव परम योगी हैं, औघड़ हैं पर उमापति होते ही त्रिशूलधारी जगत नियंता हो जाते हैं। उनके त्रिशूल में जन्म, जीवन और मरण वास करने लगते हैं। उमा, काली के रूप में संहारिणी हैं पर शिवप्रिया होते ही जगतजननी हो जातीहैं। नीलकंठ अक्षय चेतनतत्व हैं, गौरा अखंड ऊर्जातत्व हैं। परिवार का भाव, विलोम को पूरक में बदलने का रसायन है।

शिव परिवार के अन्य सदस्य भी इसी रसायन की घुट्टी पिये हुए हैं। कार्तिकेय बल और वीरता के प्रतिनिधि हैं। वे देवताओं के सेनापति हैं। श्रीगणेश बुद्धि के देवता हैं। बौद्धिकता के आधार पर प्रथमपूज्य हैं। सामान्यत: विरुद्ध गुण माने जानेवाले बल और बुद्धि, शिव परिवार में सहोदर हैं। अन्य भाई बहनों में देवी अशोक सुन्दरी, मनसा देवी, देवी ज्योति, भगवान अयप्पा सम्मिलित हैं पर विशेषकर उत्तर भारत में अधिकांशत: शिव, पार्वती, श्रीगणेश और कार्तिकेय ही चित्रित होते हैं।

अब परिवार में सम्मिलित प्राणियों पर भी विचार कर लेते हैं। महाकाल के गले में लिपटा है सर्प। गणेश जी का वाहन है, मूषक। सर्प का आहार है मूषक। सर्प को आहार बनाता है मयूर जो कार्तिकेय जी का वाहन है। महादेव की सवारी है नंदी। नंदी का शत्रु है गौरा जी का वाहन, शेर। संदेश स्पष्ट है कि दृष्टि में एकात्मता और हृदय में समरसता का भाव हो तो एक-दूसरे का भक्ष्ण करने वाले पशु भी एकसाथ रह सकते हैं।

एकात्मता, भारतीय दर्शन विशेषकर संयुक्त परिवार प्रथा के प्रत्येक रजकण में दृष्टिगोचर होती रही है। पिछली पीढ़ी में एक कमरे में 8-10 लोगों का परिवार साझा आनंद से रहता था। दाम्पत्य, जच्चा-बच्चा सबका निर्वहन इसी कमरे में। स्पेस नहीं था पर सबके लिए स्पेस था। जहाँ करवट लेने की सुविधा नहीं थी, वहाँ किसी अतिथि के आने पर आनंद मनाने की परंपरा थी, पर ज्यों ही समय ने करवट बदली, परिजन, स्पेस के नाम पर फिजिकल स्पेस मांगने लगे। मतभेद की लचीली बेल की जगह मनभेद के कठोर कैक्टस ने ले ली। रिश्ते सूखने लगे, परिवारों में दरार पड़ने लगी।

सूखी धरती की दरारों में भीतर प्रवेश कर उन्हें भर देती हैं श्रावण की फुहारें। न केवल दरारें भर जाती हैं अपितु अनेक बार वहीं से प्राणवायु का कोश लेकर एक नन्हा पौधा भी अंकुरित होता है।…श्रावण मास चल रहा है, दरारों को भरने और शिव परिवार को सुमिरन करने का समय चल रहा है। यह शिव भाव को जगाने का अनुष्ठान-काल है।

भगवान शंकर द्वारा हलाहल प्राशन के उपरांत उन्हें जगाये रखने के लिए रात भर देवताओं द्वारा गीत-संगीत का आयोजन किया गया था। आधुनिक चिकित्साविज्ञान भी विष को फैलने से रोकने के लिए ‘जागते रहो’ का सूत्र देता है। ‘शिव’ भाव हो तो अमृत नहीं विष पचाकर भी कालजयी हुआ जा सकता है। इस संदर्भ में इन पंक्तियों के लेखक की यह कविता देखिए,

कालजयी होने की लिप्सा में,

बूँद भर अमृत के लिए

वे लड़ते-मरते रहे,

उधर हलाहल पीकर

महादेव, त्रिकाल भए..!

शिव भाव जगाइए, सदाशिव बनिए। नयी दृष्टि और नयी सृष्टि जागरूकों की प्रतीक्षा में है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈