हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 203 ⇒ चाय के बहाने… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चाय के बहाने।)

?अभी अभी # 203 ⇒ चाय के बहाने… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मौसम के करवट बदलते ही, गुलाबी ठंड का असर मेरे गुलाबी गालों और होठों पर पड़ने लगता है।

पंखों में हवा की जगह मानो हवा में ही पंख लग गए हों। हवा के झोँकों में इतनी ताजगी रहती है, कि नींद की खुमारी तो गायब हो जाती है, लेकिन गुलाबी चाय की तलब कुछ और ही बढ़ जाती है।

पीने वाले को पीने का बहाना चाहिए, लेकिन चाय एक हकीकत है, कोई फसाना नहीं ! एक ऐसी कड़वी सच्चाई जिसके लिए झूठी कसमें नहीं खाई जाती, बस एक कप गर्मागर्म चाय से मुंह जूठा किया जाता है। होठों से छू लो तुम, मेरा स्वाद अमर कर दो।।

बंदर को भले ही अदरक का स्वाद ना मालूम हो, लेकिन चाय के स्वाद से यह जरूर पता चल जाता है कि चाय में अदरक है कि नहीं। मसाले वाली चाय में तो तुलसी, अदरक, लौंग इलायची और दालचीनी के अलावा भी बहुत कुछ डाला जाता है। जो नर सुरापान नहीं करते, उन्हें तो चाय की चुस्कियों में ही जन्नत नजर आ जाती है।

अगर चाय में नशा ना होता, तो हर नर इस तरह मोदी मोदी नहीं करता।

चाय पीने वालों के भी विभिन्न स्तर और स्टाइल होती हैं। कौन मेहमान आज प्लेट में चाय डालकर

चाय पीता नहीं, सुड़कता है। एक चाय ट्रे की चाय कहलाती है। दूध अलग, चाय का खौलता पानी अलग। अपनी पसंद अनुसार दूध और शकर मिलाएं और चाय का स्वाद लें। शुगर फ्री चाय भी लोग बिना शुगर फ्री डाले नहीं पीते।।

अधिक चाय स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है, इसलिए डॉक्टर कॉफी पीने की सलाह देते हैं।

एक चायवाले ने न केवल हमारे जीवन में क्रांति ला दी है, आजकल चाय के जीवन में भी हरित क्रांति ने प्रवेश कर लिया है।

घर घर मोदी की तरह, घर घर ग्रीन टी का प्रचलन बढ़ गया है। यह वजन नहीं बढ़ाती, कोलोस्ट्राल घटाती है। जो लड़की अपने फिगर से करे प्यार, वह ग्रीन टी से कैसे करे इंकार। लेकिन कुछ लोगों को क्रांति हजम नहीं होती।

सम्पूर्ण क्रांति से जले लोग आज आंदोलन का हर कदम फूंक फूंक कर रखते हैं।।

सबसे भली चाय के प्याले की क्रांति है। कड़क उबली हुई चाय की तुलना आप बासी कढ़ी में उबाल से नहीं कर सकते। अगर जल ही जीवन है तो चाय भी एक जीवन शैली है।

गर्म चाय की भाप ना केवल फिक्र को वाष्प के साथ उड़ाती है, कई लोगों के लिए थिंक टैंक का काम भी करती है।

पीना था हमको चाय

ठिकाने बना लिए।

तलब थी लब की

हमने बहाने बना लिए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 202 ⇒ संकेतक… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जश्न और त्रासदी “।)

?अभी अभी # 202 || संकेतक || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

|| संकेतक || ~ signal ~

समझदार को इशारा काफी होता है, और डूबते को तिनके का सहारा। लेकिन कुछ सहारे श्री, खुद ऐसे टाइटैनिक होते हैं जो अपने साथ तिनकों को भी ले डुबो बैठते हैं। एक गलत इशारा हमारी मंजिल को भटका भी सकता है और एक संकेतक हमें अपनी मंजिल तक भी पहुंचा सकता है।

जीवन के सफर में मंजिल तक पहुंचने के लिए, हमें कोई ना कोई रास्ता तो चुनना ही पड़ता है। जहां कोई मार्गदर्शक नहीं होता, वहां संकेत ही काम आते हैं। गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है। यह सीटी संकेत भी है और एक तरह का अलार्म भी। चलिए, सिर्फ एक सीटी नहीं ! एक, दो, तीन के बाद कभी चार की गुंजाइश नहीं रह जाती। टेशन से गाड़ी छूट जाती है, एक, दो, तीन हो जाती है।।

शहर के भीड़ भरे यातायात को सुचारू रूप से चलाने के लिए, चौराहों पर ट्रैफिक सिग्नल लगाए जाते हैं। लाल, हरी और पीली बत्ती का मतलब कौन नहीं जानता। और तो और हमारे इंजन वाले वाहनों में भी आवाज वाले इंडिकेटर्स लगे होते हैं, कार को रिवर्स लेते वक्त भी अलार्म हमें आगाह किया करता है। फिर भी ;

ना तूने सिग्नल देखा

ना मैने सिग्नल देखा

एक्सीडेंट हो गया

रब्बा रब्बा …

इसे क्या कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना कहें, अथवा सरासर लापरवाही। पहले नजरों के इशारे हुए, फिर दिल से दिल टकराए, ना कोई खता हुई ना कोई थाने में रिपोर्ट, ना कोई दफा। दोनों गिरफ्तार भी हुए। लेकिन फिर भी मामला रफा दफा।

अगर हमारे जीवन के माइल स्टोन में, संकेतक और सूचक नहीं होते, तो क्या हमारी जिंदगी की राह इतनी आसान होती। एक छोटी सी उंगली का सहारा किसी की जीवन नैया को अगर पार लगा सकता है तो एक गलत सलाह आपके जीवन को बर्बाद और तबाह भी कर सकती है ;

माॅंझी नैया ढूॅंढे किनारा

किसी ना किसी की खोज

में है ये जग सारा।

कभी ना कभी तो समझोगे

तुम ये इशारा

माॅंझी नैया ढूॅंढे किनारा।।

किसी के स्पर्श मात्र से मन का बोझ हल्का हो जाता है तो किसी की छोटी सी सलाह अथवा मार्गदर्शन से इंसान कहां से कहां पहुंच जाता है। छोटे छोटे इशारों और संकेतों में ही जीवन के रहस्य छुपे हैं। कहीं कोई रहबर, तो कहीं किसी सदगुरु का इशारा ही काफी होता है कश्ती को किनारे लाने में और जीवन नैया को पार लगाने में।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 241 ☆ आलेख – साहित्य का विभाजन कितना उचित ?? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख साहित्य का विभाजन कितना उचित ??)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 241 ☆

? आलेख – साहित्य का विभाजन कितना उचित ?? ?

हम तरह-तरह की साहित्य खंड या धाराएँ देखते हैं, जैसे स्त्री-विमर्श, दलित साहित्य (संयोग से आभिजात्य साहित्य नहीं), प्रवासी साहित्य, आदि। साहित्य को विभिन्न खेमों में विभाजित करने की क्या सार्थकता है?

 समग्रता में साहित्य बहुत विशाल परिदृश्य है। जिस तरह विधा अनुसार काव्य, व्यंग्य कहानी एकाग्र है, उसी तरह अन्य उपवर्ग अध्ययन की दृष्टि से ही देखे जाने चाहिए। युवा लेखक, या वरिष्ठ कवि अथवा अभियंता रचनाकारों को एक जगह एकीकृत कर देने से वे साहित्य की मूल धारा से अलग नही हो जाते।

यह सब कुछ ऐसा ही है मानो देश के बच्चों को स्कूलों में, कक्षाओ में, पी टी ड्रेस के रंगों में, उम्र के अनुसार, रुचि के अनुसार अलग अलग क्लब में, या शिक्षा के भाषाई माध्यम अथवा सी बी एस ई, आई एस सी, या प्रादेशिक बोर्ड के खेमों में वर्गीकृत किया गया हो।

यह सब समग्रता में साहित्य को नए अवसर और विकसित ही कर रहा है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 201 ⇒ गोद भराई… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गोद भराई “।)

?अभी अभी # 201 ⇒ गोद भराई… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

गोद भराई ~ Baby Shower

बच्चे तो खैर प्यारे होते ही हैं,कुछ शब्द भी बड़े प्यारे होते हैं। अब भुट्टे को ही ले लीजिए,भले ही देसी हो या अमरीकन,बड़ा कड़क शब्द है,स्वाद भले ही भला हो,बोलने में तो मिठास झलकनी चाहिए। भाटे और भुट्टे में ज्यादा अंतर नहीं,सुनने में भी एक जैसे लगते हैं। वैसे भुट्टे और भुट्टो,और खांसी और फांसी में कितनी समानता नजर आती है। मुझे सुन सुन आए हांसी।

इसी भुट्टे को अंग्रेजी में कॉर्न कहते हैं,हमें तो किसी ने maize पढ़ाया था। क्या भुट्टे का बच्चा भी होता है,जी हां,इसे baby corn कहते हैं। कितना मुलायम होता है,baby corn, बिल्कुल baby जैसा। हर बच्चा,ईश्वर की देन होता है,आशीष,आशीर्वाद और ईश्वर कृपा से ही एक स्वस्थ शिशु का जन्म हो पाता है ;

अब तक छुपा है वो ऐसे

सीपी में मोती हो जैसे।

चंदा से होगा वो प्यारा फूलों से होगा वो न्यारा,

नाचेगा आंगन में छमछम

नन्हा सा मुन्ना हमारा।।

शिशु के जन्म लेने से पहले होने वाले उत्सव को गोद भराई कहा जाता है। हमारी माता वसुंधरा की गोद में कितने मोती छुपे हैं, और जितने माटी के लाल हैं, सभी तो उसकी संतान हैं वन, वनस्पति, जंगल, सोना चांदी और हीरे मोती, किस बात की कमी है उसके पास।

जगत की हर माता में धरती माता का अंश है और उसमें और जगत माता में रत्ती मात्र भी भेद नहीं। भगवान राम और कृष्ण भी जब इस धरा पर अवतरित होते हैं, तो उन्हें भी देवकी, यशोदा और कौशल्या की गोद नसीब होती है। पुरुष के नसीब में कहां यह मातृत्व सुख ! वह तो बेचारा, बाप बनकर ही खुश हो लेता है।।

जगत जननी की तरह ही होने वाले बच्च की मां की गोद भी सदा हरी भरी रहे, इसी कामना के साथ, सातवें महीने के पश्चात् गोद भराई की रस्म होती है, संसार का सभी सुख,वैभव और नाते रिश्तेदारों के प्यार,दुलार और आशीर्वाद की जब होने वाले बच्चे और उसकी मां पर वर्षा होती है, तो उसे baby shower कहते हैं।

शॉवर का सुख तो बच्चे बूढ़े सभी जानते हैं। सुख और आशीर्वाद की वर्षा बिना छप्पर फाड़े होती है, क्योंकि जच्चा बच्चा दोनों पर माता पिता, दादा दादी, नाना नानी,  बुआ फूफा सहित अन्य सभी छोटे बड़े रिश्तेदार, पड़ौसी और शुभचिंतक इस गोद भराई याने बेबी शॉवर का हिस्सा होते हैं।।

सृजन का सुख संसार का सबसे बड़ा सुख है,हमने उस सरजनहार को नहीं देखा, लेकिन अपनी जन्म देने वाली मां में हमने उसे साक्षात अनुभव किया है।

बड़ा विचित्र सुख है मातृत्व में और शिशु तो सुख का सागर ही है।

सज रही मेरी गली मां, सुनहरी गोटी में..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 89 – प्रमोशन… भाग –7 समापन किश्त ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की शृंखला “प्रमोशन…“ की समापन कड़ी।

☆ आलेख # 89 – प्रमोशन… भाग –7 समापन किश्त ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

रिजल्ट आने वाला है की खबर कुछ दिनों से ब्रांच में चल रही थी या फिर फैलाई जा रही थी. हर खबर पर मि.100% का दिल धक-धक करने लगता. फिर शाखा में उनके एक साथी भी थे जिनका प्रमोशन से कोई लेना देना नहीं था पर इनकी लेग पुलिंग का मज़ा लेने में उनसे कोई भी मौका नहीं छोड़ा जा सकता था. रोज सामना होते ही “मिठाई का आर्डर क्या आज दे दें” सुन-सुन कर 100% बेचैन होते-होते पकने की कगार पर आ गये थे. जो बाकी चार थे उनका जवाब हमेशा यही रहता कि “आर्डर कर दो उसमें क्या पूछना. हम लोग तो पैसे देने वाले नहीं हैं. आखिर वो दिन आ ही गया जब रिजल्ट आने की शत प्रतिशत संभावना थी क्योंकि ये खबर हेड ऑफिस के किसी परिचित ने शाखा प्रबंधक को फोन पर कहा था.

उस दिन जो कि शनिवार था, मि. 100% के घर में बहुत सारी काली चीटियां अचानक न जाने कहाँ से निकल आईं. मिसेज़ 100%की दायीं आंख फड़क रही थी और वो भ्रमित थीं कि दायीं आंख का फड़कना शुभ होता है या बाईं आंख का. उस जमाने में गूगल,  इंटरनेट, कंप्यूटर मोबाइल नहीँ होता था कि कनफर्म किया जाय कि कौन सी आंख का फड़कना शुभ समाचार लाता है. जो भी गूगल थे वो पड़ोसी थे और उनसे ये सब शेयर करना घातक हो सकता था. मि. 100% के पास एक ही दिल था और वही धड़क रहा था जोर जोर से. खैर उनके द्वारा हनुमानजी के दर्शन करते हुये शाखा में उपस्थिति दर्ज की गई.

शनिवार पहले हॉफ डे हुआ करता था तो काउंटर पर भीड भाड़ सामान्य से ज्यादा थी. पर अधिक काम होने के कारण रिजल्ट के तनाव से मन हट गया था. ठीक दो बजे जब हॉल पब्लिक से खाली हुआ तो फोन की लंबी घंटी बजी. सब समझ गये कि ये तो लोकल कॉल नहीं है. शाखा प्रबंधक महोदय ने लोकल सेक्रेटरी को बुलाया और दोनों के बीच गंभीरतापूर्वक वार्तालाप हुआ. सभी प्रत्याशियों सहित सभी की उत्सुकता चरम पर पहुँच गई. ब्रांच का रिजल्ट परफारमेंस 80% था और जो सिलेक्ट लिस्ट में नहीं थे, वो थे मिस्टर 100%.

हॉल में बधाइयों की हलचल से भारी थी मिस्टर 100% के “पास “नहीं होने की खामोशी, आश्चर्य और खबर पर अविश्वास. पर सूचना को चुनौती कोई भी नहीं दे पा रहा था. लोकल सेक्रेटरी का बाहर निकल कर उन्हें बाईपास करते हुये बाकी चारों से मिलकर बधाई देना और स्टाफ की भेदती नजरों से मि.100% समझ गये कि वे यह टेस्ट पास नहीं कर पाये. निराशा से ज्यादा शर्मिंदगी उन्हें खाये जा रही थी और वे भी सोच रहे थे कि काश ये धरती याने शाखा का फ्लोर फट जाये और वे करेंट एकाउंट डेस्क से सीधे धरती में समा जायें. रामायण सीरियल को वह दृश्य उनके मन में चल रहा था जब सिया, अपने राम को छोड़कर धरती में समा गईं थीं. ये पल सम्मान, इमेज़, आत्मविश्वास, कर्तव्य निष्ठा सब कुछ हारने के पल थे.

शाखा में चुप्पी थी, जश्न का माहौल नदारद था, ठिठोली करने वाले खामोश थे और शाखा प्रबंधक गंभीर चिंतन में व्यस्त. शाखा की सारी हलचल हॉल्ट पर आ गई थी. मि. 100% का मन तो कर रहा था शाखा प्रबंधक कक्ष में जाने का पर छाती हुई घोर निराशा उन्हेँ रोक रही थी.

लगभग आधा घंटे बाद हॉल की खामोशी को चीरती फिर लंबी घंटी बजी. शाखा प्रबंधक इस कॉल पर कुछ देर बात करते रहे और फिर उन्होंने इस बार लोकल सेक्रेटरी को नहीं बल्कि मिस्टर 100% को बुलाया. सिलेक्ट लिस्ट में कोई चूक नहीं हुई थी, दरअसल मिस्टर 100%, लीगली रुके हुये प्रशिक्षु अधिकारी के टेस्ट में पास हुये थे. इस जीत का “हार” बड़ा था, पुरस्कार बड़ा था जो उनके 100% को साकार कर रहा था.

और फिर शाखा के मुख्य द्वार से सेठ जी अपने प्रशिक्षु पुत्र के साथ लड्डू लेकर पधारे. इस बार ये लड्डू उनके खुद की नहीं बल्कि शाखा की खुशियों में शामिल होने का संकेत थे.

विक्रम बेताल के इस प्रश्न का उत्तर भी बुद्धिमान पाठक ही दे सकते हैं कि मि. 100% एक टेस्ट में फेल होकर दूसरे टेस्ट में कैसे पास हो गये जबकि दूसरे टेस्ट में प्रतिस्पर्धा कठिन और चयनितों की संख्या कम होती है.

इतिश्री

अरुण श्रीवास्तव

ये मेरी कथा, कौन बनेगा करोड़पति के विज्ञापन से प्रभावित है, जो डब्बा की उपाधि से प्रचलित अभय कुमार की कहानी है. विज्ञापन के विषय में ज्यादा लिखना आवश्यक नहीं है क्योंकि ये तो प्राय: सभी देख चुके हैं. गांव के स्कूल के जीर्णोद्धार के लिये 25 लाख चाहिये तो गांव के मुखिया जी के निर्देशन में सारे मोबाइल धारक KBC में प्रवेश के लिये लग जाते हैं, किसी और का तो नहीं पर कॉल या नंबर कहिये लग जाता है “डब्बा” नाम के हेयर कटिंग सेलून संचालक का जो प्राय: अशिक्षित रहता है. तो पूरे गांववालों द्वारा माने गये इस अज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम के लिये तैयार करने की तैयारी के पीछे पड़ जाता है पूरा गांव. ये तो तय था कि एक अल्पज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम जिताने के लिये असंभव प्रयास किये जा रहे थे, किसी चमत्कार की उम्मीद में, जो हम अधिकांश भारतीयों की आदत है. पर जब परिणाम आशा के अनुरूप नहीं मिला तो सारे गांववालों ने डब्बा को उठाकर कचरे के डब्बे में डाल दिया. ये हमारी आदत है चमत्कारिक सपनों को देखने की और फिर स्वाभाविक रूप से टूटने पर हताशा की पराकाष्ठा में टूटे हुये सपनों को दफन कर देने की. गांव का सपना उनके स्कूल के पुनरुद्धार का था जो वाजिब था, केबीसी में कौन जायेगा, जायेगा भी या नहीं, चला भी गया तो क्या पच्चीस लाख जीत पायेगा, ये सब hypthetical ही तो था. पर यहां से डब्बा के घोर निराशा से भरे जीवन में उम्मीद की एक किरण आती है उसके पुत्र के रूप में जो हारे हुये साधनहीन योद्धा को तैयार करता है नये ज्ञान रूपी युद्ध के लिये. ये चमत्कार बिल्कुल नहीं है क्योंकि अंधेरों के बीच ये रोशनी की किरण हम सब के जीवन में कभी न कभी आती ही है और हम इस उम्मीद की रोशनी को रस्सी की तरह पकड़ कर, असफलता और निराशा के कुयें से बाहर निकल आते हैं. वही चमत्कार इस विज्ञापन में भी दिखाया गया है जब डब्बा जी पचीस लाख के सवाल पर बच्चन जी से फोन ए फ्रेंड की लाईफ लाईन पर मुखिया जी से बात करते हैं सिर्फ यह बतलाने के लिये कि 25 लाख के सवाल का जवाब तो उनको मालुम है पर जो मुखिया जी को मालुम होना चाहिये वो ये कि उनका नाम अभय कुमार है, डब्बा नहीं.

हमारा नाम ही हमारी पहली पहचान होती है और हम सब अपनी असली पहचान बनाने के लिये हमेशा कोशिश करते रहते हैं जो हमें मिल जाने पर बेहद सुकून और खुशियां देती है. सिर्फ हमारे बॉस का शाम को पीठ थपाथपा कर वेल डन डियर कहना इंक्रीमेंट से भी ज्यादा खुशी देता है. लगता है कि इस ऑफिस को हमारी भी जरूरत है. हम उनकी मजबूरी या liability नहीं हैं.

विज्ञापन का अंत बेहद खूबसूरत और भावुक कर देने वाला है जब इस विज्ञापन का नायक अभय कुमार अपने उसी उम्मीद की किरण बने बेटे को जिस स्कूल में छोड़ने आता है उस स्कूल का नाम उसके ही नाम अभय कुमार पर ही होता है. ये अज्ञान के अंधेरे में फेंक दिये गये, उपेक्षित अभयकुमार के सफर की कहानी है जो लगन और सही सहारे के जरिये मंजिल तक पहुंच जाता है जो कि उसके गांव के स्कूल का ही नहीं बल्कि उसका भी पुनरुद्धार करती है. ये चमत्कार की नहीं बल्कि कोशिशों की कहानी है अपनी पहचान पाने की.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 200 ⇒ धड़का तो होगा दिल जरूर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “धड़का तो होगा दिल जरूर”।)

?अभी अभी # 200 ⇒ धड़का तो होगा दिल जरूर… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यह शाश्वत और सनातन प्रश्न आपसे पूछने वाला मैं कोई पहला व्यक्ति नहीं, लेकिन कल के फाइनल मैच के दौरान आपके दिल की क्या हालत हुई होगी, आप ही बेहतर जानते होंगे। वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूं, यही प्रश्न सबसे पहले फिल्म सीआईडी ९०९ (१९६७) में, कुछ इस अंदाज में, पूछा गया था ;

धड़का तो होगा दिल जरूर

किया जो होगा तुमने प्यार

बड़ा बचकाना सा सवाल है यह, लेकिन कल तो इस दिल की हालत बयां की ही नहीं जा सकती थी। क्या कहते हैं उसे, दिल कभी तो धड़क धड़क करता था, तो कभी धक से रह जाता था। हमेशा बल्लियों उछलने वाला यह दिल सांस रोके पूरा मैच देख रहा था। कल किस किसको याद नहीं किया हमने। अपनी इबादत में कोई कसर नहीं छोड़ी।

२४० रनों का भी कोई टारगेट होता है कंगारुओं के लिए ! लेकिन जब शुरू में ही ऑस्ट्रेलिया के तीन विकेट जल्दी जल्दी गिर गए, तो हमारे होठों पर, आपकी परछाइयां के गीत की ये पंक्तियां अनायास ही आ गई ;

दिल की ऐ धड़कन ठहर जा,

मिल गई मंजिल मुझे ..

अंपायर की उंगली का आउट होने का इशारा दिल को कितना सुकून दे रहा था, और होंठ भी कहां खामोश थे ;

जी हमें मंजूर है

आपका ये फैसला।

हर नज़र कह रही है

बंदा परवर शुक्रिया।।

दिल की धड़कनें तेज थीं, बस तड़ातड़ हमारा शमी, शनि बनकर सात विकेट और झटका ले, और पूरे स्टेडियम में तालियों और आतिशबाजियों का शोर गूंजे, और देश में हर तरफ बजने लगें, सैकड़ों शहनाइयां।।

लेकिन कुदरत का ही खेल निराला नहीं भाई, क्रिकेट का खेल भी निराला। बल्ले से खेलो, बॉल से खेलो, पूरी शिद्दत से खेलो, लेकिन हम क्रिकेट प्रेमियों के दिल से तो मत खेलो।

कल विश्व पुरुष दिवस अलग से था। जब तीन विकेट गिरने के बाद कंगारू बल्लेबाजों ने अंगद की तरह पांव जमा लिए, तो हमारे भी हौसले पस्त हो गए और जब तक चौथा विकेट गिरा तब तक तो कारवां गुजर चुका था, चारों तरफ गुबार ही गुबार और fogg ही fogg था।।

मत पूछो, कितनी बार दिल धड़का। पहली बार हमें महसूस हुआ, हमारा भी दिल धक धक करता है।

जीत का नशा सर चढ़कर बोलता है, हार को तो, बस थक हारकर स्वीकार किया हमने। दिल तो टूटा ही होगा ;

मैं कोई पत्थर नहीं

इंसान हूं।

कैसे कह दूं,

हार से घबराता नहीं।।

यह पुरुषोचित तो नहीं, लेकिन कल पुरुष दिवस पर मन बड़ा दुखी हुआ। उड़ा लीजिए आप हमारी कमजोरी का मजाक, लेकिन आज तो कहकर ही रहूंगा मन की बात। अरे सुनती हो, कहां गई भागवान;

मुझे गले से लगा लो

बहुत उदास हूं मैं….

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 239 ☆ आलेख – कैद सुरंगो में… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख कैद सुरंगो में…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 239 ☆

? आलेख – कैद सुरंगो में ?

उत्तराखंड में दुर्घटना वश 40 मजदूर सुरंग में कैद होकर रह गए हैं, जिन्हें बाहर निकालने के लिए सारी इंजीनियरिंग लगी हुई है।

हर बरसात में महानगरों में सड़को के किनारे बनाई गई साफ सफाई की सुरंग नुमा विशाल नालियों में कोई न कोई बह जाता है।

बोर वेल की गहरी खुदाई में जब तब खेलते कूदते बच्चो के गिरने फिर उन्हें निकालने  की खबरे सुनाई पड़ती हैं।

आपको स्मरण होगा थाईलैंड में थाम लुआंग गुफा की सुरंगों में फंसे खेलते बच्चे और उनका कोच दुर्घटना वश फंस गए थे, जो सकुशल निकाल लिये गये थे.

तब सारी दुनिया ने राहत की सांस ली. हमें एक बार फिर अपनी विरासत पर गर्व हुआ था क्योकि थाइलैंड ने विपदा की इस घड़ी में न केवल भारत के नैतिक समर्थन के लिये आभार व्यक्त किया था वरन कहा था कि बच्चो के कोच का आध्यात्मिक ज्ञान और ध्यान लगाने की क्षमता जिससे उसने अंधेरी गुफा में बच्चो को हिम्मत बढाई, भारत की ही देन है.

अब तो योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिल चुकी है और हम अपने पुरखो की साख का इनकैशमेंट जारी रख सकते हैं.

इस तरह की दुर्घटना से यह भी समझ आता है कि जब तक मानवता जिंदा है कट्टर दुश्मन देश भी विपदा के पलो में एक साथ आ जाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे बचपन में माँ की डांट के डर से हम बच्चों में एका हो जाता था या वर्तमान परिदृश्य में सारे विपक्षी एक साथ चुनाव लड़ने के मनसूबे बनाते दिखते हैं.

वैसे वे बहुत भाग्यशाली होते हैं जो  सुरंगों से बाहर निकाल लिए जाते हैं. वरना हम आप सभी तो किसी न किसी गुफा में भटके हुये कैद ही हैं. कोई धर्म की गुफा में गुमशुदा है. सार्वजनिक धार्मिक प्रतीको और महानायको का अपहरण हो रहा है. छोटी छोटी गुफाओ में भटकती अंधी भीड़ व्यंग्य के इशारे तक समझने को तैयार नही हैं. कोई स्वार्थ की राजनीति की सुरंग में भटका हुआ है. कोई रुपयो के जंगल में उलझा बटोरने में लगा है । तो कोई नाम सम्मान के पहाड़ो में खुदाई करके पता नही क्या पा लेना चाहता है ? महानगरो में हमने अपने चारो ओर झूठी व्यस्तता का एक आवरण बना लिया है और स्वनिर्मित इस कृत्रिम गुफा में खुद को कैद कर लिया है. भारत के मौलिक ग्राम्य अंचल में भी संतोष की जगह हर ओर प्रतिस्पर्धा, और कुछ और पाने की होड़ सी लगी दिखती है, जिसके लिये मजदूरो, किसानो ने स्वयं को राजनेताओ के वादो, आश्वासनो, वोट की राजनीति की सुरंगों में समेट कर अपने स्व को गुमा दिया है.

बच्चो को हम इतना प्रतिस्पर्धी प्रतियोगी वातावरण दे रहे हैं कि वे कथित नालेज वर्ल्ड में ऐसे गुम हैं कि माता पिता तक से बहुत दूर चले गये हैं. हम प्राकृतिक गुफाओ में विचरण का आनंद ही भूल चुके हैं.

मेरी तो यही कामना है कि हम सब को प्रकाश पुंज की ओर जाता स्पष्ट मार्ग मिले, कोई बड़ा बुलडोजर इन संकुचित सुरंगों को तोड़े, कोई हमारा भी मार्ग प्रशस्त कर हमें हमारी अंधेरी सुरंगो से बाहर खींच कर निकाल ले, सब खुली हवा में मुक्त सांस ले सकें. 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 58 – देश-परदेश – खेल खेल में ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 58 ☆ देश-परदेश – खेल खेल में ☆ श्री राकेश कुमार ☆

वर्तमान समय में किसी भी खेल को खेलने वाले तो बहुत कम हैं, लेकिन उसको लेकर विभिन्न सामाजिक मंचों पर चर्चा/ प्रतिक्रिया करने वाले बहुतायत में पाए जाते हैं।

विगत एक पखवाड़े से सभी जगह फुटबॉल को लेकर ही चर्चा हो रही है।

हमारे जैसे जिन्होंने जीवन में शायद ही कभी फुटबॉल को किक क्या हाथ भी नहीं लगाया होगा, वो भी पेनल्टी शूट को गोल में कैसे परिवर्तित करने का ज्ञान बघार रहे हैं।

खेल का बाजारीकरण हो जाने से सभी सक्रिय मीडिया के साधन विज्ञापन प्राप्त कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।

खेलों को लेकर इतना उन्माद क्यों है। इसी प्रकार जीत का भी आवश्यकता से अधिक जश्न मानने की होड़ लगी रहती है।

स्वयं श्रम करने के स्थान पर दूसरों की जीत/ हार पर वाणी से या व्हाट्स ऐप पर ही कॉपी/ पेस्ट कर समय बर्बाद करने में हमारा कोई सानी नहीं है। चार कदम दूरी के कार्य को भी बाइक/ कार द्वारा करने वाले खेल के मैदान में क्या खाक कुछ कर पाएंगे ?

क्रिकेट, टेनिस इत्यादि को छोड़ कर हमारे देश में विगत सत्तर वर्ष से कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं कही जा सकती है। हॉकी जैसे खेल जिसके हम सिरमौर हुआ करते थे, आज हाशिये पर खड़े हैं।

विदेश में खेलों को प्रोफेशनल रूप में अपनाया जाता है। जबकि हमारे यहां अध्ययन में कमज़ोर बच्चे ही खेल को प्राथमिकता देते हैं।

बाल्यकाल में दादाजी की वाणी भी कुछ ऐसा ही कहती थी “पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब! खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब!!”

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 199 ⇒ नींद हमारी, ख्वाब हमारे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नींद हमारी, ख्वाब हमारे।)

?अभी अभी # 199 नींद हमारी, ख्वाब हमारे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वे रोज हमारे ख्वाबों में आते हैं, फिर भी उन्हें पता ही नहीं होता, क्योंकि नींद भी हमारी है और ख्वाब भी हमारे ! और उधर वो बेचारे, रात भर करवटें बदलते, अनिद्रा के मारे।

पहले ऐसा नहीं होता था, क्योंकि हमें इतनी गहरी नींद आ जाती थी, कि हमें ख्वाबों का ही पता नहीं होता था। आज यह आलम है कि, ख्वाबों को नींद का, मानो इंतजार सा रहता है, इधर नींद आई, उधर से ख्वाबों का मच्छरों की तरह हमला शुरू। इन बिन बुलाए मेहमानों का आप ऑल आउट से मुकाबला भी नहीं कर सकते, क्योंकि ये तो ख्वाब ही हैं, कोई हकीकत नहीं।।

ख्वाब और खर्राटे दोनों ही हमेशा नींद का इंतजार करते रहते हैं, ख्वाब देखे जाते हैं और खर्राटे लिए जाते हैं। आपके ख्वाब कोई दूसरा नहीं देख सकता और आपके खर्राटे आप ही नहीं सुन सकते।

खर्राटे को कुछ लोग शुद्ध हिंदी में साउंड स्लीप कहते हैं। कहीं कहीं तो यह साउंड स्लीप इतनी डंके की चोट होती है, कि सबकी नींद हराम कर देती है। हमारे ख्वाब, हमारे रहते, कभी किसी और को परेशान नहीं करते। कभी कभी तो, जब हम ही अपने ख्वाबों से परेशान हो जाते हैं, तो ख्वाब टूट जाते हैं और हम जाग जाते हैं।

सपने तो सपने, कब हुए अपने ! यानी हमारी जाग्रत अवस्था ही जिंदगी की सच्चाई है, चाहे कितनी भी कड़वी हो। सपना कितना भी मीठा हो, उससे कभी मधुमेह नहीं होता। फिर भी न जाने क्यों, इंसान सपनों में जीना नहीं छोड़ता। सोते जागते जो लोग एक ही सपना देखते हैं, कभी कभी उनके सपने सच भी हो जाते हैं। और अगर नहीं होते, तो बस इतनी सी शिकायत ;

मेरा सुंदर सपना टूट गया

मैं प्रेम में सब कुछ हार गई

बेदर्द ज़माना जीत गया …।।

एक स्वस्थ शरीर और मन के लिए छः से आठ घंटे की गहरी नींद जरूरी है। पुराने समय में सभी दैनिक कार्यकलाप, बिजली के अभाव में, सूरज की रोशनी में ही संपन्न कर लिए जाते थे। खेती बाड़ी, मेहनत मजदूरी, चक्की पीसना, पनघट और कुएं बावड़ी से पानी भरने जैसे पापड़ बेलने वाले काम एक व्यक्ति को इतने थका देते थे, कि बिस्तर में पड़ते ही ऐसी नींद आती थी, कि सुबह केवल मुर्गे की बांग ही सुनाई देती थी। पौ फटते ही सभी फिर काम में जुट जाते थे।

स्कूल में पाठ भी कैसे पढ़ाए जाते थे, श्रम की महत्ता, सत्यवादी हरिश्चंद्र और मेरे सपनों का भारत।

हमने अपने सभी सपनों को परिश्रम और पुरुषार्थ से सच किया, और आज हम हमारा देश सफलता, संपन्नता और आधुनिक तकनीक के जिस मजबूत और विकासशील धरातल पर खड़ा है, वह हमें विश्व में सिरमौर और विश्व गुरु बनाने के लिए पर्याप्त है। दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए।।

आज भी अगर हर व्यक्ति सप्ताह में 70 घंटे काम करे, तो कई सपने सच हो सकते हैं। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:। तगड़ी मेहनत, तगड़ी भूख और घोड़े बेचकर सोने वाली नींद। जब ख्वाब हकीकत बन जाते हैं, तब ही तो इंसान चैन की नींद सो पाता है।

शेखचिल्ली के सपने और दिवा स्वप्न देखना भी किसी मानसिक रोग से कम नहीं। अत्यधिक काम का दबाव भी मानसिक तनाव का कारण बनता जा रहा है। मोटिवेशनल स्पीच का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है स्ट्रेस मैनेजमेंट। अगर नींद हमारी है, तो ख्वाब भी तो हमारे ही होने चाहिए।

सच्चा सुख निरोगी काया

तो ही सच में कोई दुनिया को जीत पाया।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 215 – भावात्मक गोला ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 215 भावात्मक गोला ?

पिछले दिनों ‘संजय उवाच’ के एक आयोजन के लिए झारखंड के रामगढ़ जनपद के गोला नामक ग्राम में जाने का अवसर मिला। राँची से गोला की दूरी लगभग 64 किलोमीटर है। यहाँ से पास में ही माँ छिन्नमस्तका सिद्धपीठ है। गोला के चित्तरंजन सेवासदन एवं रिसर्च सेंटर के परिसर में  स्थित मंदिर में प्रबोधन, सत्संग एवं हरिनाम सुमिरन का आयोजन संपन्न हुआ। तदुपरांत आरती और भंडारा की व्यवस्था थी। इस मंदिर में महादेव-पार्वती, लक्ष्मी-नारायण, श्री गणेश, हनुमान जी, साईंबाबा की मूर्तियाँ स्थापित हैं। आरती आरंभ हुई। सबसे पहले  सर्वसामान्य हिंदी आरती ‘ओम जय जगदीश हरे’ हुई।  तदुपरांत देवी की आरती हुई। यह बंगाली में थी। बंगाल और झारखंड के आपस में पड़ोसी होने से यह प्रभाव सहज था। बाद में साईं की आरती हुई। आश्चर्य कि यह आरती मराठी में थी। झारखंड के ग्रामीण भाग में मराठी में आरती सुनना एक भिन्न अनुभव था। हुआ यूँ होगा कि मंदिर का प्रबंधन देखनेवाले श्रद्धालु  परिजन शिर्डी आए होंगे और वहाँ से मराठी में उपलब्ध आरती संग्रह अपने साथ ले गए होंगे। समय के साथ लगभग पंद्रह सौ  किलोमीटर दूर स्थित मराठी भाषी शिर्डी में गाई जानेवाली आरती अमराठी भाषी गोला में भी उसी भाव से गाई जाने लगी।

चिंतन का सूत्र यहीं जन्म लेता है। भाषा से अधिक महत्वपूर्ण है भाव। यूँ देखें तो भावों की शाब्दिक अभिव्यक्ति ही भाषा है। भाव ही मनुष्य-मनुष्य के बीच तादात्म्य स्थापित करता है। भाव को भाव के स्तर पर ग्रहण किया जाए तो जीवन के प्रति दृष्टिकोण ही बदल जाता है।

भाषा इहलोक का साधन हो सकती है, ईश्वर तक तो भाव ही पहुँचता है। शबरी द्वारा अपने जूठे बेर खिलाने के पीछे छिपा वात्सल्यभाव महत्वपूर्ण था। इतना महत्वपूर्ण कि प्रभु प्रशंसा करते नहीं थकते।

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।

प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥

भाव-विभोर विदुर द्वारा केले फेंकना और केले के छिलके प्रभु को खिलाने में भी भाव ही महत्वपूर्ण था। सुदामा के पोहे में जो प्रेमरस था, राजभोग उसके आगे फीका था।

गोला की धरती से मिला भाव सुधी साधकों और पाठकों के साथ साझा कर रहा हूँ। इस पर मनन हो सके, भाव के स्तर पर भाव ग्रहण हो सके तो भावात्मकता का एक गोला तैयार हो सकता है। शुभं अस्तु।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से आपको शीघ्र ही अवगत कराएंगे। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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