हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ प्रवासी भारतीय दिवस विशेष – प्रवासी हिंदी साहित्य में भारतबोध… ☆ श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’

(ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’का हार्दिक स्वागत। आज प्रस्तुत है  प्रवासी भारतीय दिवस पर आपका विशेष आलेख “– प्रवासी हिंदी साहित्य में भारतबोध” ।

☆ आलेख ☆ प्रवासी भारतीय दिवस विशेष – प्रवासी हिंदी साहित्य में भारतबोध… ☆ श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’  ☆

(9 जनवरी ‘प्रवासी भारतीय दिवस’ है। आज के ही दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटकर भारत आए थे। प्रवासी दिवस के इस अवसर पर आज हम प्रवासी साहित्य और प्रवासी साहित्यकारो के विषय में चर्चा करेंगे। – श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’। )

जैसा कि मैं पहले भी कहता आया हूं। मैं हिंदी साहित्य का विद्यार्थी नहीं हूं। मैं विशुद्ध रूप से विज्ञान का विद्यार्थी हूँ और हिंदी साहित्य मेरी अभिरुचि है। विशेषकर गिरमिटिया देशों में रचे जाने वाला साहित्य। इसके पृष्ठभूमि में प्रवासी साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर एवं भारतीय साहित्यकार डॉ. दीपक पाण्डेय एवं डॉ. नूतन पाण्डेय जी से शुरुआती दौर में पैदा साहित्यिक संबंध भी है। जैसा कि मैंने कहा कि मैं साहित्य का विद्यार्थी नहीं हूं इसलिए हो सकता है कि मैं उतनी गहराई तक प्रवासी साहित्य पर न लिख सकूं या कह सकूं, तो इस आलेख को इसी संदर्भ के साथ समझना होगा। संभव होगा कि इसमें त्रुटि भी हो जाए, तो इसके लिए पहले ही क्षमा याचना करता हूं।

अब हम मूल विषय पर चर्चा करते हैं और समझते हैं कि प्रवासी साहित्यकार से क्या तात्पर्य है ? वे साहित्यकार जिनका जन्म भारत में हुआ और कालांतर में वे अमेरिका ब्रिटेन कनाडा यूरोपीयन या खाड़ी देशों में बस गए। दूसरे वे जिनके पूर्वज पौने दो सौ वर्ष पहले एग्रीमेंट के तहत फिजी,मॉरीशस सूरीनाम गयाना, त्रिनिदाद,दक्षिण अफ्रीका आज देश में जाकर बस गए।

प्रवासी जनों की तीन श्रेणियां है एक तो वे जो दास प्रथा के समाप्ति के तुरंत बाद लगभग 1835 के आसपास फिजी मॉरीशस, गयाना सूरीनाम, त्रिनिदाद दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में बस गए। दूसरे वह जो 1980 के दशक में शिक्षित और अशिक्षित कुशल – अकुशल कर्मियों के रूप में नौकरी के लिए गए और वहीं बस गए। तीसरे वे हुए जो 80 और 90 के दशक में शिक्षा ग्रहण करने या प्रबुद्ध वर्ग के रूप उच्च पदों पर कार्यरत हुए और कालांतर में वहीं बस गए।

यदि हम गिरमिटिया देश के साहित्यकारों की बात करें तो इनमे सर्वश्री प्रोफेसर विष्णु दयाल, श्री मुनीश्वर चिंतामणि, श्री जय नारायण राय, श्री सोमदत्त बखोरी, श्री अभिमन्यु अनंत,श्री रामदेव धुरंधर श्री वीरसेन जगा सिंह श्री पूजा नेमा, श्री भानुमति नागदेव, श्री राज हीरामन आ0 कल्पना लाल जी,एवं आ0 सरिता बुद्धु आदि है।

वही अमेरिका, कनाडा या यूरोपियन देशों के साहित्य सेवा करने वाले साहित्यकारों में सर्व श्री पद्मेश गुप्ता आ0 उषा प्रियंवदा,आ0 सुषम बेदी आ0 पुष्पिता अवस्थी श्रो सुरेश चंद्र शुक्ला आ0 पुष्पा सक्सेना, आदरणीय तेजेंद्र शर्मा आ0 कादंबरी मेहरा आ0 सुधा ओम ढीगरा आ 0 जाकिया जुबेरी,श्री कृष्णाबिहारी आ0 इला प्रसाद जी, डॉ हंसा दीप जी, धर्मपाल महेंद्र जैन जी का नाम बड़े आदर से लिया जाता है।

अमेरिका, कनाडा और फिर त्रिनिदाद टोबैगो कैरेबियन सागर के देशों में बस जाने वाले प्रोफेसर हरिशंकर आदेश जी ने अपनी कृतियों अनुराग शकुंतलम्, महारानी दमयंती, ललित गीत रामायण, देवी सावित्री, रघुवंश शिरोमणि जैसे महाकाव्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति और अध्यात्म का अलख जगाया है।

अन्य प्रवासी साहित्यकारों में जिसे मैं स्वयं भी परिचित हूँ, उनमे श्री रितु ननन पाण्डेय नींदरलैंड, श्री सुरेश पाण्डेय जी स्वीडन, श्रीमती अनीता कपूर अमेरिका है जो बहुत ही उच्च कोटि के साहित्य का सृजन कर रहे हैं

बहुत से ऐसे प्रवासी साहित्यकार है, जिन्हें मैं नहीं जानता या जिनका साहित्य मुझे पढ़ने के लिए नहीं मिला। ऐसे हिंदी की सेवा करने वाले प्रवासी साहित्यकारों को भी मैं आज के अपने आलेख में याद करता हूँ और प्रवासी भारतीय दिवस की बधाई देता हूं।

इन सभी साहित्यकारों के अंदर भारतीया रची बसी हुई है, जो उनके रचनाओं में तथा इनके लेखों में परिलक्षित होती है।

इन साहित्यकारों के साहित्य में किस तरह से भारतीयता बसी है इसका कुछ उदाहरण निम्नवत है –

इंग्लैंड में साहित्य रच रहे प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार श्री तेजेंद्र शर्मा जी, जिनके ग्रन्थ काला सागर, ढिबरी टाइट, देह की कीमत, मृत्यु के इंद्रधनुष आदि है। आदरणीय शर्मा जी एक जगह लिखते हैं कि – भारत से बाहर लिखे जाने वाले हिंदी साहित्य की विशेषता यह है कि पाठक नई थीम नई परिस्थितियों नवजीवन से परिचित होता है। श्री तेजेंद्र शर्मा जी की कहानी संग्रह इंद्रधनुष की कहानी – हथेलियों में कंपन कहानी में एक परिवार अस्थि विसर्जन के लिए विदेश से हरिद्वार आता है जहां पिता अपने पुत्र का नाम लिखवा कर हस्ताक्षर करता है किंतु उसके मौसा की हथेली कांपती है।

वही लेखक अपनी कविता टेम्स का पानी में अपनी गंगा को देखते हैं।

मॉरीशस के साहित्यकार राज हीरामन जी आदि ने भारतीय संस्कृति को बहुत कुछ दिया है। वहीं प्रोफेसर वासुदेव विष्णु दयाल ने अपनी 500 कृतियों के साथ भारतीयता का प्रचार किया है।

मॉरीशस के प्रख्यात साहित्यकार रामदेव धुरंधर सीधे-सीधे कहते हैं कि मैं अपने साहित्य के बीच मॉरीशस में बोता हुआ भारत में फसल काटता हूँ। श्री रामदेव धुरंधर का ऐतिहासिक उपन्यास पत्रिका सोने के खंड दो पृष्ठ आठ में धुरंधर जी लिखते हैं-

हब्सी कमजोर कैदियों को पीटेंगे उनका खाना छीन लेंगे। भारतीय लोगों के मन की लड़ाई दूसरी होती है। इनका संस्कार अस्तित्व में आ जाता है। रोटी न मिले या धरोहर तो बचे।

पथरीला सोना में ही धुरंधर जी  ने लिखा –

“भारत की सांस्कृतिक विरासत रामायण हनुमान चालीसा आल्हा ऊदल बनकर मॉरीशस पहुंची। “

” भारत के यशस्वी कृष्ण की बंसी से इस संस्कृति को इतनी शक्ति मिली कि लोगों ने खुलकर अपनाया “

” रामायण आ चुकी थी गाने से रोका गया तो सीना तान कर गाया गया “

इस पूरे उपन्यास में भारतीय संस्कृति एवं इसके अनेको उदाहरण है।

श्री धुरंधर जी एक जगह गौरव की कठपुतली किरपाल के बारे में लिखते हैं-

खूसट ने इस बुढ़ौती में भी अपने मन से अपने भारत की गंगा में नहाने की जरूरत नहीं समझी।

मॉरीशस के प्रख्यात साहित्यकार श्री अभिमन्यु अनत के ऐतिहासिक ग्रंथ लाल पसीना,जम गया सूरज, एक बीघा प्यार, बीच का आदमी है।

मॉरीशस की राष्ट्रीय चेतना में महावीर पूजा के अनेक संदर्भ मिलते हैं।

प्रवासी वेदना का चित्रण अभिमन्यु अनत के इस रचना में कुछ इस प्रकार मिलता है-

सुन कहानी गिरमिटियन के

काहे कल जन सुन सुन के।

भईल मोहताज मजबूरियां जब देशवा में,

फसलन मीठी बोलिया दलालवा के।

सोनवा खातिर माई बाप छोड़न।

छोड़न सब कुछ सागर पार करके।

पहुंचन मिरिचिया जहाजिया भाई बन के।

प्रवासी साहित्यकार आ0 शशि पाधा, (वर्जीनिया) अमेरिका, का साहित्य विदेशी संस्कृति को कहीं-कहीं उल्लेखित करते हुए मूल रूप से अपने देश के सांस्कृतिक मूल्यों को ही अपने पात्रों के द्वारा प्रतिपादित करता है।

पूजा अर्चना, तीज त्यौहार, संयुक्त परिवार,मेला उत्सव हिंदी भाषा संस्कृति के बिना अमेरिका में बसे लोगों का जीवन पूरा नहीं होता है।

इंग्लैंड के लेखक प्राण शर्मा की कहानी पराया देश में की पंक्तियाँ

भारत मेरा देवता भारत है भगवान

भारत में बसते सदा प्रतिपल मेरे प्राण

बैठे भले विदेश में भोगे भाग्य विधान

पल-पल हर पल ध्यान में रहता हिंदुस्तान

अमेरिका की साहित्यकार आदरणीय सुषुम बेदी अपने उपन्यासों एवं कहानियों में अमेरिका में बस कर भारत को देखती हैं।

आपकी कहानी काला लिबास में, अनन्या अमेरिका में जन्म लेती है। पढ़ाई भी वही करती है लेकिन अमेरिका की संस्कृति को नहीं मानती है उसके मन में भारत के रहन-सहन और कपड़े में ही परम सुख है।

सुरेश चंद शुक्ला शरद आलोक जी जो नार्वे में रहकर साहित्य साधना करते हैं लखनऊ की सर जमीन से निकले है। इनकी कहानी भारत और विदेश दोनों धरती की मिली जुली कहानी है।

भोजपुरी साहित्य में अलग जगाने वाली  डॉ सरिता बुद्धू मॉरीशस में रहकर भारत और भोजपुरी की बात करती है।

भोजपुरी साहित्य और संस्कृति के आज के चर्चित नाम श्री मनोज भाउक जी को उनके सानिध्य प्राप्त होता है, और वह भोजपुरी साहित्य को आगे की तरफ ले जाते हुए दिखते हैं।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रवासी साहित्यकार स्वयं को भारतीयता से अलग कर ही नहीं सकते है। उनकी रचनाओं में भारत और भारतीयता कूट-कूट कर भरा पड़ा है। जो इन्हें यहां की मिट्टी से लगातार जोड़े हुए हैं।

आज प्रवासी दिवस के अवसर पर मैं इन सभी मूर्धन्य साहित्यकार विद्वान साहित्यकार गण को जो दिवंगत हो चुके हैं उन्हें श्रद्धापूर्वक ह्रदय से नमन करता हूं और जो वर्तमान में साहित्य साधना कर रहे हैं, उन्हें प्रवासी दिवस की बधाई देते हुए वंदन करता हूँ।

***

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 574 ⇒ नहीं नहाने का बहाना ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शीत लहर और स्नान।)

?अभी अभी # 574 नहीं नहाने का बहाना ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जल ही जीवन है ;

पानी व्यर्थ नहीं बहाना है !

हम जब छोटे थे, तब जल का महत्व नहीं समझते थे। सर्दियों के मौसम को छोड़कर,  हर मौसम में नहाने का मौका ढूंढते रहते थे। बात बात पर कपड़े गीले कर लेना अथवा मिट्टी में खेलने चले जाना,  ताकि नहाकर साफ सुथरे होकर गीले कपड़े उतारना पड़े। कितना पानी बर्बाद किया होगा हमने बचपन में, नहाने में।

पहले गर्मी में बाहर खेलकर पसीने में नहाना, फिर घर आकर ठंडे पानी से नहाना, ऐसी इच्छा होती, अपने आप पर घड़ों पानी डाल लें। गर्मी के मौसम में प्यास और नहाने की आस,  बुझाए नहीं बुझती।।

यही हाल बारिश में होता। जब प्रकृति ने शावर लगा रखा है, तो उसका उपयोग क्यों ना किया जाए। इसमें कौन सा हमारी गिरह का जल खर्च हो रहा है। बहती गंगा में अगर हाथ नहीं धो पाए तो क्या,  भारी बरसात का लुत्फ तो उठाया ही जा सकता है। लेकिन हाय रे बचपन, भीगने पर भी डांट ही सुनना पड़ती थी। जाओ, जल्दी कपड़े बदलो, अगर जुकाम हो गया तो।

और सर्दियों में, जब हम नहीं नहाना चाहते थे, तब भी हमें स्वच्छता की आड़ में नहाना पड़ता था। तब कहां घरों में इलेक्ट्रिक गीजर थे। चूल्हे पर बड़े भगोने में गर्म पानी हुआ करता था। एक अनार सौ बीमार की तरह, राशन की तरह गर्म पानी दिया जाता था। कई बार तो पानी पूरी तरह गर्म भी नहीं हो पाता था। तब से ही ठंड में नहाना एक तरह से सर्दी को ही दावत पर बुलाने जैसा था।।

तब, या तो ठंड अधिक पड़ती थी, अथवा ठंड से बचाव के संसाधन अपर्याप्त थे। रुई वाली रजाई और गद्दे तो थे, लेकिन आज जैसे इंपोर्टेड कंबल नहीं थे। देसी कंबल गर्म तो होते थे लेकिन उनके बाल चुभते थे। अंदर एक सूती चद्दर न जाने कहां खिसक जाती थी। ठंड से बचाव या तो बंडी करती थी, अथवा घरों में मां, बहन अथवा मौसी के हाथों से बुने हुए स्वेटर। हां, सर पर एक गर्म टोपा और गले में मफलर जरूर होता था। और साथ में पढ़ने वाले, सरकारी स्कूलों के बच्चों की तो बस, पूछिए ही मत।

हाथ पांव धोना, एक बारहमासी स्वच्छता अभियान है। बच्चे कितनी भी बार हाथ पांव धो लें, हम बड़े, उनके पीछे हाथ धोकर पड़े रहते हैं, जाओ हाथ धोकर आओ, तुमने अभी अभी पिंकी के मोबाइल को हाथ लगाया था। तब हमारे साथ भी यही होता था। कितनी भी ठंड हो, शाम को खेलकर घर आओ, तो पहले हाथ पैर धोकर आओ। तब कहां का गर्म पानी। हम चुपचाप हाथ पांव पर चोरी से सरसों का तेल लगा लेते थे,  लो देखो धूल गायब ! लेकिन थोड़ी देर में पोल खुल जाती, जब तेल के कारण पांवों में धूल और अधिक चिपक जाती।।

नानी हमें बहुत प्यार करती थी, फिर भी ठंड में सुबह सुबह नहाने और स्कूल जाने में हमारी नानी मरती थी। उसे हम पर दया भी आती। वह हम पर जान छिड़कती थी, बेटा, बहुत ठंड है, आज स्कूल मत जा। लेकिन उसकी एक ना चलती। घर में पिताजी का शंकर ऑर्डर जो चलता था।

आज ऐसा कुछ नहीं है। हम अपनी मर्जी के मालिक हैं। बाथरूम में गीजर लगा है, 24 x 7 गर्म पानी उपलब्ध है, लेकिन नहाने के लिए पहले बिस्तर छोड़ना, फिर ठिठुरते हुए वस्त्र त्याग, इस उम्र में, हमसे तो ना हो। माफ करें, इतनी ठंड में तो हम हमाम में भी नंगे ना हों।

हमारा हमाम कोई लाक्षागृह नहीं। क्या वस्त्र सहित नहाने की कोई तरकीब नहीं है।।

रेनकोट स्नान के बारे में सुना था। कितना अच्छा हो, हमारी इज्जत ना उछले, हम हमाम में भी शालीन बने रहें। वैसे भी ठंड में खुद के अथवा दूसरों के कपड़े उतारना हमें पसंद नहीं। नहीं नहाने से पानी की भी बचत होगी और जब नहाएंगे ही नहीं, तो क्या निचोड़ेंगे। बचत ही बचत। पानी की महाबचत।

हमें व्यर्थ पानी

नहीं बहाना है।

नहीं नहाने का बस,

यही एक बहाना है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #262 ☆ भीड़ में हम अकेले… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख भीड़ में हम अकेले। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 262 ☆

☆ भीड़ में हम अकेले… ☆

‘बड़े अजीब दुनिया के मेले हैं/ दिखती तो भीड़ है/ पर चलते हम अकेले हैं’ गुलज़ार की यह पंक्तियाँ आज के कटु सत्य को उजागर करती हैं। आधुनिक युग में मानव सबके बीच अर्थात् भीड़ में स्वयं को अकेला अनुभव करता है– से तात्पर्य है कि मानव में पनपता आत्मकेंद्रिता का भाव। इसका कारण है उसकी दिन-प्रतिदिन सुरसा के मुख की भांति बढ़ती इच्छाएं, लालसाएं, आकांक्षाएं व तमन्नाएं– जो उसे सुक़ून से जीने नहीं देती। एक इच्छा के पूरी होते दूसरी सिर उठा लेती है। सीमित साधनों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। सो! मानव आजीवन इनका गुलाम बनकर रह जाता है और उस चक्रव्यूह से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। उसकी महत्वाकांक्षाएं ही उसकी शत्रु बन जाती हैं। अक्सर मानव आकाश को छूने की तमन्ना में अपने कदम धरा से ऊपर उठा तो लेता है, परंतु उसकी दशा कटी पतंग जैसी हो जाती है जो चंद क्षणों के पश्चात् ही धरा पर औंधे मुँह गिर जाती है।

यह शाश्वत् सत्य है कि जब तक हम ज़मीन से जुड़े रहते हैं, हमारी पहचान बनी रहती है और  जब तक हम परिवार का हिस्सा बनकर रहते हैं, हमारा अस्तित्व रहता है। जैसे डाली से टूटा हुआ फूल शीघ्र ही धूल में मिल जाता है और उसकी महक व सौंदर्य नष्ट हो जाता है। इसीलिए ‘एकता में बल है’ और ‘शक्तिशाली विजयी भव’ का संदेश आज भी सार्थक, उपयोगी, प्रासंगिक व अनुकरणीय है

आधुनिक युग में  बढ़ती प्रतिस्पर्द्धात्मकता के कारण  मानव एक-दूसरे को पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहता है। इसके लिए वह किसी की हत्या तक करने में भी गुरेज़ नहीं करता। आजकल पैसा प्रधान है और यह हवस उसे दुष्कर्म तक करने तक को विवश तक कर देती है। पैसा मानव में सर्वश्रेष्ठता के भाव का जनक है। वह स्वयं के सम्मुख दूसरे के अस्तित्व को नगण्य समझता है। ‘पैसे से दिलों में  पनपती हैं दरारें/ यह दूरियाँ भी बहुत बढ़ाता है/ रिश्तों में यह सहसा सेंध लगाता/ दीमक सम समूल चाट जाता है।’ जी हाँ! पैसा आज के युग का प्रधान है। इसके बल पर मानव किसी पर भी अकारण इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा कर सकता है,  उसकी अहमियत को नकार ज़ुल्म कर सकता है और उसे अपने कदमों में झुका सकता है। यह एक ऐसी अंधी दौड़ है, जिसमें सब एकदूसरे से आगे निकल जाना चाहते हैं।

जब तक मानव की गाँठ में पैसा रहता है, वह सबको एक लाठी से हाँकता है। भावनाओं, चाहतों, संवेदनाओं का उसके सामने कोई मूल्य नहीं होता। रिश्तों की गरिमा को नकार वह आगे बढ़ जाता है। परंतु एक अंतराल के पश्चात् वह  नितांत अकेला रह जाता है और लौट जाना चाहता है उन अपनों में, जिन्हें वह बहुत पीछे छोड़ आया था। परंतु अब सब कुछ बदल चुका होता है। उसके परिवारजन, मित्र, संबंधी आदि उसके अस्तित्व को नकार देते हैं और  दुनिया के मेले में वह नितांत अकेला रह जाता है। इस विषम परिस्थिति में उसे अपने कृत-कर्मों पर पश्चाताप होता है। परंतु गुज़रा समय कभी लौटकर नहीं आता। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख्स यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा’ यह है प्रभु-प्राप्ति का सहज मार्ग। मानव ध्यान, भक्ति, साधना करके प्रभु को प्राप्त कर सकता है। जब तक मानव दुनिया की रंगीनियों में खोया रहता है, वह अलौकिक खुशी प्राप्त नहीं कर सकता है और इच्छाओं का गुलाम बनकर रह जाता है। पंचविकारों  से घिरा मानव सदैव किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में अपना जीवन बसर करता है, क्योंकि उसका हृदय सदैव कुहासे से लबरेज़ रहता है।  वह आकुल व हैरान-परेशान रहता है।

उसकी दिशा व दशा अजीब-सी हो जाती है– ‘अजनबी हर इंसान/ अजनबी है यह जहान/ अपनों को तलाशना नहीं संभव/ कैसी यह अजब ज़िंदगी है।’ और ‘फ़ासले जब ज़िंदगी में बढ़ जाते हैं/ अपने सब अपनों से दूर हो जाते हैं/ छा जाता है अजब-सा धुँधलका जीवन में/ हम ख़ुद से ही अजनबी हो जाते हैं।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियाँ आज के मानव की मन:स्थिति व नियति को उजागर करती हैं कि जब इंसान अकेला हो जाता है तो उसे समस्त जगत् मिथ्या नज़र आता है।

‘आजकल यूज़ एंड थ्रो का ज़माना आ गया/  दिलों की अहमियत नकारने का ज़माना आ गया/ आजकल दरारें दीवारों का रूप ग्रहण करने लगी/ और अपने सब ख़ुद से अजनबी होने लगे।’ जीवन क्षणभंगुर है। संसार मिथ्या है और वह माया के कारण सत्य भासता है। ‘हंसा एक दिन उड़ जाएगा। इस धरा का सब, धरा पर ही धरा रह जाएगा। एक तिनका भी तेरे साथ नहीं जाएगा। मत ग़ुरूर  कर बंदे!’

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जो पीछे छूट गया, उसका शोक मनाने की जगह जो आपके पास है, उसका आनंद लीजिए। ‘क्योंकि ढल जाती है हर चीज़ अपने वक्त पर/ बस व्यवहार व लगाव ही ऐसा है जो कभी बूढ़ा नहीं होता।’   ’किसी को समझने के लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती। कभी-कभी उसका व्यवहार सब कुछ कह देता है। मनुष्य जैसे ही अपने व्यवहार में प्रेम व उदारता का परिचय देता है अर्थात् समावेश करता है तो उसके आसपास का जगत् सुंदर हो जाता है।’ मानव अपने व्यवहार से आसपास के वातावरण व जगत् को सुंदर बन सकता है। सो! सबके प्रति हृदय में प्रेम, सौहार्द, स्नेह,  सहानुभूति व जाग्रत संवेदनाएं रखिए। उस स्थिति में आप कभी अकेले नहीं होंगे। सब आपके सान्निध्य में सुख का अनुभव करेंगे। जब हृदय में राग-द्वेष की कलुषित भावनाएं नहीं होंगी तो सुंदर व स्वस्थ समाज की संरचना होगी। चहुँओर उजाला होगा और सबके हृदय में समन्वय, सामंजस्य व समरसता का साम्राज्य होगा। इंसान भीड़ में स्वयं को अकेला अनुभव नहीं करेगा। रिश्तों की सुगंध से जीवन महकेगा और सब अनहद नाद की मस्ती व दिव्य आनंद से अपना जीवन बसर कर सकेंगे।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आलेख – शब्दों से उभरती ‘हस्ती’ की हस्ती  – स्व. हस्तीमल जी ‘हस्ती’ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आलेख – शब्दों से उभरती ‘हस्ती’ की हस्ती स्व. हस्तीमल जी ‘हस्ती??

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी

जिसको भी देखना हो कई बार देखना

किसी भी व्यक्ति को जानने, समझने के लिए उससे बार-बार मिलना-जुलना पड़ता है। उसके साथ समय बिताना पड़ता है। निदा फ़ाज़ली का उपरोक्त शेर इसी जीवन दर्शन की पुष्टि करता है।

वस्तुतः मनुष्य का स्वभाव सामान्यतया धीरे-धीरे खुलने का है और तदुपरांत ही उस पर कोई राय बनाई जा सकती है। अलबत्ता किसी साहित्यकार से परिचित होने के लिए आवश्यक नहीं कि उससे मिला ही जाए। कवि, लेखक के शब्दों को बाँचा जाए, भावों को समझा जाए तो उन शब्दों से कलमकार का प्रतिबिम्ब उभरता है। प्रस्तुत आलेख बहुचर्चित ग़ज़लकार हस्तीमल ‘हस्ती’ जी के व्यक्तित्व को उन्हीं के सृजन के माध्यम से समझने का प्रयास है।

जब कभी कविता/ नज़्म / ग़ज़ल की बात चलती है तो वर्तमान स्थितियों में उसकी प्रयोजनीयता पर प्रश्न उठाया जाता है। इस  सार्वकालिक प्रश्न का उत्तर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इस कथन में अंतर्निहित है कि ” कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो पर कविता अवश्य ही होगी। इसका क्या कारण है। बात यह है कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फँसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता के जाते रहने का डर रहता है। अतएव मानुषी प्रकृति को जाग्रत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है। कविता यही प्रयत्न करती है कि प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पाए।”

कविता की यह दृष्टि विधाता, हर मनुष्य को प्रदान नहीं करता। इसी अद्वितीय दृष्टि का वरदान हस्ती जी को मिला है। दृष्टि कलम में उतरती है और कविता की महत्ता को कुछ यों बयान करती है-

शायरी है सरमाया ख़ुशनसीब लोगों का

बाँस की हर इक टहनी बाँसुरी नहीं होती

कविता ऐसी औषधि है जो हर विषाद के बाद मानसिक विरेचन कर आदमी को शक्ति और उत्साह प्रदान करती है। कविता ऐसा हथियार है जो मनुष्य को नई लड़ाई के लिए खड़ा करता है। कवि का कवित्व, जीव को मनुष्य कर देता है। मनुष्य, ईश्वर से अकाट्य प्रश्न करता है-

जब तूने ही दुनिया का ये दीवान लिखा है

हर आदमी प्यारी सी ग़ज़ल क्यों नहीं होता

कवि की दृष्टि प्रचलित शब्दों को ऊपरी तौर पर ग्रहण नहीं करती बल्कि उनमें गहरे उतरती है। शब्द अपने अर्थ के विस्तार से झंकृत और चमत्कृत हो उठते हैं। स्थूल का सूक्ष्म दर्शन, साधारण-सी बात को अद्‌भुत कर देता है –

रहा फिर देर तक वो साथ मेरे

भले वो देर तक ठहरा न था

रहने और ठहरने का अंतर अनुभव से समझ में आता है। माना जाता है कि हर मनुष्य का जीवन एक उपन्यास है। भोगे हुए उपन्यास को पढ़कर, बुज़ुर्ग शायर अगली पीढ़ी को पढ़ाना चाहता है। उनकी चाहत, मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाने की है। ‘मैं’ के शिकार आत्ममुग्ध मनुष्य को वे एक शेर के माध्यम से ज़मीन पर उतार देते हैं-

तेरी बीनाई किसी दिन छीन लेगा देखना

देर तक रहना तेरा ये आईनों के दरमियां

दुनियावी आइनों के दरमियां रहने को तजकर मनुष्य जब मन के दर्पण में खुद को निहारने लगता है तो सत्य की राह दिखने लगती है। अलबत्ता सच और आफ़त का चोली-दामन का साथ भी है-

लड़ने की जब से ठान ली सच बात के लिए

सौ आफ़तों का साथ है दिन-रात के लिए

मराठी में कहावत है, ‘कळतं पण वळत नाही’ अर्थात ‘जानता है पर मानता नहीं। सच के वरक्स झूठ के पाँव न होने के त्रिकाल सत्य को हस्ती जी जैसा शायर ही इतनी सरलता से कह सकता है-

झूठ की शाख़ फल-फूल देती नहीं

सोचना चाहिए, सोचता कौन है

आदमी की आँख में इनबिल्ट जन्नत के सपने को शायर झिंझोड़ता है। सपने या अरमान बैठे-बैठे पूरे नहीं होते-

जन्नत का अरमान अगर है मौत से यारी कर जीते जी मिल जाए जन्नत ये कैसे हो सकता है

जन्नत का उदाहरण देनेवाला मूर्धन्य रचनाकार उसके रहस्य भी जानता है। इस रहस्य से वह सरलता और सादगी से पर्दा उठाता है-

जन्नत किसने देखी है

जीवन जन्नत जैसा कर

‘यू गेट लाइक वन्स, लिव इट राइट, वन्स इज इनफ़’ अर्थात जीवन एक बार ही मिलता है। पूर्णता से जिएँ तो एक बार पाया जीवन भी पर्याप्त है। आदमी की सोच उसे संकीर्ण या विस्तृत करती है। आदमी की दृष्टि में ही सृष्टि है। दृष्टि से उपजी सृष्टि की यह ख़ूबसूरत सीख देखिए-

अपने घर के आँगन को मत क़ैद करो दीवारों में दीवारें ज़िंदा रहती हैं लेकिन घर मर जाते हैं

घर को ज़िंदा रखना याने घर के हर घटक को उड़ने का, पंख फैलाने का अवसर देना। पक्षियों के टोले में जो पक्षी उड़ते समय आगे होता है, थक जाने पर वह पीछे आ जाता है। युवा पक्षी अपने डैने फैलाकर नेतृत्व का दायित्व ग्रहण करता है।  पंछी हो या मनुष्य, जीवन का चक्र सबके लिए समान रूप से घूमता है। यह चक्र हस्तीमल ‘हस्ती’ की कलम से अपनी अनंत परिधि कुछ यों खींचता है-

कतना, बुनना, रंगना, सिलना, फटना, फिर कतना-बुनना

जीवन का यह चुक्र पुराना पहले भी था, आज भी है

जीवन का आरंभ होता है माँ की कोख से। विधाता को भी पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए माँ की आवश्यकता पड़ती है। हस्ती जी के शब्द दीपक को माँ की उपमा देकर, माँ की भूमिका का ग़ज़ब का चित्र खींचते हैं-

आग पीकर भी रोशनी देना

माँ के जैसा है ये दिया कुछ-कुछ

कहते हैं कि मूर्तिकार को हर पत्थर में एक मूर्ति दिखाई देती है। वह मूर्ति के अतिरिक्त शेष पत्थर को अलग कर अपने काम को अंजाम तक पहुँचाता है। कुछ इसी तरह शब्दकार को   हर बीहड़ में रास्ते की संभावना दिखती है-

रास्ता किस जगह नहीं होता

सिर्फ़ हमको पता नहीं होता

यह संभावना आज के विसंगत जीवन में अवसाद के शिकार युवाओं के लिए जीने का स्वर्णद्वार खोलती है। इस द्वार को देखने के लिए दृष्टि चाहिए तो खोलने के लिए कृति।

सूरज की मानिंद सफ़र पे रोज़ निकलना पड़ता है

बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना

पौधा शनैः- शनैः वृक्ष बनता है। धूप में पली-बढ़ी पत्तियाँ छाया देने लगती हैं, पर छायादार होने के लिए जड़ें गहरी रखनी पड़ती हैं-

उसका साया घना नहीं होता

जिसकी गहरी जड़ें नहीं होती

जड़ों को हरा रखने, धरती से जोड़े रखने के लिए विद्या के साथ विनय का पाठ पढ़ना भी आवश्यक है। कहा भी गया है ‘विद्या विनयेन शोभते।’ ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का भारतीय दर्शन आत्मसात किये बिना आदमी अधूरा है-

सादगी का सबक नहीं सीखा

मेरी तालीम में कमी है अभी

जड़ों से जुड़ना अर्थात मूल्यों से जुड़ना। मूल्यों से जुड़ना आस्तित्व को सार्थक करता है। मूल्यधर्मिता, जीवन को सुगंधित करती है-

मेरी ख़ुशबू ही मर जाए कहीं

मेरी जड़ से न कर जुदा मुझे

स्थितियाँ प्रतिकूल हों, पानी सिर के ऊपर से जा रहा हो, तब भी आँख का पानी बचाकर रखना चाहिए। अपनी आँख में अपना मान बना रहता है तो आदमी का कद भी टिका रहता है-

मिला दिया है पसीना भले ही मिट्टी में

हम अपनी आँख का पानी बचाके रखते हैं

अपने समय की विसंगतियों से शायर आहत है। धर्म का चेला ओढ़े सफेदपोशों के चंगुल में फँसे साधारण आदमी की स्थिति शब्दों में व्यक्त होती है-

अस्ल में मुज़रिम जो थे घर में खुदा के जा छुपे अब मसीहा रह गए हैं सूलियों के वास्ते

प्रार्थना के नाम पर पूजा पद्‌धति और तौर- तरीकों में उलझा आदमी कवि की दृष्टि से छूटता नहीं। उसके मन में प्रार्थना की परिभाषा को लेकर उमड़-घुमड़ है। यह उमड़-घुमड़ एक शेर के ज़रिए असीम आकार का प्रश्न खड़ा करती है-

‘हस्ती’ मंदिर मस्ज़िद में हम जो कुछ करके आते हैं

रब की नज़र में हो न इबादत ऐसा भी हो सकता है

संवेदना, मनुष्यता के लिए अनिवार्य तत्व है। इस तत्व के अतीत होने का चित्र सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है-

ग़ैर के दर्द से भी लोग तड़प जाते थे

वो ज़माना ही रहा ना वो ज़माने वाले

संवेदना के अभाव ने भले आदमियों को आउटडेटेड कर दिया है। भलमनसाहत विपन्नता का पर्यायवाची हो चुकी है।

जर्जर झुग्गी, टूटी खटिया, रूठी फसलें, रूठे हाल

भलमनसाहत का इस जग में मिलता है ये फल साईं

देश के लिए शहीद होना हर युग का धर्म है। विडंबना है कि अंतर्राज्यीय संघर्षों, पानी पर विवाद, धर्म और जाति पर दंगे, आतंकियों को बचाने के लिए अपने ही सैनिकों पर पत्थर फेंकते लोगों के चलते अपने ही घर में शहीद होने का क्रूर और वीभत्स चित्र आज का यथार्य है।

सरहद पे जो कटते तो कोई ग़म नहीं होता

है ग़म तो ये सर घर की लड़ाई में कटे थे

कोई कितना ही लिख-पढ़ ले, दुनिया भर की क़िताबें पढ़ ले, आदमी को बाँचने का सूत्र समझ नहीं पाता। आदमी है ही ऐसी जटिल रचना जिसमें कमरे में केवल कमरा ही नहीं तहखाना भी छिपा होता है-

आसानी से पहुँच न पाओगे इंसानी फ़ितरत तक कमरे में कमरा होता है कमरे में तहखाना भी

कोई आदमी यदि दृष्टि रखता है, परिश्रमी है, स्वाभिमानी है, हौसलामंद है, सादगी से जीता है, बाँचता है, गुनता है तो उसे उड़ने से, ऊँचाई तक पहुँचने से कोई त़ाक़त रोक लेगी, यह सोचना भी झूठ है। इस झूठ की पोल हस्तीमल ‘हस्ती’ की सच्ची शायरी इस सादगी से खोलती है कि खुद-ब-खुद ‘वाह’ निकल आती है-

परवाज़ जिसके ख़ूँ में है भरता रहा है वो

पिंजरे में भी उड़ान, अगर झूठ है तो बोल

एक और बानगी देखिए-

धरती का मोह छोड़ दिया जिसने उसका ही

हो पाया आसमान अगर झूठ है तो बोल

इस आलेख के आरंभ में ही कहा गया है कि सर्जक का शब्द उसका प्रतिबिम्ब होता है। सर्जक को जानना है, उसकी अ-लिखी आत्मकथा पढ़‌नी है तो उसका साहित्य पढ़ा जाना चाहिए। इस आलेख के इस अदना-सा लेखक की एक रचना कहती है- “आपने अब तक/ अपनी आत्मकथा / क्यों नहीं लिखी ?/ संभवतः आपने/ अब तक मेरी रचनाएँ / ग़ौर से नहीं पढ़ीं..!

 सत्य के पक्षधर, सादगी के हिमायती, धरती में गहराई तक जड़ें रोपकर छायादार दरख़्त-से व्यक्तित्व के धनी हस्तीमल’ हस्ती’ की हस्ती उनकी विभिन्न ग़ज़लों के शेरों के माध्यम से उभरती है। शब्दों से उभरता शायर का यह अक्स शब्दों के परे भी जाता है। यही कारण है कि, “तुम बुलंदी कहते जिसको मियाँ / ऊबकर हम छोड़ आए हैं उसे” कहने वाले हस्तीमल ‘हस्ती’  सरल शब्दों में गहन सत्य को अभिव्यक्त  करने वाले जादूगर शायर के रूप में समय के ललाट पर अमिट अंकित हो जाते हैं।

?

© संजय भारद्वाज  

रात्रिः 11:52 बजे, 4 फरवरी 2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 573 ⇒ डेविड मैनुअल (David Manuel) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डेविड मैनुअल (David Manuel)।)

?अभी अभी # 573 ⇒ डेविड मैनुअल (David Manuel) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बैंकिंग की दुनिया में मेरा वास्ता केवल मैन्युअल ऑफ इंस्ट्रक्शंस से ही पड़ा था, जो हमारे लिए गीता, बाइबल, कुरआन ही नहीं, बैंकिंग उद्योग का एक तरह से संविधान ही था। बस हमने बैंक ज्वॉइन करने के पहले सिर्फ इस संविधान की शपथ ही नहीं ली थी, लेकिन हम पूरी तरह से इसके लकीर के फकीर थे।

हमारी शाखा में एक जीता जागता मैनुएल और था, जिसका नाम डेविड मैनुअल था। एक हड्डी का, जवानी में बुजुर्गियत ओढ़े यह शख्स सिर्फ अंग्रेजी बोलना ही जानता था। मेन्यूअल ऑफ इंस्ट्रक्शंस और मिस्टर डेविड मैनुएल की अंग्रेजी एक जैसी थी, जिसे समझना हिंदीभाषी कर्मचारियों के लिए टेढ़ी खीर था।।

फिर भी जिस तरह हम हिंदी भाषी, टूटी फूटी अंग्रेजी से काम चला लेते हैं, मिस्टर डेविड भी टूटी फूटी हिंदी से काम चला ही लेते थे। यह तब की बात है, जब दफ्तरों में पान और धूम्रपान वर्जित नहीं था। मिस्टर डेविड भी एक चैन स्मोकर थे, और जरूरत पड़ने पर किसी डेली वेजेस के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी से टूटी फूटी हिंदी में पुचकारते हुए, दो रुपए का नोट थमाकर, बाहर पान वाले से, दो विल्स और एक पान लाने का आग्रह करते थे। वह जब आदेश का पालन कर, बाकी पैसे लौटाने लगता, तो दरियादिली से कहते, कीप द चेंज। काम की अंग्रेजी हर भारतीय को आती है, वह खुश हो जाता।

अफसर हो अथवा क्लर्क, मिस्टर डेविड की धाराप्रवाह अंग्रेजी के बोझ से हमेशा दबे रहते, और फिर भी अपना रौब झाड़ने के लिए पूरा जोर लगाकर उन्हें अंग्रेजी में डांटने का प्रयास करते, जिसे मिस्टर डेविड अंग्रेजी में कोई घटिया सा जोक सुनाकर निष्प्रभावी कर देते। जोक हंसने के लिए होता है, इसलिए समझने वाले और नहीं समझने वाले दोनों, जोक पर हंस देते।।

मिस्टर डेविड मैनुएल कॉन्वेंट रिटर्न थे इसलिए उनका उच्चारण आम हिंदी भाषियों से अलग और परिष्कृत था। फिर भी वे हिन्दी प्रेमी थे, और एक आम नागरिक की तरह हिंदी और अंग्रेजी दोनों गालियों का बराबर प्रयोग करते थे। पूरे अंग्रेजी वाक्य में केवल हिंदी गालियों को इतना सम्मान देना, आसान नहीं। थ्री चीयर्स टू मिस्टर डेविड।

चीयर्स से याद आया, एक बरसात की शाम मिस्टर डेविड मुझसे बाजार में टकरा गए, और मुझे चाय का न्यौता दे बैठे। मुझे एक चाय की गंदी सी दुकान पर बैठाकर वे अचानक उठकर बाहर चले गए, और जब बाहर आए, तो उनके हाथ में एक बीयर की बोतल थी। मैं नहीं जानता था, उनकी चाय की परिभाषा। जब उन्होंने दो ग्लास और कुछ ठंडे भजिए बुलवाए, तो मैंने उनकी चाय पीने से मना कर दिया। उसी समय, मैं उनकी निगाह से गिर गया।।

इतना ही नहीं, पास की टेबल पर एक सज्जन को उल्टी हो गई, जिसे देख हमारे मित्र भी हड़बड़ा गए और उनकी बीयर की बोतल धक्का लगने से जमीन पर गिर, चकनाचूर हो गई। मुझे अफसोस हुआ कि मैने उनका मजा किरकिरा कर दिया। मैने आग्रह किया, मैं दूसरी बोतल ले आता हूं, लेकिन वे नहीं माने, और कसम खा ली कि कभी आगे से आपके साथ “चाय” नहीं पीऊंगा।

कल ही मिस्टर डेविड मैनुएल का जन्मदिन था, मैने विश किया, तो अनायास ही ४० वर्ष पुरानी दर्दनाक दास्तान याद आ गई। उम्र का असर उनकी अंग्रेजी पर भी पड़ गया है, अब वे केवल हिंदी में बात करते है हैं। बस इतना ही बोले, जिंदा हूं। आप कैसे हो शर्मा जी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 572 ⇒ दूर संवेदन और पूर्वाभास ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दूर संवेदन और पूर्वाभास।)

?अभी अभी # 572 ⇒ दूर संवेदन और पूर्वाभास ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या किसी की अनायास याद आना महज एक संयोग है। आज दूर संचार के माध्यमों ने हमारी वैचारिक तरंगों का स्थान ले लिया है। जब मन किया, कॉल कर लिया। जिन लोगों को कॉल से तसल्ली नहीं होती, वे वीडियो कॉल लगा लेते हैं। आज के डिजिटल इंडिया में राष्ट्र के हर नागरिक के पास संजय की दिव्य दृष्टि है।

केवल कवि की पहुँच ही रवि तक नहीं होती, जब मन के घोड़े सरपट दौड़ते हैं, तो सात समंदर पार बैठा पिया, मल्हारगंज में बैठी मानसी के मन में ऐसा समा जाता है, कि इधर खयाल आया और उधर फोन की घंटी बजी। इसे कहते हैं टेलीपेथी। ।

बड़ी उम्र है आपकी! क्या विचित्र संयोग है, अभी अभी बस आपको याद ही किया था और आप हाजिर। हिचकी को हम कभी गंभीरता से नहीं लेते। क्या किसी के महज स्मरण मात्र से हिचकी आना बंद हो सकती है। कहीं यह टेलीपेथी तो नहीं! मन पर अगर लगाम लगा ली जाए, तो बड़ा काम का है यह मन। मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। इसी मन की अवस्था से तो हम कभी फकीरी और कभी अमीरी का लुत्फ उठा सकते हैं।

हमारी संवेदना का स्तर जितना सूक्ष्म से सूक्ष्मतम होता चला जाता है, हमारे मन के द्वार खुलते चले जाते हैं। अन्नमय, मनोमय प्राणमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोष में वह सब है, जो कुबेर के खजाने में भी नहीं। रावण और राम में बस यही अंतर है। ।

हमारा मन चेतन हो अथवा अवचेतन, आगे आने वाली घटनाओं का भी हमें पूर्वाभास होता रहता है। गणित का अध्ययन और धारणा ध्यान का मिला जुला स्वरूप ही है ज्योतिष और नक्षत्र विज्ञान। मंगल पर आप जब जाना चाहें जाएं, हम तो मंगलनाथ कल ही होकर आ गए। परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी जैसी विद्याएं कहीं बाहर नहीं, हमारे अंदर ही मौजूद हैं। जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। बस इधर मन चंगा हुआ, उधर कठौती में गंगा प्रकट।

शरीर ही हमारा विज्ञान है और प्रकृति हमारी प्रयोगशाला। सभी वैज्ञानिक हाड़ मांस के पुतले ही थे, जब जिज्ञासा जुनून बन जाती है तब ही आविष्कार संभव होते हैं। ।

घर के जोगी बने रहें, अगर आन गांव में सिद्ध होने की कोशिश की, तो महात्मा बनने का खतरा है। अपनी सिद्धियों को छुपाए रखिए, उनका प्रदर्शन नहीं, सदुपयोग कीजिए, ज्ञानार्जन बुरा नहीं, ज्ञान का मार्केटिंग भ्रमित करने वाला है।

डोनेशन से एडमिशन और कोचिंग क्लासेस का ज्ञान ही आज हमारी धरोहर है, काहे की टेलीपेथी और इंटुइशन की मगजमारी।

इधर कॉल उधर तत्काल..! !

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 227 ☆ बहती धारा अनवरत… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना बहती धारा अनवरत। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 227 ☆ बहती धारा अनवरत

प्रकृति में वही व्यक्ति या वस्तु अपना अस्तित्व बनाये रह सकती है जो समाज के लिए उपयोगी हो, समय के साथ अनुकूलन व परिवर्तन की कला में सुघड़ता हो। अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि मुझे जो मिलना चाहिए वो नहीं मिला या मुझे लोग पसंद नहीं करते।

यदि ऐसी परिस्थितियों का सामना आपको भी करना पड़ रहा है तो अभी भी समय है अपना मूल्यांकन करें, ऐसे कार्यों को सीखें जो समाजोपयोगी हों, निःस्वार्थ भाव से किये गए कार्य एक न एक दिन लोगों की दुआओं व दिल में अपनी जगह बना पायेंगे।

निर्बाध रूप से अगर जीवन चलता रहेगा तो उसमें सौंदर्य का अभाव दिखायी देगा, क्योंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। सोचिए नदी यदि उदगम से एक ही धारा में अनवरत बहती तो क्या जल प्रपात से उत्पन्न कल- कल ध्वनि से वातावरण गुंजायमान हो सकता था। इसी तरह पेड़ भी बिल्कुल सीधे रहते तो क्या उस पर पक्षियों का बसेरा संभव होता।

बिना पगडंडियों के राहें होती, केवल एक सीध में सारी दुनिया होती तो क्या घूमने में वो मज़ा आता जो गोल- गोल घूमती गलियों के चक्कर लगाने में आता है। यही सब बातें रिश्तों में भी लागू होती हैं इस उतार चढ़ाव से ही तो व्यक्ति की सहनशीलता व कठिनाई पूर्ण माहौल में खुद को ढालने की क्षमता का आंकलन होता है। सुखद परिवेश में तो कोई भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर वाहवाही लूट सकता है पर श्रेष्ठता तो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना लोहा मनवाने में होती है, सच पूछे तो वास्तविक आंनद तभी आता है जब परिश्रम द्वारा सफलता मिले।

नदियों की धारा जुड़ी, राह को बनाते मुड़ी

जल का प्रवाह बढ़ा, कल- कल सी बहे।

*

सागर की ओर चली, बन मतवाली कली

बूंद- बूंद वन- वन, छल- छल सी रहे।।

*

संगम को अकुलाई, बिना रुके चल आई

जीवन को सौंप दिया, सुकुमारी सी कहे।

*

जल बिन कैसे जियें, घूँट- घूँट कैसे पियें

शुद्धता का भाव धारे, मौन मूक सी सहे।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 326 ☆ आलेख – पठनीयता का अभाव सोशल मीडीया और लघु पत्रिकाएं श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 326 ☆

? आलेख – पठनीयता का अभाव सोशल मीडीया और लघु पत्रिकाएं ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मुझे स्मरण है, पहले पहल जब टी वी आया तब पत्रिकाओं और किताबो पर इसे मीडीया का खतरा बताया गया था। फिर सोशल मीडीया का स्वसंपादित युग आ गया। अतः यह बहस लाजिमी ही है कि इसका पत्रिकाओं पर क्या प्रभाव हो रहा है। जो भी हो दुनियां भर में केवल प्रकाशित साहित्य ही ऐसी वस्तु हैं जिनके मूल्य की कोई सीमा नही है, इसका कारण है पुस्तको में समाहित ज्ञान। और ज्ञान अनमोल होता है। लघु पत्रिकाओं के वितरण का कोई स्थाई नेटवर्क नहीं है। वे डाक विभाग पर ही निर्भर हैं, अब सस्ते बुक पोस्ट की समाप्ति हो गई है। अतः मुद्रण से लेकर वितरण तक ये पत्रिकाएं जूझ रही हैं। इसलिए ई बुक फ्लिप फॉर्मेट, पीडीएफ में सॉफ्ट स्वरूप मददगार साबित हो रहा है। पठनीयता का अभाव, कागज और पर्यावरण की चिंता पुस्तको के हार्ड कापी स्वरूप पर की जा रही है। सचमुच एक कागज खराब करने का अर्थ एक बांस को नष्ट करना होता है यह तथ्य अंतस में स्थापित करने की जरूरत है।

प्रकाशन सुविधाओं के विस्तार से आज रचनाकार राजाश्रय से मुक्त अधिक स्वतंत्र है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार आज हमारे पास है। आज लेखन, प्रकाशन, व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन कही अधिक सुगम हैं। लेखन की व अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है। माइक्रो ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है। पर आज नई पीढ़ी में पठनीयता का तेजी हृास हुआ है। साहित्यिक किताबो की मुद्रण संख्या में कमी हुई है। आज साहित्य की चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये। पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की जाये। आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है, प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है। इस दिशा में लघु पत्रिकाओं का महत्व निर्विवाद है। लघु पत्रिकाओं का विषय केंद्रित, सुरुचिपूर्ण, अनियतकालीन प्रकाशन और समर्पण, पाठकों तक सीमित संसार रोचक है।

समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है, तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियो को या व्यंग्य के कटाक्ष करती क्षणिकाओ को साहित्य का प्रमुख हिस्सा बनाया जा सकता है ? यदि पाठक किताबो तक नही पहुँच रहे तो क्या किताबो को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे ? क्या टी वी चैनल्स पर किताबो की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे ? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं। जो भी हो हमारी पीढ़ी और हमारा समय उस परिवर्तन का साक्षी है जब समाज में कुंठाये, रूढ़ियां, परिपाटियां टूट रही हैं। समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है, अतः हमारी लेखकीय पीढ़ी का साहित्यिक दायित्व अधिक है। निश्चित ही आज हम जितनी गंभीरता से इसका निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा।

किताबें तब से अपनी जगह स्थाई रही हैं जब पत्तो पर हाथों से लिखी जाती थीं। मेरी पीढ़ी को हस्त लिखित और सायक्लोस्टाईल पत्रिका का भी स्मरण है। , मैंने स्वयं अपने हाथो, स्कूल में सायक्लोस्टाईल व स्क्रीन प्रिंटेड एक एक पृष्ठ छाप कर पत्रिका छापी है। आगे और भी परिवर्तन होंगे क्योंकि विज्ञान नित नये पृष्ठ लिख रहा है, मेरा बेटा न्यूयार्क में है, वह ज्यादातर आडियो बुक्स ही सुनता गुनता है। किन्तु मेरे लिये बिस्तर पर नींद से पहले हार्ड कापी की लघु पत्रिकाओं और किताब का ही बोलबाला है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 571 ⇒ तलत की लत ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सौन्दर्य बोध।)

?अभी अभी # 571 ⇒ तलत की लत ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आदत तो खैर अच्छी बुरी हो सकती है लेकिन किसी चीज की लत अच्छी नहीं।

जुआ, शराब, गुटका और सिगरेट, बहुत बुरी है इनकी लत, लेकिन अगर किसी दीवाने को लग जाए तलत की लत, तो वह क्या करे। एक ओर बदनाम लत और दूसरी ओर मशहूर तलत ;

क्या करूं मैं क्या करूं

ऐ गमे दिल क्या करूं।

तलत एक ऐसा गायक है, जो दिल से गाता है, और दिल भी किसका, एक वतनपरस्त गरीब का ;

मैं गरीबों का दिल हूं

वतन की जुबां।

उसे जिंदगी की तलाश है ;

ऐ मेरी जिंदगी तुझे ढूंढूं कहां

न तो मिल के गए

न ही छोड़ा निशान।

पसंद अपनी अपनी, प्यार अपना अपना। दीवानों का क्या, जो सहगल के दीवाने थे, उनके गले कोई दूसरा गायक उतरता ही नहीं था। अपना अपना नशा है भाई, अपना अपना ब्रांड। सबको झूमने की छूट है, क्योंकि यह संगीत की दुनिया है और गायकी यहां का इल्म है।।

तलत का मुसाफिर अपनी ही धुन में रहता है ;

चले जा रहे हैं किनारे किनारे, मोहब्बत के मारे।

उसकी मजबूरी तो देखिए बेचारा ;

तस्वीर बनाता हूं,

तस्वीर नहीं बनती।

एक ख्वाब सा देखा है

ताबीर नहीं बनती।

कितनी शिकायत है उसे जिंदगी देने वाले से ;

जिंदगी देने वाले सुन

तेरी दुनिया से दिल भर गया

मैं यहां जीते जी मर गया।

एक सच्चे कलाकार की भी यही त्रासदी होती है। केवल जिसे कला की पहचान है, जो तलत का कद्रदान है, वही तलत के दर्द को समझ सकता है;

शामे गम की कसम

आज गमगीन हैं हम

आ भी जा, आ भी जा

आज मेरे सनम।

आप इसे भले ही फुटपाथ की शायरी कहें, लेकिन हर कलाकार की जिंदगी फुटपाथ से ही शुरू होती है। उसकी आवाज फुटपाथ और हर गरीब के झोपड़े तक में गूंजती है। तलत ने कभी महलों के ख्वाब देखे ही नहीं।

ऐ मेरे दिल कहीं और चल

गम की दुनिया से दिल भर गया

ढूंढ लें, चल कोई घर नया

लेकिन एक आम इंसान की तरह वह भी जानता है ;

जाएं तो जाएं कहां

समझेगा कौन यहां

दिल की जुबां …

अगर आपको भी गलती से तलत की लत लग गई है, तो इसे छोड़िए मत। देखिए वे क्या कहते हैं ;

हैं सबसे मधुर वो गीत

जिन्हें हम दर्द के सुर में

गाते हैं।

जब हद से गुजर जाती है खुशी

आंसू भी छलकते आते हैं।।

उन्हें जब रफी साहब का साथ मिला तो वे भी आखिर गा ही उठे ;

गम की अंधेरी रात में

दिल को न बेकरार कर

सुबह जरूर आएगी

सुबह का इंतजार कर।

और देखिए ;

गया अंधेरा, हुआ उजाला

चमका चमका, सुबह का तारा ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 570 ⇒ लिखना मना है ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लिखना मना है।)

?अभी अभी # 570 ⇒ लिखना मना है ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हँसना मना है, यह तो सुना था, लेकिन लिखना मना है, क्या यह कुछ ज्यादती नहीं हो गई। मनुष्य का यह स्वभाव है कि उसे जिस काम के लिए मना किया जाएगा, वही काम वह अवश्य करेगा। ज़रूर कोई हँसने की बात होगी, इसलिए हँसने को मना किया होगा, और चुटकुलों का शीर्षक हंसना मना है, ही हो गया।

हमारे यहाँ दीवार स्वच्छ भारत के पहले कई काम आती थी। लोग दीवारों पर कुछ भी लिख दिया करते थे। चुनावी नारे और सड़क छाप विज्ञापन। जिन दीवारों पर कुछ भी लिखने का प्रतिबंध लगा होता था, वहां भी यह लिखकर समझाना पड़ता था, यह पेशाब करना मना है। स्वच्छता में हमेशा अव्वल, मेरे शहर में नगर निगम ने स्वास्थ्य और स्वच्छता संबंधी ही इतने नारे लिख दिए हैं, कि अब वहां कुछ नहीं लिखा जा सकता और सफाई इतनी कि चिड़िया भी लघु शंका के लिए शरमा जाए।।

अक्सर सरकारी दफ्तरों और कार्यालयों के बाहर, अंदर आना मना है, अथवा प्रवेश निषेध जैसे निर्देश देखे जा सकते हैं। लोग फिर भी चलते चलते झांक ही लेते हैं, अंदर क्या चल रहा है। नो पार्किंग पर गाड़ी खड़ी करना और यहां थूकना मना है वाली हिदायत तो पूरी तरह पान की पीक और कमलापसंद के हवाले कर दी जाती है।

हमारी पीढ़ी ने पिछले 70 वर्षों में देश में पहले केवल कांग्रेस वाली आजादी देखी है और बाद में मोदी जी वाला स्वच्छ भारत। हमने आपातकाल भी देखा है और कोरोना काल भी। अभिव्यक्ति की आजादी भी देखी है प्रेस सेंसरशिप भी। एक पढ़े लिखे समाज में लिखने और बोलने की आजादी तो होती ही है।

हमारा सोशल मीडिया उसे और मुखर बना देता है।।

हम पहले बोलना सीखते हैं, फिर पढ़ना लिखना ! पहले लिखकर पढ़ते हैं, फिर पढ़कर लिखते हैं। पहले किताब पढ़ी, फिर किताब लिखी। जिस तरह हँसना मना नहीं हो सकता, उसी तरह लिखना भी मना नहीं हो सकता,

पढ़ना भी मना नहीं हो सकता और बोलना भी मना नहीं हो सकता।

आजादी और अनुशासन, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लिखने, पढ़ने और बोलने की आजादी भी लोकतंत्र में तब ही सार्थक है, जब यह मर्यादित और रचनात्मक हो। और तो और क्रूर हँसी और हास्यास्पद बयान भी किसी की गरिमा को ठेस पहुंचा सकते हैं। उठने बैठने की ही नहीं, हँसने बोलने की भी तमीज होती है। बुरा कहने, बोलने और सुनने से परहेज करने वाले भले ही तीन बंदर हों, लेकिन उनकी हंसी उड़ाकर, हम अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं।

हम पर अपने स्वयं के अलावा कौन अंकुश लगा सकता है। मन बहुत मना करता है, कुछ लिखा न जाए, कुछ बोला न जाए। बहुत कोशिश की जाती है, आज गंभीर रहा जाए, खुलकर हंसा न जाए, मुस्कुराया न जाए, लेकिन कंट्रोल नहीं होता। हंसी आखिर फूट ही पड़ती है।

आखिर खिली कली मुस्कुरा ही देती है। कलम के भी मानो पर निकल आते हैं, शब्द बाहर आने के लिए थिरकने लगते हैं। बाहर बोर्ड लगा है, लिखना मना है, और उसी पर कुछ लिखा जा रहा है। कुछ तो ईश्वर का लिखा है, कुछ हमारे द्वारा लिखा जा रहा है। झरना बह उठता है। आप कहते रहें, लिखना मना है। हमने लेकिन कब माना है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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