हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गाये लता, गाये लता, गाये लता गा…! ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ गाये लता, गाये लता, गाये लता गा! ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

प्रिय पाठकगण

नमस्कार 💐🎼

२८ सितम्बर १९२९ का अत्यंत मंगलमय दिवस! इस दिन घटी ‘न भूतो न भविष्यति’ ऐसी घटना! गंधर्वगान के परे रहे ‘लता मंगेशकर’ नामक सात अक्षर रुपी चिरंतन स्वरविश्व के मूर्तरूप ने जन्म लिया| अक्षय परमानंद की बरसात बरसाने वाली स्वर शारदा लता आज संगीत के अक्षय अवकाश में ध्रुव तारे के समान अटल पद पर विराजमान हुई है| उसके स्वर अवकाश में इस कदर बिखरे हुए हैं कि, वह इस नश्वर जगत में नहीं है, इसका आभास तक नहीं होता| ‘शापदग्ध गंधर्व’ दीनानाथ मंगेशकरजी की विरासत लेकर लता ने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण कँटीली राह पर चलते हुए संगीत को समर्पित करते हुए गुजारा| एकाध मूर्ति का निर्माण जब होता है, तब उसे छिन्नी के कई घाव सहने पड़ते हैं| ठीक उसी तरह उसके जीवन की अंतिम बेला तक लता ने अनगिनत घाव सहन किये| उसके साथ काम करने वाले गायक, संगीतकार, गीतकार, फिल्म जगत के अनेक लोग और बाबासाहेब पुरंदरे तथा गो नी दांडेकर जैसे दिग्गज व्यक्तियों के प्रेरणादायी मार्गदर्शकों के कारण उसके व्यक्तित्व को और मुलायम स्वरों को दैवी स्वर्ण कांति प्राप्त हुई| लता जीवन भर एक अनोखी और अनूठी सप्तपदी चली, सप्तस्वरों के संग!

मंगेशकर भाई-बहनें यानि वर्तमान भाषा में मैं कहूँगी, ‘मंगेशकर ब्रँड’! इसका अन्य कोई सानी नहीं या अन्य कोई बराबरी करने वाला भी नहीं| दीनानाथ और माई (शेवंती) मंगेशकरजी के ये पंचप्राण थे| हर एक का गुण विशेष निराला! लता की सफलता का राज था अपने पिता से, अर्थात मराठी संगीत नाटकों के प्रसिद्ध गायक अभिनेता ‘मास्टर दीनानाथ मंगेशकर’ से विरासत के हक़ से और शिक्षा से आई संगीतविद्या, उसकी ‘स्वयं-स्वर-प्रज्ञा’ और जी तोड़ कर की हुई स्वर साधना! अबोध उम्र की लता के इस संगीत ज्ञान को उसके पिता ने बहुत जल्द  भाँप लिया था| उस समय से ही उन्होंने उसकी गायकी को तराशना आरम्भ किया था | छह साल की उम्र से ही वह रंगमंच पर गाने लगी थी| १९४२ में पिता की असामयिक मृत्यु हुई तब वह महज १३ वर्ष की थी| उतनी नन्ही सी उम्र से ही लता अपने भाई-बहनों का मजबूत सहारा बन गई! उसके समक्ष संघर्षों की एक शृंखला थी, लेकिन उन्हीं के मध्य से लता ने इस कांटेदार रास्ते को पार किया।

प्रथम प्रसिद्धी मिली ‘महल'(१९४९) फिल्म के ‘आएगा आने वाला’ इस गाने को! तब लता थी बीस वर्ष की और इस फिल्म की नायिका मधुबाला थी सोलह वर्ष की| इस फिल्म से इन दोनों का फ़िल्मी सफर साथ साथ फला फूला| एक बनी स्वर की महारानी और दूसरी बनी सौंदर्य की मलिका! मजे की बात यह थी कि, इस गाने के रेकॉर्डप्लेअर पर गायिका का नाम लिखा था ‘कामिनी’ (तब सिल्वर स्क्रीन पर गाना प्रस्तुत करने वाले किरदार का नाम रेकॉर्डप्लेयर पर लिखा जाता था|) इसके पश्चात् लता ने ही अथक संघर्ष करते हुए रेकॉर्डप्लेअर पर सिर्फ नाम ही नहीं तो, रॉयल्टी और गायक गायिका को विभिन्न फिल्मफेअर पुरस्कार आदि प्राप्त करवाते हुए उनको उनका श्रेय दिलवाया| लता और फिल्म जगत की अमृतगाथा समानान्तर चली, यह कहने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए| १९४० से लेकर तो अभी अभी तक यानि, २०२२ तक लगभग ८० वर्षों की साथ में निभाई हुई थी संगीत यात्रा! उसके साथी गायक, गायिका, नायक, नायिका, संगीतकार, गीतकार, तकनीशियन, वादक, दिग्दर्शक, निर्माता ऐसे हजारों लोग उसके साथ यह यात्रा पूरी करते हुए आधे रास्ते ही निकल गए। अब तो वह भी उनके साथ चली गई है| यह ‘अमृत-लता’ वक्त के चलते आसमान की ऊंचाई को छू गई है|

आश्चर्य की बात यह है कि, इतनी बार उसका गाना सुना होने के बावजूद भी ऐसा क्यों होता है, ‘हे ईश्वर, यह सुन्दर गाना आजतक मैंने कैसे सुना नहीं! अरे भई, यह कैसे मिस हो गया!’ मित्रों, यह अवस्था हर उस संगीतप्रेमी रसिकजन की होती होगी, क्योंकि यह स्वर कोषागार बहुत ही विशाल है| और एक मजे की अलग ही बात कहूं इसके जादूभरे स्वरों की? जिस तरह ऋतु बदलते हैं, उसी तरह हमारे बदलते मूड के अनुसार हमारे लिए लता की आवाज की ‘जवारी’ (क्वालिटी) बदल रही है, ऐसा हमें आभास होने लगता है| सच में पूछा जाय तो, एक बार सुनकर यह स्वरोल्लास हमारे ह्रदय में समाहित नहीं होता ऐसा संभव है| देखिये ना, अगर आज मेरा ‘मूड ऑफ’ है तो, ‘उस’ गाने में मुझे लता की आवाज कुछ अधिक ही शोकाकुल लगने का ‘फील’ आता है| क्या कहूं इस बहुरंगी, बहुआयामी, तितली के विविध इंद्रधनुषी रंगों की तरह सजे आवाज की महिमा को! इन स्वरों के बारे में बोलना हो तो मराठी संत तुकारामजी की रचना का स्मरण हुआ, ‘कमोदिनी काय जाणे तो परिमळ भ्रमर सकळ भोगीतसे’! यानि ‘कुमुदिनी क्या जाने उस परिमल के सौंदर्य को, जो भ्रमर सम्पूर्ण रूप से भोग रहा है’| लता क्या जाने कि, उसने हमारा जीवन कितना और कैसे समृद्ध किया है! उसके आवाज से समृद्ध हुई ३६ भाषाओं में से कोई भी भाषा लें, इस एक ही आवाज में वह भाषा ही धन्य होगी ऐसे ऐसे गाने, एकदम ओरिजिनल लहेजा और स्वराघात! लता तुम, ऊपर से क्या लेकर आयी और यहाँ धरती पर तुमने क्या शिक्षा प्राप्त की, इसका अचेतन हिसाब करने का मतलब यह हुआ कि, आसमान के तारे गिनने से भी कठिन होगा! इसके बजाय सच्चे संगीतप्रेमी एक ऍटिट्यूड (वर्तमान संदर्भ वाला नहीं) रखें, ‘आम खाओ, पेड मत गिनो’| सिर्फ और सिर्फ उसके गाने पर फिदा हो जाना, बस मैटर वहीं समाप्त!

डॉ. मीना श्रीवास्तव

उसने दया बुद्धि दर्शाकर संगीत के कुछ प्रांत उसके बिलकुल पहुँच में होते हुए भी छोड़ दिए, शास्त्रीय संगीत तथा नाट्यसंगीत | (यू ट्यूब पर कुछ गिने चुने उपलब्ध हैं!)  संगीतकार दत्ता डावजेकर ने कहा था कि, लता के नाम में ही लय और ताल है| जिसके गाने से आनंदसागर में आनंद तरंग निर्माण होते हैं, जिसने ‘आनंदघन’ इस नाम से गिने चुने मराठी फिल्मों (महज चार) को संगीत देकर तमाम संगीतकारों पर उपकार ही किया, जिसने शास्त्रीय संगीत की उच्च शिक्षा ले कर उसमें महारत हासिल की, परन्तु व्यावसायिक तौर पर शास्त्रीय संगीत के जलसे नहीं किये (प्रस्थापित शास्त्रीय गायकों ने भी इसके लिए उसका शुक्रिया अदा किया है), उसके बारे में संगीतकार वनराज भाटिया कहते हैं, ’she is composer’s dream!’ किसी भी संगीतकार के गीत हों, खेमचंद प्रकाश, नौशाद, अनिल बिस्वास, ग़ुलाम मोहम्मद, सज्जाद हुसैन, मदनमोहन, जमाल सेन के जैसे दिग्गजों की कठिनतम तर्जें, सलिलदा या सचिनदा की लोकसंगीत पर आधारित धुनें, वसंत देसाई, सी. रामचंद्र या शंकर जयकिशन के अभिजात संगीत से सजी, या आर डी, ए आर रहमान, लक्ष्मी प्यारे, कल्याणजी आनंदजी के आधुनिक गीत हों, जिस किसी गाने को लता का शुद्ध पारसमणि सम स्वर गंधार प्राप्त हुआ, उसकी आभा नवनवीन स्वर्ण-उन्मेष लेकर रसिक जनों के कलेजे की गहराई में उतर जाती| अत्यंत कठिनतम तर्जें बनाकर लता से अनगिनत रिहर्सल करवाने वाले संगीतकार सज्जाद हुसैन का तो कहना था ‘सिर्फ लता ही मेरे गाने गा सकती है!’

यह स्वरवल्लरी मल्टीस्पेशलिटी हॉस्पिटल से भी सुपर डुपर है! बीमारी कोई भी हो, उसके पास गाने के रूप में अक्सीर इलाज वाली दवा मौजूद है ही! इस दवा को न खाना तो सख्त मना है| छोटी बच्ची का, ‘बच्चे मन के सच्चे’, सोलह साल की नवयुवती का, ‘जा जा जा मेरे बचपन’, विवाहिता का, ‘तुम्ही मेरी मंजिल’, समर्पिता का, ‘छुपा लो यूं  दिल में प्यार मेरा’, तो एक रूपगर्विता का, ‘प्यार किया तो डरना क्या’ एक माता का, ‘चंदा है तू’, एक क्लब डांसर का (है यह भी), ‘आ जाने ना’, एक भक्तिरस से परिपूर्ण भाविका का,‘अल्ला तेरो नाम’, एक जाज्वल्य राष्ट्राभिमानी स्त्री का, ‘ऐ  मेरे वतन के लोगों’ऐसे कितने सारे लता के मधु मधुरा स्वर माधुर्य से सजे बहुरंगी स्त्री रूप याद करें?

लता के गाये गानों में मेरे पसंदीदा गाने याद करने की कोशिश की तो, मानों हाथों से बहुमूल्य मोतियों के फिसलने का आभास होने लगा| उनमें से चुनिंदा गाने पेश करने की तीव्र इच्छा हो रही है| मुझे लता का १९५० से १९५५ का बिलकुल कमसिन स्वर बहुत ही प्रिय है| इसलिए गाने भी वैसे ही हैं…. | ‘उठाए जा उनके सितम’- (फिल्म -‘अंदाज’, १९४९, मजरूह सुल्तानपुरी- नौशाद), ‘सीने में सुलगते हैं अरमाँ’ – (फिल्म -‘तराना’, १९५१, प्रेमधवन-अनिल बिस्वास), ‘साँवरी सूरत मन भायी रे पिया तोरी’- (फिल्म -‘अदा’, १९५१, प्रेमधवन-मदनमोहन), ‘ये शाम की तनहाइयाँ’- (फिल्म -‘आह’, १९५३, शैलेन्द्र-शंकर जयकिशन), ‘जाने वाले से मुलाकात ना होने पायी’-(फिल्म -‘अमर’- १९५४, शकील बदायुनी-नौशाद)| अर्थात पसंद अपनी अपनी! हर एक की पसंद का कोई परिमाण नहीं, यहीं सच है!

कानों में प्राणशक्ति एकत्रित कर सुनना चाहें, ऐसे ये ‘आनंदघन’ बरसते हैं और इनमें मन भीग जाता है| कितना ही भीगें, फिर फिर से उन मखमल से नर्म मुलायम बारिश की बुन्दनियों के स्पर्श की अनुभूति करने को जी चाहता है| यहाँ मन संतुष्ट होने का सवाल ही नहीं है| अगर अमृतलता हो तो, जितना भी अमृतपान करें, उतना ही असंतोष वृद्धिंगत होते ही जाता है| मित्रों! यह असंतोष शाश्वत है, क्योंकि लता का ॐकारस्वरूप स्वर ही चिरंतन है, उसका अनादी अनंत रूप अनुभव करने के उपरान्त स्वाभाविक तौर पर लगता है, ‘जहाँ दिव्यत्व की प्रचीति हो, वहाँ मेरे हाथ नमन करने को जुड़ जाते हैं!’ मुझे मशहूर साहित्यिक आचार्य अत्रे का लता से सम्बन्धित यह वाक्य बड़ा ही सुन्दर लगता है, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि, सरस्वती की वीणा की झंकार, उर्वशी के नूपुरों की रुनझुन और कृष्ण की मुरली का स्वर, ये सब समाहित कर विधाता ने लता का कंठ निर्माण किया होगा |’    

आचार्य अत्रे ने ही लता को २८ सितम्बर १९६४ में (अर्थात उसके जन्मदिन पर) ‘दैनिक मराठा’ इस उन्हीं के समाचारपत्र में अविस्मरणीय बने उनके मराठी में लिखे ‘सम्मान पत्र’ को अर्पण किया था! वैसे तो सम्पूर्ण लेख ही पढ़ने लायक है, परन्तु उसकी झलक के रूप में देखिये लता के अद्भुत, अनमोल तथा अनुपम स्वराविष्कार का वर्णन करते हुए अत्रेजी ने कितने नाजुक और मखमली लब्जों की सजावट की है, ‘स्वर्गीय स्वरमाधुरी का मूर्तिमंत अवतार रही लता का केवल लोहे की निब से उतरी स्याही के शब्दों से, समाचारपत्र के कठोर और खुरदरे कागज़ पर अभिनंदन करना यानि, स्वरसम्राज्ञी के स्वागत के लिए उसके चरणों के नीचे खुरदरे और कठोर बोरियों की चटाई बिछाने के जैसा अशोभनीय है| लता के गले की अलौकिक कोमलता को शोभा दे, ऐसा अभिवादन करना हो तो, उसके लिए प्रभात बेला के कमसिन स्वर्ण किरणों को ओस की बून्दनियों में भिगाकर बनाई हुई स्याही से, कमलतंतू की लेखनी से और वायुलहरों के हल्के हाथों से, तितलियों के पंखों पर लिखा हुआ सम्मानपत्र गुलाब की कली के सम्पुट में उसे अर्पण करना होगा|’

डॉ. मीना श्रीवास्तव

इतने मानसम्मान, शोहरत, ऐश्वर्य और फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध के होते हुए भी लता का रियाज  निरंतर चलता रहा और उसके कदम भी इसी जमीं पर ही रहे| जागतिक कीर्ति प्राप्त प्रतिष्ठित अल्बर्ट हॉल में उसे आंतरराष्ट्रीय गायिका के रूप में प्रस्थापित करने वाले कार्यक्रम की तारीफ़ करें, या सर्वश्रेष्ठ दादासाहेब फाळके और भारतरत्न पुरस्कार मिलने के उपरान्त भी लता की विनम्रता कैसे कम नहीं हुई इसका आश्चर्य करें?          

‘स्वरलता’ इस विषय पर स्तंभ लेखों पर लेख, ऑडिओ, विडिओ, पुस्तकें, सब कुछ भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं। परंतु हम जिस प्रकार सागर को उसके ही जल से अर्ध्य देते हैं ना, वैसा ही मेरा यह लेखन है! इस स्वर देवता ने भर भर के स्वर सुमन दिए हैं! ‘कितना लूँ दो हथेलियों में, ऐसी अवस्था हुई है मेरी, वे तो कब की भर गईं फूलों से, लिखते लिखते ऑंखें भी भर गईं आंसुओं से और लब्ज़ भी गायब हो गए, हृदय भर गया ‘हृदया’ (लता का यह नाम मुझे अतिप्रिय है) के अनगिनत स्वर मौक्तिकों से! अब ‘हे दाता भगवन यहीं दान देता जा’ कि, सिर्फ लता का निर्मोही, निरंकारी और निरामय स्वर हो, उसके सप्तसुरों के सितारों के सोपान पर चढ़ते हुए जाएं और उस असीम अवकाश में ध्रुव तारे के समान चमकने वाली हमारी लाड़ली स्वरलता को अनुभव करें इसी काया से, इसी हृदय से और इसी जनम में!

प्रिय पाठक गण, ‘जहाँ मैं जाती हूँ वहीं चले आते हैं’, ऐसे लता के स्वराविष्कार को फ़िलहाल यहीं विराम देते हुए इस अमर स्वर शारदा के चरणों में नतमस्तक होती हूँ। 

धन्यवाद 🙏🌹

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

तारीख-२८ सितम्बर २०२३

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 169 ⇒ महेंद्र कपूर/मो.रफी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “महेंद्र कपूर / मो.रफी”।)

?अभी अभी # 169 ⇒ महेंद्र कपूर/मो.रफी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

26 सितम्बर का दिन सदाबहार अभिनेता देवानंद का था क्योंकि संयोग से 26 सितम्बर को ही उनका सौंवा जन्मदिवस भी था। 27 सितम्बर को प्रसिद्ध पार्श्वगायक श्री महेंद्र कपूर की पुण्य तिथि है। संगीत और अध्यात्म में एक रिश्ता गुरु शिष्य संबंध का भी होता है। फिल्मों में घोषित तौर पर कोई गुरु शिष्य नहीं होता। यहां अक्सर गुरु गुड़ रह जाता है, और चेला शक्कर। अघोषित रूप से रफी साहब और महेंद्र कपूर के बीच गुरु शिष्य का संबंध था। आज इसी बहाने, लीक से हटकर हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे।

अक्सर कलाकारों के संघर्ष के दिनों की चर्चा होती है।

किसने कितने पापड़ बेले।

आम तौर पर जैसा होता है, महेंद्र कपूर को भी कम उम्र से ही संगीत में गहन रुचि थी और उन्होंने संगीत की विधिवत शिक्षा भी उस्तादों से ग्रहण की थी। उनके ही अनुसार वे एक अच्छे खाते पीते परिवार से थे।।

उनके संगीत कैरियर का एक रोचक किस्सा उनकी ही जबानी। वे शायद तब इतने बड़े भी नहीं हुए थे कि गायकी के क्षेत्र में अपने पांव जमा सकें। एक बार उन्होंने अपने ड्राइवर से बातचीत के दौरान पूछ लिया, क्या वह किसी ऐसे गायक को जानता है, जो गायन और संगीत की बारीकियों को जानता, समझता हो। ड्राइवर ने जवाब दिया, मैने रफी साहब का घर देखा है। और कुछ ही देर बाद दोनों की भेंट भी हो गई।

लेकिन जब बात विधिवत शिक्षा की आई तो रफी साहब ने साफ साफ कह दिया, अभी तुम छोटे हो, हां अगर अपने माता पिता को ले आओगे तो तुम्हें हम अपना शिष्य बना लेंगे। इस प्रकार माता पिता की सहमति के पश्चात् ही दोनों के गुरु शिष्य संबंध की नींव पड़ी।

लेकिन यह शिक्षा केवल कुछ महीनों की ही थी, क्योंकि महेंद्र कपूर को एक गायन स्पर्धा में भाग लेना था, जिसके निर्णायक मंडल में सर्वश्री नौशाद, ओ पी नय्यर, और कल्याण जी आनंद जी जैसे दिग्गज संगीत निर्देशक शामिल थे, और उन्होंने यह भी तय किया था कि जो भी विजेता गायक होगा, उसे वे अपनी फिल्म में गाने का मौका देंगे। महेंद्र कपूर के सितारे बुलंद निकले, वे अपने गुरु के आशीर्वाद से प्रतियोगिता में विजयी भी हुए और उन्हें नवरंग, सोहनी महिवाल, बहारें फिर भी आएंगी और उपकार जैसी फिल्मों में अपनी गायकी का डंका बजाने का अवसर भी मिला।।

महेंद्र कपूर साहब की आवाज रफी साहब से इतनी मिलती थी, कि फिल्म सोहनी महिवाल के गीत में तो श्रोताओं को भ्रम हो गया कि कहीं यह रफी साहब की आवाज तो नहीं। यह हमारे संगीतकारों का ही कमाल होता है जो हीरे को तराशना जानते हैं। कपूर साहब ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

गुरु शिष्य संबंध एक नितांत व्यक्तिगत मामला है लेकिन यकीन नहीं होता कि एक पेशेवर कलाकार कैसे अपने शिष्य के साथ सिर्फ इसलिए नहीं गाता कि न केवल उनका संबंध गुरु शिष्य का है, अपितु उनकी आवाज भी आपस में मिलती है।।

और कमाल देखिए, वाकई रफी साहब और महेंद्र कपूर ने साथ में कोई युगल गीत नहीं गाया केवल एक दो अपवाद को छोड़कर।

सभी जानते हैं बी आर चोपड़ा और मनोज कुमार के पसंदीदा गायक महेंद्र कपूर ही थे। ओ पी नय्यर जब रफी साहब से खफा हुए, तो रफी साहब के चेले महेंद्र कपूर ही काम आए।

होता है, जब रफी लता की अनबन होती है तो सुमन कल्याणपुर की बन आती है।

रफी साहब के विकल्प महेंद्र कपूर ही तो थे। वे रफी साहब की आवाज ही नहीं, आत्मा भी थे। जब भी रफी साहब का व्यस्त शेड्यूल होता, संगीतकार महेंद्र कपूर साहब की ओर रुख करते, और रफी साहब ही की तरह विनम्र और खुशमिजाज और वही गायकी का अंदाज, उनके गीतों में भी नजर आता।।

कितने खुशनसीब थे महेंद्र कपूर कि उनको रवि जैसा संगीतकार मिला जिसने साहिर लुधियानवी के गीतों को इतनी मधुर धुनों में पिरोया कि साहिर की रुह उनकी आवाज में बस गई। जब भी महेंद्र कपूर साहब के कालजयी नगमों का जिक्र होगा, साहिर का नाम उस फेहरिस्त में सबसे ऊपर होगा। आज उनकी पुण्यतिथि पर गुरु शिष्य दोनों को नमन करते हुए मधुर स्मरण ;

नीले गगन के तले

साहिर, महेंद्र कपूर और

रफी साहब का प्यार पले ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 169 ☆ बहुत तारे थे अंधेरा कब मिटा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बहुत तारे थे अंधेरा कब मिटा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 169 ☆

बहुत तारे थे अंधेरा कब मिटा… ☆

अक्सर देखने में आता है, जिसके साथ हमारे वैचारिक मतभेद हों उससे मित्रता तो बनी रहती है, परन्तु जो मृदुभाषी व सकारात्मक चिंतक हो उससे कटुता की स्थिति निर्मित होती है। कारण स्पष्ट है उम्मीद और विश्वास जब भी टूटेगा तो बिखराव अवश्य होगा।

बिना टूट-फूट कुछ  सृजन हो ही नहीं सकता अतः किसी भी  घटनाक्रम से आहत होने की बजाय ये सीखें कि कैसे बिना विचलित हुए  सब कुछ सहजता से स्वीकार किया जाए।परिश्रमी व्यक्ति  किसी की कृपा का मोहताज नहीं होता वह तो  लक्ष्य की ओर अग्रसर रहता है।जब सब कुछ खो दिया हो तो ये माने  कि अब पाने की शुरुआत हो चुकी है।

सफ़लता की पहली सीढ़ी असफलता ही है, जैसे ही परिणाम आशानुरूप नहीं होता, हम तुरन्त चिन्तन शुरू कर देते हैं कि कहाँ कमी रह गयी  और फिर पूरे मनोयोग से जुट जाते हैं नए सिरे से कार्य करने हेतु।

ऐसे समय में जो धैर्य के साथ , बिना अधीर हुए कार्य करते हैं वे अपनी मंजिल को शीघ्रता से हासिल कर  दूसरों के लिए प्रेरक बन कर नयी मिसाल कायम कर  अपनी पहचान बना लेते हैं।इसी से जुड़ा एक घटनाक्रम है, संस्था की वार्षिक मीटिंग हो रही थी, सभी विशिष्ट सदस्य  सज- धज कर उपस्थित हुए।वार्षिक कार्यों का मूल्यांकन ही  मुख्य उद्देश्य था  परन्तु वहाँ तो अपनी ढफली अपना  राग छिड़ गया , सब अपने – अपने बिंदु पर बातें करने लगे तभी अध्यक्ष महोदय ने आँखे दिखाते हुए विनम्र भाषा में कहा आप लोग विषय परिवर्तन न करें  जिस हेतु हम यहाँ  एकत्र हुए हैं उस पर चर्चा हो , आगे की कार्य योजना तय   हो व गत वर्ष कहाँ गलतियाँ हुयी हैं उन पर भी आप अपने विचार रखें ।

सभी डायरेक्टर एक दूसरे को देखते हुए मुस्कुरा दिए और बोले-  लगता है पहली बार इस तरह  की मीटिंग में अध्यक्ष बनें हैं  आप …?

ये सब तो चोचले बाजी है सच  तो ये है कि आप कार्यकर्ताओं को डाटिये- फटकारिये वही सब आपके प्रश्नों के उत्तर देंगे हम लोग  तो केवल सभा की शोभा बढ़ाते हैं।हमारी उपस्थिति ही मीटिंग की जान है बस इतना समझ लीजिए।

दोपहर दो बजे ईटिंग फिर दूसरे   सत्र की मीटिंग और  चाय की चुस्कियों के बीच समापन।पुनः अगले वर्ष  और  मेहनत करें ये समझाइश आपको दी जायेगी  बस इतना  ही ।सच्चाई यही है कि धैर्य के साथ कार्यों को करने की कला आने चाहिए।

जो भी कार्य आप करते हैं उसे बीच में कभी नहीं रोके,  कुछ पलों के लिए भले ही मन व्यथित हो पर लक्ष्य सदैव आँखों के सामने हो, उससे मुँह न मोड़ें , जिसने भी सच्चा प्रयास किया है वो शुरुआत में अकेला ही चला है धीरे- धीरे लोग उसके टीम में शामिल होते गए और अन्ततः वो लीडर बन कर उभरा।

हर समस्या अपने साथ समाधान लेकर आती है , बस आपको पारखी नज़र से अवलोकन कर उसे  ढूढ़ना है। जब मन परेशान हो, एक तरफ कुआं दूसरे तरफ खाई हो तभी व्यक्ति की योग्यता व निर्णय शक्ति का पता चलता है।

अतः सच्चे मन से प्रयास करें ,ईश्वर सदैव उनका साथ देता है जो कुछ भी करना चाहते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 168 ⇒ विवेक के पन्ने… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विवेक के पन्ने”।)

?अभी अभी # 168 ⇒ विवेक के पन्ने? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ज़िन्दगी एक डायरी है, जिसे आप चाहे लिखें, न लिखें ! कुछ पन्ने विधाता लिखता है,  कुछ हमारे द्वारा लिखे जाते हैं। फिर भी कुछ पन्ने कोरे ही रह जाते हैं। मेरी डायरी में भी एक पन्ना विवेक का है,  जिस पर आज तक कुछ नहीं लिखा गया। कभी तो श्रीगणेश करना ही है ! सोचा, आज से ही क्यों न कर दूँ।

बुद्धि और ज्ञान के प्रदाता, ऐसा कहा जाता है,  मंगलमूर्ति श्रीगणेश हैं ! विवेक के बारे में जब बात करो,  तो लोग विवेकानंद तक चले जाते हैं। जब किसी बुद्धिमान को समझा-समझाकर हार जाते हैं, तो मज़बूरन कहना पड़ता है, भाई !अपने विवेक से काम लो। ।

ऐसा कहा जाता है,  बुद्धि का संबंध मन से है, और विवेक का अन्तर्मन से ! मन से तो हमेशा यही शिकायत रहती है,  कि वह मनमानी करता है। इसीलिए कभी भी किसी बुद्धिमान व्यक्ति की मति फिर सकती है। विवेक का मामला थोड़ा अलग है। उस पर मन का नहीं अन्तर्मन का अंकुश जो है।

कभी कभी इंसान का विवेक भी काम नहीं आता। एक सज्जन किसी ज्ञानी के प्रवचन सुन घर लौटे ! ज्ञानी पुरुष की एक बात उन्होंने गाँठ बाँध ली थी ! हर काम विवेक से पूछकर किया करो अब तक वे स्वावलंबी थे। अपना काम स्वयं करते थे।

अब वे सारा काम विवेक से पूछकर करने लगे। विवेक पर भरोसा किया,  और धोखा खाया,  क्योंकि विवेक तो उनके लड़के का ही नाम था। ।

बुद्धि और मन से परे प्रज्ञा का निवास है और विवेक उसकी रखवाली करता है। काम, क्रोध,  लोभ,  मोह,  और मत्सर का अन्तर्मन में प्रवेश वर्जित है। वैसे भी इनका कार्य-क्षेत्र मन तक ही सीमित है। केवल संयम ही हमें विवेक का मार्ग दिखला सकता है। और बिना मन को बस में किये संयम भी हाथ नहीं आता। योगानुशासन की यम-नियम ही बुनियाद हैं। हाथ-पाँव को तोड़ना-मरोड़ना कोई योग नहीं।

विवेक का पन्ना अति-वृहद है ! लेकिन यह स्थूल ज्ञान के शब्दों में नहीं समेटा जा सकता। जितना सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हम होते जाएँगे, विवेक के पन्ने अपने आप खुलते जाएँगे। आइए,  मन से पार चलें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 85 – प्रमोशन… भाग –3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की अगली कड़ी।

☆ आलेख # 85 – प्रमोशन… भाग –3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बैंक की इस शाखा के उस दौर के स्टाफ में मुख्यतः अधिकारी वर्ग और अवार्ड स्टाफ में क्रिकेट का शौक उसी तरह के अनुपात था जैसा आम तौर पर पाया जाता है, याने खेलने वाले कम और सुनने वाले ज्यादा. देखने वाले बिल्कुल भी नहीं थे क्योंकि मैच और खिलाड़ियों के दर्शन, दूरदर्शन सेवा न होने से, उपलब्ध नहीं थे. ये वो दौर था जब 1983 में विश्वकप इंग्लैंड की जमीं पर खेला जा रहा था और तत्कालीन मीडिया का यह मानना था कि भारत की टीम पिछले दो विश्व कप के समान ही उसमें सिर्फ खेलने के लिए भाग ले रही थी जबकि उस दौर की सबसे सशक्त क्रिकेट टीम “वेस्टइंडीज” विश्वकप पाने के प्रबल आत्मविश्वास के साथ इंग्लैंड आई थी. पर 23 जून 1983 की रात को हुआ वो, जिसने कपिलदेव के जांबाजों की इस टीम को विश्वकप से नवाज दिया. पूरा देश इस अकल्पनीय विजय से झूम उठा और क्रिकेट का ज़ुनून न केवल देश में बल्कि बैंक पर भी छा गया. वो जो रस्मीतौर पर सिर्फ स्कोर पूछकर क्रिकेट प्रेमी होने का फर्ज निभा लेते थे, अब क्रिकेट की बारीकियों पर और खिलाड़ियों पर होती चर्चा में रस लेने लगे. कपिलदेव और मोहिंदर नाथ के दीवानों और गावस्कर के स्थायी प्रशंसकों में पिछले रिकार्ड्स और तुलनात्मक बातें, बैंक की दिनचर्या का अंग बन गईं. और ऐसी चर्चाओं का अंत हमेशा खुशनुमा माहौल में तरोताज़ा करने वाली चाय के साथ ही होता था. कभी ये बैंक वाली चाय होती तो कभी बाहर के टपरे नुमा होटल की. ये टपरेनुमा होटल वो होते हैं जहाँ बैठने की व्यवस्था तो बस कामचलाऊ होती है पर चाय कड़क और चर्चाएं झन्नाटेदार और दिलचस्प होती हैं. क्रिकेट के अलावा चर्चा के विषय उस वक्त के करेंट टॉपिक भी हुआ करते थे पर उस समय राजनीति और राजनेता इतने बड़े नहीं हुए थे कि दिनरात उनपर ही बातें करके टाइम खोटा किया जाये. सारे लोग उस समय जाति और धर्म को घर में परिवार के भरोसे छोड़कर बैंक में निष्ठा के साथ काम करने और अपनी अपनी हॉबियों के साथ क्वालिटी टाईम बिताने आते थे. इन हॉबीज में ही कैरम, टेबलटेनिस, शतरंज और करेंट अफेयर्स पर बहुत ज्ञानवर्धक चर्चाएं हुआ करती थीं. क्रिकेट के अलावा ऑपरेशन ब्लूस्टार भी उस दौर की महत्वपूर्ण घटना थी और बीबीसी के माध्यम से इसके अपडेट्स कांट्रीब्यूट करने में प्रतियोगिता चलती थी. यहाँ पर, वो जो चेक पोस्ट करते थे याने एकाउंट्स सेक्शन और वो जो चैक पास करते थे (अधिकारी गण)और वो भी जो इन चैक्स का नकद भुगतान करते थे याने केश डिपार्टमेंट, सब एक साथ या कुछ समूहों में इन परिचर्चाओं का आनंद लिया करते थे. एक टीम थी जिसमें लोग अपने रोल के दायरे से ऊपर उठकर, मनोरंजन नामक मजेदार टाइमपास रस में डूब जाते थे. ऐसी शाखाओं में काम करना, एक और परिवार के साथ दिन बिताने जैसा लगता था हालांकि दोनों की भूमिका और जिम्मेदारियों में फर्क था जो कि स्वाभाविक ही था.

इस शाखा में दिन और रात के हिसाब से परे सिक्युरिटी गार्ड भी थे जो अपनी तयशुदा भूमिका निभाने के अलावा भी बहुत सारी जानकारियों के मालिक थे, वाट्सएपीय ज्ञान इन्हीं की प्रेरणा से अविष्कृत और परिभाषित हुआ. इनमें कुछ अच्छे थे तो कुछ बहुत अच्छे. अब जैसा कि होता है कि बहुत अच्छों की कसौटी पर प्रबंधन को भी कसौटी पर परखे जाने के लिए चौकस या तैयार होना पड़ता है तो वैसा हिसाब हर जगह की तरह यहाँ भी था. ऐसा भी था कि प्रबंधन के अलावा ये यूनियन का भी काम बढ़ाने वाले होते थे. ये लोकल सेक्रेटरी का बहुत टाईम खाया करते थे.

ये शाखा, सामने वाली शाखा और सेठ जी की गद्दी का कारोबार सब बहुत मजे से आनंदपूर्वक चल रहा था. लड्डुओं की मिठास यदाकदा समयानुकूल और विभिन्न कारणों के साथ मिलती रहती थी. पर बैंक को और ऊपरवाले को ये आनंद एक लिमिट से ऊपर मंजूर नहीं हुआ और उन्होंने चेक पोस्ट करने वालों Accounts वालों और उन चैक्स का भुगतान करने वालों Cash वालों की पदोन्नति की प्रक्रिया प्रारंभ करने का निर्णय ले लिया. प्रमोशन का सर्कुलर आने पर क्या हुआ इसका मनोरंजक संस्मरण अगले एपीसोड में. कृपया इंतजार करें. प्रमोशन टेस्ट अगर मौलिक और मनोरंजक रचनाओं पर कमेंट्स करने पर आधारित होता तो आप में से 80% तो कभी पास ही नहीं हो पाते. 😃😃😃

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 167 ⇒ चीज़ सैंडविच… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चीज़ सैंडविच “।)

?अभी अभी # 167 ⇒ चीज़ सैंडविच? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जी हां ! आज हमें सैंडविच की नहीं,सैंड विच जो चीज़ है,उसकी चर्चा करनी है। वैसे चीज़ हो, अथवा सैंडविच,दोनों के बारे में आज की पीढ़ी की राय शायद यही हो, तू चीज बड़ी है मस्त मस्त।

चीज़ का एक जोड़ीदार भी है,जिसे पनीर कहते हैं। पनीर के बारे में इतनी ही जानकारी पर्याप्त है, कि जब भी कभी घर में दूध फट जाता था, मां झट से उसका पनीर बना लेती थी। ।

हमारा बचपन कभी ब्रेड बटर से बाहर ही नहीं आया। तब हमने सांची और अमूल का तो नाम भी नहीं सुना था। एक जोशी दूध दही भंडार था,जहां से दूध, दही और घी आ जाता था। कृष्णपुरे पर एक भावे की डेयरी थी,जहां दूध दही और घी के अलावा क्रीम, पनीर और चक्का भी मिलता था। पनीर का हमारे घर में प्रवेश वर्जित था, हां सक्रांति पर श्रीखंड के लिए चक्का ज़रूर लाया जाता था।

पनीर का स्वाद हमने कॉलेज में जाने के बाद,सरवटे बस स्टैंड के सामने जनता और स्टैंडर्ड होटल में,पहली बार मटर पनीर खाते वक्त चखा। हरे हरे पालक की ग्रेवी में तैरता हुआ पनीर भी पहली बार ही देखा। ।

घर में तो अक्सर हम दाल रोटी खाकर ही प्रभु का गुण गाया करते थे। एक बार अप्सरा होटल में काजू कढ़ी क्या खाई, यकीन मानिए,सब्जी में काजू को तैरती देख,हमें आश्चर्य भी हुआ,और बिना प्यास के,मुंह में पानी भी आ गया। घर जाकर बड़े उत्साहपूर्वक मां को बताया। मां शांत रही,बस इतना ही बोली,कल सौ ग्राम काजू और थोड़ी खसखस ले आना,घर पर ही बना दूंगी।

तब तक पनीर के साथ चीज़ के जलवे भी कम चर्चा में नहीं थे। लेकिन हमें चीज़ में आज भी वह खूबी नजर नहीं आई,जो घी और मक्खन में है। पनीर भी आप हफ्ते में एक दो बार खा लो,तो ठीक,लेकिन पनीर को ही हर जगह ओढ़ना और बिछाना,हमें बिल्कुल पसंद नहीं। ।

आज की धारणा यह है कि घी और मक्खन की तुलना में चीज़ और पनीर अधिक स्वास्थ्यवर्धक हैं और इनमें अपेक्षाकृत फैट भी कम होता है। लेकिन स्ट्रीट फूड की हालत यह है कि मक्खन,पनीर और चीज़ की जुगलबंदी के बिना स्वाद का तड़का ही नहीं लगता।

पिज़्ज़ा हो या बर्गर,सैंडविच हो या चिली पनीर,अगर उस पर ढेर सारा चीज़ और पनीर किसकर डाले बिना तो उसका ड्रेसिंग पूरा ही नहीं होता। मक्खन, चीज़ और पनीर में डूबी डिश जब पेट में जाती होगी,तो अपना कमाल तो बताती ही होगी। ।

आज चीज़ से याद आया,जब हम छोटे थे,और रोते रोते पूरा घर सिर पर उठा लेते थे, तो हमारी बड़ी बहन(जो खुद,तब बहुत छोटी थी) हमें गोद में टांगकर बहलाने बज्जी,याने बाजार ले जाती थी और हमें कुछ चिज्जी यानी चीज दिलाती थी,क्या होती थी,वह चीज,आज की भाषा में आप चाहें तो उसे लॉलीपॉप कह सकते हैं,गोली बिस्किट, जो भी मिल जाए,बालहठ पूरा हो जाता था।

आज हठात् इस चीज़ के जिक्र पर वह चीज भी याद आ गई। बचपन की चीज हो अथवा आज की सजी धजी,गार्निश्ड चीज़ सैंडविच,एक बात तो माननी ही पड़ेगी, जब मुंह में पानी आता है,तो अनायास मुंह से निकल ही जाता है, तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 166 ⇒ दिल की नज़र से… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दिल की नज़र से।)

?अभी अभी # 166 ⇒ दिल की नज़र से? श्री प्रदीप शर्मा  ?

दिल तो हम सबका एक ही है, लेकिन अफसाने हजार !

आँखें तो सिर्फ दो ही हैं, लेकिन ये नज़र कहां नहीं जाती। आपने सुना नहीं, जाइए आप कहां जाएंगे, ये नजर लौट के फिर आएगी। आँखों का काम देखना है, और दिल का काम धड़कना। आँखों में जब नींद भर जाती हैं, वे देखना बंद कर देती हैं, और इंसान बंद आंखों से ही सपने देखना शुरू कर देता है, लेकिन बेचारे दिल को, चैन कहां आराम कहां, उसे तो हर पल, धक धक, धड़कना ही है।

ऐसा क्या है इस दिल में, और इन आँखों में, कि जब मरीज किसी डॉक्टर के पास जाता है, तो वह पहले कलाई थाम लेता है और बाद में उसके यंत्र से दिल की धड़कन भी जांच परख लेता है। और उसके बाद नंबर आता है, आंखों का। आंखों में नींद और ख्वाब के अलावा भी बहुत कुछ होता है। बुखार में आँखें जल सकती हैं, आँखों में कंजक्टिवाइटिस भी हो सकता है। शुभ शुभ बोलें। ।

दिल जिसे चाहता है, उसे अपनी आंखों में बसा लेता है, और फिर शिकायत करता है, मेरी आंखों में बस गया कोई रे, हाय मैं क्या करूं। अक्सर दिल के टूटने की शिकायत आती है, और दिल के घायल होने की भी। जब कोई नजरों के तीर कस कस कर मारेगा, तो दिल को घायल तो होना ही है।

ईश्वर ने हमारा हृदय बड़ा विशाल बनाया है शायद इसीलिए कुछ लोग दरियादिल होते हैं। आप दिल में चाहें तो एक मूरत बिठा लें, और अगर यह दिल पसीज जाए तो दुनिया के सभी दुख दर्द इसमें समा जाएं। ।

हमारी आंखों ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेलीं ! बसो मेरे नयनन में नंदलाल ! मोहिनी मूरत, सांवरी सूरत, नैना बने बिसाल। किसी को आंखों में बसाने के लिए पहले आंखों को बंद करना होता है। बाहरी नजर तो खैर कमाल करती ही है, एक अंतर्दृष्टि भी होती है, जो नेत्रहीन, लेकिन प्रज्ञाचक्षु भक्त सूरदास के पास मौजूद थी। कितना विशाल है हमारी अंतर्दृष्टि का संसार।

लेकिन इस जगत के नजारे भी कम आकर्षक नहीं ! नजरों ने प्यार भेजा, दिल ने सलाम भेजा और नौबत यहां तक आ गई कि ;

मुझे दिल में बंद कर दो

दरिया में फेंक दो चाबी।

यह कुछ ज्यादा नहीं हो गया। लेकिन यह तो कुछ भी नहीं, और देखिए ;

आँखों से जो उतरी है दिल में

तस्वीर है एक अन्जाने की।

खुद ढूंढ रही है शमा जिसे

क्या बात है उस परवाने की। ।

जरूर आँखों और दिल के बीच कोई हॉटलाइन है।

ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कोई चीज आपको पसंद आए, और उसके लिए आपका मन ना ललचाए। ये दिल का शब्द भंडार भी कम नहीं। जी, कहें, जिया कहें अथवा जिगर कहें। आपने सुना नहीं, नजर के सामने, जिगर के पास।

नज़ारे हम आँखों से देखते हैं, और खुश यह दिल होता है। गौर फरमाइए ;

समा है सुहाना, सुहाना

नशे में जहां है।

किसी को किसी की

खबर ही कहां है।

………..

नजर बोलती है

दिल बेजुबां है। ।

आजकल हम दिल की बात किसी को नहीं कहते। आप भी शायद हमसे असहमत हों, लेकिन नजर वो, जो दुश्मन पे भी मेहरबां हो। जिन आंखों में दर्द नहीं, दिल में रहम नहीं, तो हम क्यों बातें करें रहमत की, इंसानियत की।

शैलेंद्र ने सच ही कहा है ;

दिल की नजर से

नजरों के दिल से

ये बात क्या है

ये राज़ क्या है

कोई हमें बता दे। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 53 – देश-परदेश – बची हुई दवाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 53 ☆ देश-परदेश – बची हुई दवाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हम सब अपने आप को स्वास्थ्य रखने के लिए नाना प्रकार की दवाओं का सेवन करते हैं। समय समय पर अस्वस्थ होने पर अंग्रेजी दवाओं का प्रयोग अब दैनिक जीवन का एक भाग हो चुका है। अनेक बार डॉक्टर बदलने या दवा को बदल देने से बहुत सारी दवाइयां शेष रह जाती हैं। प्रायः सभी के घर में बची हुई या शेष रह गई दवाइयों का स्टॉक पड़ा रह जाता है। कुछ समय के अंतराल पर वो निश्चित समयपार हो जाने के कारण अनुपयोगी हो जाती हैं।

इस प्रकार की दवाइयां निज़ी धन की हानि करती है, साथ ही साथ इसको राष्टीय क्षति भी कहा जा सकता है।

एक तरफ आर्थिक रूप से कमज़ोर लोग दवा को खरीदने में असमर्थ होते हुए ना सिर्फ शारीरिक कष्ट उठाते है, वरना अनेक बार जीवन से भी मुक्त हो जाते हैं।

ये कैसी विडंबना है, एक तरफ दवा बेकार हो रही है, दूसरी तरफ बिना दवा की जिंदगी खोई जा रही है। कुछ शहरों में इन बची हुई दवाओं को जरूरतमंद लोगों के उपयोग की व्यवस्था होती हैं, परंतु जानकारी के अभाव में बहुत सारी दवाइयां अनुपयोगी हो जाती हैं। यदि आपके पास किसी भी संस्था के बारे में पुख्ता जानकारी हो तो समूह में सांझा कर देवें, ताकि उसका सदुपयोग हो सकें।

जब परिवार के किसी सदस्य की बीमारी से मृत्यु हो जाती है, उस समय तो बची हुई बहुत सारी दवाएं अनुपयोगी हो जाती हैं।

हम में से अधिकांश साथी सेवानिवृत हैं, कुछ समय इस प्रकार की गतिविधियों को देकर, समाज के आर्थिक रूप से कमज़ोर व्यक्तियों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए  कर सकते हैं।

आप सभी से आग्रह है, की इस बाबत अपने विचार और सुझाव सांझा करें ताकि उनका प्रभावी उपयोग हो सकें।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 165 ⇒ कार निषेध दिवस… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कार निषेध दिवस”।)

?अभी अभी # 165 ⇒ कार निषेध दिवस? श्री प्रदीप शर्मा  ?

NO CAR DAY •

आज हमारी स्थिति ऐसी हो गई है कि हम एक दिन बिना प्यार के तो रह सकते हैं, लेकिन बिना कार के नहीं रह सकते। एक समय था जब पैसा या प्यार जैसी फिल्में बनती थी, आज अगर कार और प्यार में से किसी एक को चुनना पड़े, तो इंसान को दस बार सोचना पड़ेगा। हमने तो आजकल, दे दे प्यार दे की तर्ज पर, लोगों को आपस में, दे दे कार दे, कार दे, कार दे, कार दे कहते हुए, कार मांगते भी देखा है।

ट्रैफिक जाम और प्रदूषण का हाल ये देखा कि, एक दिन के लिए कार छोड़ दी मैने। एक समय था, जब हर तरफ आदमी ही आदमी नजर आता था, और आज यह नौबत आ गई कि हर तरफ कार ही कार। हर चौराहे पर बत्तियां बदलती रहती हैं और ट्रैफिक केंचुए की तरह रेंगता रहता हैं। चारों ओर से हॉर्न की कर्कश आवाज यही दर्शाती है कि हमने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है।।

अंततोगत्वा, ये तो होना ही था ! नो व्हीकल जोन की तरह आप इसे नो व्हीकल डे भी कह सकते हैं। लेकिन वाहन बिन सब सून ! बड़ी ज्यादती हो जाती है। वाहन में तो दो पहिया, तीन पहिया, सिटी बस, स्कूल बस, सभी आते हैं। चलिए, इसे कार तक ही सीमित करते हैं। एक दिन बिना कार का। अब आपको, नो कार डे, से ही समझौता करना पड़ेगा। इसके हिंदी में अनुवाद के चक्कर में मत पड़िए, इंडिया भारत हो गया, यही क्या कम है।

आज की स्थिति में आखिर कार क्यूं, जैसा प्रश्न पूछना ही बेमानी है। जो अपने परिवार से करे प्यार, वो कार से कैसे करे इंकार। जब हम दो थे, तो आराम से, आसानी से वेस्पा, लैंब्रेटा, राजदूत और हीरो होंडा मोटर साइकिल से काम चला लेते थे। हमने भी देखे हैं, चल मेरी लूना के दिन।।

फिर हम दो से, हमारे दो हुए। पहिए भी दो से चार हुए। बाल बच्चों वाला घर, कार का क्या, बेचारी घर के बाहर ही सो जाती है रात को। ठंड, गर्मी, बरसात, कोई शिकायत नहीं, बस सुबह कपड़ा मार दो, चमक जाती है। इंसान होती तो चाय पानी करवा देते, पर उसकी खुराक तो डीजल पेट्रोल है। सबको पेट काट काटकर पालना पड़ता है।

क्या जिनके पास कार नहीं, उनका परिवार नहीं, या वे बेकार हैं। अपनी अपनी हैसियत है, जरूरत है, मेहनत करते हैं, पसीना बहाते हैं, हर महीने कार की किश्त चुकाते हैं, तब कार का शौक पालते हैं।

अपना अपना नसीब है। आप क्यों हमसे जलते हैं।।

नो कार डे को आप बेकार डे नहीं कह सकते। हफ्ते पंद्रह दिन में, कुछ लोग उपवास रखते हैं, अन्न की जगह कुछ और खा लेते हैं। एक पंथ दो काज ! थोड़ा धरम करम, थोड़ा व्रत उपवास, पिज़्ज़ा बर्गर पास्ता की छुट्टी। क्या कहते हैं उसे, संयम। कुछ लोगों से तो कंट्रोल ही नहीं होता।

महीने पंद्रह दिन में अगर कार से भी परहेज किया जाए तो कोई बुरा नहीं।

अन्य साधन उपलब्ध तो हैं ही। बस अगर सामूहिक इच्छा शक्ति हो, तो हमारी बहुत ही समस्याओं का निदान तो हम ही कर लें।

जिस तरह बूंद बूंद से घड़ा भरता है, आपके एक दिन कार नहीं चलाने से भी बहुत फर्क पड़ सकता है।

बिना कार कहें, बहिष्कार कहें, आप चाहें तो इसे नो कार डे भी कहें, सब चलता है।।

बढ़ती कारों की संख्या आप रोक नहीं सकते। नए वाहनों के क्रय पर भी आप बंदिश भी नहीं लगा सकते। गैरेज का पता नहीं, कार सड़कों पर रखी जा रही हैं। कार पार्किंग की समस्या भी आज की सबसे बड़ी समस्या है।

जहां सामान खरीदना है, वहीं कार खड़ी कर दी। दो कदम पैदल चल नहीं सकते। पूरी सड़कें गलत पार्किंग से भरी रहती हैं, ट्रैफिक तो बाधित होता ही है। प्रशासन चालान काट काट कर हार गया। भगवान भरोसे शहर की ट्रैफिक व्यवस्था है। फिर भी हम खुश हैं, क्योंकि हमारे पास तो कोई कार ही नहीं है।

एवरी डे इज अ, नो कार डे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

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मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 211 – अपरंपार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 211 अपरंपार ?

स्थानीय बस अड्डे के पास सड़क पार करने के लिए खड़ा हूँ। भीड़-भाड़ है। शेअर ऑटो रिक्शावाले पास के उपनगरों, कस्बों, बस्तियों, सोसायटियों के नाम लेकर आवाज़ लगा रहे हैं, अलां स्थान, फलां स्थान, यह नगर, वह नगर। हाईवे या सर्विस रोड, टूटा फुटपाथ या जॉगर्स पार्क। हर आते-जाते से पूछते हैं, हर ठहरे हुए से भी पूछते हैं। जो आगंतुक जहाँ जाना चाहता  है, उस स्थान का नाम सुनकर स्वीकारोक्ति में सिर हिलाता हुआ शेअर ऑटो में स्थान पा जाता है। सवारियाँ भरने के बाद रिक्शा छूट निकलता है।

छूट निकले रिक्शा के साथ चिंतन भी दस्तक देने लगता है। सोचता हूँ कैसे भाग्यवान, कितने दिशावान हैं ये लोग ! कोई आवाज़ देकर पूछता है कि कहाँ उतरना है और सामनेवाला अपना गंतव्य बता देता है। जीवन से मृत्यु और मृत्यु उपरांत  की यात्रा में भी जिसने गंतव्य को जान लिया, गंतव्य को पहचान लिया, समझ लिया कि उसे कहाँ उतरना है, उससे बड़ा द्रष्टा और कौन होगा?

एक मैं हूँ जो इसी सड़क के इर्द-गिर्द, इसी भीड़-भड़क्के में रोज़ाना अविराम भटकता हूँ। न यह पता कि आया कहाँ से हूँ, न यह पता कि जाना कहाँ है। अपनी पहचान पर मौन हूँ, पता ही नहीं कि मैं कौन हूँ।

सृष्टि में हरेक की भूमिका है। मनुष्य देह पानेवाले जीव की गति मनुष्य के संग से ही संभव है। यह संग ही सत्संग कहलाता है।

दिव्य सत्संग है पथिक और नाविक का। आवागमन से मुक्ति दिलानेवाले साक्षात प्रभु श्रीराम, नदी पार उतरने के लिए केवट का निहोरा कर रहे हैं। अनन्य दृश्यावली है त्रिलोकी के स्वामी की, अद्भुत शब्दावली है गोस्वामी जी की।

जासु नाम सुमरित एक बारा।उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।।

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।

केवट का अड़ जाना, पार कराने के लिए शर्त रखने का  आनंद भी अपार है।

मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।।

चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कुछ अहई।।

सोचता हूँ, केवट को श्रीराम मिले जिनकी चरणरज में मनुष्य करने की जड़ी-बूटी थी। मुझ अकिंचन को कोई केवट मिले जो श्वास भरती इस देह को मानुष कर सके।

तभी एक स्वर टोकता है, “उस पार जाना है?” कहना चाहता हूँ, “हाँ, भवसागर पार करना है। करा दे भैया…!”

पार जाने की सुध बनी रहे, यही अपरंपार संसार का सार है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी मंगलवार दि. 19 सितंबर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार गुरुवार 28 सितंबर तक चलेगी। 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः🕉️

💥 साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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