हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 83 ⇒ जोरू का भाई… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जोरू का भाई।)  

? अभी अभी # 83 ⇒ जोरू का भाई? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या यह शीर्षक आपको आपत्तिजनक लगता है, लेकिन सन् १९५५ में चेतन आनंद ने बलराज साहनी और विजय आनंद को लेकर इसी नाम से एक हास्य फिल्म बनाई, जिसमें जॉनी वॉकर भी थे, और संगीतकार जयदेव का कर्णप्रिय संगीत भी था। याद कीजिए, देवानंद की अगली फिल्म हम दोनों, (१९६१), जिसमें साहिर के गीत और जयदेव का ही मधुर संगीत था। लेकिन जयदेव और देवानंद का यह साथ जिंदगी भर नहीं निभ पाया।

बात फिल्म के शीर्षक की हो रही थी। क्या आपको जोरू शब्द असंसदीय नहीं लगता। क्या इसकी जगह और कोई शालीन शब्द नहीं है हिंदी में। जी हां है, जोरू के भाई को आप साला भी कह सकते हैं।

लेकिन यह क्या, साला, साला शब्द मुंह से निकला नहीं कि, फिर यही कहावत अनायास मुंह से टपक पड़ती है। सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ। ।

वैसे तो साला शब्द भी कोई शालीन शब्द नहीं, लेकिन जहां एक ओर यह एक बड़ा नाजुक रिश्ता है, वहीं दूसरी ओर यह हमारा तकिया कलाम भी है। रात भर साली नींद ही नहीं आई, इधर लाईट नहीं, और उधर मच्छर ही मच्छर।

रिश्तों में थोड़ा अदब भी जरूरी होता है, आप तो साले साहब कहकर जोरू के भाई को सम्मान दे सकते हैं, लेकिन अगर साले साहब ने प्रति प्रश्न दागकर पूछ लिया, आप तो बस इतना बता दीजिए श्रीमान, जोरू का गुलाम कौन है, मैं या आप ? तो आपके पास क्या जवाब है। ।

जोरू के गुलाम से याद आया, शायद इसी नाम से भी एक फिल्म भी बनी थी, ज्यादा पुरानी नहीं, यह अंदाजन १९७२ की फिल्म है, जिसमें राजेश खन्ना और ओमप्रकाश का अभिनय है। सन् २००० में गोविंदा और ट्विंकल खन्ना की इसी नाम से एक और फिल्म आई थी, जिसमें कादर खान भी थे, और आशीष विद्यार्थी भी।

हम भी अजीब हैं। हमें रिश्तों में ही नहीं, जीवन में भी मनोरंजन भी चाहिए और गंभीरता भी। हमें फालतू मजाक भी पसंद नहीं, और फालतू रिश्ते भी हमें अच्छे नहीं लगते। लेकिन जब कोई हमारी दुखती रग दबाता है, तो हम तिलमिला जाते हैं। ।

यही तो जीवन है, थोड़ी मिठास और थोड़ी कड़वाहट ! जब हम अपनों में शामिल हो जाते हैं तो पूरी तरह अनौपचारिक हो जाते हैं, रिश्तों में घुल मिल जाते हैं और जब औपचारिक हो जाते हैं, तो बस पूछिए ही मत। वही अकड़ और तुनकमिजाजी। दीदी, आजकल जीजाजी तो खाने को दौड़ते हैं, कैसे कर लेती हो ऐसे खड़ूस इंसान को बर्दाश्त ! कल की साली भी आजकल जबान चलाने लग गई है ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 40 – देश-परदेश – व्हाट्स ऐप को कोविड ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 40 ☆ देश-परदेश – व्हाट्स ऐप को कोविड ☆ श्री राकेश कुमार ☆

25 अक्टूबर मंगलवार की दोपहरी जब व्हाट्स ऐप ने अपनी प्रणाली को लगाम लगा दी थी। पूरा विश्व सन्नाटे में आ गया था।

आरंभ में जैसे ही व्हाट्स ऐप बंद हुआ तो एक क्षण लगा हृदय की धड़कन भी बंद हो गई थी। घर के सभी विद्युत उपकरण कार्य कर रहे थे, फिर भी लाइन चेक कर ली, प्यूज भी देखा सब ठीक था।

पड़ोसी के यहां की कॉल बेल बजाई, ऐसा करने का मौका लंबे अंतराल के बाद मिला, क्योंकि हमेशा व्हाट्स ऐप से कॉल कर के ही उनका दरवाज़ा खुलता है। उनके हाथ में ग्लूकोस वाला पानी का गिलास था, कहने लगे कुछ तबीयत ठीक नहीं है बेचैनी से परेशान हैं। उनको लेकर नजदीक के एक परिचित डॉक्टर के हॉस्पिटल जाना पड़ा। वहां काफी भीड़ हो गई थी। मन में विचार आया कोई बड़ी दुर्घटना हो गई होगी। आगंतुक कक्ष में पता चला व्हाट्स ऐप बंद होने से लोगों को मितली और घबराहट हो रही हैं। लाइन में लगने के बाद काउंटर पर पता चला कि व्हाट्स ऐप से संबंधित बीमारी बीमा में कवर नहीं होती हैं। जैसा आरंभ में कॉविड भी कवर नहीं था।

पड़ोसी का इलाज़ करवा कर वापिस अपने घर आए तो पता चला श्रीमतीजी का जब व्हाट्स ऐप नही चला तो बाज़ार जाकर एक नया मोबाइल खरीद लिया की कही उनको छः माह पुराना मोबाइल खराब तो नही हो गया। बाद में वो बोली व्हाट्स ऐप को भी कोविड हो गया था, लेकिन हमको तो फट्का लगा गया।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 82 ⇒ जान बचाकर भागना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जान बचाकर भागना”।)  

? अभी अभी # 82 ⇒ जान बचाकर भागना? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जान है तो जहान है! जान किसे प्यारी नहीं होती। जब भी किसी की जान पर बन आती है तो समझदारी इसी में है, कि वह जान की बाजी लगाने के बजाय वहां से जान बचाकर भाग ले। व्यर्थ में जान से खेलने में कोई समझदारी नहीं।

सबसे पहले तो सयानों की यही सीख होती है कि इंसान को अपनी जान जोखिम में नहीं डालनी चाहिए। वैसे कौन इंसान जान बूझकर खतरे को खत के साथ पीले चावल भेजकर आमंत्रित करता है। लेकिन कभी कभी बिन बुलाए मेहमान की तरह खतरा खुद ही दस्तक दे देता है। मेहमान को भांपने की भी एक कला होती है। जो अनाड़ी होते हैं वे खतरे और मुसीबत में भेद ही नहीं कर पाते। उधर बाहर दरवाजे की घंटी बजी, और इधर तपाक से द्वार खुले। ।

एक समझदार इंसान को साधारण घंटी और खतरे की घंटी में भेद करते आना चाहिए। दरवाजे पर किसी भी दस्तक के पश्चात् कम से कम दस तक गिनती गिनना चाहिए। बस, ट्रेन और हवाई जहाज की तरह आपातकालीन परिस्थिति में घर में एक पिछला दरवाजा भी होना चाहिए।

आजकल तो घरों में भी सीसीटीवी कैमरे लगे रहते हैं, आगंतुक की फिल्म तो पहले से ही उतर जाती है।

हर इंसान की जिंदगी में खतरनाक मोड़ आते हैं।

कहीं भीड़ में तो कहीं सुनसान अकेले में अकस्मात् खतरे से सामना हो ही जाता है। जिन्हें खतरों से खेलने का शौक होता है, वे सर पर पांव रखकर, वहां से भागने के बजाय आ बैल मुझे मार की तरह आव्हान कर, अनावश्यक मुसीबत मोल ले लेते हैं। जो ज़ाबांज होते हैं वे संकट की परवाह किए बिना परिस्थिति से लोहा लेते हैं, और अपनी जान पर खेलकर कई निर्दोष लोगों की जान बचा लेते हैं। उन्हें बहादुर कहा जाता है। ।

जान पर खेलना और जान की बाजी लगाना हर इंसान को प्रेरित और रोमांचित अवश्य करता है, लेकिन उसे इतना भी खयाल रखना चाहिए कि, ये जिंदगी ना मिलेगी दोबारा। कभी कभी जंगल का राजा शेर भी सूझबूझ से काम लेता है, और खतरे को भांप, वहां से नौ दो ग्यारह हो जाता है। कमजोर पर तो सब जोर आजमाते हैं, लेकिन अगर शत्रु शक्तिशाली है तो कूटनीति से काम लिया जाता है। यह कोई इश्क का मैदान नहीं कि जान ही हथेली पर लेकर चले आए।

कहने को यह नन्हीं सी जान है, लेकिन सबको इसकी परवाह है। जब भी

कभी जान पर बन आए, तो सबसे पहले जान बचाकर वहां से भाग लें। यह मत सोचें, भागकर कहां जाएंगे, बस इतना ही सोचें, चलो अपनी जान तो छूटी। जान में जान आने का अनुभव भी केवल वही जानते हैं, जो कहीं से जान बचाकर भागकर आते हैं। ।

हमने आपने कितनी बार भागकर अपनी जान बचाई होगी, अथवा जान बचाकर भागे होंगे। कितनी बार हम व्यर्थ जान गंवाने से बचे। जरा सोचिए, आज हम एक नहीं, कितनी जिंदगियां जी रहे हैं। बूंद बूंद से घड़ा भरता है, हमने बड़े जी जान से अपनी जिंदगी बचाई है, तब ही तो हम आज शान से यह जानदार और शानदार जिंदगी जी रहे हैं। वैसे इसमें उस ऊपर वाले का शुक्रिया तो बनता ही है, क्योंकि जाको राखे साईंया, मार सके ना कोय।

जब तक जिंदा हैं, जिंदगी जीते रहें, कोशिश आगे भी यही रहे, जान को जोखिम में ना डालें, किसी बीमारी अथवा बिन बुलाई मुसीबत को न्यौता ना दें, नन्हीं सी प्यारी सी जान है आपकी, इसका हमेशा खयाल रखें। आखिर आप भी हमारी जान ही तो हैं।

मान जाइए, मान जाइए, बात मेरे दिल की जान जाइए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 196 – बिन पानी सब सून ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 196 बिन पानी सब सून ?

जल जीवन के केंद्र में है। यह कहा जाए कि जीवन पानी की परिधि तक ही सीमित है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। नाभिनाल हटाने से लेकर मृतक को स्नान कराने तक सारी प्रक्रियाओं में जल है। अर्घ्य द्वारा  जल के अर्पण से तर्पण तक जल है। इतिहास साक्षी है कि पानी के अतिरिक्त अन्य किसी तत्व की उपलब्धता देखकर मानव ने बस्तियाँ नहीं बसाईं। पानी के स्रोत के इर्द-गिर्द नगर और महानगर बसे। प्रायः हर शहर में एकाध नदी, झील या प्राकृतिक जल संग्रह की उपस्थिति इस सत्य को शाश्वत बनाती है। भोजन ग्रहण करने से लेकर विसर्जन तक जल साथ है। यह सर्वव्यापकता उसे सोलह संस्कारों में अनिवार्य रूप से उपस्थित कराती है।  

जल प्राण का संचारी है। जल होगा तो धरती सिरजेगी। उसकी कोख में पड़ा बीज पल्लवित होगा। जल होगा तो धरती  शस्य-श्यामला होगी। जीवन की उत्पत्ति के विभिन्न धार्मिक सिद्धांत मानते हैं कि धरती की शस्य श्यामलता के समुचित उपभोग के लिए विधाता ने जीव सृष्टि को जना। विज्ञान अपनी सारी शक्ति से अन्य ग्रहों पर जल का अस्तित्व तलाशने में जुटा है। चूँकि किसी अन्य ग्रह पर जल उपलब्ध होने के पुख्ता प्रमाण अब नहीं मिले हैं, अतः वहाँ जीवन की संभावना नहीं है।  सुभाषितकारों ने भी जल को  पृथ्वी के त्रिरत्नों में से एक माना है-

पृथिव्याम्‌ त्रीनि रत्नानि जलमन्नम्‌ सुभाषितम्‌।

मनुष्य को ज्ञात चराचर में जल की सर्वव्यापकता तो विज्ञान सिद्ध है। वह ऐसा पदार्थ है जो ठोस, तरल और वाष्प तीनों रूपों में है। वह जल, थल और नभ तीनों में है। वह ब्रह्मांड के तीनों घटकों का समन्वयक है। वह “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते  ‘का प्रमाणित संस्करण है। हिम से जल होना, जल से वायु होना और वायु का पुनः जल होकर हिम होना, प्रकृति के चक्र का सबसे सरल और खुली आँखों से दिखने वाला उदाहरण है। आत्मा की नश्वरता का आध्यात्मिक सिद्धांत हो या ऊर्जा के अक्षय रहने का वैज्ञानिक नियम, दोनों को  अंगद के पांव -सा प्रतिपादित करता-बहता रहता है जल।

भारतीय लोक जीवन में तो जल की महत्ता और सत्ता अपरंपार है। वह प्राणदायी नहीं अपितु प्राण है। वह प्रकृति के कण-कण में है। वह पानी के अभाव से निर्मित मरुस्थल में पैदा होनेवाले तरबूज के भीतर है, वह खारे सागर के किनारे लगे नारियल में मिठास का स्रोत बना बैठा है। प्रकृति के समान मनुष्य की देह में भी दो-तिहाई जल है। जल जीवन रस है। जल निराकार है। निराकार जल, चेतन तत्व की ऊर्जा  धारण करता है। जल प्रवाह है। प्रवाह चेतना को साकार करता है। जल परिस्थितियों से समरूप होने का अद्‌भुत उदाहरण है। पात्र मेंं ढलना उसका चरित्र और गुणधर्म है। वह ओस है, वह बूँद है, वह झरने में है, नदी, झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया, बावड़ी, कुएँ, कुईं  में है और वह सागर में भी है। वह धरती के भीतर है और धरती के ऊपर भी है। वह लघु है, वही प्रभु है। कहा गया है-“आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरं।’ बूँद  वाष्पीकृत होकर समुद्र से बादल में जा छिपती है। सागर बूँद को तरसता है तो बादल बरसता है और लघुता से प्रभुता का चक्र अनवरत चलता है।

दुर्भाग्य से मनुष्य की लघुता ने केवल पनघट नहीं उजाड़े, कुओं को सींचनेवाले तालाबों और छोटे-मोटे प्राकृतिक स्रोतों को भी पाट दिया। तालाबों की कोख में रेत-सीमेंट उतारकर गगनचुम्बी इमारतें खड़ी कर दीं। बाल्टी से पानी खींचने के बजाय मोटर से पानी उलीचने की प्रक्रिया ने मनुष्य की मानसिकता में भयानक अंतर ला दिया है। बूँद-बूँद सहेजनेवाला समाज आज उछाल-उछाल कर पानी का नाश कर रहा है। सब जानते हैं कि प्राकृतिक संसाधन निर्माण नहीं किए जा सकते।  प्रकृति ने उन्हें रिसाइकिल करने की प्रक्रिया बना रखी है। बहुत आवश्यक है कि हम प्रकृति से जो ले रहे हैं, वह उसे लौटाते भी रहें।

रहीम ने लिखा है-

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून,

पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।

विभिन्न संदर्भों  में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न हो सकती है किंतु पानी का यह प्रतीक जगत में जल की अनिवार्यता को प्रभावी रूप से रेखांकित करता है। पानी के बिना जीवन की कल्पना करते ही मुँह सूखने लगता है। जिसके अभाव की  कल्पना इतनी भयावह है, उसका यथार्थ कैसा होगा! यथार्थ के संदर्भ में अपनी कविता की दो पंक्तियाँ स्मरण हो आती हैं-

आदमी की आँख का जब मर जाता है पानी।

ख़तरे का निशान पार कर जाता है पानी।

आवश्यक है कि हम समय रहते चेत जाएँ ताकि आदमी की आँखें सजल रहें, प्रकृति में सदा पर्याप्त जल रहे।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 81 ⇒ ऑंसू और मुस्कान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ऑंसू और मुस्कान”।)  

? अभी अभी # 81 ⇒ ऑंसू और मुस्कान? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

सुना है चेहरे को दिल की जुबान कहते हैं। सुना तो हमने यह भी है, ये ऑंसू मेरे दिल की जुबान है। चेहरा एक ही है, जिस पर कभी ऑंसू तो कभी मुस्कान है। जीवन में रात और दिन की तरह, अंधेरे और उजाले की तरह, कभी ऑंखों में ऑंसू आ जाते हैं, तो कभी चेहरे पर मुस्कान छा जाती है। शायर लोग ऑंसुओं की हजारों किस्म बताते हैं, ऐसा लगता है, मानो वे ऑंसुओं के सौदागर हो, लेकिन जब भी मुस्कान का जिक्र होता है, तो बस, एक इंच मुस्कुराकर रह जाते हैं।

ऑंसू पर हर दुखी इंसान का कॉपीराइट है। इतना ही नहीं, खुशी में भी अगर ऑंसू आ जाए, तो भी वे ऑंसू ही कहलाते हैं। सुख दुख से परे भी कुछ लोग होते हैं, जो बस प्याज के ऑंसू बहाते हैं। ।

ऑंसू अगर परिस्थिति की देन है, तो मुस्कान कुदरत की देन है। लो एक कली मुस्काई ! एक कली की मुस्कान और एक बालक की मुस्कान, कुदरत की और ईश्वर की मिली जुली मुस्कान है। अहैतुकी कृपा की तरह ही एक कली की मुस्कान और एक बच्चे की मुस्कान का कोई हेतु नहीं होता, क्योंकि इस मुस्कान के पीछे ना तो कोई प्रयत्न होता है, और न ही कोई हेतु।

मुस्कान में ईश्वर का वास है। तस्वीर मर्यादा पुरुषोत्तम राम की हो या योगेश्वर कृष्ण की, उनके चेहरे पर शांत और सौम्य मुस्कुराहट देखी जा सकती है। मुस्कुराहट एक स्थायी भाव है, जब कि हंसना और रोना जीव की परिस्थिति पर निर्भर है। ईश्वर प्रकट रूप से कभी हंसता रोता नहीं। करुणासागर होते हुए भी वे सदा मुस्कुराने के लिए ही नियुक्त हुए हैं।।

(He is destined to smile only.)

ईश्वर भी रोता होगा, ऑंसू भी बहाता होगा, कभी कभी अपनी ही बनाई दुनिया को देख हंसता भी होगा, लेकिन यह कार्य शायद वह प्रकृति पर छोड़ देता है। ईश्वर हमसे नाराज है और प्रसन्न है। कभी छप्पर फाड़कर देता है, कभी खड़ी फसल उजाड़ देता है। लेकिन जब वरदान देता है तो उसके चेहरे पर सदा मुस्कुराहट रहती है। जो रहबर है, दयालु है, करुणासागर है, वह कभी शाप नहीं द सकता, सिर्फ अपने भक्त की परीक्षा ले सकता है।

एक शब्द है आशीर्वाद !

वह आशीर्वाद समारोह वाला आशीर्वाद नहीं। वह आशीर्वाद जिसमें व्यक्ति का कल्याण निहित हो, जो केवल बड़े बुजुर्ग और सतगुरु की मुस्कुराहट के साथ ही प्राप्त होता है। बड़ा राज होता है इस मुस्कुराहट में, क्योंकि यह साधारण नहीं दिव्य(डिवाइन) होती है। ।

झूठ मूठ के आंसू और कुटिल मुस्कुराहट होगा कलयुग का चलन और मुखौटा, हमें उससे कुछ लेना देना नहीं। असली ऑंसू कभी थमते नहीं, दुख, विरह, विछोह और पश्चाताप के ऑंसुओं को कभी रोकना नहीं चाहिए, बह देना चाहिए। कलेजे का बोझ हट जाता है, चित्त निर्मल हो जाता है।

और ऐसी ही स्थिति में जो चेहरे पर मुस्कान आती है, वह दिव्य मुस्कान होती है। कुछ चेहरे ईश्वर ने बनाए ही ऐसे हैं, जो एक फूल की तरह सदा मुस्कुराते ही रहते हैं।

काश, दुनिया के हर बच्चे बूढ़े, जवान, स्त्री पुरुष, के चेहरे पर सदा मुस्कान हो, किसी की आंख में गम, अभाव और अवसाद के आंसू ना हो। तब शायद कोई बदनसीब इस तरह शिकायत भी ना करे ;

आज सोचा,

तो ऑंसू भर आए।

मुद्दतें हो गई मुस्कुराए ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख – “हरियाणा की माटी से – गीता प्रेस, गोरखपुर का सम्मान”☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ “हरियाणा की माटी से – गीता प्रेस , गोरखपुर का सम्मान” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

सन् 1923 में जय दयाल गोयनका और घनश्याम दास जालान ने मिलकर जो पौधा गीता प्रेस, गोरखपुर के रूप में रोपा था वह पूरी एक शताब्दी से फलता फूलता जा रहा है। इसके योगदान को देखते हुए गांधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा की गयी है। हालांकि पुरस्कार की घोषणा के बाद रविवार को देर रात गीता प्रेस ट्रस्टी बोर्ड की बैठक हुई जिसमें यह आश्चर्यजनक फैसला लिया गया कि सम्मान तो स्वीकार करेंगे लेकिन एक करोड़ रुपये की राशि जो सम्मान में दी जायेगी उसे नहीं लेंगे ! यह भी एक बहुत बड़ी बात है। यह पुरस्कार मिलना निश्चित ही सम्मान की बात है लेकिन दान लेना हमारी परंपरा नहीं है। इसलिये हम इसमें मिलने वाली एक करोड़ रुपये की राशि स्वीकार नहीं करेंगे ! गीता प्रेस के प्रबंधक लालमणि त्रिपाठी ने बताया कि सन् 2022 -2023 में पंद्रह भाषाओं में प्रकाशित किताबों से दो करोड़,चालीस लाख रुपये की पुस्तकें पाठकों को उपलब्ध करवाई गयीं ! कम कीमत की पुस्तकों के बावजूद पुस्तकों का मीट्रिक मूल्य 111 करोड़ रुपये बनते हैं। गीता प्रेस , गोरखपुर सनातन धर्म के सिद्धांतों का दुनिया का सबसे बड़ा  प्रकाशक है।

हमारे देश भारत में संभवतः ऐसा कोई भारतीय नहीं होगा जिसने कभी न कभी गीता प्रेस , गोरखपुर के प्रकाशन से आई पुस्तक न पढ़ी होगी ! मुझे अपनी याद है जब प्राइमरी कक्षाओं में था सहपाठी शरत अपने बैग में छुपा कर गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तकें लाता था और इसके रंगीन प्रकाशन हम बच्चों को रंगीन टीवी की तरह बहुत लुभाते थे। पूतना का दूध पीते ही कैसे नन्हे कृष्ण उसे मार देते हैं यह दृश्य एकदम याद आ रहा है। गाय के पास खड़े उसके आगे पीत वस्त्रों में खड़े बालक कृषि भी याद हैं आज तक। कदम्ब के पेड़ों में छिपकर कैसे कैसे खेल रचते थे यह भी याद आता है। हम बच्चे कभी कभार इतने उतावले हो जाते कि छीना झपटी तक पहुंच जाते , फिर शरत चेतावनी देता कि यदि ऐसे करोगे तो किताबें नहीं लाऊंगा और हम सुधर जाते !

बड़ी बात कि किसी प्रकाशन के एक सौ साल पूरे हो जाना। आज डिजीटल या कहें कि ई बुक्स के जमाने में भी प्रकाशित पुस्तकें करोड़ों रुपये में पाठकों के हाथों में पहुंचती हैं , यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। भारतीय ज्ञानपीठ ही शायद इसके बाद ऐसा प्रकाशन हो जिसकी भूमिका साहित्य में उल्लेखनीय मानी जा सकती है लेकिन इसे आगे किसी प्रकाशन को बेच दिया गया जो हिंदी का दुर्भाग्य कहा जा सकता है। यहां से मिशन खत्म और सिर्फ व्यवसाय शुरू होता है। भारतीय ज्ञानपीठ युवाओं को भी न केवल पुरस्कार देता था बल्कि उनकी पुस्तक भी प्रकाशित करता था ! अब तो किसी के पुरस्कार की बात नहीं सुनी ! यह बात बिल्कुल फिर याद आती है  प्रसिद्ध कथाकार राकेश वत्स की कि छपे हुए शब्द की शक्ति से मेरा विश्वास डगमगाया नहीं ! मेरी भी किताबें पहुंचाने की मुहिम से अब हिसार ही नहीं अन्य दूर दराजदे  विदेश के मित्र भी परिचित हो चुके हैं और पूर्ण सहयोग मिलता है। तभी तो दुष्यंत कुमार कहते हैं : 

कौन कहता है कि आसमान में सुराख हो नहीं सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 80 ⇒ सत्यवादी हरिश्चंद्र… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सत्यवादी हरिश्चंद्र।)  

? अभी अभी # 80 ⇒ सत्यवादी हरिश्चंद्र? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

एक तरफ कवि शैलेन्द्र कह गए हैं, सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है, और दूसरी ओर सच बोलने वाले की ईश्वर इतनी परीक्षा लेता है कि, सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का राजपाट छीन, उसे कंगाल बना देता है। शायद इसीलिए हमारे घरों में सत्यवादी हरिश्चन्द्र की नहीं, सत्यनारायण की कथा होती है। जिसमें सिर्फ़ सत्य नारायण की कथा के प्रसाद का जिक्र है, सत्य और नारायण की कथा का, कहीं पता नहीं।

सच्चे का हमारे यहाँ कितना बोलबाला है, आप नहीं जानते! संविधान हो, या सुप्रीम कोर्ट, सत्यमेव जयते! फ़िल्म कैसी भी हो, टाइटल, सत्यं शिवम सुंदरम!

और तो और, लोगों तो सच का स्वाद भी पता है, कड़वा होता है। इसीलिए शास्त्रों में मीठा बोलने का कहा गया है। ।

सदा सच बोलने वाले को हमारे यहाँ सत्यवादी हरिश्चंद्र कहते हैं। जब कहीं कोई ईमानदार व्यक्ति किसी बेईमानी के काम में टाँग अड़ाता है, तो बरबस मुँह से निकल जाता है, बड़ा हरिश्चंद्र बना फिरता है। इसको सेट करना पड़ेगा। कितने लोगों को अपसेट कर पाते हैं, ये कथित हरिश्चंद्र, हम देख ही रहे हैं।

मुझे मालूम है घर घर में सत्यनारायण की कथा ही होगी, सत्यवादी हरिश्चंद्र की नहीं, आखिर क्यों ? एक धर्मराज युधिष्ठिर हुए हैं, उन्हें भी अश्वत्थामा की मृत्यु पर झूठ का सहारा लेना ही पड़ा। नरो वा, कुंजरो वा! अरे भले आदमी, जब छल-कपट नहीं जानते, तो शकुनि के साथ जुआ खेलने क्यों बैठ गए। किसी ने सच कहा है, सच बोलने वालों की मति मारी जाती है। अगर भरोसा न हो तो हरिश्चंद्र की कथा सुन भले ही लीजिए, घर में कभी न कराइये। ।

वह रामराज्य नहीं, सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का राज था। उनके सच के डंके की आवाज़ स्वर्ग तक सुनी जा सकती थी। स्वर्ग में अक्सर इस धरती की बात चला करती है। एक थे राजा राम के गुरु वशिष्ठ और दूसरे ऋषि विश्वामित्र जो किसी के मित्र नहीं थे। राजा हरिश्चंद्र को लेकर दोनों में शर्त लग गई। शर्त बुरी चीज है, किसी का सत्यानाश करके ही छोड़ती है।

गुरु विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने की सोची! श्रीमान सत्यवादी के सपने में आए, और सारा राजपाट दान में माँग लिया। राजा की नींद खुल गई और देखते क्या हैं, सपना सच हो गया। विश्वामित्र सामने खड़े हैं। बोले, लाओ जो तुमने सपने में दान दिया है! और हमारे सत्यवादी हरिश्चंद्र ने सारा राजपाट, गुरु विश्वामित्र को दे दिया। ओ भाई मेरे, यह तो हुआ दान, दक्षिणा कहाँ है ? राजा ने नौकरों को आदेश दिया। विश्वामित्र ने कहा, ओ मिस्टर!

जब तुम्हारा राजपाट ही नहीं तो काहे के नौकर-चाकर। दक्षिणा देओ, और चलते बनो। हमारे सत्यवादी ने पत्नी और बच्चे को दक्षिणा में दे दिया और सड़क पर आ गए। ।

सच और भी कड़वा होता है।

एक बार सत्ता हाथ से गई, तो काहे की गुडविल! किसी धन्ना सेठ मुकेश का भला किया होता तो श्मशान में डोम की नौकरी तो नहीं करनी पड़ती। सत्यानाश किसे कहते हैं, देखिये! बालक मरा, तो भूतपूर्व रानी के पास पैसा नहीं, साड़ी फाड़कर कफ़न बनाया, और ले चली श्मशान, जहाँ उनके स्वामी, भूतपूर्व राजा, अपनी पत्नी से, लाश के क्रिया कर्म के लिए पैसे माँग रहे थे।

रानी ने असहाय स्थिति में अपना पहना हुआ वस्त्र जब फाड़ा, तब जाकर, सच्चे का बोलबाला हुआ। दोनों ऋषि प्रकट हुए, प्रसन्न हुए। हमेशा की तरह देवताओं ने आकाश से पुष्प वर्षा की। धन्य है, राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र। न भूतो, न भविष्यति।

कथा की सीख! सत्य की, ज्यादा गहराई में न जाएँ। बोलो सत्यनारायण भगवान, सॉरी, सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की जय।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #188 ☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 188 ☆

☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा 

‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’  कबीर जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है, निराकार है; उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए, तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार  उत्पन्न कर सकते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर दुश्मन भी बना सकते हैं।

सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे, कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं, अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल, फिर बोल’ की सीख दिन गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते, तो आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता  है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित, असंयमित व अशोभनीय भाषा  का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते, क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल, अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।

‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाए’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, क्योंकि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है, तो वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है, उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना, काम नहीं आसान/  जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी कभी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं, क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है, तो वह सम्मान का कारक बनती है, अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं, तो विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए, ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें।

जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या, बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव, छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी, बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है, जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण, फ़िरौती, दुष्कर्म, हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं।  लॉकडाउन में पुरुष मानसिकता के अनुरूप घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना, पत्नी का घर के कामों में हाथ बंटाना, परिवाजनों से मान-मनुहार करना उसे रास नहीं आया, जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा, ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 79 ⇒ डिवाइडर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डिवाइडर।)  

? अभी अभी # 79 ⇒ डिवाइडर? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

पहाड़ों, जंगलों और आसपास बसे गांवों में सड़क नहीं होती, पगडंडियां होती हैं। लगातार एक ही जगह पर चलने से रास्ते पर पांव के निशान बनते चले जाते हैं। जब इन पगडंडियों पर आवाजाही बढ़ती चली जाती है तो वहां कच्ची सड़क का निर्माण हो जाता है। चौपायों और बैलगाड़ी की आमदरफ्त से आवागमन में इज़ाफा होने लगता है। ये ही कच्ची सड़कें शहर जाती पक्की सड़कों से मिल जाती हैं। गांव, जंगल, पहाड़ और शहर इन सड़कों के माध्यम से ही एक दूसरे से जुड़ पाते हैं। बारिश में पानी के बहाव से पगडंडियां और कच्ची सड़क किसी काम की नहीं रहती। आम भाषा में इन्हें फेयर वेदर रोड कहते हैं। ऐसी ही परिस्थिति में यह गीत गाया जाता है ;

नदी नारे ना जाओ श्याम पैंया पड़ूं ….।

आज पूरे देश में सड़कों का जाल बिछा हुआ है। गांव गांव और बस्ती में पक्की सड़कों का निर्माण हो चुका है। बारिश के मौसम में पुलियाओं के बहने से अब रास्ते नहीं रुकते। नदियों के बहाव को बांध के जरिए रोककर बिजली और सिंचाई दोनों काज सिद्ध हो रहे हैं। लेकिन बारिश के मौसम में जब नदियां विकराल रूप धारण कर लेती हैं, तो फसलें बर्बाद हो जाती हैं, जनजीवन अस्त व्यस्त हो जाता है। ।

बढ़ती जनसंख्या और बेरोजगारी के कारण लोग गांव से शहर की ओर रुख करने लगते हैं। शहरों में रोजगार है, काम धंधे हैं, अच्छी शिक्षा और चिकित्सा सुविधा है। शहरों की सड़कों का सीना चौड़ा हो रहा है, शहर की संस्कृति आसपास के गांवों को लील रही है।

शहर के अधिकाश मार्ग पहले एकांगी हुए, फुटपाथों पर अतिक्रमण हुआ, सड़कें सिकुड़ने लगीं। परिणामस्वरूप अतिक्रमण हटाए गए, सड़कें चौड़ी हुई और बीच में डिवाइडर पसर गए। पहले शहर में एक मुख्य मार्ग होता था और एक राजमार्ग ! विकास की एक अपनी ही कहानी है। अगर आवागमन को सुगम करना है, यातायात को नियंत्रित करना है तो सबसे पहले सड़क को दो भागों में बांटो। जो अंग्रेजों का डिवाइड एंड रूल था, वह सड़क का डिवाइडर बन गया। शहर के बाहर पहले रिंग रोड और बाद में उसके भी बाहर बायपास। ।

आज हर बड़ा शहर स्मार्ट सिटी बनने जा रहा है और हर शहरी एक आदर्श नागरिक। जब विकास आदर्श तरीके से होता है तो सबसे पहले अतिक्रमण पर गाज गिरती है। एक आदर्श नागरिक से अनुशासन की भी अपेक्षा की जाती है। बुलडोजर न केवल सड़कों को सिक्स लेन करने के लिए अतिक्रमण को हटाता है, उत्तेजित भीड़ को अनुशासित भी करता है।

डिवाइडर है जहां, बुलडोजर है वहां।

शहर से वापस गांव जाना आजकल पलायन कहलाता है। स्मार्ट सिटी के सड़कों के डिवाइडर क्या शहर और गांव के विभाजक सिद्ध नहीं हो रहे। क्या गरीब और अमीर के बीच की रेखा भी इंसानियत के विभाजन की रेखा नहीं। ।

सड़कों के बीच के डिवाइडर पर आजकल पौधारोपण होता है, शहर के सौंदर्यीकरण के प्रतीक हैं ये डिवाइडर। क्या हुआ जो सड़क के इस पार के लोगों की, उस पार के लोगों के बीच की दूरी बढ़ गई। किसी के लिए वह डिवाइडर है तो किसी के लिए दीवार। एक किलोमीटर चलकर इस पार से उस पार जाने के बजाय एक मजदूर, कामगार अथवा युवा अपनी जान पर खेलकर डिवाइडर फांदकर उस पार निकल जाता है।

क्या यह एक खतरनाक, दुस्साहस भरा, जानलेवा, अनुशासनहीनता का कृत्य नहीं।

खेत में नई फसल के लिए बीज बोने के पहले खरपतवार को साफ करना पड़ता है। विकास की राह भी संघर्ष और बलिदान की राह है। आपस में एक दूसरे को बांटने के बजाय हम अगर एक दूसरे के दुख दर्द बांटें, तो जीवन की डगर आसान हो। डिवाइडर हमारी राह आसान करे, लेकिन हमारे बीच के दिलों की दूरी तो कम ना करे। ।

पगडंडियों से सिक्स लेन के डिवाइडर तक का सफर, और जंगल से स्मार्ट सिटी के कांक्रीट जंगल तक की दूरी में कहीं मानवता और पर्यावरण पीछे ना छूट जाए, अमीर भले ही गरीब ना हो, लेकिन हर गरीब अमीर हो जाए, तो समझिए अच्छे दिन बस आए ही आए ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 218 ☆ आलेख – विश्वगुरू भारत… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखविश्वगुरू भारत

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 218 ☆  

? आलेख –विश्वगुरू भारत?

भारतीय सभ्यता आज विश्व की प्राचीनतम फल फूल रही जीवंत सभ्यताओ में से एक है. अपने श्रेष्ठ अतीत पर गौरव करना स्वाभाविक ही है. हमारी संस्कृति प्रामाणिक रूप से पांच हजार वर्षो से भी प्राचीन है. भारत ने सदैव सह अस्तित्व, वसुधैव कुटुम्बकम, नारी समानता, प्रकृति पूजा, ज्ञान पर सबका अधिकार, गुरु के सम्मान, कमजोर की मदद, शरणागत को अभय  जैसे सार्वभौमिक, सर्वकालिक, वैश्विक समन्वय के सिद्धांतो का समर्थन किया है.

  हमारे महर्षि आर्यभट्ट ने ही  दुनिया को सबसे पहले शून्य के उपयोग के बारे में समझाया था. इसके अलावा वेदों से हमें 10 खरब तक की संख्याओं के बारे में पता चलता है. सम्राट अशोक के शिलालेखों से पता चलता है कि हमें संख्याओं का ज्ञान बड़े प्राचीन समय से था. भास्कराचार्य की लीलाबती में लिखा हुआ है कि “जब किसी अंक में शून्य से भाग दिया जाता है तब उसका फलक्रम अनंत आता है. इस तरह प्रामाणिक रूप से गणितीय ज्ञान में हम अग्रणी हैं.

पौराणिक प्रमाण मिलते हैं कि शल्य चिकित्सा का जन्म भी भारत में ही हुआ. इस विज्ञान के अंतर्गत शरीर के अंगों की चीड-फाड़ की जाती है और उन्हें ठीक किया जाता है. शरीर को ठीक करने वाली इस विधि की शुरुआत सबसे पहले महर्षि सुश्रुत द्वारा की गई.

योग एक जीवन शैली है जिसकी शुरुआत भारत में ही हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों द्वारा की गई थी. आज के दौर में विभिन्न मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं से मुक्त संतुलित निरोगी जीवन  के लिए ध्यान ऐसा रास्ता है जिसे सारा विश्व अपना रहा है. प्रति वर्ष २१ जून को विश्व योग दिवस मनाये जाने को मान्यता मिलना विश्वगुरू भारत की परिकल्पना की यथार्थ में परिणिति की ओर एक कदम है.

ज्योतिष शास्त्र के रूप में दुनिया को भारत ने एक अनोखी भेंट दी है. ज्योतिष की गणनाओं से ही पता चला कि यह पृथ्वी गोल है और इसके घूमने से ही दिन रात होते हैं. आर्यभट तो सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण होने के कारण भी जानते थे. वेदों में इस अनंत ब्रम्हाण्ड का  वर्णन है और उड़न तश्तरी अर्थात UFO के बारे में भी वर्णन मिलता है.

संस्कृत भाषा को  विश्व की सबसे प्राचीन भाषा माना जाता है. दुनिया में बोली जाने वाली कई भाषाएँ संस्कृत से प्रभावित हैं अथवा उन भाषाओं में संस्कृत के शब्द देखने को मिलते हैं. नासा ने भी संस्कृत को विज्ञान संमत भाषा प्रमाणित किया है. हमारे सारे पौराणिक ग्रंथ संस्कृत में ही हैं.

महात्मा गांधी ने, गौतम बुद्ध ने विश्व को अहिंसा से समस्याओ के निराकरण के जो सूत्र दिये हैं वे भारत की पूंजी हैं. भगवत गीता और रामचरित मानस हमारे विश्व ग्रंथ हैं, जिनमें हर परिस्थिति में सफल जीवन दर्शन के सारे पाठ हैं.

नया विश्व तर्क और विज्ञान का है. अप्रत्यक्ष रूप से परमाणु शक्ति आज देशो की वह ताकत बन चुकी है जो दुनिया में किसी राष्ट्र का महत्व प्रतिपादित कर रही है. भारत स्वयं अपने बूते परमाणु शक्ति संपन्न है, और इसका प्रयोग शांति पूर्ण तरीको से विकास के लिये करने को प्रतिबद्ध है, यह तथ्य हमें अन्य देशो से भिन्न व विशिष्ट बनाकर प्रस्तुत करता है.

यदि भारत को वर्तमान परिस्थितियों में पुनः विश्वगुरू के रूप में स्वयं को स्थापित करना है तो हमें विश्व नागरिकता  के लिये पैरवी करनी होगी आज युवा पीढ़ी वैश्विक हो चुकी है उसे कागजी वीसा पासपोर्ट के बंधनो में ज्यादा बांधे रहना उचित नही है, अंतरराष्ट्रीय वैवाहिक संबंध हो रहे हैं, अब महर्षि महेश योगी की विश्व सरकार की परिकल्पना मुर्त स्वरूप ले सकती है. पहले चरण में भारत को ई वीसा के लिये समान वैश्विक मापदण्ड बनाने के लिये प्रयास होने जरूरी हैं ।   विदेश यात्रा हेतु इमरजेंसी हेल्थ बीमा अधिक उम्र के लोगों के लिए उपलब्ध नहीं है, विदेशों में भारत की तुलना में इमरजेंसी हेल्थ सेवा बहुत मंहगी है ।

यू ए ई में तो बिना हेल्थ बीमा के वीजा ही नहीं दिया जाता, तो वरिष्ठ व्यक्ति वहां कैसे जाएं ?

सरकारों को विजीटर्स को स्वास्थ्य सेवा तो देनी ही चाहिए । यह ह्यूमन राइट्स है।  यू एन ओ में भारत को यह प्रस्ताव लाना चाहिये, तथा इसके लिये विभिन्न देशो का समर्थन जुटाने के पुरजोर प्रयास द्विपक्षीय स्तर पर किये जाने चाहिये. जब कोई सेना पक्षियो की दुनियां भर में निर्बाध आवाजाही, सूरज, चांद, हवा, पानी को नही रोक सकती, सीमाओ को जब संगीत की स्वर लहरियां यूं ही पार कर सकती हैं तो संकुचित नागरिकता का विचार कितना बौना, अनैसर्गिक और तुच्छ है यह सहज ही समझा जा सकता है.

एक बहुत छोटा सा मुद्दा है इस ग्लोबल दुनिया मे आज कही लेफ्ट हेंड ड्राइव सड़के गाड़ियां हैं तो किन्ही देशों में राइट हेंड ड्रिवन गाड़ियां चल रही है । इसमें एकरूपता जरूरी है, आवश्यकता केवल पहल करने की है ।

इंटरनेट आधारित दुनिया पर किसी का कोई नियंत्रण ही नही है । पोर्न साइट्स व सायबर अपराध बढ़ रहे हैं । भारत पहल कर इसे नियमो में ला सकता है जिसके लिए वैश्विक सहमति बनाने का काम करना होगा।

दुनियां में निरस्त्रीकरण एक बलशाली मुद्दा है. अनेक देशो की ईकानामी ही हथियारो के व्यापार पर टिकी हुई है. यदि मिलट्री पर होने वाला व्यय गरीबो के विकास पर लगाया जावे तो साल भर में दुनियां के हालात बदल सकते हैं, जरूरत है कि भारत इस आवाज को बुलंदियां देने की पहल करे.

किसी भी देश के वैज्ञानिको द्वारा किये जा रहे शोध पर पूंजी लगाने वाले देश का नही समूची मानवता का अधिकार होना चाहिये इस सिद्धांत को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है. क्योकि सचाई यह है कि जो भी अगले शोध हो रहे हैं वे पिछले अनुसंधान तथा अन्वेषणो पर ही आधारित हैं. भारत जैसे देशो से ब्रेन ड्रेन बहुत सरल है, अमेरिका में शोध केवल इसलिये संभव हो पा रहे हैं क्योकि वहां वैसी सुविधायें तथा वातावरण विकसित हुआ है. अतः वैज्ञानिक शोध पटेंट से परे मानव मात्र की धरोहर होनी चाहिये.

अंतरिक्ष, समुद्र और ब्रम्हांड की संपदा, शोध पर सारी मानव जाति के अधिकार को हमें प्रतिपादित करना चाहिये. साल २०१४ में पहले ही प्रयास में मंगलयान का मंगल गृह की कक्षा में पहुँच जाना हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि है. भारतीयों का प्रौद्योगिकी ज्ञान पश्चिम से भी आगे पहुंचे और हम उदारमना उसे सबके लिये सुलभ करवायें तभी हम विश्वगुरू की पदवी के सच्चे हकदार बन सकते हैं. कहा गया है रिस्पेक्ट इज कमांडेड नाट डिमांडेड, मतलब हमें हर स्तर पर स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना होगा तभी हम नेतृत्व कर सकेंगें.

आतंकवाद से विश्वस्तर पर निपटने में भारत ने बहुत महत्वपूर्ण अगुवाई की  है. आवश्यक है कि इस दिशा में स्थाई वैश्विक अभिमत बनाया जावे. धार्मिक कट्टरता नियंत्रित करने में भारत को कड़े कदम उठाने होंगे.

यह युग बाजारवाद का समय है. मल्टी नेशनल कंपनियों में अनेकानेक देशो की पूंजी दुनियां भर में लगी हुई है, दुनियां भर के युवा, इन कंपनियो में अपने देश से बाहर जगह जगह कार्यरत हैं. सोशल मीडिया का युग है, अब ज्ञान का अश्वमेध ही विश्व विजय करवा सकता है. सेनाओ के भरोसे भौतिक युद्ध जीतने की परिकल्पना समय के साथ अव्यवहारिक होती जा रही है. ऐसे समय में भारत को विश्व का  समुचित नेतृत्व करते हुये वसुधैव कुटुम्बकम के वेद वाक्य को सुस्थापित कर स्वयं को विश्वगुरू सिद्ध करने की परिकल्पना को मूर्त रूप देने का समय आ चुका है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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