श्री केशव दिव्य
☆ कविता ☆ प्रेम – दो कविताएं – 1. “प्रेम की महक?” ☆ 2. “क्या नाम दूँ?” ☆ श्री केशव दिव्य ☆
(काव्य संग्रह – “स्नेहगंधा माटी मेरी” – से दो कविताएं)
☆ 1. “प्रेम की महक?” ☆
सच पूछो तो
मुझको
नहीं लगती अच्छी
मिक्सी की पिसी
चटनी
क्योंकि
इसमें नहीं
तुम्हारे श्रम का
नमक
तुम्हारी नरम-नरम
उंगलियों का
जस
इसमें
मिलती नहीं
तुम्हारे
प्रेम की महक
सच पूछो तो।
—केशव दिव्य
☆ 2. “क्या नाम दूँ?” ☆
प्रिय!
मैंने
आज फिर
तुम्हारे हिस्से के पल
चुराए हैं
जैसा कि
अक्सर
चुराया करता हूँ
और
इसे जानती हो तुम
अच्छी तरह
फिर भी
कहा कुछ नहीं
हमेशा की तरह
क्या कहूँ इसे ?
सहनशीलता
उदारता
या सहभागिता
तुम्हारी
मेरे सृजन-उत्सव में
जो तुम
आदि से
करती आई हो ।
© श्री केशव दिव्य
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈