हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 170 ☆ दोहा सलिला – अक्षर आराधना ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है दोहा सलिला – अक्षर आराधना)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 170 ☆

☆ दोहा सलिला – अक्षर आराधना ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

सूर्य रश्मि लोरी सुना, कहे जगो हे राम!

राजकुमार उठो करो, धन्य धरा भू धाम।।

कोहरा घूँघट ओट से, कर चितवन का वार।

रश्मि निमंत्रण दे करो, सबसे सब दिन प्यार।।

वाक् ब्रह्म है नाद हरि, ताल- थाप शिव जान।

स्वर सरगम शारद-रमा, उमा तान मतिमान।।

योग प्रयोग करें सतत, मिट जाए हर रोग।

हों वियोग अति भोग से, संयम सदा सुयोग।।

मिला मुकद्दर मुफ्त में, मान महज मेहमान।

अवसर-कशिश की कशिश, घरवाली वत जान।।

श्याम पूर्ण हो शुभ्र से, शुभ्र श्याम से पूर्ण।

शुभ न अशुभ बिन शुभ रहे, अशुभ बिना शुभ चूर्ण।।

कर अक्षर आराधना, होगा नहीं अभाव।

भाव शब्द में रस भरे, सब से कर निभाव।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२.५.२०२२ 

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – मन ? ?

सार्वकालिक चर्चा है

प्रकृति की

सनातन गूढ़ता,

अध्यात्म दिखाता है

कण-कण में छिपा गूढ़,

विज्ञान दर्शाता है

सजीवों की संरचना में

अंतर्निहित दुरूहता,

दर्शन और मनोविज्ञान

गूढ़ता की सरलता और

क्लिष्टता के बीच

शोधन और

संशोधन में विचरते हैं,

ये सब

पढ़ते-सुनते-गुनते

मन जाने कहाँ-कहाँ

चक्कर लगा आया,

अपवादस्वरूप ही

देह के साथ रहा,

बाकी विदेह-सा

ब्रह्मांडका भ्रमण कर आया,

एक निष्कर्ष मेरा भी है-

कस्तूरी मृग-सा रूढ़ है,

बाहर क्या देखें

मन सबसे गूढ़ है!

© संजय भारद्वाज 

(अपराह्न 4:34 बजे, दीपावली, 11.11. 2015 )

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #220 – 107 – “नाराज़ी इतनी ठीक ना है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल नाराज़ी इतनी ठीक ना है…” ।)

? ग़ज़ल # 107 – “नाराज़ी इतनी ठीक ना है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

तुमको  कहते हैं  लोग  मेरी जाने जाँ,

लेकर मेरा दिल बन गई मेरी जाने जाँ।

तुम आग तन बदन में लगाकर जाती हो

लहराती हो जब ज़ुल्फ़ें छत पर जाने जाँ।

तुमने मुझ पर नाराज़ होना छोड़ दिया,

नाराज़ी इतनी  ठीक ना  है जाने जाँ।

दुनियादारी में खोई हो तुम तो जानम,

तुम खूब बहाने क्यूँ  बनाती जाने जाँ।

तुम खुलकर भी तो मिल नहीं पाती हो,

आतिश को रहती हो  भर्माती जाने जाँ।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 97 ☆ मुक्तक ☆ ।।चलो शिद्दत से मंजिल खुद कदम चूम लेती है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 97 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।चलो शिद्दत से मंजिल खुद कदम चूम लेती है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

चाहो शिद्दत से हर सपना   साकार होता है।

बिन इच्छा शक्ति यह   निराधार ही होता है।।

हमारा जोशो जनून बनता ऊर्जा का खजाना।

अगर   सामने लक्ष्य हमारा लगातार होता है।।

[2]

बीता समय कभी  आगे को   बढ़ाता नहीं है।

और आज भी कभी लौट कर आता नहीं है।।

वर्तमान में ही समाहित है भविष्य का रहस्य।

भूतकाल से भविष्य का रास्ता जाता नहीं है।।

[3]

समस्या के भीतर निहित होता समाधान है।

जीवन ही समस्या और जीवन ही निदान है।।

पीड़ा का स्वागत करो कि मजबूत बनाती है।

युगों से जाना   माना यही   एक विधान है।।

[4]

गलती से सीखो यह  अनुभव  ज्ञान देती है।

ये जिंदगी हर कदम कोई इम्तिहान कहती है।।

आशा विश्वास की ऊर्जा मत  गँवाना कभी।

फिर मंजिल आकर खुद  कदम चूम लेती है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 160 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “अनुपम भारत…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “परीक्षाओं से डर मत मन…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “अनुपम भारत” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

अपने में आप सा है, भारत हमारा प्यारा

जग में चमकता जगमग जैसे गगन का तारा।

हैं भूमि भाग अनुपम नदियाँ-पहाड़ न्यारे

उल्लास से तरंगित सागर के सब किनारे ।

ऋतुएँ सभी रंगीली, फल-फूल सब रसीले

इतिहास गर्वशाली, आँचल सुखद सजीले।

है सभ्यता पुरानी, परहित की भावनाएँ

सत्कर्ममय हो जीवन है मन की कामनाएँ।

गाँवों में भाईचारे का सुखद स्नेह व्याप्त था।

हवाएँ नरम थीं, मौसम सुहावना था।

लोगों में सरलता है दिन-रात सब सुहाने

त्यौहार प्रीतिमय हैं, अनुरागसिक्त गाने।

रामायण और गीता ज्ञान की अद्वितीय पुस्तकें हैं

जो मन को विचलित नहीं होना, बल्कि स्थिर रहना सिखाती हैं।

ये देश है सुहाना, धर्मों का मेला

असहाय भी न पाता, खुद को जहाँ अकेला।

आध्यात्मिक है चिन्तन, धार्मिक विचारधारा

संसार से अलग है, भारत पुनीत प्यारा।

है ‘एकता विविधता में’ लक्ष्य अति पुराना

भारत ‘विदग्ध’ जग का आदर्श है सुहाना ।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ध्रुवीय समीकरण☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – ध्रुवीय समीकरण ? ?

सेलेब्रिटी

नहीं कर पाते सेलेब्रेट

अपने लिए

नितांत अपने क्षण,

दूभर हो जाता है

24 बाय 7

कैमरे के आगे

सार्वजनिक होते

जन-नेता का

हर निजी पल,

अनुभव की सीख है,

दुनिया की रीत है,

हर अति

मांगती है

अपनी ऊँची कीमत,

पहाड़ की चोटी

जितनी संकरी

जितनी नुकीली,

उतना ही ढलवा होता है

उसका उतार भी,

फिर भी,

अनादि काल से

पहाड़ हैं,

चोटियाँ हैं,

चुनौतियाँ हैं,

आदमी है,

संकरेपन को

जीतने की

जिजीविषा है,

जीतकर

सार्वजनिक होने की

निजी आकांक्षा है,

निजता और

सार्वजनिकता का

अपना-अपना

आभास है,

ध्रुवीय समीकरण है,

दोनों में

आकंठ आकर्षण है,

दोनों में

कर्कश विरोधाभास है!

© संजय भारद्वाज 

(प्रातः 8 बजे, 13.11.2015)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #197 ☆ संतोष के दोहे – सब मिल गाओ गीत प्रेम के ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  – ऊँचे हिमगिरि के शिखरआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 197 ☆

☆ संतोष के दोहे  – सब मिल गाओ गीत प्रेम के ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आज  अवध  में धूम  मची है

सरयू -सलिला  सजी-धजी है

आएंगे    प्रभु    राम    हमारे

ढोलक  घंटी  झाँझ  बजी  है

बरसों  से  थी  आस   हमारी

आज मिली हैँ  खुशियां सारी

सब मिल गाओ  गीत प्रेम  के

प्रभु मिलन की  आई  घड़ी है

प्रभु  का मन्दिर भव्य बना है

बिराजे  जिसमें राम लला  हैँ

केंद्र  बना  सबकी  आशा का

सबको अब आने  की पड़ी है

हर   घर  में  उत्सव   दीवाली

खूब  सजीं   पूजा  की  थाली

दिल की बातें कर लो  प्रभु से

आज  कृपा की   हवा चली है

सारे   जग  से   न्यारा   मंदिर

हम  सबका   है  प्यारा  मंदिर

आस   दरश “संतोष” लिए  है

बढ़ी   हृदय  में   उतावली   है

आज  अवध  में  धूम मची है

सरयू सलिला  सजी-धजी  है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मौन संवाद ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – मौन संवाद ? ?

चाहते दोनों नहीं थे

फिर भी खींच दी

या शायद खिंच गई

मौन की रेखा

उनके बीच,

उनके व्यक्तित्वों को

साझा होने से

रोकने के लिए

यह ज़रूरी था,

खुश हैं

मौन के दोनों पात्र,

यह देखकर कि

उनका मौन संवाद

गहरा छन रहा है,

गढ़िया रहा है,

कथित समझदार श्रोता

इस मौन के भले

निकालते हों अर्थ

अपनी-अपनी सुविधा

और अपने-अपने तरीके से,

बेचारे हैं, विचित्र हैं,

कागज़ी ज्ञान तक सीमित हैं,

प्रेम की भाषा, बिम्ब,

प्रतीक और भावार्थ से

नितांत अपरिचित हैं!

© संजय भारद्वाज 

(अपराह्न 4 बजे, दीपावली,11.11.2015)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #30 ☆ कविता – “वसीयत…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 30 ☆

☆ कविता ☆ “वसीयत…☆ श्री आशिष मुळे ☆

कभी सोचता हूँ

पीछे क्या छोड़ जाऊँ

 

सोना, जमीं और जागीर

इनका सदियों से जागीरदार

असल मालिक वो इनका

मैं तो कुछ पल का किरायेदार

 

मगर मेरे दर्या-ए-दिल का

मैं इकलौता वारिसदार

इसकी गहराई और ओछाई का

मैं अकेला पहरेदार

 

तो सोचा इसी दर्या के

मोतियों को पीछे छोड़ जाऊँ

किसी के बुरे वक्त में

उनके काम आ जाऊँ

 

अपने दर्द से निकली रोशनी

उन मोतियों में भर दूँ

अंधेरे में उलझाए किसी को

प्यार की राह दिखा दूँ

 

पाँव के नीचे

फिसलती जमीं किसी की

मेरे जिंदगी की रेत

उसके पैरों तले जमा दूँ

 

कोई खाता गोते

दर्या-ए-दर्द में

दे कर साहिल-ए-लफ्ज़

डूबने से बचा दूँ

 

दिल किसी का गर पड़े सूखा

उसे मेरे दर्या से भर दूँ

मै रहूँ  या ना रहूँ

यह दिल वसीयत में छोड़ दूँ

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 190 ☆ बाल गीत – मर्यादा पुरुषोत्तम राम ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 190 ☆

☆ बाल गीत – मर्यादा पुरुषोत्तम राम ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।

तीर्थ अयोध्या – भूमि सुपावन

जन्म लिए मुस्काए।।

 

दशरथ जी के पुत्र विलक्षण

देवी माँ कौशल्या थीं।

लक्ष्मण जी , शत्रुघ्न , भरत की

लेतीं नित्य बलैयाँ थीं।

 

बाल्मीकि ऋषि रामायण लिख

जीवन चरित सुनाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

गुरु वशिष्ठ से शिक्षा पाई

विश्वामित्र सँग भ्रमण किया।

राक्षस मारे धनुष – बाण से

कुछ असुरों का दमन किया।

 

सीताजी का हुआ स्वयंवर,

जनकपुरी हरषाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

माँ कैकई के वर के कारण

चौदह वर्ष वनवास मिला।

साथ में सीता , लक्ष्मण भाई

संग – संत के पुष्प खिला।

 

ऋषि , मुनियों की रक्षा करके

अद्भुत शक्ति दिखाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

सीताहरण किया रावण ने

लंका लेकर पहुँच गया।

सीताजी को रखा वाटिका

खोई उसने शर्म हया।।

 

राम , लखन जंगल में ढूँढें

सीता जी की खोज करी।

सुग्रीव भेजे हनुमत जी को

वानर सेना बढ़ी चली ।

 

लंका पहुँचे मारुति- नंदन

सीता से आशीष लिया।

फल खाए छककर लंका में

रिपुओं का संहार किया।

 

शक्ति , भक्ति के बल पर ही

फिर लंका दिए जलाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

वानर सेना चली साथ में

राम , लक्ष्मण , हनुमत जी।

जामवंत , सुग्रीव , नील , नल

संग भक्त विभीषण जी।

 

दस दिन चला युद्ध लंका में

सब राक्षस चुन – चुन मारे।

रावण मरा राम के हाथों

सभी राक्षस ही हारे।।

 

विजय हुई फिर लंका जीती

मिलकर दीप जलाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

लंका सौंप विभीषण जी को

पुष्पक बैठ विमान चले।

राम , लक्ष्मण , सीता जी संग

सब भक्तों के बने भले।

 

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रियवर

लौट अयोध्या आए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

रात अमावस की अँधियारी

दिखे नहीं चंदा प्यारे।

घर – घर दीप जलाए सबने

स्वागत में कितने सारे।

 

सत्य सनातन पुण्य भूमि का

मान सदा से पाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

दीवाली त्योहार तभी से

भारतवर्ष मनाता है ।

ज्योतिर्मय इस धरा गगन में

घर पावन हो जाता है।

 

ज्ञान ज्योति घर – घर में फैले

तम सारा मिट जाए।

राम हमारे इष्ट देव हैं

भारत मंगल गाए।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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