हिन्दी साहित्य – कविता ☆ करते क़द्रे कुरआँ हम तुम समझते रामायण… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “करते क़द्रे कुरआँ हम तुम समझते रामायण“)

✍ करते क़द्रे कुरआँ हम तुम समझते रामायण… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सफ़्हा -ए -महब्बत पर  हम रकम नहीं होते

दोस्त प्यार के किस्से फिर भी कम नहीं होते

करते क़द्रे कुरआँ हम तुम समझते रामायण

मस्जिद और मन्दिर में फटते बम नहीं होते

काश प्यार से इन्सां आये रोज सुलझाते

जिंदगी की जुल्फों में पेचो खम नहीं होते

तुमने क्या सवाँरा है चश्मे मिह् र से अपनी

वर्ना चाँद से रोशन आज हम नहीं होते

कर्ब -ए -दहर को अपने तुम न रखते दिल में तो

दास्ताने गम सुनकर चश्मे नम नहीं होते

नफ़रतें जलाते तुम हम परायापन अपना

है जो आज दुनिया में घोर तम नहीं होते

आज इस हकीकत को जानते हैं अंधे भी

दिखने वाले सब इंसा मुहतरम नहीं होते

काश वो अरुण मुझको भूलते नहीं ऐसे

दर्दे दिल नहीं होता रंजो गम नहीं होते

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 187 ☆ बाल गीत – हँसने के दिन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 186 ☆

☆ बाल गीत – हँसने के दिन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

खेलें – कूदें पढ़ें – पढ़ाएँ

हैं हँसने के दिन।

मोबाइल की छुट्टी कर दी

चुभा रहा था पिन।।

 

चश्मा लगा अकल है आई

बढ़ी उदासी थी हमको।

मम्मी – पापा चिंतित हमसे

छूट रहा था बचपन तो।।

 

कैरम , लूडो भूल गए थे

रोग बढ़े थे तन।

खेलें – कूदें पढ़ें – पढ़ाएं

हैं हँसने के दिन।।

 

बॉलीबॉल , फुटबॉल खेल लें

खेलेंगे मिलकर क्रिकेट

फास्टफूड भी छोड़ा हमने

बढ़ा रहा था अपना वेट।

 

आस्पाइस , छूई छुआ से

खिल जाय तन – मन।

खेलें – कूदें पढ़ें – पढ़ाएं

हैं हँसने के दिन।।

 

मन से करी पढ़ाई हमने

मिली सफलता है भारी।

माँ , पापा , टीचर जी खुश हैं

बुद्धि तेज हुई शुभकारी।।

 

खुश रहने से सब खुश रहते

जीवन बना सुमन।

खेलें – कूदें पढ़ें – पढ़ाएँ

हैं हँसने के दिन।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #27 ☆ कविता – “जाने दो…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 27 ☆

☆ कविता ☆ “जाने दो…☆ श्री आशिष मुळे ☆

भले आज चोट तुमने खाई है

है घायल मगर वो अरसे से

 

आज आंखें उसकी पोंछ दो

सदियों के ज़ख्म पर

मरहम कुछ पलों का लगा दो

अगर वो जाना चाहें

प्यार से अलविदा कह दो…

 

आज उसे… तुम बस जाने दो….

 

मन में गालियां बांधकर

उसे जनम भर कंधे पे ना रख दो

और आसुओं में बहने से अच्छा

नाव होटों की बना दो….

 

आज उसे… तुम बस जाने दो….

 

रिश्तों के धागे तो टूट जाएंगे

धागों का रेशम तुम फेंक न दो

वहीं प्यार के रेशम को

पगड़ी पर अपने सजा दो…

 

वो तुम्हें समझ लेगी…

 

जाएगी जरूर मगर

सच में ना जा पाएगी

 

कुछ क़दम अंधेरे में चले

 

तो चांद में बस

तुम्हे ही ढूंढेगी…

 

मगर आज उसे… तुम बस जाने दो….

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #211 – कविता – बहुत हुआ बुद्धि विलास☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके “बहुत हुआ बुद्धि विलास…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #211 ☆

बहुत हुआ बुद्धि विलास… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

लिखना-दिखना बहुत हुआ

अब पढ़ने की तैयारी है

जो भी लिखा गया है उसको

अपनाने की बारी है।

 

खूब हुआ बुद्धिविलास

शब्दों के अगणित खेल निराले

कालीनों पर चले सदा

पर लिखते रहे पाँव के छाले,

क्षुब्ध संक्रमित हुई लेखनी

खुद ही खुद से हारी है…..

 

आत्ममुग्ध हो, यहाँ-वहाँ

फूले-फूले से रहे चहकते

मिल जाता चिंतन को आश्रय

तब शायद ऐसे न बहकते,

यश-कीर्ति से मोहित मन ये

अकथ असाध्य बीमारी है….

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 34 ☆ दिवस आजकल के… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “दिवस आजकल के…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 34 ☆ दिवस आजकल के… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

हेमंती शिशिर हुए

दिवस आजकल के

चुपके से विखर गए

साँझ के धुँधलके।

 

हृदयों के आलंबन

प्रीति बनी समिधा

आँख लिखें आमंत्रण

अधरों की दुविधा

 

केतकी गुलाब जुही

गंध कलश छलके।

 

आलिंगन हुआ मुखर

बाँह के हिंडोले

साँस के दुराहे पर

मौन प्रणय बोले

 

खुल गए दरीचे सब

कामना महल के।

 

धुंध के दुशालों से

सूर्य किरन हँसती

हवा उठा अवगुंठन

ख़ुशी में बहकती

 

आए हैं मधुरिम पल

दबे पाँव चलके।

     ***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ डॉ गायत्री तिवारी जन्मदिवस विशेष – माँ तुम याद बहुत आती हो … ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी  ममतामयी माँ  (कथाकार एवं कवयित्री  स्मृतिशेष डॉ गायत्री तिवारी जी ) के आठवें जन्म स्मृति के अवसर पर एक अविस्मरणीय कविता  ‘माँ तुम याद बहुत आती हो।)

☆ माँ तुम याद बहुत आती हो 

माँ तुम याद बहुत आती हो

बस सपने में दिख जाती हो .

पूछा है तुमसे, एक सवाल

छोड़ गई क्यों हमें इस हाल

जीवन हो गया अब वीराना

तेरे बिना सब है बेहाल

कुछ मन की तो कह जाती तुम

मन ही मन क्यों मुस्काती हो ।

माँ तुम याद बहुत आती हो

बस सपने में दिख जाती हो .

मुझमे बसती तेरी धड़कन

पढ़ लेती हो तुम अंतर्मन

तुमको खोकर सब है खोया

एक झलक तुम दिखला जाती .

जाने की इतनी क्यों थी जल्दी

हम सबसे क्यों नहीं कहती हो ।

माँ तुम याद बहुत आती हो

हम सबको तुम तरसाती हो ।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ स्व डॉ गायत्री तिवारी जन्मदिवस विशेष – जागती रहे नदी ☆ श्री हेमन्त बावनकर ☆

हेमन्त बावनकर

(आज प्रस्तुत है गुरु माँ  (कथाकार एवं कवयित्री  स्मृतिशेष डॉ गायत्री तिवारी जी ) के आठवें जन्म स्मृति  के अवसर पर उनकी कृति ‘जागती  रहे नदी ‘ के भावानुवाद  ‘Let  the River Awake’ के समय  प्रेरणा स्वरूप रचित रचना।)

महाकवि आचार्य भगवत दुबे

(आज पाथेय साहित्य एवं कला अकादमी द्वारा जबलपुर में आयोजित डॉ गायत्री तिवारी स्मृति वैचारिक संगोष्ठी एवं सम्मान समारोह में अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त साहित्य मनीषी, महाकवि आचार्य भगवत दुबे जी की सृजन साधना का स्तवन किया जाएगा।  ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से महाकवि आचार्य भगवत दुबे जी के अभिनंदन हेतु हार्दिक शुभकामनाएं।)

जागती रहे नदी  
 

(स्वर्गीय डॉ॰ गायत्री तिवारी जी की कृति ‘जागती रहे नदी’ से प्रेरित रचना।)

जाग ही तो रही है नदी।

 

हर्ष से हर्षित

प्रियतम प्रियम

मोहिनी सी आभा

ऊपर से शांत

अंतःस्थल

उतना ही अशांत।

जाग ही तो रही है नदी।

 

धीर गंभीर

बहती हुई नदी का

चारु-चिंतन,

यादों के नागपाश।

भावना और कामना

के तटों पर

संभावना की फसल।

जाग ही तो रही है नदी।

 

पथ पर अविरल

पाथेय अनुरूप लय

नियति है

अथाह समुद्र में विलय।

फिर भी सारे पथ

जाग ही तो रही है नदी।

 

किन्तु,

कैसे कर सकती है

विस्मृत

पथ – पाथेय

मित्र – सुमित्र’

दोनों तटों को दे पारस स्पर्श

बहती रहती है अविरल।

जाग ही तो रही है नदी।

 

एक-एक कर

एक-एक पावन तट पर

छूटते जाते हैं पीछे

फिर भी

बहती रहती है नदी

जागती रहती है नदी

जाग ही तो रही है नदी

जागती रहे नदी।

 

© हेमन्त बावनकर

पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सखे… ☆ मेहबूब जमादार ☆

मेहबूब जमादार 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सखे… ☆ 🖋 मेहबूब जमादार

माझं जगणं सखे तुझ्यात आहे

पुनव  चांदणं सखे तुझ्यात आहे

धुंडाळले जग ते क्षीतिज पल्याड

माझे क्षीतिज सखे तुझ्यात आहे

स्वप्नांचा फुलोरा असा  बहरत जावा

फुलांचे  बहरने सखे तुझ्यात आहे

मी कुठे उरतो सखे तुझ्याविना

जे माझे आहे सखे  तुझ्यात आहे

रात्रंदिन असतो मला तुझाच ध्यास

माझा सारा प्रवास सखे तुझ्यात आहे

© मेहबूब जमादार

मु. कासमवाडी,पोस्ट -पेठ, ता. वाळवा, जि. सांगली

मो .9970900243

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 32 – उत्तेजक हो रही सभ्यता… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – उत्तेजक हो रही सभ्यता।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 32 – उत्तेजक हो रही सभ्यता… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

उत्तेजक हो रही सभ्यता 

घूमे अंग उघार 

उगल रही है अतः लेखनी

शब्द नहीं अंगार 

 

होड़ लगी है किसने कितने 

कपड़े पहने झीने 

ललचाती श्वानों की जिव्हा 

यौवन का रस पीने 

चैनल सभी परोस रहे हैं

टी. वी. पर व्याभिचार 

 

कौये और हंस में 

कोई अन्तर नहीं रहा 

कोका और पेप्सी में 

अब चातक नहा रहा 

करता है पथभ्रष्ट सभी को

भड़कीला बाजार

 

सांस्कृतिक संकल्पों को 

तृष्णा ने तोड़ा है 

हरियाली चर रहा 

पुष्ट दौलत का घोड़ा है 

विश्वग्राम बन गया, बेचने

विध्वंसक हथियार

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 109 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 109 – मनोज के दोहे… ☆

1 रतजगा

सैनिक करता रतजगा, सीमा पर है आज।

दो तरफा दुश्मन खड़े, खतरे में है ताज।।

2 प्रहरी

उत्तर में प्रहरी बना, खड़ा हिमालय राज।

दक्षिण में चहुँ ओर से, सागर पर है नाज।।

3 मलीन

मुख-मलीन मत कर प्रिये,चल नव देख प्रभात।

जीवन में दुख-सुख सभी, घिर आते अनुपात।।

4 उमंग

पुणे शहर की यह धरा, मन में भरे उमंग।

किला सिंहगढ़ का यहाँ, विजयी-शिवा तरंग।।

5 चुपचाप

महानगर में आ गए, हम फिर से चुपचाप।

देख रहे बहुमंजिला, गगन चुंबकी नाप ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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