हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समीक्षा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – समीक्षा ? ?

आज कुछ

नया नहीं लिखा?

उसने पूछा..,

मैं हँस पड़ा,

वह देर तक

पढ़ती रही मेरी हँसी,

फिर ठठाकर हँस पड़ी,

लंबे अरसे बाद मैंने

अपनी कविता की

समीक्षा पढ़ी..!

© संजय भारद्वाज 

(रात्रि 12:46 बजे, 23.12.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #25 ☆ कविता – “नशा…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 25 ☆

☆ कविता ☆ “नशा…☆ श्री आशिष मुळे ☆

ना निकालो बाहर मुझे

डूबा हूं और पीने दो मुझे

यहां बार बार हजार बार

मरकर बस अब जीने दो मुझे

 

घूम घूम झूम झूम

थिरकने दो मुझे

दर्या-ए-दिल में आज

बस बह जाने दो मुझे

 

कहीं बनूं दीप

कहीं बनूं आग

चाहें जैसे सुलगाओ

आज बस जलने दो मुझे

 

आए क्यों सामने

ए पर्दा नशीं

झलक क्या देखी

आती नहीं अब नींद मुझे

 

जानम जानम दर्द-ए-मन

भर दिया प्याला क्यों

प्यासे हमेशा अब होंठ मेरे

चूमा जान-ए-जाना मुझे क्यों

 

था मैं बस आशिष

बनाया मुझे हशीश जो

गर अब छु दूं किसीको

कहीं खो न जाए होश वो

 

देखता सपने नींद में

मुझे जगाया क्यों

अब हूं बस दीवाना

सिखाया मुझे क्यों

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 185 ☆ बाल गीत – वर्षा की हो गई विदाई ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 185 ☆

☆ बाल गीत – वर्षा की हो गई विदाई ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

शरद पूर्णिमा गई क्षितिज में

      वर्षा की हो गई विदाई।

चुपके – छुपके घूमघाम कर

    थोड़ी – सी अब सर्दी आई।।

 

काँस फूलते धवल नवेले

    हरसिंगारी पुष्प खिले हैं।

दिन तो बहुत गए  हैं छोटे

      रातों के अब पंख लगे हैं।

 

भोर हुई है शीतल मोहक

   मौसम है अनुपम सुखदाई।।

 

दूर नहीं है दीवाली भी

    हर घर में हो रही सफाई।

बच्चों में है नई तरंगें

     खेलें – कूदें पिदम – पिदाई।

 

नए – नए उपहार खरीदें

      खुशियों ने बारात चढ़ाई।।

 

चंपा, गेंदा महक रहे हैं

     खूब खिला है सदाबहार।

पक्षी भी आनन्दित होकर

    गाएं मिलकर राग – मल्हार।

 

सूरज भी अब सुखद लग रहे

   हवा खूब ही मन को भायी।।

 

हाफ शर्ट भी नहीं सुहाए

     फूल अस्तीनी निकलीं शर्ट।

पंखे, कूलर बंद हो गए

     मौसम ने कर दिया अलर्ट।

 

गर्म वस्त्र कम्बल भी निकले

     निकलीं लोई और रजाई।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #208 – कविता – ☆ प्रभाव… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके “प्रभाव…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #208 ☆

☆ प्रभाव… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कुछ बातें, जो उसके

संस्कारगत

सोच के विपरीत थी

के बावजूद 

लंबे समय से

साध रखी थी चुप्पी

प्रसंगवश एक दिन

कुछ देर को जुबान क्या खुली

घेर लिया गया वह

अपनों के द्वारा

लगा..

दूध में अनचाहे गिर गई

खटास,

और पल भर में

बदल गई मिठास संबंधों की।

 

अपने पर किए गए

एहसानों व तर्कों के

वार से परास्त

उसने

फिर एक बार

लगा लिया ताला मुँह पर

फेंक दी चाबी

किसी अनजानी जगह

यह जानकर कि,

अधुनातन हवाओं का दबाव

खुद के प्रभाव से

कहीं अधिक भारी है।

 

वह घर का सबसे बड़ा था

बिना किसी दुर्भावना के

अच्छे के लिए लड़ा था

पर छोटे तो

आखिर होते ही हैं अबोध

भले ही वे विरोध में हो

फिर भी अच्छे ही होते है।

अब वह अनन्य भाव से

स्वयं में रमा है

जारी जीवनचक्रीय

परिक्रमा है।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 33 ☆ अपना इतिहास… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “अपना इतिहास…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 33 ☆ अपना इतिहास… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

उम्र भर तलाश

लिखता है आदमी

अपना इतिहास ।

 

अक्षर की पगथली

शब्दों के जंगल

अर्थों के बियावान

खोजते सुमंगल

 

भाषाएँ झेलतीं

युग का संत्रास ।

 

सभ्यता के दोराहे

भ्रमित तरुणाई

संस्कार मीठे से

कड़वी सच्चाई

 

कथा पुराणों तक

सीमित विश्वास ।

 

पंखों पर हवाएँ

रोज़ नया दर्शन

समय की लकीरें

रचतीं परिवर्तन

 

दिशाओं से आगे

केवल वनवास ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बोझ तुम मान के बेटी नहीं रुखसत करना… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “बोझ तुम मान के बेटी नहीं रुखसत करनाए“)

✍ बोझ तुम मान के बेटी नहीं रुखसत करना… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे

क्या रखा दर्प में छोड़ो ये फ़ज़ीयत करना

चाह इज्जत की है तो सीख ले इज्जत करना

हर इबादत का शरफ़ दोस्त मिलेगा तुझको

दरमन्दों से गरीबों से मुहब्बत करना

पहले कर लेना हुक़ूमत से गुज़ारिश फिर भी

कान पर जूं न जो रेंगें तो बगावत करना

एक हद तक ही मुनाफे को कहा है जायज़

दीन को ध्यान में रखके ही तिज़ारत करना

आसतीनों के लिए नाग भी बन जाते हैं

आदमी देख के ही आज रफाक़त करना

हम सफ़र उंसके हो लायक जो उसे दे सम्मान

बोझ तुम मान  के बेटी नहीं रुखसत करना

दोसती करके निभाना है अरुण मुश्किल पर

कितना आसान किसी से भी अदावत करना

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 30 – बढ़ने लगी शुगर… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – बढ़ने लगी शुगर…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 30 – बढ़ने लगी शुगर… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

व्याधिग्रस्त दिखते 

गाँवों से ज्यादा आज शहर 

शक्कर महँगी किन्तु

खून में बढ़ने लगी शुगर 

 

करते नहीं मशक्कत 

बैठे-बैठे खाते हैं 

खूब तेल घी खाकर 

अपनी तोंद बढ़ाते हैं 

क्यों चिन्ता रहती

भर देते इनकम टैक्स अगर

 

जो महनतकश 

उन्हें न कोई रोग सताते हैं 

चर्बी उन्हें न चढ़ती 

रूखा-सूखा खाते हैं 

उनके भूखे पेट

हजम कर जाते हैं पत्थर 

 

भले गरीबी, विपदाओं से 

घिरी रहे बस्ती 

लोक धुनों में नाचें-गायें 

करें श्रमिक मस्ती 

बंजर में भी फसल उगाते

इनके बैल बखर

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 107 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 107 – मनोज के दोहे… ☆

1 मार्गशीर्ष

मार्गशीर्ष शुभ मास यह, मिलता प्रभु सानिध्य।

भक्ति भाव पूजन हवन, ईश्वर का आतिथ्य ।।

2 हेमंत

छाई ऋतु हेमंत की, बहती मस्त बयार।

मोहक लगता आगमन, झूम रहा संसार।।

3 अदरक

अदरक औषधि में निपुण, वात पित्त कफ रोग।

तन को रखे निरोग वह, कर मानव उपयोग।।

4 चाय

विकट ठंड में चाय की, सबको रहती चाह।

अदरक वाली यदि मिले, सब करते हैं वाह।।

5 रजाई

गया रजाई का समय, हल्के कंबल देख।

ठंड नहीं अब शहर में, मौसम बदले रेख।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – गुपित ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – गुपित ? ?

पूछते हैं, अपनी प्रकृति का

संतुलन कैसे रख पाता है?

न फूलकर कुप्पा होता है,

न कुढ़कर दमित होता है,

आलोचनाओं, प्रशंसाओं का

घोल बनाकर पी जाता है,

तब जैसा था, अब वैसा है,

वैसे का वैसा रह पाता है..!

© संजय भारद्वाज 

( प्रात: 11:40 बजे, 21.1.2020)अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 166 – गीत – लौटाता हूँ रथ सपनों का… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – लौटाता हूँ रथ सपनों का।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 166 – गीत – लौटाता हूँ रथ सपनों का…  ✍

लौटाता हूँ रथ सपनों का

शायद आगे राह नहीं है।

 

तिमिर वनों में भटक रहा था

तभी किरन सी पड़ी दिखाई

मावस ने ही जाते जाते

परिचय देकर कहा- ‘जुन्हाई’।

चाँदनिया चंदा की रानी, मुफलिस की दरगाह नहीं हैं

लौटाता हूँ रथ सपनों का, शायद आगे राह नहीं है।

 

नहीं दोष कुछ और किसी का

मैं ही ऐसा करमजला हूँ

जब भी कदम बढ़े हैं आगे

मैं खुद अपनी ओर चला हूँ

कोई आये कोई जाये मंजिल को परवाह नहीं है।

लौटाता हूँ रथ सपनों का शायद आगे राह नहीं है।

 

क्या है मन में कह न सकूँगा

यद्यपि बड़ी विकलता है

बार बार कहता है कोई

प्यास कंठ की दुर्बलता है

प्यासा ही रहने दो प्रियवर सहज विनय है आह नहीं है

लौटाता हूँ रथ सपनों का शायद आगे राह नहीं है।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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