हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 155 ☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “गाँव तरसते शहर को, शहर चाहते गाँव” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “गाँव तरसते शहर को, शहर चाहते गाँव। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “गाँव तरसते शहर को, शहर चाहते गाँव” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

सादी संस्कृति गाँव की एक सरल संसार

बिना दिखावे के जहाँ दिखता हर परिवार ।

 

लोगों में सच्चाई है आपस में है प्यार

परम्पराओं से पगा संबंध हर व्यवहार।

 

छोटी अटपट बात में हो चाहे तकरार

पर घर का हर व्यक्ति हर घर का रिश्तेदार ।

 

सबको है सबकी फिकर सब हैं एक समान

परख-पूँछ है, नेह है, भले न हो पहचान।

 

बड़े सबेरे जागते, सोते होते रात

शाम समय चौपाल में मिलते करते बात ।

 

हर एक के है झोपड़ी, आँगन, बाड़ी, खेत

 जिनमें कटती जिंदगी, पशु-हल – फसल समेत ।

 

शहर गाँव से भिन्न हैं. रीति-नीति विपरीत

यहाँ कोई अपना नहीं, नहीं किसी से प्रीति ।

 

शहरों में फुरसत किसे ? हरेक हर समय व्यस्त

घर के द्वारे बन्द नित, सब अपने में मस्त ।

 

लोगों की आजीविका सर्विस या व्यापार

पड़ोसियों की खबर हित पढ़ते हैं अखबार ।

 

बिन आँगन के घर बने, चढ़े एक पै एक

मंजिल छूते गगन को पातें खड़ी अनेक ।

 

भीड़-भाड़ भारी सदा बड़े बड़े बाजार

आने जाने के लिये, हों गाड़ी या कार ।

 

औपचारिक व्यवहार सब शब्दों का संसार

मन में धन की चाह है केवल धन से प्यार ।

 

गाँव तरसते शहर को, शहर चाहते गाँव

चमक दमक तो बहुत है, शांति न सुख की छाँव ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लोभ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लोभ ? ?

दूर तक

लिख रहा हूँ

ख़ामोशी..!

सब पढ़ना,

सब गुनना,

अपना-अपना

अर्थ बुनना,

लोभी हूँ,

हरेक का अर्थ

घटित होते देखना चाहता हूँ,

अपनी कविता को

बहुआयामी फलित होते

देखना चाहता हूँ..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #208 ☆ भावना के दोहे … ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 208 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे …  डॉ भावना शुक्ल ☆

डोली को अगवा किया, गायब हुए कहार।

माली के षड़यंत्र से, बंदी हुई बहार ॥

चंदन करता चाकरी, दुर्गन्धी दरबार |

कुन्दन को अब मिल रही, गली-गली दुत्कार ॥

सागर से कब बुझ सकी, कभी किसी की प्यास

जीते हैं चातकव्रती, स्वाति बिन्दु की आस ।।

राजनीति का शोरगुल, छलछंदी व्यवहार।

श्वेत  कबूतर उड़ गये, अपने पंख पसार ॥

भीतर बाहर अँधेरा, घेरा काँटेदार।

आज़ादी अभिव्यक्ति की, सिर पर है तलवार ॥

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #191 ☆ एक पूर्णिका – याद ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – याद। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 191 ☆

☆ एक पूर्णिका – याद ☆ श्री संतोष नेमा ☆

याद आपकी आती रही रात भर

दिल मेरा गुदगुदाती रही रात भर

सपनों में  तेरे इस कदर खो  गए

चाँदनी  मुस्कराती  रही  रात भर

इश्क  में  तेरे बदनाम हम हो गए

दूरियां  हमें  डरातीं  रहीं  रात भर

यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे

आँख मेरी डबडबाती रही रात भर

हवा भी अब  प्रेम  गीत  गाने लगी

छूकर  हमें  लुभाती  रही  रात भर

खुद की बेबसी पर चुप हम हो गये

दुनिया  हमें  हँसाती  रही  रात भर

उनके कदमों की आहट जब भी सुनी

नींद “संतोष” न आती रही रात भर

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – हे ! कृष्ण-कन्हैया – ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ – हे ! कृष्ण-कन्हैया  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे 

द्वापर के है! कृष्ण-कन्हैया, कलियुग में आ जाओ।

पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।।

अर्जुन आज हुआ एकाकी, नहीं सखा है कोई।

राधा तो अब भटक रही है, प्रीति आज है खोई।।

गायों की रक्षा करने को, नेह- सुधा बरसाओ।

पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।।

इतराते अनगिन दुर्योधन, पांडव पीड़ाओं में।

आओ अब संतों की ख़ातिर, फिर से लीलाओं में।।

भटके मनुजों को अब तो तुम, गीतापाठ सुनाओ।

पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।।

माखन, दूध-दही का टोटा, कंसों की मस्ती है।

सच्चों को केवल दुख हासिल, झूठों की बस्ती है।।

गोवर्धन को आज उठाकर, वन-रक्षण कर जाओ।

पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।।

अभिमन्यु जाने कितने हैं, घिरे चक्रव्यूहों में।

भटक रहा है अब तो मानव, जीवन की राहों में।।

कपट मिटाने हे ! नटनागर, तुम पांचजन्य बजाओ।

पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।।

आशाएँ सब ध्वस्त हो रहीं, मातम के हैं मेले।

कहने को भीड़ हक़ीक़त में, सब आज अकेले।।

तन-मन दोनों लगें महकने, बंशी मधुर बजाओ।

पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पराकाष्ठा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – पराकाष्ठा ? ?

अच्छा हुआ

नहीं रची गई

और छूट गई

एक कविता,

कविता होती है

आदमी का आप,

छूटी रचना के विरह में

आदमी करने लगता है

खुद से संवाद,

सारी प्रक्रिया में

महत्वपूर्ण है

मुखौटों का गलन,

कविता से मिलन,

और उत्कर्ष है

आदमी का

शनैः-शनैः

खुद कविता होते जाना,

मुझे लगता है

आदमी का कविता हो जाना

आदमियत की पराकाष्ठा है!

© संजय भारद्वाज 

(संध्या 7:15 बजे, दि. 30.5.2016)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #23 ☆ कविता – “यहाँ भी और वहाँ भी…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 23 ☆

☆ कविता ☆ “यहाँ भी और वहां भी…☆ श्री आशिष मुळे ☆

वहाँ ठहरा यहाँ बरसा

मौसम तो मौसम है

वहाँ जलाती यहाँ डुबाती

बारिश तो बारिश है

यहाँ भी और वहाँ भी….

 

वहाँ सपनों में यहाँ सच्चाई में

धूप तो धूप है

वहाँ बैठी अकेली यहाँ कब से लापता

छांव तो छांव है

यहाँ भी और वहाँ भी…..

 

वहाँ आंखो में यहाँ लब्जों में

दर्या तो दर्या है

वहाँ रूह उबलता यहाँ कागज़ गलाता

पानी तो पानी है

यहाँ भी और वहाँ भी…..

 

वहां भी जिंदगी यहां भी जिंदगी

चाहत उसकी निशानी है

वहां भी मौत यहां भी मौत

सेज चिता की अग्नि है

यहाँ भी और वहां भी……

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 183 ☆ बाल कविता – काश! परी यदि मैं बन जाती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 183 ☆

☆ बाल कविता – काश! परी यदि मैं बन जाती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सपनों की दुनिया में खोई

      प्यारी गुड़िया रानी।

परी लोक की दादी अपनी

     कहतीं कई कहानी।।

 

काश! परी यदि मैं बन जाती

      हर बच्चा मुस्काता।

नए- नए मैं वस्त्र पहनाती

      शाला पढ़ने  जाता।।

 

खूब खिलौने उन्हें दिलाती

      खेल खेलती सँग में।

 पर्वों पर उपहार बाँटती

      रँग जाती मैं रँग में।।

 

सैर भी करती बाग बगीचे

     उड़ती नील गगन में।

हर पक्षी से बातें करती

      रहती सदा मगन मैं।।

 

परियों वाली छड़ी घुमा मैं

     सबको खुश कर देती।

झिलमिल झिलमिल वस्त्र पहनकर

       घूम मजे कर लेती।।

 

नींद हो गई सुंदर पूरी

      सपना टूट गया था।

सपने तो सपने हैं होते

       चंदा रूठ गया था।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #206 – कविता – ☆ अदले बदले की दुनियाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके “अदले बदले की दुनियाँ…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #206 ☆

☆ अदले बदले की दुनियाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

साँझ ढली सँग सूरज भी ढल जाए

ऊषा के सँग, पुनः लौट वह आए।

 

अदले बदले की

दुनिया के हैं रिश्ते

जो न समझ पाये

कष्टों में वे पिसते,

कठपुतली से रहे, नाचते पर वश में

स्वाभाविक ही, मन को यही लुभाये….

 

थे जो मित्र आज

वे ही हैं प्रतिद्वंदी

आत्म नियंत्रण कहाँ

सभी हैं स्वच्छंदी,

अतिशय प्रेम जहाँ, ईर्ष्या भी वहीं बसे

प्रिय अपने ही, झूठे स्वप्न दिखाए….

 

चाह सभी के मन में,

आगे बढ़ने की

कैसे भी हो सफल

शिखर पर चढ़ने की,

खेल चल रहे हैं, शह-मात अजूबे से

समय आज का, सबको यही सिखाए….

 

आदर्शों को पकड़े

अब भी हैं ऐसे

कीमत जिनकी आँके

वे कंकड़ जैसे,

हर मौसम के वार सहे,आहत मन पर

रूख हवा का, समझ नहीं जो पाये….

उषा के सँग, पुनः लौट वह आए।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 31 ☆ खुलकर गीत गाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “खुलकर गीत गाएँ…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 31 ☆ खुलकर गीत गाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

मर्सिया पढ़ने से अच्छा

आओ खुलकर गीत गाएँ।

 

माना कठिन है समय

पर उसका ही रोना

कहाँ की है समझदारी

कुछ तो लिखो ऐसा कि

घटते हौसलों में भी

घिरे न यह ज़िंदगी सारी

 

दर्द को ढोने से अच्छा

सुख को काँधों पर उठाएँ।

 

धूप से गठजोड़ कर

हमने खरीदीं रात

मेहनत बेचकर काली

शब्द के घनघोर वन

में बजाते हैं खड़े हो

बस ज़ोर से ताली

 

क्या नियति है यही अपनी

आओ तोड़ें वर्जनाएँ ।

 

दर्द की बैसाखियों पर

चले कब तक ज़िंदगी

उमर घटती जा रही है

जोड़ कर हासिल हुई

आँसुओं के हाथ से

खुशी बँटती जा रही है

 

जो मिला जैसा उसी में

तलाशें संभावनाएँ ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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