हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 173 ☆ बाल कविता – बिल्ली रानी बड़ी कमाल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 173  ☆

☆ बाल कविता – बिल्ली रानी बड़ी कमाल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

कान खड़े हैं, झबरे बाल।

      बिल्ली रानी बड़ी कमाल।।

सैर को निकली है जंगल में

       सोच रही कुछ खाऊँ माल।।

 

भूरी मूँछें, पीली आँखें

      रँग है उसका शेर सरीखा।

कटहल के फल पर है बैठी

       ढूँढा उसने नया तरीका।।

 

माल मिला नहीं कुछ खाने को

         सुबह से हो गई शाम।

शेर दहाड़ा जब जंगल में

        बिल्ली बोली हाय राम ।।

 

बिल्ली ने जब देखा शेरू

      चढ़ी पेड़ के वह ऊपर।

नूपुर हिला – हिला वह बोली

         बड़की हूँ तुझसे  शूटर।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #13 ☆ कविता – “यारा तेरी याद आवे…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 13 ☆

☆ कविता ☆ “यारा तेरी याद आवे…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

यारा तेरी याद आवे

गिरे पतझड़ रास्ते आवे

चलते चलते उन पे

क्यूँ दिल ये दुखावे

 

होवे समय सियाही

चल दे कागज उत्थे

कल होवे जल यू

दर्पण आज भिगोवे क्यूँ

 

यारा तेरी याद आवे

है गुल खिले हुए

मन बने भवरा यू

इतना सा ही शहद क्यूँ

 

होवे रात ज्यादा काली

जुल्फों की चादर ओढ़े

माप लू धागे धागे यू

मुझसे इतनी दूरी क्यूँ

 

यारा तेरी याद आवे

घायल मन पायल सुनावे

घड़ी घड़ी समय यू

खाली हात क्यूँ आवे…

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #196 – कविता – कई स्वजन हैं मेरे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “कई स्वजन हैं मेरे…” । )

☆ तन्मय साहित्य  #196 ☆

☆ कई स्वजन हैं मेरे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कैसे कह दूँ अपने में,

केवल बस मैं हूँ

मेरे भीतर – बाहर,

कई स्वजन हैं मेरे ।

 

आत्मरूप परमात्मभाव

परिजन प्रिय प्यारे

जीवन पथ पर,

रहे सहायक साथ हमारे

प्रेम परस्पर भाई बहन

माँ-पिता, पुत्र का

पुत्रवधू, पुत्रियाँ,

भाव निश्छल सुविचारें,

जन्मजात संबंध रक्त के

भेदभाव नहीं मेरे तेरे।

मेरे भीतर बाहर कई स्वजन हैं मेरे।

 

बचपन में माँ पिता

बहन भाई सँग खेले

बड़े हुए तो लगे

युवा मित्रों के मेले

फिर पत्नी, पत्नी के परिजन

हुए निकटतम

धूप-छाँव के स्वप्न

विचित्र सुखद अलबेले,

प्रेमसूत्र में बँधे,

शक्ति-सामर्थ्य और सुख हैं बहुतेरे।

मेरे भीतर बाहर कई स्वजन है मेरे।

 

माँ से लाड़ – दुलार,

स्नेह संसार मिला

प्राप्त पिता से जीवन,

जग-व्यवहार कला

भाई-बहनों से सम्बन्ध,

समन्वय सीख

संतानों से मन-उपवन

है खिला-खिला,

स्वाभाविक ही जीवन में

सुख-दुख के भी रहते हैं फेरे

मेरे भीतर बाहर कई स्वजन है मेरे।

 

परिजन रहित,

अकेला जीवन तो है खाली

बगिया में ज्यों,

बिन फूलों के रहता माली

हो कृतज्ञ मन,

एक दूजे से प्रीत निभाएँ

तभी मनेगी  राखी,

होली, ईद,  दिवाली,

बिन परिजन अभिमन्यु तोड़

सका नहीं चक्रव्यूह के घेरे।

मेरे भीतर बाहर कई स्वजन हैं मेरे।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 21 ☆ हमारी आस्थाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “हमारी आस्थाएँ…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 21 ☆ हमारी आस्थाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

हल नहीं मिलता

किसी भी प्रश्न का

हो गईं बहरी हमारी आस्थाएँ।

 

दिन उगा सूरज लिए

शाम को फिर ढल गया

और अपनी अस्मिता को

कोई आकर छल गया

 

डूबते तिनके

मिले हर बार ही

चुक गईं या मर गईं संभावनाएँ।

 

हो रहे गहरे अँधेरे

साँस हर पल जागती है

रात के अंधे कुए में

भोर उजली चाहती है

 

मौन पीती

आँख अश्रु से भरीं

निरर्थक सब हो गईं हैं प्रार्थनाएँ ।

 

टेरते ही रह गए हम

भागते से अवसरों को

वक्त के हाथों पिटे

देखा किए बाजीगरों को

 

खेल के मोहरे

ही बनकर रह गए

दफ़्न होकर रह गईं सब कामनाएँ ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अपनों ने ही मेरी खातिर साज़िश की… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “अपनों ने ही मेरी खातिर साज़िश की“)

✍ अपनों ने ही मेरी खातिर साज़िश की… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

दिल से जब भी कुछ पाने की कोशिश  की

सबने दिल को बहलाने की कोशिश की

जब से सर पे खुशियों का साया आया

अपनों ने ही मेरी खातिर साज़िश की

मातम सी मायूसी छाई महफ़िल में

कौन आया है जिसने आकर ताबिश की

आपस का राजीनामा कर लो अच्छा

वर्षों पेशी करना है जो नालिश की

वो बनता फ़नकार बड़ा सबसे हटकर

जिसने फ़न की अपने खूब नुमाइश की

नजराना ही बदला करता है नजरें

बेज़ा जाती खाली दोस्त गुजारिश की

महदूद अरुण को इल्म अदब का था यारो

उसकी रहमत मानो जो है दानिश की

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 17 – तिरस्कृत हुए उजाले हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – तिरस्कृत हुए उजाले हैं…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 17 – तिरस्कृत हुए उजाले हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

राजनीति ने प्रश्रय देकर 

उल्लू पाले हैं 

इसीलिए तो आज

तिरस्कृत हुए उजाले हैं 

बड़बोला है झूठ 

सत्य की बंद जुबानें हैं 

पक्षकार अपनी-अपनी 

हठधर्मी ठाने हैं 

यहाँ साक्षियों की आँखों में

पड़ते जाले हैं 

जिससे ज्ञान-प्रकाश मिला 

वह दीपक बुझा दिया 

घात उसी ने की 

जिस पर हमने विश्वास किया 

जिन्हें केंचुआ समझा

निकले विषधर काले हैं 

कौये, बगुले आरक्षण के 

मोती पाते हैं 

राजहंस अपनी 

सवर्णता पर पछताते हैं 

राजनीति ने लगा दिये

किस्मत पर ताले हैं

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 94 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 94 – मनोज के दोहे… ☆

आजादी

कैसे कुछ इंसान हैं, मचा रखी है लूट।

आजादी के नाम पर,समझें बम्फर छूट।

उत्कर्ष

योगदान सबका मिला, भारत का उत्कर्ष।

प्रगति और उत्थान से, जन मानस में हर्ष।।

लोकतंत्र

लोकतंत्र बहुमूल्य यह, समझें इसका मूल्य।

राष्ट्र धर्म के सामने, होता सब कुछ  शून्य।।

भारत

भारत ऐसा देश यह, सदियों रहा गुलाम।

किन्तु ज्ञान विज्ञान से, पाया विश्व मुकाम।।

तिरंगा

हाथ तिरंगा थामकर, गूँजी जय-जयकार।

राष्ट्र भक्ति सँग एकता, जनमानस का प्यार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सिद्ध प्रमेय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सिद्ध प्रमेय ??

बेहाल वृत्त खीझता है

कभी केंद्रबिंदु पर,

त्रिज्या पर कभी,

कुढ़ जाता है, थककर

स्थितियों के गोलार्ध में

धम्म से धँस जाता है,

केंद्रबिंदु और त्रिज्या

दृष्टि झुकाए

चुपचाप पी लेते हैं

वृत्त का पूरा रोष,

नि:शब्द सह लेते हैं

सारा आक्रोश,

लज्जित वृत्त

त्रिज्या के सहारे

फिर साधता है संवाद

केंद्रबिंदु से..,

सच्चाई जानते हैं, सो

थोड़ा बनने,

थोड़ा ठनने और

कुछ ऐंठने के बाद

तीनों ठठाकर हँसने लगते हैं,

यकायक वे बाप, बेटी

और माँ में

बदलने लगते हैं!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बलवान – बलहीन ☆ श्री विष्णु प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री विष्णु प्रकाश श्रीवास्तव

(स्वपरिचय – बचपन से कविता, कहानियों में रुचि। मुंशी प्रेमचंद जी की लगभग सभी उपन्यास एवं कहानियाँ युवावस्था में ही पढ़ी। किसी विषय पर तुरंत कविता बनाने (तुकबंदी) की आदत।)

☆ कविता ☆ बलवान – बलहीन ☆ श्री विष्णु प्रकाश श्रीवास्तव ☆

शेरों का बलिदान न होते सुना। 

बकरे बलिवेदी पे चढ़ाये गए ।। 

 

साँपों को दूध पिलाया गया ।

केंचुए कटिए में फंसाए गए।।  

 

टेढ़े पेड़ कभी भी न काटे गए। 

सदा सीधे पे आरे चलाये गए।।

 

बलवान का बाल न बाँका हुआ। 

बलहीन धरा पर सताये गए ।।

 

© श्री विष्णु प्रकाश श्रीवास्तव 

पुणे 

मो +91 94151 90491

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 152 – गीत – दुख भी सुख लगता है… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – दुख भी सुख लगता है…।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 152 – गीत – दुख भी सुख लगता है…  ✍

बुझने के संकल्प क्षणों में

जलने का संतोष मिल गया।

 

मैं तो होंठ सिये बैठा था

मेरे पास शब्द थोड़े थे

गीतों की सौगंध दिलाकर

तुमने ही टाँके तोड़े थे।

मरहम की उम्मीद नही थी, लेकिन तुमने घाव कुरेदे।

मेरे लिये बूँद का टोटा, औरों को मधुकोष मिल गया।

 

जो भी तुमने किया ठीक है

अब तो दुख भी सुख लगता है

तुमने दुख भी दिया अधूरा

केवल इतना दुख लगता है।

मेघों का परिचय माँगा था, मगर मिली मरुथल की दहकन

राई भर गुनाह के कारण, पर्वत जैसा दोष मिल गया।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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