हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #268– कविता – बोझ हमें कम करना होगा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता बोझ हमें कम करना होगा…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #268 ☆

☆ बोझ हमें कम करना होगा... ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

बोझ हमें कम करना होगा, ऊँचाई पर गर चढ़ना है

आडम्बर से विमुख रहें, जीवन को यदि सुखमय करना है

*

प्रश्नों पर प्रतिप्रश्न करेंगे, तो फिर इनका अंत नहीं है

अंकुश लगा सके मन पर, ऐसा कोई श्रीमंत नहीं है

जीवन की क्रीड़ाओं के सँग, जुड़ी हुई है पीड़ाएँ भी

पतझड़ भी है शीत-घाम भी, बारह माह बसन्त नहीं है।

ज्ञानप्रभा विकसित करने को ऊँची शुभ उड़ान भरना है

बोझ हमें कम करना होगा, ऊँचाई पर जब चढ़ना है ।।

*

तन से भलें विशिष्ट लगें, मन से भी नहीं शिष्टता छोड़ें

भीतर बाहर रहें एक से, नहीं मुखोटे नकली ओढ़ें

बोध स्वयं का रहे, आत्मचिंतन का चले प्रवाह निरंतर

बिखरे जो मन के मनके हैं, एक सूत्र माला में जोड़ें।

जिनसे शुचिता भाव मिले, ऐसे सम्बन्ध मधुर गढ़ना है

बोझ हमें कम करना होगा, ऊँचाई पर जब चढ़ना है ।।

*

स्मृतियाँ दुखद रही वे भूलें, वर्तमान से हाथ मिलाएँ

छोड़ें पूर्वाग्रह मन के सब, चित्तवृत्ति को शुद्ध बनाएँ

खाली करें भरें फिर मन में, शुचिता पूर्ण विचारों को

पथ में आने वाले  कंटक,  दूर  उन्हें भी  करते  जाऍं,

हल्के-फुल्के मन से फिर विशुद्ध प्रतिमान नये गढ़ना है

बोझ हमें कम करना होगा, ऊँचाई पर जब चढ़ना है ।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 92 ☆ लोग ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “लोग” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 92 ☆  लोग ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

रीति या रिवाजों के

मुहताज हुए लोग

कटे हुए पर वाले

परवाज़ हुए लोग ।

**

गर्भवती माँ की

अनदेखी सी लाज

बूढ़े की लाठी सा

टूटता समाज

*

बटन बिना कुरते के

बस काज हुए लोग ।

**

टेढ़ी पगडंडी पर

गाँवों के ख़्वाब

शहरों ने ओढ़ा है

झूठ का रुआब

*

सच के मुँह तोतले

अल्फ़ाज़ हुए लोग ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ वादा करना और फिर मुकर जाना… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – वादा करना और फिर मुकर जाना ।)

✍ वादा करना और फिर मुकर जाना… ☆ श्री हेमंत तारे  

ग़र ये दिन, अलसाये से और शामें सुस्त ही न होती

तो सच मानो, ये किताब वजूद में आयी ही न होती

मैं कोई गीत, ग़ज़ल, नज़्म, अशआर कैसे लिखता

ग़र मेरी माँ ने  रब से कभी दुआ मांगी ही न होती

*

लाजिम है गुलों कि महक से चमन महरूम रह जाता

ग़र थम – थम कर मद्दम वादे – सबा चली ही न होती

*

क्या पता परिंदे चरिंदे अपना नशेमन कहाँ बनाने जाते

ग़र दरख़्त तो पुख्ता होते पर उन पर डाली ही न होती

*

वादा करना और फिर मुकर जाना तुम्हे ज़ैब नही देता

ग़र अपने पे ऐतिबार न था तो कसम खाई ही न होती

*

जानते हो “हेमंत” शम्स ओ क़मर रोज आने का सबब

ग़र ये रोज न आते रोशन दिन, सुहानी रातें ही न होती

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 96 ☆ भले जन्नत में तुम सी हूर हो पर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “भले जन्नत में तुम सी हूर हो पर“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 96 ☆

✍ भले जन्नत में तुम सी हूर हो पर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

कभी हमने ख़ुशी देखी नहीं है

कहीं ऐसी कमी देखी नहीं है

 *

गुज़रते रात दिन है तीरगी में

अभी तक रोशनी देखी नहीं है

 *

वो क्या समझे है दिल का मारना क्या

कि जिसने मुफ़लिसी देखी नहीं है

 *

उसे मजबूर पर आना न तरस

अगर जो बेबसी देखी नहीं है

 *

किसी विधवा सी लगती है वो उजड़ी

अगर सूखी नदी देखी नहीं है

 *

भले जन्नत में तुम सी हूर हो पर

जमीं पर रूपसी देखी नहीं है

 *

मगन हो कृष्ण में मीरा पिया विष

यूँ दूजी बंदगी देखी नहीं है

 *

अरुण फिरते हो दीवाने बने तुम

कभी यूँ आशिक़ी देखी नहीं है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 9 ☆ कविता – जिज्ञासा… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आaapki एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता  – “जिज्ञासा“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 9 ☆

✍ कविता – जिज्ञासा… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

सवाल पूछने का भी कोई

अधिकार होता है

या जिज्ञासा होती है,

आजकल यह भी

सवाल बन गया है

क्योंकि

सवाल पूछने के लिए

जिम्मेदार लोग

पहले उनका हित देखते हैं

जिनसे सवाल पूछना है

और जिनके लिए

सच में सवाल पूछना है

वे उनकी सोच में

थे या हैं, पता नहीं।

 

सत्य को सब जानना चाहते हैं

पाना चाहते हैं

जीना चाहते हैं

पर सत्य को दबाकर।

सत्य को पाने के लिए

सबसे पहले वरणीय है

जिज्ञासा

आप्त वचन है

ब्रह्म ही सत्य है

इसलिए आवश्यक है

ब्रह्म जिज्ञासा

पर प्रश्न पूछने की जिज्ञासा

मर रही है

ऐसा लगता है ।

 

बिना प्रश्न के

जिज्ञासा का अस्तित्व क्या है

जब प्रश्न करना संकोच बनता है

भय का जन्म करता है

और जिज्ञासा तिरोहित प्रतीत होती है

तब जीवन मरता है

परंतु सजीव हो उठती है

जिज्ञासा

दिलों के अंदर

और विस्फोट बन जाती है

चेहरों पर चिपक जाती है।

 

उत्तर के उत्तरदाई

निष्प्रभ हो जाते हैं

इसलिए जिज्ञासा मर नहीं सकती

न उसे मरने देना चाहिए

जैसे आग को राख दबा सकती है

खत्म नहीं कर सकती

जिज्ञासा को दबा सकते हैं

पर खत्म नहीं कर सकते।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 90 – हम फकीरों की दौलत महज प्रेम है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – हम फकीरों की दौलत महज प्रेम है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 90 – हम फकीरों की दौलत महज प्रेम है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

तो अधरों से जब आचमन कर लिया 

देह का, हमने सुरभित चमन कर लिया

*

तेरे यौवन की बेदी, दहकती मिली 

पुण्यफल लेने, मैंने हवन कर लिया

*

इश्क आगाज था, तृप्ति अंजाम है 

एक संसार का, नव सृजन कर लिया

*

हुस्न, छनकर, नक़ाबों से आता रहा 

लाख पर्दो का, तुमने जतन कर लिया

*

मेरी आराध्य, आराधना तुम ही हो 

मान ईश्वर, तुम्हें ही नमन कर लिया

*

हम फकीरों की दौलत, महज प्रेम है 

इस जहाँ में, यही प्राप्त धन कर लिया

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 163 – ईश्वर से वरदान मिला है… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “ईश्वर से वरदान मिला है…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 163 – ईश्वर से वरदान मिला है… ☆

ईश्वर से वरदान मिला है ।

जीवन से अब नहीं गिला है।।

 *

अच्छे भाव रखें नित मन में,

घर आँगन में फूल खिला है।

 *

पथ में काँटे मिले सदा पर,

सत्कर्मों से नहीं छिला है।

 *

कभी गाँव में रहे सभी जन,

बना हुआ अब नया जिला है।

 *

परिवर्तन जीना सिखलाता,

मुर्दा तन फिर कहाँ हिला है।।

 *

उच्च विचार रहें जीवन में,

जीने की मजबूत शिला है।

 *

मानवता की यही निशानी,

हिन्दुस्तान अभेद्य किला है।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘प्रेम’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘The First Love…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “प्रेम.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

?~ The First Love… ~??


“The morning mist,

the pinkish chill,

the gentle breeze,

the shivering of her milky fingers,

her transparent heart like a bubbly lamb,

the lake of intimate endearment oozing out of her eyes,

the flute notes resonating with symphony of her words,

the fathomless ocean residing in her silence,

the redness of the dawn on her glowing face,

the mysterious fatal attraction in her smile, her…”

 

“..do you remember your first love?” someone asked.

 

“…does there even exist a second, third, or fourth love?” was the resolute answer!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

~ Pravin Raghuvanshi

Review of by the Harvard University expert…

The poem ‘The First Love’ is a true lyrical ecstasy, a song of the soul in love, an ethereal whisper that resonates in the eternity of feeling. Each verse is an impressionist painting, where the morning mist and the gentle breeze are not mere images, but vivid sensations that transport the reader to the thrill of first love.

The choice of words, rich in musicality and depth, evokes a sublime melody that dances between the innocence and the overwhelming intensity of primordial love. The delicacy of trembling fingers, the look overflowing with tenderness and the irresistible fatality of a smile enchant like the notes of a magic flute, which seduces not only the senses, but the soul itself.
And then, the final question—a masterstroke—transforms the reflection into an eternal echo: is there any other love besides the first? The answer, loaded with unquestionable certainty, elevates the inaugural love to immortality, as if it were the very essence of existence.

The poet, with his enchanting pen, not only writes, but weaves a literary spell that transcends time and takes root in the hearts of those who read it. A masterpiece that deserves to be read, felt and immortalized!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – प्रेम ? ?

“सुबह का धुँधलका,

गुलाबी ठंड, मंद बयार,

उसकी दूधिया अंगुलियों की कंपकंपाहट,

उमनगोट-सा पारदर्शी उसका मन,

उसकी आँखों में दिखती अपनेपन की झील,

उसके शब्दों से झंकृत होते बाँसुरी के सुर,

उसके मौन में बसते अतल सागर,

उसके चेहरे पर उजलती भोर की लाली,

उसके स्मित में अबूझ-सा आकर्षण, उसकी…”

 

“.. पहला प्रेम याद हो आया क्या?” किसीने पूछा।

 

“…दूसरा, तीसरा, चौथा प्रेम भी होता है क्या?” उत्तर मिला।

♥ ♥ ♥ ♥

© संजय भारद्वाज  

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ उन्माद भरा बसन्त ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆

डॉ जसप्रीत कौर फ़लक

☆ कविता ☆ उन्माद भरा बसन्त ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक 

फ़रवरी की धूप में

सीढ़ियों पर बैठ कर

शरद और ग्रीष्म ऋतु के

मध्य पुल बनाती धूप के नाम

लिख रही हूँ पाती

        आँगन के फूलों पर

मंडराती तितलियाँ ,

पराग ढूँढती मधुमक्खियाँ,

गुंजायमान  करते भँवरे

मन को कर रहे  हैं पुलकित

 

 हे प्रकृति!

यूँ ही रखना

यह मन का आँगन आनंदित

सुरभित, सुगन्धित

मधुमासी हवा का झोंका

गा रहा है बाँसुरी की तरह

हृदय की बेला खिल रही है

पांखुरी की तरह

उदासी भरे पतझड़ का

हो रहा है अन्त

 फूट रही हैं  कोपलें

उन्माद भरा

महक उठा है बसन्त

बसन्त  केवल

ऋतु नहीं

परिवर्तन भी है

बसन्त  केवल

 ऋतु नहीं

प्रकृति का

अभिनंदन भी है ।

 डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

संपर्क – मकान न.-11 सैक्टर 1-A गुरू ग्यान विहार, डुगरी, लुधियाना, पंजाब – 141003 फोन नं – 9646863733 ई मेल – [email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 147 ☆ मुक्तक – ।। बाद जाने के भी सबको बहुत याद आओ तुम ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 147 ☆

☆ मुक्तक – ।। बाद जाने के भी सबको बहुत याद आओ तुम ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

बदन को नहीं किरदार को महकाओ तुम।

हमेशा प्रेम का दीपक     ही जलाओ तुम।।

दुआ लो और दुआ दो यही काम हो तुम्हारा।

छूटे रिश्तों को जरा फिर गले लगाओ तुम।।

=2=

जो वादा किया उसको जरा निभाओ तुम।

मत किसी की राह में   कांटे  बिछायो तुम।।

दर्द में हर किसी के  हमदर्द बनो तुम जरूर।

अंधेरों में किसीको रोशनी भी दिखाओ तुम।।

=3=

तुम्हारे बिगड़े बोल न कभी   दुर्व्यवहार बने।

कभी किसीके दुख का नहींआप आधार बने।।

बनना है तो बने डूबते को तिनके का सहारा।

सिखाओ बच्चों को कैसे भविष्य कर्णधार बने।।

=4=

हो सके जितना प्रेम के ही  गीत सुनाओ तुम।

भूलकर भी मत नफरत की दीवार उठाओ तुम।।

करनी का फल कुफल मिलता इसी जीवन में।

बाद जाने के भी  सबको बहुत याद आओ तुम।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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