हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माँ – तीन कालजयी कविताएं ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है माँ पर आपकी तीन कालजयी कविताएं।)

☆ माँ – तीन कालजयी कविताएं ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

[1]  

शहर में जब भी दंगा होता है

माँ बौरा जाती है

कर्फ्यू लगता है तो पथरा जाती है माँ

ऐसे समय में माँ अक्सर

सन् सैंतालीस की बातें करती है

सन् सैंतालीस ने माँ से छीने थे

उसके माँ-बाप और भाई

वह हर बार पूछती है एक सवाल

क्यों बनता है शहर श्मशान

क्यों हैवान हो जाते हैं इन्सान

कुछ क्यों नहीं करते हुक्मरान

दंगे में मौत की ख़बरें जब

पर लगाकर पहुँचती हैं माँ के पास

तो पूरा घर ख़ामोश हो जाता है

सिर्फ़ माँ बोलती है

‘तू सब का राखनहार है रब

हिन्दू को रख, मुसलमान को रख

दुनिया को रख, इन्सान को रख

तब घर में एक रब होता है

एक माँ होती है

और होता है सन् सैंतालीस।

 

[2]

माँ ने देखा है

जब मज़हब के नाम पर बँटता है मुल्क

तो ख़ून सच होता है या जुनून

जब मज़हब इन्सान से बड़ा होता है

मौत का विजय अभियान शुरू होता है

त्रस्त प्रजा घर छोड़कर भागती है

मौत के साम्राज्य से दूर

प्रजा जब मौत की ज़द से बाहर आती है

तो हिसाब लगाती है

किसका कौन मरा?

कौन खोया?

माँ ने देखा है

कि उजड़ने के बाद

बसने की प्रक्रिया में

जब अजनबियों को अपना बनाना होता है

तो भूल जानी होती है अपनी पहचान

अपने दोस्त

भूल जाने होते हैं अपने गीत

अपनी ज़ुबान

माँ ने महसूस किया है

कि जब किसी उजड़ी हुई औरत का

पहला बच्चा जन्म लेते ही मर जाता है

तो कैसे आँखें बन जाती हैं

उद्गम रावी और चनाब का

माँ ने महसूस किया है

उस ज़हर का असर

जो घुल गया था प्रजा के रक्त में

अब माँ का एक घर है

और माँ देख रही है

एक बार फिर वही ज़हर

भर्राई माँ के सीने में

संभावना बनकर फैल रहा है

फिर वही भयावह इतिहास।

 

[3]

माँ ने भेजीं चीज़ें कितनी

कटोरी भर मक्खन

साड़ी के टुकड़े में बँधा

सरसों का साग

थैला भर गोलिया बेर

बहू के लिए काले मोतियों की

हरिद्वारी माला

मोमजामे में रखी अरहर की दाल

उसी में एक चिट्ठी

पड़ोस की लड़की की लिखी हुई

चिट्ठी में लिखा है बहुत कुछ-

‘माँ और बापू ठीक हैं

पड़ोस में सब कुशल मंगल है

गणपत के यहाँ लड़की हुई है

किशन की माँ चल बसी है

ख़ूब बारिश हुई है

गाय ले ली है

दूध बिना मुश्किल थी’

चिट्ठी में लिखा है और भी बहुत कुछ

पर वह स्याही से नहीं लिखा।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ बाल कविता: फलों की सौगात ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

 ☆ बाल कविता: फलों की सौगात  ♣ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी 

भेंट गरमी की कितनी – लीची जामुन आम

लाल काले नारंगी – खाना है बस काम !

 

जौनपुर से लुढ़क चला पीला सा खरबूज

लाल दिल लिये है खड़ा वो काला तरबूज।

 

खट्टा तो है फालसा। कहा, “नमक लो डाल।”

“खट्टे मीठे स्वाद है”, बोली जीभ, “कमाल !”

 

काटो कच्चे आम, लो हरा पुदीना पीस

चट् खाओ खूब चटनी खटपन में भी बीस !

 

अटकी गले में गुठली ? दादाजी नाराज

दाँत नहीं है आम को कैसे खायें आज ?

 

ओ. के.! पानी चाहिए ? आयेगी बरसात।

सर का पारा क्यों चढ़ा ? है इतनी सी बात !

 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो:9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (36 – 40) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

 

नगर अयोध्या के बड़े मंदिर के आराध्य।

सब देवों ने की कृपा उस पर अमित अगाध।।36।।

 

सूख न पाई वेदिका उसके पहले आप।

सागर तट तक, अतिथि का पहुंचा तेज प्रताप।।37।।

 

गुरू वशिष्ठ के संग-संग, वीर अतिथि के बाण।

कौन था ऐसा लक्ष्य जो हो न सके संधान।।38।।

 

बैठ धार्मिक सजग सब सभासदों के साथ।

धर्मोचित सब वादियों के सुनते थे वाद।।39।।

 

सुन भृत्यों की प्रार्थना उचित नियम अनुसार।

याचित फल भी शीघ्र ही करते थे स्वीकार।।40।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 32 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 32 – मनोज के दोहे

(बरसे, होलिका, होली, छैला, महान)

बरसे

गाँवों की चौपाल में, बरसे है रस-रंग।

बारे-बूढ़े झूमकर, करते सबको दंग।।

होलिका

जली होलिका रात में, हुआ तमस का अंत।

अपनी संस्कृति को बचा, बने जगत के कंत।।

होली

कवियों की होली हुई, चले व्यंग्य के बाण।

हास और परिहास सुन, मिला गमों से त्राण।।

छैला

छैला बनकर घूमते, गाँव-गली में यार।

बनें मुसीबत हर घड़ी, कैसे हो उद्धार।।

महान

हाथ जोड़कर कह रहा, भारत देश महान।

शांति और सद्भाव से, हो मानव कल्यान।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ऊँचाई ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – ऊँचाई  ??

बहुमंज़िला इमारत की

सबसे ऊँची मंज़िल पर

खड़ा रहता है एक घर,

गर्मियों में इस घर की छत,

देर रात तक तपती है,

ठंड में सर्द पड़ी छत,

दोपहर तक ठिठुरती है,

ज़िंदगी हर बात की कीमत

ज़रूरत से ज़्यादा वसूलती है,

छत बनने वालों को ऊँचाई

अनायास नहीं मिलती है..!

© संजय भारद्वाज

(रात्रि 3:29 बजे, 20 मई 2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (31 – 35) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

 

देख ‘अतिथि’ के बदन पै सदा मधुर मुस्कान।

सब सेवक के लिये थे वे विश्वास महान।।31।।

 

इंद्र सदृश सम्पन्न नृप हो निज गज आरूढ़।

कल्प-द्रुम-ध्वज अयोध्या को दिया सुखों से पूर।।32।।

 

राजछत्र था अतिथि का सुखद विमल औ’ शांत।

कुश वियोग के ताप को किया था जिसने शांत।।33।।

 

ज्वाल धूम के बाद ही रश्मि, उदय के बाद।

होती पर चमके ‘अतिथि’ अग्नि-रवि को दे मात।।34।।

 

स्वच्छ शरद तारक विभा को ज्यां लखती रात।

त्योंहि अतिथि प्रति देखती, नगर-नारि सोउल्लास।।35।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 87 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 87 –  दोहे ✍

अर्पण का आशय यही ,होता अहम विलीन।

बिना समर्पण कब हुए, मीरा या रसलीन।।

 

सुमन गंध या मन पवन, रहते सदा विदेह।

द्वैत भूमि में उगते, अनचाहे संदेह।।

 

दूध चंद्र की क्षीणता, मीन यथा जलहीन ।

शयनकक्ष में वक्ष  को, ढाके प्रिया प्रवीन।।

 

साथ तुम्हारे जब रहा, उजली  थी तकदीर ।

और बिछड़ कर यों लगा, उजड़ गया कश्मीर।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 90 – “लहरों से पृथक कहीं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “लहरों से पृथक कहीं…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 90 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “लहरों से पृथक कहीं”|| ☆

चेहरे में देखा प्रयाग

रोचक इतिवृत्त पढा

गालों के अनुपम भूभाग

 

नेत्र उभर कर आये

संगम में तैर रही नाव

रेत- रेत उग आया

पानी पर विखरा सदभाव

 

लहर-लहर आनंदित

दोल रहा प्रमुदित सा शीतल

यह ज्योतित अनुराग

 

है श्लाघ्य वर्तमान

अंजलि में ठहरे जल सा

सूर्य-कलश लहराता

स्मृतियों के सजीव हल सा

 

फूल-फूल बहता है जिस

 पर नवनीत सदृश

परस-परस पुण्य का पराग

 

लहरों से पृथक कहीं 

उत्फुल्लित सान्ध्यपर्वराग

है विलुप्त जहाँ कहीं

मंथन का दूध-धवल झाग

 

रह-रह कर लहराना

कटि प्रदेश चोटी  का

लगती है फणि  धारी नाग

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

05-05-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बंधन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – बंधन ??

खुला आकाश,

रास्तों की आवाज़,

बहता समीर,

गाता कबीर,

सब कुछ मौजूद है

चलने के लिए…,

ठिठके पैर,

खुद से बैर,

निढाल तन,

ठहरा मन…,

हर बार साँकल

पिंजरा या क़ैद,

ज़रूरी नहीं होते

बाँधे रखने के लिए..!

© संजय भारद्वाज

रात्रि11.57, 5 जुलाई 2015

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 136 ☆ मेरा गांव ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता “मेरा गांव”।)  

☆ कविता # 136 ☆ मेरा गांव ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

भीषण गरमी

तेज धूप, 

सूरज जलता

है मेरे गांव में

*

ताल तलैया

सूख गए हैं

लू का झोंका

है मेरे गांव में

*

पंखा झलते

पिता दुखी हैं

जहर भर गया

है मेरे गांव में

*

अविदित संकट

मंहगी मंहगाई

झगड़ा झंझट

है मेरे गांव में

*

सूखी फसल

भूखे बच्चे

खेल रहे

हैं मेरे गांव में

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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