हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “ आवारा ” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ कविता ☆ “आवारा” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

मन में ना कोई धरम है

ना किसी की नफरत है

बस जीने की एक ख्वाहिश है

सीने में एक धड़कता दिल है

कहते हमे आवारा है ।

 

हमें जाना कहीं नहीं है

रास्ता यही हमारा घर है

जन्नत कहाँ है पता नहीं है

जन्नम का हमें डर नहीं है

कहते हमे आवारा है ।

 

प्यार खुले आसमां में उड़ता है

नफ़रत बंद गलियों में दौड़ती है

इंसानियत जंगल में रहती है

हैवानियत अब घर में क़ैद है

और कहते हमे आवारा है ।

 

खयाल पत्थरों को जान देते हैं

पत्थर मासूमों की जान लेते है

कहानियों के पीछे जिंदगी भागती है

वहां मौत सड़कों पे नाचती है

और कहते हमे आवारा है ।

 

रहमत है खुदा की भगवान की कृपा है

हाथों पे खून किसी मासूम का नहीं है

किसी होशियार के प्यादे नहीं है

किसी कहानी के हम गुलाम नहीं है

शुक्र है हम आवारा है

शुक्र है हम आवारा है ।

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #183 – 69 – “वक़्त ने बदल कर रख दी तहरीर…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “वक़्त ने बदल कर रख दी तहरीर …”)

? ग़ज़ल # 69 – “वक़्त ने बदल कर रख दी तहरीर…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी खुशनुमा है जब दिल से दिल मिलता है,

जमाने में किसी को कहाँ सच्चा दिल मिलता है।

वक़्त ने बदल कर रख दी तहरीर आशियाने की,

एक घर में रहकर नहीं कोई हिलमिल मिलता है।

मुहब्बत में गुमसुम लोगों से क्या हाल पूछते हो,

ढूँढते माशूक़ पता उन्हें साँप का बिल मिलता है।

दोस्ती का खेल भी खूब खेला जा रहा आजकल,

काम निकला फिर कब दोस्त से दिल मिलता है।

रिश्ते नाते दिखावटी नुमाइश बनकर रह गए हैं,

आतिश को हाथ में नहीं कुछ हासिल मिलता है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 61 ☆ ।।प्रेम से परिवार बनता स्वर्ग समान है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।प्रेम से परिवार बनता स्वर्ग समान है।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 61 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।प्रेम से परिवार बनता स्वर्ग समान है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

परिवार छोटी सी   दुनिया,   प्यार का संसार है।

एक अदृश्य स्नेह प्रेम का अद्धभुत सा आधार है।।

है बसा प्रेम तो स्वर्ग सा घर,अपना बन जाता।

कभी बन्धन रिश्तों का,  कभी मीठी तकरार है।।

[2]

सुख दुख आँसू मुस्कान, बाँटने का परिवार है नाम।

मात पिता आदर से परिवार,बनता है चारों धाम।।

आशीर्वाद,स्नेह, प्रेम,त्याग,डोरी से बंधे हैं सब।

प्रेम गृह छत तले परिवार, होता है स्वर्ग समान।।

[3]

तेरा मेरा नहीं हम  सबका, होता है परिवार में।

परस्पर सदभावना बसती है,यहाँ हर किरदार में।।

नफरत ईर्ष्या का कोई,स्थान नहीं घर के भीतर।

प्रभु स्वयं ही आ बसते, बन प्रेम मूरत घर संसार में।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अपने वरक्स ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अपने वरक्स ??

(कविता संग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से)

फिर खड़ा होता हूँ

अपने कठघरे में,

अपने अक्स के आगे

अपना ही मुकदमा लड़ने,

अक्स की आँख में

पिघलता है मेरा मुखौटा,

उभरने लगता है

असली चेहरा..,

सामना नहीं कर पाता,

आँखें झुका लेता हूँ

और अपने अक्स के वरक्स

हार जाता हूँ अपना मुकदमा

हर रोज़ की तरह…!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी ।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 125 ☆ ग़ज़ल – “जग तो मेला है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक गावव ग़ज़ल  – “जग तो मेला है…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #125 ☆  गजल – “जग तो मेला है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

अकेला चाहे भला हो आदमी संसार में

जिंदगी पर काटनी पड़ती सदा दो चार में।

 

कट के दुनियां से कहीं कटती नहीं हैं जिंदगी

सुख कहीं मिलता तो, मिलता है वो सबके प्यार में।

 

भुलाने की लाख कोई कोशिश करे पर हमेशा 

याद आते अपने हर एक तीज औ’ त्यौहार में।

 

जहाँ होते चार बरतन खनकते तो है कभी

अलग होते ही हैं सब रूचि सोच और विचारा में।

 

मन में जो भी पाल लेते मैल वे घुटते ही है

क्योंकि रहता नहीं स्थित भाव कोई बाजार में।

 

जो जहाँ जैसे भी हो सब खुश रहे फूलें-फलें

समय पर मिलते रहें, क्या रखा है तकरार में।

 

चार दिन की जिंदगी है, कुछ समय का साथ हैं

एक दिन खो जाना सबकों एक घने अंधियार में

 

है समझदारी यही, सबकों निभा सबसे निभें

जग तो मेला है जिसे उठ जाना है दिन चार में।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ राजस्थान दिवस विशेष – अपना राजस्थान निराला… ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ कविता – राजस्थान दिवस विशेष – अपना राजस्थान निराला ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

(30 मार्च राजस्थान दिवस पर विशेष)

त्याग, प्रेम सौन्दर्य,शौर्य का राजस्थान है मेरा

रंग बिरंगी संस्कृति से भीगा राज्य है मेरा।

 

कण-कण जिसकी बनी कहानी ,

बलिदानों का जहान है मेरा।

इसी धरा से जन्मे बलिदानी ,

वीरों का आंचल है मेरा।

 

सघन वन भरी धरा यहां की,

कही झरे झरनों से पानी ,

कहीं बीहड़ , शुष्क ऋतु यहां की

कहीं कंटीली धरा वीरानी ।

 

गोडावण है शान यहां की

पश्चिम के रेतीले टीले की।

ऊंट जहाज है शान यहां की

खेजड़ी वृक्ष पहचान यहां की।

 

राज्य पुष्प रोहिड़ा यहां के

इनसे सजते बाग बगीचे।

चिंकारा राज्य पशु यहां के,

देखें अभ्यारण्य में जाके।

 

लोक वाद्य यंत्रों की खन खन

भपंग दुकाको,बंशी एकतारा ,

कोई बजाए ढोलक मंजीरा

तो कोई बजाए अलगोजा चिकारा।

 

अदभुत लोक संस्कृति भी देखो,

गीत , मल्हार, चिरमी सब गाएं

तीज, गणगौर त्यौहार मनाएं

गोरी फाग बधावा गाएं।

 

 

कहीं गूंजे भजन मीरा के

तो कहीं माता की भेंट यहां पे।

घूमर नृत्य आत्मा है यहां के

सब झूमे मदमस्त लहराके।

 

दादू पंथ और रैदास यहां से

राज धरा पावन महकाके।

पीथल, भामाशाह, राणा से।

योद्धा वीर ,भक्त स्वामी यहां से।

 

 

दुर्ग-दुर्ग में शिल्प सलोना ,

दुर्गा जैसी यहां हर नारी |

हैं हर पुरुष प्रताप यहाँ का,

आजादी का परम पुजारी |

 

बांध भाखड़ा-चम्बल बांटे ,

खुशहाली का नया उजाला |

भारत की पावन धरती पर,

अपना राजस्थान निराला ।

अपना राजस्थान निराला।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दो कविताएं ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण एवं विचारणीय कविताएं – दो कविताएं)

☆ कविता ☆ कविताएं ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

☆ – एक – लिपि और कविता

जहाँ लिपि नहीं होती

वहाँ भी कविता होती है

उस भाषा की कविता से

कहीं बेहतर, कहीं अर्थपूर्ण

जिसके पास समृद्ध लिपि है

कविता लिपि से नहीं

जीवन से संभव होती है।

☆ – दो – कविता की जगह  ☆

सभ्यता में जब नहीं रहती

कविता की कोई जगह

मौत प्रवेश कर जाती है

चुपके से

सभ्यता की देह में

प्रेत की तरह।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मैं ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – मैं ??

मैं जो हूँ,

मैं जो नहीं हूँ,

इस होने और

न होने के बीच ही

मैं कहीं हूँ..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी ।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #174 ☆ गीत – सिय राम लखन अभिनंदन… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

 

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण गीत  “सिय राम लखन अभिनंदन…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 174 – साहित्य निकुंज ☆

☆ गीत – सिय राम लखन अभिनंदन… ☆

रस्ता देखूं दशरथ नंदन

सिय राम लखन अभिनंदन।

 

राम राम मैं गाता जाऊं

मन मन में मुस्काता जाऊं।

राह में तेरे फूल बिछाऊं

राह से शूल हटाता जाऊं।।

राम राम का करूं मैं वंदन

सिय राम लखन अभिनंदन।

 

दर्शन पाकर धन्य हुआ

झुककर चरणों को छुआ

अंतर्मन गदगद ही होता

रोम रोम पुलकित हुआ।

कृपा करना ही रघुनंदन।

सिय राम लखन अभिनंदन।

 

जब जब भटके मेरी नैया

प्रभु बन जाना मेरा खिवैया।

किरपा इतनी करना राम जी

रख लो मुझको अपने पैया।

राम राम माथे का चंदन।

सिय राम लखन अभिनंदन।

 

रस्ता देखूं दशरथ नंदन।

सिय राम लखन अभिनंदन।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #161 ☆ बाल गीत – “कहाँ गई नन्ही गौरैया…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर बाल गीत – “कहाँ गई नन्ही गौरैया”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 161 ☆

☆ बाल गीत – “कहाँ गई नन्ही गौरैया…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कहाँ गई नन्ही गौरैया

पूछ रहा अब मुनमुन भैया

फुदक फुदक कर घर आँगन में

बसे सदा वह सब के मन में

करती थी वो ता ता थैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

पेड़ों की हो रही कटाई

जंगल सूखे गई पुरवाई

सूख गए सब ताल-तलैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

घर में रौनक तुम से आती

चुगने दाना जब तुम आती

खुश हो जाती घर की मैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

अब हमें अफसोस है भारी

सूनी है अब घर-फुलवारी

बापिस आ जा सोन चिरैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

तुम बिन अब “संतोष”नहीं है

माना हम में दोष कहीँ है

बदलेंगे हम स्वयं रवैया

घर आ जा मेरी गौरैया

रखी है पानी की परैया

बना रखी पिंजरे की छैयां

अब घर आ मेरी गौरैया

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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