हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (66 – 70) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

सब तरूणियाँ जल में आनन्द से परसार केलि में उछाले जल कणों से।

गीली लटाओं से कुंकुम मिले हुये, जल बिन्दु टपकाती थी लाल रंग के।।66।।

 

खुले बालों, रचना रहित गालों, बिन कर्णफूलों के भी बहुत लगती थी प्यारी।

बौछार से जल की, भीगी, असंयत थी पर छबि में मोहक अधिक थीं वे नारी।।67।।

 

तभी सजी नौका से आ कुश वहाँ, पहने उलझा हुआ हार, उतरा नदी में।

जैसे कि वन गज लपेटे कमल-नाल, उतरा हो सर में कही हथनियों में।।68।।

 

कुश को पा मुक्ता सी वे रमणियाँ यों लसी अधिक शोभित कि ज्यों रोशनी हो।

मुक्ता तो वैसे ही दिखता है सुन्दर,क्या कहना कि संग में अगर नीलमणि हो।।69।।

 

विशालाक्षि बालाओं ने प्रेम से कुश को जब कुंकमी रंग के जल से भिंगाया।

दिखे कुश कुछ ऐसे कि गेरू की जल-धार से रँगा सुन्दर हिमालय सुहाया।।70।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 107 ☆ गीतिका – कहाँ लौट फिर आते दिन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं भावप्रवण गीतिका  “कहाँ लौट फिर आते दिन”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 107 ☆

☆ गीतिका – कहाँ लौट फिर आते दिन  ☆ 

सुख – दुख बीते हैं अनगिन

कहाँ लौट फिर आते दिन।।

 

उम्र बीत गई यूँ ही मित्रो

ताक धिना धिन – धिन- धिन – धिन।।

 

इच्छा और अपेक्षाओं ने

तोड़ दिया है अपना मन।।

 

अपनी धुन में रहे मस्त वह

सदा चुभाई उसने पिन।।

 

दुष्टों की कर सदा उपेक्षा

फिर ना मारेंगे ये फन।।

 

कौन है अपना कौन पराया

सबमें खिलता एक सुमन।।

 

बीता बचपन गई जवानी

उम्र बीत गई है पचपन।।

 

पेड़ लगा ले इस धरती पर

श्वासों का है यही चमन।।

 

जैसे पेड़ फलों से झुकता

मद में प्यारे कभी न तन।।

 

गर्मी लू से जब तप जाते

मन को भाते बरसें घन।।

 

अच्छा कर ले समय नहीं है

कब उड़ जाए पक्षी बन।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रतीक्षा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – प्रतीक्षा ??

अंजुरि में भरकर बूँदें

उछाल दी अंबर की ओर,

बूँदें जानती थीं

अस्तित्व का छोर,

लौट पड़ी नदी

की ओर..,

 

मुट्ठी में धरकर दाने

उछाल दिए आकाश की ओर,

दाने जानते थे

उगने का ठौर

लौट पड़े धरती की ओर..,

 

पद, धन, प्रशंसा, बाहुबल के

पंख लगाकर

उड़ा दिया मनुष्य को

ऊँचाई की ओर..,

……….,………..,

….तुम कब लौटोगे मनुज..?

© संजय भारद्वाज

श्रीविजयादशमी 2019, अपराह्न 4.27 बजे।

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ बाल कविता: जयपुर बनारस परिन्दा एक्सप्रेस ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

 ☆ बाल कविता: जयपुर बनारस परिन्दा एक्सप्रेस☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

गौरैया, तू चलना काशी

तेरे बिन है वहाँ उदासी।

जयपुर में सब उड़ती रहती

जाने किच किच गा क्या कहती?

अशोक ने है डाल सजायी,

तुझे बुलाया, छाँह बिछायी।

मीठी नीम ने धुन सुनाई,

पत्तियों की पायल बजाई।

इस डाली से उस डाली पर

पंख चलाती फुदक फुदक कर।

गौरैया क्या करती दिनभर?

ले चल मम्मी पापा के घर।

बनारस में कोई नहीं है ?

रिश्ते नाते सभी यहीं हैं ?

खाती चुन चुन कर तू दाने

और परिन्दे हैं पहचाने ?

जयपुर छोड़ बनारस आ जा

दाना दादी देगी, खा जा।

चल वहाँ भी छत की मुड़ेड़ है

आँगन में तुलसी के पेड़ है।

किस बात पर हो गई कुट्टी ?

काशी चल, जयपुर से छुट्टी !

♣ ♣ ♣ 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो:9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (56 – 60) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

सीढ़ी उतरती हुई कामनियों के केयूर, कंकण औं नूपुर की ध्वनि सुन।

जल में विहरते हुये हंस चौंके, सहसा हुये स्तब्ध सुन करके रूनझुन।।56।।

 

नौका पै बैठे हुए कुश ने देखा जलाषेक करती हर एक कामिनी को।

लख उनकी स्नान में रूचि बढ़ी, कहा कुश ने बुला एक चमरवाहिनी को।।57।।

 

दिखता है संध्या के मेघों सरीखा रंगा-विरंगा सा सरयू का पानी।

धुले अंगरागों से ऐसा गया हो, नहाती जहाँ मिलके सब साथ रानी।।58।।

 

नौका नयन से उठी हिलोरों से धुली सबके नेत्रों के काजल की काली।

बदले में सरयू के जल ने दी उनके नयनों को मदिरा के पीने की लाली।।59।।

 

नितंबों व स्तनों के भार से वे कामिनियाँ सही तैर सकती नहीं थी।

पर मोटे भुज बंधों मय भुजाओं से अथक पर विफल यत्न सबकर रही थी।।60।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#129 ☆ कविता – कितना चढ़ा उधार… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता “कितना चढ़ा उधार…”)

☆  तन्मय साहित्य  #129 ☆

☆ कविता – कितना चढ़ा उधार… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

एक अकेली नदी

उम्मीदें

इस पर टिकी हजार

नदी खुद होने लगी बीमार।

 

नहरों ने अधिकार समझ कर

आधा हिस्सा खींच लिया

स्वहित साधते उद्योगों ने

असीमित नीर उलीच लिया

दूर किनारे हुए

झाँकती रेत, बीच मँझधार।

नदी खुद…..

 

सूरज औ’ बादल ने मिलकर

सूझबूझ से भरी तिजोरी

प्यासे कंठ धरा अकुलाती

कृषकों को भी राहत कोरी

मुरझाती फसलें,

खेतों में पड़ने लगी दरार।

नदी खुद……

 

इतने हिस्से हुए नदी के

फिर भी जनहित में जिंदा है

उपकृत किए जा रही हमको

सचमुच ही हम शर्मिंदा हैं

कब उऋण होंगे

हम पर है कितना चढ़ा उधार

नदी खुद होने लगी बीमार।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 24 ☆ कविता – बुन्देली गीत – बसन्त आऔ ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक बुंदेली गीत  “बसन्त आऔ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 24 ✒️

?  कविता – बुन्देली गीत – बसन्त आऔ — डॉ. सलमा जमाल ?

बसन्त आओ बसन्त आओ,

भरकैं टुकनिया फूल लाऔ ।

खुसी मनातीं नई नवेली ,

परदेस सें संदेसो आऔ ।।

 

खेतन में है सरसों फूलो ,

अमराई पे डर गऔ झूलो ,

मंजरी चहूं दिशा मेहकाबे ,

कोयल ने पंचम सुर घोलो ,

बेला बखरी में है फूलो ,

धरती पे स्वर्ग उतर आऔ ।

बसन्त ———————- ।।

 

चारऊं ओर महकत है पवन ,

है सोभा मधुमास अनन्त ,

बखरी ओ वन में बगरो बसन्त ,

पल में महक उठे दिगदिगंत ,

सब रे पच्छी करत हैंकलरव,

गुनगुन करत जो भौंरा आऔ ।

बसन्त ———————- ।।

 

जंगल में फैली है खुसहाली ,

सुखी भऔ बगिया कौ माली,

धरा की सुन्दर छटा अनोखी ,

झूमत रस में डाली – डाली ,

लरका खेलत दै – दै ताली ,

‘सलमा ‘ पतझर खौ मौं चिढ़ाऔ।

बसन्त ———————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (51 – 55) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

अर्जुन की पीली खिली मंजरी देख लगता है जैसे धनुष रज्जु कोई हो।

कर काम को भस्म, शिव ने हि जैसे, धनुष डोर धनु की कि ज्यों तोड़ दी हो।।51।।

 

दे सुगन्धित आम्र-पल्लव, सुरा इक्षु की और पाटल के पुष्पों की माया।

लगता है जैसे कि ऋतु ग्रीष्म ने अपने दोषों को कामी जनों से छुपाया।।52।।

 

उस ग्रीष्म ऋतु में लगे दो ही प्रिय सबको, जिनकी प्रभा का सुहाना था फंदा।

एक राजा कुश अपने दुखहारी गुण से, औं दूसरा नभ में अभ्युदित चंदा।।53।।

 

तब ग्रीष्म में सुखद सरयू के जल में, जहाँ राजहंस मत्त थे केलि करते।

लता पुष्प के पुंज थे जिन तटों पै, वहाँ कुश ने चाहा-कि विहार करते।।54।।

 

जहाँ नक्र इत्यादि से जल सुरक्षित कराया गया था औं था तट सुहाना।

वहाँ सरयू जल में महाविष्णु सम कुश ने हो, रानियों साथ चाहा नहाना।।55।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆☆ संजय दृष्टि – विस्मय ☆☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – विस्मय ??

रोज निद्रा तजना,

रोज नया हो जाना,

सारा देखा-भोगा,

अतीत में समाना,

शरीर छूटने का भय,

सचमुच विस्मय है,

मनुष्य का देहकाल,

अनगिनत मृत्यु और

अनेक जीवन का

अनादि समुच्चय है..!

© संजय भारद्वाज

17 सितम्बर 2017

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (46-50)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (46 – 50) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

शैवालिनी सीढ़ियों से उतर नीचे, गृहवापी जल कमर भर रह गया

खिलते जहाँ के कमल वहाँ अब मान, डण्ठल ही सूखा खड़ा रह गया है।।46।।

 

वन में खिले मल्लिका पुष्प की गंध से खिंच कली-कली के पास जाकर।

गुंजार करता भ्रमर, गणना सी करता है दीखता मधुर रस में लुभाकर।।47।।

 

खिसक कान से कामिनी के सिरस पुष्प भी अचानक नीचे गिरने न पाता।

क्योंकि पसीने से तर दंतक्षत पर कपोलों के ही वह चिपक सहज जाता।।48।।

 

धनी-मानी जन भर के चन्दन का जल फुहारों से छिड़ककर बिताते हैं रातें।

ठंडी शिला के पलंगों पै लेटे न जब, नींद आती हो करते हैं बातें।।49।।

 

जो काम अपने सखा वसंत के बिन, निबल और निस्तेज सा हो है जाता।

वही मल्लिका पुष्प गुंफित अलकगंध पा स्नात नारी की, बल है दिखाता।।50।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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