(ई-अभिव्यक्ति में प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. रेनू सिंह जी का हार्दिक स्वागत है। आपने हिन्दी साहित्य में पी एच डी की डिग्री हासिल की है। आपका हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी और उर्दू में भी समान अधिकार है। एक प्रभावशाली रचनाकार के अतिरिक्त आप कॉरपोरेट वर्ल्ड में भी सक्रिय हैं और अनेक कंपनियों की डायरेक्टर भी हैं। आपके पति एक सेवानिवृत्त आई एफ एस अधिकारी हैं। अपनी व्यस्त दिनचर्या के बावजूद आप साहित्य सेवा में निरंतर लगी रहती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी नज़्म – “अनसुनी दास्ताँ”।)
नज़्म – अनसुनी दास्ताँ – डॉ. रेनू सिंह
न मंज़िल थी कोई, न था रास्ता,
दीन दुनिया से उसको, न था वास्ता,
उलझी – उलझी लटें, मैला सा पैरहन,
होंठ सूखे हुये मुरझाया सा तन,
चेहरा बेनूर सा, बिखरा बिखरा सा मन ,
सुबह के दीप से, टिमटिमाते नयन
कंपकंपाती हुई, बुदबुदाती हुई
लड़खड़ा के वो फिर-फिर संभलती हुई,
न जाने ,वो किस बाग़ का फूल थी,
वक़्त की आँधियों में हुई धूल थी,
वो तो टूटा हुआ ऐसा एक साज़ थी
न कोई गीत जिसमें, न आवाज़ थी,
ऐसा पंछी कि जिसकी न परवाज़ थी,
ऐसी नदिया न जिसमें कोई धार थी,
वो मुझे एक दिन राह में मिल गई
उसने देखा मुझे और ठिठक सी गई
उसकी नज़रें मेरे रूख़ पे जम सी गईं,
तीर की तरह दिल में उतर सी गईं,
उसकी नज़रों में ऐसे सवालात थे,
जवाब जिनके न कोई मेरे पास थे…
जो सुनी ना किसी ने, वो फ़रियाद थी,
जो भुला दी थी अपनों ने, वो ‘याद’ थी,
जी रही थी मगर ,घुल रही साँस थी,
उसको जीवन से फ़िर भी कोई आस थी,
पूछना था उसे, है कहाँ उसका रब?
जानना था उसे ज़िन्दगी का सबब,
वो उदासीन है उसकी हस्ती से क्यूँ?
तोलता है तराज़ू में इंसाँ को क्यूँ
एक इंसाँ को देता है महल-ओ-हरम,
दूजे को बाँट देता है सब रहने-ग़म?
भेजेगा वो मसीहा भी ऐसा कभी?
जो मिटा देगा दुनिया से दुखड़े सभी,
गीत खुशियों भरे, वो भी फिर गायेगी,
किसी मजबूर को न कभी ठुकरायेगी,
जो दिया है ज़माने ने उसको यहाँ,
किसी और के संग ना कभी दोहराएगी,
क्या वो भी कभी मुस्कुरा पाएगी?
या ब्याबाँ में यूँही दफ़्न हो जाएगी?
बैठ कर राहगुज़र में वो शाम-ओ- सहर,
पूछती थी यही बात सबसे मगर,
न पाया कभी उसने इसका जवाब,
एक हँसी बन गयी उसकी आँखों का ख़्वाब,
उन सवालों के आगे मैं भी थी ला-जवाब,
उसके आगे ठहरने की न थी मुझमें ताब,
उससे नज़रें चुरा आगे मैं बढ़ गई,
ग़ुबार उड़ता रहा वो खड़ी रह गयी,
फ़िर सवालातों में वो बुनी रह गई,
वो ठगी सी खड़ी की खड़ी रह गयी,
दर्द की दास्ताँ अनसुनी ही रह गई
दर्द की दास्ताँ अनसुनी ही रह गई..!
© डा. रेनू सिंह
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈